देश भर में सेज के खिलाफ लगातार बढ़ते विरोध और नंदीग्राम के नरसंहार के बावजूद यूपीए सरकार सेज के मुद्दे पर पैर पीछे खींचने के लिए तैयार नहीं है। उसने इसे अपनी मूंछ का सवाल बना लिया है। यही कारण है कि सेज कानून को वापस लेने की लगातार तेज होती मांग के बीच खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जोर देकर कहा कि सेज की नीति जारी रहेगी।
यह आशंका सच साबित हुई। अपै्रल के पहले सप्ताह में सेज के मुद्दे पर विचार कर रही केन्द्रीय मंत्रियों की अधिकारप्राप्त समिति ने न सिर्फ सेज की मंजूरी पर लगे स्थगन के फैसले को वापस ले लिया बल्कि 83 और सेज परियोजनाओं को औपचारिक अनुमति दे दी। इस तरह यूपीए सरकार ने अब तक 234 सेज परियोजनाओं को औपचारिक मंजूरी और 162 को सिद्धांतत: मंजूरी दे दी है जबकि 63 सेज परियोजनाएं अधिसूचित (नोटिफाइड) हो चुकी हैं। हालांकि मंत्रियों के समूह ने सेज की मौजूदा नीतियों में कुछ फेरबदल की भी घोषणाएं की हैं लेकिन इन बदलावों को लीपापोती और सेज के खिलाफ बढ़ते विरोध की धार को कमजोर करने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता है।
प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह ने सेज की मौजूदा नीतियों में किसी बुनियादी बदलाव के बजाय दो उल्लेखनीय फेरबदल किए हैं। पहला, सेज परियोजना के अधिकतम आकार को 5 हजार हेक्टेयर (12,500 एकड़) कर दिया है और दूसरे, राज्य सरकारों से कहा है कि सेज परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण उनकी जिम्मेदारी नहीं है। इस तरह सेज के लिए जमीन खरीदने की जिम्मेदारी खुद सेज डेवलपर की होगी। इसके साथ ही मंत्रियों के समूह ने यह भी कहा है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय सेज परियोजनाओं से विस्थापित होनेवाले लोगों के लिए एक विस्तृत पुनर्वास नीति तैयार करेगा जिसमें यह शामिल होगा कि हर विस्थापित परिवार से कम से कम एक व्यक्ति को सेज में नौकरी जरूरी दी जाएगी।
वाणिज्य मंत्रालय के साथ-साथ सेज के समर्थक इन घोषणाओं को सेज विरोधियों के लिए बड़ी रियायत बता रहे हैं। लेकिन यह तथ्य नहीं है। उदाहरण के लिए सेज परियोजनाओं के अधिकतम आकार की 5 हजार हेक्टेयर करने के फैसले को लीजिए। इससे कितनी सेज परियोजनाओं पर असर पड़ेगा? अब तक जिन 459 सेज परियोजनाओं को मंजूरी मिली है या अधिसूचित की गयी हैं, उनमें से सिर्फ 4 परियोजनाओं का आकार अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेयर से अधिक है। इनमें से दो सेज परियोजनाएं मुकेश अंबानी के नेतृत्ववाली रिलायंस समूह की हैं जो हरियाणा के झज्जर-गुड़गांव और मुंबई के पास रायगढ़ के पास 10 हजार हेक्टेयर से अधिक इलाके में बननी थी जबकि दो अन्य परियोजनाओं में एक डीएलएफ समूह की गुडगांव सेज (8,097 हेक्टेयर) और एक ओमैक्स की अलवर सेज (6,070 हेक्टेयर) थी।
स्पष्ट है कि इन चार सेज परियोजनाओं को छोड़कर अधिकांश सेज परियोजनाओं पर इस फेरबदल से कोई असर नहीं पड़ेगा। इससे साफ जाहिर है कि 5 हजार हेक्टेयर की सीमा का कोई खास मतलब नहीं है। यही नहीं, रिलायंस और डीएलएफ जैसे बड़े कारपोरेट समूहों ने इससे बच निकलने का चोर दरवाजा भी खोज लिया है। वे अपनी मौजूदा सेज परियोजनाओं को दो हिस्से में विभाजित करके 5 हजार हेक्टेयर की सीमा से बच निकलने की तैयारी कर रहे हैं। वाणिज्य मंत्रालय इसके लिए चोर दरवाजा खोलने की तैयारी कर रहा है।
दूसरी ओर, सेज के लिए राज्य सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण के बजाय डेवलपरों को किसानों से सीधे जमीन खरीदने का निर्देश देने का फैसला समस्या के समाधान से अधिक स्थिति को और बदतर बनाना है। इस फैसले के बाद सेज के डेवलपरों के गुर्गों और प्रापर्टी डीलरों की बन आएगी। इससे सेज के प्रस्तावित इलाकों में भूमि माफिया के पनपने का रास्ता साफ होगा। किसानों को और अधिक दबाव और गुंडागर्दी का सामना करना पड़ेगा। उन्हें मनमानी कीमत पर जमीन बेचने के लिए बाध्य किया जाएगा। स्थानीय गुंडों, नेताओं और अफसरों की तिकड़ी की मदद से किसानों पर अपनी जमीन बेचने के लिए दबाव डाला जाएगा।
इसी तरह पुनर्वास और मुआवजे के लिए एक व्यापक नीति बनाने की बात सरकार जरूर कर रही है लेकिन यह नीति पिछले एक दशक से बन रही है और अब तक एक आधिकारिक ड्रॉफ्ट तक सामने नहीं आया है। पिछले छह दशकों में जितनी परियोजनाएं बनी और उसमें जो लोग विस्थापित हुए, उनसे न जाने कितने वायदे किए गए लेकिन उनमें से शायद ही कोई वायदा पूरा किया गया हो। इसलिए सेज के मामले में भी सरकार चाहे जो वायदे कर रही हो लेकिन सेज का विरोध कर रहे किसान और मजदूर जानते हैं कि इसमें से कुछ पूरा नहीं होगा।
यही कारण है कि यूपीए सरकार द्वारा मरहम लगाने की कोशिशों के बावजूद सेज परियोजनाओं को लेकर विवाद और विरोध भी बढ़ता ही जा रहा है। कमलनाथ के उत्साह को एक ओर कर दिया जाए तो सेज के विरोधियों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही है। सेज को लेकर यूपीए सरकार की स्थिति यह हो गई है कि न उगलते बन रहा है और न निगलते। देशभर में जिस तरह से खासकर नीचे जमीन पर किसानों की ओर से सेज परियोजनाओं का विरोध बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए यह यूपीए सरकार के लिए जादुई चिराग से अधिक राजनीतिक सिरदर्द बनता जा रहा है।
सेज यानि जमीन कब्जा अभियान : किसानों की कीमत पर
दरअसल, सेज परियोजनाओं का विरोध कई कारणों से हो रहा है। इनमें सबसे प्रमुख है- भारी मात्रा में कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण। एक मोटे अनुमान के अनुसार अब तक मंजूर सेज परियोजनाओं के लिए लगभग 2,50,000 एकड़ से ज्यादा भूमि के अधिग्रहण की योजना है और इसमें से लगभग 40 से 45 फीसदी जमीन का अधिग्रहण पहले ही किया जा चुका है। कुछ सेज परियोजनाओं के लिए तो जिस तरह से अनाप-शनाप तरीके से जमीन कब्जाने की कोशिश की जा रही है, वह चौकाने वाला है। इसी कारण कई विश्लेषक सेज परियोजनाओं को 'रीयल इस्टेट घोटाला` मानते हैं।
उदाहरण के लिए हरियाणा के गुड़गांव-झज्जर में रिलायंस की बहुउत्पाद सेज परियोजना के लिए 25,000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है जबकि महाराष्ट्र में मुंबई के निकट रायगढ़ जिले में रिलायंस की ही बहुउत्पाद सेज परियोजना के लिए भी लगभग इतनी ही जमीन के अधिग्रहण की तैयारी है। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के दादरी में राज्य सरकार ने सेज के लिए अनिल अंबानी समूह को 2,500 एकड़ जमीन दे दी है। सेज के विरोधियों का सवाल है कि सेज परियोजनाओं के लिए इतनी भारी मात्रा में जमीन क्यों अधिग्रहित की जा रही है ? खुद वाणिज्य मंत्रालय के सचिव जीके पिल्लई रिलायंस परियोजना के लिए इतनी बड़ी मात्रा में जमीन अधिग्रहण से हैरान हैं। उनका कहना है कि सरकार ने रिलायंस को जरूरत से ज्यादा जमीन अधिग्रहीत नहीं करने के लिए कहा है। लेकिन रिलायंस अपने फैसले से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है।
वाणिज्य मंत्रालय का यह कहना है कि उसने राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि सेज के लिए केवल बेकार और अनुपजाऊ जमीन ली जाएं। दो फसली जमीन न ली जाए और अगर लेने की नौबत आए तो कुल सेज क्षेत्रफल के 10 प्रतिशत से अधिक जमीन दो फसली न हो। लेकिन कमलनाथ की तरह सेज को जादुई चिराग माननेवाली राज्य सरकारें व्यवहार में इस निर्देश का पालन नहीं कर रही हैं। अपने-अपने राज्यों में अधिक से अधिक सेज परियोजनाओं को आकर्षित करने के लिए राज्य सरकारों को जोर जबरदस्ती उपजाऊ और जरूरत से ज्यादा भूमि का अधिग्रहण करने में कोई संकोच नहीं हो रहा है।
एमएस स्वामीनाथन जैसे कई कृषि वैज्ञानिक और विशेषज्ञ सेज परियोजनाओं के लिए उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक खतरा मान रहे हैं। उनका कहना है कि जिस तरह से सेज परियोजनाओं की संख्या बेलगाम तरीके से बढ़ती जा रही है और उनके लिए बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहित की जा रही है, उससे खेती योग्य जमीन कम होगी और इसका सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ेगा।
सेज परियोजना की विसंगतियां : लाभ से अधिक नुकसान
दूसरी ओर, सेज परियोजनाओं के स्वरूप को लेकर भी कई सवाल उठाए जा रहे हैं। मजे की बात यह है कि खुद यूपीए सरकार के अंदर सेज के सवाल पर मतभेद खुलकर सामने आ गए है। सेज को लेकर सबसे गंभीर आपत्ति वित्त मंत्रालय की तरफ से आई है। हालांकि वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम सेज के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वे सेज की संख्या को सीमित रखने के पक्षधर है। साथ ही, वे सेज परियोजनाओं के जरिये राजस्व के नुकसान और चोरी की आंशकाओं को लेकर भी चिंतित है। दरअसल, सेज परियोजनाओं को सैद्धांतिक तौर पर 'विदेशी भूमि` मानकर हर तरह के टैक्स से मुक्त रखा गया है और देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों में उनके प्रति आकर्षण की सबसे बड़ी वजह यही है।
इसी से जुड़ी हुई एक और चिंता यह है कि सेज को जिस तरह की टैक्स रियायतें दी गई हैं, उसके कारण सेज क्षेत्र के बाहर स्थापित औद्योगिक इकाईयों पर भी खुद को सेज क्षेत्र में स्थानांतरित करने का दबाव बढ़ेगा। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के मुख्य अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इस बाबत चेतावनी देते हुए कहा है कि सेज के कारण न सिर्फ सरकार को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा बल्कि इसके कारण मौजूदा औद्योगिक इकाईयों में खुद को सेज क्षेत्र में स्थानांतरित करने का लोभ भी पनपेगा जिसकी समाज को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हालांकि वाणिज्य मंत्रालय का यह कहना है कि सेज में सिर्फ नई इकाईयों को ही लगाने की इजाजत दी जाएगी। लेकिन कारपोरेट समूहों को ऐसे नियमों का चोर दरवाजा खोलते देर नहीं लगती है।
अगर ऐसा होता है और इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता है तो इसका न सिर्फ पूरी अर्थव्यवस्था पर घातक असर होगा बल्कि सरकारी खजाने को दोहरी मार झेलनी पड़ेगी। सेज परियोजनाओं का एक और नकारात्मक असर क्षेत्रीय संतुलन और विकास पर भी पड़ता हुआ दिखायी पड़ रहा है। सेज के लिए अभी तक जो परियोजनाएं मंजूर हुईं हैं, उनमें से अधिकांश उन्ही विकसित राज्यों और बड़े शहरों के करीब हैं जो पहले से ही विकसित हैं। उदाहरण के लिए अब तक मंजूर सेज परियोजनाओं में से दो तिहाई से अधिक परियोजनाएं सिर्फ छह राज्यों- तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात में ही सिमटी हुई हैं। बिहार और उत्तर पूर्व के राज्यों में एक भी सेज परियोजना को मंजूरी नहीं मिली है जबकि झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सिर्फ एक-एक परियोजना को मंजूरी मिली है।
साफ है कि सेज परियोजनाओं के कारण क्षेत्रीय विषमता और ज्यादा गहरी होगी। इसका एक और नकारात्मक परिणाम यह दिख रहा है कि राज्य सरकारों के बीच अधिक से अधिक सेज परियोजनाओं को आकर्षित करने के लिए होड़ सी शुरू हो गई है। नतीजे में राज्य सरकारें कारपोरेट समूहों को आकर्षित करने के लिए मौजूदा रियायतों और छूटों के अलावा अपनी ओर से भी कई छूटों और रियायतों का ऐलान कर रही हैं। सेज परियोजनाओं को लुभाने के लिए राज्य सरकारें लगभग कौड़ियों के मोल पर जमीन आवंटित कर रही हैं।
हैरानी की बात यह है कि पिछले साल प्रधानमंत्री ने चंडीगढ़ में उत्तर भारत के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्हें चेताया था कि वे कारपोरेट निवेश को आकर्षित करने के लिए गैर जरूरी और प्रतियोगी टैक्स रियायतें न दें क्योंकि इससे राज्य सरकारों के खजाने और विकास पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। लेकिन सेज परियोजनाओं को लेकर जिस तरह से लूट मची हुई हैं, उसमें कोई भी मुख्यमंत्री इस सलाह पर कान नहीं दे रहा है और ध्यान दे भी क्यों जब खुद केन्द्र सरकार ने ही इस प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया है।
सेज परियोजनाओं के स्वरूप को लेकर रिजर्व बैंक अलग परेशान है। उसने राष्ट्रीयकृत और वाणिज्यिक बैंकों को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वे सेज परियोजनाओं को कर्ज देते हुए पर्याप्त सावधानी बरतें। रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे सेज को रीयल इस्टेट मानकर कर्ज दें। इससे एक नया विवाद खड़ा हो गया है और उन आरोपों को बल मिला है कि सेज परियोजनाएं वास्तव में रीयल इस्टेट परियोजनाएं हैं। इन आरोपों के पीछे कई आधार हैं। सेज परियोजनाओं के लिए जारी नए दिशा निर्देशों के मुताबिक किसी सेज परियोजना के कुल क्षेत्रफल के सिर्फ 50 प्रतिशत क्षेत्र में ही उत्पादक इकाईयां लगाना जरूरी होगा। इससे पहले यह सीमा सिर्फ 25 से 35 प्रतिशत तक थी जिसे अब बदलकर 50 प्रतिशत कर दिया गया है। लेकिन पहले से मंजूरी पाई सेज परियोजनाओं के लिए संभवत: यह नियम लागू नहीं होगा।
नियमों के मुताबिक सेज के बाकी 50 प्रतिशत क्षेत्र में सेज के डेवलपर को 'सामाजिक ढांचा` खड़ा करने की इजाजत होगी। यहां सामाजिक ढांचे से तात्पर्य यह है कि सेज के डेवलपर को स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, मनोरंजन केन्द्र, गोल्फ कोर्स, शॉपिंग माल के अलावा आवासीय फ्लैट तैयार करने की छूट होगी। सेज को लेकर यह आशंका जाहिर की जा रही है कि सेज के डेवलपर मौजूदा नियमों का फायदा उठाकर सेज क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आवासीय इकाईयां बनाएंगे और बेचेंगे। इस आशंका को इस बात से भी बल मिलता है कि रीयल इस्टेट क्षेत्र के कई बड़े नाम जैसे यूनीटेक, डीएलएफ, सहारा, रहेजा, हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्शन आदि सेज स्थापित करने की दौड़ में कूद पड़े हैं।
सेज को लेकर सवाल यही नहीं खत्म हो जाते हैं। हैरत की बात यह है कि सेज परियोजनाओं को लेकर वाणिज्य मंत्रालय और राज्य सरकारों के अति उत्साह के बावजूद इस बुनियादी सवाल पर अब भी अस्पष्टता बनी हुई है कि क्या सचमुच सेज परियोजनाओं से भारत का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में मौजूदा 0.8 प्रतिशत हिस्सा बढ़ पाएगा? इस बारे में सरकार ने अभी तक कोई स्पष्ट अध्ययन या अनुमान नहीं पेश किया है कि आगामी 10 से 20 वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत किस तरह और किन क्षेत्रों तथा उत्पादों में अपना हिस्सा बढ़ाएगा ? उसके लिए उसकी रणनीति क्या होगी ? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में दिन-पर-दिन गलाकट प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह मानना सबसे बड़ी भूल साबित होगी कि सिर्फ सेज परियोजनाओं के कारण भारत का निर्यात बढ़ जाएगा।
असल मे, सेज परियोजनाओं के मामले में चीन के जिस सफल मॉडल को पेश किया जा रहा है, उसमें एक बड़ी सच्चाई को छुपाया भी जा रहा है। अगर दुनिया भर में सेज की सफलता के कुछ मॉडल हैं तो उसकी विफलता की मिसालें भी कम नहीं हैं। यही नहीं, चीन का उदाहरण देने वाले यह भूल जाते हैं कि वहां सेज की सफलता का कारण सिर्फ टैक्स में छूट और रियायतें ही नहीं है बल्कि उसके बुनियादी कारण और हैं। यही नहीं, दुनिया भर में सेज के एक सफल मॉडल पर दर्जन भर से ज्यादा असफल मॉडल भी हैं जो मलेशिया, फिलीपिंस, ब्राजील, मैक्सिको, श्रीलंका, बांगलादेश और कोलंबियां तक फैले हुए हैं। दूर क्यों जाएं, तमाम रियायतों के बावजूद सेज के भारतीय पूर्वज निर्यात संबर्धन क्षेत्रों (ईपीजेड) का प्रदर्शन भी कोई खास उल्लेखनीय नहीं रहा है।
लेकिन सेज के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये और केन्द्र सरकार तथा मुख्यमंत्रियों के खुले समर्थन के बावजूद जमीन पर जिस तरह से सेज परियोजनाओं का विरोध तीखा होता जा रहा है, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि कमलनाथ के इस जोश का राजनीतिक खामियाजा यूपीए सरकार कहां तक उठा पाएगी ?
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