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शनिवार, नवंबर 17, 2012

सी ए जी की रिपोर्ट दोबारा पढ़िए सिब्बल साहब!

बकौल वित्त मंत्री 2 जी घोटाला एक 'मिथ' है उर्फ़ मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं
ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ गंभीर स्मृति दोष की शिकार है बल्कि वह मानती है कि आम आदमी की याददाश्त भी बहुत कमजोर है. यही कारण है कि २ जी स्पेक्ट्रम की ताजा नीलामी के ‘फेल’ हो जाने के तुरंत बाद संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने तंज और तुर्शी के साथ पूछा कि ‘कहाँ हैं कम्पट्रोलर एंड आडिटर जनरल (सी.ए.जी)?’
बताने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने भी कुछ इसी अंदाज़ में सी.ए.जी से सवाल पूछे हैं कि कहाँ गए २ जी के १,७६००० करोड़ रूपये?
वित्त मंत्री ने २ जी स्पेक्ट्रम की ताजा नीलामी में उम्मीद से कम कमाई का हवाला देते हुए २ जी घोटाले को एक मिथ घोषित कर दिया तो कपिल सिब्बल ने मीडिया से लेकर सिविल सोसायटी सब पर हल्ला बोलते हुए कहा कि सनसनी के चक्कर में टेलीकाम की सफलता की कहानी को चौपट कर दिया गया.

ऐसा लगा जैसे यू.पी.ए सरकार २ जी नीलामी की नाकामी का ही बेसब्री इंतज़ार कर रही थी. आश्चर्य नहीं कि सरकार में इसे लेकर चिंता कम और जश्न का माहौल ज्यादा दिख रहा है. कारण साफ़ है. कांग्रेस और यू.पी.ए को सी.ए.जी के खिलाफ हमला बोलने का एक और बहाना मिल गया है.

लेकिन सी.ए.जी पर यू.पी.ए सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस नेताओं के हमले का पहला शिकार तथ्य हो रहे हैं. वे २ जी घोटाले पर सी.ए.जी की रिपोर्ट से न सिर्फ आधे-अधूरे तथ्य पेश कर रहे हैं बल्कि उन्हें मनमाने तरीके से तोड़-मरोड़ कर भी पेश कर रहे हैं. इन तथ्यों पर गौर कीजिए:
·       पहली बात यह है कि सी.ए.जी ने २ जी स्पेक्ट्रम के मनमाने तरीके से आवंटन के कारण विभिन्न स्थितियों में सरकारी खजाने को नुकसान के चार अनुमान पेश किये थे. (विस्तार से यहाँ पढ़िए : http://cag.gov.in/html/reports/civil/2010-11_19PA/chap5.pdf ) सी.ए.जी की रिपोर्ट के मुताबिक, २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन में अलग-अलग आधारों पर आकलन के अनुसार क्रमश: ६७३६४ करोड़ रूपये या ६९६२६ करोड़ रूपये या  ५७६६६ करोड़ रूपये या १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान का अनुमान लगाया था. इसलिए सी.ए.जी पर केवल १,७६,६४५ करोड़ रूपये के अनुमान को लेकर सवाल पूछने के पीछे क्या मकसद है?

·       दूसरे, सी.ए.जी ने ये सभी चार अनुमान किसी कल्पना के आधार पर नहीं बल्कि ठोस और वास्तविक आधारों पर निकाले थे. उदाहरण के लिए, सी.ए.जी ने ६७३६४ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन टेलीकाम कंपनी- एस. टेल की ओर से तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा को अखिल भारतीय लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के लिए की गई पेशकश के आधार पर किया था.

·       इसी तरह ६९६२६ करोड़ और ५७६६६ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन २ जी स्पेक्ट्रम लेने में कामयाब रही कंपनी- यूनिटेक और स्वान टेलीकाम द्वारा अपने शेयर क्रमशः यूनिनार और एतिसलात को बेचने के लिए तय किये गए मूल्य के आधार किया गया था.

·       इसी तरह १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन ३ जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के आधार किया गया था. यही नहीं, सी.ए.जी ने ये चारों आकलन पेश करते हुए किसी खास एक अनुमान को ज्यादा प्राथमिकता नहीं दी थी. अलबत्ता, मीडिया में स्वाभाविक तौर पर १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान की चर्चा खूब हुई थी.

·       इसलिए संचार मंत्री का पहले का ‘जीरो नुकसान’ का दावा हो या अब १,७६,६४५ करोड़ रूपये के आकलन के भ्रामक होने का दावा- यह घोटाले की लीपापोती से ज्यादा कुछ नहीं है. आखिर वे ‘जीरो नुकसान’ की ‘थियरी’ को छोड़कर बताएँगे कि इस तरह के मामलों में नुकसान के आकलन का सही तरीका क्या है? सी.ए.जी ने कहाँ और कैसे गलत आकलन किया?

यही नहीं, वित्त मंत्री का यह दावा भी तथ्यों और सच्चाई के आगे कहीं नहीं ठहरता है कि २ जी घोटाला एक मिथ है. अच्छा होता कि खुद वित्त मंत्री एक बार फिर से सी ए जी की रिपोर्ट खासकर उसका निष्कर्ष पढ़ लेते तो उन्हें पता चल जाता कि यह क्यों मिथ नहीं बल्कि भारी घोटाला है. उनका सुविधा के लिए उस रिपोर्ट के निष्कर्ष के तीन पृष्ठ का लिंक यह रहा: http://cag.gov.in/html/reports/civil/2010-11_19PA/chap6.pdf    

वैसे तुलसीदास कह गए हैं, ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं !’ वित्त मंत्री जी, अगर २ जी घोटाला नहीं तो क्या था कि तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा जेल चले गए? वे ही क्यों, संसद कनिमोजी से लेकर कारपोरेट समूहों के मालिक, अफसर और सरकारी अफसर जेल क्यों गए? क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गलत फैसला किया? क्या सी.बी.आई की चार्जशीट गलत है?

ऐसे एक नहीं दर्जनों सवाल और तथ्य हैं जो साबित करते हैं कि २ जी के आवंटन की न सिर्फ नीति गलत थी बल्कि उसमें खूब मनमानी और धांधली हुई. सच पूछिए तो इस मामले को यू.पी.ए सरकार जितना ही दबाने, तोड़ने-मरोड़ने और छुपाने की कोशिश कर रही है, वह उतनी ही बेपर्दा होती जा रही है.         

गुरुवार, नवंबर 01, 2012

कारपोरेट पूंजी की चाकर बन गई राजनीति को जनसंघर्षों के जरिये मुक्त कराना जरूरी

गरीबों की जरूरतों और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अर्थनीति का राजनीति के मातहत होना जरूरी है
तीसरी और आखिरी क़िस्त  
इसकी वजह किसी से छुपी नहीं है. आर्थिक सुधार के इन वर्षों में कृषि को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. किसानों को न सिर्फ खाद, बिजली और बीज आदि की बढ़ी कीमतें चुकानी पड़ी, उन्हें उनकी उपज का उचित और लाभकारी मूल्य नहीं मिला बल्कि उन्हें डब्ल्यू.टी.ओ के बाद बाजार में सस्ते विदेशी कृषि उत्पादों से मुकाबला करना पड़ा.
इसका सबसे बुरा प्रभाव नगदी फसलों के किसानों पर पड़ा है. यही नहीं, आर्थिक सुधारों के तहत सब्सिडी कटौती के कारण कृषि में सरकारी निवेश घटा और उसके कारण कृषि की उत्पादकता वृद्धि में भी गिरावट आ रही है. आश्चर्य नहीं कि जिन वर्षों में जी.डी.पी की वृद्धि दर औसतन ८ फीसदी के आसपास थी, उन वर्षों में भी कृषि की वृद्धि दर औसतन मात्र २ फीसदी के आसपास थी.
नतीजा यह कि जी.डी.पी में कृषि का योगदान घटते-घटते १४.८ फीसदी से भी कम रह गया है जबकि कृषि पर अब भी देश की ५४ फीसदी आबादी निर्भर है. इसका अर्थ यह हुआ कि देश में जी.डी.पी के रूप में पैदा होनेवाली कुल समृद्धि में सिर्फ १४.८ फीसदी हिस्सा ही कृषि क्षेत्र में आता है लेकिन उसपर देश की कुल ५४ फीसदी से अधिक लोगों की आजीविका निर्भर है.

इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र की स्थिति कितनी बद से बदतर होती जा रही है. उसपर एक तो करेला, उसपर नीम चढ़े की तरह पिछले कुछ वर्षों में किसानों से विकास के नामपर उद्योग, सेज, हाईवे, बिजलीघर, रीयल इस्टेट आदि बनाने के लिए ८० लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन जबरदस्ती ली गई है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि यह कोलंबस के बाद दुनिया में जमीन की सबसे बड़ी लूट है.

लेकिन यह लूट सिर्फ जमीन तक सीमित नहीं है. सच यह है कि आर्थिक सुधारों के नामपर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की आड़ में खुले बाजार को जिस तरह से आगे बढ़ाया गया है, उसमें ‘जल-जंगल-जमीन से लेकर प्राकृतिक संसाधनों’ की कारपोरेट लूट ने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं.
असल में, देश में डालर अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या यूँ ही नहीं बढ़ रही है. यह कोई जादू नहीं है. यह वास्तव में आर्थिक सुधारों से ज्यादा आर्थिक सुधारों के नामपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को दी जा रही रियायतें, छूट और सार्वजनिक प्राकृतिक संसाधनों के बेलगाम हस्तान्तरण के कारण संभव हुआ है. अकेले २-जी और कोयला आवंटन में कोई ३.६२ लाख करोड़ रूपयों से अधिक की सार्वजनिक संपत्ति बड़ी कंपनियों और नेताओं के रिश्तेदारों/करीबियों को बाँट दी गई.
हैरानी की बात नहीं है कि आर्थिक सुधारों के नामपर यह कहते हुए कि पैसे पेड पर नहीं उगते, सब्सिडी कटौती का सारा बोझ आम आदमी और गरीबों पर डाला जा रहा है, उस समय देश के कार्पोरेट्स, बड़े निवेशकों, अमीरों, उच्च मध्य और मध्य वर्ग को टैक्स छूटों, रियायतों और कटौतियों के जरिये सालाना कोई ५.१५ लाख करोड़ से अधिक की सब्सिडी दी जा रही है.

तर्क यह दिया जाता है कि यह देश के ‘तेज विकास’ के लिए जरूरी है. लेकिन इस ‘तेज विकास’ का हाल यह है कि यह ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाब्लेस ग्रोथ) है. खुद सरकारी रिपोर्टें कह रही है हैं कि देश में तेज जी.डी.पी वृद्धि दर के बावजूद रोजगार वृद्धि की दर बहुत मामूली या नगण्य है. संगठित क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है.

नए रोजगार के अवसर असंगठित क्षेत्र में पैदा हुए हैं जहाँ वेतन-सेवाशर्तों आदि के मामले में श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. ठेका और अस्थाई श्रमिकों की तादाद बढ़ी है और उन्हें जिन बदतर स्थितियों में काम करना पड़ता है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

च पूछिए तो आज नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की असलियत खुल चुकी है. खासकर देश के करोड़ों गरीबों, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों और अल्पसंख्यकों ने अपने कड़वे अनुभवों से जान लिया है कि आर्थिक सुधारों की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है लेकिन इसकी मलाई मुट्ठी भर अमीर-अभिजात्य लोग उड़ा रहे हैं.
यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में देश के हर कोने में किसान, आदिवासी, दलित और गरीब ‘जल-जंगल-जमीन और खनिजों’ की लूट के खिलाफ डटकर खड़ा हो गया है. किसान और आदिवासी किसी भी नए प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने को तैयार नहीं हैं और वे लड़ने और मरने-मारने पर उतारू हैं. श्रमिकों की बेचैनी फूटने लगी है. मारुति में श्रमिकों का आंदोलन अपवाद नहीं है.
और तो और आर्थिक सुधारों का मुखर समर्थक रहा मध्य और निम्न मध्य वर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा अब इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करने लगा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन इस प्रवृत्ति की एक मिसाल है.

यही नहीं, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के मुद्दे पर जिस तरह से मध्यवर्गीय व्यापारियों का एक बड़ा हिस्सा सड़कों पर उतर आया है, उससे साफ़ हो गया है कि देश में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है. इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहे जितने दावे करें लेकिन सच्चाई पर पर्दा डालना अब संभव नहीं रह गया है.                                 

इस अर्थ में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को चुनौती मिलने लगी है. लेकिन उसे मुकम्मल चुनौती देने के लिए जरूरी है कि अर्थनीति को राजनीति के मातहत लाने की वैकल्पिक राजनीति को आगे बढ़ाया जाए.
आखिर राजनीति क्या है? राजनीति और कुछ नहीं बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है. लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के जो समर्थक अर्थनीति को राजनीति से अलग रखने की मांग करते हैं, वे असल में, उसे आम लोगों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग रखने की मांग करते हैं.
लेकिन आम लोगों खासकर इस देश के बहुसंख्यक गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की जरूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अर्थनीति का राजनीति के मातहत होना जरूरी है.
लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कारपोरेट और बड़ी आवारा पूंजी की चाकर बन गई राजनीति को जनसंघर्षों के जरिये उनके कब्जे से मुक्त कराया जाए और उसे फिर से गरीबों की आवाज़ बनाया जाए. साफ़ है कि वैकल्पिक और जनोन्मुखी अर्थनीति के लिए वैकल्पिक राजनीति जरूरी है. यह भी तय है कि वह वैकल्पिक राजनीति जनसंघर्षों से ही निकलेगी.

(लखनऊ से प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के नवम्बर अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी क़िस्त)   

बुधवार, अक्टूबर 31, 2012

कार्पोरेट्स के इशारे पर चल रही हैं सरकारें

सरकार, नौकरशाही और संसद में कार्पोरेट्स से सीधे और परोक्ष रूप से जुड़े मंत्रियों, अफसरों और सांसदों की संख्या बढ़ रही है  
 
दूसरी क़िस्त 
आश्चर्य नहीं कि संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यही नहीं, आज राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो सीधे-सीधे किसी न किसी बड़े कारपोरेट समूह के मुखिया हैं या उसके प्रमुख अधिकारी रहे हैं या सीधे तौर पर जुड़े रहे हैं. बात यहीं नहीं खत्म नहीं होती.
राजनीति पर बड़ी पूंजी का नियंत्रण किस हद तक बढ़ गया है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सरकार में अपने समर्थक मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति के लिए कारपोरेट समूह जमकर लाबीइंग कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें देशी-विदेशी कारपोरेट समूह केन्द्र और राज्यों में अपनी पसंद के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें अनुकूल मंत्रालय दिलवाने में कामयाब हुए हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में सरकार चाहे किसी भी पार्टी या गठबंधन की रही हो लेकिन इन कारपोरेट समूहों के समर्थक मंत्रियों और अफसरों की तादाद बढ़ती ही गई है. आश्चर्य नहीं कि राजनीति को आज देश में ८० फीसदी गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की चिंता नहीं रह गई है. वह अमीरों और बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने और उनकी रक्षा में जुटी हुई है.

यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के जरिये २२ लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़ रूपये की छूट दी गई है.
लेकिन जब भी गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा और उन्हें भोजन का अधिकार देने की बात होती है, राजनीति और बड़ी पूंजी को सब्सिडी और वित्तीय घाटे की चिंता सताने लगती है. हालांकि इसमें सिर्फ ७५ हजार से अधिकतम एक लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है लेकिन हंगामा ऐसा होता है कि जैसे पूरा खजाना लुट रहा हो.
साफ है कि राजनीति और राजनेता अब गाँधी जी की वह जंत्री भूल चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कोई भी फैसला करने से पहले यह जरूर सोचो कि उससे सबसे गरीब भारतीय की आंख के आंसू पोंछने में कितनी मदद मिलेगी.’ कारण यह कि खुद राजनीति की आंख का पानी सूख चुका है और उसने बड़ी पूंजी नियंत्रित अर्थतंत्र के आगे घुटने टेक दिए हैं.
यह सही है कि इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास यानी जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेजी आई है और वह औसतन ७ से ८ फीसदी के बीच रही है. यह भी सही है कि इसके साथ भारी आर्थिक समृद्धि आई है.

लेकिन इनसे ज्यादा बड़ा सच यह है कि इस आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों, बड़े निवेशकों, टाप मैनेजरों, अमीरों, शहरी मध्य और उच्च मध्यवर्ग और ग्रामीण कुलकों के अलावा नेताओं-अफसरों-दलालों-माफियाओं-ठेकेदारों की जेब में गया है.

हालाँकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी के ३ से ५ फीसदी भी नहीं होगी लेकिन उनके घरों, रहन-सहन और जीवनशैली में जो समृद्धि और तड़क-भड़क आई है, वह अभूतपूर्व है. उनमें और दुनिया के सबसे विकसित देशों के अमीरों की जीवनशैली और उपभोग में कोई खास फर्क नहीं है.

लेकिन दूसरी ओर देश की बड़ी आबादी खासकर छोटे-मंझोले और भूमिहीन किसानों असंगठित श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों, अल्पसंख्यकों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि उल्टे उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इसके कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई और तेजी से बढ़ी है और आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी कई गुना बढ़ गई है. सरकारी संगठन- एन.एस.एस.ओ के ६६ वें दौर (२००९-१०) के सर्वेक्षण के मुताबिक, अकेले यू.पी.ए- एक के कार्यकाल (२००४-२००९) में शहरी और ग्रामीण परिवारों के उपभोग व्यय में अंतर ९१ फीसदी तक पहुँच गया है.
उल्लेखनीय है कि इन वर्षों में जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर ८.६४ प्रतिशत रही जोकि एक रिकार्ड है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने मनरेगा जैसी योजनाएं भी शुरू कीं, इसके बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है.

यही नहीं, एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण (२०११-१२) के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मामले में उपरी १० फीसदी और निचली १० फीसदी आबादी के बीच की कमाई में वृद्धि का अनुपात बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरों में इस अंतर का अनुपात बढ़कर १० से अधिक हो गया है.

इस बढ़ती गैर बराबरी का अंदाज़ा यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट से भी होता है जिसके अनुसार, देश में ७८ फीसदी आबादी २० रूपये से कम के उपभोग पर गुजारे के लिए मजबूर है.

यही नहीं, पिछले साल अक्टूबर में जब योजना आयोग ने ग्रामीण इलाके में २६ रूपये और शहरी इलाके में ३२ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया था तो देश में भारी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इस साल दाखिल संशोधित हलफनामे में योजना आयोग ने इसे और घटाकर ग्रामीण इलाके में २२.४२ रूपये और शहरी इलाके में २८.३५ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह गरीबी रेखा नहीं बल्कि भूखमरी रेखा है. साफ़ है कि आंकड़ों में गरीबी घटाई जा रही है लेकिन सच्चाई यह है कि इन दो दशकों में आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबों की वास्तविक संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है.  
दूसरी ओर, देश में आबादी एक छोटे से हिस्से के पास आई समृद्धि ने भी सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका के मुताबिक, देश में डालर अरबपतियों की संख्या ५५ तक पहुँच चुकी है. डालर अरबपतियों की कुल संख्या के मामले में भारत दुनिया के तमाम देशों में अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथे स्थान पर है.

यही नहीं, केपजेमिनी और रायल बैंक आफ कनाडा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में डालर लखपतियों (दस लाख डालर या ५.६ करोड़ रूपये से अधिक संपत्ति) की संख्या पिछले साल १.२५ लाख थी. हालाँकि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है क्योंकि यह शेयर बाजार और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर है लेकिन इसके बावजूद डालर लखपतियों के मामले में भारत दुनिया के टाप देशों की सूची में है.

हैरानी की बात नहीं है कि देश के एक छोटे से हिस्से के उपभोग का स्तर दुनिया के टाप अमीरों से मुकाबला कर रहा है. यही कारण है कि दुनिया भर के सभी टाप लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद देश के बड़े शहरों के शापिंग माल्स में उपलब्ध हैं. उनके लिए अब लन्दन, पेरिस या न्यूयार्क जाने की जरूरत नहीं है. बड़े शहरों की सड़कों पर दौड़ रही नई और मंहगी कारों और एस.यू.वी को देखकर यह कहना मुश्किल है कि भारत एक विकासशील देश है जहाँ एक तिहाई आबादी को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है.
लेकिन भारतीय अरबपतियों और अमीरों का उपभोग अश्लीलता की हदें भी पार करता जा रहा है. डालर अरबपतियों में से एक मुकेश अम्बानी ने मुंबई में एक अरब डालर यानी ५४०० करोड़ रूपये का २७ मंजिला घर बनवाया है. यही नहीं, उन्होंने अपनी पत्नी को २५० करोड़ रूपये का निजी हवाई जहाज उपहार में दिया जबकि छोटे भाई अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी टीना अम्बानी को ४०० करोड़ रूपये की लक्जरी नौका उपहार में दी है.
विजय माल्या के किस्से सबको पता हैं. जाहिर हैं कि ये अपवाद नहीं हैं. ऐसे अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है. लेकिन दूसरी ओर ऐसे भारतीयों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जिनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं. एक तिहाई से अधिक भारतीय भूखमरी के शिकार हैं. पांच वर्ष से कम उम्र के ४१ फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जिसका मतलब है कि वे कभी भी स्वस्थ-कामकाजी जीवन नहीं जी पायेंगे. मातृ मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का रिकार्ड कई पडोसी देशों से भी बदतर है.

आश्चर्य नहीं कि तेज विकास दर और समृद्धि की बरसात के बावजूद भारत वर्ष २०११ में मानव विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में दुनिया के १८७ देशों में १३४ वें स्थान पर था जबकि उसके पहले २०१० में भारत १६९ देशों की सूची में ११९ वें स्थान पर था.

इस मायने में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने भारत को सचमुच दो हिस्सों – इंडिया और भारत में बाँट दिया है. आर्थिक सुधारों का असली फायदा इंडिया और उसके मुट्ठी भर अमीरों, उच्च और मध्य वर्ग को मिला है जबकि इस ‘इंडिया’ के बेलगाम उपभोग की असली कीमत ८० फीसदी भारतीयों और देश के जल-जंगल-जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को चुकानी पड़ रही है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दो दशकों में जब देश “तेजी से तरक्की कर रहा था”, वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ के मुताबिक, सोलह वर्षों (१९९५-२०१०) में कोई २.५ लाख से ज्यादा किसान बढ़ते कृषि संकट के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हुए. खासकर २००२ से २००६ के बीच औसतन हर साल १७५०० किसानों ने आत्महत्या की है.
जारी.....

सोमवार, अक्टूबर 29, 2012

कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है भारतीय जनतंत्र

राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी होती जा रही है
दूसरी क़िस्त

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ उठा यह तूफ़ान एक बार फिर यूँ ही गुजर जाएगा और जल्दी ही कारबार पहले की तरह चलने लगेगा? निश्चय ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जिस तरह का माहौल बना है और लोग सड़कों पर उतरकर विरोध कर रहे हैं, उससे एक उम्मीद बनी है.
लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है. भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं/मंत्रियों के घोटालों के खिलाफ पहले १९७७ और बाद में १९८९ में भी इसी तरह का माहौल बना था और उसके कारण दोनों ही बार सत्तारूढ़ कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. लेकिन अफसोस की बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन दोनों ‘क्रांतियों’ से बनी संभावनाओं और उम्मीदों का गर्भपात होने में ज्यादा देर नहीं लगी. यही नहीं, उन दोनों ‘क्रांतियों’ के कई नायक बाद में भ्रष्टाचार में लिथड़े पाए गए.
इसलिए इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अघोषित और षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी के टूटने, शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार के अनेकों मामलों के भंडाफोड, घोटालों के हम्माम में सत्ता पक्ष और विपक्ष के नंगे पकड़े जाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी गुस्से और विरोध के बावजूद इस ‘क्रांति’ का हश्र भी पहले से अलग नहीं होने जा रहा है.

हालाँकि इस बार यह त्रासदी कम और प्रहसन ज्यादा होगी. इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और खासकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसे संगठनों की होगी क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई में न सिर्फ वैचारिक-राजनीतिक स्पष्टता और समझदारी की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है बल्कि उसके अंतर्विरोध, सीमाएं और भटकाव भी सामने आने लगे हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम के निशाने पर कुछ व्यक्ति (खासकर नेता/मंत्री) हैं और सारा जोर उन्हें पकड़ने और सजा दिलवाने की व्यवस्था बनवाने (लोकपाल) पर है. गोया सारे भ्रष्ट नेताओं को पकड़ लेने से भ्रष्टाचार की सांस्थानिक और व्यवस्थागत चुनौती खत्म हो जाएगी.
लेकिन वे भूल रहे हैं कि भ्रष्टाचार के ऐसे रावण मरते और जिन्दा होते रहेंगे क्योंकि इस रावण के प्राण उसकी उस नाभि में हैं जिसे अंदर से सड़ चुकी मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से प्राणवायु मिल रही है.
लेकिन क्या यह सिर्फ संयोग है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेताओं की आवाज़ सार्वजनिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट पर मद्धिम पड़ जाती है? यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण के नाम पर बाकायदा कानूनी तरीके से जिस तरह से पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा रही है, उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने के लिए हर तरह की छूट और रियायतें दी जा रही हैं और जनहित को किनारे करके बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं, उस नीतिगत भ्रष्टाचार को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

आखिर इसे नीतिगत भ्रष्टाचार क्यों न माना जाए, जब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में आकर सरकार कंपनियों की टैक्स चोरी पर अंकुश लगाने के लिए लाये गए गार नियमों को टाल देती है?

इसी तरह इस तथ्य को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि किंगफिशर एयरलाइंस और उसके मालिक विजय माल्या के मनमाने-बेतुके फैसलों और अश्लील फिजूलखर्ची के बावजूद सरकार आँखें मूंदें रही, सरकारी बैंक हजारों करोड़ का कर्ज देते रहे और एयरलाइन डूबती रही? क्या यह कारपोरेट-राजनेता-अफसर गठजोड़ की मिलीभगत के बिना संभव है?
यह अकेला उदाहरण नहीं है. भ्रष्टाचार और घोटालों के हालिया सभी बड़े मामलों में नियमों को तोड़ने-मरोड़ने में नेताओं-मंत्रियों-अफसरों के साथ-साथ बड़ी कम्पनियाँ भी शामिल रही हैं. आखिर भ्रष्टाचार के सभी बड़े मामलों में मांग पक्ष (नेताओं/मंत्रियों/अफसरों) के साथ आपूर्ति पक्ष (कंपनियों/ठेकेदारों) की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
सच यह है कि बड़े कार्पोरेट्स और उनकी पूंजी की बढ़ती ताकत के आगे पूरी राजनीतिक व्यवस्था ने घुटने टेक दिए हैं. सरकारें चाहे जिस रंग और झंडे की हों, वे उनके निर्देश पर चल रही हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स की अपने हितों के मुताबिक महत्वपूर्ण आर्थिक मंत्रालयों में मंत्री बनवाने और अनुकूल अफसरों की तैनाती करवाने से लेकर नीति निर्माण की प्रक्रिया तक में सीधी घुसपैठ हो चुकी है.

यहाँ तक कि राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी सी होती जा रही है. कहना मुश्किल होता जा रहा है कि कौन कारोबारी है और कौन राजनेता? सच पूछिए तो नितिन गडकरी कोई अपवाद नहीं हैं और न ही राबर्ट वाड्रा-डी.एल.एफ सौदे से हैरान होने की जरूरत है.

सच यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कारपोरेट जगत और राजनीति में आश्चर्यजनक रूप से तरक्की करने और छलांग लगानेवाली अधिकांश कंपनियों और नेताओं की सतह से थोड़ा नीच खुरचिये तो आप पायेंगे कि दोनों एक-दूसरे में निवेश करके आगे बढ़े हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि आज भारतीय संसद में करोड़पतियों की संख्या नए रिकार्ड बना रही है. २००९ के आम चुनावों के नतीजों के आधार पर पत्रकार पी. साईंनाथ ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर आप सुपर अमीर यानी पांच करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति के मालिक हैं तो संसदीय चुनावों में दस लाख रूपये से कम की संपत्ति वाले प्रत्याशी की तुलना में आपकी सफलता की सम्भावना ७५ गुना बढ़ जाती है.
साफ़ है कि भारतीय जनतंत्र कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है. क्या अब भी दोहराने की जरूरत रह जाती है कि भ्रष्टाचार और घोटालों की जड़ें कहाँ हैं और उसके लिए सिर्फ नेता ही नहीं बल्कि नीतियां भी उतनी ही जिम्मेदार हैं?

फिर यह मुद्दा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एजेंडे पर क्यों नहीं है? क्या देश एक बार फिर आधी-अधूरी क्रांति का गवाह बनने जा रहा है?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 27 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

शनिवार, अक्टूबर 27, 2012

राजनीतिक व्यवस्था की बढ़ती सड़न का नतीजा है गडकरी परिघटना और यह अपवाद नहीं हैं

कार्पोरेट नियंत्रित धनतंत्र में हैं भ्रष्टाचार की जड़ें 

पहली क़िस्त
देश हैरान और स्तब्ध है. जिस तरह से लगभग हर दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के शीर्ष पर बैठे मंत्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार और घोटालों के नए-नए मामले सामने आ रहे हैं और भ्रष्टाचार और घोटालों के मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच का फर्क खत्म होता दिख रहा है, उससे अचानक इन आरोपों में सच्चाई दिखने लगी है कि भ्रष्टाचार के हम्माम में सभी नंगे हैं.
ऐसा लगता है कि जैसे भ्रष्टाचार की बंद नाली का मुंह खुल गया हो और उससे निकलते कीचड़ की बाढ़ में सत्ता की राजनीति करनेवाला समूचा राजनीतिक वर्ग गले तक डूबा हुआ दिख रहा है. भ्रष्टाचार और घोटालों की कालिख के छींटों से शायद ही कोई अपवाद बचा हो.
सच पूछिए तो हालात कुछ हैं, जैसे शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ में मार्सेल्स कहता है कि ‘डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ सा गया है’, उसी तर्ज पर लगता है कि ‘भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था में कुछ नहीं, बहुत कुछ सड़ गया है’ और उसकी दुर्गन्ध से पूरे सार्वजनिक और राजनीतिक परिदृश्य में दमघोंटू सा माहौल बनता जा रहा है.

इस पूरे परिदृश्य में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों का बहरा कर देनेवाला शोर-शराबा है, एक-दूसरे को नंगा करने और बताने की होड़ है और इस प्रक्रिया में शायद पहली बार भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था को कैंसर की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार की जड़ों के इतनी गहराई और दूर तक फैले होने की सच्चाई से पर्दा हटता हुआ दिख रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश भर में आर.टी.आई और विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ताओं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारियों, अदालतों, सी.ए.जी-लोकायुक्त जैसी कुछ सजग एजेंसियों और एक हद तक समाचार माध्यमों की सक्रियता के कारण भ्रष्टाचार की इस सर्वव्यापकता और खासकर शीर्ष नेताओं के भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले रखने के लिए मुख्यधारा के सभी सत्ताधारी दलों और विपक्ष के बीच बने अघोषित से समझौते को करारा झटका लगा है.
भ्रष्टाचार खासकर सत्ता के शीर्ष के भ्रष्टाचार पर ऊँगली न उठाने और उसे दबाए-छुपाये रखने के लिए बनी सत्ता और विपक्ष की सहमति और उसे लेकर सार्वजनिक जीवन में बरती जानेवाली षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट सी गई है.
इसके कारण सत्ता और विपक्ष दोनों की बिलबिलाहट, बेचैनी और घबड़ाहट देखने लायक है. कांग्रेस और भाजपा से लेकर एन.सी.पी-राजद-सपा और दूसरे सभी सत्ताधारी-विपक्षी दलों को यह अहसास होने लगा है कि भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में वे सभी एक साथ डूब रहे हैं. नतीजा यह कि सभी एक-दूसरे को समझाने, चेताने और बचाने के लिए आगे आने लगे हैं.

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा नेताओं को चुप रहने का संकेत देते हुए कहा कि उनके पास भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के दामाद-बेटियों-बेटों के गडबड घोटालों के सबूत हैं लेकिन वे उनका खुलासा इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक दलों के नेताओं के बेटे-बेटियों और सगे-सम्बन्धियों को निशाना नहीं बनाती है.

कांग्रेस की राजनीतिक नैतिकता और मर्यादा के इस नए पाठ के बीच भाजपा महासचिव अरुण जेटली ने अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी के विशाल कारोबार का बचाव यह करते हुए किया है कि आखिर नेताओं को भी अपना परिवार और जीवन चलाना है.
खुद गडकरी का दावा रहा है कि वे कोई आम कारोबारी नहीं हैं बल्कि ‘सामाजिक उद्यमी’ हैं और उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि महाराष्ट्र के किसानों, गरीबों और बेरोजगारों के लिए चीनी मिल और बिजलीघर आदि लगाये हैं. अब पता चल रहा है कि उनके ‘सामाजिक उद्यमों’ के निवेशकों में ज्यादातर वे ठेकेदार और बिल्डर हैं जिन्हें उनके महाराष्ट्र का लोक निर्माण मंत्री रहते हुए ठेके मिले थे.
यही नहीं, गडकरी की ‘सामाजिक उद्यमिता’ का सबूत यह भी है कि उनकी कंपनी में निवेश करनेवाली कई कम्पनियाँ मुंबई की झुग्गियों से चलती हैं और उनके ड्राइवर से लेकर पी.ए तक कंपनी के निदेशकों में हैं! याद रखिये कि ये वही गडकरी हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में फंसे कर्नाटक के अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का यह कहते हुए बचाव किया था कि उनके फैसले अनैतिक हो सकते हैं लेकिन वे गलत या गैर-कानूनी नहीं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि खुद को सबसे अलग बतानेवाली (पार्टी विथ डिफ़रेंस) के अध्यक्ष ही नैतिक और अवैध होने के बीच इतनी साफ़ रेखा खींच सकते हैं. आश्चर्य नहीं कि उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बसपा से निकले गए और एन.आर.एच.एम घोटाले के प्रमुख आरोपी बाबू सिंह कुशवाहा को ससम्मान पार्टी में शामिल कराया.

निश्चय ही, कांग्रेस से लेकर भाजपा तक और तीसरे मोर्चे के तमाम दलों तक सभी जिस तरह से भ्रष्टाचार और घोटालों के संगीन आरोपों से घिरे हैं, उसके कारण राष्ट्रीय राजनीति और राज्य व्यवस्था की साख गहरे संकट में है. उसकी राजनीतिक वैधता सवालों के घेरे में है.
इस संकट का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू.पी.ए सरकार भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनियों में सामने आई अनियमितताओं और गडबडियों की स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. आखिर कांग्रेस किस मुंह से स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग कर सकती है जबकि खुद अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा से लेकर कई मंत्रियों और नेताओं पर भ्रष्टाचार, घोटाले या अनियमितताओं के गंभीर आरोप हैं.
दूसरी ओर, गडकरी के मामले के सामने आने के बाद से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नाटक कर रही भाजपा के सुर भी मद्धिम पड़ने भी लगे हैं क्योंकि उसकी अपनी पूंछ दबी हुई है. मजे की बात यह है कि सार्वजनिक तौर पर दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे के भ्रष्टाचार की जांच की मांग कर रही हैं, इसके बावजूद आपसी अघोषित सहमति का आलम यह है कि अब तक किसी स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच की घोषणा नहीं हुई.

इन दोनों पार्टियों के अलावा बाकी सभी क्षेत्रीय पार्टियों की तो जैसे आवाज़ ही चली गई है. सब खामोशी से तमाशा देखने में लगी हैं और तूफ़ान गुजरने का इंतज़ार कर रही हैं....

जारी .....

('जनसत्ता' के 27 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित सम्पादकीय आलेख की पहली क़िस्त) 

बुधवार, मार्च 28, 2012

मध्यावधि चुनावों की आहट

कमजोर होती कांग्रेस के कारण यू.पी.ए में बेचैनी और क्षेत्रीय क्षत्रपों की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं 

२०१४ के आम चुनावों से पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को ‘सत्ता का सेमीफाइनल’ माना जा रहा था. आश्चर्य नहीं कि इन चुनावों में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने पूरी ताकत झोंक दी थी. खासकर उत्तर प्रदेश इस राजनीतिक जंग का मैदान बन गया था.

लेकिन मजा देखिए कि इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के कारण मध्यावधि चुनावों की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है. माना जा रहा है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति के कारण न सिर्फ यू.पी.ए के घटक दलों में बेचैनी है बल्कि कांग्रेस विरोधी दलों में मौके का फायदा उठाने की जल्दी भी दिखाई देने लगी है.

हैरानी की बात नहीं है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों के बीच नए तालमेल और गठबंधनों की सुगबुगाहट जोर पकड़ने लगी है. यू.पी.ए के अंदर और बाहर तृणमूल कांग्रेस (ममता बैनर्जी), जयललिता (अन्नाद्रमुक), मुलायम सिंह यादव (सपा), नवीन पटनायक (बी.जे.डी) और नीतिश कुमार (जे.डी-यू) जैसे क्षेत्रीय नेता और पार्टियां इस मौके का फायदा उठाने के लिए जल्दी चुनाव चाहती हैं.

हालांकि भारतीय जनता पार्टी खुद भी कमजोर स्थिति में है और इन चुनावों और खासकर उत्तर प्रदेश में अपनी पतली हालत के मद्देनजर वह भी तुरंत चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है.

लेकिन इस साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन के मुताबिक भाजपा भी चुनाव के लिए तत्पर हो सकती है. निश्चित ही, भाजपा कुछ महीने और इंतज़ार करना चाहती है लेकिन एन.डी.ए के घटक दलों जैसे अकाली दल, जे.डी.-यू और शिव सेना के दबाव में वह जल्दी चुनाव के लिए भी तैयार हो सकती है.

भाजपा इसलिए भी चुनाव के पक्ष में तैयार हो सकती है कि वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तीसरे या चौथे मोर्चे के गठन को रोकना चाहेगी. साथ ही, उसे यह भी लग रहा है कि राज्य विधानसभा चुनावों के विपरीत राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस विरोधी माहौल का सबसे अधिक फायदा उसे ही मिल सकता है.

हालांकि कांग्रेस और दूसरी कई पार्टियां तुरंत चुनाव टालना चाहती है और ताजा विधानसभा चुनावों के झटके से उबरने के लिए समय चाहती है लेकिन यह भी सच है कि यू.पी.ए सरकार के लिए आने वाले महीने राजनीतिक रूप से बहुत मुश्किल होनेवाले हैं.

विधानसभा चुनावों में जिस तरह कांग्रेस की हार हुई है और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के खिलाफ लोक लुभावना राजनीति को समर्थन मिला है, उसके कारण यह तय माना जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार के लिए अब इन विवादस्पद आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाना संभव नहीं होगा.

जाहिर है कि जब मध्यावधि चुनाव नजदीक दिख रहे हों तो कोई भी पार्टी यहाँ तक कि यू.पी.ए के घटक दल भी इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली खासकर खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई जैसे फैसलों को निगलने के लिए तैयार नहीं होंगे.

यहाँ तक कि मनमोहन सिंह सरकार सब्सिडी में कटौती खासकर खाद और पेट्रोलियम की कीमतों में बढ़ोत्तरी जैसे फैसले भी करने की स्थिति में नहीं रह गई है. साफ़ है कि व्यावहारिक रूप से यू.पी.ए सरकार एक कामचलाऊ सरकार में बदल गई है जिसका राजनीतिक इकबाल काफी कमजोर हो गया है. 

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी सरकार जितने दिन सत्ता में रहेगी, उसकी उतनी ही दुर्गति होगी. खासकर उस कांग्रेस के लिए यह किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगा जो २००९ के आम चुनावों में पुनर्वापसी और अपनी राजनीतिक ताकत में बढ़ोत्तरी के बाद २०१४ के आम चुनावों में अकेले दम पर सत्ता में लौटने का सपना देखने लगी थी.

लेकिन उत्तर प्रदेश सहित पंजाब और गोवा में करारी हार और कुछ हद तक उत्तराखंड में झटके के बाद उसे न सिर्फ घटक दलों के खींचतान और मोलतोल के आगे झुकना पड़ेगा बल्कि सत्ता की मलाई में उन्हें कहीं बड़ी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी.

यही नहीं, खुद कांग्रेस में आंतरिक असंतोष और गुटबंदी को हवा मिलेगी. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी के कथित जादू के न चलने से २०१४ के चुनावों में उसके सबसे बड़े ट्रंप कार्ड की कलई खुल गई है. इससे कांग्रेस में मौके का इंतज़ार कर रहे उन गुटों को सिर उठाने और हमला करने का मौका मिलेगा जो पार्टी में राहुल गाँधी और खासकर उनकी टीम के उभार से असहज और नाराज हैं.

जाहिर है कि इससे पार्टी के अंदर और बाहर उसके नेताओं और गुटों के बीच घात-प्रतिघात का खेल भी तेज हो जाएगा जो कांग्रेस आलाकमान की निर्णय क्षमता को भी प्रभावित करेगा.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में प्रणब मुखर्जी, पी. चिदंबरम और दूसरे बड़े नेताओं के बीच खींचतान और विवाद बढ़े हैं, उसके कारण सरकार की न सिर्फ काफी किरकिरी हुई है बल्कि कई मामलों में सरकार नीतिगत और राजनीतिक तौर पर लकवाग्रस्त भी हो गई है.
आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले महीनों में कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ कुछ और बागी सुर भी सुनाई दें खासकर उन राज्यों में जहां कांग्रेस की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है. उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेसी नेताओं में डूबते जहाज से भागने और पाला बदलने की खबरें भी जल्दी आने लगेंगी.

ऐसे में, कांग्रेस को यह भी सोचना पड़ेगा कि वह अगला आम चुनाव राहुल गाँधी के नेतृत्व में लड़ने का जोखिम उठाए या नहीं? हालांकि उसके पास गाँधी परिवार का कोई विकल्प नहीं है लेकिन उसे अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ेगा कि राहुल गाँधी को अब कैसे और किस रूप में पेश किया जाए?

इससे पहले उसे इस साल के मध्य में होनेवाले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनावों में अपने प्रत्याशियों को जीताने के लिए खासा द्रविड़ प्राणायाम करना पड़ेगा. राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इन दोनों चुनावों के लिए उसे न सिर्फ यू.पी.ए के घटक दलों को संभालना पड़ेगा बल्कि विपक्ष खासकर गैर भाजपा दलों को साधना पड़ेगा.

ह इतना आसान नहीं होगा. बहुत संभव है कि गैर भाजपा दल, एन.डी.ए के साथ अंदरखाते की सहमति से कोई ऐसा उम्मीदवार पेश कर दें जिसके कारण यू.पी.ए में भी फूट पड़ जाए. इससे यू.पी.ए का राजनीतिक संकट बढ़ सकता है और मध्यावधि चुनाव को रोक पाना मुश्किल हो जाएगा.

जाहिर है कि कांग्रेस ऐसी स्थिति आने से रोकने की कोशिश करेगी. इसके लिए उसे घटक दलों के अलावा अन्य प्रमुख दलों के साथ मोलतोल में जाना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में, उसके लिए किसी कट्टर और गाँधी परिवार के प्रति निष्ठावान कांग्रेसी को राष्ट्रपति बनाने का मोह छोड़ना पड़ेगा.

क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी? दूसरे, वह खुद भी लंबे समय तक मौजूदा राजनीतिक गतिरोध और कामचलाऊ सरकार की थुक्का-फजीहत से बाहर निकलना चाहेगी. यही नहीं, राजनीतिक अनिश्चितता और सरकार की लकवाग्रस्त होती स्थिति से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूहों में भी भारी बेचैनी है जो इन चुनावों के बाद आर्थिक सुधारों के मामले में बड़ी घोषणाओं और फैसलों का इंतज़ार कर रहे थे.

जाहिर है कि वे भी मौजूदा स्थिति को लंबे समय तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होंगे. आखिर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का सबसे अधिक दांव पर लगा हुआ है. ऐसे में, बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों के दबाव में या तो कांग्रेस और भाजपा के बीच कुछ समय के लिए एक आंतरिक सहमति के आधार नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से संबंधित कम विवादास्पद विधेयकों को संसद में पारित कराने और फिर अनुकूल समय पर चुनाव कराने की कामचलाऊ व्यवस्था बनेगी.

या फिर राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने के लिए इस साल के आखिरी महीनों में चुनाव का दबाव बनेगा. वैसे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके कारपोरेट प्रतिनिधि तुरंत चुनाव नहीं चाहते हैं.

इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि आज की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दोनों प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा को अकेले या उनके नेतृत्व वाले दोनों प्रमुख गठबंधनों- यू.पी.ए और एन.डी.ए अकेले दम पर बहुमत मिलता हुआ नहीं दिख रहा है.

इसका अर्थ यह हुआ कि तत्काल चुनावों से राजनीतिक अस्थिरता और गतिरोध और अधिक बढ़ने की आशंका है. यही नहीं, तीसरे मोर्चे जैसे प्रयोगों के साथ जुड़ी अनिश्चितता और अस्थिरता के अलावा आर्थिक सुधारों के ठप्प पड़ने की आशंका के कारण बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूह ऐसी किसी स्थिति को टालने की हरसंभव कोशिश करेंगे.
लेकिन बड़ी पूंजी आम चुनावों को फिलहाल के लिए टालने की कोशिशों में किस हद तक कामयाब होगी, यह कह पाना मुश्किल है लेकिन इतना तय दिख रहा है कि वह कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति के मद्देनजर अपने नए मोहरों को आगे बढ़ाने और जहां तक संभव हो, विकल्प के बतौर एन.डी.ए को मजबूत और आगे करने की जुगत जुट गई है.

आश्चर्य नहीं होगी कि बड़े कारपोरेट समूह अगले कुछ महीनों में भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी और एन.डी.ए की ओर से नीतिश कुमार के नामों को आगे बढ़ाएं और चुनाव नतीजों के बाद नए राजनीतिक समीकरणों और सुभीते के लिहाज से इन दोनों में से किसी को अगले नेता और सरकार गठन के लिए प्रस्तावित किया जाए.

लेकिन इन राजनीतिक हलचलों और मेलजोल के बीच इस बार वामपंथी मोर्चा कहीं नहीं दिखाई दे रहा है. ऐसा लगता है कि वह राजनीतिक रूप से हाशिए पर चला गया है. तीसरे मोर्चे की राजनीति करनेवाले क्षेत्रीय क्षत्रप इस बार उसे कोई खास भाव नहीं दे रहे हैं. वह खुद भी अपनी कमजोर स्थिति के कारण इसमें खास दिलचस्पी नहीं ले रहा है.

साफ़ है कि २००९ के आम चुनावों और उसके बाद पश्चिम बंगाल और केरल विधानसभा चुनावों में हार से उबर नहीं पाया है और तुरंत चुनावों के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में हैरानी नहीं होगी कि वाम मोर्चा अंदरखाते कांग्रेस के साथ एक समझ बनाकर परोक्ष रूप से यू.पी.ए की मदद करे.

असल में, माकपा दम साधे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रही खींचतान के नतीजे का इंतज़ार कर रही है. उसकी सारी उम्मीद इस बात पर टिकी हुई है कि किसी तरह कांग्रेस और तृणमूल का गठबंधन टूटे और उसके बाद होनेवाले चुनावों में वह उन दोनों के बीच वोटों के बंटवारे का लाभ उठा सके. लेकिन यह इतना आसान नहीं है.
इसके उलट यह संभव है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल से अलग होने की स्थिति में कांग्रेस बिल्कुल साफ़ हो जाए और आमने-सामने के मुकाबले में तृणमूल, माकपा पर भारी पड़ जाए. ममता इसी कारण जल्दी में हैं क्योंकि जितनी देर होगी, वायदों को पूरा न कर पाने के कारण उनकी सरकार के खिलाफ राजनीतिक विरोध मजबूत होगा.

साफ़ है कि माकपा और उसके साथ वाम मोर्चा इंतज़ार और दूसरी ओर, तृणमूल के बरक्स कांग्रेस के साथ साठगांठ की रणनीति पर चल रहा है. माकपा इससे आगे नहीं सोच पा रही है और न ही किसी बड़े प्रयोग के लिए तैयार दिख रही है.

हालांकि यह मौका है जब कांग्रेस भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, नई आर्थिक नीतियों को आँख मूंदकर लागू करने और जल-जंगल-जमीन को देशी-विदेशी कारपोरेट को हवाले करने से भड़के जन आन्दोलनों के कारण कमजोर हो रही है और दूसरी ओर, अपने सांप्रदायिक और नई आर्थिक समर्थक रवैये के साथ-साथ अपनी राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा चढ़ नहीं पा रही है.

इससे देश में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा एक तीसरे मोर्चे की जरूरत और जगह बनी हुई है. लेकिन यह भी सच है कि बिना किसी वैचारिक एकता, कार्यक्रम और राजनीतिक दिशा के बननेवाले ऐसे मोर्चे की सफलता इसलिए संदिग्ध है क्योंकि जनता में उसकी विश्वसनीयता और साख नहीं बन पाती है. २००९ के चुनाव में ऐसे प्रयोग का हश्र सब देख चुके हैं.

जाहिर है कि अगर इस नए तीसरे मोर्चे में भी जयललिता, ममता, मुलायम, चन्द्रबाबू और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप होंगे तो उसकी साख संदिग्ध ही रहेगी. इसके बजाय वामपंथी पार्टियों के लिए यह समय वाम की स्वतंत्र दावेदारी का होना चाहिए.

उनके पास यह मौका है जब वे कांग्रेस और भाजपा दोनों की कमजोर हालात के मद्देनजर आम लोगों के सवालों खासकर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर देशव्यापी जनसंघर्षों से अपनी स्वतंत्र दावेदारी पेश करने की कोशिश करें.

पिछली २८ फरवरी को नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल ने इसकी जमीन तैयार कर दी है. वाम मोर्चे को इसे आगे बढ़ाने और इसमें मोर्चे से बाहर की वाम, जनतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करने की कोशिश करनी चाहिए.
क्या वामपंथी पार्टियां इसके लिए तैयार हैं? या, वे फिर उन्हीं राजनीतिक दलों के भरोसे जोड़तोड़ से तीसरा या चौथा मोर्चा बनाकर चुनावों में उतरने की भूल करेंगी? मजबूरी में ही सही उनके सामने एक मौका है. क्या वे इस मौके को गँवा देंगी?

दूसरी ओर, यह देश भर में नई आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गरीबों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और नौजवानों की लड़ाई लड़ रही वाम और जनतांत्रिक शक्तियों के लिए भी एकजुट होकर मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप करने का शानदार मौका है. देश नए विकल्पों की ओर उम्मीद से देख रहा है.

('समकालीन जनमत' के मार्च'१२ अंक में प्रकाशित लेख)