शनिवार, अप्रैल 28, 2012

निर्मल बाबा और चैनलों की बंद आँख

निर्मल बाबा मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं

कहते हैं कि भक्ति में बहुत शक्ति है. लेकिन भक्ति से ज्यादा शक्ति बाबाओं/बापूओं/स्वामियों में है. विश्वास न हो तो चैनलों को देखिये, जहाँ भक्ति से ज्यादा बाबा/बापू/स्वामी छाए हुए हैं. यह ठीक है कि चैनलों पर बाबाओं/बापूओं/स्वामियों की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है. आधा दर्जन से अधिक धार्मिक चैनलों पर चौबीसों घंटे इन बाबाओं/बापूओं/स्वामियों का अहर्निश प्रवचन और उससे अधिक उनकी लीलाएं चलती रहती हैं.
लेकिन इन बाबाओं का साम्राज्य सिर्फ धार्मिक चैनलों तक सीमित नहीं है. मनोरंजन चैनलों से लेकर न्यूज चैनलों तक पर भी सुबह की कल्पना उनके बिना संभव नहीं है. इन बाबाओं/बापूओं/स्वामियों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धर्म और ईश्वर भक्ति से उनका बहुत कम लेना-देना है. वे भक्तों को ईश्वर भक्ति की सही राह दिखाने से ज्यादा उनकी समस्याओं के हल बताने में दिलचस्पी लेते हैं. वे लाइलाज बीमारियों की दवाइयां बेचते/बांटते हैं.
यही नहीं, उनमें से कई जीवन-जगत की सभी समस्याओं को अपने पेड शिविरों में योग और ध्यान लगाकर दूर करने से लेकर शनिवार को काली बिल्ली को पीला दूध और काले तिल के सफ़ेद लड्डू जैसे टोटकों से विघ्नों/कठिनाइयों को साधने के रास्ते सुझाते दिखते हैं. ये नए जमाने के बाबा हैं जिन्हें चैनलों ने बनाया और चढ़ाया है और जो अब चैनलों को बना/चढ़ा रहे हैं.
इन्हीं में से एक निर्मल बाबा आजकल सुर्ख़ियों में हैं. कुछ अपवादों को छोडकर हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर वे छाए हुए हैं. हिंदी न्यूज चैनलों पर उनका प्रायोजित कार्यक्रम “थर्ड आई आफ निर्मल बाबा” यानी निर्मल बाबा की तीसरी आँख इन दिनों सबसे हिट कार्यक्रमों में से है.
रिपोर्टों के मुताबिक, यह कार्यक्रम हिंदी न्यूज चैनलों के टाप ५० कार्यक्रमों की सूची में ऊपर से लेकर नीचे तक छाया हुआ है. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके कार्यक्रम की ऊँची टी.आर.पी और कार्यक्रम दिखाने के लिए बाबा से मिलने वाले मोटे पैसों के कारण इन दिनों चैनलों में निर्मल बाबा की तीसरी आँख दिखाने की होड़ सी लगी हुई है.
लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि देश को निर्मल बाबा और उनकी तीसरी आँख देने का बड़ा श्रेय चैनलों को जाता है. हालाँकि चैनलों ने देश को पहले भी कई बाबा/बापू/स्वामी दिए हैं लेकिन निर्मल बाबा शायद पहले ऐसे बाबा हैं जिनका पूरा कारोबार चैनलों के आशीर्वाद से खड़ा और फल-फूला है.
उनसे पहले इंडिया टी.वी और कुछ और चैनलों के सहयोग से दाती महाराज (मदन लाल राजस्थानी) उर्फ शनिचर बाबा ने खासी लोकप्रियता (और दान-दक्षिणा) बटोरा था. वैसे चैनलों की मदद से कारोबार चमकाने वाले बाबाओं/स्वामियों में स्वामी रामदेव का कोई जवाब नहीं है और उनकी सफलता ने बहुतेरे बाबाओं/बापूओं/स्वामियों को चैनलों की ओर आकर्षित किया.
इसके बावजूद मानना होगा कि रामदेव कम से कम योग/कसरत पर मेहनत करते हैं. लेकिन निर्मल बाबा को अपना शरीर भी बहुत हिलाना-डुलाना नहीं पड़ता है. वे हर मायने में ‘अद्दभुत’ और अनोखे हैं. वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं जिसके पास शादी न होने से लेकर नौकरी न मिलने और कारोबार न चलने से लेकर पति के दूसरी महिला के चक्कर में फंसने जैसे आम मध्यमवर्गीय समस्याओं/उलझनों का बहुत आसान और शर्तिया इलाज है.
यह इलाज बटन धीरे-धीरे खोलने से लेकर दायें के बजाय बाएं हाथ से पानी पीने और दस के बजाय बीस रूपये का भोग चढाने तक कुछ भी हो सकता है. हंसिए मत, यही निर्मल बाबा की सफलता का राज है. असल में, निर्मल बाबा के इलाज बहुत आसान, सस्ते और दिलचस्प हैं. इन टोटकों पर अमल करने में किसी एब या आदत को छोड़ना नहीं पड़ता, बहुत समय और उर्जा नहीं खर्च करनी पड़ती और समस्या के हल होने की ‘उम्मीद’ बनी रहती है.
ये नए किस्म के अन्धविश्वास हैं. बाबा चैनलों की ‘साख’ का सहारा लेकर उन्हें आसानी से भक्तों के गले में उतार देते हैं. नतीजा, बाबा के निर्मल दरबार में “भक्तों की भीड़” लगी हुई है. चैनलों पर इस भीड़ और बाबा की जय-जयकार सुनकर मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के सैकड़ों और दुखियारे बाबा के दरबार में पहुँच रहे हैं.
रिपोर्टों के मुताबिक, बाबा के इन शंका समाधान शिविरों में प्रवेश के लिए दो हजार रूपये देने पड़ते हैं. कहते हैं कि इन शिविरों से बाबा करोड़पति हो गए हैं. हालाँकि पैसा देकर आनेवाले इन दुखियारों में से बहुत कम को ही सवाल पूछने का मौका मिल पाता है क्योंकि आरोप हैं कि ज्यादातर सवाल पूछनेवाले बाबा के ही चेले और यहाँ तक कि मासिक तनख्वाह पर काम करनेवाले टी.वी के जूनियर आर्टिस्ट होते हैं.
बाबा की दूकान सजाने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका है. चैनल देखने वाले लोगों को लगता है कि उनकी तरह के ही लोगों की, उन जैसी ही समस्याओं को बाबा किस तरह चुटकी बजाते हल किये दे रहे हैं. इस तरह बाबा का कारोबार फैलता जा रहा है. वह एक चैनल से शुरू होकर अनेक चैनलों पर पहुँच चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आँख के चक्कर में अपनी आँखें बंद कर ली हैं.
उन्हें बाबा की दिन-दहाड़े की ठगी नहीं दिख रही है. उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि बाबा अपने भक्तों को किस तरह खुलेआम बेवकूफ बना रहे हैं. अंधविश्वासों को मजबूत कर रहे हैं. लोगों की समस्याओं और भावनाओं से खेल रहे हैं. यह ठीक है कि निर्मल बाबा का यह कार्यक्रम प्रायोजित या एक तरह का विज्ञापन कार्यक्रम है. लेकिन क्या प्रायोजित कार्यक्रमों की कोई आचार संहिता नहीं होती है?
क्या इसपर कार्यक्रम या विज्ञापन कोड लागू नहीं होता है जो साफ तौर पर अंधविश्वास, जादू और टोटकों के प्रचार या महिमामंडन को प्रतिबंधित करता है? क्या यह ड्रग एंड मैजिकल रिमेडीज (आब्जेक्शनल एडवर्टीजमेंट) कानून के उल्लंघन का मामला नहीं है? आखिर बाबा मैजिकल रिमेडीज नहीं तो और क्या बेचते हैं?

आखिर चैनलों की आँख सरकार के डंडे के बिना क्यों नहीं खुलती है? सबसे अफसोस की बात यह है कि यह कार्यक्रम देश के कुछ प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर चल रहा है जो स्व-नियमन के सबसे अधिक दावे करते हैं. अच्छी बात यह है कि एक बार फिर सोशल और न्यू मीडिया में इस मुद्दे पर चैनलों की खूब थू-थू हो रही है. देखें, चैनलों के ‘ज्ञान चक्षु’ कब खुलते हैं?

टिप्पणी : "तहलका" के लिए यह आलेख ११-१२ अप्रैल को लिखा गया जो उनके ३० अप्रैल के अंक में छपा है..उस समय न्यूज एक्सप्रेस और न्यू मीडिया की वेबसाईट और सोशल मीडिया को छोड़कर सारे चैनल निर्मल बाबा पर चुप्पी साधे हुए थे..लेकिन इस बीच, स्टार और आजतक समेत कई और चैनलों ने बाबा की पोल खोलनी शुरू कर दी है..लेकिन इस आलेख में उठाये गए कई सवाल मौजूं बने हुए है...आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.    

गुरुवार, अप्रैल 26, 2012

गई नहीं महंगाई

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है यू.पी.ए सरकार  मुद्रास्फीति के आंकड़ों में अपनी विफलता छुपाने की कोशिश कर रही है

महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों की लीला अद्दभुत है. इस लीला के कारण यह संभव है कि मुद्रास्फीति की दर कम हो लेकिन आप महंगाई की मार से त्रस्त हों. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार दावे कर रही है कि महंगाई काबू में आ गई है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर धीरे-धीरे नीचे आ रही है.

सरकार के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में सात फीसदी से भी नीचे ६.४३ प्रतिशत पर पहुँच गई है. लेकिन इन दावों के विपरीत आम आदमी को आसमान छूती महंगाई से कोई राहत नहीं मिली है. उल्टे पिछले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं खासकर फलों-सब्जियों से लेकर दूध तक की कीमत में जबरदस्त उछाल के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया है.

ऐसा नहीं है कि यह महंगाई आंकड़ों में नहीं दिख रही है. यह और बात है कि सरकार उसे न तो खुद देखना चाहती है और न लोगों को देखने देना चाहती है. लेकिन अगर थोड़ा बारीकी से और उचित सन्दर्भ में देखा जाए तो त्रस्त करनेवाली यह महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी दिख रही है. उदाहरण के लिए, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में उछलकर ९.४७ प्रतिशत पर पहुँच गई.

यही नहीं, शहरी इलाकों में यह दर दोहरे अंकों में १०.३ फीसदी तक पहुँच गई है जबकि ग्रामीण इलाकों में भी बढ़कर ८.७९ प्रतिशत हो गई है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वह सूचकांक है जो खुदरा कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन ज्यादा है. इसके उलट थोक मूल्य सूचकांक थोक कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन कम है.

लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही फरवरी के ६.९५ फीसदी में मामूली गिरावट के साथ मार्च में ६.८९ फीसदी हो गई हो लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि इसमें खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर फ़रवरी के ६.०७ प्रतिशत से उछलकर ९.९४ फीसदी पर पहुँच गई.
साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई के मामले में थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. इन दोनों ही पैमानों पर आम लोगों को सबसे ज्यादा चुभनेवाली खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर लगभग दोहरे अंकों के पास है. इसके बावजूद सच यह है कि वास्तविक महंगाई की मार मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों में महसूस नहीं की जा सकती है.

इसकी वजह यह है कि मुद्रास्फीति के ये आंकड़े
पिछली साल की तुलना में हैं जब महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी सचमुच आसमान छू रही थी. इसे अर्थशास्त्र में बेस प्रभाव कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि पिछले साल मार्च में मुद्रास्फीति की दर ९.६८ फीसदी थी. चूँकि पिछले साल मार्च में थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति की दर आसमान छू रही थी, इस कारण उसकी तुलना में इस साल मार्च में कीमतों में बढोत्तरी के बावजूद मुद्रास्फीति की दर कम ६.८९ प्रतिशत दिख रही है.
लेकिन यह सिर्फ आंकड़ों का चमत्कार है. तथ्य यह है कि महंगाई अभी भी आसमान छू रही है. सच पूछिए तो यह महंगाई अधिक त्रस्त करनेवाली इसलिए भी है कि पिछले तीन सालों से लगातार कीमतें ऊपर ही जा रही हैं.


लेकिन एक ओर इस तकलीफदेह महंगाई के बीच आम लोगों खासकर गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है जिनके लिए यह महंगाई टैक्स की तरह है. दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार मुद्रास्फीति के आंकड़ों से खेलने और उनके पीछे मुंह छुपाने की कोशिश कर रही है. ऐसा नहीं है कि सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह सच्चाई मालूम नहीं है.

हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी महंगाई की स्थिति को चिंताजनक बताते हुए गाहे-बगाहे जबानी जमा खर्च करते रहते हैं और महंगाई से निपटने के लिए और प्रयास करने का वायदा करते रहे हैं. लेकिन फैसले ऐसे कर रहे हैं जो महंगाई की आग में और घी डालने की तरह है.

उदाहरण के लिए, यह जानते हुए भी कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की आसमान छू रही है, वित्त मंत्री ने ताजा बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की बढोत्तरी कर दी. क्या इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी? इसी तरह पेट्रोलियम सब्सिडी में कटौती के नामपर पेट्रोल, डीजल और एल.पी.जी की कीमतों में बढोत्तरी की तैयारी है. क्या यह महंगाई की आग में तेल डालना नहीं होगा? यही नहीं, खुद सरकार खाद्यान्नों की सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है.


तथ्य यह है कि इस साल जनवरी में सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल का कुल भण्डार ५५३.९४ लाख टन था जोकि न्यूनतम बफर नार्म से दोगुने से भी ज्यादा था. कहने की जरूरत नहीं है कि जब सरकार खुद इतना अनाज दबाकर बैठेगी तो बाजार में किल्लत होगी और अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियाँ और व्यापारी उसका फायदा उठाएंगे.

लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार को आम आदमी से ज्यादा अनाज के व्यापारियों और बड़ी कंपनियों के मुनाफे की चिंता है. अन्यथा वह महंगाई को काबू में करने और लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपने गोदामों में अनाज सड़ाने और बर्बाद करने के बजाय उसे आमलोगों और गरीबों तक पहुंचाने के उपाय करती.
सरकार के इस रवैये का फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठा रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों बिना किसी ठोस कारण के सब्जियों से लेकर अनाजों, दूध, अंडे और खाद्य तेलों की कीमतें आसमान छू रही हैं. साफ़ है कि इसके पीछे मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों की भूमिका है. लेकिन केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी उनके आगे घुटने टेक दिए हैं और महंगाई से लड़ने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक और मौद्रिक नीतियों के भरोसे छोड़ दिया है.

लेकिन इससे सट्टेबाजों की चांदी हो गई है. तथ्य यह है कि जिंसों के वायदा बाजार में खाद्य वस्तुओं की जमकर सट्टेबाजी हो रही है. सिर्फ जनवरी से मार्च के बीच तीन महीनों में सरसों की कीमतों में १०० फीसदी, चना में १०८ फीसदी, आलू में १७० फीसदी और सोयाबीन में ११८ फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई है.

हालाँकि अब खाद्य मंत्री के.वी थामस की नींद खुली है और वे कह रहे हैं कि इसकी जांच कराई जायेगी और जरूरत हुआ तो इन जिंसों के वायदा कारोबार पर रोक लगाई जाएगी. लेकिन यह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने की तरह है. सट्टेबाज सरकार से ज्यादा तेज हैं और जिंस बाजार पूरी तरह से उनके कब्जे में है. लेकिन सच पूछिए तो सरकार उन्हें छूने को भी तैयार नहीं है क्योंकि खुले बाजार की अर्थनीति में भरोसा करनेवाली सरकार के लिए यह जिंस बाजार में उसकी अगाध आस्था का प्रश्न है.

वैसे भी खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव कह चुके हैं कि ६.५ से ७ फीसदी की मुद्रास्फीति की दर एक ‘अनिवार्य बुराई’ बन चुकी है. मतलब साफ़ है कि ७ फीसदी की मुद्रास्फीति अब सामान्य मुद्रास्फीति दर है जिसमें आमलोगों को जीने की आदत डाल लेनी चाहिए क्योंकि सरकार ने महंगाई के आगे हाथ खड़े कर दिए हैं.

ह और बात है कि राजनीतिक कारणों से वह महंगाई से लड़ने का नाटक करती रहेगी. यह सरकार की लीला है. लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है. लोग इसे समझ रहे हैं. चुनावों के नतीजों से यह साफ़ है.

('दैनिक भाष्कर' के आप-एड पृष्ठ पर २४ अप्रैल को प्रकाशित आलेख)

रविवार, अप्रैल 22, 2012

कृपा का फलता-फूलता कारोबार

धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं

कहते हैं कि समय बदलते देर नहीं लगती है. लोगों की धार्मिक आस्थाओं को भुनाने और अपना उल्लू सीधा करने में लगे आधुनिक बाबा/स्वामी/बापू आदि भी इसके अपवाद नहीं हैं. लगता है कि ‘कृपा के कारोबार’ के नए सौदागर निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह नरूला से भी आख़िरकार समय और उन्हें आसमान पर चढानेवाले चैनलों ने मुंह फेर लिया है. नतीजा यह कि निर्मल बाबा की ‘तीसरी आँख’ की इन दिनों चैनलों और अखबारों में खूब छिछालेदर हो रही है.
कल तक बाबा की कृपा के लिए उनकी उल्टी-सीधी सलाहों को आँख मूंदकर पालन करनेवाले उनके भक्त उनके खिलाफ धोखाधड़ी के मामले दर्ज करा रहे हैं और सुबह-दोपहर-शाम ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ उर्फ निर्मल दरबार सजाने वाले ३५ से ज्यादा देशी-विदेशी चैनलों में कई की आँखें खुल गई हैं और वे उनकी पोल खोलने में जुट गए हैं.
हालाँकि बाबा अब भी मैदान में डटे हैं, उनकी टीम मीडिया मैनेज करने में जुटी है लेकिन उनके दरबार में भक्तों की भीड़ घटने लगी है और उससे ज्यादा उनके बैंक एकाउंट पर भक्तों की कृपा सूखने लगी है. इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि निर्मल बाबा और उन जैसे दूसरे बाबाओं/स्वामियों/बापूओं का खेल खत्म हो गया है.
सच यह है कि धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई बाबाओं के ‘चमत्कारों’ और आपराधिक कारनामों का देर-सबेर पर्दाफाश भी हुआ है. इसके बावजूद धर्म और आस्था के कारोबार में कोई कमी नहीं आई है बल्कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के इस दौर में मीडिया-बिजनेस-इवेंट मैनेजमेंट के ज्वाइंट वेंचर के रूप में वह एक संगठित उद्योग बन गया है जिसका टर्न-ओवर तेजी से बढ़ता जा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूनतम निवेश और मंदी से अप्रभावित हजारों करोड़ रूपयों के इस सनराइज उद्योग के जबरदस्त मुनाफे (रेट आफ रिटर्न) ने पिछले कुछ वर्षों में भांति-भांति के उद्यमियों को आकर्षित किया है. इस उद्योग और कारोबार का कानून और किसी भी तरह के रेगुलेशन से बाहर होना भी आकर्षण की एक बड़ी वजह है. 
आश्चर्य नहीं कि जो निर्मलजीत सिंह नरूला कपड़े से लेकर ईंट-भट्ठे के कई कारोबारों में नाकाम रहा, निर्मल बाबा बनते ही उसका कारोबार सैकड़ों करोड़ रूपये में पहुँच गया. सचमुच, निर्मल बाबा का चमत्कारिक उदय और खुद बाबा के शब्दों में उनके कृपा के कारोबार का सालाना टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से अधिक पहुँच जाना इस धर्म और आस्था उद्योग की सफलता और संभावनाओं का चौंकानेवाला उदाहरण है.
हालाँकि निर्मल बाबा इस कारोबार के अकेले खिलाड़ी नहीं हैं और न ही सबसे बड़े खिलाडी हैं. उन जैसे दर्जनों खिलाडियों का धंधा अभी भी चोखा है और उनका टर्न-ओवर ५०० से लेकर १५०० हजार करोड़ रूपये के बीच है. लेकिन निर्मल बाबा परिघटना कई मायनों में सबसे अलग और हैरान करनेवाली है.             
इसमें कोई दो राय नहीं है कि निर्मल बाबा की तीसरी आँख की कारोबारी सफलता उत्तर उदारीकरण दौर में मध्य और निम्न-मध्यवर्ग के असीमित लालच और जल्दी से जल्दी सफलता के शार्टकट की खोज और दूसरी ओर, बढ़ती आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा से निपटने में उसकी नाकामी के बीच से निकली है. असल में, उदारीकरण-भूमंडलीकरण के साथ भारतीय समाज के एक छोटे से हिस्से में आई समृद्धि और उसकी चकाचौंध ने मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की लालसाओं को भी भडका दिया है. वह भी सफलता के शार्टकट खोज रहा है. शेयर बाजार से लेकर ऐसे ही दूसरे जोखिम भरे कारोबारों के जरिये रातों-रात अमीर होने के ख्वाब देख रहा है.
इस जोखिम भरे रास्ते में उसे किसी चमत्कार और साथ ही साथ, ‘बीमा’ की जरूरत है जो निर्मल बाबा अपने समोसों/रसगुल्लों जैसे आसान और सहज टोटकों से मुहैय्या करा रहे थे. आश्चर्य नहीं कि बाबा के समागम में ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी थी जो दो हजार रूपये की फीस देकर बाबा की कृपा सीधे अपने पर्स में हासिल कर रहे थे.  
दूसरी ओर, निर्मल बाबा के भक्तों में उदारीकरण-भूमंडलीकरण के मारे निम्न-मध्यवर्गीय दुखियारों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो अपने डूबते छोटे-मोटे काम-धंधों और व्यापार/कारोबार में बरकत से लेकर असाध्य/अनजानी बीमारियों के इलाज और अतृप्त इच्छाओं के समाधान की उम्मीद में बाबा के दरबार में अपनी बची-खुची संपत्ति भी लुटाने के लिए तैयार थे.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में परंपरागत काम-धंधे और छोटे-मोटे कारोबार गहरे संकट में हैं और दूसरी ओर, रोजगार के नए अवसर सूखते जा रहे हैं या जो हैं उनमें भी काम का दबाव बहुत ज्यादा, वेतन कम, बदतर सेवा शर्तें और असुरक्षा बहुत ज्यादा है. उसे बेहतर अवसरों और मानसिक शांति की तलाश है जो मौजूदा व्यवस्था में दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है.
हालाँकि इस मध्यवर्ग की आकांक्षाएं कम नहीं हैं लेकिन उनका आर्थिक-सामाजिक यथार्थ उनका रास्ता रोके खड़ा है और मुश्किल यह कि भारतीय राज्य उसे किसी तरह की सामाजिक/आर्थिक सुरक्षा देने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में, इस डूबते हुए मध्यवर्ग को निर्मल बाबा में तिनके का सहारा दिखता है.
लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापित और असुरक्षित हुए मध्यवर्ग की सुध लेने के लिए न भारतीय राज्य तैयार है और न और कोई राजनीतिक-सामाजिक संगठन-समुदाय. उसके पास धर्म और आस्था की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. लेकिन अफसोस यह कि यहाँ भी उसे निर्मल बाबा और धोखा ही मिल रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि धर्म और आस्था को भी निर्मल बाबा जैसे कारोबारियों ने अपहृत कर लिया है.
लेकिन यह कहानी अधूरी रह जाएगी अगर निर्मल बाबा के उदय और उन्हें एक तरह की प्रतिष्ठा और साख देने में उदारीकरण की एक और संतान टी.वी चैनलों की भूमिका को रेखांकित न किया जाये. सच पूछिए तो ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ नामक यह पूरा उपक्रम टी.वी चैनलों, इवेंट मैनेजमेंट और नए माध्यमों के जरिये खड़ा हुआ.
यही नहीं, इसका पूरा ढांचा और कार्यप्रणाली किसी भी कारपोरेट कंपनी से कम नहीं है जहाँ समागम में भागीदारी से लेकर दसवंद दान की पूरी व्यवस्था अत्यंत आधुनिक, आनलाइन और सक्षम है. इस मायने में निर्मल बाबा सचमुच उत्तर आधुनिक बाबा हैं जिन्होंने धर्म और कृपा को उपभोक्ताओं की जरूरत के मुताबिक इतना आसान और सहज बना दिया कि धर्म पालन की कठिन परीक्षाएं और जटिलताएं चुटकियों में आसान हो गईं.
नतीजा, कृपा की उम्मीद में दोनों हाथों से पैसा लुटा रहे लोगों के हाथ भले कुछ न आया हो, बाबा का टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से ऊपर पहुँच गया. लेकिन बाबा के कारोबार का ग्राफ जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा, उतनी ही तेजी से नीचे भी गिरने लगा है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निर्मल बाबा जैसे और बाबाओं का कारोबार खत्म हो गया. सच यह है कि जब तक मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां लोगों में असीमित लालसाएं और असुरक्षा पैदा करती रहेंगी, निर्मल बाबा जैसे बाबाओं का धंधा मंदा नहीं पड़नेवाला है. 

('राजस्थान पत्रिका' के रविवारीय संसकरण में २२ अप्रैल'१२ को प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.)      

बुधवार, अप्रैल 18, 2012

किसे खुश करने के लिए हुई ब्याज दरों में कटौती?

सुब्बाराव ने सरकार के दबाव में लिया है एक बड़ा जोखिम


रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव ने अपने स्वभाव के विपरीत ब्याज दर में आधा फीसदी की कटौती का एलान करके एक बड़ा जोखिम लिया है. अर्थशास्त्रियों से लेकर बैंकरों तक को यह उम्मीद नहीं थी कि मुद्रास्फीति के खतरे के बने रहते रिजर्व बैंक ब्याज दरों में इतनी बड़ी कटौती कर सकता है.
ज्यादातर विश्लेषकों को ब्याज दरों में एक चौथाई फीसदी से ज्यादा की कटौती की उम्मीद नहीं थी जबकि कईयों को यह उम्मीद भी नहीं थी. खासकर सालाना कर्ज और मौद्रिक नीति की घोषणा की पूर्व संध्या पर सोमवार को जारी रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था और उसमें भी मुद्रास्फीति और भुगतान संतुलन की बिगड़ती स्थिति को लेकर व्यक्त की गई चिंताओं को देखते हुए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि सुब्बाराव ब्याज दरों में कोई बड़ी कटौती करेंगे.
लेकिन फूंक-फूंककर कदम उठानेवाले सुब्बाराव ने एक झटके में ब्याज दरों में आधा फीसदी की कटौती करके एक दांव लिया है. हालाँकि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि निकट भविष्य में ब्याज दरों में और कटौती की कोई उम्मीद नहीं है लेकिन इस कटौती से ऐसी उम्मीदों को बढ़ने से रोकना आसान नहीं होगा.

असल में, सुब्बाराव अच्छी तरह से जानते हैं कि ब्याज दरों में कटौती के लिए खुद रिजर्व बैंक की यह शर्त अभी पूरी नहीं होती है कि मुद्रास्फीति दरों में उल्लेखनीय कमी आ गई हो. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर न सिर्फ अभी भी ऊँची बनी हुई है बल्कि कीमतों पर दबाव बना हुआ है और मुद्रास्फितीय अपेक्षाएं बनी हुई हैं.

उदाहरण के लिए, मार्च महीने में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले महीने की तुलना में मामूली गिरावट के साथ ६.८९ फीसदी की ऊंचाई पर बनी हुई है. लेकिन उससे अभी अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर पिछले महीने के ६.०७ प्रतिशत से उछलकर मार्च में ९.९४ प्रतिशत पर पहुँच गई है.
खाद्य वस्तुओं की इस लगभग दोहरे अंकों की महंगाई में सबसे अधिक योगदान सब्जियों, दूध, चावल, अण्डों, मछली आदि की कीमतों में तेज वृद्धि का है. हालाँकि इस बीच, विनिर्मित वस्तुओं की महंगाई दर घटकर ४.७५ प्रतिशत रह गई है लेकिन सुब्बाराव भी अच्छी तरह से जानते हैं कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर से विनिर्मित वस्तुओं की महंगाई दर को प्रभावित होने में बहुत देर नहीं लगती है.
इसके बावजूद रिजर्व बैंक के गवर्नर ने ब्याज दरों में आधा फीसदी की कटौती का जोखिम लिया है तो उन्होंने खुशी-खुशी यह फैसला नहीं किया है. उनका वश चलता तो रेपो और रिवर्स रेपो दरों में जून से पहले कोई कटौती नहीं होती.
आख़िरकार जिस रिजर्व बैंक ने मार्च’२०१० से लेकर अक्टूबर’२०११ के बीच डेढ़ साल से अधिक समय तक ऊँची मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में १३ बार से अधिक की बढोत्तरी की हो और पिछले छह महीनों से ब्याज दरों में कटौती की मांग को नजरंदाज किया हो, उसके लिए यह फैसला निश्चित तौर पर बहुत मुश्किल था.
लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि सुब्बाराव पर ब्याज दरों में कटौती का जबरदस्त दबाव था. असल में, इस कटौती के लिए यू.पी.ए सरकार और खासकर वित्त मंत्रालय बहुत बेचैन था. इस कटौती के जरिये वित्त मंत्रालय न सिर्फ कारपोरेट क्षेत्र और कर्ज पर जीनेवाले मध्यम वर्ग को खुश करना चाहता है बल्कि अर्थव्यवस्था को लेकर एक फील गुड माहौल बनाना चाहता है.
पिछले दो-ढाई सालों से लगातार ऊँची महंगाई के कारण मध्यम वर्ग की यू.पी.ए सरकार से नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. लेकिन मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा ऊँची ब्याज दरों के कारण भी परेशान है जिसपर मकान से लेकर अन्य उपभोक्ता सामानों खासकर कार कर्ज पर ऊँची ब्याज दरों के कारण दोहरी मार पड़ रही है.
इसी तरह कारपोरेट क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा भी ब्याज की ऊँची दरों के कारण निवेश के लिए सस्ता कर्ज नहीं जुटा पाने और दूसरी ओर, पिछले कर्जों पर ब्याज के बढते बोझ के कारण घटते मुनाफे से बेचैन था.
कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों वर्ग बहुत मुखर हैं और नीति निर्माण में उन्हें अनदेखा करना किसी भी सरकार के लिए बहुत मुश्किल है. यू.पी.ए सरकार पर भी दबाव था कि वह ब्याज दरों में कटौती के लिए रिजर्व बैंक पर दबाव बनाए ताकि कारपोरेट क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर से ब्याज का बोझ कम किया जा सके.
साफ़ है कि रिजर्व बैंक ने कारपोरेट क्षेत्र और मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए यह जोखिम लिया है. हालाँकि इसके लिए तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्याज दरों में वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था की विकास दर प्रभावित हो रही है.

खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में आई गिरावट का हवाला दिया जा रहा है जो संशोधित अनुमानों के मुताबिक, जनवरी में गिरकर मात्र १.१ फीसदी रह गई. यही नहीं, अप्रैल से फ़रवरी के बीच औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र ३.५ प्रतिशत रह गई है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीते साल आर्थिक वृद्धि की दर गिरी है. लेकिन इसके लिए सिर्फ ऊँची ब्याज दरें जिम्मेदार नहीं हैं. इसके और भी कारण हैं जिनमें कई ढांचागत कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. बिना उन्हें ठीक किये सिर्फ ब्याज दरों में कटौती से आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने का दांव बहुत कारगर नहीं हो सकता है.
इसकी वजह यह है कि ब्याज दरों में सिर्फ आधा फीसदी की कटौती से बहुत फर्क नहीं पड़नेवाला है. इससे अधिक से अधिक सिर्फ फील गुड का माहौल बन सकता है. सस्ते कर्ज के जरिये निवेश और उपभोग को प्रोत्साहित करने और उसके जरिये अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने के लिए ब्याज दरों में कम से कम डेढ़ से दो फीसदी की कटौती जरूरी है.
लेकिन मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर और कीमतों पर जारी दबाव को देखते हुए इसकी उम्मीद कम है कि अगले छह महीनों में ब्याज दरों में और कटौती होगी. सुब्बाराव ने भी ऐसी किसी सम्भावना से इनकार किया है.

इसका अर्थ यह हुआ कि रिजर्व बैंक अगले कुछ महीनों तक मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि के ट्रेंड को देखने के बाद ही ब्याज दरों में और कटौती या बढोत्तरी का फैसला करेगा. साफ़ है कि रिजर्व बैंक मौजूदा परिस्थितियों में इससे ज्यादा बड़ा दांव नहीं ले सकता था. यह मौद्रिक नीति की सीमा है.

असल में, अब यू.पी.ए सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी. वह ऊँची मुद्रास्फीति से लेकर गिरती आर्थिक वृद्धि की चुनौतियों से निपटने का जिम्मा रिजर्व बैंक के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हो सकती है.

रिजर्व बैंक ने स्पष्ट शब्दों में खतरे की घंटी बजा दी है. असल में, अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती बाह्य क्षेत्र से आ रही है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, चालू खाते का घाटा बढ़कर जी.डी.पी के ४.३ फीसदी तक पहुँच गया है जो चिंता और खतरे की बात है.
इसलिए कि विदेशी मुद्रा के धीमे अंतर्प्रवाह के कारण इस घाटे की भरपाई मुश्किल दिख रही है. इससे डालर के मुकाबले रूपये की कीमत पर दबाव बढ़ सकता है और उसे सँभालने की कोशिश में विदेशी मुद्रा भण्डार में रिसाव तेज हो सकता है. इससे संकट बढ़ सकता है.

लेकिन क्या सरकार रिजर्व बैंक की इस चेतावनी को सुन रही है?

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १८ अप्रैल'१२ को प्रकाशित लेख) 

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

पेट पर पत्थर बांधकर हथियारों पर खर्च

हथियार और फौज-फांटे से होगी देश की सुरक्षा या उसे चाहिए रोटी, रोजगार, स्कूल और अस्पताल? 

“युद्ध (और रक्षा) का मुद्दा इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि उसे सैन्य जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है.”

सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह और यू.पी.ए सरकार के बीच कभी खुले और कभी छिपे युद्ध के मौजूदा माहौल में जब देश की रक्षा तैयारियों और सेना के पास हथियारों की कमी का राष्ट्रीय रूदन तेज होने लगा है और चैनलों/अख़बारों की बहसों में सेना के रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ छाने लगे हैं, पत्रकार और १९०६ में फ़्रांस के प्रधानमंत्री जार्ज क्लीमेंसू की उपरोक्त पंक्तियाँ एक बार फिर प्रासंगिक हो उठी हैं.
वह इसलिए कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह की प्रधानमंत्री को लिखी चिठ्ठी से लेकर तमाम रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ इस बात पर एकमत दिख रहे हैं कि देश की रक्षा तैयारियां संतोषजनक नहीं हैं, सेनाओं के पास हथियारों और गोला-बारूद की कमी है और सेनाओं के आधुनिकीकरण पर पर्याप्त पैसा नहीं खर्च किया जा रहा है.
इन बयानों का सीधा तात्पर्य यह है कि देश सुरक्षित नहीं है और देश की सुरक्षा से समझौता किया जा रहा है. जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार जबरदस्त दबाव में है. वजह यह कि देश की सुरक्षा का सवाल हमेशा से बहुत भावुक और तथ्यों और तर्कों से परे मुद्दा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह ने बहुत सोच-समझकर इस मुद्दे को उठाया है. वह जानते हैं कि यह एक बहुत संवेदनशील मुद्दा है जिसे उठाकर सरकार को घेरना और उसे रक्षात्मक स्थिति में खड़ा कर देना आसान है.

नतीजा सामने है. सरकार मिमिया रही है. सफाई दे रही है कि रक्षा तैयारियों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा और सेनाओं के आधुनिकीकरण और हथियारों की खरीद के लिए पैसे की कमी नहीं होने दी जाएगी.

हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे समय में जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बढ़ती सब्सिडी के बोझ के कारण नींद नहीं आ रही है और बार-बार आमलोगों को कड़े फैसलों के लिए तैयार रहने को कहा जा रहा है, उस समय चालू वित्तीय वर्ष (12-13) के आधिकारिक रक्षा बजट में पिछले साल के संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 17 फीसदी की वृद्धि करते हुए 193407 करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया है.
यह देश के कुल बजट का लगभग 13 फीसदी है. यही नहीं, इसमें अकेले हथियारों और गोला-बारूद की खरीद के लिए 79578 करोड़ रूपयों का आवंटन किया गया. पिछले वर्ष की तुलना में यह वृद्धि लगभग 20.3 फीसदी की है.
लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि वास्तविक रक्षा बजट इससे कहीं ज्यादा है. चालू वित्तीय वर्ष (12-13) में खुद वित्त मंत्रालय के व्यय बजट भाग-2 के मुताबिक, कुल रक्षा बजट 193407 करोड़ रूपये के बजाय 238205 करोड़ रूपये है जो कुल बजट का लगभग 16 फीसदी है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस साल केन्द्र सरकार जो हर रूपया खर्च करेगी, उसमें से 16 पैसे रक्षा के मद में जायेंगे.
असल में, बजट भाषण में घोषित रक्षा बजट में रक्षा मंत्रालय और सेना के पेंशन के बजट को शामिल नहीं किया गया है. इन दोनों मदों का कुल बजट 44798 करोड़ रूपये है. अगर इसे आधिकारिक रक्षा बजट 193407 करोड़ में जोड़ दिया जाये तो वास्तविक रक्षा बजट उछलकर 238205 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है. यह जी.डी.पी का 2.3 फीसदी है.

हैरानी की बात यह है कि थोक के भाव में ‘लीक’ और खोजी रिपोर्टों के दौर में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया या फिर जान-बूझकर इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी गई है. आखिर जिस देश में कोई 40 फीसदी लोगों को दोनों जून रोटी नहीं मिलती हो, 42 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हों, गुजरे पन्द्रह सालों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने कृषि संकट के कारण आत्महत्या की हो और ग्रामीण इलाके में 22 रूपये और शहरी इलाके में 28 रूपये की गरीबी रेखा हो, वहाँ 238205 करोड़ रूपये रक्षा और हथियारों की खरीद पर खर्च करने का औचित्य क्या हो सकता है?
इसके बावजूद देश की सुरक्षा की चिंता में दुबले हुए जा रहे जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों को रक्षा बजट से संतोष नहीं है. ‘ये दिल मांगे मोर’ की तर्ज पर वे इसे नाकाफी बताते हुए सेनाओं के आधुनिकीकरण के बहाने चीन के रक्षा बजट और हथियारों की खरीद से प्रतिस्पर्द्धा करने पर जोर दे रहे हैं. तर्क दिया जा रहा है कि भारत रक्षा पर जी.डी.पी का सिर्फ 1.9 प्रतिशत खर्च कर रहा है जो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है.
लेकिन सच्चाई क्या है? सच यह है कि भारत पेट पर पत्थर बांधकर रक्षा पर खर्च कर रहा है. आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में देश की रक्षा जरूरतों को पूरा करने के नाम पर कृषि, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क-बिजली-पानी जैसी बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती की गई है या उन्हें अपेक्षित बजट नहीं दिया गया है.

कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. चालू वित्तीय वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये की तुलना अगर मानव संसाधन (74056 करोड़), स्वास्थ्य (34488 करोड़), कृषि (27931 करोड़) और ग्रामीण विकास (76430 करोड़) के कुल बजट 212905 करोड़ रूपये से की जाये तो यह कुल रक्षा बजट का मात्र 89 फीसदी है. साफ है कि रक्षा देश की शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण विकास पर भारी है.     

यही नहीं, वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये में अगर परमाणु उर्जा विभाग (7650 करोड़), बी.एस.एफ (8566 करोड़), आई.टी.बी.पी (2432 करोड़), असम राइफल्स (2966 करोड़) और एस.एस.बी (1899 करोड़) के बजट को जोड़ लिया जाये तो कुल रक्षा बजट तेजी से उछलकर 261718 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है जो कुल बजट का 17.55 फीसदी है.

पूछा जा सकता है कि परमाणु उर्जा से लेकर बी.एस.एफ जैसे अर्द्धसैनिक बालों के बजट को रक्षा बजट में जोड़ने के पीछे क्या तर्क है?

असल में, परमाणु उर्जा विभाग के बजट को परमाणु हथियारों के विकास से अलग नहीं किया जा सकता है और उसका 75 फीसदी तक खर्च इस मद में होता है. इसी तरह मुख्यतः देश की सीमाओं पर तैनात बी.एस.एफ से लेकर एस.एस.बी को भी रक्षा के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है.
भले ही वे गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हों और उनका बजट गृह मंत्रालय के बजट से आता हो. लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि वे व्यापक तौर पर देश की सीमाओं की रक्षा में ही जुटे हैं, इसलिए उनका बजट रक्षा बजट का ही हिस्सा माना जाना चाहिए.
इसी तरह हथियारों और गोला-बारूद की खरीद पर होनेवाले खर्च को भी एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. एक बार फिर तथ्यों पर गौर कीजिये. यू.पी.ए-दो के कार्यकाल में पिछले चार बजटों (2009-2013) में रक्षा बजट में हथियारों और फ़ौज-फांटे की खरीद के लिए कुल 262600 करोड़ रूपये दिए गए.

यह उसके पहले कार्यकाल (2004-09) के बीच पांच सालों में हथियारों की खरीद के कुल बजट 137496 करोड़ रूपये की तुलना में 91 फीसदी की बढोत्तरी दर्शाती है. आश्चर्य नहीं कि आज भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया है.

स्टाकहोम की संस्था सीपरी के मुताबिक, 2007-11 के बीच चार वर्षों में पूरी दुनिया में हथियारों की खरीद का 10 फीसदी हिस्सा अकेले भारत ने ख़रीदा.
इसके बावजूद सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह कह रहे हैं कि हथियारों और गोला-बारूद के मामले में सेना की हालत खराब है तो सवाल उठता है कि क्या देश के स्कूलों-कालेजों, अस्पतालों को बंद करके और कृषि से लेकर सड़क-बिजली-पानी आदि को भगवान भरोसे छोडकर उनका बचा-खुचा बजट भी रक्षा और हथियारों की खरीद पर उड़ा दिया जाये?

क्या देश इसके लिए तैयार है? इसीलिए रक्षा जैसे अत्यंत गंभीर मसले को जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है और न ही उसे रक्षा सौदों में घूस खाने वाले नेताओं और अफसरों की मर्जी पर छोड़ा जा सकता है.

समय आ गया है जब देश रक्षा बजट के एक-एक पाई का हिसाब जनरलों और नेताओं/अफसरों दोनों से मांगे. भूलिए मत, देश अपना पेट काटकर रक्षा और हथियारों के लिए पैसे दे रहा है.

('दैनिक भास्कर' के आप-एड पृष्ठ पर १० अप्रैल को प्रकाशित लेख..इस बहस में आपका स्वागत है...)