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गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं

आप सभी को नए साल की बधाइयाँ और शुभकामनाएं देते हुए एक छोटी सी सूचना भी देनी थी..नए साल की कई योजनाओं में एक योजना यह भी है कि अब नियमित रूप से ब्लॉग पर भी लिखना है...हालाँकि साल की शुरुआत की प्रतिज्ञाओं का क्या होता है, वह मुझे अच्छी तरह से पता है। देखें इस बार क्या होता है? वैसे इरादा पक्का है।

जैसाकिआप जानते हैं अभी तक मेरे दो विद्यार्थी - रितेश और उनके बाद हिमांशु इस ब्लॉग को चला रहे थे..वे मेरे अख़बारों में छपे लेखों को ब्लॉग पर भी डाल दिया करते थे। मैं खासकर रितेश का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने काफी दिलचस्पी लेकर यह ब्लॉग शुरू करवाया और नियमित रूप से मेरे लेखों को इस पर डालते रहे..उनके व्यस्त होने के बाद यह जिम्मेदारी हिमांशु उठा रहे थे।

लेकिन मैं खुद बहुत दिनों से सोच रहा था कि मुझे ब्लॉग पर कुछ नियमित और स्वतंत्र रूप से भी लिखना चाहिए..लेकिन कुछ आलस्य, कुछ झिझक, कुछ टाइपिंग न जानने और कुछ व्यस्तताएं- ब्लॉग पर अपना लिखना नहीं हो पाया..लेकिन अब कोशिश रहेगी कि ब्लॉग पर नियमित रूप से कुछ लिखा करूँ।

आप सभी की राय की प्रतीक्षा रहेगी और हाँ, शुभकामनाओं की भी...आखिर हम भी तो देखें कि ब्लॉगिंग का आनंद क्या है? और यह भी कि क्या यह कुछ गंभीर बहसों और चर्चाओं का मंच बन सकता है?

शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

किसे डर लग रहा है सूचना के अधिकार कानून से?

आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि जाने-माने बुद्धिजीवियों और सूचना के अधिकार के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अपील को नज़रंदाज़ करते हुए यू पी ए सरकार ने सूचना के अधिकार कानून'2005 में संशोधन का मन बना लिया है. सरकार इस संशोधन के जरिये सूचना के अधिकार कानून से "फाइल नोटिंग" दिखाने का हक वापस लेने के अलावा जन सूचना अधिकारियों को "फालतू और तंग करनेवाले" सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है. हालांकि इस फैसले का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनो के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव ने वायदा किया है कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करने से पहले सरकार सबसे बात करेगी और सबकी आपत्तियों को सुनेगी लेकिन सरकार के रवैये से नहीं लगता है कि वह वास्तव में किसी को खासकर विरोधी स्वरों को सुनने के मूड में है. उसने मन बना लिया है और अब केवल दिखावे की मजबूरी में संशोधन की प्रक्रिया को पारदर्शी दिखाने का कोरम पूरा करना चाहती है.
ऐसा मानने के पीछे ठोस वजहें हैं. असल में, जब से सूचना के अधिकार का कानून बना है, सत्तानशीं नेता और नौकरशाही उसके साथ सहज नहीं रहे हैं. इस कानून के बनने से पहले तक गोपनीयता के माहौल में काम करने के आदी अफसरों और नेताओं को शुरू से यह बहुत "परेशान और तंग" करनेवाला कानून लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे वही औपनिवेशिक गोपनीयता की संस्कृति और मानसिकता जिम्मेदार रही है जो आज़ादी के 62 सालों बाद भी तनिक भी नहीं बदली है. यह मानसिकता सूचना का अधिकार कानून बनने के बावजूद यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि अब एक आम आदमी भी उनसे न सिर्फ उनके कामकाज का ब्यौरा और हिसाब मांग सकता है बल्कि परदे के पीछे और चुपचाप फैसला करने का जमाना गया. उनसे उस फैसले तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया यानि फाइल नोटिंग दिखाने के लिए कहा जा सकता है जिसके जरिये एक-एक अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जा सकती है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि नेता-नौकरशाही सूचना के अधिकार कानून और खासकर इस प्रावधान को अपने विशेषाधिकारों और अभी तक हासिल असीमित शक्तियों में कटौती के रूप में देखते रहे हैं. यही कारण है कि जन दबावों के बाद और खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए यू पी ए सरकार ने यह कानून तो बना दिया लेकिन कानून को ईमानदारी और उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करने के बजाय उसकी राह में रोड़े अटकाने में लगी रही है. यहां तक कि कानून के लागू होने के दो सालों के अन्दर ही सरकार ने उसके दायरे से फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार को वापस लेने के लिए कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी लेकिन जन संगठनो और बुद्धिजीवियों के भारी विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खीचने पड़े थे. इस मायने में, इस कानून में संशोधन के नए प्रयास को पिछले प्रयासों की निरंतरता में ही देखना चाहिए.
सवाल यह है कि केंद्र सरकार को सूचना के अधिकार कानून से क्या शिकायतें हैं? जिस कानून को लागू हुए अभी सिर्फ चार साल हुए हैं, उससे सरकार को ऐसी क्या दिक्कत हो रही है कि वह इस कानून के रचनाकारों और समर्थकों के विरोधों को अनदेखा करते हुए उसमे संशोधन के लिए उतारू है? दरअसल, नौकरशाही को घोषित तौर पर इस कानून से दो शिकायतें हैं. पहला, इस कानून का "दुरुपयोग" किया जा रहा है. कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व इस कानून का सहारा लेकर फालतू, परेशान और तंग करनेवाले सवाल पूछ रहे हैं जिससे अधिकारियों को काम करने में बहुत दिक्कत हो रही है, उनका काफी समय ऐसे फालतू और बेकार सवालों का जवाब बनने में चला जा रहा है. यही नहीं, इसे विभागीय राजनीति में किसी अधिकारी के साथ हिसाब-किताब चुकता करने या बदला लेने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है.
दूसरी शिकायत यह है कि फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार देने से अधिकारियों को ईमानदारी से और बिना किसी भय के निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके द्वारा फाइल पर की गई नोटिंग सार्वजनिक होने पर उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों और बेईमानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों शिकायतें बहुत कमजोर, तथ्यहीन, एक तरह की बहानेबाजी और गोपनीयता की संस्कृति को बनाये रखने की मांग हैं. जैसेकि खुद सूचना के अधिकार के लिए लड़नेवाली अरुणा रॉय और दूसरे बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी स्पष्ट किया है कि इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि इस कानून का इस्तेमाल जानबूझकर "फालतू और तंग" करनेवाले सवाल पूछने के लिए किया जा रहा है और न ही इस बात के कोई प्रमाण हैं कि फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को काम करने में दिक्कत हो रही है.
उल्टे सच्चाई यह है कि इस अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को बिना किसी अवांछित दबाव और भय के फैसला करने में सहूलियत हो रही है. वे उन नेताओं-मंत्रियों-अफसरों को इस कानून और खासकर इस प्रावधान का हवाला देकर उनकी इच्छा के अनुसार नोटिंग करने के दबाव से इंकार कर पा रहे हैं. यह प्रावधान ईमानदार और निर्भीक अफसरों के लिए बडी सुरक्षा साबित हो रहा है जबकि इसके कारण बेईमान और मनमानी करनेवाले अफसरों-नेताओं को मनमाने फैसले करने में जरूर परेशानी हो रही है क्योंकि अब कोई भी फाइल नोटिंग सार्वजनिक करके मनमाने-अवैधानिक-अनुचित फैसलों की जवाबदेही तय करवा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान से नौकरशाही को जिम्मेदार और जवाबदेह बनने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सकता है.
रही बात "फालतू और तंग" करनेवाले सवालों को खारिज का अधिकार देने की तो इतना कहना ही काफी है कि अगर इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो इस कानून की मूल आत्मा की हत्या हो जायेगी क्योंकि इस प्रावधान का सहारा लेकर कोई भी जन सूचना अधिकारी किसी भी सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाले बताकर खारिज कर सकता है. आखिर यह कौन, कैसे और किस आधार पर तय करेगा कि कौन सा सवाल "फालतू और तंग" करनेवाला है? जाहिर है कि इस कानून के तहत पूछे जानेवाले सवालों से अपने भ्रष्टाचार, मनमानेपन, निक्कमेपन और गडबडियों की पोल खुलने के डर से घबराई नौकरशाही ऐसे हर सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाला बताकर खारिज करने से नहीं चूकेगी, जिससे उसकी पोल खुलती हो. इसके बाद सूचना के अधिकार कानून में क्या बचेगा? क्या यू पी ए सरकार प्रस्तावित संशोधनों के जरिये इस कानून को ख़त्म करना और एक शोपीस भर बनाना चाहती है?

शनिवार, मार्च 22, 2008

बुधवार, नवंबर 28, 2007

आनंद प्रधान आईआईएमसी लौटे...

मित्रों,
 
हमारे प्रिय शिक्षक डॉ. आनंद प्रधान भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) लौट गए हैं.
 
इससे पहले भी वे लंबे समय तक आईआईएमसी में अपनी सेवा दे चुके हैं.
 
खास बात यह है कि इस बार वे बतौर एसोसिएट प्रोफेसर नियमित सेवा के तहत आईआईएमसी आए हैं.
 
आज बुधवार, 28 नवंबर को आनंद सर ने कार्यभार संभाल लिया.
 
आपको याद ही होगा कि आनंद सर ने इसी साल की पहली अगस्त से गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग को बतौर व्याख्याता ज्वाईन किया था.
 
आनंद सर की वापसी पर आपको और सर को बधाईयाँ....

शुक्रवार, अगस्त 03, 2007

सूचनाः आनंद प्रधान आइपी यूनिवर्सिटी में

मित्रों,

डॉ आनंद प्रधान ने पहली अगस्त से गुरु गोविन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन केंद्र के पत्रकारिता विभाग में बतौर व्याख्याता सेवा शुरू कर दी है.
सर को नए कार्यभार के लिए शुभकामनाएं...