आम आदमी बनाम खास आदमी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आम आदमी बनाम खास आदमी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, जनवरी 18, 2014

जरूरी है आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार

इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि आज़ादी के ६६ साल बाद भी एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर है 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
क्या अगर कोई फैक्ट्री का मालिक या मैनेजर व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है लेकिन अपने श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम देता है और श्रम कानूनों की अनदेखी करता है तो उसे आम आदमी माना जाएगा? मालिक की ईमानदारी शेयरहोल्डरों के प्रति होनी चाहिए कि श्रमिकों के प्रति? मैनेजर, नियोक्ता यानी मालिक के प्रति ईमानदार रहे या श्रमिकों और ग्राहकों के प्रति?
यही नहीं, स्थाई नौकरी के बजाय ठेके पर नियुक्ति या जब चाहे हायर-फायर की नीति ईमानदारी में गिनी जाएगी या भ्रष्टाचार में? मारुति या ऐसी ही किसी और कंपनी में श्रमिकों की यूनियन बनाने की मांग और अपनी मांगों के लिए हड़ताल और उसे तोड़ने के लिए सरकार के आदेश पर पुलिस के लाठीचार्ज और दमन में कौन ईमानदार है और कौन भ्रष्ट? इनमें किसे आम आदमी माना जाएगा? 
यही नहीं, इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि देश में आज़ादी के ६६ साल बाद भी अगर एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर हो, लगभग ५० से ७७ फीसदी आबादी गरीबी रेखा (योजना आयोग के मुताबिक २२ फीसदी) के नीचे गुजर-बसर करती हो, लगभग ८८ लाख परिवार झुग्गियों में कीड़े-मकोडों की तरह रहते हों, हर साल लाखों बच्चे कुपोषण के कारण असमय मौत के मुंह में समा जाते हों, लाखों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हों, करोड़ों शिक्षित युवा बेरोजगार हों और यह सूची अंतहीन है.

लेकिन दूसरी ओर, देश में डालर अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो और मुकेश अम्बानी पांच हजार करोड़ रूपये की २७ मंजिला अट्टालिका में रहते हों? इसमें आम आदमी कौन है? इनमें कौन ईमानदार और कौन बेईमान है?                                   

साफ़ है कि ईमानदारी बनाम बेईमानी के आधार पर आम आदमी की पहचान अंतर्विरोधों और विसंगतियों से भरी हुई है. बेहतर यह होगा कि आम आदमी की पहचान सामाजिक-आर्थिक आधार पर हो. निश्चय ही, इस देश के गरीब, श्रमिक, छोटे-मंझोले किसान, पिछड़े, दलित, आदिवासी के साथ-साथ अल्पसंख्यकों का बड़ा हिस्सा, विस्थापित असली आम आदमी है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार होना चाहिए. सिर्फ सरकारी गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों को ही आम आदमी मानना आम आदमी के साथ सबसे बड़ा मजाक है क्योंकि सरकारी गरीबी रेखा खुद एक मजाक है.
सच यह है कि शहरों और कस्बों में निम्न मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी आम आदमी है क्योंकि वह भी बुनियादी सुविधाओं जैसे घर, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य और बेहतर जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा है.
ध्यान रहे कि ९० के दशक के बाद के आर्थिक सुधारों के बाद अर्थव्यवस्था यानी जी.डी.पी में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़कर ५५ फीसदी से ऊपर पहुँच गया है. लेकिन इस क्षेत्र जैसे होटल-रेस्तरां से लेकर बी.पी.ओ तक और शापिंग माल्स से लेकर कुरियर सेवा तक और टेलीकाम से लेकर सेक्युरिटी सर्विस तक में काम कर रहे लाखों युवाओं को जिन बदतर स्थितियों और असुरक्षा के बीच काम करना पड़ रहा है, वह किसी से छुपा नहीं है.

यह ठीक है कि वे सरकारी परिभाषा के मुताबिक गरीब नहीं हैं और उनमें से एक हिस्से का वेतन भी अपेक्षाकृत बेहतर है लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि उन्हें जितने घंटे और जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है और उसके बावजूद नौकरी से लेकर कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, उसके कारण उन्हें आम आदमी ही माना जाना चाहिए. इसी तरह असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे करोड़ों श्रमिक आम आदमी हैं और कई मामलों में आम आदमी से बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं.
  
लेकिन कैप्टन गोपीनाथ से लेकर मीरा सान्याल तक को किस तरह से आम आदमी माना जाए? इसमें कोई बुराई नहीं है कि वे और उनके जैसे और लोग आम आदमी पार्टी में आएं और राजनीति को आम आदमी की सेवा में लगाने में मदद करें लेकिन इसका सीधा अर्थ यह है कि आम आदमी पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम असली आम आदमी के हितों को आगे बढानेवाले होंगे न कि बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों के.

गरज यह कि केजरीवाल चाहे जैसे आम आदमी को पारिभाषित करें लेकिन असल मुद्दा यह है कि आप पार्टी किस आम आदमी के पक्ष में खड़ी है और उसकी प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाला या ग्रेटर कैलाश?

याद रहे, असली आम आदमी इसी कसौटी पर आम आदमी पार्टी को कसने जा रहा है.

('शुक्रवार' के 22 जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी क़िस्त) 

शुक्रवार, जनवरी 17, 2014

तय करो किस ओर हो 'आप'?

'आप’ की प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी या ग्रेटर कैलाश के वाशिंदे?
 
पहली क़िस्त

आम आदमी पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनाव में चमत्कारिक प्रदर्शन के बाद यह बहस एक बार फिर शुरू हो गई है कि आम आदमी कौन है? आप पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद भाषण में आम आदमी की परिभाषा देते हुए कहा कि जो ईमानदारी के साथ रहना चाहता है वह सब आम आदमी है, चाहे वह झुग्गी में रहता हो या ग्रेटर कैलाश में.

हालाँकि उन्होंने बहुत साफ़-साफ़ नहीं कहा लेकिन केजरीवाल का आशय साफ है कि उनके लिए सभी आम आदमी हैं- चाहे वह अमीर हों या गरीब, पूंजीपति हों या मजदूर, भूस्वामी हों या भूमिहीन खेत मजदूर, सामंत हों या गरीब या फिर विस्थापक कार्पोरेट्स हों या विस्थापित आदिवासी/किसान. यह सूची लंबी हो सकती है लेकिन शर्त सिर्फ यह है कि वह ईमानदार हो और ईमानदारी के साथ खड़ा हो.
कहने की जरूरत नहीं है कि आम आदमी की इस व्यापक लेकिन अंतर्विरोधी परिभाषा के जरिये अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के सामाजिक जनाधार को अधिकतम संभव व्यापक और समावेशी बनाना चाहते हैं जिसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों/तबकों/समुदायों इकठ्ठा किया जा सके.

लेकिन वे भूल रहे हैं कि इन सामाजिक वर्गों के बीच बुनियादी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर गहरे अंतर्विरोध हैं. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी की समझ को लेकर भी अंतर्विरोध हैं. दरअसल, केजरीवाल आम आदमी की पहचान को सामाजिक-आर्थिक आधार के बजाय नैतिक आधार- ईमानदारी के आधार पर परिभाषित करना चाहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि ईमानदारी की परिभाषा क्या है? आखिर ईमानदार कौन है? बताया जाता है कि खुद मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं लेकिन आरोप है कि वे आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है कि उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या महत्व है?
खुद केजरीवाल के मुताबिक, ईमानदार वह है जो भ्रष्टाचार यानी घूस लेने-देने का विरोध करता है. लेकिन मुश्किल यह है कि घोषित तौर पर कोई भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करता है और चाहे वह प्रधानमंत्री हों या छोटे-बड़े कार्पोरेट्स या नौकरशाह या फिर एन.जी.ओ- सभी भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात करते हैं.
लेकिन इनमें से कई व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार होते हुए भी भ्रष्टाचार और घूस लेने-देने वालों का विरोध नहीं करते हैं. उससे आँखें मूंदे रहते हैं. क्या उन्हें आम आदमी माना जाना चाहिए?

यही नहीं, व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा नीतियों के स्तर पर होनेवाले भ्रष्टाचार यानी नीतियों को बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों के अनुकूल और आम आदमी के हितों के खिलाफ बदलने का है. निजीकरण से लेकर उदारीकरण की अर्थनीति में ऊपर से देखिए तो कोई भ्रष्टाचार नहीं है लेकिन गरीबों और आम आदमी पर इसके नकारात्मक प्रभाव को बेईमानी क्यों नहीं माना जाना चाहिए?

जैसे बिजली और पानी के निजीकरण की नीति को लीजिए. दिल्ली सहित देश के अधिकांश राज्यों में बिजली और कुछ में पानी के निजीकरण के तहत बड़ी कंपनियों को उनके उत्पादन और वितरण का जिम्मा सौंप दिया गया जिसकी कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
क्या यह सिर्फ दिल्ली तक और कुछ कंपनियों तक सीमित भ्रष्टाचार है या इसके लिए निजीकरण की नीति भी जिम्मेदार है? इसी तरह देश में पिछले डेढ़-दो दशकों में उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को जिस तरह से देश के बेशकीमती प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई है, वह किसी से छुपा नहीं है.
यह अनदेखा करना भी मुश्किल है कि चाहे कोयला खदानों के आवंटन का मामला हो या २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन का मामला हो या फिर इस जैसे दूसरे मामले हों, इनमें भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत उदारीकरण और निजीकरण की वह नीति है जिसे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के अनुकूल बनाया गया है.

यह ठीक है कि ये कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें उदारीकरण और निजीकरण के तहत घोषित प्रक्रियाओं का उल्लंघन करके प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट हुई लेकिन इनके अलावा जहाँ नियमों और प्रक्रियाओं के तहत प्राकृतिक संसाधन कार्पोरेट्स को दिए गए, वहां क्या सब ठीक चल रहा है?

उदाहरण के लिए, के.जी बेसिन गैस आवंटन के मुद्दे को लीजिए, जहाँ रिलायंस के दबाव के तहत यू.पी.ए सरकार नियमों का पालन करते हुए जिस तरह से गैस की कीमतें दुगुनी करने का फैसला कर चुकी है, क्या वह भ्रष्टाचार नहीं है?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को ले लीजिए, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के तहत जैसे बड़ी कंपनियों को अपनी मर्जी के मुताबिक वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें तय करने का अधिकार दे दिया गया, उसकी असली कीमत आम आदमी चुका रहा है. चाहे वह दवाओं की कीमतें तय करने का मसला हो या अस्पताल या स्कूल फीस या फिर बिजली की. यहाँ तक कि नियामक संस्थाएं बड़े कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने का माध्यम बन गई हैं.
इसी तरह केन्द्र सरकार हर साल बजट में बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों को पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन के नामपर देती हैं लेकिन आम आदमी को छोटी सी राहत को भी सब्सिडी बताकर उसमें कटौती की कैंची चलाने में जुटी रहती है. सवाल यह है कि क्या यह बेईमानी या भ्रष्टाचार नहीं है?

लेकिन मजे की बात यह है कि भ्रष्टाचार के इलाज के नाम पर आगे बढ़ाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार विश्व बैंक-मुद्रा कोष भी भ्रष्टाचार के खिलाफ है और भारत सरकार भी, सी.आई.आई/फिक्की/एसोचैम भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और आई.ए.एस एसोशियेशन भी और एन.जी.ओ भी भ्रष्टाचार रोकने के लिए लड़ रहे हैं और राजनीतिक दल भी.

लेकिन क्या ये सभी आम आदमी के प्रतिनिधि हैं? फिर भ्रष्टाचार बढ़ता क्यों जा रहा है? क्या यह सिर्फ कुछ व्यक्तियों का नैतिक विचलन भर है या एक संस्थागत चुनौती है? लेकिन केजरीवाल की आम आदमी की परिभाषा में अन्तर्निहित अंतर्विरोध सिर्फ यही नहीं है.
सवाल यह है कि सिर्फ भ्रष्टाचार का विरोध और ईमानदारी की कसमें खाकर झुग्गी-झोपड़ी से लेकर ग्रेटर कैलाश तक में रहनेवाले सभी लोग आम आदमी कैसे हो सकते हैं? पांच करोड़ के फ़्लैट में रहनेवाले और हर महीने लाखों-करोड़ों कमानेवाले अमीर के घर में घरेलू काम करनेवाली या उसकी कार के ड्राइवर या घर के चौकीदार या माली- सभी आम आदमी कैसे हो सकते हैं?
क्या लाखों-करोड़ों कमानेवालों के यहाँ काम के बदले सिर्फ कुछ हजार में किसी तरह गुजारा करनेवालों के लिए ईमानदारी के मायने एक ही हैं?
('शुक्रवार' के २६ जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त) 
 

मंगलवार, जनवरी 14, 2014

किस राह जाएगी आम आदमी पार्टी?

राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी मुश्किल सवालों से बच नहीं सकती है
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
तथ्य यह है कि दिल्ली के चुनावों में जिस तरह से जातियों, धर्मों और क्षेत्रीय अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति के कमजोर पड़ने के संकेत मिले हैं और शहरी मध्यमवर्ग से लेकर गरीबों तक के बीच अस्मिता और सशक्तिकरण से आगे एक बेहतर नागरिक जीवन की आकांक्षाओं की राजनीति ने आकार लेना शुरू किया है, वह केवल शहरों तक सीमित नहीं रहनेवाली है.
इसका असर गांवों पर भी पड़ेगा. नव उदारवादी अर्थनीति के कारण ग्रामीण इलाकों में जिस तरह का कृषि संकट पैदा हुआ है, उसमें छोटे और मंझोले किसानों का जीना दूभर हो गया है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर नहीं हैं और शिक्षा-स्वास्थ्य समेत तमाम बुनियादी सेवाओं के निजीकरण और बाजारीकरण ने उन्हें उनकी पहुँच से दूर कर दिया है, उसके खिलाफ ग्रामीण समुदाय खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों में जबरदस्त गुस्सा है.
यही नहीं, एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर पुलिस-थाने, कोर्ट-कचहरी, बैंक-ब्लाक समेत हर सरकारी दफ्तर में बिना घूस कोई सुनवाई नहीं होने के कारण हर आम आदमी परेशान है.   
कड़वी सच्चाई यह है कि राज्यों की राजधानियों से लेकर जिला और तहसील मुख्यालय तक राजनेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों का गिरोह विकास के नामपर आ रहे पैसे को खुलेआम निगलने में लगा हुआ है.

हैरानी की बात नहीं है कि राजधानियों से लेकर जिले की सड़कों पर दौड़ती लाल बत्ती लगी लाखों की फार्चुनर, प्राडो, स्कार्पियो, बोलेरो गाड़ियों में सबसे अधिक नेता-ठेकेदार-अपराधी और अफसर मिलेंगे. सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश जिलों में नेता-ठेकेदार-अपराधी के बीच की विभाजन रेखा कब की खत्म हो चुकी है. राजनीतिक कार्यकर्ता का मतलब थाने और अफसरों की दलाली हो गया है.

इसके अलावा जैसे कांग्रेस-सपा-राजद-अकाली दल-शिव सेना सहित सभी बड़ी मध्यमार्गी शासक पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का कब्ज़ा हो गया है, वैसे ही सभी बड़ी शासक पार्टियों में अधिकांश जिलों में धीरे-धीरे एक या दो परिवारों का कब्ज़ा हो गया है जिसमें एक या दो नेताओं के परिवार से ही विधायक, सांसद, जिला परिषद, नगर परिषद और मुखिया तक हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि गांव से लेकर तहसील/जिले तक में सफल नेता के ग्राम प्रधान/विधायक/सांसद/मंत्री बनते ही उसकी संपत्ति में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि होने लग रही है. यही नहीं, वह जिस तरह से विकास के पैसे से लेकर सार्वजनिक संपत्ति को दोनों हाथों से लूटने लग रहा है और लोगों की जमीन से लेकर मकान-दूकान कब्जाने में जुट जा रहा है, वह आमलोगों की नज़रों से छुपा नहीं है. उन्हें आमलोगों से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
मुश्किल यह है कि अधिकांश राज्यों में आमलोगों के पास अभी कोई विकल्प नहीं है या कमजोर विकल्प है और इस कारण जाति-धर्म और क्षेत्र की आड़ में एक भ्रष्ट-अपराधी-अवसरवादी राजनीति फलती-फूलती रही है. ऐसा नहीं है कि लोगों ने बदलाव और बेहतर राजनीति के लिए वोट नहीं किया. लोगों ने उपलब्ध विकल्पों में फेरबदल करके या नई शक्तियों को मौका देकर बदलाव की कोशिश की.
लेकिन ९० के बाद के पिछले दो दशकों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरे जनता दल और उसके विभिन्न विभाजित हिस्सों-सपा, राजद और जे.डी.-यू आदि को लोगों ने कई बार मौका दिया. इसके अलावा दलित उभार के प्रतीक के रूप में उभरी बसपा को भी कई मौके मिले.

यही नहीं, भाजपा को भी केन्द्र के अलावा कई राज्यों में मौका मिला लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति के कीचड़ को साफ़ करने के बजाय सभी उसमें और लिथड़ते चले गए. राजनीतिक सडन बढ़ती गई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच देश की अर्थव्यवस्था और उसके साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण पेशेवर लोगों, छात्रों, युवाओं की एक बड़ी तादाद आई है जो अस्मिताओं की राजनीति से आगे जाकर मौजूदा दमघोंटू भ्रष्ट राजनीति और असंवेदनशील शासन तंत्र में बदलाव चाहती है.

आखिर यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हो और राजनीति उससे अछूती रह जाए?

नतीजा, भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी और सुरक्षा की मांग को लेकर हुए आन्दोलनों में उत्तर नव उदारीकरण अर्थनीति के लाभार्थियों और उसके सताए लोगों के एक ढीले-ढाले लेकिन व्यापक गठबंधन ने मौजूदा भ्रष्ट और जनविरोधी राजनीति-अर्थनीति को चुनौती देने और बदलने की मुहिम को खुला और सक्रिय समर्थन दिया है.
इसमें याराना पूंजीवाद और निजीकरण-बाजारीकरण के गठजोड़ की लूट और आमलोगों पर पड़ रही उसकी मार से नाराज और बेचैन मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग से लेकर गरीब तक सभी शामिल हैं. यह एक इन्द्रधनुषी गठबंधन है जिसमें स्वाभाविक अंतर्विरोध और हितों के टकराव भी हैं लेकिन कई मामलों में एका भी है. इसमें ग्रामीण आप्रवासी श्रमिकों का भी एक अच्छा-खासा हिस्सा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ९० के बाद के दो दशकों में शहरों में व्यापक बदलाव हुए हैं और अस्मिताओं के संकीर्ण दायरों से इतर एक नए और व्यापक नागरिक पहचान की राजनीति के लिए जगह बनी है, उसी तरह पिछले दो दशकों में गांवों में भी बहुत कुछ बदला है. वहां भी लोगों की बेहतर जीवन और उसके लिए जरूरी नागरिक सुविधाओं और अधिकारों की आकांक्षाएं अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हैं. जमीन तैयार है और वहां भी चमत्कार हो सकता है.

लेकिन शहरों से बाहर बदलाव की इस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए न सिर्फ पर्याप्त सांगठनिक-राजनीतिक तैयारी जरूरी है बल्कि आप पार्टी को अपनी वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति भी ज्यादा साफ़ और धारदार बनानी होगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी की मौजूदा वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति न सिर्फ अस्पष्ट और धुंधली सी है बल्कि कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी चुप्पी या उससे बचने की कोशिश साफ़ दिखती है.

लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी इन सवालों से बच नहीं सकती है और देर-सबेर उसे इन सवालों के जवाब देने पड़ेंगे और अपनी राजनीतिक-वैचारिक स्थिति स्पष्ट करनी पड़ेगी. हालाँकि आप पार्टी क्रमश: सामाजिक-जनवादी दिशा में बढ़ती दिख रही है लेकिन यहाँ यह जोर देकर कहना जरूरी है कि उसके पास वैचारिक-राजनीतिक तौर पर वाम-लोकतांत्रिक राजनीतिक स्पेस में खड़ा होने या उसके करीब जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
इसकी वजह यह है कि बदलाव की राजनीति का बेहतर मुहावरा वाम-लोकतांत्रिक वैचारिकी और उसके वैश्विक खासकर लातिनी अमेरिकी प्रयोगों से ही मिल सकता है.
यह और बात है कि खुद सरकारी वामपंथी पार्टियां लोगों का भरोसा गँवा चुकी शासकवर्गीय मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टियों के साथ अवसरवादी संश्रय बनाते-बनाते उनकी ऐसी पिछलग्गू बन चुकी हैं कि अपनी चमक के साथ-साथ पहलकदमी भी गवां चुकी हैं.

दूसरी ओर, रैडिकल वाम की पार्टियां नए प्रयोग करने, नए मुहावरे गढ़ने और नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों के रैडिकल जनांदोलनों को नई ऊँचाई और स्तर पर ले जाने में नाकामी के बीच एक गंभीर गतिरोध में फंसी हुई दिखाई दे रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी को कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी मध्यमार्गी शासक पार्टियों की भ्रष्ट और कारपोरेटपरस्त राजनीति के मुकाबले एक मुकम्मल विकल्प दे पाने में सरकारी वाम मोर्चे और रैडिकल वाम की नाकामी का भी लाभ मिला है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वाम राजनीति का एजेंडा अप्रासंगिक हो गया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी इस वाम एजेंडे से बहुत कुछ ले और दिल्ली से पैदा हुई बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ा सकती है.

('सबलोग' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

सोमवार, जनवरी 13, 2014

'आप' की सफलता, संभावनाएं और सवाल

'आप' ने उम्मीदें बहुत जगाई हैं लेकिन आगे की राह विचार और राजनीति की स्पष्टता से ही बनेगी

हालिया विधानसभा चुनावों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के शानदार प्रदर्शन और कांग्रेस के समर्थन लेकिन आम लोगों से पूछकर अल्पमत की सरकार बनाने के बाद से आप पार्टी मीडिया की सुर्ख़ियों से लेकर राजनीतिक चर्चाओं और बहसों के केन्द्र में है.
यहाँ तक कि उत्तर भारत के तीन राज्यों खासकर मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा की भारी जीत की चमक, दिल्ली में आप पार्टी के दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद उसकी जीत के चमक के आगे फीकी पड़ गई है.
आप पार्टी की राजनीतिक सफलता के कारणों की पड़ताल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति में उसकी संभावनाओं तक के बारे में आकलनों और अनुमानों की बाढ़ सी आई हुई है. उसके घोर आलोचक भी उसे नजरंदाज नहीं कर पा रहे हैं, कई आलोचकों के सुर बदलने लगे हैं और प्रशसंकों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप चाहे आम आदमी पार्टी की आलोचना करें या उसकी प्रशंसा या उससे उम्मीद करते हुए सवाल खड़े करें या उसकी सीमाएं गिनाएं लेकिन इतना तय है कि उसे अनदेखा करना या पूरी तरह ख़ारिज करना संभव नहीं है.

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आप पार्टी की राजनीतिक कामयाबी केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रहनेवाली है क्योंकि यह कोई क्षेत्रीय पार्टी नहीं है और न ही इसने किसी क्षेत्रीय अस्मिता या मुद्दे की वैचारिकी-राजनीति के आधार पर कामयाबी हासिल की है.

हैरानी की बात नहीं है कि आप की कामयाबी की प्रतिध्वनियाँ देश के कई राज्यों-इलाकों-शहरों और यहाँ तक कि गांवों में भी सुनी जा रही है. यही नहीं, अच्छी-खासी संख्या में आम लोग, युवा और विद्यार्थी, अन्य दलों और जनांदोलनों से जुड़े कार्यकर्ता-नेता और जानी-मानी हस्तियाँ आम आदमी पार्टी में शामिल हो रही हैं.

असल में, आप पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली में कांग्रेस-भाजपा के बीच विभाजित द्विदलीय राजनीति में किसी नई राजनीतिक पार्टी के लिए खड़ी ऊँची प्रवेश बाधा को कामयाबी के साथ चुनौती दी, उसने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में कांग्रेस-भाजपा और दूसरे मध्यमार्गी दलों की भ्रष्ट-अवसरवादी-सत्तापरस्त-धनबल-बाहुबल की राजनीति से नाराज और ऊबे हुए आम आदमी में एक नई उम्मीद पैदा कर दी है.
इसमें सबसे खास बात यह है कि उसने हाल के महीनों में नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी की द्विधारी के लगातार तेज होते कानफोडू शोर को भी मंद कर दिया है. यही नहीं, आप पार्टी ने जिस तरह से राजनीति में सादगी-शुचिता और मुद्दों की वापसी पर जोर दिया है और उसे सत्तालोलुपता और वी.आई.पी संस्कृति के पर्याय के बजाय जनसेवा के साधन के बतौर पेश किया है, उससे उसने आमलोगों के एक बड़े तबके खासकर उच्च मध्यम वर्ग से लेकर निम्न मध्यम वर्ग और शहरी गरीबों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों का भरोसा जीतने और उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया में उतारने में कामयाबी हासिल की है.
इतना ही नहीं, आप पार्टी की कामयाबी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उसने भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन से निकली उर्जा को संगठित करने और चुनाव को भी एक आंदोलन बनाने में कामयाबी हासिल की है.

आश्चर्य नहीं कि उसने यह चुनाव लोगों की भागीदारी से लड़ा, चाहे प्रचार के लिए धन जुटाने का मसला हो या घर-घर जाकर प्रचार करने के लिए हजारों कार्यकर्ता तैयार करने की चुनौती. आप का चुनाव अभियान एक आंदोलन की तरह ही था जिसमें एक ताजगी थी और प्रचार के मामले में कई अनोखे प्रयोगों के जरिये उसने लोगों का ध्यान खींचने में सफलता हासिल की.

यही नहीं, चुनाव में उसकी शानदार सफलता की एक बड़ी वजह यह भी थी कि उसने दिल्ली चुनावों का एजेंडा- चाहे भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या बिजली-पानी की बढ़ी हुई दरों का मसला- तय किया था और उसके लिए लगातार सड़कों पर उतरकर आंदोलन किया था.  

यही नहीं, आप पार्टी ने खुद को शासक वर्ग की दोनों प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियों कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी सभी शासक मध्यमार्गी पार्टियों से बराबर की दूरी पर रखा, पूरे राजनीतिक और सत्ता तंत्र को निशाना बनाया और अपनी पहचान और पहुँच के दायरे को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एकसूत्री और संकीर्ण दायरे से आगे निकालने के लिए घोषणापत्र में बिजली-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य और महिला सुरक्षा से लेकर झुग्गीवासियों के आवास, ठेके पर काम कर रहे लाखों श्रमिकों के लिए स्थाई रोजगार जैसे ढेरों मुद्दे जोड़े.
निश्चय ही, इससे आप पार्टी को सामाजिक तौर पर अपने मध्यमवर्गीय संकीर्ण दायरे से बाहर फैलने और शहरी गरीबों, निम्न मध्यवर्ग, श्रमिकों और महिलाओं-युवाओं को साथ लाने में सफलता मिली है. आप पार्टी की कामयाबी का यह सबसे उल्लेखनीय पहलू है कि उसने ९० के दशक के बाद से भारतीय  राजनीति जिस संकीर्ण और प्रतिक्रियावादी अस्मिताओं की राजनीति का पर्याय सी बन गई थी, उसका एक सकारात्मक निषेध करते हुए धनबल-बाहुबल के दबदबे को तोडा है.
इसके अलावा आप पार्टी की सफलता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसने आम लोगों में यह भरोसा और उम्मीद पैदा की है कि अगर वे एकजुट हों तो राजनीति में न सिर्फ भ्रष्ट, धनबल-बाहुबल और जाति-धर्म की संकीर्ण राजनीति से अपना उल्लू सीधा करनेवाली पार्टियों और नेताओं को चुनौती दी जा सकती है बल्कि उन्हें शिकस्त भी दी जा सकती है.

इसने भारतीय राजनीति में ‘कुछ बदल नहीं सकता’ की निराशा-हताशा को काफी हद तक तोड़ने में कामयाबी हासिल की है. असल में, यह निराशा-हताशा और सत्ता के दमन का भय भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद पिछले साल बलात्कार विरोधी महिला सुरक्षा की बेख़ौफ़ आज़ादी आंदोलन के समय ही टूट गया था.

इन आन्दोलनों ने न सिर्फ आम लोगों खासकर युवाओं, महिलाओं और शहरी गरीबों को भ्रष्ट, असंवेदनशील और अन्यायपूर्ण राजनीतिक तंत्र से लड़ने की एक नई हिम्मत दी थी बल्कि उन्हें राजनीति में बदलाव के लिए सोचने और सक्रिय हस्तक्षेप के लिए भी प्रेरित किया था.

नतीजा, हमारे सामने है. इसमें कोई शक नहीं है कि आप पार्टी की जीत ने भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में नई उम्मीद पैदा की है. दमघोंटू राजनीति के बीच आप एक ताजा हवा के झोंके की तरह महसूस हो रही है. निश्चय ही, इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि आप पार्टी एक बिना अतीत या इतिहास की पार्टी है.
लोगों के सामने उसका भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष है, उसके युवा नेताओं की साफ़-सुथरी छवि है और लोगों को नव उदारवादी अर्थनीति की मार से राहत दिलानेवाली घोषणाएं/वायदे हैं. उसकी वैचारिक-राजनीतिक सीमाएं, समस्याएं और अंतर्विरोध और व्यक्तिगत कमियां/कमजोरियां सामने नहीं आईं हैं.
आश्चर्य नहीं कि शहरी मध्यवर्ग से लेकर गरीबों का एक बड़ा हिस्सा उसमें मौजूदा भ्रष्ट और क्षरित राजनीतिक संस्कृति को चुनौती देने और आम आदमी को नव उदारवादी पूंजी की मार से राहत दिलानेवाली और लोगों के प्रति जवाबदेह नई राजनीति की संभावनाएं देख रहा है.
यही कारण है कि दिल्ली चुनावों के बाद उसका तेजी से विस्तार हुआ और हो रहा है. आप पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में कोई ३०० से अधिक सीटों पर लड़ने के दावे कर रही है. राजनीतिक पंडितों एक हिस्से के बीच बहसों और चर्चाओं में आप पार्टी को कांग्रेस और भाजपा के मुकाबले एक तीसरी राजनीतिक ताकत के उभार के रूप में देखा जा रहा है.

यहाँ तक कि कई विश्लेषक भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के असली प्रतिद्वंद्वी के बतौर आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को देखने लगे हैं और कुछ विश्लेषक तो केजरीवाल में मोदी को सत्ता तक पहुँचने से रोकने की सम्भावना भी देखने लगे हैं.

यही नहीं, कई प्रमुख स्वतंत्र वामपंथी एक्टिविस्ट्स, विश्लेषक और बुद्धिजीवी इस कारण आप पार्टी को रणनीतिक रूप से समर्थन करने की वकालत भी कर रहे हैं.

हालाँकि लोकसभा चुनावों में आप पार्टी के प्रदर्शन को लेकर अभी से कयास लगाने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन इतना तय है कि राष्ट्रीय राजनीति में आप पार्टी के धमाकेदार प्रवेश ने मौजूदा राजनीतिक गणित और समीकरणों को कुछ हद तक ही सही लेकिन उलट-पुलट दिया है.
यह सच है कि पारंपरिक राजनीति के नियमों, बाधाओं और चुनौतियों को ध्यान में रखें तो सिर्फ
चार महीने बाद होने जा रहे आम चुनावों में आप पार्टी से किसी चमत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद करना एक तरह का अतिरेकी उत्साह होगा.
लेकिन अगर दिल्ली के चुनावों में आप की सफलता और उसके बाद बने उत्साहपूर्ण राजनीतिक माहौल में छिपी संभावनाओं पर गौर करें तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय राजनीति के पारंपरिक नियम टूट रहे हैं, बाधाएं कमजोर पड़ रही है और चुनौतियाँ अजेय नहीं हैं.
('सबलोग' के जनवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त) 

शनिवार, दिसंबर 14, 2013

दिल्ली से खुलता राष्ट्रीय राजनीति में तीसरा स्पेस

आप के साथ यह वामपंथी और रैडिकल वाम पार्टियों के लिए भी मौका है   

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी दो बड़ी और ताकतवर पार्टियों की मौजूदगी के बावजूद हाल में बनी आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन के कई अर्थ और सन्देश हैं.
लेकिन आप की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण सन्देश यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरी ताकत या वैकल्पिक राजनीति के लिए न सिर्फ जगह मौजूद है बल्कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक माहौल उसके लिए काफी उर्वर है.
लेकिन इस तीसरी ताकत को भारतीय राजनीति में कई बार आजमाए जा चुके गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तीसरे मोर्चे के अर्थ में नहीं देखा जाना चाहिए.
इसके उलट दिल्ली के जनादेश की भावना शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के अलावा सपा-बसपा-जे.डी-यू-तृणमूल-डी.एम.के-ऐ.आई.डी.एम.के-तेलगु देशम जैसी मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी तीसरे मोर्चे जैसे गठबंधनों के खिलाफ भी है. इसे सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ मानना बहुत बड़ी भूल होगी.

सच पूछिए तो दिल्ली में आप की चुनावी सफलता में शासक वर्ग की सभी छोटी-बड़ी पार्टियों और पूरे राजनीतिक वर्ग के भ्रष्टाचार, सत्तालोलुपता, आमलोगों पर महंगाई का बोझ लादने, कुशासन, गुंडागर्दी, मनमानी के खिलाफ आमलोगों के बढ़ते अविश्वास और गुस्से को सुन और पढ़ सकते हैं.

इस मायने में यह सिर्फ दिल्ली के चुनाव का नतीजा नहीं है और न ही इसका राजनीतिक प्रभाव दिल्ली तक सीमित है. इसे दिल्ली या आप तक सीमित परिघटना मानना सबसे बड़ी भूल होगी. आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में आप के प्रदर्शन की गूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है.
दिल्ली के नतीजे के बाद शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के अलावा गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों में बढ़ती घबड़ाहट और खासकर दिल्ली में जोड़तोड़ करके सरकार बनाने से भाजपा की झिझक और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के आप से सीखने और कांग्रेस में बदलाव के बयान से साफ़ है कि इन सभी को यह अहसास है कि आज जो दिल्ली में हुआ, वह कल देश में बाकी जगहों पर भी हो सकता है.
इस अर्थ में दिल्ली का जनादेश शासक वर्ग की सभी पार्टियों और उनकी राजनीति और अर्थनीति के खिलाफ एक वैकल्पिक, साफ-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति और अर्थनीति के हक में आया जनादेश है. यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि आप पार्टी वास्तव में इस वैकल्पिक, साफ़-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति की प्रतिनिधि बन गई है.

सच यह है कि उसकी वैकल्पिक और जनोन्मुखी राजनीति-अर्थनीति का सामने आना बाकी है. उसे आनेवाले महीनों में कई राजनीतिक परीक्षाएं पास करनी हैं और लोगों की उम्मीदों और भरोसे को बनाए रखना है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप पार्टी ने देश भर में इस वैकल्पिक राजनीति और अर्थनीति की संभावनाओं और उम्मीदों को जगा दिया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप की सफलता में आम लोगों की उस बेचैनी को साफ पढ़ा जा सकता है जो मौजूदा राजनीति के सत्तालोलुप-अवसरवादी गठबंधनों और उनके भ्रष्टाचार-लूटपाट से उब गए हैं, जो अपने रोजमर्रा के जीवन में रोजी-रोटी-शिक्षा-स्वास्थ्य-बेहतर अवसर और बिजली-सड़क-पानी-सार्वजनिक परिवहन से लेकर भ्रष्टाचार और अपराधमुक्त सार्वजनिक जीवन चाहते हैं और जो राजनीति में शुचिता और आदर्शों की वापसी की मांग कर रहे हैं.
असल में, दिल्ली के जनादेश ने इसी अर्थ में कांग्रेस-भाजपा और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों से इतर एक ऐसे वास्तविक तीसरे विकल्प की जरूरत को चिन्हित किया है जो न सिर्फ वैचारिक-नीतिगत और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की इन पार्टियों से अलग हो बल्कि उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के आचार-व्यवहार में भी यह फर्क दिखता हो.
यही भारतीय राजनीति का नया तीसरा स्पेस है जो ९० के दशक के जोड़तोड़ और अवसरवादी गठजोड़ों से बने तीसरे मोर्चे से बुनियादी चरित्र में अलग और उसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम से आगे अधिकतम वैकल्पिक कार्यक्रम की मांग कर रहा है.

आप पार्टी की इसी तीसरे स्पेस पर दावेदारी है. इसमें वे देश भर से बदलाव और जनांदोलनों की ताकतों को भी जोड़ना चाहते हैं. वे मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से अलग अनेकों छोटी पार्टियों से भी संपर्क कर रहे हैं लेकिन वे चाहते हैं कि ये सभी छोटी पार्टियां और जनसंगठन/जनांदोलन खुद को आप में विलीन कर दें.

लेकिन इसके लिए ये पार्टियां और जनांदोलन/जनसंगठन तैयार नहीं हैं. आप के सामने सबसे बड़ी चुनौती बदलाव की राजनीति और जनांदोलनों की इन पार्टियों, जनसंगठनों और समूहों को साथ ले आना और वैकल्पिक अर्थनीति और कार्यक्रम पेश करना है. 

लेकिन इस तीसरे स्पेस की एक स्वाभाविक दावेदार वामपंथी पार्टियां हैं. लेकिन इसके लिए मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों खासकर माकपा को दिल्ली के जनादेश को समझना और उससे सीखना होगा.
सच यह है कि वाम मोर्चे खासकर माकपा ने वामपंथ को अवसरवादी तीसरे मोर्चे और उसके साख खो चुके दलों और नेताओं जैसे लालू-मुलायम-मायावती-नीतिश-जयललिता-चंद्रबाबू-जगन मोहन जैसों का पिछलग्गू बनाकर उसकी साख खत्म कर दी है.
लेकिन उनके सामने यह मौका है जब वे देश भर में रैडिकल वामपंथ की ताकतों, लोकतांत्रिक शक्तियों और जुझारू जनांदोलनों के साथ मिलकर एक व्यापक वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा बनाने और वामपंथ की स्वतंत्र पताका और वैकल्पिक नीतियों-कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की पहल कर सकते हैं.
यही नहीं, यह ग्रामीण और शहरी गरीबों, खेतिहर मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों, आदिवासियों, निम्न मध्यवर्ग और बेरोजगार नौजवानों के सवालों और मुद्दों को फिर से राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर लाने और रैडिकल बदलाव का कार्यक्रम पेश करने का भी मौका है.

इसकी शुरुआत और अपनी खोई हुई साख को बहाल करने के लिए सबसे पहले वाम मोर्चे खासकर माकपा को बंगाल में नंदीग्राम-सिंगुर-लालगढ़ में आमलोगों के दमन के लिए जनता से माफ़ी मांगनी चाहिए. क्या वाम मोर्चे में इतना नैतिक साहस है?

क्या वह इस या उस मध्यमार्गी दल का पिछलग्गू बनने के लोभ को इसबार भी छोड़ पाएंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि यह वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी के लिए सबसे अनुकूल समय है. आप की सफलता वामपंथ के लिए एक सबक है. वामपंथ को इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.
अगर वामपंथ ने इस बार भी मौका चूका तो उसे इस ‘ऐतिहासिक भूल’ के लिए लंबे समय तक पछताना पड़ेगा. 
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 14 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)