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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

अर्थनीति वह जो कारपोरेट मन भाए

नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाने में जुटी है ‘आप’

आम आदमी पार्टी (आप) के आर्थिक दर्शन और नीतियों से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा है. हालाँकि पार्टी ने वायदे के बावजूद अब तक अपने आर्थिक दर्शन और अर्थनीति संबंधी दस्तावेज पेश नहीं किया है लेकिन उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल और मुख्य विचारक-रणनीतिकार योगेन्द्र यादव के हालिया भाषणों और बयानों से पार्टी की अर्थनीति की दिशा साफ़ होने लगी है.
केजरीवाल ने उद्योगपतियों के लाबी संगठन- सी.आई.आई की सभा में यह कहकर पार्टी के आर्थिक दर्शन की दिशा स्पष्ट कर दी कि पार्टी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है और वह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का विरोध करती है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और बिजनेस पूरी तरह से निजी क्षेत्र और उद्यमियों का काम है. इसके लिए लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज खत्म होना चाहिए.
दूसरी ओर, आप के मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने मुंबई में निवेशकों की एक सभा में कहा कि खाद्य सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि सीधे खाद्यान्न देना गरीबों की मदद का सबसे निष्प्रभावी और महंगा तरीका है.

उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बनाकर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके. यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए वि-नियमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है.

चौंक गए? ये बातें पहले भी सुनी हुई लग रही हैं? आपका चौंकना स्वाभाविक है क्योंकि आम आदमी पार्टी के नेताओं के अर्थनीति संबंधी इन बयानों में नया कुछ नहीं है. न भाषा में और न लहजे में. कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक दर्शन और अर्थनीति की दिशा यही है. केजरीवाल और योगेन्द्र यादव कमोबेश वही बोल रहे हैं जिसे देश पिछले दो दशकों से अहर्निश मनमोहन सिंह-पी. चिदंबरम-मोंटेक सिंह अहलुवालिया से सुनता रहा है और इन दिनों नरेन्द्र मोदी से सुन रहा है.
अगर आप की अर्थनीति की दिशा के बारे में केजरीवाल और यादव के ताजा बयानों और भाषणों को उसकी भविष्य में घोषित होनेवाली आर्थिक नीति की पूर्वपीठिका मानें तो सच यह है कि अर्थनीति के बुनियादी उसूलों और दिशा के बारे में मनमोहन सिंह, नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल की सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.        
संभव है कि योगेन्द्र यादव इसे स्वीकार न करें लेकिन संकेत यही है कि वे जिस अर्थनीति की वकालत कर रहे हैं, वह उसी नव उदारवादी अर्थनीति की बगलगीर दिखाई पड़ रही है जिसका समर्थन कांग्रेस और भाजपा करती रही हैं और जो पिछले दो दशकों से केन्द्र में सरकारों में बदलाव के बावजूद बिना किसी रुकावट के जारी हैं.

आम आदमी पार्टी की अर्थनीति- नव उदारवादी अर्थनीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थनीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थनीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थनीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थनीति तय करने के लिए सात सदस्यी नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं.

निश्चय ही, आम आदमी पार्टी के नव उदारवादी अर्थनीति को गले लगाने के साफ़ संकेतों के कारण उनके बहुतेरे समर्थकों और शुभचिंतकों को निराशा हुई है जो उससे अर्थनीति के मामले में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और दर्शन की अपेक्षा कर रहे थे.
हालाँकि पार्टी के विचारक और मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र का कहना है कि आप २० सदी की विचारधाराओं और वैचारिक खेमों- वाम और दक्षिण में विश्वास नहीं करती है और उन्हें भारत के लिए प्रासंगिक नहीं मानती है.
यह भी कि आप किसी भी पूर्व निर्धारित आर्थिक नीति के पैकेज से सहमत नहीं है और देश की जरूरतों के मुताबिक हर आर्थिक समस्या का घरेलू समाधान ढूंढने की कोशिश करेगी.  केजरीवाल भी कह चुके हैं कि वे वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों में यकीन नहीं करते हैं और समस्याओं का जहाँ से भी समाधान मिलेगा, उसे लेने में उन्हें परहेज नहीं होगा.
इन दावों और बयानों से ऐसा भ्रम होता है कि आप वाम और दक्षिण से अलग एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक वैचारिकी की वकालत कर रहा है. लेकिन सच यह है कि वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों और नीतिगत पैकेजों को ख़ारिज करने का जुबानी दावा करते हुए भी आम आदमी पार्टी वास्तव में एक दक्षिणपंथी आर्थिक एजेंडे यानी मुक्त बाजार की नव उदारवादी अर्थनीति को ही नए पैकेज में पेश करने की कोशिश कर रही है.

लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने-पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है. वैसे आप इसे छुपाना भी नहीं चाहती है. इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है.

इस मायने में कांग्रेस, भाजपा और आप यानी तीनों पार्टियां नव उदारवादी अर्थनीति के साथ खड़ी हैं और फर्क सिर्फ कुछ मामलों में जोर और प्रस्तुति भर का है. उदाहरण के लिए, कांग्रेस नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को गरीबों को कुछ मामूली राहतों (जैसे मनरेगा, भोजन के अधिकार आदि) के साथ लागू करने के पक्ष में है जबकि भाजपा-नरेन्द्र मोदी उसे बिना किसी बाधा और गरीबों को राहत देने जैसे सब्सिडी बोझ के बगैर लागू करना चाहते हैं.
वहीँ आप का दावा है कि वह इसे बिना याराना (क्रोनी) पूंजीवाद के लागू करना चाहती है. यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति को लागू करने के मामले में आप वास्तव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के ज्यादा करीब खड़ी है.     
असल में, आम आदमी पार्टी के नेताओं और रणनीतिकारों को लगता है कि शासन की पार्टी (पार्टी आफ गवर्नेंस) बनने के लिए बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना जरूरी है. इसके बिना सत्ता में पहुंचना और खासकर सरकार चला पाना मुश्किल है.

यही कारण है कि आप के नेता सी.आई.आई से लेकर मुम्बई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं.

ही नहीं, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सी.ए.जी से आडिट कराने और के.जी. बेसिन गैस मामले में एफ.आई.आर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कारपोरेट जगत को आश्वस्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं बल्कि चुनिंदा मामलों में लिए गए फैसले भर हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी अर्थनीति से याराना पूंजीवाद या भ्रष्टाचार को अलग किया जा सकता है? बिलकुल नहीं, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म का सीधा सम्बन्ध नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से है.
सच यह है कि इन सुधारों के साथ भ्रष्टाचार का भी पूरी तरह से उदारीकरण हो गया है. इसका सुबूत यह है कि आज़ादी के बाद से भारत से जो कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर गया, उसका ६८ प्रतिशत अकेले १९९१ के आर्थिक सुधारों के बाद से गया है. ग्लोबल फिनान्सियल इंटीग्रिटी (जी.एफ.आई) रिपोर्ट’२०१३ के मुताबिक, १९४८ से २००८ के बीच अवैध तरीके से भारत से लगभग २१३ अरब डालर की रकम विदेशों में खासकर आफशोर बैंकों में चली गई.
अगर इस रकम को मुद्रास्फीति के साथ एडजस्ट करें तो भ्रष्ट और घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों और माफियाओं ने इन साठ वर्षों में कोई ४६२ अरब डालर की रकम लूटकर विदेशों में भेज दिया. लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका ६८ प्रतिशत यानी ३१४ अरब डालर आर्थिक सुधारों के शुरू होने के बाद गए हैं.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, १९९१ के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन ९.१ प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरुआत के बाद उछलकर सीधे १६.४ प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट के अनुसार, २००२ से २००८ के बीच औसतन हर साल १६ अरब डालर यानी ७३६ अरब रूपये का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया.          

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा.
सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.
दूसरे, उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया.

नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.

इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.
सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं है.
इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक तरह की सब्सिडी ही है.

असल में, पिछले डेढ़-दो दशकों में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ‘तेज विकास दर और भारत को आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की आड़ में आगे बढ़ाया गया है, उसने वास्तव में गरीबों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और आम आदमी के हितों की कीमत पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा बेशकीमती सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिजों की बेशर्म लूट का रास्ता साफ़ किया है.

सच पूछिए तो यह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) नहीं बल्कि मूलतः यह लुटेरा पूंजीवाद (रोबर कैपिटलिज्म) है. लेकिन इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है. यह पूंजीवाद का कोई विपथगमन (एबेरेशन) नहीं बल्कि अन्तर्निहित चरित्र है. इसका इलाज मुक्त बाजार और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) नहीं है बल्कि ये इसके ही स्वाभाविक सहोदर हैं.
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी नीतिगत रूप से इसका विकल्प पेश किये बिना सिर्फ ईमानदार राजनीति के प्रस्ताव से समाधान का दावा कर रही है लेकिन वे भूल रहे हैं कि ईमानदार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं लेकिन वे कहाँ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाए?
याद रहे, मार्क्स ने कहा था कि राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है. साफ़ है कि केजरीवाल जिस नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाकर कार्पोरेट्स को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वह राजनीतिक रूप से भी उन्हें उसी याराना पूंजीवाद की गोद में बैठा देगी.

उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आप अर्थनीति के मामले में जो मध्य-दक्षिण (सेंटर-राईट) पोजिशनिंग की कोशिश कर रही है, वह उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा पाएगी. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण जगह खाली नहीं है. क्या उन्हें पता है कि वह जगह भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने पहले से ही भर दी है? वहां मोदी से प्रतियोगिता करके उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा. 

केजरीवाल चाहे या न चाहें लेकिन उनके सामने बाएं मुड़ने या मोदी की 'हवा' में उड़ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.  
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 22 फ़रवरी को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख   

शनिवार, जनवरी 25, 2014

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के नए दांव हैं मोदी

लोगों के सामने है सीमित और संकीर्ण आर्थिक विकल्पों के बीच चुनाव की मजबूरी 

लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केन्द्रीय सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के आर्थिक दर्शन और कार्यक्रमों/योजनाओं को लेकर आम लोगों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक और शेयर बाजार के सटोरियों से लेकर देशी-विदेशी औद्योगिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी की उत्सुकता और दिलचस्पी बढ़ गई है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन चुनावों में आर्थिक-राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सवाल यह है कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से निपटने तक, कृषि से लेकर उद्योगों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और गरीबी से लेकर बढ़ती गैर बराबरी तक अनेकों गंभीर आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री के दावेदारों का आर्थिक दर्शन क्या है और उनके पास कौन से कार्यक्रम/योजनाएं हैं?
हालाँकि दोनों ही गठबंधनों के विस्तृत आर्थिक दर्शन, कार्यक्रम और योजनाओं के लिए उनके घोषणापत्र और विजन दस्तावेज का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन बीते सप्ताह कांग्रेस की ओर से चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे राहुल गाँधी ने कांग्रेस महासमिति और खासकर भाजपा/एन.डी.ए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपना आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम पेश किया है.

इसमें भी जहाँ राहुल गाँधी आर्थिक दर्शन के नामपर यू.पी.ए सरकार की उपलब्धियों (आर.टी.आई, मनरेगा, आर.टी.ई और भोजन के अधिकार आदि) को गिनाने और समावेशी विकास के रटे-रटाए जुमलों को दोहराने से आगे नहीं बढ़ पाए, वहीँ नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े कार्यक्रमों/योजनाओं और कुछ लोकप्रिय मैनेजमेंट जुमलों के एलान के जरिये सपनों की सौदागरी करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो मोदी और राहुल के आर्थिक दर्शन में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.
लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ‘मुक्त बाजार’ पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं जो अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका पर जोर देती है बल्कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने की पैरवी करती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है लेकिन कीमत भारी चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है.

इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ने के कारण बेचैन होने लगे हैं. वे सरकार से सुधारों की गति तेज करने यानी सब्सिडी में कटौती और खुद के लिए अधिक से अधिक रियायतें मांग रहे हैं.    
हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए/कांग्रेस की अर्थनीति की आलोचना करते हुए कहा कि वे ‘खैरात बाँटने’ वाली आर्थिक सैद्धांतिकी (डोलोनोमिक्स) यानी सब्सिडी के विरोधी हैं. हालाँकि वे गरीबों और कमजोर वर्गों के वोट को लुभाने के दबाव के कारण यह खुलकर नहीं कहते लेकिन इसका सीधा संकेत यह है कि वे मनरेगा और ऐसी दूसरी ‘लोकलुभावन योजनाओं’ में सब्सिडी दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं.

उनका तर्क है कि सिर्फ वोट बटोरने के लिए शुरू की गई लोकलुभावन योजनाएं गरीबों और कमजोर वर्गों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देतीं, कीमती संसाधनों की बर्बादी है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और सबसे बढ़कर मुक्त बाजार की व्यवस्था को तोडमरोड (डिसटार्ट) करती है.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों की तरह उनका भी दावा है कि वे अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करके रोजगार के नए अवसर पैदा करेंगे ताकि गरीबों को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिल सके.

दरअसल, मोदी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसकी ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेंस’ के सपनों के साथ पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. एक अच्छे सेल्समैन की तरह वे देश के चारों दिशाओं में बुलेट ट्रेन से लेकर १०० स्मार्ट शहर बसाने, देश के हर राज्य में आई.आई.टी-आई.आई.एम-एम्स खोलने से लेकर ब्रांड इंडिया को चमकाने और गैस ग्रिड से लेकर राष्ट्रीय फाइबर आप्टिक ब्राडबैंड नेटवर्क बनाने तक की बड़ी और अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के एलान से निम्न, मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग को चमत्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं.
दूसरी ओर, कृषि से लेकर गांव तक और किसान से लेकर महिलाओं और युवाओं की बातें करके सबको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीँ आर.एस.एस से जुड़े अपने कोर समर्थकों को पारिवारिक मूल्यों से लेकर भारत माता के नारों से बाँधने में जुटे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे अपने आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम/योजनाओं को वोटरों के सभी वर्गों के लिए आकर्षक और लुभावना बनाने के लिए हर उस सपने को बेच रहे हैं जो पिछले डेढ़ दशकों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स ने देश को बेचने की कोशिश की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी की बड़ी-बड़ी घोषणाएं और योजनाएं उनकी मौलिक सोच से नहीं बल्कि वहीँ से आईं हैं. आप चाहें तो पिछले सालों में विश्व बैंक-मुद्राकोष से लेकर मैकेंसी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, प्राइस-हॉउस कूपर्स जैसी बड़ी कारपोरेट कंसल्टिंग कंपनियों और योजना आयोग तक और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसी औद्योगिक लाबी संगठनों से लेकर गुलाबी अखबारों और मैनेजमेंट गुरुओं के भाषणों, सलाहों, पालिसी दस्तावेजों और कंट्री पेपर्स में इन बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाओं के ब्लू-प्रिंट देख सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं पर शेयर बाजार, देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक खुश हैं और मोदी के सत्ता में आने की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को अब सिर्फ मोदी से ही उम्मीदें हैं कि वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि कांग्रेस/यू.पी.ए की साख भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण बहुत नीचे गिर गई है.
देशी-विदेशी कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को मोदी के रूप में एक ऐसा नेता दिखाई पड़ रहा है जिसकी नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और जो इसे बेहतर तरीके से पैकेज और मार्केट करके लोगों में स्वीकार्य भी बना सकता है.
यही नहीं, कार्पोरेट्स को यह भी भरोसा है कि मोदी ही इन सुधारों और बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं (पास्को, वेदांता आदि) की राह में रोड़ा बन रहे ‘जल, जंगल और जमीन’ बचाने के जनांदोलनों से राजनीतिक और पुलिसिया तरीके से सख्ती से निपट सकते हैं. मोदी ने जिस तरह से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को दबाने की कोशिश की या अपने हाल के भाषणों में ‘झोलावालों’ (एन.जी.ओ और जनांदोलनों) को निशाना बनाया है, उससे भी कारपोरेट क्षेत्र आश्वस्त है.

गुजरात में मोदी ने ‘डिलीवर’ करके दिखाया है जबकि यू.पी.ए/कांग्रेस का ‘समावेशी विकास’ का नव उदारवादी माडल अब उस तरह से ‘डिलीवर’ नहीं कर पा रहा है, जैसे उसने २००४ के बाद के शुरूआती पांच-सात वर्षों में ‘डिलीवर’ किया था. यही नहीं, कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए मोदी ने हाल में फिक्की के सम्मेलन में वायदा किया कि वे यू.पी.ए सरकार के राज में शुरू किये गए ‘टैक्स आतंकवाद’ को खत्म करेंगे.

उल्लेखनीय है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले काफी दिनों से वोडाफोन से लेकर नोकिया टैक्स विवाद को सरकार का ‘टैक्स आतंकवाद’ बता रहे हैं. मोदी इससे निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स मोदी से खुश क्यों हैं?
लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी अपने आर्थिक दर्शन और योजनाओं/कार्यक्रमों से गरीबों और आम आदमी को अपनी ओर खींच पाएंगे? दूसरे, क्या वे जो वायदे कर रहे हैं, उसे ‘डिलीवर’ कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना एक बात है और उसे आर्थिक तौर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है.
याद रहे कि देश में कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं क्योंकि उनकी आर्थिक-वित्तीय उपयोगिता (वायबिलिटी) पर सवाल उठ गए हैं. उदाहरण के लिए, बुलेट ट्रेन की योजना दुनिया के अधिकांश देशों में नाकाम साबित हुई है.
दूसरी ओर, कांग्रेस/यू.पी.ए ने २०१२ के उत्तरार्ध से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी खत्म करने से लेकर हाल में के.जी. बेसिन गैस की कीमतों और पर्यावरण सम्बन्धी रुकावटों को हटाने के फैसलों के जरिये बड़ी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने की कोशिश की है लेकिन लगता है कि अब तक काफी देर हो चुकी है.

यही कारण है कि राहुल गाँधी के सी.आई.आई और फिक्की के सम्मेलनों में जाकर कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने के बावजूद वे उनका भरोसा नहीं हासिल कर पा रहे हैं. यही नहीं, कांग्रेस की आर्थिकी अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गई है और वह न कार्पोरेट्स का और न आम आदमी का भरोसा जीत पा रही है.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों की बुनियादी तौर पर एक तरह के आर्थिक दर्शन- नव उदारवादी और कारपोरेटपरस्त सैद्धांतिकी और योजनाओं/कार्यक्रमों के कारण आमलोगों के पास चुनने को वास्तव में बहुत सीमित और संकीर्ण विकल्प रह गया है.   

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 25 जनवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, जुलाई 06, 2013

याराना पूंजीवाद की एक और मिसाल है गैस की बढ़ी कीमतें

आम आदमी को चुकानी पड़ेगी इस बढ़ोत्तरी की कीमत
दूसरी क़िस्त 
इसी तरह खाद की कीमतों में भी भारी इजाफा करना होगा लेकिन सवाल यह है कि पहले से ही बिजली से लेकर बीज-खाद-कीटनाशकों की बढ़ी कीमतों के कारण उत्पादन लागत बढ़ने से त्रस्त गरीब और मंझोले किसान क्या यह बोझ उठा पाएंगे?
क्या इस बढ़ी लागत की भरपाई के लिए सरकार अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाएगी? क्या इससे महंगाई और नहीं बढ़ेगी? क्या यह फैसला महंगाई की आग में घी डालनेवाला नहीं है?
असल में, इस फैसले के लागू होने के बाद उसका असर चौतरफा होगा क्योंकि बिजली, परिवहन और उर्वरकों की लागत में भारी इजाफे से हर वस्तु-उत्पाद और सेवा की कीमत में बढ़ोत्तरी तय है. इससे चौतरफा महंगाई बढ़ेगी. ऐसा नहीं है कि सरकार को यह पता नहीं है. खुद वित्त मंत्री से लेकर पेट्रोलियम मंत्री तक यह स्वीकार करते हैं कि इससे उपभोक्ताओं पर बोझ पड़ेगा.

लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई है, उससे और क्या नतीजा निकाला जा सकता है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अम्बानी की रिलायंस को होगा. यह एक तरह से छप्पर-फाड़ मुनाफे की गारंटी है. यह ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का एक और उदाहरण है जब एक बड़े कार्पोरेट्स समूह के फायदे के लिए सार्वजनिक और आम आदमी के हितों को कुर्बान करने में भी सरकारें शर्माती नहीं हैं.

याद कीजिए, आज से सिर्फ चार साल पहले जब के.जी बेसिन गैस की कीमतों को तय करने को लेकर दोनों अम्बानी भाइयों- मुकेश और अनिल अम्बानी के बीच कानूनी जंग चल रही थी, मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने तर्क था कि गैस राष्ट्रीय संपत्ति है और इसकी कीमतें तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है.
उस समय भी यू.पी.ए सरकार ने मुकेश अम्बानी को खुश करने के लिए गैस की कीमतें २.४० डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दोगुना बढ़ाकर ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दी थी. उस समय ये कीमतें २०१४ तक के लिए तय की गईं थीं लेकिन दो साल बीतते ही रिलायंस ने ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ को अपनी संपत्ति मानकर उसकी कीमतें फिर से बढ़ाने का दबाव डालना शुरू कर दिया. इसके लिए उसने सुनियोजित तरीके से के.जी. बेसिन से गैस का उत्पादन कम करना शुरू कर दिया.
तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने विरोध किया और गैस का उत्पादन कम करने के लिए रिलायंस पर जुर्माना ठोंकने की पहल की तो उन्हें हटा दिया गया. यह किसी से छुपा नहीं है कि पेट्रोलियम मंत्रालय में रिलायंस की पसंद के मंत्री और अधिकारी ही टिक पाते हैं.

यह और बात है कि रिलायंस के.जी. बेसिन की गैस के उत्पादन के लिए नियुक्त ठेकेदार भर है और इसकी असली मालिक सरकार है. लेकिन मजे की बात यह है कि के.जी. बेसिन की गैस के मुनाफे का ९० फीसदी रिलायंस को जाता है और ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की ट्रस्टी सरकार के खजाने में सिर्फ १० फीसदी मुनाफा आता है.

यही नहीं, घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत डालर में तय करने का औचित्य भी समझ से बाहर है? जब देश में पैदा होनेवाली किसी और चीज की कीमतें घरेलू उपभोक्ताओं के लिए डालर में नहीं तय की जाती हैं तो गैस की कीमत डालर में क्यों तय की गई है?
कहने की जरूरत नहीं है कि गैस की कीमतें डालर में तय करने से भी गैस कंपनियों को भारी फायदा है क्योंकि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के साथ उनका मुनाफा मौजूदा कीमतों पर ही बढ़ता रहता है. उदाहरण के लिए, पिछले दो महीनों में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ११ फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की है जिसका अर्थ यह है कि बिना किसी हर्रे-फिटकरी के रिलायंस के मुनाफे में ११ फीसदी की बढ़ोत्तरी.
यही नहीं, पिछले दो वर्षों में गैस की कीमत में बिना बढ़ोत्तरी के भी सिर्फ डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ३३ फीसदी से ज्यादा की गिरावट के कारण रिलायंस को ३३ फीसदी ज्यादा फायदा हुआ है.

सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के बीच गैस की कीमतों में डालर में १०० फीसदी बढ़ोत्तरी से रिलायंस के मुनाफे में कितना भारी मुनाफा होगा और देश और आम उपभोक्ताओं को कितना भारी नुकसान होगा. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सरकार कीमतें बढाते हुए बार-बार आयातित गैस की १४.१७ डालर की कीमत का हवाला दे रही है.

सवाल यह है कि अगर घरेलू गैस और आयातित गैस की कीमतें बराबर होंगी तो घरेलू खोज और उत्पादन की क्या जरूरत है?

दूसरे, उर्जा विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने वास्तविक उदाहरण के जरिये बताया है कि दुनिया के अलग-अलग बाजारों में गैस की कीमतें अलग-अलग हैं और उन्हें नजीर के बतौर पेश करना उचित नहीं है. याद रहे कि अमेरिका से लेकर पडोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी घरेलू गैस की कीमतें भारत से कम हैं.
ऐसे में, यू.पी.ए सरकार के इस फैसले पर गंबीर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. आखिर अगले साल चुनाव हैं और इतना महत्वपूर्ण फैसला अगली सरकार पर छोड़ने के बजाय यू.पी.ए सरकार ने अगले साल अप्रैल से लागू होनेवाले कीमतें अभी तय करने की हड़बड़ी क्यों दिखाई? इस फैसले की राजनीतिक नैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं. वामपंथी पार्टियों ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है. 
लेकिन हैरानी की बात यह है कि २०१४ में प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर रहे और यू.पी.ए सरकार के कटु आलोचक नरेन्द्र मोदी सरकार के इस फैसले पर चुप हैं? भाजपा से लेकर सपा-जे.डी-यू-बसपा तक सभी खामोश हैं.

आखिर मुकेश अम्बानी को नाराज करने का जोखिम लेना इतना आसान नहीं है? क्या मान लिया जाए कि, ‘सभी पार्टियां अब मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी हैं?’

('शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

किसके लिए बढ़ाई गईं हैं गैस की कीमतें?

आम उपभोक्ताओं को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी जबकि रिलायंस चांदी नहीं सोना काटेगी

पहली क़िस्त

यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने के लिए बेचैन है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उसकी यह बेचैनी बढ़ती जा रही है. कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है.
इसका ताजा सबूत यह है कि खुद सरकार के अंदर बिजली और उर्वरक मंत्रालय के अलावा कई वरिष्ठ मंत्रियों की आपत्तियों और विरोध को ठुकराते हुए उसने प्राकृतिक गैस की कीमतों को दोगुना करने का फैसला किया है. इस फैसले के मुताबिक, अगले साल एक अप्रैल से प्राकृतिक गैस की कीमत मौजूदा ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू (मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) से १०० फीसदी बढ़कर ८.४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू हो जाएगी.
मजे की बात यह है कि खुद पेट्रोलियम मंत्रालय ने गैस की कीमत ६.७७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू प्रस्तावित किया था लेकिन मंत्रिमंडल ने कई कदम आगे बढ़कर उसे ८.४२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने का फैसला किया.

यही नहीं, इसके बाद हर तीन महीने पर कीमतों की समीक्षा होगी जिसका एक ही अर्थ है कि कीमतें आगे भी बढ़ती रहेंगी और हैरानी नहीं होगी, अगर २०१५ तक ये १४-१५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू तक पहुँच जाएँ.

ऐसा मानने की वजह यह है कि घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमतें तय करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है जिसने गैस की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय कीमतों और आयातित गैस की कीमतों के बराबर करने का फार्मूला पेश किया है.

यह फार्मूला कुछ ऐसा है, जैसे भारत में पैदा होनेवाले अनाजों और फलों-सब्जियों की कीमत अंतर्राष्ट्रीय कीमतों या अमेरिका/यूरोप की कीमतों के बराबर कर दिया जाए. उदाहरण के लिए, अमेरिका में इस समय टमाटर अगर लगभग २ डालर प्रति किलो है तो भारत में उसकी कीमत १२० रूपये प्रति किलो कर दी जाए.
हैरानी की बात यह है कि यह फार्मूला सुझानेवाले अर्थशास्त्री सी. रंगराजन की घरेलू गैस की कीमतें तय करने के बारे में कोई विशेषज्ञता नहीं है. ‘द हिंदू’ के संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख में उर्जा मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने घरेलू गैस की कीमतों को तय करने के रंगराजन समिति के फार्मूले को ‘खुला मजाक’ बताया था. उनका तर्क था कि घरेलू गैस की कीमतें घरेलू उत्पादन लागत, मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होनी चाहिए.           
इसके बावजूद सरकार ने ९ महीने बाद लागू होनेवाली गैस की कीमतों को जिस जल्दबाजी में दोगुना बढ़ाने का फैसला किया है, उससे उसकी असली मंशा साफ़ हो जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के तुरंत बाद कई सप्ताहों से पस्त चल रहे शेयर बाजार में अचानक ५१२ अंकों का उछाल दर्ज किया गया. खासकर मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस के अलावा अन्य सरकारी तेल-गैस कंपनियों के शेयरों की कीमतों में खासी तेजी देखी गई.

इससे अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस फैसले से किसे फायदा होगा और सबसे अधिक खुश कौन होगा? यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मुकेश अम्बानी की रिलायंस पिछले दो साल से यू.पी.ए सरकार पर गैस की कीमतों को बढ़ाने की मांग को लेकर जबरदस्त दबाव बनाए हुए थी.

इसके लिए उसने देश में गैस की भारी किल्लत और उसके कारण अनेकों गैस आधारित बिजलीघरों के ठप्प पड़े रहने के बावजूद कृष्णा-गोदावरी (के.जी.) बेसिन से गैस का उत्पादन घटाकर महज १९ प्रतिशत तक कर दिया था. यही नहीं, रिलायंस के दबाव का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस मांग का विरोध कर रहे तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को पिछले साल के मंत्रिमंडल फेरबदल में हटाकर विज्ञान और तकनीकी मंत्री बना दिया गया था.
उसी दिन यह तय हो गया था कि यू.पी.ए सरकार मुकेश अम्बानी की मांग को पूरा करने में ज्यादा समय नहीं लगायेगी. उम्मीद के मुताबिक, नए पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली पिछले छह महीने से इस एकसूत्री मुहिम में जुटे हुए थे और रिलायंस को छप्पर फाड़ मुनाफे की गारंटी करनेवाले इस फैसले के पक्ष में दलीलें तैयार कर रहे थे.  
इस फैसले के पक्ष में यू.पी.ए सरकार और मोइली की सबसे बड़ी दलील यह है कि इससे प्राकृतिक गैस की खोज और उत्पादन के क्षेत्र में निवेश खासकर विदेशी बढ़ेगा जिससे गैस के उत्पादन में वृद्धि होगी और आयात पर निर्भरता कम होगी.

लेकिन सच ठीक इसके उलट है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, खुद मंत्रिमंडल की बैठक में पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि इस फैसले के कारण सरकार समेत आम लोगों पर पड़नेवाला बोझ निश्चित है लेकिन इसके संभावित फायदे अनिश्चित हैं. यह बोझ मामूली नहीं है.

सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता के मुताबिक, अकेले रिलायंस की के.जी बेसिन गैस की बढ़ी कीमतों के कारण बिजली और उर्वरक के मद में सरकार पर पांच वर्षों (२०१४-२०१९) में ९६००० करोड़ रूपये की सब्सिडी का बोझ पड़ेगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि भविष्य में गैस की कीमतों में और बढ़ोत्तरी के साथ सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता जाएगा. लेकिन राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती की मौजूदा नीति के मद्देनजर सरकार आखिरकार यह बोझ आम उपभोक्ताओं पर ही डालेगी जिसका अर्थ होगा- यात्रा भाड़े से लेकर बिजली और खाद की दरों में भारी बढ़ोत्तरी.
एक मोटे आकलन के मुताबिक, ताजा वृद्धि के लागू होने पर गैस से बननेवाली बिजली में प्रति यूनिट दो रूपये की वृद्धि होगी जबकि यूरिया ६००० रूपये टन यानी प्रति किलो ६ रूपया महंगा हो जाएगा. इसी तरह सी.एन.जी की कीमतों में न्यूनतम ३० फीसदी की बढ़ोत्तरी तय है.
स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक, गैस की बढ़ी हुई कीमतों के बाद गैस से बननेवाली बिजली की कीमत प्रति यूनिट लगभग ५.४० रूपये से लेकर ६.४० पैसे प्रति यूनिट तक पहुँच सकती है. सवाल यह है कि क्या बिजली की यह भारी कीमत आम उपभोक्ता चुका पाएंगे?

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का तर्क है कि आम उपभोक्ता चाहता है कि बिजली न होने से अच्छा है कि थोड़ी महँगी ही सही लेकिन बिजली मिले. लेकिन लगता है, चिदम्बरम बहुत धूम-धाम के साथ शुरू हुए एनरान के दाभोल प्रोजक्ट को भूल गए जो इसलिए फ्लाप साबित हुआ क्योंकि उसकी बिजली बहुत महँगी थी और राज्य बिजली बोर्ड महँगी बिजली खरीदकर सस्ती बिजली बेचने के कारण दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया.

आशंका यह है कि घरेलू गैस की कीमतों में भारी वृद्धि के बाद गैस से चलनेवाले ज्यादातर बिजलीघर महँगी बिजली के कारण एनरान की गति को प्राप्त होंगे या फिर इसकी कीमत आम उपभोक्ता को चुकानी होगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। कल पढ़िए अगली क़िस्त) 

बुधवार, अप्रैल 03, 2013

सोने की भूख और चालू खाते का बढ़ता घाटा

अमीर फैला रहे चादर से बाहर पैर लेकिन उसकी कीमत चुकायेंगे गरीब

ऊँची मुद्रास्फीति और घटती वृद्धि दर के बीच बेहाल भारतीय अर्थव्यवस्था एक और बड़ी मुसीबत में फंसती हुई दिखाई दे रही है. यह मुसीबत है चालू खाते का घाटा जो १९९१ के दुगुने से भी ज्यादा हो चुका है और जिसके कारण दो दशक पहले भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.
ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, चालू खाते का घाटा वित्तीय वर्ष (१२-१३) की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में उछलकर जी.डी.पी के ६.७ फीसदी तक पहुँच गया है. साफ़ तौर पर चालू खाते का घाटा खतरे के निशान को पार कर गया है. खुद वित्त मंत्री ने भी बजट भाषण में स्वीकार किया था कि चालू खाते का बढ़ता घाटा उनके लिए सबसे बड़ी चिंता है.
यही नहीं, ब्रिक्स सम्मेलन से लौटते हुए खुद प्रधानमंत्री ने माना कि चालू खाते के घाटे की स्वीकार्य सीमा जी.डी.पी की ३ फीसदी है. चालू खाते का घाटा किसी देश के सेवाओं और जिंसों के निर्यात, विदेशों में निवेश और कैश ट्रांसफर से होनेवाली कुल आय और सेवाओं-जिंसों के आयात, देश में विदेशी निवेश और कैश ट्रांसफर पर होनेवाले खर्च के बीच का अंतर है.

यह अर्थव्यवस्था की सेहत का महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता है. इसकी भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा की जरूरत पड़ती है जिसके अभाव में कई बार देशों को अपनी देनदारियों के भुगतान में चूकना पड़ा है. इसका बहुत नकारात्मक असर उस देश की मुद्रा और उसकी साख पर पड़ता है.

यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था १९९१ के मुकाबले आज इस मायने में ज्यादा बेहतर स्थिति में है कि आज भारत के पास विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भण्डार है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, भारत के पार इस समय कुल २९३.४ अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है जोकि छह महीने के आयात के लिए पर्याप्त है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि दिसंबर’१२ में भारत का कुल विदेशी कर्ज ३७६.३ अरब डालर तक
पहुँच गया है और इस तरह विदेशी मुद्रा का भण्डार इसके ७८.६ फीसदी की ही भरपाई कर सकता है. यह साफ़ तौर पर सिर्फ नौ महीने पहले मार्च’१२ के कुल विदेशी कर्ज-कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात ८५.२ प्रतिशत की तुलना में बदतर होती स्थिति की ओर इशारा कर रहा है.
लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात है कि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज की मात्रा तेजी से बढ़ रही है. मार्च’१२ की तुलना में दिसंबर’१२ में जहाँ दीर्घावधि के विदेशी कर्ज में ६.४ प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीँ लघु अवधि के कर्ज में १७.५ फीसदी की तेज उछाल दर्ज की गई और यह ९१.९ अरब डालर पहुँच गया है. दिसंबर’१२ में लघु अवधि के विदेशी कर्ज, कुल विदेशी कर्ज के २४.४ फीसदी तक पहुँच गए हैं.

माना जाता है कि विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात जितना ज्यादा होता है, उससे अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का खतरा उतना ही बढ़ता जाता है. याद रहे कि ९० के दशक के उत्तरार्द्ध में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इसी कारण गहरे संकट में फंस गईं थीं.

हालाँकि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में कम है लेकिन चिंता की बात यह है कि यह तेजी से बढ़ रहा है. इसके तेजी से बढ़ने की एक बड़ी वजह चालू खाते का घाटा है जिसकी भरपाई के लिए लघु अवधि के कर्ज लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है.
यही नहीं, चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा को आकर्षित करने का दबाव और बढ़ जाता है. खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट भाषण में माना कि चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए इस साल कोई ७५ अरब डालर की जरूरत पड़ेगी और यह सिर्फ एफ.डी.आई, एफ.आई.आई और विदेशी व्यावसायिक कर्ज से ही आ सकता है.  
लेकिन विदेशी पूंजी अपनी ही शर्तों और कीमत के साथ आती है. नतीजा यह कि सरकार पर विदेशी निवेशकर्ताओं को न सिर्फ अधिक से अधिक छूट और रियायतें देने का दबाव रहता है बल्कि उसे उनकी अनुचित शर्तों को भी मानना पड़ता है.

उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने न सिर्फ अर्थव्यवस्था के कई संवेदनशील क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार, बीमा-पेंशन को प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश के लिए खोलने और उन्हें खुश करने के लिए टैक्स बचाने पर रोक नियमों (गार) को टालने का फैसला किया है बल्कि आवारा पूंजी कहे जानेवाले विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को लुभाने के लिए कई वित्तीय लेखपत्रों में निवेश की सीमा बढ़ाने से लेकर कई छूट/रियायतें दी गईं हैं.

यह सही है कि इसके कारण पिछले छह महीनों में देश में विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी यानी एफ.आई.आई का प्रवाह तेजी से बढ़ा है जबकि एफ.डी.आई में उस अनुपात में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है.
लेकिन आवारा पूंजी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह संकट का पहला संकेत मिलते ही देश छोड़कर निकल जाती है. उसके निकालने का सीधा असर वित्तीय बाजारों की स्थिरता और रूपये की कीमत पर पड़ता है और अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
पिछले दो-ढाई दशकों में दुनिया भर के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट में फंसने में इस आवारा पूंजी का पलायन एक बड़ी वजह रही है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजर चालू खाते को घाटे को कम करने के ठोस उपाय करने के बजाय उस घाटे की भरपाई के लिए देश को लघु अवधि के कर्जों और आवारा पूंजी पर निर्भर बनाते जा रहे हैं.

सवाल यह है कि चालू खाते का घाटा इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? इसकी मुख्य वजह यह है कि निर्यात में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है जबकि आयात तेजी से बढ़ रहा है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष २००१ में भारत का आयात जी.डी.पी का १० फीसदी था जो वर्ष २०११ में बढ़कर २५ फीसदी से ऊपर पहुँच चुका है जबकि इसी अवधि में निर्यात जी.डी.पी का ९.२ फीसदी से १६ फीसदी पहुंचा है.

साफ़ है कि भारत चादर से ज्यादा पैर फैला रहा है और यह खतरे की घंटी है. असल में, भारत के आयात में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल और सोने का है. खासकर पिछले कुछ सालों में देश में जिस
तरह से सोने की भूख बढ़ी है, वह चौंकानेवाली है.
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा सोना आयातक देश है. यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक खासकर पिछले चार वर्षों में तेजी से बढ़ी है. रिपोर्टों के मुताबिक, वर्ष २००२-०३ में भारत ने ३.८ अरब डालर का सोना आयात किया जो वर्ष २००३-०४ में लगभग तिगुना उछलकर १०.५ अरब डालर तक पहुँच गया. यह २००९-१० में और बढ़कर २८.६ अरब डालर और वर्ष ११-१२ में रिकार्ड़तोड़ उछाल के साथ ५७.५ अरब डालर तक पहुँच गया. चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) के पहले नौ महीनों में सोने का आयात ३९.५ अरब डालर पहुँच चुका है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इतनी भारी मात्रा में सोने के आयात के कारण न सिर्फ चालू खाते का घाटा बेकाबू हो रहा है बल्कि इसे कालेधन को छुपाने और सट्टेबाजी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

इससे अर्थव्यवस्था को दोहरा नुकसान हो रहा है. एक ओर, चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है, उसकी भरपाई के लिए आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ रही है और दूसरी ओर, निवेश योग्य पूंजी एक मृत परिसंपत्ति में बदलकर बेकार जा रही है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इसपर रोक लगाने के लिए कड़े फैसले करने से हिचकती रही है. यह ठीक है कि सोने के आयात पर आयात शुल्क में वृद्धि की गई है लेकिन उसका कोई असर नहीं पड़ा है.

सवाल यह है कि उसपर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाने से सरकार कन्नी क्यों काट रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सोने का भारी आयात करके इस देश के अमीर चादर से बाहर पैर फैला रहे हैं लेकिन जब देश आर्थिक संकट में फंसेगा तो उसकी सबसे अधिक कीमत गरीबों को चुकानी पड़ेगी.                  
('राष्ट्रीय सहारा' के 2 अप्रैल के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)