मोदी और बनारस लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मोदी और बनारस लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, मई 11, 2014

बनारस की लड़ाई में बहुलतावादी भारत का विचार दांव पर लगा हुआ है

उत्तर प्रदेश में 90 के दशक की जहरीली सांप्रदायिक और सामंती दबदबे की राजनीति पैर जमाने की कोशिश कर रही है

बनारस की लड़ाई अपने आखिरी दौर में पहुँच गई है. बनारस में बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है. पूरे देश की निगाहें इस ऐतिहासिक शहर पर लगी हुई हैं. कारण साफ़ है. यह सिर्फ एक और वी.आई.पी सीट की लड़ाई नहीं है और न ही कोई स्थानीय मुद्दों पर हो रहा मुकाबला है. यह न तो गंगा को साफ़ करने और बचाने की जद्दोजहद है और न ही शहर को आध्यात्मिक नगर के रूप में पहचान दिलाने का चुनाव है. यह न तो चिकनी सड़क और २४ घंटे बिजली के लिए संघर्ष है और न ही बनारस को पेरिस या लन्दन बनाने की चाह का मुकाबला है. अगर ये मुद्दे कहीं थे भी तो अब पृष्ठभूमि में जा चुके हैं.     

यह बनारस में गंगा से ज्यादा गंगा-जमुनी संस्कृति और इस शहर की वह आत्मा को बचाने की लड़ाई हो रही है. यह इस शहर की सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक विविधता, अनेकता और बहुलता को बनाए रखने की लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ इस ऐतिहासिक शहर की आत्मा की लड़ाई नहीं है. दरअसल, बनारस की विविधता और बहुलता के बहाने यह ‘भारत’ के उस विचार के झंडे को बुलंद रखने की लड़ाई है जो अपनी सांस्कृतिक, वैचारिक, राजनीतिक विविधता और बहुलता पर गर्व करता है और जो हर तरह की और खासकर हिंदुत्व की संकीर्ण-पुनरुत्थानवादी से लेकर सामंती-फासीवादी धार्मिक पहचान से लड़ता आया है.
बनारस की इस लड़ाई में सामाजिक-आर्थिक समता और बराबरी पर आधारित एक आधुनिक, प्रगतिशील, समतामूलक, बहुलतावादी और भविष्योन्मुखी भारत का सपना दाँव पर लगा हुआ है. यह वह सपना है जिसे आज़ादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने देखा था. कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के पिछले ६७ सालों में इस सपने को मारने और खत्म करने की अनेकों कोशिशें की गईं हैं. लेकिन यह सपना जिन्दा है उन हजारों जनांदोलनों में जहाँ इस देश के गरीब आज भी अपने हक-हुकूक और एक बेहतर समाज और देश बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

आज अगर देश में लोकतंत्र जिन्दा है तो इन्हीं छोटी-बड़ी लड़ाइयों के कारण जिन्दा है. लोकतंत्र सिर्फ़ पांच साला चुनावों से नहीं, जनांदोलनों और आमलोगों की सक्रिय राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी से चलता है. लेकिन बनारस में यह लड़ाई दाँव पर है. बनारस में एक ओर हिंदुत्व की झंडाबरदार वे सांप्रदायिक ताकतें हैं जो देश को ‘विकास और सुशासन’ का सपना दिखाकर मध्ययुग में वापस ले जाना चाहती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि बनारस और पूरे उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ८० और ९० के दशक की जहरीली और आक्रामक सांप्रदायिक भाषा वापस लौट आई है. उसी तरह के जहरीले नारे, तेवर और तनाव के बीच नफरत का बुखार सिर चढ़कर बोल रहा है. यह राजनीति उत्तर प्रदेश को दो दशक पीछे खींच ले जाना चाहती है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के उभार के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यू.पी.ए गठबंधन खासकर कांग्रेस है जिसकी केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी रोकने में नाकाम रही है. हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति उसकी इन्हीं नाकामियों का फायदा उठाकर एक नई राजनीतिक वैधता और जन-समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है.

उसकी इन कोशिशों को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की नाकामियों, जनता की बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा न उतरने और जातिवादी-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संकीर्ण राजनीति से लाभ उठाने की हताश कोशिशों से बहुत मदद मिली है. यही नहीं, बहुजन समाज पार्टी की वह अवसरवादी और सिनिकल जातिवादी राजनीति भी उतार पर है जिसकी सीमाएं और अंतर्विरोध साफ़ दिखने लगी हैं और जिसके पास सामाजिक-आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का कोई सपना नहीं है.  

सच पूछिए तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस और सपा-बसपा ने मिलकर अपनी तरफ़ से उत्तर प्रदेश को भाजपा को सौंप दिया है. सच यह है कि उनके पास न तो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वैचारिक तैयारी है और न कोई प्रतिबद्धता. बिना किसी प्रगतिशील और जनोन्मुखी कार्यक्रम के जाति-संप्रदाय की गोलबंदी की संकीर्ण और सिनिकल राजनीति भी अंधे कुएं में फंस गई है. इसलिए कांग्रेस-सपा से हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति को चुनौती की कोई उम्मीद नहीं है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की अवसरवादी, सिनिकल और आमलोगों खासकर गरीबों के मुद्दों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से कटी हुई 'धर्मनिरपेक्ष राजनीति' के कारण 'धर्मनिरपेक्षता' का विचार और राजनीति दोनों गहरे संकट में फंस गई है.
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश और बनारस में अगर कोई उम्मीद बची है तो वह उन गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आम लोगों के कारण बची है जो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के पीछे छिपे खतरों को समझ रहे हैं. वे हिंदुत्व के उभार के पीछे खड़ी उन सामंती और बड़ी पूंजी की कारपोरेट ताकतों को देख रहे हैं जो पिछले दशकों की लड़ाइयों से मिले राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हकों को पलटने के लिए जोर मार रहे हैं.

वे अपने निजी अनुभवों से जानते हैं कि हिंदुत्व के इस उभार में जो सामाजिक वर्ग सबसे अधिक उछल और आक्रामक हो रहा है, वह उसके हितों के लिए लड़नेवाला नहीं बल्कि उन्हें छीनने और दबानेवाला वर्ग है. बनारस में भी हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति के पीछे खड़े चेहरों को पहचानना मुश्किल नहीं है. खासकर भगवा टोपी में दनदना रहे और विरोध और विवेक की हर आवाज़ को दबाने के लिए धमकाने से लेकर हिंसा तक का सहारा ले रहे हिंदुत्व के पैदल सैनिकों (फुट सोल्जर्स) में अच्छी-खासी तादाद उन सामंती दबंगों की है जिनकी गाली और लाठी की मार इन गरीबों और कमजोर वर्गों पर पड़ती रही है.      
क्या इससे कांग्रेस और उसके प्रत्याशी अजय राय लड़ सकते हैं? गौर करने की बात यह है कि अजय राय के साथ उसी सामंती दबंगों से बने सामाजिक आधार का तलछठ बचा हुआ है जो इस समय भाजपा का अगुवा दस्ता बना हुआ है. इसलिए उससे यह उम्मीद करना खुद को धोखे में रखना है कि वह साम्प्रदायिकता से मुकाबला करेगा और बनारस की आत्मा की हिफाजत करेगा. मजे की बात यह है कि भाजपा के नेता भी बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत कांग्रेस और अजय राय को मुकाबले में बता रहे हैं. यह भ्रम पैदा करने और विपक्ष के वोटों का बंटवारा सुनिश्चित कराने की कोशिश है. दूसरी ओर, बनारस में सपा और बसपा के प्रत्याशी पहले ही लड़ाई में हथियार डाल चुके हैं.

अच्छी बात यह है कि बनारस में लोगों के सामने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के रूप में एक मुकम्मल न सही लेकिन फौरी विकल्प है. इस लड़ाई का नतीजा चाहे जो हो लेकिन केजरीवाल ने भाजपा के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक-वैचारिक तौर पर चुनौती दी है. हालाँकि इस चुनौती की सीमाएं हैं. लेकिन खुद केजरीवाल के मैदान में उतरने से बनारस की लड़ाई एकतरफा नहीं रह गई है. उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बनारस की वैचारिक-राजनीतिक विविधता और बहुलता को पूरी तरह कुचलने की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं.    
असल में, बनारस की इस लड़ाई में केजरीवाल के साथ और स्वतंत्र तौर पर भी दर्जनों सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, जनांदोलनों, वाम-लोकतान्त्रिक छात्र-युवा संगठनों और बुद्धिजीवियों ने जो मुद्दे उठाए हैं, लोगों के बीच जाकर बात कही है और हिंदुत्व की राजनीति के खतरों पर एक राजनीतिक-वैचारिक बहस खड़ी की है, उससे बनारस में राजनीतिक माहौल बदला है. एक उम्मीद पैदा हुई है. नतीजा चाहे जो हो लेकिन बनारस में ‘भारत के विचार’ की भविष्य की लड़ाई की चुनौतियाँ और संभावनाएं एक साथ दिख रही हैं.

यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होनेवाली है. बनारस इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है. लेकिन इस लड़ाई में अभी और भी कई मोर्चे आनेवाले हैं.             

शनिवार, मार्च 22, 2014

क्यों पिछड़ा है बनारस और पूर्वांचल?

गुजरात के 'विकास' के लिए पूर्वांचल को सस्ते के बाड़े में बदल दिया गया है 
 
बनारस में गुजरात की तरह ‘विकास की गंगा’ बहाने के दावे और वायदे किये जा रहे हैं. बनारस के भाजपाईयों के साथ-साथ नव मोदी समर्थक भी शहर और पूर्वांचल को ‘विकास का स्वर्ग’ बनाने का सपना नशे की गोली की तरह बेच रहे हैं.

शहर में एक हवा बनाने की कोशिश की जा रही है कि अगर नरेन्द्र मोदी यहाँ से चुनाव जीतते हैं तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे और इसके साथ ही, बनारस और पूर्वांचल का भाग्य बदल जाएगा क्योंकि बनारस वी.आई.पी संसदीय क्षेत्र होगा.

गोया प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होते ही बनारस और पूर्वांचल की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और उन आर्थिक नीतियों में चमत्कारिक बदलाव आ जायेगा जिनके कारण यह क्षेत्र पिछले दो-ढाई सौ सालों से पिछड़ा, गरीब और बदहाल है.

नव मोदी समर्थक भले यह स्वीकार न करें लेकिन इस तथ्य पर वे कैसे पर्दा डाल सकते हैं कि प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने या वी.आई.पी क्षेत्र होने मात्र से किसी क्षेत्र की बुनियादी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है?

अगर ऐसे ही बदलाव आना होता तो उत्तर प्रदेश की यह स्थिति क्यों होती, जहाँ से आठ प्रधानमंत्री बने? उन कथित वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों और उनके आसपास के इलाके इतने पिछड़े-गरीब और बदहाल क्यों होते?
पूर्व प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरु (फूलपुर, इलाहाबाद), इंदिरा गाँधी-राजीव गाँधी (रायबरेली), चरण सिंह (बागपत) वी.पी. सिंह (फतेहपुर), चंद्रशेखर (बलिया), अटल बिहारी वाजपेयी (लखनऊ) के चुनाव क्षेत्रों का हाल किसी से छुपा नहीं है.     
ऐसा क्यों है? उत्तर प्रदेश और खासकर पूर्वांचल और बनारस पिछड़े क्यों हैं? क्यों वहां इतनी गरीबी, बदहाली, गैर-बराबरी, बीमारी, बेकारी और बेचारी है? क्या यह किसी दैवीय कारण से है जो ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ की माला जपने और मोदी के दैवीय हस्तक्षेप से ही सुधर सकता है?
 
क्या यह सिर्फ मोदी के पहले के नेताओं की काहिली और अरुचि के कारण है जिसके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और जिसे मोदी का ‘निर्णायक नेतृत्व’ ही बदल सकता है?
सच यह है कि पूर्वांचल और बनारस का पिछड़ापन न तो दैवीय है, न नेतृत्व की कमी और उनके अंदर दृष्टि की कमी के कारण है. यह राजनेताओं की काहिली के कारण भी नहीं है. यह इस इलाके के लोगों की ‘कामचोरी’ और ‘राजनीति’ में अत्यधिक दिलचस्पी लेने के कारण भी नहीं है.

इसकी असली वजह वे पूंजीवादी नीतियां और सामंती ढांचा है जिनके कारण पूर्वांचल को जानबूझकर पिछड़ा-गरीब-लाचार बनाकर रखा गया है. लेकिन बनारस और पूर्वांचल को ‘विकास’ सपने बेच रहे नव मोदी समर्थक यह सच्चाई कभी नहीं बताएँगे. इसके बावजूद इसे समझना जरूरी है, अन्यथा बाद में सिर्फ निराशा और हताशा ही हाथ लगेगी.
असल में, पूंजीवादी आर्थिक ढांचे और अर्थनीति में औद्योगिक ‘विकास’ (बड़ी फैक्टरियां-कारखाने) यानी निजी पूंजी निवेश उन्हीं इलाकों में जाता है जो भौगोलिक-ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से पहले से ही विकसित हैं यानी जहाँ बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर है, बाजार है, कच्चा माल है और सस्ता और प्रशिक्षित श्रम उपलब्ध है.

इसके अलावा जहाँ कीमती खनिज-प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं, वहां भी एक हद पूंजी निवेश हुआ है लेकिन ‘विकास’ कितना और कैसा हुआ है, यह वहां के लाभार्थी और ज्यादातर भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं.
उदाहरण के लिए, गुजरात की समृद्धि या औद्योगिक विकास आज या पिछले दस-बारह सालों की नहीं है. गुजरात की भौगोलिक स्थिति (समुद्र तट और पश्चिम एशिया-यूरोप के साथ व्यापर के लिए जमीनी रास्ता) ऐतिहासिक रूप से व्यापार के लिए उपयुक्त रही है. अंग्रेजों ने इसे बढ़ावा दिया. इसके कारण ही, वहां व्यापार को फलने-फूलने मौका मिला, उससे पैदा अधिशेष उद्योग में निवेश का आधार बना और गुजरात के औद्योगिक विकास की नीव पड़ी.

आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों के औपनिवेशिक राज में देश के पश्चिमी हिस्से खासकर तटीय इलाकों और शहरों का औद्योगिक और व्यापारिक विकास हुआ. इसी तरह पूर्वी इलाके में भी कलकत्ता एक बड़े व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्र के रूप में उभरा.
इस औपनिवेशिक पूंजीवादी आर्थिक माडल की दूसरी खास बात यह है कि उसने देश के अंदर कई इलाकों को ‘सस्ते श्रम के बाड़े’ के रूप में बदल दिया जहाँ से कलकत्ता के चटकालों से लेकर सूरत-मुंबई के सूती मिलों तक को सस्ते श्रम की निर्बाध आपूर्ति होती थी.
एक तरह से पूरी हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार के अवध, पूर्वांचल से लेकर उत्तर और मध्य बिहार को सस्ते श्रम के बाड़े की तरह इस्तेमाल किया गया. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अंग्रेज इन्हीं इलाकों से गिरमिटिया मजदूरों को मारीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना आदि उपनिवेशों में ले गए.

यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि इस इलाके के लोग ‘कामचोर’ नहीं है बल्कि बहुत मेहनती हैं. इन मेहनती सस्ते मजदूरों की सप्लाई बनी रहे, इसके लिए जानबूझकर इन इलाकों को पिछड़ा और गरीब बनाए रखा गया. यहाँ न तो भौतिक और न ही मानव (शिक्षा-स्वास्थ्य) इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया गया और न ही निजी पूंजी को प्रोत्साहित किया गया.

यही नहीं, अंग्रेजों ने इन इलाकों खासकर अवध, बुंदेलखंड, पूर्वांचल, पश्चिमी-उत्तरी बिहार को इसलिए भी पिछड़ा-गरीब बनाए रखा क्योंकि वे इस इलाके से १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम के कारण भी नाराज़ थे. वे इसे सजा देना चाहते थे और इसलिए इन इलाकों को नज़रंदाज़ किया. साफ़ है कि पूर्वांचल का पिछड़ापन, गरीबी, बीमारी, बेकारी और लाचारी किसी दैवीय कारण से नहीं बल्कि औपनिवेशिक राज और पूंजीवादी आर्थिक माडल का तार्किक नतीजा है.
अफ़सोस यह कि आज़ादी के बाद भी औपनिवेशिक विरासत में मिली पूंजीवादी आर्थिक विकास का माडल मिश्रित अर्थनीति और समाजवाद के नारों के बीच चलता रहा. इस कारण निजी पूंजी निवेश उन्हीं ‘विकसित’ इलाकों में गया जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी औपनिवेशिक लूट की जरूरतों के लिए आगे बढ़ाया था.

नतीजा, औपनिवेशिक राज की तरह आज़ादी के बाद भी यह इलाका ‘सस्ते श्रम का बाड़ा’ बना रहा जहाँ से लाखों की संख्या में सस्ते श्रमिक बंगाल-गुजरात-महाराष्ट्र आदि के विकसित औद्योगिक इलाकों और बाद में पंजाब-हरियाणा के कृषि फार्मों की ओर पलायन करते रहे.
यह पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल की अनिवार्य परिणति है जहाँ देश के अन्दर एक बड़े इलाके को पिछड़ा-गरीब-लाचार रखकर कुछ सीमित इलाकों को औद्योगिक केंद्र के रूप में आगे बढ़ाया जाता है. हैरानी की बात नहीं है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास माडल के नतीजे में पिछड़ेपन, विषमता, गरीबी और बीमारी-बेकारी के विशाल समुद्र में औद्योगिक समृद्धि के टापू दिखाई पड़ते हैं.

इसी का नतीजा है कि ‘विकसित’ गुजरात और महाराष्ट्र में भी पिछड़े-गरीब इलाके हैं. इस इलाकाई और क्षेत्रीय पिछड़ेपन की सिवाय इसके और कोई व्याख्या नहीं हो सकती है कि यह पूंजीवादी आर्थिक माडल का परिणाम है.
आश्चर्य नहीं कि सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिए गए पूर्वांचल की अर्थव्यस्था मनीआर्डर से चलती रही है. कोढ़ में खाज की तरह १९९१ के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद तो स्थिति और बदतर हुई है क्योंकि अर्थव्यवस्था में सरकार/सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका लगभग खत्म हो गई है और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी ड्राइविंग सीट पर है.

स्वाभाविक तौर पर देशी-विदेशी पूंजी देश के पहले से विकसित क्षेत्रों- महाराष्ट्र-गुजरात-तमिलनाडु-दिल्ली आदि में जा रही है और इसके कारण देश के अन्दर इलाकों के बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर बराबरी और तेजी से बढ़ रही है.  

यही नहीं, १९९१ से पहले सार्वजनिक क्षेत्र के कारण इक्का-दुक्का कारखाने-फैक्टरियां पिछड़े इलाकों और प्रधानमंत्रियों या वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों में लग भी जाती थीं लेकिन उत्तर उदारीकरण दौर में वह भी खत्म हो गया.

सवाल यह है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल के तहत नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोर समर्थक मोदी के पास ऐसी कौन सी छड़ी है कि वे पूर्वांचल में चमत्कार कर देंगे और वहां रातों-रात देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए दौड़ लगाने लगेगी?
क्या वे बनारस और पूर्वांचल के आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल को पलट देंगे? या, उनके प्रभाव के कारण इस इलाके के विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के तर्क बेमानी हो जायेंगे? आखिर मोदी कैसे इस इलाके को सस्ते श्रम के बाड़े से औद्योगिक विकास के केंद्र में बदल देंगे?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि किसी नेता, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, उसके लिए निजी तौर पर इस दुष्चक्र को तोड़ना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए नीतियों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी है.

उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश की दो वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों- रायबरेली और अमेठी का हाल देखिये. क्या यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी अपने संसदीय क्षेत्रों में विकास नहीं चाहते हैं?

सच यह है कि उन दोनों ने कोशिशें कीं कि निजी पूंजी निवेश बढे लेकिन इक्का-दुक्का फैक्टरियों के अलावा कोई बड़ा उल्लेखनीय निवेश नहीं हुआ. यही नहीं, वे फैक्टरियां भी जल्दी ही बीमार हो गईं. क्यों? इसलिए कि बड़ा निजी देशी-विदेशी निवेश विकसित क्षेत्रों की ओर गया, यहाँ कोई बाजार नहीं था, विकसित इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं था.
नतीजा, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को सार्वजानिक क्षेत्र की कंपनियों और सरकार की मदद से कारखाने-फैक्टरियां लगवाने की कोशिश करनी पड़ीं. रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री हो या मालविका स्टील को सेल के जरिये पुनर्जीवित करने का मसला हो, यह सार्वजनिक क्षेत्र या सरकार के सक्रिय पहल के कारण संभव हो पाया. लेकिन इससे ज्यादा और कुछ नहीं हो पाया.

नितीश कुमार को देख लीजिये. क्या नहीं किया उन्होंने निजी निवेश को लुभाने के लिए लेकिन निवेश सम्मेलनों और कथित गवर्नेंस-विकासोन्मुखी नीतियों के बावजूद वहां कोई बड़ा निजी निवेश नहीं आया. फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा करेंगे कि निजी निवेशक गुजरात-महाराष्ट्र-तमिलनाडु-दिल्ली को छोड़कर पूर्वांचल और बनारस की ओर दौड़ने लगेंगे?
दोहराने की जरूरत नहीं है कि बनारस और पूर्वांचल के औद्योगिक विकास के लिए पूंजीवादी विकास के आर्थिक माडल को किनारे और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से तौबा करना पड़ेगा? क्या मोदी इसके लिए तैयार हैं? क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की भी अधिकांश कंपनियों का पूर्ण या अर्द्ध निजीकरण हो चुका है और बाकी बची-खुची कंपनियों का निजीकरण मोदी के एजेंडे पर है.

इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन एन.डी.ए सरकार गोरखपुर के सार्वजनिक क्षेत्र के खाद कारखाने को बंद कर दिया था.

यह किसी से छुपा नहीं है कि मोदी उसी पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार हैं जिनके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और दिन पर दिन और बदतर होता जा रहा है. इन नीतियों के साथ बनारस और खासकर पूर्वांचल के भाग्य को बदलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.
इसके रहते बनारस और पूर्वांचल-बिहार सस्ते श्रम का बाड़ा बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. मोदी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है और न ही इतना राजनीतिक साहस कि वे इन नीतियों को पलट दें.

आखिर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स मोदी का समर्थन इन नीतियों को पलटने के लिए नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी मोदी के नव मोदी समर्थक बनारस के साथ-साथ पूर्वांचल और बिहार को विकास का दिवास्वप्न बेचने में लगे हैं और कई समझदार जागती आँखों से सपने देखने भी लगे हैं.

सभी तस्वीरें: बनारस की फोटो क्रेडिट: आनंद प्रधान