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शनिवार, मार्च 22, 2014

क्यों पिछड़ा है बनारस और पूर्वांचल?

गुजरात के 'विकास' के लिए पूर्वांचल को सस्ते के बाड़े में बदल दिया गया है 
 
बनारस में गुजरात की तरह ‘विकास की गंगा’ बहाने के दावे और वायदे किये जा रहे हैं. बनारस के भाजपाईयों के साथ-साथ नव मोदी समर्थक भी शहर और पूर्वांचल को ‘विकास का स्वर्ग’ बनाने का सपना नशे की गोली की तरह बेच रहे हैं.

शहर में एक हवा बनाने की कोशिश की जा रही है कि अगर नरेन्द्र मोदी यहाँ से चुनाव जीतते हैं तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे और इसके साथ ही, बनारस और पूर्वांचल का भाग्य बदल जाएगा क्योंकि बनारस वी.आई.पी संसदीय क्षेत्र होगा.

गोया प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होते ही बनारस और पूर्वांचल की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और उन आर्थिक नीतियों में चमत्कारिक बदलाव आ जायेगा जिनके कारण यह क्षेत्र पिछले दो-ढाई सौ सालों से पिछड़ा, गरीब और बदहाल है.

नव मोदी समर्थक भले यह स्वीकार न करें लेकिन इस तथ्य पर वे कैसे पर्दा डाल सकते हैं कि प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने या वी.आई.पी क्षेत्र होने मात्र से किसी क्षेत्र की बुनियादी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है?

अगर ऐसे ही बदलाव आना होता तो उत्तर प्रदेश की यह स्थिति क्यों होती, जहाँ से आठ प्रधानमंत्री बने? उन कथित वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों और उनके आसपास के इलाके इतने पिछड़े-गरीब और बदहाल क्यों होते?
पूर्व प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरु (फूलपुर, इलाहाबाद), इंदिरा गाँधी-राजीव गाँधी (रायबरेली), चरण सिंह (बागपत) वी.पी. सिंह (फतेहपुर), चंद्रशेखर (बलिया), अटल बिहारी वाजपेयी (लखनऊ) के चुनाव क्षेत्रों का हाल किसी से छुपा नहीं है.     
ऐसा क्यों है? उत्तर प्रदेश और खासकर पूर्वांचल और बनारस पिछड़े क्यों हैं? क्यों वहां इतनी गरीबी, बदहाली, गैर-बराबरी, बीमारी, बेकारी और बेचारी है? क्या यह किसी दैवीय कारण से है जो ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ की माला जपने और मोदी के दैवीय हस्तक्षेप से ही सुधर सकता है?
 
क्या यह सिर्फ मोदी के पहले के नेताओं की काहिली और अरुचि के कारण है जिसके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और जिसे मोदी का ‘निर्णायक नेतृत्व’ ही बदल सकता है?
सच यह है कि पूर्वांचल और बनारस का पिछड़ापन न तो दैवीय है, न नेतृत्व की कमी और उनके अंदर दृष्टि की कमी के कारण है. यह राजनेताओं की काहिली के कारण भी नहीं है. यह इस इलाके के लोगों की ‘कामचोरी’ और ‘राजनीति’ में अत्यधिक दिलचस्पी लेने के कारण भी नहीं है.

इसकी असली वजह वे पूंजीवादी नीतियां और सामंती ढांचा है जिनके कारण पूर्वांचल को जानबूझकर पिछड़ा-गरीब-लाचार बनाकर रखा गया है. लेकिन बनारस और पूर्वांचल को ‘विकास’ सपने बेच रहे नव मोदी समर्थक यह सच्चाई कभी नहीं बताएँगे. इसके बावजूद इसे समझना जरूरी है, अन्यथा बाद में सिर्फ निराशा और हताशा ही हाथ लगेगी.
असल में, पूंजीवादी आर्थिक ढांचे और अर्थनीति में औद्योगिक ‘विकास’ (बड़ी फैक्टरियां-कारखाने) यानी निजी पूंजी निवेश उन्हीं इलाकों में जाता है जो भौगोलिक-ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से पहले से ही विकसित हैं यानी जहाँ बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर है, बाजार है, कच्चा माल है और सस्ता और प्रशिक्षित श्रम उपलब्ध है.

इसके अलावा जहाँ कीमती खनिज-प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं, वहां भी एक हद पूंजी निवेश हुआ है लेकिन ‘विकास’ कितना और कैसा हुआ है, यह वहां के लाभार्थी और ज्यादातर भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं.
उदाहरण के लिए, गुजरात की समृद्धि या औद्योगिक विकास आज या पिछले दस-बारह सालों की नहीं है. गुजरात की भौगोलिक स्थिति (समुद्र तट और पश्चिम एशिया-यूरोप के साथ व्यापर के लिए जमीनी रास्ता) ऐतिहासिक रूप से व्यापार के लिए उपयुक्त रही है. अंग्रेजों ने इसे बढ़ावा दिया. इसके कारण ही, वहां व्यापार को फलने-फूलने मौका मिला, उससे पैदा अधिशेष उद्योग में निवेश का आधार बना और गुजरात के औद्योगिक विकास की नीव पड़ी.

आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों के औपनिवेशिक राज में देश के पश्चिमी हिस्से खासकर तटीय इलाकों और शहरों का औद्योगिक और व्यापारिक विकास हुआ. इसी तरह पूर्वी इलाके में भी कलकत्ता एक बड़े व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्र के रूप में उभरा.
इस औपनिवेशिक पूंजीवादी आर्थिक माडल की दूसरी खास बात यह है कि उसने देश के अंदर कई इलाकों को ‘सस्ते श्रम के बाड़े’ के रूप में बदल दिया जहाँ से कलकत्ता के चटकालों से लेकर सूरत-मुंबई के सूती मिलों तक को सस्ते श्रम की निर्बाध आपूर्ति होती थी.
एक तरह से पूरी हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार के अवध, पूर्वांचल से लेकर उत्तर और मध्य बिहार को सस्ते श्रम के बाड़े की तरह इस्तेमाल किया गया. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अंग्रेज इन्हीं इलाकों से गिरमिटिया मजदूरों को मारीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना आदि उपनिवेशों में ले गए.

यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि इस इलाके के लोग ‘कामचोर’ नहीं है बल्कि बहुत मेहनती हैं. इन मेहनती सस्ते मजदूरों की सप्लाई बनी रहे, इसके लिए जानबूझकर इन इलाकों को पिछड़ा और गरीब बनाए रखा गया. यहाँ न तो भौतिक और न ही मानव (शिक्षा-स्वास्थ्य) इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया गया और न ही निजी पूंजी को प्रोत्साहित किया गया.

यही नहीं, अंग्रेजों ने इन इलाकों खासकर अवध, बुंदेलखंड, पूर्वांचल, पश्चिमी-उत्तरी बिहार को इसलिए भी पिछड़ा-गरीब बनाए रखा क्योंकि वे इस इलाके से १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम के कारण भी नाराज़ थे. वे इसे सजा देना चाहते थे और इसलिए इन इलाकों को नज़रंदाज़ किया. साफ़ है कि पूर्वांचल का पिछड़ापन, गरीबी, बीमारी, बेकारी और लाचारी किसी दैवीय कारण से नहीं बल्कि औपनिवेशिक राज और पूंजीवादी आर्थिक माडल का तार्किक नतीजा है.
अफ़सोस यह कि आज़ादी के बाद भी औपनिवेशिक विरासत में मिली पूंजीवादी आर्थिक विकास का माडल मिश्रित अर्थनीति और समाजवाद के नारों के बीच चलता रहा. इस कारण निजी पूंजी निवेश उन्हीं ‘विकसित’ इलाकों में गया जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी औपनिवेशिक लूट की जरूरतों के लिए आगे बढ़ाया था.

नतीजा, औपनिवेशिक राज की तरह आज़ादी के बाद भी यह इलाका ‘सस्ते श्रम का बाड़ा’ बना रहा जहाँ से लाखों की संख्या में सस्ते श्रमिक बंगाल-गुजरात-महाराष्ट्र आदि के विकसित औद्योगिक इलाकों और बाद में पंजाब-हरियाणा के कृषि फार्मों की ओर पलायन करते रहे.
यह पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल की अनिवार्य परिणति है जहाँ देश के अन्दर एक बड़े इलाके को पिछड़ा-गरीब-लाचार रखकर कुछ सीमित इलाकों को औद्योगिक केंद्र के रूप में आगे बढ़ाया जाता है. हैरानी की बात नहीं है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास माडल के नतीजे में पिछड़ेपन, विषमता, गरीबी और बीमारी-बेकारी के विशाल समुद्र में औद्योगिक समृद्धि के टापू दिखाई पड़ते हैं.

इसी का नतीजा है कि ‘विकसित’ गुजरात और महाराष्ट्र में भी पिछड़े-गरीब इलाके हैं. इस इलाकाई और क्षेत्रीय पिछड़ेपन की सिवाय इसके और कोई व्याख्या नहीं हो सकती है कि यह पूंजीवादी आर्थिक माडल का परिणाम है.
आश्चर्य नहीं कि सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिए गए पूर्वांचल की अर्थव्यस्था मनीआर्डर से चलती रही है. कोढ़ में खाज की तरह १९९१ के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद तो स्थिति और बदतर हुई है क्योंकि अर्थव्यवस्था में सरकार/सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका लगभग खत्म हो गई है और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी ड्राइविंग सीट पर है.

स्वाभाविक तौर पर देशी-विदेशी पूंजी देश के पहले से विकसित क्षेत्रों- महाराष्ट्र-गुजरात-तमिलनाडु-दिल्ली आदि में जा रही है और इसके कारण देश के अन्दर इलाकों के बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर बराबरी और तेजी से बढ़ रही है.  

यही नहीं, १९९१ से पहले सार्वजनिक क्षेत्र के कारण इक्का-दुक्का कारखाने-फैक्टरियां पिछड़े इलाकों और प्रधानमंत्रियों या वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों में लग भी जाती थीं लेकिन उत्तर उदारीकरण दौर में वह भी खत्म हो गया.

सवाल यह है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल के तहत नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोर समर्थक मोदी के पास ऐसी कौन सी छड़ी है कि वे पूर्वांचल में चमत्कार कर देंगे और वहां रातों-रात देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए दौड़ लगाने लगेगी?
क्या वे बनारस और पूर्वांचल के आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल को पलट देंगे? या, उनके प्रभाव के कारण इस इलाके के विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के तर्क बेमानी हो जायेंगे? आखिर मोदी कैसे इस इलाके को सस्ते श्रम के बाड़े से औद्योगिक विकास के केंद्र में बदल देंगे?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि किसी नेता, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, उसके लिए निजी तौर पर इस दुष्चक्र को तोड़ना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए नीतियों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी है.

उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश की दो वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों- रायबरेली और अमेठी का हाल देखिये. क्या यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी अपने संसदीय क्षेत्रों में विकास नहीं चाहते हैं?

सच यह है कि उन दोनों ने कोशिशें कीं कि निजी पूंजी निवेश बढे लेकिन इक्का-दुक्का फैक्टरियों के अलावा कोई बड़ा उल्लेखनीय निवेश नहीं हुआ. यही नहीं, वे फैक्टरियां भी जल्दी ही बीमार हो गईं. क्यों? इसलिए कि बड़ा निजी देशी-विदेशी निवेश विकसित क्षेत्रों की ओर गया, यहाँ कोई बाजार नहीं था, विकसित इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं था.
नतीजा, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को सार्वजानिक क्षेत्र की कंपनियों और सरकार की मदद से कारखाने-फैक्टरियां लगवाने की कोशिश करनी पड़ीं. रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री हो या मालविका स्टील को सेल के जरिये पुनर्जीवित करने का मसला हो, यह सार्वजनिक क्षेत्र या सरकार के सक्रिय पहल के कारण संभव हो पाया. लेकिन इससे ज्यादा और कुछ नहीं हो पाया.

नितीश कुमार को देख लीजिये. क्या नहीं किया उन्होंने निजी निवेश को लुभाने के लिए लेकिन निवेश सम्मेलनों और कथित गवर्नेंस-विकासोन्मुखी नीतियों के बावजूद वहां कोई बड़ा निजी निवेश नहीं आया. फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा करेंगे कि निजी निवेशक गुजरात-महाराष्ट्र-तमिलनाडु-दिल्ली को छोड़कर पूर्वांचल और बनारस की ओर दौड़ने लगेंगे?
दोहराने की जरूरत नहीं है कि बनारस और पूर्वांचल के औद्योगिक विकास के लिए पूंजीवादी विकास के आर्थिक माडल को किनारे और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से तौबा करना पड़ेगा? क्या मोदी इसके लिए तैयार हैं? क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की भी अधिकांश कंपनियों का पूर्ण या अर्द्ध निजीकरण हो चुका है और बाकी बची-खुची कंपनियों का निजीकरण मोदी के एजेंडे पर है.

इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन एन.डी.ए सरकार गोरखपुर के सार्वजनिक क्षेत्र के खाद कारखाने को बंद कर दिया था.

यह किसी से छुपा नहीं है कि मोदी उसी पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार हैं जिनके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और दिन पर दिन और बदतर होता जा रहा है. इन नीतियों के साथ बनारस और खासकर पूर्वांचल के भाग्य को बदलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.
इसके रहते बनारस और पूर्वांचल-बिहार सस्ते श्रम का बाड़ा बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. मोदी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है और न ही इतना राजनीतिक साहस कि वे इन नीतियों को पलट दें.

आखिर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स मोदी का समर्थन इन नीतियों को पलटने के लिए नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी मोदी के नव मोदी समर्थक बनारस के साथ-साथ पूर्वांचल और बिहार को विकास का दिवास्वप्न बेचने में लगे हैं और कई समझदार जागती आँखों से सपने देखने भी लगे हैं.

सभी तस्वीरें: बनारस की फोटो क्रेडिट: आनंद प्रधान  
       

रविवार, फ़रवरी 16, 2014

मोदीनोमिक्स की सच्चाई

गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं मोदी  

हालिया चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में लोकसभा चुनावों में एन.डी.ए के सत्ता के करीब पहुँचने और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बढ़ती संभावनाओं से भाजपा नेताओं और समर्थकों के बाद सबसे ज्यादा खुशी कारपोरेट जगत और मुंबई शेयर बाजार को हुई है.
आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजार तुरंत उछलने लगा, कारपोरेट जगत ने अर्थव्यवस्था के लिए स्थिर सरकार की जरूरत बताते हुए संतोष जाहिर किया और गुलाबी अखबारों ने राहत की सांस ली. निश्चय ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी- मूडी की रेटिंग गिराने (डाउनग्रेड) की चेतावनी के बावजूद मोदी के सत्ता में आने की ‘खबर’ से उछलते शेयर बाजार की खुशी बहुत कुछ कहती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और उसके कारपोरेट प्रतिनिधियों ने इस बार लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया है और वे हर हाल में उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. इसकी वजह भी किसी से छुपी नहीं है.

घोषित तौर पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को नरेन्द्र मोदी में एक “सख्त, निर्णायक और परिणामोन्मुखी” प्रशासक दिखाई पड़ रहा है जो अर्थव्यवस्था को मौजूदा “संकट” और “नीतिगत लकवे” की स्थिति से बाहर निकालकर पटरी पर ला सकता है. कार्पोरेट्स की मोदी में इस भरोसे की बड़ी वजह यह है कि गुजरात में मोदी ने यह करके दिखाया है.

असल में, कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी पूंजी को नरेन्द्र मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में मोदी में ही वह राजनीतिक कौशल और क्षमता है कि वे कारपोरेट-परस्त नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों के हलक में उतार और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को और अधिक रियायतें और छूट दे सकते हैं.
कार्पोरेट्स को अच्छी तरह से पता है कि अगले दौर के आर्थिक सुधार आसान नहीं हैं और उन्हें लागू करने में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार की नाकामी के बाद मोदी से ही उम्मीदें बची हैं. हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर शेयर बाजार के सटोरियों तक और बड़ी पूंजी के मुखपत्र गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी खुलकर मोदी की वकालत कर रहे हैं.
दूसरी ओर, मोदी भी कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने में पीछे नहीं हैं. उदाहरण के लिए, पिछले महीने गांधीनगर में उद्योगपतियों के बड़े संगठन- फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने कार्पोरेट्स की हर मांग पर मोहर लगाई.

कार्पोरेट्स ने मोदी के सामने श्रम सुधारों यानी श्रम कानूनों को ढीला करने, स्थाई नौकरियों की जगह कांट्रेक्ट व्यवस्था, हायर एंड फायर यानी जब चाहें भर्ती और जब चाहें छंटनी और यूनियनों को काबू में करने के अलावा रक्षा उत्पादन के निजीकरण की मांगें उठाईं. मोदी ने वायदा किया कि वे श्रम को राज्य विषय बना देंगे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए सभी अनुकूल उपाय करेंगे.

लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा कि वे सत्ता में आयेंगे तो ‘टैक्स आतंकवाद’ खत्म करेंगे. आखिर यह ‘टैक्स आतंकवाद’ क्या है? असल में, देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले कई महीनों से वोडाफोन, आई.बी.एम से लेकर नोकिया और दूसरी कई कंपनियों के मामले में आयकर विभाग द्वारा टैक्स नोटिस जारी करने को टैक्स आतंकवादबता रहे हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियाँ टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का चतुराई से फायदा उठाकर टैक्स देने से बचने से लेकर वास्तविक टैक्स से कम टैक्स देती रही हैं. मजे की बात यह है कि हर साल केन्द्र सरकार कार्पोरेट्स और अमीरों को साढ़े चार लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें देती रही हैं.
इसके बावजूद कार्पोरेट्स वास्तविक टैक्स देने से बचने के लिए तीन-तिकडम करते रहे हैं. इससे हर साल सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रूपये का चूना लगता है. उल्लेखनीय है कि वोडाफोन को ११ हजार करोड़ रूपये से ज्यादा का टैक्स भरने की नोटिस दी गई थी. ऐसे और कई मामले हैं लेकिन ये कम्पनियाँ इसे ज्यादती बताते हुए टैक्स भरने के लिए तैयार नहीं हैं.

तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इन कंपनियों से टैक्स वसूलने के लिए टैक्स कानून में संशोधन करके पीछे से टैक्स वसूलने (रेट्रोस्पेक्टिव) का प्रावधान शामिल किया था. इसके अलावा टैक्स देने से बचने की तिकड़मों पर अंकुश लगाने के लिए गार नियम लाये गए थे लेकिन कार्पोरेट्स ने इन प्रावधानों पर खूब हंगामा किया, इसे निवेश विरोधी बताया और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को इन्हें ठंडे बस्ते में डालने के लिए मजबूर कर दिया.

कहने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स इसी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स प्रावधान और गार नियमों को ‘टैक्स आतंकवाद’ कहते हैं जिससे मोदी निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. भला ऐसे प्रधानमंत्री को कार्पोरेट्स क्यों नहीं पसंद करेंगे?
असल में, एन.डी.ए और उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की अर्थनीति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी यह कारपोरेट-परस्ती है जिसे वह छुपाने की कोशिश नहीं करते हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स को खुश करने के चक्कर में मोदी अपनी मातृ संस्था- आर.एस.एस की प्रिय अर्थनीति- स्वदेशी का भूल से भी जिक्र नहीं करते हैं.
याद रहे कि मोदी राजनीतिक तौर पर उस दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और निजी पूंजी और उद्यमशीलता को खुली छूट देनेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की वकालत करती रही है.             

सच पूछिए तो इस मामले में भाजपा-नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के आर्थिक दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.

उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है.

यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने यानी सब्सिडी आदि खत्म करने की पैरवी करती है.
लेकिन बुनियादी तौर पर मुक्त बाजारपर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार होने के बावजूद जहाँ मोदी उसे सख्ती से लागू करने और उसके विरोध की हर आवाज़ को दबा देने के पक्षधर हैं वहीँ कांग्रेस थोड़ी नरमी बरतने और लोगों को उसकी मार से राहत देने और बदले में उनका समर्थन जीतने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं की वकालत करती है.
लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की कांग्रेसी रणनीति अब अप्रभावी हो गई है. उसे इन सुधारों को सख्ती से आगे बढ़ाने वाले नेता की जरूरत है. मोदी के रूप में उसे मुंहमांगा नेता मिल गया है जो बिना किसी शर्म या हिचक के कार्पोरेट्स के एजेंडे को देश के ‘विकास और खुशहाली’ का एजेंडा बताने और उसे आमलोगों खासकर गरीबों-निम्न मध्यवर्ग में स्वीकार्य बनाने में कामयाब होता दिख रहा है.   

यह और बात है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.
इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है. उल्टे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है. इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है.

कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.

('सबलोग' के फ़रवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी आप पत्रिका खरीद कर पढ़िए) 

शनिवार, जनवरी 25, 2014

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के नए दांव हैं मोदी

लोगों के सामने है सीमित और संकीर्ण आर्थिक विकल्पों के बीच चुनाव की मजबूरी 

लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केन्द्रीय सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के आर्थिक दर्शन और कार्यक्रमों/योजनाओं को लेकर आम लोगों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक और शेयर बाजार के सटोरियों से लेकर देशी-विदेशी औद्योगिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी की उत्सुकता और दिलचस्पी बढ़ गई है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन चुनावों में आर्थिक-राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सवाल यह है कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से निपटने तक, कृषि से लेकर उद्योगों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और गरीबी से लेकर बढ़ती गैर बराबरी तक अनेकों गंभीर आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री के दावेदारों का आर्थिक दर्शन क्या है और उनके पास कौन से कार्यक्रम/योजनाएं हैं?
हालाँकि दोनों ही गठबंधनों के विस्तृत आर्थिक दर्शन, कार्यक्रम और योजनाओं के लिए उनके घोषणापत्र और विजन दस्तावेज का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन बीते सप्ताह कांग्रेस की ओर से चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे राहुल गाँधी ने कांग्रेस महासमिति और खासकर भाजपा/एन.डी.ए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपना आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम पेश किया है.

इसमें भी जहाँ राहुल गाँधी आर्थिक दर्शन के नामपर यू.पी.ए सरकार की उपलब्धियों (आर.टी.आई, मनरेगा, आर.टी.ई और भोजन के अधिकार आदि) को गिनाने और समावेशी विकास के रटे-रटाए जुमलों को दोहराने से आगे नहीं बढ़ पाए, वहीँ नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े कार्यक्रमों/योजनाओं और कुछ लोकप्रिय मैनेजमेंट जुमलों के एलान के जरिये सपनों की सौदागरी करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो मोदी और राहुल के आर्थिक दर्शन में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.
लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ‘मुक्त बाजार’ पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं जो अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका पर जोर देती है बल्कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने की पैरवी करती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है लेकिन कीमत भारी चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है.

इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ने के कारण बेचैन होने लगे हैं. वे सरकार से सुधारों की गति तेज करने यानी सब्सिडी में कटौती और खुद के लिए अधिक से अधिक रियायतें मांग रहे हैं.    
हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए/कांग्रेस की अर्थनीति की आलोचना करते हुए कहा कि वे ‘खैरात बाँटने’ वाली आर्थिक सैद्धांतिकी (डोलोनोमिक्स) यानी सब्सिडी के विरोधी हैं. हालाँकि वे गरीबों और कमजोर वर्गों के वोट को लुभाने के दबाव के कारण यह खुलकर नहीं कहते लेकिन इसका सीधा संकेत यह है कि वे मनरेगा और ऐसी दूसरी ‘लोकलुभावन योजनाओं’ में सब्सिडी दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं.

उनका तर्क है कि सिर्फ वोट बटोरने के लिए शुरू की गई लोकलुभावन योजनाएं गरीबों और कमजोर वर्गों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देतीं, कीमती संसाधनों की बर्बादी है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और सबसे बढ़कर मुक्त बाजार की व्यवस्था को तोडमरोड (डिसटार्ट) करती है.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों की तरह उनका भी दावा है कि वे अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करके रोजगार के नए अवसर पैदा करेंगे ताकि गरीबों को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिल सके.

दरअसल, मोदी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसकी ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेंस’ के सपनों के साथ पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. एक अच्छे सेल्समैन की तरह वे देश के चारों दिशाओं में बुलेट ट्रेन से लेकर १०० स्मार्ट शहर बसाने, देश के हर राज्य में आई.आई.टी-आई.आई.एम-एम्स खोलने से लेकर ब्रांड इंडिया को चमकाने और गैस ग्रिड से लेकर राष्ट्रीय फाइबर आप्टिक ब्राडबैंड नेटवर्क बनाने तक की बड़ी और अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के एलान से निम्न, मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग को चमत्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं.
दूसरी ओर, कृषि से लेकर गांव तक और किसान से लेकर महिलाओं और युवाओं की बातें करके सबको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीँ आर.एस.एस से जुड़े अपने कोर समर्थकों को पारिवारिक मूल्यों से लेकर भारत माता के नारों से बाँधने में जुटे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे अपने आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम/योजनाओं को वोटरों के सभी वर्गों के लिए आकर्षक और लुभावना बनाने के लिए हर उस सपने को बेच रहे हैं जो पिछले डेढ़ दशकों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स ने देश को बेचने की कोशिश की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी की बड़ी-बड़ी घोषणाएं और योजनाएं उनकी मौलिक सोच से नहीं बल्कि वहीँ से आईं हैं. आप चाहें तो पिछले सालों में विश्व बैंक-मुद्राकोष से लेकर मैकेंसी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, प्राइस-हॉउस कूपर्स जैसी बड़ी कारपोरेट कंसल्टिंग कंपनियों और योजना आयोग तक और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसी औद्योगिक लाबी संगठनों से लेकर गुलाबी अखबारों और मैनेजमेंट गुरुओं के भाषणों, सलाहों, पालिसी दस्तावेजों और कंट्री पेपर्स में इन बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाओं के ब्लू-प्रिंट देख सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं पर शेयर बाजार, देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक खुश हैं और मोदी के सत्ता में आने की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को अब सिर्फ मोदी से ही उम्मीदें हैं कि वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि कांग्रेस/यू.पी.ए की साख भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण बहुत नीचे गिर गई है.
देशी-विदेशी कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को मोदी के रूप में एक ऐसा नेता दिखाई पड़ रहा है जिसकी नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और जो इसे बेहतर तरीके से पैकेज और मार्केट करके लोगों में स्वीकार्य भी बना सकता है.
यही नहीं, कार्पोरेट्स को यह भी भरोसा है कि मोदी ही इन सुधारों और बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं (पास्को, वेदांता आदि) की राह में रोड़ा बन रहे ‘जल, जंगल और जमीन’ बचाने के जनांदोलनों से राजनीतिक और पुलिसिया तरीके से सख्ती से निपट सकते हैं. मोदी ने जिस तरह से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को दबाने की कोशिश की या अपने हाल के भाषणों में ‘झोलावालों’ (एन.जी.ओ और जनांदोलनों) को निशाना बनाया है, उससे भी कारपोरेट क्षेत्र आश्वस्त है.

गुजरात में मोदी ने ‘डिलीवर’ करके दिखाया है जबकि यू.पी.ए/कांग्रेस का ‘समावेशी विकास’ का नव उदारवादी माडल अब उस तरह से ‘डिलीवर’ नहीं कर पा रहा है, जैसे उसने २००४ के बाद के शुरूआती पांच-सात वर्षों में ‘डिलीवर’ किया था. यही नहीं, कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए मोदी ने हाल में फिक्की के सम्मेलन में वायदा किया कि वे यू.पी.ए सरकार के राज में शुरू किये गए ‘टैक्स आतंकवाद’ को खत्म करेंगे.

उल्लेखनीय है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले काफी दिनों से वोडाफोन से लेकर नोकिया टैक्स विवाद को सरकार का ‘टैक्स आतंकवाद’ बता रहे हैं. मोदी इससे निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स मोदी से खुश क्यों हैं?
लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी अपने आर्थिक दर्शन और योजनाओं/कार्यक्रमों से गरीबों और आम आदमी को अपनी ओर खींच पाएंगे? दूसरे, क्या वे जो वायदे कर रहे हैं, उसे ‘डिलीवर’ कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना एक बात है और उसे आर्थिक तौर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है.
याद रहे कि देश में कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं क्योंकि उनकी आर्थिक-वित्तीय उपयोगिता (वायबिलिटी) पर सवाल उठ गए हैं. उदाहरण के लिए, बुलेट ट्रेन की योजना दुनिया के अधिकांश देशों में नाकाम साबित हुई है.
दूसरी ओर, कांग्रेस/यू.पी.ए ने २०१२ के उत्तरार्ध से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी खत्म करने से लेकर हाल में के.जी. बेसिन गैस की कीमतों और पर्यावरण सम्बन्धी रुकावटों को हटाने के फैसलों के जरिये बड़ी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने की कोशिश की है लेकिन लगता है कि अब तक काफी देर हो चुकी है.

यही कारण है कि राहुल गाँधी के सी.आई.आई और फिक्की के सम्मेलनों में जाकर कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने के बावजूद वे उनका भरोसा नहीं हासिल कर पा रहे हैं. यही नहीं, कांग्रेस की आर्थिकी अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गई है और वह न कार्पोरेट्स का और न आम आदमी का भरोसा जीत पा रही है.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों की बुनियादी तौर पर एक तरह के आर्थिक दर्शन- नव उदारवादी और कारपोरेटपरस्त सैद्धांतिकी और योजनाओं/कार्यक्रमों के कारण आमलोगों के पास चुनने को वास्तव में बहुत सीमित और संकीर्ण विकल्प रह गया है.   

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 25 जनवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

सोमवार, जुलाई 01, 2013

मोदी की कसौटी पर न्यूज मीडिया

मोदी की विकासपुरुष की छवि बनाने में जुटा मीडिया उनका चीयरलीडर बनता जा रहा है? 

पहली क़िस्त 
टी.वी पत्रकारिता के जाने-माने चेहरे, एडिटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष और आई.बी.एन नेटवर्क-१८ के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ने स्वीकार किया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का उभार मीडिया की ‘निष्पक्षता’ और ‘वैचारिक एजेंडे से परे जाकर सत्य के संधान’ के लिए कसौटी बन गया है.
 
उनके मुताबिक, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है. अब क्योंकि मोदी बड़ी छलांग लगानेवाले हैं, मीडिया के लिए यही सही समय है, जब वह अपने नैतिक पैमाने फिर से ठीक कर ले.’ (दैनिक भास्कर, संपादकीय पृष्ठ, १४ जून)
सरदेसाई का सवाल है कि ‘क्या यह संभव है कि मोदी की स्तुति या चरम निंदा की सीमा से परे जाकर विश्लेषण किया जाए? क्या मीडिया कोई बीच का रास्ता निकाल सकता है जहाँ तटस्थ और निष्पक्ष भाव से दुराग्रह या चीयरलीडर होने का आरोप लगे बिना मोदी का आकलन किया जा सके?’
वे आगे पूछते हैं, ‘या मोदी इतने ध्रुवीकृत नेता हैं कि मीडिया तक दी खेमों में विभाजित हो गया है? सरदेसाई मोदी की रिपोर्टिंग और आकलन की चुनौती पर आगे कहते हैं कि, ‘अपने अनुभवों से मेरा मानना है कि मोदी समर्थक या विरोधी कहलाने से बचना मुश्किल है. लेकिन फिर भी हमें प्रयास करना होगा क्योंकि पत्रकारिता का इसकी शुद्ध अवस्था में वैचारिक एजेंडों से परे सत्य का पेशा बने रहना जरूरी है.’

सरदेसाई ने यह कसौटी इस पृष्ठभूमि में पेश की है कि जहाँ २००२ से २००७ तक गुजरात के दंगे और दंगा पीड़ितों को न्याय का मुद्दा मीडिया की सुर्ख़ियों में रहे, वहीँ ’उनकी जगह अब चमचमाते वायब्रेंट गुजरात ने ले ली है...आज मीडिया ३६० डिग्री घूम गया है. अब यह गुड गवर्नेंस का मोदी मन्त्र है जिसने बाकी सबको धुंधला कर दिया है...अगर कभी गुजरात की कहानी दंगों के प्रिज्म के जरिये कही जाती थी तो वह अब कारपोरेट इंडिया के नजरों से कही जाती है.’

सरदेसाई मानते हैं कि, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती है. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है.’ सरदेसाई की इस राय पर विवाद की गुंजाइश नहीं है. निश्चय ही, पत्रकारिता जनसंपर्क (पी.आर) नहीं हो सकती है और न ही उसे किसी का चरित्र हनन करने की इजाजत दी जा सकती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के पी.आर अभियान में शामिल हो चुका है. इनमें न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा पूरे उत्साह के साथ जबकि एक छोटा हिस्सा कुछ हिचकिचाहट के साथ शामिल है. लेकिन दोनों मोदी की एक ‘विकास पुरुष और दृढ नेता’ के रूप में छवि गढ़ने के एक व्यापक पी.आर अभियान के सहमत भागीदार बन चुके हैं.
इसका प्रमाण यह है कि पिछले डेढ़-दो महीनों में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर मोदी छाए हुए हैं. न सिर्फ मोदी की हर छोटी-बड़ी, जरूरी और गैर-जरूरी गतिविधि, यात्रा, मुलाकात को व्यापक और गैर-आलोचनात्मक (अन-क्रिटिकल) कवरेज मिल रही है बल्कि बिना अपवाद के उनके सभी भाषण लाइव दिखाए जा रहे हैं. ट्विटर पर १४० कैरेक्टर की उनकी टिप्पणियां या बयान सुर्खियाँ बन रहे हैं.  

पिछले दिनों कम से कम दो प्रमुख न्यूज चैनलों (‘आज तक’ और ‘ए.बी.पी न्यूज’) ने सर्वेक्षणों के जरिये यह दिखाने की कोशिश की कि नरेन्द्र मोदी इस समय देश के सबसे ‘लोकप्रिय नेता’ हैं और लोकप्रियता चार्ट में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे निकल चुके हैं.

मजे की बात यह है कि भाजपा कार्यकारिणी ने पिछले महीने जब गोवा में मोदी को २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की प्रचार समिति का अध्यक्ष घोषित किया तो कई भाजपा नेताओं और उनके प्रवक्ताओं ने न्यूज चैनलों के इन सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश की.
यही नहीं, मोदी के प्रधानमंत्री पद के अभियान में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की सक्रिय भागीदारी का आलम यह है कि भाजपा की गोवा कार्यकारिणी का बैठक के कई दिनों पहले से उसमें मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास शुरू हुए और बैठक के दौरान वह चरम पर पहुँच गया, जब २४x७ चैनलों पर सिर्फ और सिर्फ यही मुद्दा छाया रहा.
अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि न्यूज चैनलों के इस हाई-पिच कवरेज ने भाजपा नेतृत्व में मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर गंभीर मतभेदों के बावजूद पार्टी को यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया.

कहना मुश्किल है कि अगर पिछले कुछ सालों खासकर पिछले साल-डेढ़ साल से मोदी की पी.आर मशीनरी ने सुनियोजित अभियान नहीं चलाया होता, मोदी की एक ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की छवि नहीं गढ़ी होती और सबसे बढ़कर कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने इस छवि को बिना किसी आलोचना के ज्यों का त्यों स्वीकार करके देश के सामने नहीं पेश किया होता तो मोदी के लिए भाजपा को अपने नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार कर पाना क्या इतना आसान होता?

हैरानी की बात नहीं है कि इस प्रकरण के बाद कई विश्लेषकों और कुछ भाजपा नेताओं तक की शिकायत है कि पार्टी को न्यूज मीडिया खासकर चैनल चला रहा है. लेकिन यह आधा सच है. वास्तव में, भाजपा और न्यूज मीडिया दोनों को मोदी की पी.आर मशीनरी चला रही है. यहाँ यह जोड़ना जरूरी है कि इस पी.आर मशीनरी के पीछे देश के बड़े कारपोरेट समूहों की ताकत भी लगी है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस की तेजी से गिरती साख को देखते हुए बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स नरेन्द्र मोदी को विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं. कारपोरेट न्यूज मीडिया इस मुहिम के सबसे महत्वपूर्ण औजारों में से है. वह कारपोरेट एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है.
इसलिए राजदीप सरदेसाई मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को लेकर कारपोरेट न्यूज मीडिया के ३६० डिग्री घूम जाने को लेकर जो हैरानी जाहिर कर रहे हैं, उसमें इतना हैरान होने की बात नहीं है. कारपोरेट न्यूज मीडिया पर मोदी ने कोई काला जादू नहीं किया है बल्कि यह मोदी में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी का राजनीतिक निवेश है जो कारपोरेट न्यूज मीडिया के जरिये उनकी छवि चमकाने और अनुकूल माहौल बनाने के लिए किया जा रहा है.

जाहिर है कि इस प्रक्रिया में कारपोरेट न्यूज मीडिया मोदी पर लगे २००२ के सांप्रदायिक नरसंहार के दाग को हल्का करने या उनके विकास माडल की कमियों और सीमाओं को अनदेखा करने या छुपाने, उनके बड़े-बड़े दावों को बिना किसी जांच-पड़ताल के लोगों के बीच पहुंचाने और उनकी राजनीति-अर्थनीति की बारीकी से छानबीन के कार्यभार से बचने की कोशिश कर रहा है.

ऐसा नहीं है कि न्यूज मीडिया या चैनलों में गुजरात के २००२ के नरसंहार, फिर राज्य में अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों और ईसाईयों) के साथ भेदभाव और उनका सुनियोजित हाशियाकरण और फर्जी मुठभेड़ों आदि में नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की भूमिका का उल्लेख नहीं होता है लेकिन उसका टोन और एंगल बदल गए हैं.
उदाहरण के लिए, चैनलों पर मोदी की राजनीति और रणनीति को लेकर होनेवाली अंतहीन बहसें हों या उनके कार्यक्रमों/भाषणों की कवरेज- उनमें घूम-फिरकर २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार का मुद्दा उठता है लेकिन नई बात यह है कि इसे भाजपा का प्रवक्ता नहीं बल्कि खुद एंकर या रिपोर्टर १९८४ में कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के कार्यकाल में हुए सिख विरोधी नरसंहार या कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में हुए दंगों से संतुलित करने की कोशिश करते हैं.
गोया १९८४ के नरसंहार, २००२ के नरसंहार को रोक पाने में मोदी की नाकामी और उसकी जवाबदेही लेने से बच निकलने के तार्किक औचित्य हों.   
दूसरे, अब २००२ के जनसंहार को कारपोरेट न्यूज मीडिया और चैनल गुजरात में मोदी के एक दशक से अधिक के ‘सुशासन’ और उनकी खुद की ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की भीमकाय छवि के बीच ‘एकमात्र दाग’ की तरह से पेश करते हैं जिसे अब अनदेखा कर दिया जाना चाहिए.

उसे एक बड़े मुद्दे की तरह उठाने में न्यूज मीडिया और चैनलों की थकान साफ़ देखी जा सकती है. अधिकांश चैनलों में चर्चाओं-बहसों के दौरान जाने-माने एंकरों और विश्लेषकों को न सिर्फ २००२ के नरसंहार का जिक्र करने से बचते हुए या उसका जिक्र आने पर एक ठंडी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए या कई मौकों पर चिडचिड़ाते हुए देखा जा सकता है.

('कथादेश' के जुलाई अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)