शुक्रवार, मई 25, 2012

आम आदमी की या तेल कंपनियों की सरकार?

निजी तेल कंपनियों के मुनाफे और सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण की तैयारी है पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना 

ऐसा लगता है कि जैसे यू.पी.ए सरकार पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी के लिए मौके का इंतज़ार कर रही थी. उसके उतावलेपन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही संसद का बजट सत्र समाप्त हुआ, उसने सरकारी तेल कंपनियों को कीमतें बढाने का संकेत कर दिया.

दूसरी ओर, सरकारी तेल कम्पनियाँ भी जैसे इसी मौके का इंतज़ार कर रही थीं. उन्हें लगा कि पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी का मौका पता नहीं फिर कब मिलेगा, इसलिए एक झटके में कीमतों में कोई ६.५० रूपये (टैक्स सहित लगभग ७.५० रूपये) प्रति लीटर की बढोत्तरी कर दी. पेट्रोल की कीमतों में यह अब तक की सबसे बड़ी बढोत्तरी है.

हालाँकि इस बढोत्तरी के लिए सरकार यह कहते हुए बहुत दिनों से माहौल बना रही थी कि बढ़ते आर्थिक संकट को देखते हुए कड़े फैसले करने का वक्त आ गया है. लेकिन यह बढोत्तरी इतनी बे-हिसाब और अतार्किक है कि खुद सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं को भी इसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है. 

हैरानी की बात नहीं है कि कड़े फैसले की दुहाईयाँ देनेवाले वित्त मंत्री भी यह कहकर इस फैसले से हाथ झाड़ने की कोशिश कर रहे हैं कि पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की जा चुकी हैं और उसे सरकार नहीं, बाजार और तेल कम्पनियाँ तय करती हैं. तकनीकी तौर पर यह बात सही होते हुए भी सच यह है कि तेल कम्पनियां सरकार की हरी झंडी के बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ाती हैं.

इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि तेल कंपनियों की मांग और दबाव के बावजूद पिछले छह महीनों से उन्हें पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की इजाजत नहीं दी गई कारण, पहले उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव थे और उसके तुरंत बाद संसद का बजट सत्र शुरू हो गया, जहाँ सरकार विपक्ष को एकजुट और आक्रामक होने का मौका नहीं देना चाहती थी.

इसीलिए संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार किया गया. इस मायने में यह संसद के साथ धोखा है और चोर दरवाजे का इस्तेमाल है. अगर सरकार को यह फैसला इतना जरूरी और तार्किक लगता है तो उसे संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार करने के बजाय उसे विश्वास में लेकर यह फैसला करना चाहिए था.

दूसरी बात यह है कि पेट्रोल की कीमतों में इतनी भारी वृद्धि के फैसले का कोई आर्थिक तर्क और औचित्य नहीं है. खासकर एक ऐसे समय में जब महंगाई आसमान छू रही है, इस फैसले के जरिये सरकार ने महंगाई की आग में तेल डालने का काम किया है.

इस तथ्य से सरकार भी वाकिफ है लेकिन उसने आमलोगों के हितों की कीमत पर तेल कंपनियों खासकर निजी तेल कंपनियों और उनके देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है. इस फैसले का एक मकसद डूबते शेयर बाजार को आक्सीजन देना भी है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के बाद शेयर बाजार में इन तेल कंपनियों के शेयरों की कीमतों में तेजी दिखाई दी है.

मजे की बात यह है कि तेल कम्पनियाँ पेट्रोल की कीमतों में रिकार्ड वृद्धि के बावजूद घाटे का रोना रो रही हैं और पेट्रोल सहित अन्य पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में और अधिक वृद्धि की दुहाई दे रही हैं. हैरानी नहीं होगी, अगर अगले कुछ दिनों में सरकार डीजल और रसोई गैस की कीमतों में भी वृद्धि का फैसला करे. बाजार का तर्क तो यही कहता है और देशी-विदेशी निवेशक भी यही मांग कर रहे हैं.

साफ़ है कि सरकार कड़े फैसले कंपनियों, शेयर बाजार और निवेशकों को खुश करने के लिए ले रही है. यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तेल कंपनियों को घाटा नहीं, मुनाफा हो रहा है. वर्ष २०११ में तीनों सरकारी तेल कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ था. इंडियन आयल को ७४४५ करोड़ रूपये, एच.पी.सी.एल को १५३९ करोड़ रूपये और बी.पी.सी.एल को १५४७ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ था.   

तेल कंपनियों का यह तर्क भी आधा सच है कि पेट्रोल और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है क्योंकि कच्चे तेल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊँची बनी हुई हैं और हाल के महीनों में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में खासी गिरावट आने से आयात महंगा हुआ है.

सवाल यह है कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में नरमी आ रही है और कीमतें गिरी हैं तब कीमतों में वृद्धि का क्या औचित्य है? दूसरे, क्या रूपये की कीमत में इतनी गिरावट आ गई है कि पेट्रोल की कीमतों में रिकार्डतोड़ बढ़ोत्तरी की जाये?

यही नहीं, सवाल यह भी है कि क्या कीमतों में वृद्धि के अलावा और कोई रास्ता नहीं था? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि सरकार समेत सबको पता है कि  पेट्रोल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी से पहले से ही बेकाबू महंगाई को काबू में करना और मुश्किल हो जाएगा? यह किसी से छुपा नहीं है कि ऊँची मुद्रास्फीति दर का अर्थव्यवस्था पर कितना बुरा असर पड़ रहा है.

आखिर सरकार ने और विकल्पों पर विचार करना जरूरी क्यों नहीं समझा? यह तथ्य है कि पेट्रोल की कीमतों में लगभग आधा केन्द्र और राज्यों के टैक्स का अधिभार है. सच पूछिए तो केन्द्र और राज्य सरकारें पेट्रोल को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करती हैं. सवाल है कि क्या पेट्रोल पर लगनेवाले टैक्स को कम करने का विकल्प नहीं इस्तेमाल किया जा सकता था?

असल में, सरकार इस फैसले के जरिये देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को यह संकेत देना और उनका विश्वास हासिल करना चाहती है कि वह उनके हितों को आगे बढ़ाने के लिए कड़े फैसले लेने के लिए तैयार है. यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी यह आरोप लगाती रही है कि वह ‘नीतिगत लकवेपन’ का शिकार हो गई है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी कड़े फैसले करने से बच रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार कारपोरेट और बड़ी पूंजी के जबरदस्त दबाव में है. आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के एजेंडे के तहत सभी पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को पूरी तरह विनियमित करने से लेकर सरकारी तेल कंपनियों को निजी क्षेत्र को सौंपना शामिल है.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार इसी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को पूरी तरह विनियमित करने का सबसे ज्यादा फायदा देशी-विदेशी बड़ी निजी तेल कंपनियों को होगा. वे लंबे अरसे से लेवल प्लेईंग फील्ड की मांग कर रही है. यही नहीं, इससे सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण का तर्क भी बनेगा.

लेकिन सवाल यह है कि जब पूरी दुनिया खासकर अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में आम आदमी की कीमत पर निजी तेल कंपनियों के आसमान छूते मुनाफे को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उस समय भारत में तेल कंपनियों के मुनाफे के लिए सरकार आम आदमी के हितों को दांव पर लगाने से नहीं हिचक रही है.

लाख टके का सवाल यह है कि यह आम आदमी की सरकार है या तेल कंपनियों की सरकार?

('राष्ट्रीय सहारा'के 25 मई के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)                   

सोमवार, मई 21, 2012

‘सत्यमेव जयते’ का सच

सामाजिक क्रांति के नाम पर कहीं प्रतिक्रांति की वजह न बन जाए "सत्यमेव जयते"
सत्य की महिमा कौन नहीं जानता? कहते हैं कि सच परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं. गाँधी आजीवन ‘सत्य के साथ प्रयोग’ करते रहे और बहुतों का मानना है कि उनके सत्याग्रह ने अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया.
आज़ाद भारत के निर्माताओं ने शायद इसे ही ध्यान में रखकर राष्ट्र का आदर्श वाक्य चुना: ‘सत्यमेव जयते’. जल्दी ही थाने-कचहरियों से लेकर तमाम सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर तीन सिंहों के सिर वाले अशोक स्तंभ के ठीक नीचे यह आदर्श वाक्य चुन दिया गया: ‘सत्यमेव जयते’.
यह और बात है कि इन सरकारी इमारतों में सच का गला सबसे ज्यादा घोंटा गया. समय के साथ सच परेशान ही नहीं, पराजित दिखने लगा. कुछ इस हद तक कि लोगों की निराशा और हताशा बेकाबू होने लगी. उनका गुस्सा अलग-अलग शक्लों में फूटने लगा.

इस तरह स्टेज पूरी तरह सेट हो चुका था. ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत...’ यानी अब भारत को जरूरत थी, एक अवतार की जो उसे इस अधर्म से निकाले और सत्य की जीत में खोई आस्था को बहाल करे.

लेकिन अब समय बदल चुका है. यह कलियुग यानी मीडियायुग है. इस युग में अवतार पैदा नहीं होता बल्कि गढा जाता है. अब ईश्वरीय गुणों वाले महानायक देवलोक से नहीं आते, टी.वी स्टूडियो या ओ.बी में जन्म लेते हैं. वे आसमान से नहीं उतरते बल्कि आकाश-तरंगों से घर-घर पहुँच जाते हैं.
मानिए या नहीं, आज मीडिया ही नायक बनाता है, वही खलनायक तय करता है और दोनों के बीच वाकयुद्ध का मंच भी मीडिया ही होता है. यह नायक कोई भी हो सकता है. इस तरह मीडिया के कंधे पर चढ़ पहले अन्ना हजारे आये, भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का एलान करते हुए. उनके पास भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक जादू की छड़ी थी: लोकपाल.
रातों-रात 24x7 ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें भ्रष्टाचार से आज़ादी दूँगा’ के नारे चैनलों पर गूंजने लगे. नतीजा, चैनलों पर देश हिलने लगा, भावनाएं उबलने लगीं. लगा कि क्रांति अब हुई कि तब हुई. लेकिन अफ़सोस क्रांति नहीं हुई. हाँ, लोगों के मन का गुबार जरूर निकल गया. अलबत्ता, थोड़ी कसक रह गई.
अब वह कसक पूरी करने अभिनेता आमिर खान आए हैं, एयरटेल और एक्वागार्ड के सौजन्य से स्टार प्लस और दूरदर्शन पर ‘सत्यमेव जयते’ लेकर. यह कहते हुए कि ‘जब दिल पर लगेगी, तभी बात बनेगी’, यह रियलिटी-टाक शो हर रविवार को दिन में ११ बजे दिखाया जायेगा.

बहुत सचेत तरीके से याद दिलाया जा रहा है कि यह रविवार का वही समय है जब दो-ढाई दशक पहले रामायण-महाभारत दिखाए जाते थे और शहरों में सड़कें सूनी हो जाया करती थीं. जबरदस्त प्रचार और मार्केटिंग अभियान के साथ शुरू हुए ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपीसोड में आमिर ने कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को खूब जोरशोर से उठाया.
इसमें क्या नहीं है? एक ज्वलंत मुद्दा है. ओफ्रा विनफ्रे शैली में पीडितों की सच्ची आपबीतियां और आमिर का पर्सनल टच और स्टारडम है. डाक्टरों की पोल खोलने वाला एक पुराना स्टिंग और उसके पत्रकारों की हकीकत बयानी है. कन्या भ्रूण हत्या के सामाजिक पहलुओं और डाक्टरी खेल पर विशेषज्ञों की राय थी. कुछ तथ्य और तर्क थे और बहुत ज्यादा भावनाएं और आंसू थे.

सबसे बढ़कर मुद्दे का तुरता और आसान ‘फास्टफूड’ समाधान है. इस तरह दर्शकों के लिए विरेचन
(कैथार्सिस) का पूरा इंतजाम है. यही नहीं, इसके पीछे स्टार जैसा चैनल/मीडिया समूह और उसकी टीम है जो करोड़ों खर्च करके बनाये गए इतने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को असफल नहीं होने दे सकती.     
नतीजा, जैसाकि दावा था, ‘बात दिल पर ही लगी’ और मीडिया पंडितों की मानें तो ‘बात बन भी गई.’ ‘सत्यमेव जयते’ को टी.वी का नया गेम चेंजर माना जा रहा है. किसी को यह व्यावसायिक टी.वी पर लोकसेवा प्रसारण की वापसी दिखाई दे रही है. कोई इसे टी.वी में सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास जगना बता रहा है.

कुछ अति उत्साहियों को इसमें कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक नई सामाजिक क्रांति की शुरुआत दिखाई दे रही है. टी.वी और आमिर खान को इस सामाजिक क्रांति का माध्यम बताया जा रहा है. चलिए, मान लिया कि टी.वी का ह्रदय परिवर्तन होने लगा है. लेकिन यह भी तो बताइए कि रातों-रात टी.वी की अंतरात्मा कैसे जग गई?

यह सवाल इसलिए भी बनता है कि कल तक टी.वी को उसकी सामाजिक जिम्मेदारी की याद दिलाने पर चैनलों के जो संपादक/प्रबंधक उसे लोगों के मनोरंजन और बहलाव का माध्यम बताते नहीं थकते थे और दुनियावी परेशानियों में उलझे अपने दर्शकों को गंभीर मुद्दों से और परेशान करने के लिए तैयार नहीं थे, उनके अचानक ह्रदय परिवर्तन की वजह क्या है?

यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि महिला अधिकारों और जागरूकता की बातों के बावजूद चैनलों और खुद स्टार पर अब भी सामाजिक रूप से ऐसे अनुदार और प्रतिगामी धारावाहिकों की भरमार है जिसमें महिलाओं की पितृ-सत्तात्मक/सामंती जकड़बंदियों का महिमामंडन होता है.

हैरानी की बात नहीं है कि आमिर के कन्या भ्रूण हत्या पर ‘सामाजिक क्रांतिकारी’ शो का नतीजा शंकराचार्य और धर्मगुरुओं की इस मांग के रूप में सामने आया कि गर्भपात पर पूरी तरह से रोक लगाया जाए.

अब यह कौन याद दिलाये कि महिला आंदोलन ने लंबी लड़ाई के बाद अपने शरीर पर अपना हक और बच्चा पैदा करने या न करने का यानी गर्भपात का अधिकार पाया! इस अधिकार का मिलना सामाजिक क्रांति थी. लेकिन यहाँ तो इसे छीनने की मांग उठने लगी है.

लेकिन इसका मौका ‘सत्यमेव जयते’ ने ही दिया है. आखिर कन्या भ्रूण हत्या जैसे जटिल और गंभीर सामाजिक अपराध के लिए आमिर ने जैसे कुछ लालची डाक्टरों, अल्ट्रासाउंड मशीनों, बेटा चाहनेवाले सास-ससुर-पतियों को खलनायक और जिम्मेदार ठहराकर कानून के कड़ाई से पालन और अपराधियों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट का आसान समाधान पेश कर दिया, उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है?

गोया जब डाक्टर और अल्ट्रा साउंड मशीनें नहीं थीं, बेटियों की हत्याएं नहीं होती थीं! और यह भी कि लोग कुलदीपक क्यों चाहते हैं? जाहिर है कि आमिर का ‘सत्य’ उस पितृ सत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुँच पाया या नहीं पहुंचना चाहता था जो महिलाओं को समाज और परिवार में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है.
माफ करिये लेकिन कहना पड़ेगा कि इस ढांचे को तोड़े और चुनौती दिए बगैर कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक महिलाओं के खिलाफ होनेवाले अत्याचारों को रोकना मुश्किल है. लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ का सच इससे मुंह चुराता दिखता है?
यह व्यावसायिक टी.वी की सीमा है. वह सामाजिक क्रांति का नहीं, उपभोक्ता क्रांति का माध्यम है. वह बदलाव का नहीं, यथास्थिति का माध्यम है. वह उसे चुनौती नहीं दे सकता जिससे उसे खाद-पानी मिलता है और इसीलिए वह सत्य में नहीं, आधे-अधूरे और सतही ‘सच’ में हल खोजता है जो वास्तव में, असली हल नहीं, हल का आभास भर होता है. अफ़सोस, सत्य एक बार फिर पराजित होता दिख रहा है. 
("तहलका" के 15 मई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ का असंपादित हिस्सा..इसका थोडा संक्षिप्त हिस्सा 'तहलका' के 3 मई के अंक में छपा है) 

शुक्रवार, मई 18, 2012

भूमंडलीकरण के रास्ते आया है यह आर्थिक संकट

यह आर्थिक संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल देश के अंदर है  

क्या भारत एक बार फिर १९९१ की तरह के आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है? क्या एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी शुरू होने से पहले ही पटाक्षेप के करीब पहुँच गई है? डालर के मुकाबले गिरते रूपये और लुढ़कते शेयर बाजार के बीच संसद से लेकर गुलाबी अखबारों और चैनलों तक में यही सवाल छाए हुए हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती स्थिति को लेकर आशंकाओं और घबराहट का माहौल है. हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी अपने तईं देशी-विदेशी निवेशकों और बाजार के साथ-साथ देश को अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन नार्थ ब्लाक से लेकर दलाल स्ट्रीट तक फैली घबराहट किसी से छुपी नहीं है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बतानेवाले अधिकांश संकेतक लड़खड़ाते हुए दिख रहे हैं. रूपये और शेयर बाजार के साथ-साथ  औद्योगिक उत्पादन वृद्धि में फिसलन, बढ़ता वित्तीय, व्यापार और चालू खाते का घाटा, जी.डी.पी की गिरती वृद्धि दर और ऊपर चढती महंगाई दर जैसे संकेतकों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है.

यह भी सही है कि आंकड़ों में कई संकेतक १९९१ के संकट के करीब पहुँच गए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि स्थिति चिंताजनक है लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि अर्थव्यवस्था १९९१ के तरह के संकट में फंसने जा रही है या उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी का पटाक्षेप हो गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा आर्थिक संकट कई घरेलू और वैदेशिक कारकों का मिलाजुला नतीजा है. इन कारकों में संकट में फंसी वैश्विक अर्थव्यवस्था में बढ़ती अनिश्चितता खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहराते संकट का असर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.
एक भूमंडलीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था के अभिन्न हिस्से के रूप में भारत भी इसके नकारात्मक प्रभावों से अछूता नहीं है. इस मायने में वित्त मंत्री की यह सफाई एक हद तक सही है कि रूपये औए शेयर बाजार में गिरावट आदि के लिए यूनान सहित यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं का संकट जिम्मेदार है.  
लेकिन प्रणब मुखर्जी यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. पूरा सच यह है कि मौजूदा संकट के लिए सबसे अधिक जवाबदेही आँख मूंदकर आगे बढ़ाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की है जिसके तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी और उत्पादों के लिए न सिर्फ अधिक से अधिक खोला गया बल्कि उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ने के लिए घरेलू नीतियों को बड़ी विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी के अनुकूल बनाया गया.

स्वाभाविक तौर पर अर्थव्यवस्था के एक हिस्से खासकर घरेलू बड़ी पूंजी को इसका फायदा हुआ है तो प्रतिकूल दौर में इसके बुरे नतीजों को भी भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.

यही नहीं, पिछले डेढ़-दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर बढ़ती चली गई है. यह निर्भरता इस खतरनाक हद तक बढ़ गई है कि विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारें उनकी सभी जायज-नाजायज मांगें मानने के लिए मजबूर हो गई हैं.
उदाहरण के लिए, वोडाफोन टैक्स विवाद और आयकर कानून में मौजूद छिद्र को नए बजट में पीछे से संशोधन करके सुधारने या सुप्रीम कोर्ट द्वारा २ जी मामले में १२२ टेलीकाम लाइसेंसों को रद्द करने और अब ट्राई द्वारा उनकी नीलामी के लिए ऊँची रिजर्व कीमत तय करने जैसे हालिया प्रकरणों को लीजिए जिन्हें देश में निवेश का माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और जिसे लेकर विदेशी निवेशक और कार्पोरेट्स इतने नाराज बताये जा रहे हैं कि वे न सिर्फ नया निवेश करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि देश से पूंजी निकाल कर ले जा रहे बताये जा रहे हैं. 
दरअसल, यह एक तरह का भयादोहन है कि अगर आपने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश नहीं किया तो वे देश छोडकर चले जाएंगे जिससे अर्थव्यवस्था संकट में फंस जाएगी. उदाहरण के लिए रूपये की गिरती कीमत और लड़खड़ाते शेयर बाजार को ही लीजिए. तथ्य यह है कि शेयर बाजार पूरी तरह से बड़े विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी और कुछ बड़े घरेलू निवेशकों के चंगुल में है और वे अपनी मनमर्जी से उसे चढाते-गिराते रहते हैं.

यही कारण है कि शेयर बाजार का मतलब सट्टेबाजी हो गई है. दूसरे, इस आवारा पूंजी को किसी देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा अपने मुनाफे की चिंता होती है. नतीजा यह कि जब तक उसे भारतीय बाजारों में मुनाफा दिखता है, आवारा पूंजी का प्रवाह बना रहता है. बाजार अकारण और अतार्किक ढंग से चढ़ता रहता है. उसके साथ आनेवाले डालर के कारण रूपये की कीमत भी चढती रहती है.

लेकिन जैसे ही घरेलू या वैदेशिक माहौल बदलता या बिगड़ता है, आवारा पूंजी को सुरक्षित ठिकाने की खोज में देश छोड़ने में देर नहीं लगती है. यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि यह स्थिति भी अर्थव्यवस्था के लिए अलग तरह के संकट खड़ा कर देती है. साल-डेढ़ साल पहले तक सरकार रूपये की बढ़ती कीमत और विदेशी मुद्रा के भारी भण्डार के कारण पैदा होनेवाली समस्याओं के कारण परेशान थी.
यहाँ तक कि उसने डालर खपाने के लिए विदेशों में डालर ले जाने के नियम ढीले कर दिए. इसका उल्टा असर अब दिखाई पड़ रहा है. इस बीच, कुछ हद तक वैदेशिक और कुछ अपनी मनमाफिक नीतियों और फैसलों के न होने के कारण विदेशी पूंजी देश से निकल रही है. इससे शेयर बाजार के साथ रूपये की कीमत भी गिर रही है और अर्थव्यवस्था संकट में फंसती हुई दिख रही है.

इसके साथ ही यह भी सच है कि देशी-विदेशी निवेशक मौजूदा संकट का फायदा उठाने में लगे हैं. शेयर और मुद्रा बाजार में जमकर सट्टेबाजी हो रही है. एफ.आई.आई से लेकर बड़े निजी देशी-विदेशी बैंक/वित्तीय संस्थाएं और कार्पोरेट्स से लेकर निर्यातकों तक सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और वित्त मंत्रालय से लेकर रिजर्व बैंक तक इसलिए हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि बाजार में हस्तक्षेप से गलत सन्देश जाएगा और बाजार को अपना काम करने देना चाहिए.
लेकिन यह जानते हुए भी कि बाजार में सट्टेबाजी चल रही है और खुलकर मैनिपुलेशन हो रहा है, सरकार का अनिर्णय हैरान करनेवाला है. सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है जहाँ सरकार जानते-समझते हुए भी सट्टेबाजों के खिलाफ कार्रवाई करने में घबराती है.                             
लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थक मौजूदा संकट के लिए यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और कथित ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. वे सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाये बल्कि आमलोगों पर बोझ बढ़ानेवाले कड़े फैसले करे.
सवाल यह है कि क्या भारत एक ‘बनाना रिपब्लिक’ है जहाँ विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स जो चाहे करें और सरकार चुपचाप देखती रहे? दूसरे, क्या देश को निवेश खासकर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए? यहाँ तक कि आमलोगों खासकर गरीबों-आदिवासियों के हितों से लेकर पर्यावरण तक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए?
ये सवाल बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण हैं. इन्हें अनदेखा करके संकट से निपटने के नाम पर विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को और रियायतें देने का एक ही नतीजा होगा- और बड़े संकट को निमंत्रण. सच पूछिए तो मौजूदा संकट उतना बड़ा संकट नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ाकर गुलाबी मीडिया बता रहा है.
यह सिर्फ देश में बड़े आर्थिक संकट का डर दिखाकर और घबराहट का माहौल बनाकर अपने मनमाफिक नीतियां बनवाने और फैसले करवाने की कोशिश है. इस समय जरूरत कड़े फैसलों और किफायतशारी (आस्ट्रीटी) के नाम पर लोगों पर और बोझ डालने के बजाय देश के अंदर अपने संसाधनों के बेहतर और प्रभावी इस्तेमाल के जरिये घरेलू मांग बढाने और इसके लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है. इस मायने में यह संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल बाहर नहीं, देश के अंदर खोजा जाना चाहिए.
         
('दैनिक भाष्कर' में आप-एड पृष्ठ पर 18 मई को प्रकाशित लेख)

गुरुवार, मई 17, 2012

‘नीतिगत लकवे’ का निहितार्थ

कार्पोरेट हितों को आगे बढ़ने का यह सुनियोजित प्रचार अभियान है


मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में ३.५ फीसदी की गिरावट की खबर आते ही इस गिरावट के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहराते हुए सामूहिक रुदन और तेज हो गया है. इसके साथ ही कथित रूप से रूके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के पर्दे फाड़ने लगा है.
हालाँकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है. पिछले डेढ़-दो सालों खासकर २ जी समेत भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में नाकामयाबी को लेकर यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ के आरोप लगते रहे हैं.
लेकिन नई बात यह है कि पिछले कुछ महीनों में इस कोरस के सुर न सिर्फ कानफोडू ऊँचाई तक पहुँच गए हैं बल्कि खुद सरकार के अंदर से भी ऐसे सुर सामने आने लगे हैं. हालत यह हो गई है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देशी-विदेशी पूंजी के प्रतिनिधि, उनके थिंक टैंक, समूचा कारपोरेट जगत, आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक, गुलाबी अखबार और विपक्ष सभी सरकार पर उसके कथित नीतिगत लकवे के लिए चौतरफा हमला कर रहे हैं.
हद तो यह हो गई कि खुद वित्त मंत्री के सलाहकार कौशिक बसु भी अमेरिका में विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के रुकने और सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ का शिकार होने का रोना रोते दिखाई पड़े.
यही नहीं, अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से लेकर उसकी सभी समस्यायों का ठीकरा भी इसी ‘नीतिगत लकवे’ पर फोड़ा जा रहा है. मजे की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक सार्वजनिक तौर पर भले ही नीतिगत लकवे के आरोपों को नकार रहे हों लेकिन वे भी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कड़े फैसले लेने में आ रही कठिनाइयों को दबी जुबान में स्वीकार करते हैं.

वे इसके लिए गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक तौर पर चाहे जितना इनकार करे लेकिन खुद सरकार के अंदर नीतिगत लकवे के आरोपों से काफी हद तक सहमति है. इस धारणा को वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के इस बयान ने और दृढ कर दिया कि अब आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कठिन फैसले २०१४ के आम चुनावों के बाद ही संभव हो पायेंगे.
लेकिन क्या सचमुच यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार है? यह कुछ हद तक सही है कि यू.पी.ए सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की इच्छा के मुताबिक नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है.
खासकर बड़ी पूंजी के मनमाफिक खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई., श्रम कानूनों को और ढीला करने और उदार छंटनी नीति की इजाजत देने, बैंक-बीमा आदि क्षेत्रों में ७४ फीसदी से अधिक विदेशी पूंजी की अनुमति से लेकर बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, स्पेक्ट्रम से लेकर खदानों तक सार्वजनिक संसाधनों को आने-पौने दामों में मुहैया करने और सब्सिडी में कटौती और इस तरह आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने जैसे फैसले करने या उससे ज्यादा उन्हें लागू कराने में सरकार कामयाब नहीं हुई है.
ऐसा नहीं है कि सरकार ये फैसले नहीं करना चाहती है. इसके उलट तथ्य यह है कि उसने अपने तईं हर कोशिश की है, कई फैसले किये भी लेकिन कुछ यू.पी.ए गठबंधन के अंदर के राजनीतिक अंतर्विरोधों और कुछ आमलोगों के खुले विरोध के कारण लागू नहीं कर पाई.
इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देशभर में जिस तरह से बड़ी कंपनियों के प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर खनिजों के दोहन के लिए जंगल और पहाड़ सौंपने का आम गरीबों, आदिवासियों, किसानों ने खुला और संगठित प्रतिरोध किया है, उसके कारण ९० फीसदी प्रोजेक्ट्स में काम रूका हुआ है.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों के नाम पर सब्सिडी में कटौती और लोगों पर बोझ डालने के खिलाफ भी जनमत मुखर हुआ है. राजनीतिक दलों को कड़े फैसलों की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ रही है.
इस कारण न चाहते हुए भी राजनीतिक दलों को पैर पीछे खींचने पड़े हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि गरीबों-किसानों-आदिवासियों की इस खुली बगावत से कैसे निपटें? हालाँकि सरकारों ने अपने तईं कुछ भी उठा नहीं रखा है. सैन्य दमन से लेकर जन आन्दोलनों को तोड़ने, बदनाम करने और खरीदने के हथियार आजमाए जा रहे हैं.
उडीशा से लेकर छत्तीसगढ़ तक कई जगहों पर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट के खिलाफ खड़े गरीबों और उनके जनतांत्रिक आन्दोलनों को नक्सली और माओवादी बताकर कुचलने और उन्हें देश की ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ घोषित करके दमन करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर जारी हैं.  
दूसरी ओर, जैतापुर से लेकर कुडनकुलम तक शांतिपूर्ण आन्दोलनों को ‘विकास विरोधी’ और ‘विदेशी धन समर्थित’ आंदोलन बताकर बदनाम करने, उन्हें तोड़ने और उनका दमन करने का सुनियोजित अभियान भी जारी है.
यही नहीं, हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनकी फैक्टरियों में मजदूरों का खुलेआम शोषण हो रहा है, श्रम कानूनों को सरेआम ठेंगा दिखाते हुए उन्हें यूनियन बनाने और अपने मांगे उठाने तक का अधिकार नहीं दिया जा रहा है और हड़ताल के साथ तो आतंकवादी घटना की तरह व्यवहार किया जा रहा है. सच यह है कि कार्पोरेट्स की मनमर्जी के मुताबिक श्रम सुधार अभी भले नहीं हुए हों लेकिन व्यवहार में श्रम कानूनों को बेमानी बना दिया गया है.

सरकार की मंशा का अंदाज़ा हाल में घोषित राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग नीति से भी लगाया जा सकता है जिसके तहत बननेवाले राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग जोन में श्रम कानून लागू नहीं होंगे. इससे पहले सेज के तहत भी ऐसे ही प्रावधान किये गए थे. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखा है.
इसका सुबूत यह भी है कि पिछले कुछ महीनों में वित्तीय पूंजी को कई रियायतें देने के अलावा खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की इजाजत देने का भी फैसला किया. यह और बात है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के मुद्दे पर तृणमूल सरीखे सहयोगी दलों और देशव्यापी विरोध के कारण उसे कदम पीछे खींचने पड़े लेकिन उसके साथ यह भी सच है कि एकल ब्रांड में १०० फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत मिल गई है.
यही नहीं, ‘नीतिगत लकवे’ की छवि को तोड़ने के लिए सरकार की बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि टैक्स कानूनों में छिद्रों का फायदा उठाकर टैक्स देने से बचनेवाली कंपनियों से निपटने के लिए वित्त मंत्री ने बजट में जिस जी.ए.ए.आर (गार) का प्रस्ताव किया था, उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के दबाव में अगले साल के लिए टालने का एलान कर दिया है.
इसके बावजूद बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स खुश नहीं हैं. यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कंपनियों की ओर से भांति-भांति की रियायतों और कई मामलों में परस्पर विरोधी दबाव हैं. हाल के महीनों में ये दबाव इतने अधिक बढ़ गए हैं कि सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है या फैसलों को लागू नहीं करा पा रही है. लेकिन गुलाबी मीडिया इसे ‘नीतिगत लकवा’ नहीं मानता है.  
उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र को ही लीजिए. २ जी मामले में १२२ लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि ‘नीतिगत लकवे’ का स्रोत क्या है?
इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने २ जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उसके खिलाफ   देश की सभी बड़ी टेलीकाम कंपनियों ने युद्ध सा छेड दिया है. उनकी लाबीइंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है. सरकार फैसला नहीं कर पा रही है. वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार टिकी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने को लेकर उसपर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ़ है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है.
एक और उदाहरण देखिये. कृष्णा-गोदावरी बेसिन से गैस के उत्पादन के मामले रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबरदस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए जान-बूझकर गैस का उत्पादन गिरा दिया है. लेकिन शुरूआती के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है.
ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों
के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों. इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कारपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लाबीइंग के जरिये नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कारपोरेट क्षेत्र को हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और जमीन पर बढते जन प्रतिरोध के कारण यू.पी.ए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कारपोरेट लूट को खुली छूट देनेवाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है. कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही ‘नीतिगत लकवा’ बता रहे हैं.                 
असल में, यह एक बहुत सचेत और नियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना और सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों पर इन कारपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है.
इस अभियान के कारण सरकार इतनी अधिक दबाव में है कि वह ‘नीतिगत लकवे’ के आरोपों को गलत साबित करने के लिए बिना सोचे-समझे और हड़बड़ी में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों को खुश करने के लिए फैसले कर रही है.
दूसरी ओर, इस अभियान का दबाव है कि सरकार वित्तीय घाटे में कटौती करके नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के चक्कर में न सिर्फ पेट्रोल-डीजल से लेकर उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है बल्कि खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है.
सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है कि यू.पी.ए सरकार रिकार्ड छह करोड़ टन अनाज भण्डार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जायेगी.
इसी तरह कारपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव के कारण वह लटका हुआ है. यही नहीं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का सवाल हो या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का मुद्दा हो- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसला करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है.
लेकिन कारपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी ५.४० लाख करोड़ रूपये की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का ख्याल नहीं आता है. क्या यह ‘नीतिगत लकवा’ नहीं है?
('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 मई को प्रकाशित लेख)       

बुधवार, मई 09, 2012

क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का खेल

बड़ी आवारा पूंजी के हितों की प्रवक्ता बन गई हैं क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां  

जैसीकि आशंका जाहिर की जा रही थी, क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स (एस एंड पी) ने पिछले सप्ताह भारत की ‘सार्वभौम रेटिंग’ को ‘स्थिर’ (बी.बी.बी प्लस) से एक पायदान नीचे गिराते हुए ‘नकारात्मक’ (बी.बी.बी माइनस) श्रेणी में डाल दिया है जो ‘कबाड़’ (जंक) श्रेणी से सिर्फ एक पायदान ऊपर है.

एस एंड पी ने इस फैसले के लिए भारत की लगातार बिगड़ती राजकोषीय स्थिति, चालू खाते का बढ़ता घाटा, वृद्धि दर में गिरावट और आर्थिक सुधारों की धीमी गति आदि को कारण बताते हुए चेतावनी दी है कि अगर स्थिति में जल्दी सुधार नहीं हुआ तो वह उसकी रेटिंग को और नीचे गिराकर जंक यानी ‘निवेश लायक नहीं’ की श्रेणी में डाल सकता है.

हालाँकि एस एंड पी के इस फैसले पर गुलाबी अखबारों और आवारा पूंजी की प्रतिनिधि वित्तीय संस्थाओं के शोर-शराबे और घबराहट का माहौल बनाने की कोशिश की लेकिन आशंका के विपरीत इस फैसले के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था पर आसमान नहीं टूट पड़ा. यहाँ तक कि शेयर बाजार और मुद्रा बाजार में भी रोजमर्रा के उतार-चढाव के बावजूद काफी हद तक स्थिरता बनी हुई है.

यही कोई चार-पांच साल पहले की बात होती तो शेयर और मुद्रा बाजार में कोहराम मच जाता और स्थिति को संभालने में सरकार के हाथ-पैर फूल जाते. लेकिन इन बीते वर्षों में मिसिसिपी से लेकर डैन्यूब और गंगा तक में बहुत पानी बह चुका है और रेटिंग एजेंसियों का पानी काफी उतर चुका है.

खासकर २००७-०८ के अमेरिकी कर्ज संकट के दौरान दर्जनों वित्तीय संस्थाओं और बैंकों के धराशाई होने के बाद क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की साख भी पाताल में पहुँच गई क्योंकि इन एजेंसियों ने इन बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को आकर्षक रेटिंग दे रखी थी.

वैसे क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर बहुत पहले से ही बड़े कारपोरेट समूहों, वित्तीय संस्थाओं और बैंकों के साथ मिलीभगत, जोड़तोड़ और हितों के टकराव के आरोप लगते रहे हैं. एनरान से लेकर फ्रेडी मैक तक और अमेरिकी वित्तीय संकट के लिए जिम्मेदार जहरीले बांडों (सी.डी.ओ) जैसे अनेकों मामलों में यह पाया गया कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने उन्हें काफी ऊँची रेटिंग दी हुई थी.
यही कारण है कि अमेरिकी कर्ज संकट और उसके कारण पैदा हुए वैश्विक आर्थिक संकट में उनकी सीधी भूमिका के सामने आने के बाद उनके कामकाज को लेकर दुनिया भर में बहस शुरू हो गई और उन्हें भी रेगुलेट करने की मांग उठने लगी.

नतीजा यह कि पिछले दो-तीन सालों से क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां कुछ ज्यादा ही सतर्क और अति सक्रिय दिखने की कोशिश करने लगी हैं. अपनी खोई हुई साख हासिल करने के लिए वे कुछ ज्यादा ही तेजी और हड़बड़ी में देशों की सार्वभौम रेटिंग और कुछ हद तक उनकी कंपनियों की क्रेडिट रेटिंग में कटौती करने लगी हैं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले साल जब स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स ने १९४१ के बाद पहली बार अमेरिका की सार्वभौम क्रेडिट रेटिंग को सर्वश्रेष्ठ रेटिंग ए.ए.ए से एक दर्जा घटाकर ए.ए प्लस कर दिया तो उससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था ढह नहीं गई.

उल्टे इसके लिए उसे अमेरिकी सरकार से ढेरों गालियाँ सुननी पड़ीं. यही नहीं, सार्वभौम रेटिंग में कटौती से न तो निवेशकों को कोई फायदा हुआ और न ही पटरी पर लौटने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कोई मदद मिली. उल्टे इससे अनिश्चितता और अस्थिरता और बढ़ गई.

हैरानी की बात नहीं है कि हाल के महीनों में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर आर्थिक संकट में फंसे देशों की आर्थिक स्थिति को और बिगाड़ने के आरोप लगे हैं. खासकर कई यूरोपीय देशों और उनके बैंकों-वित्तीय संस्थाओं और कार्पोरेट्स की क्रेडिट रेटिंग में कटौती के फैसलों की खासी आलोचना हुई है.

इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है क्योंकि मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को नजरंदाज करते हुए और सिर्फ बड़े निवेशकों के मुनाफे को ध्यान में रखते हुए क्रेडिट रेटिंग में कटौती से स्थिति में सुधार के बजाय संकट और गहरा हुआ है. असल में, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी और बड़ी आवारा पूंजी के साथ नाभिनालबद्ध हैं और वे बड़े देशी-विदेशी निवेशकों खासकर आवारा पूंजी की प्रतिनिधि विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) के हितों को आगे बढ़ाने के लिए काम करती हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत की सार्वभौम रेटिंग में कटौती के स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स के फैसले को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. इस फैसले का उद्देश्य भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना और अर्थव्यवस्था को सही दिशा में ले जाना नहीं बल्कि अपने देशी-विदेशी ग्राहकों खासकर एफ.आई.आई और बड़े देशी-विदेशी कार्पोरेट्स समूहों के लिए अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी और निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनाना है.

यही कारण है कि एस.एंड.पी ने भारत की क्रेडिट रेटिंग में कटौती के कारण गिनाते और रेटिंग को बेहतर बनाने के लिए यू.पी.ए सरकार के सामने वही एजेंडा रखा है जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार तमाम मंचों से उठाते रहते हैं.

एस.एंड.पी की मांग है कि यू.पी.ए सरकार राजकोषीय घाटे में कटौती के लिए सख्त कदम उठाये यानी पेट्रोल, खाद्य और उर्वरक सब्सिडियों और सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में कटौती करे; आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाते हुए बैंकिंग, बीमा और खुदरा व्यापार जैसे क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोले और चालू खाते के घाटे को कम करने के लिए विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के ठोस उपाय करे.

सवाल है कि इन फैसलों से किसे फायदा होगा? क्या भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्याएं यही हैं? जाहिर है कि नहीं. सच यह है कि एस.एंड.पी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए एक तरह से भयादोहन करने की कोशिश कर रही है. इसके जरिये वह सरकार को वे फैसले करने के लिए मजबूर कर रही है जिनके नतीजे राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक तौर पर देश के लिए बहुत घातक साबित हो सकते हैं.

तथ्य यह है कि मौजूदा अनिश्चित वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था यू.पी.ए सरकार की कथित ‘नीतिगत लकवे’ की स्थिति के बावजूद लगभग ७ प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ रही है. इस समय सबसे बड़ी जरूरत अर्थव्यवस्था में निवेश बढाने की है ताकि अर्थव्यवस्था की वृद्धि की गति को तेज करने के साथ-साथ रोजगार के नए अवसर पैदा हों और घरेलू मांग में वृद्धि हो. निवेश में गिरावट के कारण ही औद्योगिक उत्पादन लड़खड़ा रहा है. आधारभूत क्षेत्र की वृद्धि दर मार्च में गिरकर २ फीसदी पर पहुँच गई है.

लेकिन मुश्किल यह है कि इस समय देशी-विदेशी निजी क्षेत्र नए निवेश करने से हिचक रहा है और सरकार से तमाम उचित-अनुचित रियायतों की मांग कर रहा है. इस गतिरोध को तोड़ने के लिए जरूरी है कि राजकोषीय घाटे की चिंता छोडकर सरकार खुद सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि करे ताकि उससे पैदा होनेवाली मांग को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र भी निवेश करने को प्रोत्साहित हो.

यह ठीक है कि राजकोषीय घाटे और खासकर चालू खाते के घाटे में बढोत्तरी चिंता की बात है लेकिन इसमें घबराने और दबाव में उल्टे-सीधे फैसले करने की जरूरत नहीं है. सच पूछिए तो अगर राजकोषीय घाटा उत्पादक निवेश के कारण बढ़ रहा है तो यह ज्यादा चिंता की बात नहीं है. 
इसके उलट अगर रेटिंग एजेंसियों की सलाह के मुताबिक, अर्थव्यवस्था की जरूरतों की अनदेखी करते हुए राजकोषीय घाटे में जबरदस्ती कटौती की कोशिश की गई तो इससे आम आदमी पर बोझ बढ़ने के साथ मांग और निवेश दोनों पर नकारात्मक असर हो सकता है जो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में और गिरावट की वजह बन सकता है. इससे सरकार की टैक्स आय में और कमी और उसके कारण राजकोषीय घाटा और बढ़ सकता है.

दूसरी ओर, यह राजनीतिक उथल-पुथल को भी जन्म दे सकता है जो अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से पटरी से उतार सकता है.

इस तरह यह एक दुश्चक्र में फंसने की तरह होगा. ८० और ९० के दशक में लातिन अमेरिका और अफ्रीका समेत एशिया के अनेकों देशों ने विश्व बैंक-मुद्रा कोष की अगुवाई में ‘वाशिंगटन सहमति’ के नामपर पर इसे भुगता है और इन दिनों यूनान, स्पेन, पुर्तगाल और इटली जैसे देशों को इस पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरना पड़ रहा है.

आश्चर्य नहीं कि इन दिनों यूरोप में आर्थिक संकट से निपटने के नामपर जिस तरह से आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा में कटौती की जा रही है और उनपर बोझ डाला जा रहा है, उसपर गंभीर सवाल उठने लगे हैं.

आखिर राजकोषीय घाटे में कटौती के लिए अमीरों और कार्पोरेट्स पर टैक्स में बढोत्तरी क्यों नहीं की जाये? भारत में भी चालू वित्तीय वर्ष के बजट में टैक्स रियायतों/छूटों में कोई ५.४० लाख करोड़ की सब्सिडी अमीरों और कार्पोरेट्स को दी गई है. एस.एंड.पी इसमें कटौती की सिफारिश क्यों नहीं करती है?

साफ़ है कि उसका एजेंडा भारतीय अर्थव्यवस्था की बेहतरी नहीं बल्कि अपने ग्राहकों के लिए अधिक से अधिक मुनाफे की व्यवस्था करना है. इसलिए इन नाकाम रेटिंग एजेंसियों से सावधान रहने और उनके झांसे में आने की जरूरत नहीं है.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था के साथ सब कुछ अच्छा चल रहा है और सरकार को कुछ करने की जरूरत नहीं है. जरूरत घरेलू आर्थिक समस्याओं की घरेलू समाधान खोजने की है जिसके केन्द्र में बड़ी पूंजी के मुनाफे की परवाह कम और आम आदमी के हितों की चिंता अधिक हो. 

('दैनिक भास्कर' के 2 मई के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)