सोमवार, अक्तूबर 12, 2009

अघोषित आपातकाल की आहट

आनंद प्रधान
यू पी ए सरकार विधानसभा चुनावों के बाद माओवादियों के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा सैन्य अभियान- ग्रीन हंट/ आपरेशन आल आउट - शुरू करने जा रही है. इस सैन्य अभियान से पहले केंद्र सरकार ने नक्सलवादियों / माओवादियों के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक युद्घ छेड़ दिया है. इस अभियान का निशाना बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ-साथ वे पत्रकार भी हैं जिनके बारे में सत्ता प्रतिष्ठान का आरोप है कि वे नक्सलियों के प्रति सहानुभूति या उनके साथ सम्बन्ध रखते हैं. केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बिलकुल पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की तर्ज़ पर चेतावनी देते हुए कहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं या फिर माओवादियों के साथ. केंद्रीय गृह मंत्री से इशारा मिलते ही कई राज्य सरकारों ने बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को धमकाना, गिरफ्तार करना और नोटिस देना शुरू कर दिया है.

कहने की जरुरत नहीं है कि इस अभियान के जरिये केंद्र सरकार न सिर्फ माओवादियों के खिलाफ शुरू होने जा रहे सैन्य अभियान के पक्ष में जनमत तैयार करने की कोशिश कर रही है बल्कि उन बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों का मुंह भी बंद करना चाहती है जो सरकार के इरादों पर सवाल उठाने से लेकर से लेकर सैन्य अभियान में होने वाली ज्यादतियों की पोल खोल सकते हैं. असल में, सरकार को भी ये अच्छी तरह से पता है कि माओवादियों के खिलाफ प्रस्तावित सैन्य अभियान में सबसे ज्यादा निर्दोष लोग खासकर गरीब आदिवासी मारे जायेंगे और वो कतई नहीं चाहती है कि ये सच्चाई बाहर आये. वो ये भी नहीं चाहती है कि माओवादियों से निपटने में उसकी वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विफलताओं पर कोई उंगली उठाये और ऐसे सैन्य अभियानो की निरर्थकता को मुद्दा बनाये.

साफ है कि सरकार नहीं चाहती है कि बुद्धिजीवी, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता अपना काम भयमुक्त होकर करें. कहने की जरुरत नहीं है कि एक जीवंत लोकतंत्र में मीडिया, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका सरकार का गुणगान करना नहीं बल्कि उसकी कमियों-गलतियों पर उंगली उठाना है. लेकिन यू पी ए सरकार एक चापलूस और सरकारी भोंपू की तरह व्यव्हार करनेवाला मीडिया और बुद्धिजीवी समुदाय चाहती है. इसीलिए वो भय और चुप्पी का एक ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है जिसमें कोई बोलने की हिम्मत न कर सके. इस कारण, एक अघोषित आपातकाल का माहौल बनता जा रहा है. अभिव्यक्ति की आज़ादी दांव पर लगती हुई दिख रही है.

हो सकता है कि कुछ लोगों को ये बढा-चढाकर दिखाया जा रहा खतरा लगे लेकिन सच ये है कि ये एक वास्तविक खतरा है. सरकार आज माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है और उन्हें चुप करने में सफल रहने के बाद कल वो विकास में रोड़ा अटकाने या राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चोट पहुंचाने या फिर ऐसे ही किसी और बहाने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करने की कोशिश करने से नहीं चूकेगी. याद रखिये हिटलर और नाजियों ने भी पहले यहूदियों, फिर कम्युनिस्टों , उसके बाद ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, फिर मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया और बाकी उनसे मुंह मोडे रहे क्योंकि वो इनमें से कोई नहीं थे लेकिन जब वो आम लोगों को मारने लगे तो उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था.

हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. देश कांग्रेस के नेतृत्व में पहले भी आपातकाल भुगत चुका है. लेकिन अब से पहले समाज के तमाम वर्गों की ओर से ऐसे प्रयासों का कड़ा विरोध हुआ. इस बार सबसे अधिक चिंता और अफसोस की बात ये है कि कारपोरेट मीडिया भी सरकार के भोंपू की तरह न सिर्फ माओवादियों बल्कि उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी आग उगल रहा है जो इस मुद्दे पर सरकार की हां में हां मिलाने के लिए तैयार नहीं हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं. ऐसा करते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी की कसमें खानेवाला कारपोरेट मीडिया अपनी आज़ादी खुद ही गिरवी रखने पर तुल गया है. खतरे की घंटी बज चुकी है.

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

किसे परहेज है अश्लील तनख्वाहों पर पाबंदी की मांग से?

आनंद प्रधान

कारपोरेट मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद के इस बयान पर कारपोरेट जगत में हंगामा खड़ा हो गया है कि कम्पनियों को अपने आला अधिकारियों और मैनेजरों को ’’अश्लील’’ तनख्वाह देने से बचना चाहिए। श्री खुर्शीद का तर्क है कि जब सरकार बचत और सादगी पर जोर दे रही है तो वह कारपोरेट क्षेत्र के मैनेजरो की तनख्वाहों के प्रति आंखें मूंदे नही रह सकती है। उनके इस बयान पर कारपोरेट क्षेत्र की बेचैनी और नाराजगी छुपाए नही छुप रही है। हालांकि जाहिरा तौर पर कारपोरेट और औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों ने खुर्शीद के इस बयान का स्वागत किया है लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से साफ है कि उन्हें कारपोरेट क्षेत्र की तनख्वाहों और दूसरे भत्तों-सुविधाओं पर किसी भी तरह की पाबंदी स्वीकार नही है।

कारपोरेट क्षेत्र में तनख्वाहों पर किसी भी किस्म की पाबंदी या सीमा तय करने के विरोधी उद्योगपतियों और मैनेजरों का यह कहना है कि जब एक क्रिकेटर को विज्ञापनों आदि के जरिये सालाना 180 करोड़ रूपए से अधिक की आमदनी हो रही है तो उस पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जाता, फिर उससे कम तनख्वाह पाने वाले कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (सीईओ) और मैनेजरों की तनख्वाहों पर सवाल क्यों खड़ा किया जा रहा है? उनका यह तर्क है कि निजी क्षेत्र में मैनेजरों और अधिकारियों का वेतन उनकी योग्यता,कार्य क्षमता और प्रदर्शन के आधार पर तय किया जाता है और इसमें सरकार को हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नही है।

उनका यह भी कहना है कि कारपोरेट क्षेत्र मैनेजरों के अच्छे प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने के लिए उंची तनख्वाहें देता है। इस तरह, जो सीईओ कम्पनी को जितना अधिक मुनाफा कमवाता है, उसे पुरस्कार के रूप में उतनी उंची तनख्वाह मिलती है। इससे किसी को क्यों शिकायत होनी चाहिए? उनकी दलील है कि कम्पनियों को प्रतिभाशाली मैनेजरों को आक्रर्षित करने के लिए उंची तनख्वाहें देनी पड़ती हैं। इसमें में भी मांग और आपूर्ति का नियम काम करता है। बाजार में प्रतिभाशाली मैनेजर कम हैं, इसलिए उनकी कीमत उंची है। यही नहीं, उनका यह भी तर्क है कि यह कम्पनियों का अंदरूनी मामला है। इसमें सरकार की कोई भूमिका नही है।

कहने की जरूरत नही है कि कारपोरेट क्षेत्र में दी जानेवाली उंची और मोटी तनख्वाहों के पक्ष में दिये जानेवाले ये तर्क नये नही हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों खासकर वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की शुरूआत के बाद देश के अंदर और बाहर यह मुद्दा काफी जोर-शोर से उठने लगा है। वित्तीय संकट के बाद अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में पिछले एक साल में यह सवाल सबसे तीखी बहस का मुद्दा बन चुका है। यहां तक कि अभी पिछले पखवाडे़ अमेरिका के पीट्सबर्ग में जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में भी इस मुद्दे पर न सिर्फ चर्चा हुई बल्कि वित्तीय क्षेत्र की कम्पनियों के आला मैनेजरों की तनख्वाहों को निश्चित सीमा में रखने का फैसला किया गया है।

यह फैसला करने की जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में निजी क्षेत्र की कम्पनियों ने अपने सीईओ और दूसरे आला मैनेजरों को भारी मुनाफा कमाने की एवज में इस हद तक मनमानी तनख्वाहें और भत्ते आदि दिये हैं कि उनमें और अधिक मुनाफा बनाने के लिए अनुचित तौर तरीके अपनाने और अत्यधिक जोखिम लेने की होड़ शुरू हो गयी। इसकी देखा-देखी अधिकांश कम्पनियों में आला मैनेजरों में तात्कालिक और लघु अवधि के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के वास्ते अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि तात्कालिक तौर पर तो इन कम्पनियों ने भारी मुनाफा कमाया लेकिन दीर्घकालिक तौर पर ऐसे संकट में फंसी कि एक के बाद एक दिवालिया होने लगीं और पूरी अर्थव्यवस्था को ही संकट में फंसा दिया।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी बड़ी कम्पनियों के आला मैनेजरों की इसी लालच और मनमानी का नतीजा है। लेकिन मजे की बात यह है कि जब कम्पनियां डूबने लगीं और सरकार से बचाव और बेल-आउट पैकेज की मांग करने लगीं तो उस समय किसी ने यह नहीं पूछा कि उन आला मैनेजरों को इसकी क्या सजा मिलनी चाहिए? आखिर मुनाफे के बदले में मोटी तनख्वाह के तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो घाटे की सजा क्यों नही होनी चाहिए? यही कारण है कि पूरी दुनिया में आर्थिक विशेषज्ञों और नीति नियंताओं में यह समझ बनी है कि भविष्य में मौजूदा आर्थिक संकट और मंदी जैसी स्थिति को फिर से पैदा होने से रोकने के लिए कारपोरेट क्षेत्र के सख्त विनियमन (रेग्यूलेशन) की जरूरत है। इसके तहत अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के वास्ते आला मैनेजरों की तनख्वाहों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए।

जाहिर है कि भारत का कारपोरेट क्षेत्र इस समझ का अपवाद नही है। सत्यम जैसे घोटालों के सामने आने के बाद निदेशकों और आला मैनेजरों की भूमिका वैसे भी सवालों के घेरे में है। यही नहीं, भारत जैसे देश के लिए इस सवाल का एक नैतिक पक्ष भी है। एक ऐसे देश में, अगर किसी सीईओ को एक करोड़ रूपए से अधिक की सालाना तनख्वाह मिल रही हो जो एक आम भारतीय की औसत सालाना आय (38084 रूपए सालाना) से 262 गुना अधिक हो तो उसका नैतिक औचित्य साबित करना बहुत मुश्किल है। यहीं नहीं, जिस देश की 78 फीसदी आबादी सालाना 7200 रूपए से भी कम की आय पर गुजर बसर कर रही हो, वहां एक सीईओ को उससे 1388 गुना अधिक तनख्वाह देने का क्या औचित्य हो सकता है?

लेकिन आपको यह जानकर हैरत होगी कि पिछले वर्ष आर्थिक मंदी और व्यापक पैमाने पर कामगारों की छंटनी के बावजूद शेयर बाजार में पंजीकृत कम्पनियों में एक करोड़ रूपए से अधिक आय वाले निदेशकों की संख्या बढ़कर 640 पहुंच गयी जबकि उसके पिछले साल उनकी संख्या 570 थी। यही नहीं, एक अनुमान के मुताबिक ऐसे आला मैनेजरों की संख्या लगभग 3000 से अधिक बताई जा रही है जिनकी सालाना तनख्वाह एक करोड़ रूपए से अधिक है। उन मालिक मैनेजरों की तादाद भी सैकड़ो में है जो अपनी कम्पनियों से दस से लेकर 50 करोड़ रूपए सालाना कमा रहे हैं। एक गरीब देश में जहां 78 फीसदी आबादी 20 रूपए प्रतिदिन से कम पर गुजारा करने के लिए मजबूर हो, वहां किसी सीईओ को प्रतिदिन 27 लाख रूपए मिलें, उससे अधिक अश्लील चीज और क्या हो सकती है? क्या इसपर पाबंदी लगाने का समय नही आ गया है?

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए खतरनाक गृह मंत्रालय की सक्रियता

आनंद प्रधान
गृहमंत्री पी चिदम्बरम की अगुवाई में गृह मंत्रालय कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गया है। इस अधिक और दायरे से बाहर जा रही सक्रियता का ताजा उदाहरण है- प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ’द टाइम्स आफ इंडिया’ के दो पत्रकारों के खिलाफ इस आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराने का फैसला कि उन्होंने भारत-चीन सीमा पर चीनी सैनिकों और भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) के बीच कथित फायरिंग में आइटीबीपी के दो जवानों के ’घायल’ होने की मनगढंत खबर दी। गृह मंत्रालय का यह फैसला न सिर्फ हैरान करनेवाला और अपनी सीमा लांघनेवाला है बल्कि उसमें स्वतंत्र पत्रकारिता के खिलाफ बदले की भावना की बू भी आती है। अगर खुद गृह मंत्रालय इस तरह से पत्रकारों के खिलाफ बात-बात पर एफआईआर दर्ज कराने लगेगा तो इससे न सिर्फ प्रेस परिषद जैसी वैद्यानिक संस्था बेमानी हो जाएगी बल्कि पत्रकारों के लिए ’बिना किसी भय या लोभ’ के स्वतंत्र पत्रकारिता करना भी मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन यह कहने के बाद समाचार मीडिया के बड़े हिस्से के इस व्यवहार पर भी बात करना जरूरी है जो स्वतंत्र और जिम्मेदार पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज कराने का गृह मंत्रालाय का फैसला जितना हैरान करने और अपनी सीमा लांघनेवाला है उससे कम चिंचित और हैरान करनेवाला व्यवहार समाचार मीडिया का नहीं है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों चीन के खिलाफ एक सुनियोजित सा दिखनेवाला संगठित प्रचार (प्रोपेगैंडा) अभियान छेड़ रखा है। इस अभियान के तहत कथित चीनी घुसपैठ की खबरों को न सिर्फ बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाया और बताया जा रहा है बल्कि कुछ बिल्कुल झूठी और मनगढंत (उदाहरण के लिए चीनी सेना और आइटीबीपी के बीच फायरिंग) खबरें भी दी जा रही हैं। यह सचमुच,हैरान और संदेह पैदा करनेवाली बात है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि समाचार मीडिया के एक हिस्से में चीन विरोधी खबरों की न सिर्फ भरमार हो गयी बल्कि उन्हें इस तरह से उछाला जा रहा है?
हद तो यह हो गयी कि समाचार मीडिया के एक हिस्से ने चीन के खिलाफ एक तरह का युद्वोन्मादी माहौल तैयार करना शुरू कर दिया। निश्चय ही, यह किसी भी तरह से जिम्मेदार पत्रकारिता नही है। इस पत्रकारिता में न सिर्फ पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों यानी तथ्यों की शुद्धता, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता का ध्यान नही रखा जा रहा है बल्कि इसमें कुछ निहित स्वार्थो और हित समूहों के एजेंडे को आगे बढ़ाने की मंशा के साथ चीन विरोधी प्रोपेगैंडा अभियान चलाया जा रहा है। कहने की जरूरत नही है कि इस तरह के अभियानों से दो देशों के संबंधों पर कितना बुरा असर पड़ रहा है। अफसोस की बात यह है कि भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से में आमतौर पर पाकिस्तान और अक्सर चीन के खिलाफ चलाये जा रहे इन अभियानों के कारण इन दोनों पड़ोसी देशों के साथ भारत के पहले से चले आ रहे जटिल संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया कितनी कठिन हो गयी है।
यह भी सच है कि इस तरह का माहौल बनाने में सरकार और राजनीतिक दलों की भी भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। चीन के मामले में ही जितनी खबरें छपी वे सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही निकली और उनका खंडन करने में सरकार ने जानबूझकर बहुत देर लगाई। सच तो यह है कि इस मामले में सरकार और सरकार से बाहर बैठे लोगों ने मीडिया का इस्तेमाल किया। और उसके बाद उसे ही जिम्मेदार भी ठहरा दिया। लेकिन सवाल यह है कि मीडिया ने इसका मौका ही क्यों दिया ?