गुरुवार, सितंबर 30, 2010

स्वर्ग से विदाई

  • गोरख पांडे
भाईयों और बहनों!

अब ये आलिशान इमारत

बन कर तैयार हो गयी है.

अब आप यहाँ से जा सकते हैं.

अपनी भरपूर ताक़त लगाकर

आपने ज़मीन काटी

गहरी नींव डाली,

मिटटी के नीचे दब भी गए.

आपके कई साथी.


मगर आपने हिम्मत से काम लिया

पत्थर और इरादे से,

संकल्प और लोहे से,

बालू, कल्पना और सीमेंट से,

ईंट दर ईंट आपने

अटूट बुलंदी की दीवार खड़ी की.

छत ऐसी कि हाथ बढाकर,

आसमान छुआ जा सके,

बादलों से बात की जा सके.

खिड़कियाँ क्षितिज की थाह लेने वाली,

आँखों जैसी,

दरवाजे, शानदार स्वागत!


अपने घुटनों और बाजुओं और

बरौनियों के बल पर

सैकडों साल टिकी रहने वाली

यह जीती-जागती ईमारत तैयार की

अब आपने हरा भरा लान

फूलों का बागीचा

झरना और ताल भी बना दिया है

कमरे कमरे में गलीचा

और कदम कदम पर

रंग-बिरंगी रौशनी फैला दी है

गर्मी में ठंडक और ठण्ड में

गुनगुनी गर्मी का इंतजाम कर दिया है

संगीत और न्रत्य के

साज़ सामान

सही जगह पर रख दिए हैं

अलगनियां प्यालियाँ

गिलास और बोतलें

सज़ा दी हैं

कम शब्दों में कहें तो

सुख सुविधा और आजादी का

एक सुरक्षित इलाका

एक झिलमिलाता स्वर्ग

रच दिया है

इस मेहनत

और इस लगन के लिए

आपकी बहुत धन्यवाद

अब आप यहाँ से जा सकते हैं.

यह मत पूछिए की कहाँ जाए

जहाँ चाहे वहां जाएँ

फिलहाल उधर अँधेरे में

कटी ज़मीन पर

जो झोपडे डाल रखें हैं

उन्हें भी खाली कर दें

फिर जहाँ चाहे वहां जाएँ.

आप आज़ाद हैं,

हमारी जिम्मेदारी ख़तम हुई

अब एक मिनट के लिए भी

आपका यहाँ ठहरना ठीक नहीं

महामहिम आने वाले हैं

विदेशी मेहमानों के साथ

आने वाली हैं अप्सराएँ

और अफसरान

पश्चिमी धुनों पर शुरू होने वाला है

उन्मादक न्रत्य

जाम झलकने वाला है

भला यहाँ आपकी

क्या ज़रुरत हो सकती है.

और वह आपको देखकर क्या सोचेंगे

गंदे कपडे,

धुल से सने शरीर

ठीक से बोलने और हाथ हिलाने

और सर झुकाने का भी शऊर नहीं

उनकी रुचि और उम्मीद को

कितना धक्का लगेगा

और हमारी कितनी तौहीन होगी

मान लिया कि इमारत की

ये शानदार बुलंदी हासिल करने में

आपने हड्डियाँ लगा दीं

खून पसीना एक कर दिया

लेकिन इसके एवज में

मजदूरी दी जा चुकी है

अब आपको क्या चाहिए?

आप यहाँ ताल नहीं रहे हैं

आपके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं


शायद अपनी इस विशाल

और खूबसूरत रचना से

आपको मोह हो गया है

इसे छोड़कर जाने में दुःख हो रहा है

ऐसा हो सकता है

मगर इसका मतलब यह तो नहीं

कि आप जो कुछ भी अपने हाथ से

बनायेंगे,

वह सब आपका हो जायेगा

इस तरह तो ये सारी दुनिया

आपकी होती

फिर हम मालिक लोग कहाँ जाते

याद रखिये

मालिक मालिक होता है

मजदूर मजदूर

आपको काम करना है

हमे उसका फल भोगना है

आपको स्वर्ग बनाना है

हमे उसमें विहार करना है

अगर ऐसा सोचते हैं

कि आपको अपने काम का

पूरा फल मिलना चाहिए

तो हो सकता है

कि पिछले जन्म के आपके काम

अभावों के नरक में

ले जा रहे हों

विश्वास कीजिये

धर्म के सिवा कोई रास्ता नहीं

अब आप यहाँ से जा सकते हैं


क्या आप यहाँ से जाना ही

नहीं चाहते ?

यहीं रहना चाहते हैं,

इस आलिशान इमारत में

इन गलीचों पर पाव रखना चाहते हैं

ओह! ये तो लालच की हद है

सरासर अन्याय है

कानून और व्यवस्था पर

सीधा हमला है

दूसरों की मिलकियत पर

कब्जा करने

और दुनिया को उलट-पुलट देने का

सबसे बुनियादी अपराध है

हम ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे

देखिये ये भाईचारे का मसला नहीं हैं

इंसानीयत का भी नहीं

यह तो लडाई का

जीने या मरने का मसला है

हालाँकि हम खून खराबा नहीं चाहते

हम अमन चैन

सुख-सुविधा पसंद करते हैं

लेकिन आप मजबूर करेंगे

तो हमे कानून का सहारा लेने पडेगा

पुलिस और ज़रुरत पड़ी तो

फौज बुलानी होगी

हम कुचल देंगे

अपने हाथों गडे

इस स्वर्ग में रहने की

आपकी इच्छा भी कुचल देंगे

वर्ना जाइए

टूटते जोडों, उजाड़ आँखों की

आँधियों, अंधेरों और सिसकियों की

मृत्यु गुलामी

और अभावों की अपनी

बेदरोदीवार दुनिया में

चुपचाप

वापिस

चले जाइए!

(गोरख जी ने यह लम्बी कविता १९८२ के एशियाड के बाद लिखी थी जो मौजूदा सन्दर्भों में एक बार फिर बहुत प्रासंगिक हो उठी है. )


 

बुधवार, सितंबर 29, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया

पार्ट:तीन

ह कोई नई बात नहीं है। पूंजी का यही चरित्र होता है। बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को खा जाती है। अमेरिका के समाचारपत्र और मीडिया उद्योग में यह बहुत पहले ही हो चुका है। वहां 1984 के आसपास 50 मीडिया कंपनियां थीं, वहीं 1987 आते आते इन कंपनियों की संख्या घटकर 26 रह गई जो 1990 में और घटकर 23 से भी कम हो गईं। इसके बाद नई तकनीक और कनवर्जेंस की प्रक्रिया के कारण यह संख्या 1993 में घटकर 20 से भी कम हो गई और 90 के दशक के अंत आते आते मात्र 10 बड़ी मीडिया कंपनियां ही पूरे अमेरिकी मीडिया उद्योग को नियंत्रित करने लगीं।


साफतौर पर इस कन्सॉलिडेशन की वजह समाचारपत्र उद्योग में लागू होनेवाला 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) है जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय (अटलांटा, अमेरिका) के प्रो. जगदीश सेठ ने पेश किया था। इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नंबर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिस्सा उड़ा ले जाता है, दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह 'ब्रेक इवेन` यानी बहुत थोड़ा मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यवसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।

समाचार मीडिया में इस संकेन्द्रण नतीजा अख़बारों और चैनलों के कंटेंट और कवरेज पर पड़ना तय है। जैसे-जैसे छोटे और मंझोले अख़बार और चैनल कमजोर होंगें या बंद होंगे, समाचार मीडिया में विविधता और बहुलता और काम होगी। जब कुछ ही अखबार और चैनल समूह होंगें तो जाहिर है कि पाठकों/दर्शकों को उतने ही कम विचार, दृष्टिकोण और कवरेज मुहैया होंगे। यहां एक और गौर करनेवाली बात यह है कि कुछ ही समूहों के बीच प्रतियोगिता होने के कारण कंटेंट की गुणवत्ता में वृद्धि या सुधार के बजाय एक-दूसरे के सफल फार्मूलों की नक़ल बढ़ जाती है।

टी.वी में यह नक़ल बिलकुल साफ दिखती है लेकिन अखबारों में भी धीरे-धीरे फर्क खत्म होता जा रहा है। उदाहरण के लिए टी.आर.पी में हिंदी के दो नंबर एक और दो चैनल आज तक और इंडिया टी.वी में जैसे कोई फर्क करना मुश्किल है, वैसे ही टी.ओ.आई और एच.टी में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। यही बात काफी हद तक जागरण और भाष्कर के बारे में भी कही जा सकती है।

इन चैनलों और अखबारों में मौलिकता, नयापन, विचारों और कवरेज-कंटेंट के स्तर पर विविधता और बहुलता लगातार समाप्त होती जा रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक मौजूदा प्रतियोगिता और बाज़ार में होड़ में बने रहने का दबाव जिम्मेदार है। लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि आनेवाले समय में अखबारों और चैनलों में गरीबों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के सवालों और संघर्षों की कवरेज न सिर्फ और घटती जाएगी बल्कि उनके प्रति समाचार माध्यमों का आक्रामक रवैया और "होस्टाइल" होता जायेगा।

असल में, किसी अखबार समूह की व्यावसायिक सफलता उसके अंतर्वस्तु की गुणवत्ता से कहीं अधिक मार्केटिंग की आक्रामक रणनीति से तय हो रही है। इस प्रक्रिया में अखबारों के अंदर संपादकीय विभाग का महत्व और कम हुआ है और प्रबंधन का दबदबा बढ़ा है। यहां तक कि अखबार की अंतर्वस्तु के निर्धारण में संपादकीय विभाग की भूमिका कम हुई है और मार्केटिंग मैनेजरों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है।

अधिकांश अखबार समूहों में संपादक की भूमिका मैनेजर की हो गयी है और नयी पीढ़ी के संपादकों की पहली प्राथमिकता अखबार की अन्तर्वस्तु नहीं बल्कि उसे एक 'बिक्री योग्य लोकप्रिय उत्पाद` में बदलने की है। भाषाई समाचारपत्रों में संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने की रणनीति बनाने से लेकर एडवर्टोरियल लिखते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

अखबार समूहों के राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय का प्रतिशत और घट गया है जबकि विज्ञापन का हिस्सा और बढ़ गया है। दरअसल, अखबार समूहों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बीच पाठकों को लुभाने के लिए कीमतों में कटौती से लेकर मुफ्त उपहार आदि की आक्रामक मार्केटिंग रणनीति का असर यह पड़ा है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय का हिस्सा लगातार घटा है। स्थिति यह हो गयी है कि अंग्रेजी के बड़े अखबारों (जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स आदि) के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय 5 से 10 प्रतिशत रह गयी है।

भाषाई अखबारों में यह प्रतिशत 25 से 30 प्रतिशत है। इस तरह समाचारपत्र के कुल राजस्व में विज्ञापन का हिस्सा दो तिहाई से लेकर 90 फीसदी तक हो गया है। उल्लेखनीय है कि 25-30 वर्षों पहले तक प्रसार और विज्ञापन से होनेवाली आय का अनुपात 50:50 होता था और प्रथम प्रेस आयोग (1953) ने 127 समाचारपत्रों के सर्वेक्षण में यह अनुपात 60:40 का पाया था।

साफ है कि समाचारपत्रों की विज्ञापनों पर निर्भरता अत्यधिक बढ़ गयी है। नतीजा यह हुआ है कि अखबारों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव काफी बढ़ गया है। वे न सिर्फ अपनी शर्तें (जैसे उनकी कंपनी के बारे में नकारात्मक खबर नहीं जानी चाहिए या कोई सकारात्मक खबर छापनी होगी) थोप रहे हैं बल्कि कुलमिलाकर समाचारपत्र की अंतर्वस्तु को भी प्रभावित कर रहे हैं। अधिकांश सफल समाचारपत्रों में आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के खिलाफ समाचार/टिप्पणियों का प्रकाशन संभव नहीं है या छिटपुट और असंतुलित है।

अधिकांश अखबारों के संपादकीय पढ़ जाइए, बिना किसी अपवाद के सभी आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का समर्थन करते हैं। इनमें से कुछ अखबार(जैसे, टाइम्स ऑफ इंडिया, इकोनॉमिक टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस आदि) तो अपने संपादकीय टिप्पणियों में न सिर्फ बहुत आक्रामक तरीके से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का समर्थन करते हैं बल्कि इन नीतियों के विरोधियों का मज़ाक उड़ाने से लेकर उनके खिलाफ अशालीन भाषा का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।

इन अखबारों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति इस हद तक मोह दिखाई पड़ता है कि वे उसके खिलाफ एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते हैं। यही कारण है कि इन नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे गरीबों, आदिवासियों, दलितों और मजदूरों के संघर्षों को जानबूझकर अनदेखा किया जाता है। सबसे ध्यान देनेवाली बात यह है कि धीरे धीरे ये सभी अखबार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्ष में काम करनेवाले दबाव समूह में बदलते जा रहे हैं जो निरंतर केन्द्र और राज्य सरकारों को इन नीतियों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं।

इसका एक प्रचलित तरीका यह है कि समय समय पर कुछ अखबार, पत्रिकाएं और चैनल सबसे बेहतरीन केन्द्रीय मंत्री, सबसे बेहतरीन राज्य सरकार और सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री आदि का चुनाव करते रहते हैं जिसकी सबसे प्रमुख कसौटी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का पालन होती है। यह और बात है कि अधिकांश सर्वश्रेष्ठ केन्द्रीय मंत्री, राज्य सरकारें और मुख्यमंत्री चुनाव हार जाते हैं।
 
जारी...

मंगलवार, सितंबर 28, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया

पार्ट:दो

कारपोरेटीकरण से एकाधिकार की ओर बढती मीडिया कम्पनियां

मीडिया समूहों/घरानों के कारपोरेटीकरण इस प्रक्रिया के कुछ खास पहलू हैं जिन्होंने मीडिया घरानों/ समूहों की संरचना और उसके प्रबंधकीय ढांचे को बहुत गहरे प्रभावित किया है। इसका सीधा असर उनके कंटेंट पर भी पड़ा है। इसलिए इस प्रक्रिया और मीडिया खासकर अखबार और टी.वी उद्योग में आये परिवर्तनों को समझना बहुत जरूरी है। मीडिया के कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसके स्वामित्व के रूप में आया बदलाव है।

जहां 80 के दशक तक एच.टी, टी.ओ.आई और इक्का-दुक्का अन्य अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबार घराने या समूह छोटी या मझोली पूंजी के उपक्रम थे और उनका मालिकाना एक परिवार तक सीमित था, वहीँ 90 के दशक में इस उद्योग में बड़ी पूंजी पूंजी का प्रवेश शुरू हुआ। इसके साथ ही अखबार के प्रबंधन में प्रोफेशनल मैनेजरों का प्रवेश हुआ और मार्केटिंग की भूमिका बढ़ने लगी। असल में, टी.ओ.आई में यह प्रक्रिया 80 के दशक के आखिरी वर्षों में काफी हद तक पूरी हो चुकी थी।


टी.ओ.आई की व्यवसायिक सफलता ने सभी अखबार समूहों को चौंका दिया था। टी.ओ.आई ने समीर जैन के नेतृत्व में संपादकों की कीमत पर प्रोफेशनल मैनेजरों को महत्व देकर और आक्रामक मार्केटिंग के जरिये आर्थिक सफलता के नए मानदंड बनाने शुरू कर दिए थे। इसने अन्य अखबार घरानों/समूहों को भी इस रणनीति की नक़ल करने के लिए प्रोत्साहित किया।

जल्दी ही कई अखबार समूह/घराने छोटी-मंझोली पूंजी के कुटीर/छोटे उद्योग से बड़ी पूंजी के मैनेजरों और मार्केटिंग से चलनेवाले उद्योगों में बदलने लगे। कई अख़बार घराने/समूह पूंजी जुटाने के लिए शेयर बाज़ार में उतरने लगे। अखबार समूहों में शेयर बाज़ार में उतरने की प्रेरणा टी.वी कंपनियों के बाज़ार से जमकर पैसा जुटाने और उसे विस्तार में लगाने से आई।

आज अधिकांश बड़ी टी.वी कम्पनियां- टी.वी टुडे, टी.वी-18, एन.डी.टी.वी, जी टी.वी, यू.टी.वी, बैग फिल्म्स, सन टी.वी, आदि शेयर बाज़ार में लिस्टेड हैं। उनकी सफलता ने अखबार समूहों को भी शेयर बाज़ार में उतरने के लिए ललचाया। नतीजा 90 के दशक के आखिरी वर्षों में एच.टी, डेक्कन क्रॉनिकल, मिड डे, जागरण प्रकाशन आदि ने और अब 2009 में भास्कर समूह ने शेयर बाज़ार में उतरकर कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया को उसके तार्किक नतीजे तक पहुंचा दिया है।

असल में, शेयर बाज़ार में उतरना और वहां से पैसा जुटाना कोई मामूली बात नहीं है। बाज़ार में लिस्टेड कंपनी होने के बाद उसपर बाज़ार के कई घोषित-अघोषित नियम लागू होने लगाते हैं। कंपनी के प्रबंधन में कई बदलाव होते हैं। कम्पनी को खुद को बाज़ार की जरूरतों के अनुसार ढालना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह कि लिस्टेड कंपनी पर हमेशा अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा देने का दबाव होता है।

जाहिर है कि अब अखबार या टी.वी कम्पनियां छोटी पूंजी नहीं बल्कि बड़ी पूंजी का खेल हो गई हैं। इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज कई बड़ी मीडिया कम्पनियां हजारों करोड़ की कम्पनियां हैं जिसमें देशी और विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हुआ है. उदाहरण के लिए 24 सितम्बर’10 को जब मुंबई शेयर बाज़ार का सूचकांक २०००० अंको से ऊपर बन हुआ, उस समय शेयरों की कीमत के आधार पर जागरण प्रकाशन 3779 करोड़ रुपये की कंपनी थी जबकि हिंदुस्तान टाइम्स समूह(एच.टी मीडिया) 3732 करोड़ रुपये की कंपनी थी जबकि हाल में ही हिंदी प्रकाशनों को अलग करके शुरू की गई कंपनी हिन्दुस्तम मीडिया करोड़ 1378 रूपये की कंपनी। इसी तरह, बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से सन टी.वी 20403 करोड़ रूपये, जी नेटवर्क 14476 करोड़ रुपये, डेक्कन क्रानिकल 3227 करोड़ रुपये, आई.बी.एन 18 ब्राडकास्ट 2942 करोड़ रुपये, जी न्यूज 410 करोड़ रुपये, टी.वी-18 1696 करोड़ रुपये, एन.डी.टी.वी 723 करोड़ रुपये और टी.वी टुडे 487 करोड़ रुपये की कंपनी हो गई हैं जिनमें देशी और विदेशी दोनों ही निवेशकों का पैसा लगा हुआ है।

इन निवेशकों की मांग अधिक से अधिक मुनाफे की होती है। अगर ये कम्पनियां अपेक्षित मुनाफा नहीं देंगी तो निवेशक शेयर बेचकर निकालने लगेंगे। इससे कंपनी के शेयरों के भाव गिर जायेंगे और उसका पूंजीकरण भी नीचे आ जायेगा। ऐसी स्थिति में इन कंपनियों के लिए बाज़ार से पैसा उठाने में दिक्कत आ सकती है। जाहिर है कि इस कारण सभी मीडिया कंपनियों पर अपना मुनाफा दोगुना-चौगुना करने का दबाव बना रहता है।

इसलिए अपने देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे की मांग को पूरा करने के लिए अखबार और टी.वी कंपनियों का प्रबंधन मार्केटिंग के सभी आक्रामक तौर तरीके और कथित "इनोवेटिव" (पेड कंटेंट, प्राइवेट ट्रीटी, मीडिया नेट आदि स्कीम ) रणनीति आजमा रहा है। इन स्कीमों के जरिये पत्रकारिता की सभी नैतिकताओं, मूल्यों और परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों से पैसा लेकर "खबरें" छपी जा रही हैं। पाठकों के साथ विश्वासघात किया जा रहा है क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि चुनाव कि जो रिपोर्ट वह पढ़ रहे हैं, वह वास्तव में किसी प्रत्याशी या पार्टी से पैसा लेकर लिखी गई है।

इसी तरह, टाइम्स आफ इंडिया और दूसरे कई अखबारों और चैनलों ने कंपनियों से पैसा लेकर बिना अपने पाठकों/दर्शकों को बताये कंपनियों के अनुकूल रिपोर्टें छाप और दिखा रहे हैं। यह बीमारी यहां तक फ़ैल गई है कि कुछ अखबार और चैनल अन्य कंपनियों के कुछ प्रतिशत शेयर लेकर बदले में उन्हें "प्रोमोट" करने के वास्ते उनके विज्ञापन छापने से लेकर उनके पक्ष में सकारात्मक "खबरें" चाप और दिखा रहे हैं। इसे वे "प्राइवेट इक्विटी" स्कीम कहते हैं। आश्चर्य नहीं कि इस मंदी में भी अधिकांश मीडिया कंपनियों के मुनाफे में छलांग दिखाई पड़ रही है।

लेकिन बड़ी पूंजी और उसके साथ आयी आक्रामक मार्केटिंग के बढ़ते दबदबे के कारण जहां कुछ समाचारपत्र समूहों (जैसे टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भास्कर, डेक्कन क्रॉनिकल आदि) ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है, वहीं कई बड़े, मध्यम और छोटे समाचारपत्र समूहों (जैसे आज, नयी दुनिया, देशबंधु, प्रभात खबर, पॉयनियर, अमृत बाजार पत्रिका, एनआइपी, स्टेटसमैन आदि) के सामने अपना अस्तित्व बचाए रखने या होड़ में टिके रहने का संकट पैदा हो गया है। कुछ और बड़े और माध्यम आकार के अखबार समूहों (जैसे अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (म.प्र.), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि) पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

स्थिति यह हो गई है कि समाचारपत्र उद्योग में जारी तीखी प्रतियोगिता और बड़ी पूंजी के बढ़ते दबाव के कारण छोटे और मंझोले अखबारों के लिए इस होड़ में टिकाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार प्रतियोगिता से किस तरह बाहर हो रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में सिर्फ 14 बड़े समाचारपत्र समूह कुल प्रसार यानि सर्कुलेशन का दो-तिहाई और कुल राजस्व का तीन-चौथाई हड़प जा रहे हैं जबकि बाकी सैकड़ों अखबारों और पत्रिकाओं को बचे हुए 25 प्रतिशत में काम चलाना पड़ रहा है। अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि उनका क्या होगा?

 संकेत साफ हैं। आनेवाले वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में कई बड़े उलटफेर देखने को मिल सकते हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि बड़ी पूंजी के दबाव में छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे। कुछ बड़े अखबार या मीडिया समूहों का दबदबा और बढ़ेगा। समाचारपत्र उद्योग में अधिग्रहण और विलयन (खरीद-बिक्री और आपसी गठबंधन) की प्रक्रिया तेज होगी। इस तरह समाचारपत्र उद्योग में कंसोलिडेशन बढ़ेगा और एक शहर से प्रकाशित होनेवाले कई समाचारपत्रों वाली विविधता और बहुलता की स्थिति नहीं रह जाएगी।

जारी...

शनिवार, सितंबर 25, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया?

पार्ट:एक


यह कंपनियों का, कंपनियों के लिए और कंपनियों द्वारा मीडिया है जिसे आम आदमी में नहीं, उपभोक्ताओं में दिलचस्पी है

ह वाकया मार्च 2007 का है। देश की राजधानी में शहीद भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च को सी.पी.आई (एम.एल) ने एक रैली का आयोजन किया था। इस रैली में देश के अलग-अलग इलाकों से एक लाख से अधिक लोग आये थे और पूरा रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ था। यह रैली यू.पी.ए सरकार की अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने घुटनाटेकू रवैये और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ गरीब और मेहनतकश लोगों की आवाज़ बुलंद करने के लिए बुलाई गई थी। लेकिन उस शाम एकाध अपवादों को छोड़कर 24 घंटे के उन दर्ज़नों चैनलों में से किसी ने इस रैली को खबर लायक नहीं माना।

जिन चैनलों के लिए कमिश्नर के कुत्ते का गायब होना, राखी सावंत की सगाई या अमिताभ बच्चन को सर्दी-जुखाम होना ब्रेकिंग न्यूज लगता है, उनके लिए दिल्ली में लाखों गरीबों का आना और अपनी आवाज़ बुलंद करना कोई खबर नहीं थी। आप कह सकते हैं कि तमाम बेसिर-पैर की "खबरें" दिखाने वाले चैनलों से और क्या उम्मीद की जा सकती है?

लेकिन अगले दिन 'द हिन्दू' जैसे एकाध अपवादों को छोड़कर दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों में भी इस रैली के बारे में एक लाइन की भी खबर नहीं थी। ऐसा लगा कि जैसे दिल्ली में कल रैली जैसी कोई चीज़ हुई ही न हो। क्या यह सिर्फ एक संयोग था? जी नहीं, यह कोई संयोग नहीं था। यह एक सुनियोजित ब्लैकआउट था। इस ब्लैक आउट में साफ तौर पर एक पैटर्न देखा जा सकता है। यह पहली घटना नहीं थी और न ही ऐसा सिर्फ सी.पी.आई एम.एल की रैली के साथ हुआ था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।

सबसे ताजा उदाहरण है 2009 के नवम्बर में दिल्ली में प्रदर्शन करने आये गन्ना किसानो की रैली के साथ राष्ट्रीय मीडिया खासकर अंग्रेजी अखबारों और चैनलों का व्यवहार। दिल्ली के सबसे बड़े अखबार होने का दावा करनेवाले दोनों अंग्रेजी अख़बारों ने अपने कवरेज में इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि कैसे किसानो की इस भीड़ ने दिल्ली में जाम लगा दिया और इससे दिल्लीवालों को कितनी तकलीफ हुई? यह भी कि किसानो की यह भीड़ कितनी अनुशासनहीन थी और उसने किस तरह से शहरियों के साथ बदतमीजी की, शहर को गन्दा किया और तोड़फोड़ करके चले गए। गोया किसान न हों बल्कि तैमूरलंग की सेना ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया हो।

ये दोनों ही घटनाएँ अपवाद नहीं हैं। पिछले डेढ़-दो दशकों में ऐसी सैकड़ों घटनाएँ हुई हैं जिनमें कार्पोरेट मीडिया ने इसी तरह दिल्ली आनेवाले गरीबों, खेतिहर मजदूरों, भूमिहीनों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के प्रदर्शनों को नज़रंदाज किया है या फिर उन्हें दिल्ली की शांति और यातायात व्यवस्था के लिए समस्या के बतौर पेश किया है। इन रिपोर्टों को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे प्रदर्शन करना या धरना देना या फिर अपनी आवाज़ उठाना कोई गुनाह हो।

हालांकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात कहने और धरना, प्रदर्शन और रैली का अधिकार नागरिकों का बुनियादी अधिकार है लेकिन ऐसा लगता है कि कार्पोरेट समाचार माध्यमों का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है या कम से कम वे गरीबों को यह अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि बिना किसी अपवाद के गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों के प्रदर्शनों को अनदेखा किया जाना जारी है।

यह एक अघोषित सा नियम बन गया है। एक बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत इस तरह के विरोध प्रदर्शनों और रैलियों को अनदेखा किया जाता है। यही नहीं, आमतौर पर गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों की रैलियों, धरनों, आंदोलनों और प्रदर्शनों की कभी भी तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग नहीं होती है। कभी भी उनके मुद्दों और सवालों को सही परिप्रेक्ष्य और तथ्यों के साथ रिपोर्ट नहीं किया जाता है। मजदूर आंदोलनों को बिलकुल ब्लैक आउट किया जाता है।

अखबारों या चैनलों को पढ़कर या देखकर पता नहीं चल सकता है कि श्रमिकों की क्या स्थिति है? दिल्ली के ही अखबारों और चैनलों को ले लीजिये, जब तक हिंसा या कोई बहुत बड़ी घटना न हो जाए, श्रमिकों की समस्याओं और संघर्षों के बारे में एक पंक्ति की खबर नहीं होती है। जबकि दिल्ली के आसपास नोएडा, साहिबाबाद, गुडगाँव आदि में हजारों फैक्टरियां हैं और उनमें लाखों मजदूर काम करते हैं।

लेकिन किसी अख़बार या चैनल में श्रम बीट को कवर करने के लिए कोई रिपोर्टर नहीं है। कार्पोरेट मीडिया को यह विषय रिपोर्टिंग के लायक नहीं लगता है। इसमें एक साफ पूर्वाग्रह झलकता है। इस पूर्वाग्रह को श्रमिकों-प्रबंधन के विवादों में खुले तौर पर देखा जा सकता है जिसमे कार्पोरेट मीडिया ने खुलकर प्रबंधन का साथ दिया है। नोयडा में इतालियन कंपनी ग्रोज़ियानो के जी.एम की मौत का मामला हो या कोयम्बतूर में एच.आर मैनेजर की मौत या फिर गुड़गांव में होंडा की फैक्ट्री में हड़ताल - मीडिया ने वस्तुतः यूनियनों के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है। अगर उनका वश चले तो वे यूनियनों को प्रतिबंधित करवा दें।

लेकिन मसला केवल दिल्ली के कार्पोरेट मीडिया तक ही सीमित नहीं है। अब मुख्यधारा के समाचार मीडिया में चाहे वह अखबार हों या समाचार चैनल- लगभग हर जगह श्रमिकों, गरीबों, कमजोरों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के संघर्षों और जनान्दोलनों से लेकर सामंती अत्याचारों, पुलिस जुल्म और मानवाधिकार हनन जैसे मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है या फिर बहुत कम जगह है। वह जगह भी अंदर के पृष्ठों पर और न्यूनतम महत्व के साथ मिल पाती है। 1977 में इमरजेंसी के बाद मिली नई आजादी के बीच 80 के दशक में मुख्यधारा के अखबारों और पत्रिकाओं ने ऐसे सवालों और मुद्दों को काफी जगह दी।

उस समय फील्ड रिपोर्टिंग खासकर गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं और उनके सामंती-पुलिसिया उत्पीड़न की जमीनी रिपोर्टों को खासी जगह और महत्व दिया गया। हालांकि गरीबों के संघर्षों और जनांदोलनों को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया में प्रेम तब भी नहीं था बल्कि उलटे मीडिया के एक हिस्से में ऐसे संघर्षों को "नक्सली" बताकर उनके दमन को जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती थी लेकिन इसके बावजूद लोकतान्त्रिक और कई बार गैर संसदीय संघर्षों और जनान्दोलनों को भी अनदेखा नहीं किया जाता था।

यहां तक कि ऐसे संघर्षों और जनान्दोलनों को कई अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी मिल जाती थी। मुख्यधारा के कई अखबार और पत्रिकाएं खुद को ऐसे संघर्षों से जोड़ने में भी रूचि लेते थे और इन आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं की रिपोर्टें छापने से लेकर उन्हें अखबार में नौकरी देने में भी संकोच नहीं करते थे। अखबार की विचारधारा चाहे जो हो लेकिन गरीबों और उनके जनसंघर्षों के पुलिसिया उत्पीड़न और जुल्मों खासकर मुठभेड़ हत्याओं की रिपोर्टें जरूर छपती थीं।

कुलमिलाकर, अखबारों और पत्रिकाओं में सीमित दायरे में ही सही लेकिन न्याय, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक बराबरी और गरीबों के हक़-हकूक के लिए खड़ा होने और जनान्दोलनों के प्रति सकारात्मक रूझान दिखता था। शायद यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि उस दौर में नक्सली आन्दोलन से लेकर जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन तक के दर्ज़नों युवा कार्यकर्ता अख़बारों और पत्रिकाओं में काम करने पहुंचे। उन्होंने अपनी रिपोर्टों से इन अखबारों और पत्रिकाओं को एक नई पहचान और धार दी।

हालांकि मुख्यधारा के अखबारों और पत्रिकाओं में इसके समानांतर एक प्रतिष्ठानी और सत्ता समर्थक पत्रकारिता तब भी ताकतवर और उसकी मुख्यधारा थी लेकिन उसमें भी हाशिये के लोगों की आवाज़ के लिए जगह थी। यह भी सच है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के चरित्र में बदलाव की शुरुआत 80 के दशक के मध्य से ही हो गई थी। इसके लिए एक साथ कई कारक जिम्मेदार थे। एक, भारतीय राजनीति में राजीव गाँधी के उदय के साथ नई आर्थिक नीति के कंधे पर चढ़कर उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। इसमे टी.वी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। दूसरे, ठीक इसी समय आर.एस.एस-बी.जे.पी के नेतृत्व में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बहाने एक जहरीला सांप्रदायिक अभियान भी चला जिसमें हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओँ के कई अखबार भी शामिल हो गए।

इसके साथ ही अखबारों और पत्रिकाओं में साफ तौर पर एक दक्षिणपंथी रूझान दिखने लगा। इस रूझान को देश के सबसे बड़े मीडिया समूह टाइम्स आफ इंडिया ( बेनेट कोलमैन कंपनी) की कमान मालिकों की नई पीढ़ी के प्रतिनिधि समीर जैन के हाथों में पहुंचने से और मजबूती मिली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समीर जैन ने न सिर्फ टाइम्स आफ इंडिया को बदल दिया बल्कि पूरे समाचारपत्र उद्योग के चरित्र को बदल दिया।

असल में, आज अखबारों और चैनलों के चरित्र में जो बदलाव दिखाई पड़ रहा है, उसकी शुरुआत 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही हो गई थी। इसे और तेज गति 1991 के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से मिली. इन आर्थिक सुधारों के साथ भारतीय मीडिया के कारपोरेटीकरण की शुरुआत हुई।....
जारी...

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश द्वारा सम्पादित पुस्तक "उदारीकरण के दशक" में छपे मेरे आलेख का संक्षिप्त-सम्पादित हिस्सा...अभी तीन किस्तें और आनी हैं...इंतजार कीजिये और हाँ, आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा.)

बुधवार, सितंबर 22, 2010

डराओ और कमाओ

समाचार चैनलों को दर्शकों को डराने में बड़ा मजा आता है. उन्हें लगता है कि जितना बड़ा डर, उतने अधिक दर्शक. जितना टिकाऊ डर, उतने देर चैनल से चिपके दर्शक. कहते भी हैं: “इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स.” चैनलों की दुनिया में इस कथन का सिक्का अब भी उतना ही चलता है, जितना पहले चलता था. नतीजा हम सबके सामने है. चैनल हमेशा किसी ऐसी ‘खबर’ की तलाश में रहते हैं जिससे दर्शकों को डराया और चैनल से चिपकाया जा सके. खासकर प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप, आतंकवादी हमलों के प्रति उनका ‘उत्साह’ देखते ही बनता है.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें हर बाढ़, भूकंप या आतंकवादी हमला एकसमान उत्साहित करता है. अगर वह बाढ़, भूस्खलन, आतंकवादी हमला दिल्ली या मुंबई या पश्चिमी-उत्तरी भारत से जितनी दूर होगी, उसके प्रति चैनलों का उत्साह उसी अनुपात में कम होता चला जाता है. लेकिन अगर वह आपदा बड़े टी.आर.पी शहरों या दिल्ली-मुंबई जैसे महा(टी.आर.पी)नगरों पर आने को हो या आ जाए तो चैनलों की उत्तेजना और उत्साह का जैसे ठिकाना नहीं रहता है.

चैनलों के इस रवैये के कारण कई बार ऐसा लगता है जैसे वे विपदाओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं. उस गिद्ध की तरह जो अकाल का इंतज़ार करता रहता है ताकि उसका महाभोज हो सके. याद कीजिये, ‘पीपली लाइव’ में अकाल के बीच एक किसान की आत्महत्या की ‘खबर’ दिखाने के लिए गिद्धों की तरह पीपली गांव में उतरे चैनलों को जो नाथ जैसे किसानों के दुख-दर्द से ज्यादा लाइव आत्महत्या दिखाने को बेताब थे. हालांकि वह फिल्म थी और बहुतों को लग रहा था कि उसमें चैनलों का अतिरेकपूर्ण चित्रण किया गया है.

लेकिन शायद अब अतिरेक और चैनल एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि चैनलों ने पिछले दिनों जैसे ही दिल्ली में “बाढ़” की ‘संभावना’ देखी, वे उसे भुनाने के लिए यमुना में कूद पड़े. स्टार राजनीतिक रिपोर्टरों से लेकर नत्थू-खैरे रिपोर्टर तक यमुना में उतर पड़े. कोई लाइफ जैकेट और नाव के साथ डूबती दिल्ली की खोज-खबर ले रहा था तो कोई घुटने भर और कोई कमर भर पानी में खड़ा होकर चढ़ती यमुना की पल-पल की खबर देने लगा. गोया खतरे का निशान उनके साढ़े पांच फुट के शरीर पर बना हो.

बिल्कुल फ़िल्मी दृश्य. वही नाटकीयता, सस्पेंस (आपके घर से कितना दूर है पानी), रिपोर्टरों की उत्तेजना और थरथराहट से फटी जा रही आवाज़, कैमरे के कमाल से वास्तविकता से कहीं ज्यादा उफनती यमुना और रही-सही कसर पूरा करते स्टूडियो में बैठे भाषा के खिलाड़ी- ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली में प्रलय आ गई हो. हालांकि बाढ़ तो न आनी थी और न आई लेकिन चैनलों ने अपनी उत्तेजना और उत्साह में दिल्ली को बाढ़ में डुबोने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी.

जाहिर है कि चैनल दिल्ली को डूबाने वाली बाढ़ लाने में इसलिए लगे थे क्योंकि वे लोगों को डराकर अधिक से अधिक दर्शक जुटाने और उसकी टी.आर.पी को भुनाने की कोशिश कर रहे थे. असल में, समाचार चैनलों को सबसे आसान और सस्ता तरीका यह लगता है कि लोगों को किसी भी तरह से डराकर चैनल से चिपकाये रखा जाए. इसके लिए वे कई बार कुछ हद तक वास्तविक और आम तौर पर बहुत बनावटी खतरे गढ़ते हैं लेकिन मकसद दर्शकों को आश्वस्त करना नहीं बल्कि उनमें और अधिक घबराहट, बेचैनी और खौफ पैदा करना होता है.

दरअसल, कई शोध सर्वेक्षणों और विशेषज्ञों का मानना है कि आमतौर पर समाचारों के कम लेकिन निश्चित दर्शक होते हैं लेकिन किसी राजनीतिक, सामुदायिक या प्राकृतिक संकट के समय दर्शकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है. खासकर अगर वह संकट सीधे दर्शकों के खुद और अपने करीबियों और उनके जीवन और भविष्य से जुड़ा हो तो उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संलग्नता और सक्रियता बहुत बढ़ जाती है. इसका सीधा कारण लोगों के मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है.

माना जाता है कि लोग समाचार इसलिए भी पढ़ते-देखते-सुनते है क्योंकि वह हमारे अंदर बैठे “अज्ञात के भय” से निपटने में मदद करता है. समाजशास्त्रियों के मुताबिक सभ्यता की शुरुआत से ही लोग समाचारों में इसलिए दिलचस्पी लेते रहे हैं क्योंकि यह उन्हें अपने सीधे प्रत्यक्ष अनुभव से इतर “अज्ञात के भय” से निगोशिएट करने में मदद करता है. लोग हर उस खबर को जानना चाहते हैं जो किसी भी रूप में चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन्हें और उनके करीबियों को प्रभावित कर सकती है.

लेकिन चैनलों की इस “डराओ और उससे कमाओ” नीति का पहला शिकार तथ्य होते हैं. इसमें तथ्यों और वास्तविकता के बजाय मनमुताबिक तथ्य और वास्तविकता गढ़ने की कोशिश की जाती है. तथ्यों और वास्तविकता को हमेशा परिप्रेक्ष्य और उसकी पृष्ठभूमि से काटकर पेश किया जाता है. इस सबकी कीमत अंततः उनके दर्शक ही चुकाते हैं. कारण, ऐसी खबरों से अफवाहों को पैर मिल जाते हैं. लोग घबराहट में उल्टे-सीधे फैसले करने लगते हैं. राहत और बचाव में लगी एजेंसियों के लिए अपना काम करना मुश्किल होने लगता है.

लेकिन इधर अच्छी बात हुई है कि लोग चैनलों के इस खेल को समझने लगे हैं. अब बारी चैनलों के डरने की है.

(तहलका, 30 सितम्बर'10)

मंगलवार, सितंबर 21, 2010

दंगों का अर्थशास्त्र

दंगों के लिए आर्थिक कारण भी जिम्मेदार हैं और दंगों से अर्थव्यवस्था को धक्का भी लगता है


दंगों का अपना एक अर्थशास्त्र भी होता है. हालांकि भारत में सांप्रदायिक दंगे मूलतः राजनीतिक कारणों से होते रहे हैं लेकिन हर छोटे-बड़े दंगे के पीछे मौजूद आर्थिक कारणों और दंगों के आर्थिक प्रभाव को अनदेखा कर पाना असंभव है. यहां तक कि आजादी के बाद देश के कई शहरों में होनेवाले दंगों में यह देखा गया है कि आर्थिक कारण ही सबसे प्रमुख थे जिनका दंगाइयों ने बहुत चतुराई से राजनीतिक इस्तेमाल किया. इसी तरह, कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मामलों में दंगाइयों ने पीड़ित समुदाय के लोगों को सबसे अधिक चोट पहुंचने के लिए उनके आर्थिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की. गुजरात में तो बाकायदा दंगों के बाद भी अल्पसंख्यक समुदाय को आर्थिक तौर पर पूरी तरह से बर्बाद करने के लिए उनके आर्थिक-व्यापारिक बायकाट का अभियान चलाया गया.

इसमें कोई शक नहीं है कि हर दंगा उस शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ-साथ उसके आर्थिक ढांचे और संबधों को भी गहरा नुकसान पहुंचाता है. आमतौर पर एक बड़ा दंगा किसी शहर को आर्थिक तौर पर कई साल पीछे धकेल देता है. इसी तरह से देश में उन वर्षों में जब बड़े पैमाने पर दंगे हुए अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा. आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक आम आर्थिक नियम के बतौर किसी भी अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए यह जरूरी है कि देश में शांति और अमन-चैन बना रहे. इसके बिना अर्थव्यवस्था में आम कारोबारी गतिविधियों में रुकावट पैदा होती है बल्कि देशी-विदेशी निवेशक भी नया निवेश करने से कतराते हैं.
लेकिन कई बार दंगे एक गतिरुद्ध अर्थव्यवस्था को भी संकेत देते हैं. अर्थव्यवस्था की गतिरुद्धता के कारण पैदा हुई अनिश्चितता, बेरोजगारी, अवसरों का अभाव, वंचना और आक्रोश सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक रूप से ऐसे ज्वलनशील कारक बन जाते हैं जिन्हें सांप्रदायिक संगठन अपने राजनीतिक उद्देश्यों के आसानी से इस्तेमाल कर ले जाते हैं. बहुतेरे विश्लेषकों का यह मानना है कि अहमदाबाद, भिवंडी, सूरत, मऊ जैसे शहरों में ७०-८० के दशकों और अहमदाबाद में फिर २००२ में हुए सांप्रदायिक दंगों के पीछे एक बड़ा कारण उन शहरों में टेक्सटाइल जैसे पारंपरिक उद्योगों की गतिरुद्धता और फैक्टरियों की बंदी से बेरोजगार हुआ श्रमिक वर्ग था जो कई कारणों से सांप्रदायिक संगठनों के उभार में खाद बन गया.

यही नहीं, कुछ मामलों में श्रमिकों की एकता को तोड़ने के लिए उद्योगपतियों ने सांप्रदायिक संगठनों और सांप्रदायिक गोलबंदी को प्रोत्साहित किया. उदाहरण के लिए मुंबई में ७० के दशक में मुंबई के उद्योगों में वामपंथी-समाजवादी विचारधारा से जुड़ी यूनियनों की ताकत को कमजोर करने के लिए उद्योगपतियों ने शिव सेना और उसकी यूनियनों को आगे बढ़ाया. शिव सेना ने श्रमिकों को पहले मराठी बनाम मद्रासी, फिर मराठी बनाम अन्य और अंतत: हिंदू बनाम मुस्लिम में बांटने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा. यह तथ्य किसी से नहीं छुपा है कि मुंबई में ८० के दशक में मजदूर नेता दत्ता सामंत के नेतृत्व में सूती मिलों के लाखों मजदूरों की सालों चली ऐतिहासिक हड़ताल को तोड़ने और मिलों की अरबों की जमीन को हड़पने के लिए उद्योगपतियों ने शिव सेना और अन्य सांप्रदायिक संगठनों का सहारा लिया था.

इसी तरह, कुछ अन्य मामलों में यह देखा गया कि सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात कुछ शहरों में दो प्रमुख संप्रदायों के व्यापारियों/कारोबारियों के बीच की आर्थिक प्रतिस्पर्धा भी कई बार दंगों में बदल गई. ऐसे कई मामलों में, दंगाइयों का मुख्य निशाना दुकानें, कारोबार, फैक्टरियां और उपकरण (जैसे करघे और पावरलूम आदि) बने. इसके जरिये किसी खास समुदाय को आर्थिक प्रतिस्पर्धा से बाहर करने की भी कोशिश की गई. १९८४ के सिख विरोधी दंगों में उनके कारोबार, दुकानों को भी लूटा-जलाया गया. कई शहरों में दंगाइयों का निशाना बने समुदायों को आर्थिक रूप से खड़ा होने में वर्षों लग गए.

यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि भारत में आजादी के बाद से १९९५ तक के बीच हुए सांप्रदायिक दंगों में से बहुलांश देश के सिर्फ चार राज्यों तक और उनमें भी ७० प्रतिशत से ज्यादा दंगे सिर्फ ३० शहरों तक सीमित रहे हैं. इनमें भी सिर्फ ८ शहर दंगों के लिए सबसे ज्यादा कुख्यात रहे हैं जिनमें मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत, अलीगढ जैसे शहर देश के सबसे प्रमुख औद्योगिक-आर्थिक केंद्र रहे हैं. इन शहरों में सांप्रदायिक दंगों का होना इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि दंगों के पीछे आर्थिक कारण भी महत्वपूर्ण हैं.

यहां एक और सवाल पर विचार जरूरी है कि क्या सांप्रदायिक दंगों के मुख्य केंद्र होने और उसके कारण हुई बर्बादी की वजह से ही तो उत्तर और पूर्वी भारत के कई शहर औद्योगिकीकरण की दौड़ में पीछे नहीं छूट गए? ध्यान रहे कि जब ८० के दशक के उत्तरार्ध और ९० के दशक की शुरुआत में दक्षिण भारत के राज्यों में नया निवेश हो रहा था, उत्तर भारत के राज्यों में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण दंगे हो रहे थे. निश्चय ही, कई अन्य राजनीतिक-आर्थिक वजहों के अलावा उन दंगों और उनके कारण पैदा हुई अशांति ने भी निवेशकों को दक्षिण भारत की ओर जाने के लिए प्रेरित किया होगा.

(राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप,जून)

शनिवार, सितंबर 18, 2010

जी.डी.पी के दो प्रतिशत का सवाल है खाद्य सुरक्षा

 बढ़ी अपेक्षाओं और उम्मीदों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में नव गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) की पहली बड़ी परीक्षा का समय आ गया है. यह कोई मामूली परीक्षा नहीं है क्योंकि उसे आज़ादी के ६३ सालों बाद भी देश में फैले भूखमरी के व्यापक और पीड़ादायक साम्राज्य को खत्म करने और करोड़ों लोगों के लिए दोनों जून रोटी-भात सुनिश्चित करने के बारे में फैसला करना है.

एन.ए.सी को जल्दी ही यू.पी.ए–२ सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना- खाद्य सुरक्षा कानून के स्वरुप के बारे में अपनी अंतिम राय बनानी है. खुद ने एन.ए.सी ने गठन के बाद अपनी पहली बैठक में खाद्य सुरक्षा कानून को अंतिम रूप देने को अपनी पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता बताया था.

ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर एन.ए.सी से काफी उम्मीदें की जा रही हैं. उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह सभी नागरिकों के लिए भोजन का मुकम्मल अधिकार सुनिश्चित करने के वास्ते खाद्य सुरक्षा कानून का एक व्यापक, समावेशी और उदार मसौदा तैयार करेगी. इस अपेक्षा की वजह ये है कि पिछले आम चुनावों में वायदे के बावजूद खुद यू.पी.ए सरकार एक व्यापक और समावेशी खाद्य सुरक्षा कानून के हक में नहीं दिख रही है.

आश्चर्य नहीं कि इस साल मार्च में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह (ई-जी.ओ.एम) ने खाद्य सुरक्षा कानून के जिस मसौदे को मंजूरी दी थी, वह अत्यंत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों से भरा हुआ और खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून का मसौदा था. उसका असली मकसद लोगों को भोजन का अधिकार देना नहीं बल्कि खाद्य सब्सिडी को कम करना था.

जाहिर है कि खाद्य सुरक्षा कानून के उस मसौदे का व्यापक विरोध हुआ और हो-हंगामे के बाद यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के कारण मनमोहन सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. उस समय यू.पी.ए अध्यक्ष ने सरकार को भोजन के सार्वभौम अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों और कार्यकर्ताओं की आपत्तियों के मद्देनजर विधेयक के मसौदे पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया था.

उसके बाद सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को पुनर्विचार के लिए योजना आयोग को भेज दिया जो पिछले तीन महीनों से सरकारी प्रस्ताव और आंदोलनकारियों की मांगों के बीच संतुलन बैठाने की कसरत में लगा हुआ है. हालांकि इस कसरत से सिवाय कुछ रियायतों के अभी तक कुछ खास निकलता नहीं दिख रहा है.

लेकिन हाल में एन.ए.सी के पुनर्गठन से सामाजिक-राजनीतिक हलकों में यह उम्मीद जरूर पैदा हो गई है कि अब यू.पी.ए सरकार पर खाद्य सुरक्षा के नाम पर सब्सिडी में कटौती और भोजन के अधिकार का मजाक उड़ानेवाला कानून बनाने के बजाय एक मुकम्मल कानून बनाने का दबाव बढ़ेगा. यह उम्मीद इसलिए भी की जा रही है कि एन.ए.सी में भोजन के अधिकार का मुकम्मल कानून बनाने के पक्षधर ज्यां द्रेज, हर्ष मंदर, अरुणा रॉय, एन.सी.सक्सेना जैसे कई अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद हैं.

लेकिन इन बढ़ी हुई उम्मीदों के बावजूद सच यह है कि खाद्य सुरक्षा के एक मुकम्मल कानून का रास्ता इतना आसान नहीं है, खासकर जब यू.पी.ए-२ सरकार जोरशोर से सब्सिडी में कटौती और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में लगी हुई है. इसका नतीजा हमारे सामने है. ऐसा लगता है कि एन.ए.सी भी सीमित खाद्य सुरक्षा के सीमित अधिकार को और सीमित करते हुए सिर्फ १५० सबसे गरीब जिलों में लागू करने के प्रस्ताव से सहमत हो जायेगी.

साफ है कि इस मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार आसानी से पीछे हटनेवाली नहीं है. उसकी रणनीति बिलकुल स्पष्ट है. उसने मार्च में जानबूझकर खाद्य सुरक्षा के कानून के एक आधे-अधूरे मसौदे को मंजूरी दी थी ताकि उसके विरोध के बाद कुछ और दे-दिलाकर वह भोजन का मुकम्मल अधिकार देने से बच निकलेगी. इससे राजनीतिक तौर पर सोनिया गांधी की भी गरीबनवाज की छवि बनी रहेगी और मनमोहन सिंह सरकार की खाद्य सब्सिडी कम करने की मंशा भी कामयाब हो जायेगी.

इसके लिए सरकार के पास तर्क भी हैं. वह चाहे तो कह सकती है कि कांग्रेस ने चुनावों के दौरान गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे प्रत्येक परिवार को तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने २५ किलोग्राम गेहूं या चावल देने का वायदा किया था. इस कारण इससे अधिक की कोई मांग स्वीकार करने के लिए वह राजनीतिक-नैतिक रूप से बाध्य नहीं है.

हैरानी की बात नहीं है कि सरकारी हलकों से कभी खुलकर और कभी दबी जुबान में यह तर्क सामने भी आ रहा है. लेकिन अगर खाद्य सुरक्षा और भोजन के अधिकार के कानून को इस अत्यंत सीमित दायरे में बांधने की कोशिश की गई तो इसका अर्थ होगा कि करोड़ों लोगों को आगे भी न सिर्फ भूखे और आधे पेट सोने के लिए मजबूर होना पड़ेगा बल्कि उन्हें अभी जो मिल भी रहा है, उसे भी गंवाना पड़ेगा.

उल्लेखनीय है कि अभी अंत्योदय जैसी कई योजनाओं में गरीबों को हर माह न सिर्फ ३५ किलो अनाज मिलता है बल्कि उसकी कीमत भी २ रूपये किलो है. कई राज्य सरकारें भी विभिन्न योजनाओं में २ रूपये गेहूं और चावल दे रही हैं. इसलिए यू.पी.ए सरकार का यह तर्क कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे खाद्य सुरक्षा के नाम पर करोड़ों गरीबों की भूख मिटाने के बजाय उसे और बढ़ाने का रास्ता साफ कर दिया जायेगा.

इसलिए एन.ए.सी को इस मुद्दे पर न सिर्फ बीच का रास्ता और संतुलन बैठाने के दबावों से बचना होगा बल्कि दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय भी देना होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि खाद्य सुरक्षा और भोजन के अधिकार जैसे जीवन-मरण के प्रश्न पर बीच का कोई रास्ता नहीं हो सकता है. आखिर इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है कि आजादी के ६३ सालों बाद भी भारत में दुनिया के सबसे अधिक भूखे और कुपोषणग्रस्त लोग रहते हैं? दुनिया में अत्यधिक भूखमरी का शिकार हर पांचवां व्यक्ति भारतीय है. देश में ५० प्रतिशत से अधिक महिलाएं और बच्चे भूख और इस कारण गंभीर कुपोषण के शिकार हैं.

हालात कितने गंभीर है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वैश्विक भूख सूचकांक-ग्लोबल हंगर इंडेक्स- पर ८८ देशों की सूची में भारत निचले ६५ वें पायदान पर है जबकि पाकिस्तान उससे बेहतर स्थिति में ५८ वें स्थान पर है. यही नहीं, भूख से निपटने के मोर्चे पर बंगलादेश को छोड़कर दक्षिण एशिया में सभी देशों और यहां तक कि गरीबी,गृह युद्ध,आर्थिक ध्वंस आदि के बावजूद अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों का भी प्रदर्शन भारत से बेहतर है.

यह इसलिए और भी शर्मनाक है क्योंकि देश पिछले डेढ़-दो दशकों से लगातार औसतन ६ से ८ प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ बढ़ रहा है. इसके कारण आर्थिक समृद्धि खूब बढ़ी है और देश को दुनिया की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनाने के दावे खूब हो रहे हैं.

लेकिन इस सबके बीच भूख का लगातार फैलता और गहराता साम्राज्य भी एक ऐसी कडवी सच्चाई है जिसे अब शासक वर्गों के लिए भी और नजरंदाज कर पाना मुश्किल होता जा रहा है. यही कारण था कि शाइनिंग इंडिया के नारों के बीच भूख से मौतों की खबरों ने सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर कर दिया. कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में भोजन के अधिकार को संविधान में अनुच्छेद २१ के तहत प्रदत्त जीवन के बुनियादी अधिकार का अनिवार्य हिस्सा माना.

इस कारण भोजन का अधिकार भी मौलिक अधिकार का हिस्सा बन चुका है और यह केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे हर नागरिक को भरपेट और पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराएं. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन भी तेज हो गए हैं.

दरअसल, इसी दबाव में यू.पी.ए सरकार आधे-अधूरे मन से भोजन के अधिकार का कानून ले आने के लिए मजबूर हुई है लेकिन दूसरी ओर, वह नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह को भी छोड़ नहीं पा रही है जिसका नारा है- ‘यहां मुफ्त में भोजन नहीं मिलता है’(देयर इज नो फ्री लंच). इस कारण वह जहां तक संभव हो सके, खाद्य सब्सिडी में कटौती करना चाहती है.

आश्चर्य नहीं कि एक ओर यू.पी.ए सरकार राष्ट्रपति के अभिभाषण में खाद्य सुरक्षा का कानून लाने की घोषणा कर रही थी तो दूसरी ओर, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी चालू वित्तीय वर्ष के बजट में खाद्य सब्सिडी के मद में पिछले वर्ष की तुलना में लगभग पांच सौ करोड़ रूपये की कटौती कर रहे थे.

यही नहीं, पिछले कुछ महीनों से वित्त मंत्रालय और योजना आयोग खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कटौती के नए-नए उपाय ढूंढने में लगे हुए हैं. यही कारण है कि पिछले एक साल में खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों के बावजूद यू.पी.ए सरकार ने गोदामों से गेहूं-चावल निकालने में जबरदस्त कंजूसी की. हैरानी नहीं कि इस समय सरकारी गोदाम अनाजों से अटे पड़े हैं. एक ओर लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं और दूसरी ओर, सरकार सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है.

यहां तक कि गोदामों में अनाज सड़ रहा है लेकिन सरकार उसे भूखे लोगों को इसलिए मुहैया करने के लिए तैयार नहीं है कि इससे सब्सिडी बढ़ जायेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार की इस जमाखोरी के कारण ही बाज़ार में मुनाफाखोरों और जमाखोरों की चांदी है जो कृत्रिम किल्लत पैदा करके लोगों का खून चूसने में लगे हैं.

यू.पी.ए सरकार की इस कंजूसी और जमाखोरी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बफर स्टाक के नियमों के मुताबिक अगली एक जुलाई को सरकारी गोदामों में १७१ लाख टन गेहूं और ९८ लाख टन चावल होना चाहिए लेकिन ३१ मई को सरकारी गोदामों में दो गुने से भी ज्यादा ३५१ लाख टन गेहूं और ढाई गुने से भी ज्यादा २५२ लाख टन चावल पड़ा था.

असल में, मौजूदा खाद्य सब्सिडी का बड़ा हिस्सा इस अनाज के भंडारण और रख-रखाव पर खर्च होता है. लेकिन विडम्बना देखिये कि सरकार अनाज के सड़ने-बर्बाद होने और उसके रखरखाव का खर्च उठाने को तैयार है लेकिन गरीब और भूखे लोगों को उनकी जरूरत का सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए तैयार नहीं है.

सरकार की यह बेदर्दी इसलिए और भी शर्मनाक है क्योंकि हाल में ही आई संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि विकास रिपोर्ट के अनुसार अनाजों की कीमतों में भारी उछाल और वित्तीय संकट के कारण दक्षिण एशिया में भूखे लोगों की तादाद १९९० के स्तर पर पहुंच गई है. तात्पर्य यह कि पिछले दो दशकों में तेज वृद्धि दर से पैदा हुई आर्थिक समृद्धि के कारण गरीबी और भूख के दायरे से बाहर निकले करोड़ों लोग फिर से उसी हालत में पहुंच गए हैं.

जाहिर है कि इसके लिए खाद्य सब्सिडी में कटौती का जिद लेकर गोदामों में अनाज दबाए बैठी सरकार की नीतियां मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. अफसोस की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार अभी भी अपनी गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है. इसीलिए वह एक मुकम्मल, समावेशी और सार्वभौम भोजन के अधिकार का कानून बनाने के बजाय उसे सीमित और लक्षित रखने पर जोर दे रही है.

अब फैसला एन.ए.सी और उससे बढ़कर सोनिया गांधी को करना है. उन्हें तय करना है कि वह देश के सभी नागरिकों को खाद्य सुरक्षा और भोजन का अधिकार देने के हक में हैं या जैसाकि यू.पी.ए सरकार चाहती है कि यह सिर्फ बी.पी.एल परिवारों और अधिकतम ३५ किलो गेहूं-चावल तक सीमित रहे. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा और भोजन का अधिकार सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है और मौजूदा ए.पी.एल और बी.पी.एल जैसे कृत्रिम विभाजन सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ानेवाले और लोगों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करनेवाले हैं.

यही नहीं, इस अधिकार को सिर्फ ३५ किलो गेहूं-चावल तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि इसका अर्थ यह होता है कि पोषण के लिए जरूरी मानकों के मुताबिक परिवार के प्रत्येक बालिग सदस्य को प्रति माह दो रूपये किलो की दर से न्यूनतम १२ किलो और बच्चों को ६ किलो अनाज यानी पांच सदस्यी परिवार को ४२ किलो अनाज के अलावा १० रूपये प्रति किलो की दर से कम से कम ५ किलो दालें, २० रूपये प्रति लीटर की दर से कम से कम २ लीटर खाद्य तेल और ५ किलो चीनी आदि भी मिलना चाहिए.

संभव है कि यह प्रस्ताव बहुत लोगों को इस आधार पर अटपटा और लागू करने योग्य न लगे कि इससे सरकार का सब्सिडी बोझ बहुत बढ़ जायेगा या इतना अनाज कहां से आएगा लेकिन याद रहे कि इससे कुछ भी कम खाद्य सुरक्षा का नहीं बल्कि खाद्य असुरक्षा और यथास्थिति को बनाए रखने का कानून होगा. आखिर इसे लागू करने पर कितना खर्च आएगा? इसपर सबसे उदार अनुमानों के मुताबिक ८२ हजार करोड़ से लेकर एक लाख करोड़ रूपये सालाना का खर्च आ सकता है जोकि जी.डी.पी का सिर्फ २ प्रतिशत है.

यही नहीं, इससे न सिर्फ महंगाई को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी बल्कि इस कानून को लागू करने के लिए सरकार किसानों से अनाज खरीदेगी जो उन्हें उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा. इसके लिए मजबूरी में ही सही, सरकार को कृषि और किसानों की ओर ध्यान देना पड़ेगा. सवाल है कि क्या देश आजादी के ६३ सालों बाद अपने सभी नागरिकों को दोनों जून भरपेट भोजन मुहैया कराने के लिए अपनी जी.डी.पी का दो प्रतिशत भी खर्च करने के लिए तैयार है या नहीं?

क्या सोनिया गांधी सुन रही हैं?

(जनसत्ता में जून में छपे लेख का थोडा संशोधित रूप )

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

अंग्रेजी से पहले हिंदी दुरुस्त कीजिए श्रीमान !

आज से कोई 184 साल पहले 30 मई 1826 को हिंदी का पहला साप्ताहिक अखबार ‘उदंत मार्तंड’ छपना शुरू हुआ था. हालांकि वह सिर्फ डेढ़ वर्ष ही जीवित रह पाया लेकिन उसके बाद हिंदी अख़बारों/पत्रिकाओं ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 184 साल पहले 30 मई को शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता की वह यात्रा आज भी तमाम उतार-चढावों से होती हुई अनवरत जारी है.

आज अपनी पहुंच और प्रसार के लिहाज से देश में शिखर पर पहुंच चुके हिंदी अख़बारों के पास व्यावसायिक सफलता के रूप में कामयाबी की अनोखी कहानियां हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि आज की इस कामयाबी के पीछे हिंदी पत्रकारिता को एक लड़ाकू तेवर और देश-समाज के सरोकारों से जोड़कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का साहस देनेवाले अख़बारों/पत्रिकाओं और उनके पत्रकारों के संघर्ष, त्याग और बलिदान की विरासत भी है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इसी विरासत ने हिंदी पत्रकारिता को देश-समाज में वह पहचान और जगह दी जिसपर खड़े होकर हिंदी अख़बारों ने व्यावसायिक सफलता के नए मानदंड बनाए हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि पिछले दो दशकों में हिंदी अखबारों की व्यावसायिक सफलता हिंदी पत्रकारिता की इसी विरासत की कीमत पर आई है. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोडकर आज व्यावसायिक रूप से सफल अधिकांश हिंदी अखबारों और उनके प्रबंधन को इस शानदार विरासत की कोई परवाह नहीं है. कई मामलों में तो कुछ बड़े और सफल अख़बारों के प्रबंधन के रुख से यह लगता है कि व्यावसायिक सफलता के लिए वे हिंदी पत्रकारिता की उस विरासत और पहचान से जल्दी से जल्दी पीछा छुडाने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

उदाहरण के लिए हिंदी के व्यावसायिक रूप से अत्यधिक सफल एक अखबार के इस फैसले को लीजिए जिसमें उसने अपने पाठकों को अंग्रेजी सिखाने के लिए बाकायदा एक अभियान शुरू किया है. अख़बार और पत्रिकाएं अपने पाठकों को देश-दुनिया की भाषाएं सिखाएं, इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? यह भी एक तथ्य है कि देश में लाखों पाठकों ने हिंदी भाषा हिंदी के अख़बारों/पत्रिकाओं को पढकर सीखी है. उनमें से एक पाठक मैं भी हूं. मैंने हिंदी को बरतना धर्मयुग, दिनमान, रविवार, जनसत्ता और नवभारत टाइम्स जैसे अख़बारों और पत्रिकाओं से सीखा है. यहां यह भी याद दिलाते चलें कि हिंदी भाषा को बनाने-मांजने-खड़ा करने में हिंदी के अखबारों/पत्रिकाओं की शायद सबसे बड़ी भूमिका रही है.

आश्चर्य नहीं कि एक ज़माने में हिंदी के अखबारों/पत्रिकाओं ने हिंदी के प्रचार-प्रसार को सबसे ज्यादा अहमियत दी. उनके लिए यह देशसेवा का ही एक और माध्यम था. लेकिन अब ऐसा लगता है कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी को देशसेवा का माध्यम मान लिया गया है. इसलिए हिंदी के अखबार अब अंग्रेजी सिखाने में जुट गए हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या जो अखबार अपने पाठकों की ‘हीन भावना’ को दूर करने के लिए उन्हें अंग्रेजी सिखाने के अभियान में जुटे हुए हैं, वे अंग्रेजी के बजाय कोई और दूसरी देशी या विदेशी भाषा सिखाने की कोशिश नहीं करते? आखिर अंग्रेजी ही क्यों? फ्रेंच या जर्मन या स्पैनिश या चीनी या जापानी क्यों नहीं? उर्दू, तमिल, तेलुगु, मराठी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, गुजराती आदि क्यों नहीं? क्या हिंदी के पाठकों को ये भाषाएं नहीं सिखाई जानी चाहिए?

असल में, यह बड़े और सफल हिंदी अखबारों की अपनी ‘अंग्रेजी ग्रंथि’ है जो पहुंच और प्रसार में अंग्रेजी अखबारों से आगे निकल जाने के बावजूद व्यावसायिक सफलता के मामले में अभी भी अंग्रेजी अखबारों से पीछे हैं. लेकिन सवाल है कि पाठकों को अंग्रेजी सिखाने से पहले क्या हिंदी सिखाने की जरूरत नहीं है? आपको यह सवाल मजाक लग सकता है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हिंदी क्षेत्रों में जहां ये अखबार सबसे ज्यादा बिकते हैं, वहां पढ़ी-लिखी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी तो दूर हिंदी भी साफ-साफ और शुद्ध नहीं लिख पा रहा है. यह ठीक है कि इसके लिए सिर्फ अखबार जिम्मेदार नहीं हैं. शिक्षा व्यवस्था सबसे अधिक जिम्मेदार है.

लेकिन इस कारण क्या यह ज्यादा जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी सिखाने निकला अखबार सबसे पहले अपने पाठकों को हिंदी लिखना सिखाए? इसके लिए उसे अलग से कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं है. अख़बारों को सिर्फ अपनी खुद की भाषा ठीक करनी पड़ेगी और कापी संपादन को दुरुस्त करना पड़ेगा. यह कहने के लिए मुझे माफ़ करें लेकिन यह कडवी हकीकत है कि अंग्रेजी सिखाने निकले अखबार में हर दिन संपादन और प्रूफ की इतनी गलतियाँ होती हैं कि उसे पढ़कर सही हिंदी सीख पाना बहुत मुश्किल है. अंग्रेजी सिखाने से पहले क्या अखबार अपनी हिंदी को लेकर अपने अंदर झांकेंगे? 30 मई इसके लिए शायद बहुत उपयुक्त अवसर है.
(प्रभात खबर, मीडियानामा, 29 मई 10 )

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती

आजकल कुछ आड़ी-तिरछी तिरछी रेखाएं खींचने का शौक चढ़ा हुआ है. वैसे भी अब तक यही करता आया हूँ. आप भी देखिये, क्या बना है, इन रेखाओं और रंगों से? 



 
 
 
 
 
 
 

सोमवार, सितंबर 13, 2010

आत्महत्या पर उतारू न्यूज चैनल

न्यूज चैनलों के लिए खतरे की घंटी तो काफी समय से बज रही है लेकिन अब लगता है कि पगली घंटी भी बज गई है. चैनल न सिर्फ सार्वजनिक मजाक और आलोचना के विषय बन गए हैं बल्कि उनकी कारगुजारियों को लेकर भी लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है. यह आलोचना, उपहास और आक्रोश कई रूपों में सामने आ रहा है. चैनलों के कर्ताधर्ता अपने शीशे के चैम्बरों से बाहर झांकें और अपनी ही बनाई ‘मेक बिलीव’ दुनिया से बाहर देखें कि अब यह सिर्फ कुछ ‘कुंठित, असफल और अज्ञानी’ मीडिया आलोचकों की राय नहीं है बल्कि आलोचकों का दायरा और उनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है.

कुछ हालिया उदाहरण सामने हैं. न्यूज चैनलों की भेड़चाल, हमेशा सनसनी की तलाश, अंधी होड़ और असंवेदनशीलता की खिल्ली उड़ाती फिल्म ‘पीपली लाइव’ को ही लीजिए. मानना पड़ेगा कि आमिर खान को वक्त और जनता की नब्ज की सही समझ है. उनकी फिल्म ‘पीपली लाइव’ बिल्कुल सही समय पर आई है. ऐसे समय में, जब समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल मजाक के विषय बन गए हैं और दर्शकों में उनकी कारगुजारियों को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है, इस फिल्म के आने के कई मायने हैं. याद रहे, इससे पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘रण’ ने भी चैनलों के बीच और उनके अंदर चलनेवाली गलाकाट होड़, षड्यंत्र, खबरों के साथ खिलवाड़ और तोड़-मरोड़ को सामने लाने की कोशिश की थी.

असल में, ‘पीपली लाइव’ ने न्यूज चैनलों की लगातार बदतर, बदरंग और बेमानी होती पत्रकारिता और उनकी नीचे गिरने की सामूहिक होड़ को एक बड़े दर्शक वर्ग के सामने उघाड़कर रख दिया है. अगली बार इस फिल्म को देखनेवाला कोई दर्शक न्यूज चैनलों की किसी खबर के साथ ऐसे ही खेल को देखेगा तो वह हैरान-परेशान होने के बजाय शायद वह हँसे और मुस्कुराएगा. इसमें कोई शक नहीं कि यह फिल्म न्यूज चैनलों और उनके कामकाज के तरीकों का खूब मजाक उड़ाती है लेकिन उससे अधिक यह एक दुखान्तिका है. सच पूछिए तो ‘पीपली लाइव’ किसानों की आत्महत्या से ज्यादा चैनलों की आत्महत्या की कहानी है.

बात यहीं नहीं खत्म होती. कहते हैं कि विज्ञापन निर्माताओं को भी उपभोक्ताओं के मनोविज्ञान की जबरदस्त पकड़ होती है. अगर आपने न्यूज चैनलों की बे-सिरपैर पत्रकारिता का मजाक उड़ाता ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ का एक टी.वी. विज्ञापन देखा हो तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लोग न्यूज चैनलों और उनकी पत्रकारिता को कैसे देखते हैं? इस विज्ञापन में नकली दवा के शिकार मृतक की शोक और पीड़ा में डूबी पत्नी से उसके मुंह के सामने माइक लगाकर एक टी.वी रिपोर्टर पूछती है कि उसे कैसा लग रहा है? इस एब्सर्ड सवाल पर टी.वी. रिपोर्टर के सिर पर पीछे से अखबार की थाप पड़ती है और सन्देश आता है: ‘इट्स टाइम फार बेटर जर्नलिज्म.’ साफ है कि अखबार अपने को न्यूज चैनलों की पत्रकारिता से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन बात केवल फिल्म और विज्ञापन तक सीमित नहीं है. अभी पिछले पखवाड़े सुप्रीम कोर्ट ने आरुषि मामले में कुछ न्यूज चैनलों और अखबारों की निहायत ही गैर जिम्मेदार, सनसनीखेज और चरित्र हत्या करनेवाली रिपोर्टिंग को गंभीरता से लेते हुए इस तरह की रिपोर्टिंग पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. यह सामान्य निर्देश नहीं है. लेकिन इक्का-दुक्का आवाजों को छोड़कर इसके विरोध में कोई सामने नहीं आया. दूसरी ओर, केंद्र सरकार चैनलों के कंटेंट रेगुलेशन का जाल बिछाकर बैठी हुई है. अपनी आदत से मजबूर चैनल उस जाल में फंसने के लिए लगभग प्रस्तुत हैं.

यह सचमुच बहुत अफसोस और चिंता की बात है कि चैनल सब कुछ जानते-समझते हुए भी आत्महत्या पर उतारू हैं. अगर कोई चैनल रक्षाबंधन पर ‘जहरीली बहना’ शीर्षक से मिठाइयों में मिलावट पर कार्यक्रम दिखाता है तो उसे क्या कहा जाए? साफ है पानी सिर से ऊपर बहने लगा है. मुझे खुद भी अक्सर इसका अनुभव होता रहता है. अभी पिछले सप्ताह एन.सी.ई.आर.टी में दिल्ली के जाने-माने स्कूलों की शिक्षिकाओं के एक मीडिया प्रशिक्षण कार्यक्रम में न्यूज चैनलों की कारगुजारियों को लेकर उनके तीखे सवालों के बीच मेरे लिए लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका और उसकी जरूरत का बचाव करना मुश्किल होने लगा. उनसे बातचीत करते हुए ऐसा लगा कि वे सिर्फ न्यूज चैनलों ही नहीं पूरी पत्रकारिता से चिढ़ी हुई हैं.

जाहिर है कि यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है. एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, ताकतवर और सक्रिय न्यूज मीडिया और उसकी बेहतर पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र की जड़ें सूखने लगती हैं. लेकिन न्यूज मीडिया की आज़ादी और उसकी ताकत दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के भरोसे पर टिकी हुई है. पर न्यूज चैनल अपनी कारगुजारियों से दर्शकों का विश्वास खो रहे हैं. पता नहीं क्यों, वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि अपने दर्शकों का विश्वास खोकर वे कहीं के नहीं रहेंगे? यह और बात है कि इसका सबसे अधिक नुकसान आम लोगों और लोकतंत्र को ही होगा.

पगली घंटी जोर-जोर से बज रही है. सवाल है कि आत्महत्या पर उतारू चैनल क्या उसे सुन रहे हैं?
(तहलका, तमाशा मेरे आगे, १५सितम्बर'१०)

शुक्रवार, सितंबर 10, 2010

" डीज-आनर कीलिंग के खिलाफ, एक बेहतर भविष्य के लिए " कन्वेंशन

" डीज-आनर कीलिंग  के खिलाफ और एक बेहतर भविष्य के लिए " कन्वेंशन में आप सभी की उपस्थिति जरूरी है. आप निरुपमा को न्याय अभियान में हमेशा हमारे साथ खड़े रहे हैं. अब समय आ गया है, जब एक बार फिर इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया जाये.

इसी सिलसिले में, इस कन्वेंशन का आयोजन किया जा रहा है. यह कन्वेंशन अगले रविवार, 12 सितम्बर को दोपहर २.३० बजे से प्रेस क्लब के सभागार में है. इस कन्वेंशन को कई जाने-माने बुद्धिजीवी, अध्यापक, पत्रकार, लेखक, सांसद, मानवाधिकार, छात्र-युवा और महिला आन्दोलनों से जुड़े नेता और कार्यकर्ता संबोधित करेंगे. इसका आयोजन निरुपमा के लिए न्याय अभियान, प्रेस क्लब आफ इंडिया और आई.आई.एम.सी अलमुनाई असोसिएशन ने किया है.

आपसे आग्रह है कि आप कन्वेंशन में जरूर आएं और बताएं कि यह लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई है. उम्मीद है कि आपसे प्रेस क्लब के सभागार में मुलाकात होगी.  

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

विकास या विनाश?

जमीन की लूट पर आधारित ‘विकास’ का यह माडल टिकाऊ और समावेशी नहीं है


‘दिल्ली में आदिवासियों, किसानों और गरीबों के सिपाही’ कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की मांग पर प्रधानमंत्री ने तुरंत यह आश्वासन दे दिया कि सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में भूमि अधिग्रहण कानून’१८९४ में बदलाव के लिए संशोधन विधेयक लाएगी.

इस हड़बड़ी के कारण स्पष्ट हैं. कौन नहीं जानता है कि मौजूदा युवराज और ‘आगामी प्रधानमंत्री’ मिशन उत्तर प्रदेश-२०१२ पर हैं और टप्पल(अलीगढ) में भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों पर फायरिंग के बाद किसान आक्रोश को भुनाने में वे अजीत सिंह या बहन जी से पीछे कैसे रह सकते थे? इसलिए आनन-फानन में उनके नेतृत्व में एक कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिलने पहुंच गया और पहले से तैयार बैठे प्रधानमंत्री से १८९४ के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन विधेयक लाने का आश्वासन भी ले आया.

कहने की जरूरत नहीं है कि काफी देर और बड़ी संख्या में किसानों की जमीनें छिनने और उनका खून बहने के बाद युवराज की नींद खुली है. लेकिन एक मिनट के लिए इसे भूल जाएं और युवराज की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को परे रख दें तो भी यह सवाल उठता है कि मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन को लेकर उनकी और कांग्रेस की राय क्या है? आखिर वे कैसा भूमि अधिग्रहण कानून चाहते हैं? इसका खुलासा होना बाकी है.

हालांकि युवराज के उत्तर प्रदेश मिशन के प्रमुख सिपहसालार और रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने यह संकेत जरूर दिया है कि वे हरियाणा माडल का कानून चाहते हैं. लेकिन उन्होंने हरियाणा माडल को कुछ इस तरह से पेश किया गोया वहां किसानों से भूमि अधिग्रहण के मामले में पूरा रामराज्य हो और वहां किसानों को ‘दैहिक-भौतिक तप, रामराज्य काहू नाहिं व्यापा’ वाली स्थिति है.

जबकि इस कांग्रेसी रामराज्य की हकीकत सबको पता है. असल में, लोहे का स्वाद लुहार से नहीं बल्कि घोड़े से पूछा जाना चाहिए जिसके मुहं में लगाम होती है. हैरानी की बात नहीं कि तमाम प्रलोभनों के बावजूद हरियाणा के किसान भी मनमाने भूमि अधिग्रहण से खुश नहीं हैं और रिलायंस सेज के खिलाफ उनका आंदोलन अभी थमा नहीं है.

सच यह है कि हरियाणा में भूमि अधिग्रहण कानून और नियम बुनियादी रूप से किसी भी मायने में मूल कानून से अलग नहीं हैं, सिवाय इसके कि किसानों को लुभाने के लिए हुड्डा सरकार ने मुआवजे की रकम बढ़ा दी है और उन्हें ३३ वर्षों के लिए प्रति वर्ष १५ हजार रूपये प्रति एकड़ की दर से अतिरिक्त भुगतान किया है जिसमें हर साल ५०० रूपये की वृद्धि भी होगी.

लेकिन अंग्रेजों के बनाये भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर मुद्दा सिर्फ मुआवजे की रकम भर का नहीं है. बुनियादी सवाल उससे कहीं अधिक बड़े और गंभीर हैं. सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि किसानों से कृषि भूमि क्यों और किसके लिए ली जाए? भूमि अधिग्रहण कानून में केंद्र और राज्य सरकारों को जिस तरह से ‘लोक उद्देश्य’ के नाम पर मनमाने तरीके से जमीन अधिग्रहण का अधिकार मिला हुआ है, उसका औचित्य क्या है?

खासकर पिछले एक दशक में जिस तरह से केन्द्र और सभी रंगों की राज्य सरकारों के नेतृत्व में ‘लोक उद्देश्य’ के नाम पर मनमाने तरीके से निजी कारपोरेट क्षेत्र के लिए द्वि और बहु फसली कृषि भूमि की लूट मची हुई है, वह हर तरह से ‘ऐतिहासिक’ है. देशी-विदेशी कंपनियों में होड़ सी मची हुई है कि सरकारों की सरपरस्ती में कौन कितनी जमीन लूट सकता है और कितना बड़ा ‘लैंड बैंक’ बना सकता है?

इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देशी-विदेशी कंपनियों ने भविष्य में जमीन की अनुपलब्धता और ऊँची कीमतों के रणनीतिक महत्व को समझते हुए देश भर में गरीब और मंझोले किसानों से आने-पौने दामों पर लाखों एकड़ जमीन खरीद कर लैंड बैंक बनाना शुरू कर दिया है, वह अपने आप में एक बहुत बड़ा स्कैंडल है.

माफ़ कीजिये ये ‘विकास’ के लिए नहीं हो रहा है बल्कि सीधे-सीधे विनाश को आमंत्रण है. ज्यादातर मामलों में कृषि भूमि की यह लूट अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के लिए विशाल गोल्फ कोर्स से सजी आरामदेह कालोनियों, बंगलों और फ्लैट्स, शापिंग माल्स आदि के लिए कब्जाई जा रही है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर बड़े-बड़े एयरपोर्ट, चार-छह लेन के हाइवे, सुपर थर्मल पावर स्टेशन आदि को बढ़ावा दिया जा रहा है. यही नहीं, जहां कारखानों आदि के लिए भी जमीन ली गई है, वहां भी वास्तविक जरूरत से काफी ज्यादा जमीन हडपी गई है.

ऐसा लगता है जैसे यह मान लिया गया है कि देश में न सिर्फ असीमित जमीन है बल्कि जमीन फैक्टरियों में पैदा की जा सकती है. साथ ही यह भी कि जमीन का सबसे बेहतर इस्तेमाल खेती के लिए नहीं बल्कि ‘विकास’ के लिए हो सकता है. गोया अब अनाज अमीरों के किचन गार्डन में पैदा होगा या फिर अफ्रीका में जमीन खरीदकर. जाहिर है कि जमीन की यह अंधाधुंध लूट कृषि और खाद्यान्न उत्पादन की कीमत पर हो रही है.

इसलिए मुद्दा सिर्फ किसानों की सहमति, उनकी भागीदारी और उन्हें अधिक से अधिक मुआवजा देने भर का नहीं है बल्कि सीमित जमीन के सबसे जरूरी और बेहतर इस्तेमाल का है. इस कारण हरियाणा माडल मौजूदा समस्या का वास्तविक समाधान नहीं है. आखिर किसानों को हरियाणा में अगर बाजार दर पर और भारी मुआवजा मिल जाने का नतीजा क्या हो रहा है?

हरियाणा में देश की सबसे उपजाऊ जमीन के गैर कृषि कार्य में जाने का खामियाजा खादयान्न उत्पादन में नुकसान के रूप में उठाना पड़ेगा. दूसरी ओर, भारी मुआवजा लेकर हरियाणा के किसान देश के दूसरे हिस्सों में खासकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में स्थानीय किसानों की जमीन खरीद रहे हैं. इस तरह हरियाणा से विस्थापित किसान दूसरे राज्यों में किसानों को विस्थापित कर रहा है. इससे देश के अंदर ‘विकास’ के नाम पर एक ऐसा असंतुलन पैदा हो रहा है जो भविष्य में नए तनावों और टकरावों को जन्म दे सकता है.

इसी तरह, कृषि योग्य भूमि के लगातार कम होते जाने और कम भूमि से ही अधिक उत्पादन के लिए उसका मशीनीकरण/कारपोरेटीकरण बढ़ेगा तो कृषि क्षेत्र से करोड़ों गरीब और छोटे किसान और भूमिहीन खेतिहर मजदूर बेरोजगार होंगें. सवाल है कि ‘विकास’ के नए माडल में उनके लिए रोजगार कहां है? आखिर किसान खेती नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?

सवाल यह भी है कि देश के लिए ज्यादा जरूरी क्या है: रियल इस्टेट, एयरपोर्ट, हाइवे, शापिंग माल्स और गोल्फ कोर्स या खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता? सभी लोगों को रोजी-रोजगार या मुट्ठी भर लोगों के लिए ‘वर्ल्ड क्लास फैसिलिटीज’? इसलिए मामला भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का नहीं बल्कि भूमि सुरक्षा कानून बनाने का है. युवराज को अपनी प्राथमिकताएं बतानी होंगी.
(राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, ४ सितम्बर'१०)