शनिवार, दिसंबर 31, 2011

गरीबी रेखा से ही तय होगा भोजन के अधिकार का फैसला

इस कानून से देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी

दूसरी और आखिरी किस्त


यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने के बजाय कई मामलों में और सीमित कर देता है. इसमें खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को ‘प्राथमिकता’ और ‘सामान्य’ के दो खांचों में बांटा गया है जो वास्तव में पहले से मौजूद बी.पी.एल और ए.पी.एल श्रेणियों के ही नए नाम हैं.

विधेयक में प्राथमिकता श्रेणी में शामिल लाभार्थियों में प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते दर (दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल) पर सात किलो अनाज मिलेगा जबकि सामान्य श्रेणी में शामिल प्रत्येक लाभार्थी को अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत (मौजूदा कीमतों के आधार पर ६.५० रूपये किलो गेहूं और ५.५० रूपये किलो चावल) पर तीन किलो अनाज मिलेगा.


साफ़ है कि सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को न सिर्फ अनाजों की दोगुनी से लेकर तिगुनी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि उन्हें प्राथमिकता श्रेणी की तुलना में अनाज भी आधे से कम मिलेगा. इस तरह लगभग सभी व्यावहारिक अर्थों में सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को खाद्य सुरक्षा नाम पर एक झुनझुना भर थमा दिया गया है.

यही नहीं, खाद्य सुरक्षा का यह केन्द्रीय कानून तमिलनाडु जैसे राज्यों में जहां पी.डी.एस का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है, उसे भी सीमित कर देगा. इसके अलावा देश के कई राज्यों में प्रस्तावित कानून की तुलना में कहीं ज्यादा सस्ता अनाज राज्य सरकारें पहले से दे रही हैं, उसपर भी रोक लग जायेगी.

खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक कितना सीमित है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके तहत कथित खाद्य सुरक्षा का लाभ ग्रामीण क्षेत्र के ७५ प्रतिशत और शहरी क्षेत्र के ५० प्रतिशत नागरिकों को मिलेगा. लेकिन इसमें भी प्राथमिकता (पूर्व बी.पी.एल) श्रेणी के लाभार्थियों की संख्या विधेयक के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में ४६ फीसदी और शहरी इलाकों में २८ फीसदी होगी.

यह और कुछ नहीं बल्कि तेंदुलकर समिति द्वारा तय गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों की संख्या में १० फीसदी और जोड़कर बनाई गई सीमा है. इस तरह ना-ना करते हुए भी वही पुरानी गरीबी रेखा फिर से भूखमरी के शिकार करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला करने आ गई.

यह साफ़ तौर पर यू.पी.ए सरकार की वायदाखिलाफी है. याद रहे कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये और शहरी क्षेत्रों में ३२ रूपये से कम की आय वाले लोगों को ही गरीब मानने वाले योजना आयोग के हलफनामे के बाद पूरे देश में जबरदस्त हंगामा हुआ था. उस समय केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने वायदा किया था कि इस गरीबी रेखा को भोजन के अधिकार के लाभार्थियों के साथ नहीं जोड़ा जाएगा.

लेकिन संसद में पेश विधेयक से साफ़ है कि गरीबी निर्धारण के नाम पर गरीबों का मजाक उड़ानेवाली गरीबी रेखा से ही यह तय होगा कि देश में कितने और कौन लोगों को खाद्य सुरक्षा का लाभ मिलेगा.

साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने इस विधेयक के जरिये न सिर्फ भोजन के सार्वभौम (यूनिवर्सल) अधिकार यानी सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा के अधिकार को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है बल्कि करोड़ों गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के कृत्रिम विभाजन में बांटकर करोड़ों भूखे लोगों को भी ठेंगा दिखा दिया है.

लेकिन इस मजाक के लिए सिर्फ यू.पी.ए सरकार ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके नेतृत्व में काम करनेवाली एन.ए.सी भी उतनी ही जिम्मेदार है. एन.ए.सी ने ही सबसे पहले प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के इस कृत्रिम विभाजन का प्रस्ताव करके सरकार को और मनमानी करने की छूट दे दी.

लेकिन मजा देखिए कि इतने सीमित प्रावधानों बावजूद अभी भी इस विधेयक का सरकार के अंदर और बाहर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की ओर से जितना कड़ा विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस सीमित कानून को भी लागू करने को लेकर सरकार बहुत उत्सुक और उत्साहित नहीं है. साफ़ है कि भोजन के मौलिक अधिकार की लड़ाई अभी लंबी चलनी है.


समाप्त

('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और अंतिम किस्त)

शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

खाद्य सुरक्षा के नाम पर भूखों को फिर ठेंगा

भोजन के अधिकार की आड़ में पी.डी.एस को ठिकाने लगाने की तैयारी  


पहली किस्त

काफी ना-नुकुर, खींचतान और दांवपेंच के बाद आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पेश कर दिया. पिछले दो सालों से अधिक समय से सरकार के अंदर और बाहर इस कानून के मसौदे को लेकर बहस चल रही थी. दूसरी ओर, देश भर में खाद्य सुरक्षा यानी सभी नागरिकों को भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो रहे थे.

सरकार पर नैतिक और राजनीतिक दोनों दबाव थे. सचमुच इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार और भारत के आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के दावों के बीच देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की कुल तादाद बढ़कर २७ करोड़ से अधिक पहुँच गई है?

यही नहीं, दुनिया भर में भूखमरी के शिकार लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा अकेले भारत में रहता है. आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक (हंगर इंडेक्स) पर ८४ देशों में भारत कई अत्यधिक गरीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों से भी नीचे ६७ वें स्थान पर है.

विडम्बना देखिए कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर १९९० से २००५ के बीच तेज वृद्धि दर के कारण जहां भारत के जी.डी.पी का आकार दुगुना हो गया और प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि दर्ज की गई, उसी दौरान देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की तादाद में कमी आने के बजाय उनकी संख्या में लगभग ६.५ करोड़ की और बढोत्तरी हो गई.

हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कोई ४८ फीसदी बच्चे और ४० फीसदी वयस्क भरपेट और पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन न मिलने के कारण कुपोषण के शिकार हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून से देश के उन करोड़ों लोगों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं जो आज़ादी के ६३ साल बाद आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं.

लेकिन इतनी उम्मीदों, सरकार के भारी-भरकम दावों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बाद जो विधेयक संसद में पेश किया गया है, उसका मकसद कहीं से भी सबको भोजन का मौलिक अधिकार देना नहीं है.

इसके उलट सच यह है कि खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक न सिर्फ बहुत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है बल्कि यह देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून साबित होगा. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा के नाम पर यह भूखे लोगों का मजाक उड़ानेवाला विधेयक है जिसका असली मकसद खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में खादयान्नों के कारोबार से जुड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की मदद करना है.

इस कानून के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) में सुधार के नाम पर उसे पूरी तरह बर्बाद करने की तैयारी कर ली गई है जिससे सबसे ज्यादा फायदा बड़ी बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों को होगा.

असल में, यू.पी.ए सरकार इसके लिए बहुत दिनों से मौका खोज रही थी. यह किसी से छुपा नहीं है कि पी.डी.एस में सुधार के नाम पर उसे समेटने और बंद करने की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं. पी.डी.एस में सुधार की आड़ में उसे पहले ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) में बदलकर कमजोर और खोखला किया जा चुका है.

इसी नव उदारवादी एजेंडे को आगे बढाने के लिए अब खाद्य सुरक्षा विधेयक को एक मौके की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून को लागू करने के लिए सभी राज्यों को पी.डी.एस में सुधार करना होगा.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पी.डी.एस व्यवस्था में जितना भ्रष्टाचार और अराजकता है, उसे देखते हुए उसमें सुधार की और उसे भ्रष्टाचारमुक्त, प्रभावी और जन नियंत्रण में लाने की सख्त जरूरत है. लेकिन सरकार का इरादा उसमें सुधार करके उसे सशक्त और प्रभावी बनाने का नहीं है. इसके उलट वह पी.डी.एस में सुधार के बहाने उसमें अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) को घुसेड़ना चाहती है.

लेकिन इस विधेयक में सबसे खतरनाक प्रावधान यह किया गया है कि केन्द्र सरकार जिस दिन से और जिस क्षेत्र में अनाज की जगह कैश ट्रान्सफर, फ़ूड कूपन जैसी योजनाओं को लागू करना चाहेगी, राज्य सरकारों को उसे लागू करना होगा.

साफ़ है कि सरकार का असली इरादा लोगों को पी.डी.एस के माध्यम से अनाज मुहैया कराके खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि कैश ट्रांसफर और फ़ूड कूपन के बहाने खाद्यान्न के बड़े व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को मोटे मुनाफे की गारंटी करना है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पहले एन.डी.ए और अब यू.पी.ए सरकार पिछले कई वर्षों से राशन लाभार्थियों को अनाज के बजाय नकद पैसा या फ़ूड कूपन देने की पेशकश करते रहे हैं जिसका इस्तेमाल करके वह खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद ले.

ऊपर से देखने पर यह योजना बहुत आकर्षक लगती है कि लाभार्थी को राशन की दूकान और उसमें मिलनेवाले घटिया अनाज से मुक्ति मिल जायेगी और वह अपनी सुविधा और पसंद से अनाज खरीद सकता है.

लेकिन सच यह है कि सुधार के नाम पर गरीबों और भूखमरी से जूझ रहे लोगों को भ्रष्ट पी.डी.एस के बजाय खुले बाजार की मनमानी के भरोसे छोड़ा जा रहा है. आखिर कितने गरीब खुले बाजार से फ़ूड कूपन या नकद से अपनी इच्छा या पसंद से अनाज खरीद पाएंगे?

दूसरी ओर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर सरकार कैश ट्रांसफर या फ़ूड कूपन को आगे बढ़ाने जा रही है तो उसके अपने अनाज भण्डार का क्या होगा? अगर सरकार पी.डी.एस से अनाज का वितरण नहीं करना चाहती है तो उसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने और अनाज भण्डार रखने की भी क्या जरूरत है?

मतलब साफ़ है. सरकार का असली मकसद न सिर्फ पी.डी.एस को खत्म करना है बल्कि वह किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की जिम्मेदारी से भी मुक्ति चाहती है. इस तरह वह किसानों को भी बाजार और बड़े अनाज व्यापारियों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ना चाहती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे ज्यादा खुशी अनाज के कारोबार से जुड़े बड़े व्यापारियों और देशी-विदेशी कंपनियों को होगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि किसानों और राशन लाभार्थियों दोनों को बाजार के भरोसे छोडकर सरकार वास्तव में देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाने जा रही है.

यही इस विधेयक की असलियत है. सच यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में नया कुछ भी नहीं है. इसमें मौजूदा व्यवस्था को ही नए नाम से पेश कर दिया गया है.
 
बाकी कल...
 
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)

बुधवार, दिसंबर 28, 2011

लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और सरकार का अनिर्णय

सरकार और उद्योग जगत के बीच टकराव बढ़ रहा है


यह किसी से छुपा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों की शिकायत है कि उद्योग जगत देश में बेवजह निराशा और चिंता का माहौल बना रहा है. इसके कारण स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.

इस मामले में उद्योग जगत के नकारात्मक रवैये से प्रधानमंत्री इतने नाराज हैं कि उन्होंने देश के शीर्ष उद्योगपतियों के साथ एक हालिया बैठक में उन्हें झिड़कने से भी परहेज नहीं किया.

प्रधानमंत्री उद्योग जगत के उन बयानों से अधिक नाराज हैं जिनमें अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ को जिम्मेदार ठहराया गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों उद्योग जगत की इस राय से न सिर्फ इत्तेफाक नहीं रखते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि उनकी सरकार को बदनाम और अस्थिर करने की कोशिश हो रही है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसे बयानों से अनिश्चितता बढ़ती है. लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन बयानों से यह पता चलता है कि यू.पी.ए सरकार और उद्योग जगत के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है.

उल्टे ऐसा लगता है कि दोनों के बीच अविश्वास और टकराव बढ़ता जा रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को लेकर उद्योग जगत खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है.

उसे लगने लगा है कि यह सरकार जिस तरह से अपने ही अंतर्विरोधों में फंसती और अपना राजनीतिक इकबाल गंवाती जा रही है, उसके कारण आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का एजेंडा पीछे छूटता जा रहा है.

दरअसल, इस सरकार से उद्योग जगत को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. उद्योग जगत को विश्वास था कि वामपंथी पार्टियों के दबाव से मुक्त यू.पी.ए-२ सरकार न सिर्फ नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी बल्कि देश भर में नए औद्योगिक प्रोजेक्ट्स की राह में आ रही बाधाओं को भी हटाएगी.

लेकिन पिछले ढाई साल में यह सरकार उनमें से ज्यादातर अपेक्षाओं और उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई. इसके भी कारण किसी से छुपे नहीं हैं. एक तो यह सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण राजनीतिक रूप से घिर गई और आपसी झगडों में उलझ गई और दूसरी ओर, देश भर में जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण को लेकर किसानों-आदिवासियों और स्थानीय समुदायों का विरोध और संघर्ष तेज होता गया.

नतीजा, यह सरकार चाहकर भी उद्योग जगत की इच्छाएं पूरी नहीं कर पाई. यही नहीं, भ्रष्टाचार के मामलों में राजनेताओं और अफसरों के साथ उद्योग जगत की कई बड़ी हस्तियों को भी जेल जाना पड़ा है. इससे उद्योग जगत की बेचैनी बढ़ी है. आश्चर्य नहीं कि इसी निराशा और बेचैनी में उद्योग जगत का एक हिस्सा न सिर्फ सरकार की मुखर आलोचना करने लगा है बल्कि इस सरकार के राजनीतिक विकल्पों की खोज भी करने लगा है.

इसी प्रक्रिया में पिछले कुछ महीनों में उद्योग जगत की ओर से सरकार की आलोचना के स्वर मुखर हुए हैं. यही नहीं, कई बड़े उद्योगपतियों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की उम्मीदवारी को भी आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है.

जाहिर है कि इससे मनमोहन सिंह सरकार में नाराजगी है. लेकिन वह जानती है कि उद्योग जगत के नाराज करके सत्ता में टिके रहना मुश्किल है. इसलिए उसने उद्योग जगत को खुश करने की बहुत कोशिश की है. पिछले डेढ़ महीने में सरकार ने आनन-फानन में ऐसे कई फैसले किये जिनका असली मकसद बड़ी पूंजी को खुश करना है.

निश्चित ही, इनमें सबसे बड़ा फैसला खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत देने का था. लेकिन अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों और देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के कारण सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा.

इससे उद्योग जगत और सरकार के बीच खिंचाव और अविश्वास बढ़ा है. उद्योग जगत को लगता है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण फैसले के बचाव के लिए उतनी गंभीर कोशिश नहीं की जितनी परमाणु डील के समय की थी.

सरकार का तर्क है कि उद्योग जगत गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को समझ नहीं पा रहा है. इस तरह सरकार और उद्योग जगत के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है. इस टकराव के कारण जो ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति बन गई है, उसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि औद्योगिक उत्पादन दर के साथ-साथ जी.डी.पी की वृद्धि दर भी गिर रही है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश नहीं हो रहा है. घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के कारण बड़ी निजी पूंजी नया निवेश नहीं कर रही है.

इससे मांग भी मंद पड़ रही है. इस प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था एक तरह के दुष्चक्र में फंसती हुई दिखाई दे रही है. अगर अर्थव्यवस्था को इस दुष्चक्र से निकालने की तुरंत कोशिश नहीं की गई तो स्थिति सचमुच बद से बदतर हो सकती है.

अच्छी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति उतनी बुरी नहीं है जितनी गुलाबी अखबार और उद्योग जगत बताने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी इस कोशिश के पीछे उनका अपना एजेंडा है. वे सरकार पर दबाव बनाने और आर्थिक सुधारों की गति तेज करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन इससे स्थिति में कोई सुधार नहीं आनेवाला है. इसके उलट अगर सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह अर्थव्यवस्था खासकर आधारभूत ढांचे में सार्वजनिक निवेश को बढाकर अर्थव्यवस्था को संभाल सकती है.

लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार खुद नव उदारवादी सुधारों से इस कदर मोहग्रस्त है कि वह सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है.

इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी बिजनेस को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है. इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है.

लेकिन मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे के सामने है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है.

असल में , इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी.

लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए. यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है.

अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.

लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है. क्या सरकार इसके लिए तैयार है?

(दैनिक 'नया इंडिया' में २६ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' में २८ दिसंबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

शनिवार, दिसंबर 24, 2011

सरकार के न्यौते पर आई है औद्योगिक मंदी

सरकार के पास संसाधनों की नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है 



भारतीय अर्थव्यवस्था लड़-खड़ाकर पटरी से उतर रही है. यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे अनदेखा करना अब मुश्किल है. इसका सबसे ताजा सबूत यह है कि अक्टूबर महीने में औद्योगिक विकास की दर फिसलकर नकारात्मक हो गई है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, सवा दो वर्षों में पहली बार औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर अक्टूबर महीने में तेज गिरावट के साथ (–) ५.१ प्रतिशत रह गई है. पिछले वर्ष इसी महीने में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर ११.३ फीसदी थी.

औद्योगिक विकास की दर के नकारात्मक होने की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि इससे पहले अमेरिकी वित्तीय संकट और उसके कारण पैदा हुई वैश्विक मंदी के बीच औद्योगिक उत्पादन की दर दिसंबर’०८ से लगातार छह महीने तक नकारात्मक रही थी.

लेकिन इसमें चौंकानेवाली कोई बात नहीं है. सच यह है कि औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट की आशंका काफी पहले से जाहिर की जा रही थी. इसके संकेत भी पहले से मिलने लगे थे. जैसे, इससे ठीक पहले सितम्बर महीने में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर लुढ़ककर मात्र १.९ फीसदी रह गई थी.

यही नहीं, इस वित्तीय वर्ष में जुलाई से सितम्बर की तिमाही में औद्योगिक उत्पादन दर सिर्फ ३ फीसदी रही और अप्रैल से सितम्बर के बीच छह महीनों में औद्योगिक उत्पादन की दर सिर्फ ५ फीसदी रही जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में यह दर ८.२ फीसदी थी. साथ ही, इस वित्तीय वर्ष के पहले छह महीनों में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर सिर्फ ६.९ प्रतिशत रह गई है.

साफ़ है कि औद्योगिक उत्पादन में आई गिरावट न तो अचानक है और न ही अप्रत्याशित. लेकिन इस गिरावट की गहराई जरूर अप्रत्याशित और चिंतित करनेवाली है. यह गिरावट इसलिए भी गंभीर और चिंतित करनेवाली है क्योंकि गिरावट का दायरा और गहराई औद्योगिक उत्पादन के कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं है बल्कि उसके प्रभाव से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं बचा है.

उदाहरण के लिए, औद्योगिक उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण घटक मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में वृद्धि दर नकारात्मक (-) ६ फीसदी और खनन (माइनिंग) क्षेत्र में भी वृद्धि दर नकारात्मक (-) ७.२ फीसदी रही.

यही नहीं, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में भी किसी भी क्षेत्र- चाहे बेसिक गुड्स हो या इंटरमीडिएट गुड्स या कैपिटल गुड्स या फिर कंज्यूमर गुड्स में धनात्मक वृद्धि दर नहीं दर्ज की गई है. यहाँ तक कि पूंजीगत सामानों (कैपिटल गुड्स) की वृद्धि दर में सबसे तेज और भारी गिरावट दर्ज की गई है जहां ऋणात्मक वृद्धि दर (-) २५.५ तक पहुँच गई.

इसमें भी विद्युत मशीनरी और उपकरणों में (-) ५८.८ प्रतिशत और अन्य मशीनरी और उपकरणों में (-) १२.१ फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई है. दूसरी ओर, खनन क्षेत्र में गिरावट का आलम यह है कि चालू वित्तीय वर्ष में लगातार तीसरे महीने इस क्षेत्र में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की गई है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि संकट कितना गहरा और गंभीर है.

कहने की जरूरत नहीं है कि औद्योगिक उत्पादन में मौजूदा गिरावट के कई कारण हैं. अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजर इसका सारा दोष अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था के संकट और उसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में ठहराव और अनिश्चितता के मत्थे मढ़कर बच निकलने की कोशिश कर रहे हैं.

जबकि उद्योग जगत और गुलाबी अखबार इसका सारा ठीकरा यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ यानी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामी और रिजर्व बैंक की सख्त मौद्रिक नीति पर फोड़ रहे हैं. लेकिन न तो सरकार और न ही उद्योग जगत पूरी सच्चाई बता रहे हैं.

यह सच है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनिश्चितता और कमजोरी का भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ा है. इसका प्रभाव खासकर भारतीय निर्यात में आए गिरावट में दिख रहा है जिससे औद्योगिक उत्पादों के मांग में कमी आई है.

यह भी सही है कि पिछले डेढ़ साल से रिजर्व बैंक ने आसमान छूती मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए जिस तरह से ब्याज दरों में वृद्धि की है, उसके कारण नए निवेश खासकर निजी पूंजी निवेश में भारी गिरावट आई है जो औद्योगिक उत्पादन खासकर कैपिटल गुड्स में भारी गिरावट की एक बड़ी वजह है.

यही नहीं, नए निवेश में गिरावट की एक वजह सरकार का अनिर्णय और ‘नीतिगत पक्षाघात’ भी है लेकिन यह वह ‘पक्षाघात’ नहीं है जो उद्योग जगत और गुलाबी अखबार बता रहे हैं. दरअसल, औद्योगिक उत्पादन में ऋणात्मक वृद्धि की सबसे बड़ी और बुनियादी वजह यह है कि औद्योगिक उत्पादों की मांग में निरंतर और व्यापक वृद्धि का अभाव और इस कारण नए निवेश में वृद्धि का न होना.

इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं. इस मायने में इस औद्योगिक मंदी को सरकार ने निमंत्रित किया है. तथ्य यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अति व्यामोह (आब्सेशन) के कारण सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र को पूरी तरह से निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है. लेकिन निजी क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र खासकर आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखता है या अपनी शर्तों पर और भारी मुनाफे की गारंटी के साथ निवेश करना चाहता है.

केन्द्र और राज्य सरकारों ने ‘विकास’ के नाम पर देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी की इन मांगों को सहर्ष स्वीकार भी किया है लेकिन मुश्किल यह है कि आम लोग खासकर गरीब किसान, आदिवासी और हाशिए पर पड़े लोग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

इसका नतीजा यह हुआ है कि हाल के वर्षों में देश भर में जहां भी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी नई परियोजनाएँ शुरू करने की कोशिश कर रही है, स्थानीय जनता के साथ जल, जंगल और जमीन से लेकर खनिजों के दोहन को लेकर तीखा संघर्ष शुरू हो जा रहा है. लोगों की आजीविका से लेकर पर्यावरण के सवाल उठ रहे हैं. इसके कारण स्टील से लेकर बिजली और खनन से लेकर रीयल इस्टेट तक अनेकों बड़ी-छोटी परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं या उनमें काम की रफ़्तार बहुत धीमी है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन टकरावों में चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, वे बड़ी पूंजी के साथ खड़ी हैं. वे निजी पूंजी को हर तरह की रियायतें देने से लेकर उनपर सार्वजनिक संसाधनों को लुटाने (बतर्ज २ जी) में अब भी संकोच नहीं कर रही हैं. लेकिन दूसरी ओर, दमन के बावजूद गरीब लोग पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

उनके लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है. सरकार चाहकर भी उन्हें हटा नहीं पा रही है. दूसरी ओर, उद्योग जगत अभी भी गरीब किसानों की भावनाओं और जरूरतों को समझने के लिए तैयार नहीं है. वह न तो मुनाफे की भूख को कम करने के लिए राजी है और न ही अपने मुनाफे में स्थानीय समुदायों और गरीबों को उनकी न्यायोचित हिस्सेदारी देने के लिए तैयार है.

नतीजा यह कि एक गतिरोध बन गया है. इस गतिरोध को उद्योग जगत और उनके भोंपू गुलाबी अखबार ‘नीतिगत पक्षाघात’ बता रहे हैं और चाहते हैं कि सरकार न सिर्फ अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए और खोले बल्कि मौजूदा परियोजनाओं के रास्ते में आ रही बाधाओं को भी दूर करे.

यू.पी.ए सरकार अपनी ‘राजनीतिक और लोकतान्त्रिक मजबूरियों’ के बीच यह कोशिश भी कर रही है लेकिन उतनी कामयाब नहीं हो पा रही है जितनी उद्योग जगत अपेक्षा कर रहा है. जाहिर है कि इसके कारण निजी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.

लेकिन अब समय आ गया है जब सरकार और उद्योग जगत विकास के नाम पर विस्थापन और गरीबों की आजीविका छीनने और पर्यावरण को ठेंगा दिखाने की नीति से बाज आयें. साफ है कि औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में लोगों को बराबरी का हक दिए बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि निजी निवेश में कमी इस कारण भी आ रही है क्योंकि आधारभूत ढांचा क्षेत्र की लंबे अरसे से उपेक्षा और अपेक्षित निवेश न होने से निजी निवेश के लिए नए निवेश में अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं है.

ऐसे में, यह जरूरी है कि सरकार निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए अर्थव्यवस्था खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश बढ़ाए. इससे रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, उससे मांग बढ़ेगी और निजी क्षेत्र के निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनेगा. एक बात साफ़ है कि घरेलू मांग को बढ़ाए बिना औद्योगिक मंदी को रोक पाना असंभव है.

लेकिन जब भी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश और उसके जरिये मांग को बढ़ाने की बात होती है, सरकार तुरंत संसाधनों की कमी का रोना रोने लगती है.

लेकिन यह सच नहीं है. सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.

लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है.

उदाहरण के लिए, चीन इस समय अपने रेल नेटवर्क के भारी विस्तार में जुटा है. साथ ही, वह आधारभूत ढांचा में भारी निवेश के जरिये घरेलू मांग को बढ़ाने की नीति पर चल रहा है.

इस मामले में चीन से सीखने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह से बाहर आना पड़ेगा. क्या यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार है?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख: http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17 )

बुधवार, दिसंबर 21, 2011

कपिल सिब्बल को गुस्सा क्यों आता है?


कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना : आपत्तिजनक कंटेंट तो बहाना है, रैडिकल समूह असली निशाना हैं


संचार मंत्री कपिल सिब्बल फेसबुक, गूगल और याहू जैसे इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स से खासे नाराज हैं. उनकी नाराजगी की वजह खुद उनके मुताबिक यह है कि इन साइट्स पर ऐसा ‘बहुत कुछ आपत्तिजनक’ है जो न सिर्फ ‘भारतीय लोगों की संवेदनाओं और धार्मिक भावनाओं को चोट’ पहुंचा सकता है बल्कि दंगे-फसाद की वजह बन सकता है.

इसलिए सिब्बल साहब चाहते हैं कि ये साइट्स न सिर्फ ऐसे ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को तुरंत हटाएँ बल्कि ऐसी व्यवस्था करें कि इस तरह का ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट इन साइट्स पर अपलोड होने से पहले फिल्टर किया जाए.

लेकिन सिब्बल ने यह कहकर जैसे बर्र के छत्ते को छेड दिया. इंटरनेट और खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स की आभासी दुनिया से लेकर न्यूज चैनलों के स्टूडियो तक में हंगामा और बहसें शुरू हो गईं. सिब्बल के असली इरादों पर सवाल उठने लगे. माना गया कि वे इंटरनेट खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी सरकार और नेताओं की आलोचनाओं से बौखलाए हुए हैं.

यह भी कि सिब्बल सरकार विरोधी आन्दोलनों खासकर भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन में लोगों को जोड़ने और सक्रिय करने में इन साइट्स की उल्लेखनीय भूमिका से भी घबराए हुए हैं. इसी नाराजगी और घबराहट में वे इन साइट्स पर सेंसरशिप आयद करने और उन्हें काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.

हालांकि इन तीखी आलोचनाओं ने सिब्बल को सफाई पेश करने के लिए मजबूर कर दिया और वे अब दावा कर रहे हैं कि इंटरनेट पर सेंसरशिप थोपने का उनका कोई इरादा नहीं है. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कसमें भी खा रहे हैं.

सिब्बल का कहना है कि वे तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि ये साइट्स ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट के मामले में आत्म-नियमन (सेल्फ-रेगुलेशन) का पालन करें. अहा! सिब्बल साहब की इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए? बकौल ग़ालिब, ‘इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं.’

लेकिन सिब्बल, सिब्बल हैं. वे अपनी तलवार जितनी छुपाने की कोशिश करें, वह छुप नहीं पा रही है. वे एक ओर अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति अपनी वचनबद्धता की दुहाईयां भी दे रहे हैं लेकिन दूसरी ही सांस में इन साइट्स को चेताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं कि उन्हें ‘भारतीय संवेदनशीलताओं’ का ध्यान रखना होगा.

सिब्बल के मुताबिक, वे इन साइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को बर्दाश्त नहीं करेंगे. साफ़ है कि सिब्बल पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं. यह भी कि वे पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस तैयारी के तहत ही वे इन साइट्स पर धार्मिक भावनाओं को आहत करनेवाले कंटेंट पर अंकुश लगाने की आड़ ले रहे हैं. अन्यथा किसे पता नहीं है कि उनके गुस्से और घबराहट की असली वजह क्या है?

सिब्बल साहब मानें या न मानें लेकिन सच यह है कि वे मध्यवर्ग खासकर युवाओं के बीच सूचना, संवाद, चर्चा और संगठन के नए, ज्यादा खुले और वैकल्पिक मंच के बतौर उभरे इन साइट्स की बढ़ती लोकप्रियता से घबराए हुए हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार और व्यवस्था विरोधी रैडिकल समूहों और व्यक्तियों के लिए ये साइट्स मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया की तुलना में ज्यादा सुलभ और खुली हुई हैं. बेशक, इन समूहों की उपस्थिति ने इन साइट्स अभिव्यक्ति का वैकल्पिक मंच बना दिया है.

इन साइट्स के प्रति सिब्बल साहब के गुस्से की बड़ी वजह यही है. उनकी बौखलाहट इस खीज से निकली है कि अभी तक वे इस मंच को कारपोरेट मीडिया की तरह ‘मैनेज’ करने के तरीके नहीं खोज पाए हैं. इन मंचों पर उनकी घुसपैठ अभी सीमित है, उसे काबू में करने की तो बात ही दूर है.

लेकिन यह सिर्फ सिब्बल की खीज और गुस्सा नहीं है. सिब्बल सिर्फ एक प्रतीक भर हैं. असल में, सत्ता और व्यवस्था विरोधी समूहों ने दुनिया भर में जिस तरह से इंटरनेट और उसपर मौजूद ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे नए माध्यमों को लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने, महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुली चर्चाएँ छेड़ने और लोगों को संगठित करने के लिए इस्तेमाल किया है, उससे इस नए खतरे को लेकर सरकारों और शासक वर्गों की नींद खुल गई है.

नतीजा, भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के कपिल सिब्बल एकजुट हो रहे हैं. इसके साथ ही, इन नए माध्यमों को काबू करने, उनमें घुसपैठ करने, उन्हें मैनेज करने और उनकी निगरानी की कोशिशें बड़े पैमाने पर शुरू हो गईं हैं.

कहीं आतंकवाद से निपटने के नाम पर, कहीं धार्मिक भावनाओं की हिफाजत के बहाने और कहीं समाज को ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट से बचाने के नाम पर नए माध्यमों की घेराबंदी शुरू हो गई है. कहने की जरूरत नहीं है कि जब तक ये नए माध्यम लोगों के मनोरंजन, सतही चैट और सस्ती पोर्नोग्राफी के माध्यम थे, सत्ता और शासक वर्गों को कोई शिकायत नहीं थी.

लेकिन जैसे ही इन माध्यमों को सत्ता की पोल खोलने, वैकल्पिक विमर्शों और आन्दोलनों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, सरकारों को उनमें देश-समाज-समुदायों के लिए खतरा दिखने लगा है. वे इन माध्यमों खासकर इन्हें इस्तेमाल करने वाले समूहों/व्यक्तियों के खिलाफ टूट पड़ी हैं.

इस मायने में, आज जूलियन असान्जे और विकिलिक्स के साथ जो हो रहा है, वह सिर्फ ट्रेलर है. इससे निश्चय ही, कपिल सिब्बल जैसों की हिम्मत बढ़ी है. वे चुप नहीं बैठनेवाले हैं. हैरानी नहीं होगी, अगर आने वाले दिनों में इन साइट्स और उनसे ज्यादा इनका इस्तेमाल करनेवाले रैडिकल समूहों और व्यक्तियों पर सिब्बलों और उन जैसों की गाज गिरे.

बिहार में नितीश कुमार के ‘सुशासन’ की फेसबुक पर कलई खोलने वाले मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को जिस तरह से इसकी कीमत चुकानी पड़ी है, उससे साफ़ है कि इस मामले में कपिल सिब्बलों और नितीश कुमारों के बीच कोई फर्क नहीं है. यह भी कि आगे क्या होनेवाला है?

('तहलका' के ३१ दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ का पूरा हिस्सा)

मंगलवार, दिसंबर 13, 2011

महंगाई नहीं, मुद्रास्फीति कम हुई है

महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है


पिछले ढाई-तीन सालों से यू.पी.ए सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बनी हुई खाद्य मुद्रास्फीति की दर २६ नवंबर को खत्म हुए सप्ताह में गिरकर ६.६ प्रतिशत क्या हुई, सरकार के आर्थिक मैनेजरों के चेहरों पर न सिर्फ खुशी लौट आई है बल्कि उनमें अपनी और एक-दूसरे की पीठ थपथपाने की होड़ शुरू हो गई है.

यही नहीं, एक बार फिर से बड़बोले दावों का दौर शुरू हो गया है. दावा किया जा रहा है कि अगले मार्च तक थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य मुद्रास्फीति और आम मुद्रास्फीति की दर पूरी तरह से काबू में आ जायेगी और सात फीसदी से नीचे की आरामदेह स्थिति में होगी.

इसके साथ ही सरकार के राजनीतिक और आर्थिक मैनेजरों में महंगाई पर काबू पाने की चुनौती को लेकर एक निश्चिन्तता और खुशफहमी का भाव भी दिखाई पड़ने लगा है. हालांकि जल्दबाजी में महंगाई की आग में कई बार हाथ जला चुके ये मैनेजर खुलकर यह कह नहीं पा रहे हैं.

लेकिन उनके हालिया बयानों का निष्कर्ष यही है कि मुद्रास्फीति खासकर खाद्य मुद्रास्फीति न सिर्फ काबू में आ गई है बल्कि वह उतनी बड़ी आर्थिक समस्या नहीं रह गई है जितनी कि उसे लेकर राजनीतिक शोर मचाया जा रहा है. संसद में महंगाई पर हुई चर्चा में वित्त मंत्री के जवाब और सरकार द्वारा पेश अर्थव्यवस्था की छमाही समीक्षा में इसकी झलक देखी जा सकती है.

लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है. तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है.

यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

यह ठीक है कि अच्छे मानसून के कारण सब्जियों और कुछ खाद्य वस्तुओं की कीमतों में तात्कालिक तौर पर थोड़ी नरमी आई है लेकिन उससे महंगाई की आंच पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्कीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर ९ से १० फीसदी की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

अगर आप अब भी नहीं समझे तो इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ को इस तरह से समझिए. जैसे पिछले वर्ष किसी वस्तु/उत्पाद जिसकी कीमत १०० रूपये थी और उसकी कीमत में १० रूपये की वृद्धि हुई. इस तरह पिछले वर्ष उस वस्तु की मुद्रास्फीति वृद्धि दर १० फीसदी हुई. इस वर्ष उसकी कीमत में फिर ७ रूपये की वृद्धि हुई और उसकी कीमत बढ़कर ११७ रूपये हो गई लेकिन उसकी मुद्रास्फीति की दर में सिर्फ ६.३ फीसदी की वृद्धि दर्ज होगी.

इस तरह मुद्रास्फीति की दर में पिछले वर्ष के १० फीसदी की तुलना में इस वर्ष ६.३ फीसदी की दर काफी कम दिखाई देगी लेकिन वास्तविकता यह है कि आम उपभोक्ता के लिए उस वस्तु की कीमत में कोई कमी नहीं आई है और उसे अभी भी ऊँची कीमत चुकानी पड़ रही है.

जाहिर है कि इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ से अर्थशास्त्री और सरकार के आर्थिक मैनेजर खुश हो सकते हैं लेकिन इससे आम आदमी कैसे खुश हो सकता है? इसीलिए कहते हैं कि ‘झूठ, महाझूठ और सांख्कीय.’

अफसोस की बात यह है कि महंगाई के मामले में सरकारें इसी सांख्कीय झूठ का सहारा लेकर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं लेकिन दूसरी ओर, आम आदमी की पीठ महंगाई के बोझ से दोहरी होती गई है. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. वह भी इस आधार पर अपनी पीठ ठोंकने में जुट गई है कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि उसके इस दावे के पीछे महंगाई को कम करने की ठोस कोशिशों से ज्यादा उसी ‘सांख्कीय चमत्कार’ पर भरोसा है जिसके कारण मुद्रास्फीति की दर गिरकर फिलहाल ६.६ फीसदी हो गई है.

असल में, पिछले वर्ष आम मुद्रास्फीति की दर दिसम्बर से लेकर जनवरी तक क्रमश: ९.४५, ९.४७, ९.५७ और ९.६८ फीसदी थी. यही नहीं, वर्ष २०१० में इन्हीं महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १६ से २० फीसदी के बीच थी और पिछले वर्ष २०११ के इन महीनों में यह दर ७ से १० फीसदी के बीच थी. इसी आधार पर आर्थिक मैनेजरों को उम्मीद है कि इस साल दिसंबर से लेकर अगले साल के जनवरी-मार्च के महीनों में मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दूसरी बात यह है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य और आम मुद्रास्फीति की दर से वास्तविक महंगाई का इसलिए भी पता नहीं चलता है क्योंकि आम आदमी को खुदरा स्तर पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसमें और थोक मूल्य में काफी अंतर होता है.

यही नहीं, थोक मूल्य सूचकांक में आम आदमी की बुनियादी जरूरत की अधिकांश चीजों का भारांक कम है जिसके कारण उनकी कीमतों में वृद्धि सूचकांक में उस तीखेपन के साथ नहीं दिखाई पड़ती है जो आम आदमी को झेलनी पड़ती है.

इस कारण सरकार मुद्रास्फीति में कमी के आधार पर भले महंगाई में कमी के दावे करे लेकिन साफ़ है कि महंगाई के मामले में न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम लागू नहीं होता है. सच यह है कि महंगाई के मामले में इस नियम का उल्टा लागू होता है यानी जो कीमतें ऊपर जाती हैं, वे कभी नीचे नहीं आती हैं.

मुद्रास्फीति और महंगाई के इस खेल की यही कड़वी सच्चाई है जिसमें आंकड़े चाहे जो कहें, आम आदमी का कोई पुरसाहाल नहीं है. सच्चाई यह है कि महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है.

('नया इंडिया' में १२ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' के १३ दिसंबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

टोटकों से नहीं संभलेगी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था

मंदी का डर दिखाकर नव उदारवादी सुधारों को अनिवार्य साबित करने की कोशिश की जा रही है


भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी. की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है. यह पिछले दो वर्षों की किसी भी तिमाही की सबसे धीमी रफ़्तार है. इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर सिर्फ २.७ फीसदी रह गई है.

कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर भी घटकर ३.२ फीसदी रह गई है. दूसरी ओर, पिछले कई महीनों से आश्चर्यजनक रूप से लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहे निर्यात की वृद्धि दर में भी सुस्ती दिखाई पड़ने लगी है. अक्टूबर महीने में निर्यात की वृद्धि दर १०.८ प्रतिशत रह गई है.

यही नहीं, मुद्रास्फीति की वृद्धि दर में मामूली गिरावट के बावजूद खाद्य वस्तुओं की थोक मुद्रास्फीति दर ८ फीसदी पर बनी हुई है. इस बीच, रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति के साथ-साथ नया सिरदर्द डालर के मुकाबले रूपये की लगातार गिरती कीमत है. डालर के मुकाबले रूपया लुढकते हुए ५२ रूपये के नए रिकार्ड पर पहुँच गया है.

इसके साथ ही, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का बैरोमीटर माने-जानेवाले शेयर बाजार की हालत भी खस्ता है. विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) के भारतीय बाजारों से निकलने के कारण बाजार न सिर्फ कराह रहा है बल्कि डालर की मांग बढ़ने के कारण रूपये पर दबाव बढ़ रहा है.

जैसे इतना ही काफी न हो. रिपोर्टों के मुताबिक, सरकार की वित्तीय स्थिति भी काफी नाजुक है. राजस्व वृद्धि दर उम्मीदों से कम है जबकि खर्चों में वृद्धि की दर तेज है. इसके कारण अप्रैल से अक्टूबर के बीच सिर्फ सात महीनों में वित्तीय घाटे के लक्ष्य का ७४ फीसदी पूरा हो चुका है.

खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि इस साल वित्तीय घाटे को जी.डी.पी के ४.६ फीसदी के अनुमान के भीतर रख पाना संभव नहीं होगा. कई स्वतंत्र खासकर बाजार विश्लेषकों का मानना है कि वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ५ से लेकर ५.५ फीसदी तक पहुँच सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से आ रही इन नकारात्मक और बुरी ख़बरों से बाजार में घबड़ाहट और बेचैनी का माहौल है. बाजार से फील गुड फैक्टर गायब है और निराशा का माहौल हावी होता जा रहा है.

दूसरी ओर, देश में राजनीतिक अनिश्चितता और वैश्विक स्तर पर आर्थिक अनिश्चितता के कारण भी अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटकों में घबड़ाहट का माहौल है. इससे स्थिति और खराब होने की आशंका बढ़ती जा रही है.

इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में बहुत कुछ ‘मार्केट सेंटिमेंट’ पर चलता है. अगर बाजार में अनिश्चितता और निराशा का माहौल है तो निजी निवेशक नया निवेश नहीं करेंगे या निवेश के फैसले को स्थगित कर देंगे जिससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने लगती है.

ऐसे माहौल में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं. बाजार विश्लेषकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का आरोप है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार जिम्मेदार है जिसकी ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल बना है.

उनका यह भी कहना है कि मौजूदा स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि सरकार आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए. गुलाबी अख़बारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों के सम्मेलनों तक में इन मुखर आवाजों को सुना जा सकता है.

मजे की बात यह है कि सरकार में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजर भी काफी हद तक इन आरोपों और सुझावों से सहमत दिखते हैं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक पखवाड़े में यू.पी.ए सरकार ने बाजार में फील गुड का माहौल पैदा करने के लिए न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का फैसला किया बल्कि धड़ाधड़ कई फैसलों को एलान कर दिया. पेंशन, नई मैन्युफैक्चरिंग नीति से लेकर खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई जैसे कई फैसले बाजार और बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए ही किये गए हैं.

यू.पी.ए सरकार इन फैसलों के जरिये बाजार खासकर विदेशी पूंजी को यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि सरकार आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और उसके लिए राजनीतिक जोखिम भी उठाने को तैयार है.

हालांकि सरकार और बाजार विश्लेषक इन फैसलों के पक्ष में यह तर्क भी दे रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए एक बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है. इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.

इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.

जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं

लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर मनमोहन सिंह सरकार मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रही है.

बाजार को खुश करने के लिए जल्दबाजी में किये गए फैसलों से स्थिति नहीं सुधरने वाली है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं.

असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ के कारण भोजन के अधिकार से लेकर कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक बढ़ाने तक कई महत्वपूर्ण फैसले लटके हुए हैं. उदाहरण के लिए, भोजन के अधिकार को ही लीजिए, सरकार की हीलाहवाली और टालमटोल के कारण न सिर्फ करोड़ों गरीबों को भूखे पेट सोना पड़ रहा है बल्कि सरकार के अनाज भंडारों में रिकार्ड अनाज होते हुए भी एक ओर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है.

दूसरी ओर, सरकार की खाद्य सब्सिडी बढ़ रही है. यही नहीं, गोदामों में अनाज सड़ रहा है और सरकार कोई फैसला नहीं कर पा रही है.

इसके अलावा सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए भी तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.

खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.

जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.

लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा. वित्तीय घाटे की चिंता को छोड़ना होगा. क्या यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार है?

('नया इंडिया' के ५ दिसंबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का पूरा हिस्सा)

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

अपराध और दंड

जो दूसरों की आज़ादी के हक में नहीं खड़ा होता, उसे अपनी आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए



न्यूज चैनलों की ‘परपीड़क सुख’ की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है. अकसर देखा गया है कि चैनलों को दूसरों के दुःख या परेशानी या कष्ट की खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है. लेकिन कहते हैं कि कभी-कभी ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ जाता है. संयोग देखिए कि कोई और नहीं बल्कि ‘परपीडक सुख’ में सबसे अधिक मजा लेने वाला चैनलों का चैनल ‘टाइम्स नाउ’ पहाड़ के नीचे आ गया है.

हुआ यह कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी.बी. सावंत द्वारा दाखिल मानहानि के एक मुकदमे में पुणे की एक स्थानीय अदालत ने ‘टाइम्स नाउ’ पर १०० करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया है.


यही नहीं, इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट में ‘टाइम्स नाउ’ की अपील पर कोर्ट ने कोई राहत देने से पहले चैनल से कोर्ट में २० करोड़ रूपये और ८० करोड़ रूपये की बैंक गारंटी जमा करने का आदेश दिया है. चैनल ने इसके बाद राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि वह राहत के लिए हाई कोर्ट के पास ही जाए.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले ने न्यूज चैनलों के साथ-साथ सभी समाचार माध्यमों को सन्न कर दिया है. एडिटर्स गिल्ड से लेकर प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू तक अनेक मीडिया संगठनों और बुद्धिजीवियों ने इस फैसले की आलोचना की है. अरुण जेटली जैसे इक्का-दुक्का नेताओं ने भी इस फैसले से असहमति जाहिर की है.

लेकिन विरोध के सुर बहुत तीखे नहीं बल्कि दबे-दबे और कुछ सहमे-सहमे से हैं. विरोध में औपचारिकता अधिक है और गर्मी और शोर कम. यही नहीं, इस फैसले का विरोध जुर्माने की भारी राशि को लेकर ज्यादा है. सभी मान रहे हैं कि ‘टाइम्स नाउ’ से गलती हुई है और वह गलती जान-बूझकर नहीं हुई है.

ऐसे में, वे हर्जाने की इतनी भारी राशि को पचा नहीं पा रहे हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, मानहानि के किसी मुकदमे में यह पहला ऐसा मामला है जहां इतनी बड़ी राशि का हर्जाना ठोंका गया है. अच्छी बात यह है कि इस फैसले का किसी प्रमुख व्यक्ति ने खुलकर समर्थन नहीं किया है.

लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अलग-अलग कारणों से ‘टाइम्स नाउ’ पर ठोंके गए इस हर्जाने से अंदर ही अंदर खुश हैं. बहुतों को इसमें एक तरह का ‘परपीडक सुख’ मिल रहा है. यही कारण है कि देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के लिए गंभीर और गहरे निहितार्थों से भरे इस फैसले को लेकर वैसी बहस और चर्चा नहीं हो रही है, जैसीकि अपेक्षा थी.

यह संयोग नहीं है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने और बोलने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं या उतनी मुखर नहीं हैं जितनी अकसर दिखाई पड़ती हैं?

यह भी सिर्फ संयोग नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ पर मानहानि का मुकदमा करनेवाले जस्टिस पी.बी. सावंत सुप्रीम कोर्ट के उदार जजों में माने जाते रहे हैं जिन्होंने वायु तरंगों को सार्वजनिक संपत्ति घोषित करने का ऐतिहासिक फैसला दिया था. इस फैसले ने ही दूरदर्शन-आकाशवाणी को स्वायत्तता देने के साथ-साथ निजी न्यूज चैनलों के लिए प्रसारण को आसान बनाया था.

जस्टिस सावंत बाद में प्रेस काउन्सिल के मुखर और सक्रिय अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने हमेशा अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के हक में बोला और लिखा. आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन जैसे उदार जज को ‘टाइम्स नाउ’ के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

चैनलों के लिए यह सोच-विचार और आत्मावलोकन का समय है. मामला बहुत गंभीर है. उन्होंने अपने कारनामों से अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को खतरे में डाल दिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में पुणे कोर्ट का फैसला सिर्फ ‘टाइम्स नाउ’ तक सीमित मामला नहीं है.

यह एक तरह से टेस्ट केस है. अगर यह एक नजीर बन गई तो अख़बारों और चैनलों का आज़ादी और निर्भीकता के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा. इसका सबसे अधिक फायदा ताकतवर लोग और कंपनियां उठाएंगी. वे इस फैसले का दुरुपयोग चैनलों और न्यूज मीडिया को धमकाने और उनका मुंह बंद करने के लिए करने लगेंगे.

आश्चर्य नहीं होगा, अगर इस फैसले से प्रेरणा लेकर ताकतवर राजनेता, अफसर, कारोबारी और कम्पनियाँ सिर्फ परेशान करने के लिए चैनलों और अखबारों पर मुकदमे ठोंकने लगें. कितने अखबार और चैनल ये मुकदमे लड़ने के लिए संसाधन जुटा पायेंगे?

यही नहीं, आखिर कितने चैनल और अखबार १०० करोड़ रूपये का हर्जाना देकर चलते और छपते रह सकते हैं? ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कड़े मानहानि कानूनों के कारण पत्रकारिता के तेवर पर असर पड़ा है. समाचार कक्षों में वकील नए गेटकीपर बन गए हैं. खबरों को संपादकों के साथ-साथ वकीलों के चश्मे से भी गुजरना पड़ता है.

इससे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप की स्थिति पैदा हो जायेगी जो वाचडाग पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो सकती है. लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि चैनलों को मनमानी करने, जान-बूझकर किसी पर कीचड़ उछालने और लापरवाही करने की छूट देनी चाहिए.

निश्चय ही, चैनलों को खबरों और विजुअल के चयन और प्रस्तुति में तथ्यों, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे सम्पादकीय मूल्यों के पालन पर जोर देना चाहिए. गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए.

लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि तमाम सावधानियों के बावजूद समाचार संकलन और माध्यम के साथ-साथ पत्रकारों की सीमाओं के कारण चैनलों से गलतियाँ होना असामान्य बात नहीं हैं. अलबत्ता, ध्यान दिलाने पर उन गलतियों खासकर तथ्यों सम्बन्धी भूलों को तुरंत दुरुस्त न करना कहीं बड़ी गलती है जो चैनल की बदनीयती को जाहिर करता है.

जाहिर है कि बदनीयती का कोई इलाज नहीं है. ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए. लेकिन अपराध और सजा के बीच भी कोई अनुपात, संतुलन और तर्क होना चाहिए. कहने की जरूरत नहीं कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में अदालत के फैसले में यह संतुलन और अनुपात नहीं है.

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी की दुहाईयाँ देनेवाले चैनलों को इस बात का जवाब जरूर देना चाहिए कि वे खुद अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए मानहानि कानून की धमकी क्यों देने लगते हैं?

ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें ‘टाइम्स नाउ’ जैसे बड़े चैनलों ने मीडिया साइटों, ब्लाग लेखकों को ऐसे कानूनी नोटिस भेजे हैं. उनमें अपनी आलोचना सुनने को लेकर इतनी तंगदिली क्यों है? यही नहीं, ‘टाइम्स नाउ’ वह चैनल है जिसने कश्मीर मसले पर अरुंधती राय के बयान को देशद्रोह बताते हुए उनके खिलाफ अभियान चलाया था.

क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जो दूसरों की आज़ादी के हक में नहीं खड़ा होता, उसे अपनी आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए?

('तहलका' के १५ दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

शनिवार, दिसंबर 03, 2011

खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के बीच नूराकुश्ती हो रही है

राजनीति की कमान लोगों के हाथ में नहीं, बड़ी पूंजी के हाथ में है  




ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राजनीति पर से भी पकड़ छूटती जा रही है. इसका सबूत यह है कि राजनीति में उसकी टाइमिंग का सेंस न सिर्फ गड़बड़ा गया है बल्कि उसके फैसले उल्टे पड़ रहे हैं.

अगर ऐसा नहीं होता तो भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में उलझी और आसमान छूती महंगाई को काबू करने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार आग में घी डालने की तरह खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी विदेशी पूंजी की इजाजत देने का फैसला करने से पहले कई बार सोचती. उसके राजनीतिक नतीजों के बारे में चिंता करती.

लेकिन बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने की जल्दबाजी में उसने एक तरह से राजनीतिक आत्महत्या का रास्ता चुन लिया है. यह ठीक है कि खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने को लेकर यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों का जबरदस्त दबाव था.

इसके लिए बड़े देशी कारपोरेट समूहों से लेकर वालमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ काफी दिनों से लाबीइंग कर रही थीं. यहाँ तक कि पिछले साल भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी घरेलू खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का दबाव डाला था.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि रिलायंस, भारती, गोयनका, बिरला और टाटा जैसे कई बड़े देशी कारपोरेट समूहों ने भी खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की पैरवी कर रहे थे. इनमें से कई ने पहले से ही खुदरा व्यापार के क्षेत्र में दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ समझौता कर रखा है.

ये सभी बेचैन थे और सरकार पर जल्दी फैसला करने का दबाव बनाए हुए थे. इनकी बेचैनी का कारण यह था कि २००९ में दोबारा सत्ता में आई यू.पी.ए सरकार से उनकी उम्मीदें बहुत बढ़ गईं थीं. बड़े कारपोरेट समूहों को उम्मीद थी कि वामपंथी दलों के दबाव से मुक्त यू.पी.ए सरकार दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी.

लेकिन हुआ यह कि पिछले दो-ढाई सालों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच आपसी तनातनी, कांग्रेस पार्टी और सरकार में खींचतान और अन्ना हजारे और जन लोकपाल आंदोलन जैसी नई राजनीतिक चुनौतियों ने मनमोहन सिंह सरकार को ऐसा उलझाया कि वह चाहकर भी बड़े कारपोरेट समूहों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई.

जाहिर है कि इससे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की सरकार से नाराजगी बढ़ती जा रही थी. गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों की बैठकों में सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ के आरोप लगने लगे थे. यहाँ तक कि आमतौर पर सरकार की खुली आलोचना से बचनेवाले बड़े उद्योगपति जैसे टाटा, मुकेश अम्बानी, अजीम प्रेमजी, नारायणमूर्ति और सुनील मित्तल आदि हाल के महीनों में खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर करने लगे थे.

कहने का अर्थ यह कि सरकार भारी दबाव में थी. वह अपने ऊपर लग रहे ‘नीतिगत पक्षाघात’ के आरोपों से पीछा छुड़ाना चाह रही थी. इसके बावजूद सरकार ने जिस जल्दबाजी और झटके के साथ खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला किया है, उससे ऐसा लगता है कि उसे बड़े कारपोरेट समूहों की ओर से नोटिस मिल गई थी.

उसे यह भय सता रहा था कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों को नाराज करके सत्ता में टिके रहना मुश्किल होगा. हाल के महीनों में कई बड़े कारपोरेटों ने जिस तरह से भाजपा के नरेन्द्र मोदी की वाहवाही शुरू की है, उससे भी कांग्रेस में बेचैनी थी.

ऐसा लगता है कि इसी हताशा और हड़बड़ी में उसने बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए यह राजनीतिक जोखिम उठाने का फैसला कर लिया. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार का यह फैसला बड़ी पूंजी का खोया हुआ भरोसा जीतने की कोशिश है.

लेकिन बड़ी पूंजी के प्रति वफादारी निभाने के चक्कर में सरकार खासकर कांग्रेस ने राजनीतिक आत्मघात का रास्ता चुन लिया है. खासकर भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों से घिरी सरकार ने अपने लिए एक और गड्ढा खोद लिया है.

यही नहीं, उत्तर प्रदेश सहित राजनीतिक रूप से संवेदनशील कई राज्यों के विधानसभा चुनावों और संसद सत्र के ठीक पहले इस फैसले का औचित्य समझ से बाहर है.

साफ़ है कि सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. लेकिन इससे विपक्ष खासकर भाजपा को सरकार को घेरने का न सिर्फ एक और बड़ा मुद्दा मिल गया है बल्कि अपने वोट बैंक को कंसोलिडेट करने का अवसर भी हाथ आ गया है. क्या यू.पी.ए खासकर कांग्रेस को इस खतरे का अनुमान नहीं है?

सच यह है कि सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को इस फैसले के राजनीतिक जोखिम का अंदाज़ा भले न हो लेकिन आम कांग्रेसियों की बेचैनी से जाहिर है कि उन्हें अच्छी तरह पता है कि यह राजनीतिक रूप से बहुत ज्वलनशील मुद्दा है. सिर्फ छोटे-बड़े दुकानदार ही नहीं, गरीब रेहडी-पटरी वाले भी विरोध कर रहे हैं.

इसके बावजूद सरकार ने यह फैसला किया है तो इसका एक ही अर्थ है कि राजनीति की कमान बड़ी पूंजी के हाथों में है. उसमें लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए जगह नहीं रह गई है. असल में, नव उदारवादी अर्थनीति की यह सबसे बड़ी पहचान हो गई है.

मार्क्स ने ठीक कहा था कि ‘राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है.’ आश्चर्य नहीं कि भारतीय राजनीति की मुख्यधारा की सभी पार्टियां बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा जोर-शोर से आगे बढ़ाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और सुधारों का खुलकर समर्थन करती रही हैं.

भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है. सच यह है कि वह अपने को नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और सुधारों का असली चैम्पियन मानती है. आडवाणी ने बहुत पहले शिकायत की थी कि नव उदारवादी अर्थनीति मूलतः भाजपा(जनसंघ) की अर्थनीति है जिसे १९९१ में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने चुरा लिया था.

हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को जोर-शोर से आगे बढ़ाया गया और स्वदेशी को हाशिए पर डाल दिया गया था. मजे की बात यह है कि आज खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध में आसमान उठाये भाजपा तब इसकी घोषित समर्थक थी.

तथ्य यह है कि अगर २००४ के चुनावों में एन.डी.ए की हार नहीं होती तो चुनावों के तुरंत बाद वाजपेयी सरकार खुदरा व्यापार में कम से कम २६ फीसदी विदेशी पूंजी की इजाजत दे चुकी होती. भाजपा ने २००४ के चुनावों से पहले जारी विजन डाक्यूमेंट में इसका वायदा किया था.

तत्कालीन वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने कई अखबारों को दिए इंटरव्यू में भी इस वायदे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी. यही नहीं, इससे पहले २००२ में एन.डी.ए सरकार के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री मुरासोली मारन ने खुदरा व्यापार में १०० फीसदी विदेशी पूंजी का प्रस्ताव किया था जिसपर सरकार के एक जी.ओ.एम में विचार चल रहा था.

दूर क्यों जाएं, पिछले साल इस मुद्दे पर अपनी राय देते हुए भाजपा शासित गुजरात और पंजाब की राज्य सरकारों ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन किया था. यही नहीं, कई भाजपा शासित राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और पंजाब में भारती-वालमार्ट ने कैश और कैरी स्टोर्स खोल रखे हैं.

साफ है कि भाजपा खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की सिद्धांततः विरोधी नहीं है. हो भी नहीं सकती है. अगर आप नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकार हैं तो आप खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोधी नहीं हो सकते हैं क्योंकि यह फैसला इस अर्थनीति का ही तार्किक विस्तार है.

भाजपा ही क्यों, इस मुद्दे पर विरोध में बोल रहे तृणमूल, डी.एम.के और कुछ हद तक वाम पार्टियां भी अवसरवादी रुख अपनाती रही है. इनमें से अधिकतर नव उदारवादी अर्थनीति की समर्थक रही है. सच यह है कि या तो आप नव उदारवादी अर्थनीति के साथ हैं या फिर विरोधी हैं, किसी बीच की और ‘किन्तु-परन्तु’ के लिए जगह नहीं है.

इसलिए भाजपा का मौजूदा विरोध उसकी मौकापरस्ती की राजनीति का ही एक और उदाहरण है. असल में, इस विरोध के जरिये वह खुदरा व्यापार सहित अन्य मुद्दों पर सरकार के खिलाफ बन रहे जनमत को भुनाने की कोशिश कर रही है. एक मायने में विरोध का नाटक करके भाजपा यू.पी.ए सरकार के खिलाफ उठ रहे वास्तविक विरोध को हड़पने की कोशिश कर रही है.

लेकिन यह भाजपा भी जानती है कि बड़ी पूंजी के हितों को नजरंदाज करते हुए इस विरोध को बहुत आगे नहीं ले जा सकती है. आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ दिनों में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा बीच का रास्ता निकाल लें, जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों ‘देशहित’ में राजनीतिक जीत का दावा कर सकें.

लेकिन सब जानते हैं कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण दौर में ‘देशहित’ का असली मतलब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का हित हो गया है. इसलिए खुदरा व्यापार के मुद्दे पर भी इस नूराकुश्ती में जीत अंततः राजनीति की नहीं, बड़ी पूंजी की ही होगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के ३ दिसम्बर'११ अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित लेख का पूरा संस्करण)

शुक्रवार, दिसंबर 02, 2011

मीडिया का सांप्रदायिक पूर्वाग्रह साफ़ दिखता है

न्यूजरूम में मुसलमान पत्रकारों की कमी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को मजबूत करती है  

तीसरी और आखिरी किस्त



निश्चय ही, यह मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग का नतीजा है. इसी पूर्वाग्रह का विस्तार आम मुस्लिम मामलों, समस्याओं और मुद्दों की मीडिया और चैनलों में रिपोर्टिंग और कवरेज में भी दिखाई देती है. कभी गौर से देखिए कि चैनलों में मुस्लिम समुदाय से जुड़ी किस तरह की खबरों को सबसे ज्यादा कवरेज मिलती है?

यही नहीं, मुस्लिम मुद्दों पर समुदाय की राय पेश करने के लिए किन्हें अतिथि के बतौर बुलाया जाता है? आप पाएंगे कि मुस्लिम समुदाय के मुद्दों और समस्याओं के बतौर तलाक और शादी जैसे पर्सनल मामलों, मौलानाओं और मौलवियों द्वारा विभिन्न मामलों पर दिए जानेवाले फतवों, मस्जिद-कब्रिस्तान के झगडों आदि को ही उछाला जाता है.


इन रिपोर्टों से ऐसा लगता है जैसे मुसलमानों में सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य बुनियादी जरूरतों की कोई समस्या ही नहीं है. ऐसा नहीं है कि इन मुद्दों पर कभी रिपोर्ट नहीं आती है लेकिन ऐसी यथार्थपूर्ण रिपोर्टों और गढ़ी हुई अतिरेकपूर्ण रिपोर्टों के बीच का अनुपात ०५:९५ का है. यानी ९५ फीसदी रिपोर्टें एक खास पूर्वाग्रह और सोच के साथ लिखी और पेश की जाती है जो मुस्लिम समुदाय की स्टीरियोटाइप छवियों को ही और मजबूत करती है.

इस पूर्वाग्रह के पीछे एक बड़ा कारण यह माना जाता रहा है कि चैनलों के न्यूज रूम में पर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं है. इस कारण चैनलों की रिपोर्टिंग में वह सेंसिटिविटी नहीं दिखाई पड़ती है.

इसमें कोई शक नहीं है कि चैनलों के न्यूजरूम में मुस्लिम पत्रकारों की संख्या देश की आबादी में उनकी संख्या की तुलना में नगण्य है. निश्चित तौर पर इसका असर चैनलों की रिपोर्टिंग, उसके टोन और एंगल और दृष्टिकोण पर पड़ता है.

यही नहीं, चैनलों में जो मुस्लिम पत्रकार हैं भी, वे नीति निर्णय में प्रभावशाली पदों पर नहीं हैं. जो इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार संपादक हैं भी वे मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ने के डर से अपने चैनलों में कुछ भी अलग नहीं करते हैं.

यह सचमुच अफसोस की बात है कि हिंदी के जिन दो प्रमुख चैनलों में समाचार निदेशक और संपादक के पदों पर मुस्लिम पत्रकार हैं, उन चैनलों में भी आतंकवादी हमलों/बम विस्फोटों की रिपोर्टिंग और कवरेज उतनी ही पूर्वाग्रहग्रस्त, गैर जिम्मेदार, अतिरेकपूर्ण, सनसनीखेज और सांप्रदायिक होती है जितनी अन्य चैनलों की.

लब्बोलुआब यह कि मीडिया और न्यूज चैनलों में गहराई से बैठे सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और द्वेष के कारण मीडिया में मुस्लिम समुदाय और इस्लाम की ऐसी एकांगी छवि गढ़ी गई है जिसके कारण पूरा समुदाय और इस्लाम धर्म न सिर्फ निशाने पर है बल्कि अपने को अलग-थलग महसूस करने लगा है.

('कथादेश' के दिसंबर'११ अंक में प्रकाशित स्तम्भ की तीसरी और आखिरी किस्त)

गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

इस्लामी आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करने में लगा है मीडिया

पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की कहानियों पर कभी सवाल नहीं उठाते हैं चैनल

दूसरी किस्त

चिंता की बात यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों की इस पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग और कवरेज का नतीजा यह हुआ है कि पूरे मुस्लिम समुदाय की छवि आतंकवादी या आतंकवाद के समर्थक या उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले समुदाय की बना दी गई है. यही नहीं, ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ऐसा हौव्वा खड़ा किया गया है जिसकी आड़ में पिछले एक-डेढ़ दशक में होनेवाली हर आतंकवादी घटना को बिना किसी जांच-पड़ताल के इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ देना बहुत आसान हो गया है.

यहाँ तक कि कई मामलों में अपनी नाकामी को छुपाने के लिए पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियां भी मीडिया की इस कमजोरी का फायदा उठाकर बम विस्फोटों और आतंकवादी हमलों का दोष मुस्लिम तंजीमों पर थोपती रही हैं और निर्दोष मुस्लिम युवाओं को इन हमलों में शामिल बताकर पकड़ती और अपनी पीठ ठोंकती रही हैं.


ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें निर्दोष मुस्लिम युवाओं को आतंकवादी बताकर पकड़ा गया और मीडिया ने बिना किसी छानबीन और पड़ताल के पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्टों पर आँख मूंदकर भरोसा किया.

यही नहीं, न्यूज चैनलों में ख़ुफ़िया एजेंसियों और पुलिस द्वारा मुहैया कराई गई आधी-अधूरी, गढ़ी हुई और सच्ची-झूठी जानकारियों में और नमक-मिर्च लगाकर उसे एक्सक्लूसिव और खोजी रिपोर्ट के बतौर पेश करने की होड़ भी लगी रहती है. इसमें वे निर्दोष मुस्लिम युवाओं को पुलिस से आगे बढ़कर बिना किसी ट्रायल के ही आतंकवादी घोषित कर देते हैं. उनके खिलाफ पूरा मीडिया ट्रायल चलता है जिसके कारण आम जनमत के साथ-साथ न्यायपालिका भी प्रभावित हो जाती है.

हालत यह हो जाती है कि आतंकवादी घोषित कर दिए गए इन मुस्लिम युवाओं को निष्पक्ष ट्रायल के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है. उन्हें वकील तक नहीं मिलते हैं. कोई वकील उनका मुकदमा नहीं लड़ना चाहता है और जो लड़ता है, उसे भी आतंकवादियों के समर्थक या उनसे सहानुभूति रखनेवाले के बतौर पेश किया जाता है.

इसके बावजूद ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें फर्जी सबूतों और कमजोर जांच के कारण अदालतों ने आतंकवादी घोषित किये गए युवाओं को निर्दोष बताकर रिहा कर दिया. लेकिन इन युवाओं के लिए एक सामान्य जीवन शुरू कर पाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि मीडिया ने उनकी जो छवि बना दी होती है, उस दाग को छुडा पाना आसान नहीं होता है.

इस मामले में कश्मीरी पत्रकार इफ्तेखार गिलानी की गिरफ्तारी और फिर उन्हें मीडिया के जरिये आतंकवादी और देशद्रोही घोषित करने के मामले का उल्लेख जरूरी है. गिलानी ने अपनी किताब में विस्तार से बताया है कि कैसे मीडिया ने उनके बारे में झूठी और गढ़ी हुई ‘खबरें’ पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों के हवाले से छापीं और दिखाईं जिसके कारण बनी उनकी छवि के कारण जेल में उनकी पिटाई होती थी.

अभी हाल में, मालेगांव बम विस्फोट मामले में पिछले पांच वर्ष से गिरफ्तार कोई आधा दर्जन मुस्लिम युवकों को जमानत पर छोड़ना पड़ा है क्योंकि यह सच्चाई सामने आ चुकी है कि इस मामले में असली मुजरिम हिंदू उग्रवादी संगठन हैं. हैदराबाद के मक्का मस्जिद मामले में भी यही हुआ था.

इन मामलों ने यह साबित कर दिया है कि पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों का किस हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है. वे मीडिया और न्यूज चैनलों के जरिये खुद अपने ही फैलाये झूठ पर इतना विश्वास करने लगी हैं कि किसी भी आतंकवादी हमले या बम विस्फोट के बाद उनका सबसे पहला शक मुसलमानों खासकर मुस्लिम युवाओं पर जाता है.

इस कारण हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ी है जिनमें अपनी नाकामयाबी छुपाने और वाहवाही लूटने (ईनाम और प्रोमोशन) के लिए वे बिना किसी ठोस सबूत और जांच-पड़ताल के निर्दोष मुस्लिम युवाओं को पकड़ने में भी हिचकिचा नहीं रहे हैं. ऐसे मामले अक्सर अदालतों में मुंह के बल गिर रहे हैं लेकिन इससे उनके रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.

दरअसल, पुलिस, स्पेशल सेल, ए.टी.एस और अन्य ख़ुफ़िया एजेंसियों का साहस इसलिए भी बढ़ा हुआ है क्योंकि उन्हें मीडिया और न्यूज चैनलों का समर्थन मिला हुआ है. इक्का-दुक्का चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश न्यूज चैनलों ने आतंकवादी हमलों और बम विस्फोटों से लेकर इन मामलों में कथित दोषियों और आतंकवादी प्लाटों के कथित भंडाफोड के बाद होनेवाली गिरफ्तारियों तक के बारे में पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की ‘कहानियों’ की न तो कभी स्वतंत्र जांच-पड़ताल करने और उनपर सवाल उठाने की कोशिश की और न ही कभी निर्दोष युवकों की खोज-खबर लेने की जरूरत समझी.

असल में, इस ‘इस्लामी आतंकवाद’ का हौव्वा खड़ा करने के मामले में अखबार और चैनल और राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सभी प्रकार के समाचार माध्यमों का रवैया कमोबेश एक समान ही रहता है. हालांकि इस हौव्वे को खड़ा करने में सबसे बड़ी भूमिका सरकार, शासक और सांप्रदायिक दलों और सुरक्षा-ख़ुफ़िया एजेंसियों की है.

लेकिन उनके इस प्रोपेगंडा अभियान के सबसे बड़े और विश्वसनीय भोंपू के बतौर मुख्यधारा के न्यूज चैनलों समेत समूचे समाचार मीडिया की सक्रिय भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. यहाँ तक कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ के भूत को खड़ा करने के लिए न्यूज चैनलों और अखबारों ने अक्सर खबरें ‘गढ़ने’ और ‘बनाने’ में भी संकोच नहीं किया है.

चैनल और अखबार यह हौव्वा कैसे खड़ा करते हैं, इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है, पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपद आजमगढ़ को ‘आतंकगढ़’ और ‘आतंकवाद की नर्सरी’ घोषित कर देना. आजमगढ़ पर मीडिया की अतिरेक भरी रिपोर्टिंग के कारण जिले की ऐसी छवि गढ़ी गई, गोया यहाँ का हर युवा आतंकवादी हो गया हो.

नतीजा, आजमगढ़ के हर मुसलमान पर आतंकवादी या उसका समर्थक होने का शक किया जाने लगा. यहाँ की ऐसी छवि बन गई है कि यहाँ के मुस्लिम युवाओं के लिए जिले से बाहर जाकर पढाई और रोजगार करना मुश्किल हो गया है. उन्हें दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में किराये पर घर तक नहीं मिलते. यहाँ तक कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

इसी तरह, मीडिया की एकतरफा और अतिरेकपूर्ण कवरेज ने मदरसों की ‘इस्लामी आतंकवाद की नर्सरी’ की ऐसी छवि गढ़ दी है जिससे आम जनमानस मदरसों को शक की निगाह से देखने लगा है. मदरसों की यह छवि इतनी स्टीरियोटाइप है कि आम जनमानस को यह लगता है कि मदरसों में बच्चों को केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है, कुरआन पढाया जाता है, उनमें धार्मिक असहिष्णुता और घृणा के बीज बोये जाते हैं और दकियानूसी सोच भरी जाती है.

खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में जब भी मदरसों पर कोई रिपोर्ट दिखाई जाती है उसमें एक खास विजुअल को ही बार-बार चलाया जाता है जिसमें टोपी लगाये बच्चों को कतार में बैठकर जोर-जोर से धार्मिक ग्रन्थ पढते हुए दिखाया जाता है.

जारी...

('कथादेश' के दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी किस्त)