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गुरुवार, अक्टूबर 31, 2013

बढ़ती महंगाई छीन रही है गरीबों के मुंह से निवाला

सरकार माने या न माने लेकिन सीधा रिश्ता है महंगाई और भूख के बीच

एक बार फिर से तेज आर्थिक विकास के दावों और उछलते शेयर बाजार की खबरों के बीच वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की ६३वें स्थान पर मौजूदगी और दुनिया में भूखमरी के शिकार लोगों में एक चौथाई के भारत में होने की रिपोर्ट एक रुटीन खबर की तरह आई और चली गई.
लगा नहीं कि इस रिपोर्ट से कहीं कोई बेचैनी हुई और नीति नियंताओं को कोई शर्म महसूस हुई. इस मुद्दे पर हर ओर छाई एक ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ को समझना मुश्किल नहीं है.  
यहाँ तक कि हर रात प्राइम टाइम में ‘देश की अंतरात्मा’ की नई ‘आवाज़’ बन गए टी.वी एंकरों ने भी नीति नियंताओं को कटघरे में खड़ा करने और ‘देश उनसे जानना चाहता है’ (नेशन वांट्स टू नो) की तर्ज पर तीखे सवाल पूछने की जरूरत नहीं समझी. ठीक भी है कि खाए-पीये-अघाये उच्च मध्यवर्ग और उनके नुमाइंदे एंकरों के लिए २१ करोड़ भारतीयों की भूख कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.

हैरानी की बात नहीं है कि जब यह रिपोर्ट आई कि भूखमरी के सूचकांक में भारत सब सहारा अफ्रीका के इथियोपिया, सूडान, चाड और नाइजर जैसे देशों की कतार में खड़ा है, उसी के आसपास एक और रूटीन खबर आई और चली गई कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की वृद्धि दर बढ़कर ६.४६ प्रतिशत पहुँच गई है जोकि पिछले सात महीने की सबसे ऊँची दर है. इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई वृद्धि दर वास्तव में आसमान छू रही है और १८ फीसदी तक पहुँच गई है.
हालाँकि यू.पी.ए सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी लेकिन इन दोनों खबरों के बीच सीधा संबंध है. आसमान छूती महंगाई और भूखमरी सूचकांक पर भारत के लगातार शर्मनाक प्रदर्शन के बीच गहरा संबंध है.

असल में, महंगाई गरीबों पर अतिरिक्त टैक्स की तरह है जो उनसे उनकी रही-सही क्रयशक्ति भी छीन लेती है. महंगाई बाजार की वह व्यवस्था है जिसके जरिये गरीबों को बाजार से बाहर कर दिया जाता है. इसके कारण उसकी बढ़ी हुई कमाई भी उसकी भूख मिटाने में नाकाम रहती है और भोजन उसकी पहुँच से और बाहर हो जाता है. 

लेकिन लगातार ऊँची महंगाई और भूख के बीच इस सीधे रिश्ते को नीति नियंता स्वीकार नहीं करते हैं. इस मुद्दे पर उनकी उलटबांसियां हैरान करनेवाली है. भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति नियंताओं का दावा है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गरीबों की आय बढ़ी है और इस कारण खाद्य वस्तुओं की मांग पर दबाव बढ़ा है और महंगाई बढ़ रही है.
याद कीजिए, कुछ वर्ष पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने एक बहुत हास्यास्पद बयान में कहा था कि दुनिया भर में खाद्यान्नों की कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि भारत-चीन में लोग ज्यादा खाने लगे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भी बुश के बहुतेरे प्रशंसक हैं खासकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में. आश्चर्य नहीं कि जब यह तथ्य सामने रखा गया कि भारत में प्रति व्यक्ति अनाजों की उपलब्धता लगातार घट रही है तो इसी से मिलता-जुलता तर्क दिया गया था कि आय बढ़ने के साथ लोगों के खानपान के तरीकों और रुचियों में बदलाव आया है और लोग रोटी-चावल-दाल के बजाय अब प्रोटीन की चीजें जैसे दूध-अंडे-मांस-मछली ज्यादा खा रहे हैं.

यह तर्क फ्रेंच महारानी मैरी की उस मानसिकता से अलग नहीं है जिसमें उसने लोगों को रोटी न मिलने की शिकायत पर केक खाने की सलाह दी थी.

तथ्य यह है कि खुद सरकार की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण गरीबों के भोजन में कुल कैलोरी और प्रोटीन के उपभोग में कमी आई है. इसी तरह आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति अनाजों और दलों की उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है.
उदाहरण के लिए, १९८७-९१ के बीच औसतन प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता ४४० ग्राम और दाल ४० ग्राम थी जो २००७-१० के बीच औसतन ४०४ ग्राम और ३६ ग्राम रह गई है. हालाँकि ये आंकड़े भी सच्चाई बयान नहीं करते क्योंकि इसमें निजी व्यापारियों के पास उपलब्ध अनाजों को जोड़ने के अलावा संपन्न वर्गों के अति उपभोग को भी शामिल किया गया है.
दरअसल, सच्चाई यह है कि पिछले दो दशकों में ऊँची वृद्धि दर के साथ ऊँची महंगाई दर ने लोगों के मुंह से निवाला छीन लिया है. इन वर्षों में गरीबों की आय में जो मामूली वृद्धि हुई, वह भी ऊँची महंगाई ने लील ली है.

यही कारण है कि ऊँची वृद्धि दर के बावजूद देश में न सिर्फ कुपोषण कम नहीं हो रहा है बल्कि बाल मृत्यु दर भी ऊँची बनी हुई है और भारत भूखमरी सूचकांक में सब सहारा देशों के साथ खड़ा है.

हैरानी की बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतों में १६ फीसदी, चावल में २३ और मक्के में ३५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई लेकिन भारत में रिकार्ड अनाज पैदावार और सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज भण्डार के बावजूद खादयान्नों की कीमतों में कोई गिरावट नहीं आई है.

ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, महंगाई कम करने के सरकार के तमाम दावों के बावजूद उपभोक्ता मूल्य सूचकांक लगातार दोहरे अंकों के आसपास बना हुआ है और सितम्बर महीने में यह बढ़कर ९.८४ प्रतिशत तक पहुँच गया है.
यही नहीं, खेतिहर श्रमिकों और ग्रामीण श्रमिकों के लिए खुदरा महंगाई की दर सितम्बर महीने में १२ फीसदी से ऊपर दर्ज की गई है. इस महंगाई दर खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई के साथ सबसे खास बात यह है कि पिछले चार-पांच सालों से यह लगातार दोहरे अंकों में बनी हुई है.
इसकी सबसे अधिक कीमत जाहिर है कि गरीबों खासकर पहले से भूखमरी के शिकार लोगों को उठानी पड़ रही है. इसका सबूत यह है कि गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के कुल आय और उपभोग का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करना पड़ रहा है. इस कारण लोगों को अपनी बचत से लेकर बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में कटौती करनी पड़ रही है.

आश्चर्य नहीं कि चुनावों के मद्देनजर हो रहे सभी जनमत सर्वेक्षणों में आमलोग सबसे बड़े मुद्दों में की सूची में महंगाई को सबसे ऊपर बता रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह महंगाई लोगों को इसलिए ज्यादा चुभ और परेशान कर रही है क्योंकि इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई की सबसे बड़ी भूमिका है और यह गरीबों की बड़ी संख्या को भूखमरी की ओर ढकेल रही है.          

इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भोजन के अधिकार के कानून और गरीबों की बड़ी संख्या को सस्ती दरों पर अनाज मुहैया कराने के दावों के बावजूद यह सबक याद रखना जरूरी है कि खाद्य वस्तुओं की ऊँची महंगाई पर रोक नहीं लगाई गई तो शोध बताते हैं कि पीडीएस का अनाज चोरबाजारी के जरिये बाजार में पहुँचने लगता है और नतीजे में, खाद्यान्नों की उठान भी गिर जाती है.
दूसरी ओर, गरीबों को उसी अनाज की ऊँची कीमत चुकानी पड़ती है. साफ़ है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर लगाम लगाये बगैर गरीबों को भूखमरी की मार से बचा पाना मुश्किल है.       
( 'शुक्रवार' के ३१ अक्टूबर के अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, जुलाई 19, 2012

रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार के बीच आसमान छूती महंगाई

नीतिगत लकवे के कारण महंगाई बढ़ रही है    

आंकड़ों के बारे में आपने यह मसल जरूर सुनी होगी- झूठ, महाझूठ और आंकड़े! इन दिनों महंगाई के आंकड़ों पर यह मसल कुछ ज्यादा ही सटीक बैठती है. आम आदमी आसमान छूती महंगाई की मार से भले त्रस्त हो लेकिन मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, मई की तुलना में जून महीने में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू.पी.आई) पर आधारित महंगाई की दर में मामूली कमी दर्ज की गई है और मुद्रास्फीति दर मई के ७.५५ फीसदी से घटकर ७.२५ फीसदी हो गई है.
जाहिरा तौर पर मंत्रियों और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के चेहरों पर मुस्कराहट लौट आई है लेकिन अधिकांश विश्लेषक मुद्रास्फीति दर में आई गिरावट से हैरान है क्योंकि वे उसमें मामूली बढोत्तरी की आशंका जता रहे थे. समाचार एजेंसी रायटर्स के एक सर्वेक्षण में विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों ने जून में मुद्रास्फीति की दर ७.६२ फीसदी रहने का अनुमान लगाया था.
सवाल है कि यह चमत्कार कैसे हुआ? असल में, इसका वास्तविक महंगाई से कम और सांख्यकी से ज्यादा संबंध है. सच पूछिए तो यह एक सांख्यिकीय चमत्कार है. पिछले साल की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल की वृद्धि प्रतिशत में कम दिखाई देती है. इसे अर्थशास्त्र में हाई बेस प्रभाव यानी आधार वर्ष में ऊँची दर का असर कहते हैं. चूँकि पिछले वर्ष जून महीने में थोक मुद्रास्फीति दर ९.५१ फीसदी थी, इसलिए इस साल की बढोत्तरी तुलनात्मक रूप से खासी कम दिखाई दे रही है.

दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़े अस्थाई हैं और दो महीने बाद जारी होनेवाले मुद्रास्फीति के संशोधित आंकड़ों में आमतौर पर बढोत्तरी का रुझान देखा गया है. जैसे जून के थोक मुद्रास्फीति दर के साथ-साथ अप्रैल महीने की मुद्रास्फीति की दर (अस्थाई) को ७.२३ फीसदी से संशोधित करके ७.५० फीसदी कर दिया गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि दो महीने बाद जून के मुद्रास्फीति के वास्तविक आंकड़े मौजूदा दर से ऊँचे रह सकते हैं.

तीसरी बात यह है कि जून महीने के थोक मुद्रास्फीति के आंकड़ों की अगर बारीकी से छानबीन की जाए तो साफ़ है कि खाद्य मुद्रास्फीति की दर अभी भी न सिर्फ ऊँची बनी हुई है बल्कि मई की तुलना में जून में उसमें बढ़ोत्तरी भी हुई है. मई में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १०.७४ फीसदी थी जो जून महीने में बढ़कर १०.८१ फीसदी हो गई है.
इसमें भी सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि जून महीने में चावल की कीमतों में ६.७ फीसदी, गेहूं में ७.४६ फीसदी, दालों में ६.८२ फीसदी और सब्जियों में २०.४८ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. इससे साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई की आग सिर्फ सब्जियों-फलों तक सीमित नहीं है बल्कि आम आदमी की थाली के सबसे बुनियादी अनाजों- गेहूं-चावल-दाल की कीमतों में भी भभक रही है.
खाद्यान्नों की यह महंगाई इसलिए ज्यादा हैरान करनेवाली है क्योंकि इस समय सरकार के गोदामों में रिकार्ड ८.२ करोड़ टन अनाज का भण्डार है. वैसे सरकार के पास केवल ६.४ करोड़ टन अनाज के भंडारण की व्यवस्था है. मजे की बात यह है कि इस साल सरकार ने ३.८ करोड़ टन गेहूं की खरीद की है. इसका अर्थ यह हुआ कि कोई १.८ करोड़ टन अनाज असुरक्षित भण्डारण के कारण बर्बाद या खराब हो सकता है.

इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल महंगाई से लड़ने में करने में नाकाम रही है. वह चाहती तो इस अनाज भण्डार से महंगाई खासकर खाद्यान्नों की महंगाई पर अंकुश लगा सकती थी. लेकिन इसके उलट अनाज का यह रिकार्डतोड़ भण्डार खाद्यान्नों की महंगाई की बड़ी वजह बन गया है.

असल में, यह यू.पी.ए सरकार के खाद्य प्रबंधन की नाकामी है. वह इस तरह कि इस समय सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है. जब सरकार खुद ६८२ लाख टन अनाज दबा कर बैठ जाएगी तो बाजार में एक कृत्रिम किल्लत पैदा होना तय है जिसका फायदा खाद्यान्नों के बड़े व्यापारी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उठा रही हैं.
यू.पी.ए सरकार चाहती तो वह इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत लागू करके अनाज को जरूरतमंदों तक पहुंचा सकती थी बल्कि उसे नियंत्रित और सस्ती कीमतों पर खुले बाजार में उतारकर अनाजों की महंगाई को काबू में कर सकती थी. कहने की जरूरत नहीं है कि अनाजों की महंगाई पर अंकुश से सब्जियों की महंगाई पर भी अंकुश लगाने में मदद मिलती क्योंकि इससे मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं पर अंकुश लगता और सट्टेबाज-मुनाफाखोर हताश होते.
लेकिन यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है, भले ही अनाज खुले में सड़ या बर्बाद हो जाए या उसे चूहे खा जाएँ. सरकार की इस अनिच्छा और उदासीन रवैये के पीछे एकमात्र कारण राजकोषीय घाटे को कम करने और इसके लिए खाद्य सब्सिडी को कम से कम रखने की जिद है.

इसका कोई समझदार अर्थशास्त्रीय या राजनीतिक तर्क नहीं है लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अतिरिक्त व्यामोह और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश रखने के लिए यू.पी.ए सरकार जिद पर अड़ी हुई है. वह न सिर्फ गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज देने में आनाकानी कर रही है बल्कि वाजिब दामों पर बाजार में अनाज उतारने से भी हिचकिचा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार के इस ‘नीतिगत लकवे’ का फायदा अनाजों के बड़े सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं. यही नहीं, गोदामों में रिकार्डतोड़ अनाज रखने के कारण उसके रखरखाव पर भारी खर्च हो रहा है और अनाज सड़ और बर्बाद भी हो रहा है, उसके कारण सरकार का खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ता ही जा रहा है.
दूसरी ओर, खाद्य वस्तुओं की महंगाई भी बेकाबू बनी हुई है. सच पूछिए तो ‘रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार और ऊँची खाद्य मुद्रास्फीति दर’ की मौजूदा परिघटना एक पहेली बन चुकी है. लेकिन यह पहेली वास्तव में, यू.पी.ए सरकार की नव उदारवाद नीतियों की ऐसी नाकामी है जिसकी असली कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
इस सबके बीच इस साल मॉनसून के धोखा देने की बढ़ती आशंका और उसके कारण खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर बढ़ते दबाव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है. पिछले दस दिनों में सब्जियों की कीमतों में जो उछाल दिखा है, वह जल्दी ही खाद्यान्नों की कीमतों में भी दिखाई पड़ने लगेगी. सट्टेबाज और जमाखोर सरकार के रूख पर नजर लगाये हैं.

अगर वह अब भी अपने नीतिगत लकवे से बाहर नहीं निकली तो उसका सबसे अधिक फायदा अनाजों के व्यापार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ और व्यापारी उठाएंगे और आमलोग उसकी कीमत चुकायेंगे. इस मायने में पिछले कुछ दिनों में सब्जियों/खाद्यान्नों की कीमतों में हुई भारी बढ़ोत्तरी यू.पी.ए सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

इसलिए उसे जून के मुद्रास्फीति के भ्रामक आंकड़ों में राहत महसूस करने और झूठे दावे करने के बजाय पिछले कुछ दिनों में सब्जियों से लेकर खाद्यान्नों की कीमतों में आई बेतहाशा उछाल को लेकर सतर्क और सक्रिय होना चाहिए.
अगर उसने इस रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार का अब भी इस्तेमाल नहीं किया तो पूछा जाना चाहिए कि आम आदमी के पैसे से बना यह अनाज भण्डार किस दिन और काम के लिए है?
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 17 जून के अंक में आप-एड पर प्रकाशित लेख)                      

                              

गुरुवार, अप्रैल 26, 2012

गई नहीं महंगाई

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है यू.पी.ए सरकार  मुद्रास्फीति के आंकड़ों में अपनी विफलता छुपाने की कोशिश कर रही है

महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों की लीला अद्दभुत है. इस लीला के कारण यह संभव है कि मुद्रास्फीति की दर कम हो लेकिन आप महंगाई की मार से त्रस्त हों. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार दावे कर रही है कि महंगाई काबू में आ गई है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर धीरे-धीरे नीचे आ रही है.

सरकार के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में सात फीसदी से भी नीचे ६.४३ प्रतिशत पर पहुँच गई है. लेकिन इन दावों के विपरीत आम आदमी को आसमान छूती महंगाई से कोई राहत नहीं मिली है. उल्टे पिछले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं खासकर फलों-सब्जियों से लेकर दूध तक की कीमत में जबरदस्त उछाल के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया है.

ऐसा नहीं है कि यह महंगाई आंकड़ों में नहीं दिख रही है. यह और बात है कि सरकार उसे न तो खुद देखना चाहती है और न लोगों को देखने देना चाहती है. लेकिन अगर थोड़ा बारीकी से और उचित सन्दर्भ में देखा जाए तो त्रस्त करनेवाली यह महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी दिख रही है. उदाहरण के लिए, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च महीने में उछलकर ९.४७ प्रतिशत पर पहुँच गई.

यही नहीं, शहरी इलाकों में यह दर दोहरे अंकों में १०.३ फीसदी तक पहुँच गई है जबकि ग्रामीण इलाकों में भी बढ़कर ८.७९ प्रतिशत हो गई है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक वह सूचकांक है जो खुदरा कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन ज्यादा है. इसके उलट थोक मूल्य सूचकांक थोक कीमतों पर आधारित है और उसमें खाद्य वस्तुओं का वजन कम है.

लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही फरवरी के ६.९५ फीसदी में मामूली गिरावट के साथ मार्च में ६.८९ फीसदी हो गई हो लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि इसमें खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर फ़रवरी के ६.०७ प्रतिशत से उछलकर ९.९४ फीसदी पर पहुँच गई.
साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई के मामले में थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. इन दोनों ही पैमानों पर आम लोगों को सबसे ज्यादा चुभनेवाली खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर लगभग दोहरे अंकों के पास है. इसके बावजूद सच यह है कि वास्तविक महंगाई की मार मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों में महसूस नहीं की जा सकती है.

इसकी वजह यह है कि मुद्रास्फीति के ये आंकड़े
पिछली साल की तुलना में हैं जब महंगाई मुद्रास्फीति के आंकड़ों में भी सचमुच आसमान छू रही थी. इसे अर्थशास्त्र में बेस प्रभाव कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि पिछले साल मार्च में मुद्रास्फीति की दर ९.६८ फीसदी थी. चूँकि पिछले साल मार्च में थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति की दर आसमान छू रही थी, इस कारण उसकी तुलना में इस साल मार्च में कीमतों में बढोत्तरी के बावजूद मुद्रास्फीति की दर कम ६.८९ प्रतिशत दिख रही है.
लेकिन यह सिर्फ आंकड़ों का चमत्कार है. तथ्य यह है कि महंगाई अभी भी आसमान छू रही है. सच पूछिए तो यह महंगाई अधिक त्रस्त करनेवाली इसलिए भी है कि पिछले तीन सालों से लगातार कीमतें ऊपर ही जा रही हैं.


लेकिन एक ओर इस तकलीफदेह महंगाई के बीच आम लोगों खासकर गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है जिनके लिए यह महंगाई टैक्स की तरह है. दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार मुद्रास्फीति के आंकड़ों से खेलने और उनके पीछे मुंह छुपाने की कोशिश कर रही है. ऐसा नहीं है कि सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह सच्चाई मालूम नहीं है.

हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी महंगाई की स्थिति को चिंताजनक बताते हुए गाहे-बगाहे जबानी जमा खर्च करते रहते हैं और महंगाई से निपटने के लिए और प्रयास करने का वायदा करते रहे हैं. लेकिन फैसले ऐसे कर रहे हैं जो महंगाई की आग में और घी डालने की तरह है.

उदाहरण के लिए, यह जानते हुए भी कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की आसमान छू रही है, वित्त मंत्री ने ताजा बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की बढोत्तरी कर दी. क्या इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी? इसी तरह पेट्रोलियम सब्सिडी में कटौती के नामपर पेट्रोल, डीजल और एल.पी.जी की कीमतों में बढोत्तरी की तैयारी है. क्या यह महंगाई की आग में तेल डालना नहीं होगा? यही नहीं, खुद सरकार खाद्यान्नों की सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है.


तथ्य यह है कि इस साल जनवरी में सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल का कुल भण्डार ५५३.९४ लाख टन था जोकि न्यूनतम बफर नार्म से दोगुने से भी ज्यादा था. कहने की जरूरत नहीं है कि जब सरकार खुद इतना अनाज दबाकर बैठेगी तो बाजार में किल्लत होगी और अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियाँ और व्यापारी उसका फायदा उठाएंगे.

लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार को आम आदमी से ज्यादा अनाज के व्यापारियों और बड़ी कंपनियों के मुनाफे की चिंता है. अन्यथा वह महंगाई को काबू में करने और लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपने गोदामों में अनाज सड़ाने और बर्बाद करने के बजाय उसे आमलोगों और गरीबों तक पहुंचाने के उपाय करती.
सरकार के इस रवैये का फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठा रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों बिना किसी ठोस कारण के सब्जियों से लेकर अनाजों, दूध, अंडे और खाद्य तेलों की कीमतें आसमान छू रही हैं. साफ़ है कि इसके पीछे मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों की भूमिका है. लेकिन केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी उनके आगे घुटने टेक दिए हैं और महंगाई से लड़ने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक और मौद्रिक नीतियों के भरोसे छोड़ दिया है.

लेकिन इससे सट्टेबाजों की चांदी हो गई है. तथ्य यह है कि जिंसों के वायदा बाजार में खाद्य वस्तुओं की जमकर सट्टेबाजी हो रही है. सिर्फ जनवरी से मार्च के बीच तीन महीनों में सरसों की कीमतों में १०० फीसदी, चना में १०८ फीसदी, आलू में १७० फीसदी और सोयाबीन में ११८ फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई है.

हालाँकि अब खाद्य मंत्री के.वी थामस की नींद खुली है और वे कह रहे हैं कि इसकी जांच कराई जायेगी और जरूरत हुआ तो इन जिंसों के वायदा कारोबार पर रोक लगाई जाएगी. लेकिन यह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने की तरह है. सट्टेबाज सरकार से ज्यादा तेज हैं और जिंस बाजार पूरी तरह से उनके कब्जे में है. लेकिन सच पूछिए तो सरकार उन्हें छूने को भी तैयार नहीं है क्योंकि खुले बाजार की अर्थनीति में भरोसा करनेवाली सरकार के लिए यह जिंस बाजार में उसकी अगाध आस्था का प्रश्न है.

वैसे भी खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव कह चुके हैं कि ६.५ से ७ फीसदी की मुद्रास्फीति की दर एक ‘अनिवार्य बुराई’ बन चुकी है. मतलब साफ़ है कि ७ फीसदी की मुद्रास्फीति अब सामान्य मुद्रास्फीति दर है जिसमें आमलोगों को जीने की आदत डाल लेनी चाहिए क्योंकि सरकार ने महंगाई के आगे हाथ खड़े कर दिए हैं.

ह और बात है कि राजनीतिक कारणों से वह महंगाई से लड़ने का नाटक करती रहेगी. यह सरकार की लीला है. लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है. लोग इसे समझ रहे हैं. चुनावों के नतीजों से यह साफ़ है.

('दैनिक भाष्कर' के आप-एड पृष्ठ पर २४ अप्रैल को प्रकाशित आलेख)

रविवार, मार्च 18, 2012

महंगाई और निवेश को अनदेखा करता बजट

वित्तीय घाटे के व्यामोह में वित्त मंत्री मौका चूक गए

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपना सातवां बजट पेश करते समय भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का पूरा अंदाज़ा था. अपने बजट भाषण में उन्होंने इस चुनौतियों का उल्लेख भी किया है. हर चुनौती एक तरह से अवसर भी होती है. प्रणब मुखर्जी के लिए भी यह एक ऐतिहासिक अवसर था.

लेकिन लगता है कि उन चुनौतियों से निपटने के तरीके और उपायों को लेकर वह दुविधा में फंस गए. महंगाई का ध्यान रखें कि अर्थव्यवस्था की गिरती हुई विकास दर का? वित्तीय घाटे की चिंता करें कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाएं? इस दुविधा से निपटना इतना आसान नहीं है. इसके लिए अच्छा-ख़ासा साहस और जोखिम लेने की तैयारी होनी चाहिए.

लेकिन लगता है कि प्रणब मुखर्जी जोखिम लेने और नई राह चलने के लिए तैयार नहीं थे. नतीजा, वित्त मंत्री ने बजट में एक ऐसी मध्यममार्गी राह चुनने की कोशिश की है जिसमें अभी खतरा भले कम दिख रहा हो लेकिन कई बार संतुलन बैठाने की कोशिश में ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति पैदा हो जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने को सबसे ज्यादा अहमियत दी है. उनकी रणनीति यह है कि घाटे को काबू में करके मौद्रिक नीतियों के मामले में रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती की गुंजाइश बनाई जाये. इससे निजी निवेश में बढ़ोत्तरी होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.

लेकिन इसके लिए उन्होंने महंगाई की चिंता को नजरंदाज कर दिया है. यही कारण है कि उन्होंने बजट में न सिर्फ उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की वृद्धि कर दी है बल्कि सब्सिडी में कटौती के नाम पर उर्वरकों और पेट्रोलियम उत्पादों को निशाना बनाया है.

बजट में उन्होंने उर्वरक सब्सिडी में ६२२५ करोड रूपये और पेट्रोलियम सब्सिडी में २४९०१ करोड रूपये की कटौती का प्रस्ताव किया है. इसका साफ़ मतलब है कि आनेवाले सप्ताहों में पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि तय है. सवाल यह है कि क्या इन फैसलों से महंगाई की आग और नहीं भड़क उठेगी?

इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री को यह खुशफहमी हो गई है कि महंगाई अब काबू में आ गई और इसके लिए वे पिछले तीन महीनों से महंगाई की दरों में आई गिरावट का हवाला देते हैं. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है.

तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है. यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्ककीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर दहाई अंकों की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

दूसरी ओर, बजट पर एक बार फिर उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की छाप है जिन्हें लेकर इनदिनों पूरी दुनिया में सवाल उठ रहे हैं. हालांकि वित्त मंत्री ने आर्थिक सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की बजट में खूब दुहाई दी है लेकिन यह भी माना है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में उन्हें आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा है.

इसके बावजूद वित्त मंत्री की आस्था इन सुधारों में बनी हुई है. ऐसा लगता है कि नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकारों की तरह वे भी मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है.

इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.

इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.

जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है.

यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर वित्त मंत्री मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रहे हैं. यही कारण है कि उन्होंने बजट भाषण में विस्तार से वित्तीय सुधार के रोडमैप और शेयर बाजार को खुश करने के लिए कई घोषणाएँ की हैं.

लेकिन इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं. असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार का ‘नीतिगत पक्षाघात’ कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निवेश बढाने को लेकर जारी हिचकिचाहट में दिखाई देता है.

असल में, वित्तीय घाटे के आब्सेशन में सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.

खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में इसे प्राथमिकता देने की बात भी कही है लेकिन व्यवहार में उसके उल्टा दिखाई देता है. जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.

लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा.

यह बजट एक मौका था लेकिन लगता है कि बड़ी पूंजी को खुश करने के चक्कर में प्रणब मुखर्जी ने अलग राह लेने का जोखिम लेना उचित नहीं समझा. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा दिया है.

('राष्ट्रीय सहारा' के १७ मार्च के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)

मंगलवार, दिसंबर 13, 2011

महंगाई नहीं, मुद्रास्फीति कम हुई है

महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है


पिछले ढाई-तीन सालों से यू.पी.ए सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बनी हुई खाद्य मुद्रास्फीति की दर २६ नवंबर को खत्म हुए सप्ताह में गिरकर ६.६ प्रतिशत क्या हुई, सरकार के आर्थिक मैनेजरों के चेहरों पर न सिर्फ खुशी लौट आई है बल्कि उनमें अपनी और एक-दूसरे की पीठ थपथपाने की होड़ शुरू हो गई है.

यही नहीं, एक बार फिर से बड़बोले दावों का दौर शुरू हो गया है. दावा किया जा रहा है कि अगले मार्च तक थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य मुद्रास्फीति और आम मुद्रास्फीति की दर पूरी तरह से काबू में आ जायेगी और सात फीसदी से नीचे की आरामदेह स्थिति में होगी.

इसके साथ ही सरकार के राजनीतिक और आर्थिक मैनेजरों में महंगाई पर काबू पाने की चुनौती को लेकर एक निश्चिन्तता और खुशफहमी का भाव भी दिखाई पड़ने लगा है. हालांकि जल्दबाजी में महंगाई की आग में कई बार हाथ जला चुके ये मैनेजर खुलकर यह कह नहीं पा रहे हैं.

लेकिन उनके हालिया बयानों का निष्कर्ष यही है कि मुद्रास्फीति खासकर खाद्य मुद्रास्फीति न सिर्फ काबू में आ गई है बल्कि वह उतनी बड़ी आर्थिक समस्या नहीं रह गई है जितनी कि उसे लेकर राजनीतिक शोर मचाया जा रहा है. संसद में महंगाई पर हुई चर्चा में वित्त मंत्री के जवाब और सरकार द्वारा पेश अर्थव्यवस्था की छमाही समीक्षा में इसकी झलक देखी जा सकती है.

लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है. तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है.

यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

यह ठीक है कि अच्छे मानसून के कारण सब्जियों और कुछ खाद्य वस्तुओं की कीमतों में तात्कालिक तौर पर थोड़ी नरमी आई है लेकिन उससे महंगाई की आंच पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्कीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर ९ से १० फीसदी की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

अगर आप अब भी नहीं समझे तो इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ को इस तरह से समझिए. जैसे पिछले वर्ष किसी वस्तु/उत्पाद जिसकी कीमत १०० रूपये थी और उसकी कीमत में १० रूपये की वृद्धि हुई. इस तरह पिछले वर्ष उस वस्तु की मुद्रास्फीति वृद्धि दर १० फीसदी हुई. इस वर्ष उसकी कीमत में फिर ७ रूपये की वृद्धि हुई और उसकी कीमत बढ़कर ११७ रूपये हो गई लेकिन उसकी मुद्रास्फीति की दर में सिर्फ ६.३ फीसदी की वृद्धि दर्ज होगी.

इस तरह मुद्रास्फीति की दर में पिछले वर्ष के १० फीसदी की तुलना में इस वर्ष ६.३ फीसदी की दर काफी कम दिखाई देगी लेकिन वास्तविकता यह है कि आम उपभोक्ता के लिए उस वस्तु की कीमत में कोई कमी नहीं आई है और उसे अभी भी ऊँची कीमत चुकानी पड़ रही है.

जाहिर है कि इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ से अर्थशास्त्री और सरकार के आर्थिक मैनेजर खुश हो सकते हैं लेकिन इससे आम आदमी कैसे खुश हो सकता है? इसीलिए कहते हैं कि ‘झूठ, महाझूठ और सांख्कीय.’

अफसोस की बात यह है कि महंगाई के मामले में सरकारें इसी सांख्कीय झूठ का सहारा लेकर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं लेकिन दूसरी ओर, आम आदमी की पीठ महंगाई के बोझ से दोहरी होती गई है. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. वह भी इस आधार पर अपनी पीठ ठोंकने में जुट गई है कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि उसके इस दावे के पीछे महंगाई को कम करने की ठोस कोशिशों से ज्यादा उसी ‘सांख्कीय चमत्कार’ पर भरोसा है जिसके कारण मुद्रास्फीति की दर गिरकर फिलहाल ६.६ फीसदी हो गई है.

असल में, पिछले वर्ष आम मुद्रास्फीति की दर दिसम्बर से लेकर जनवरी तक क्रमश: ९.४५, ९.४७, ९.५७ और ९.६८ फीसदी थी. यही नहीं, वर्ष २०१० में इन्हीं महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १६ से २० फीसदी के बीच थी और पिछले वर्ष २०११ के इन महीनों में यह दर ७ से १० फीसदी के बीच थी. इसी आधार पर आर्थिक मैनेजरों को उम्मीद है कि इस साल दिसंबर से लेकर अगले साल के जनवरी-मार्च के महीनों में मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दूसरी बात यह है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य और आम मुद्रास्फीति की दर से वास्तविक महंगाई का इसलिए भी पता नहीं चलता है क्योंकि आम आदमी को खुदरा स्तर पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसमें और थोक मूल्य में काफी अंतर होता है.

यही नहीं, थोक मूल्य सूचकांक में आम आदमी की बुनियादी जरूरत की अधिकांश चीजों का भारांक कम है जिसके कारण उनकी कीमतों में वृद्धि सूचकांक में उस तीखेपन के साथ नहीं दिखाई पड़ती है जो आम आदमी को झेलनी पड़ती है.

इस कारण सरकार मुद्रास्फीति में कमी के आधार पर भले महंगाई में कमी के दावे करे लेकिन साफ़ है कि महंगाई के मामले में न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम लागू नहीं होता है. सच यह है कि महंगाई के मामले में इस नियम का उल्टा लागू होता है यानी जो कीमतें ऊपर जाती हैं, वे कभी नीचे नहीं आती हैं.

मुद्रास्फीति और महंगाई के इस खेल की यही कड़वी सच्चाई है जिसमें आंकड़े चाहे जो कहें, आम आदमी का कोई पुरसाहाल नहीं है. सच्चाई यह है कि महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है.

('नया इंडिया' में १२ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' के १३ दिसंबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)