मंगलवार, नवंबर 29, 2011

क्या भारतीय मीडिया हिन्दूवादी मीडिया है?

मुसलमान और इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बनाने में मीडिया की भूमिका   


पहली किस्त


ऐसा लगता है कि मीडिया खासकर समाचार मीडिया को जवाबदेह बनाने और इसके लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया को स्व-नियमन के बजाय प्रेस काउन्सिल जैसे किसी स्वतंत्र नियामक के दायरे में लाने मांग करके प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.

यही नहीं, उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया में उभरी कई नकारात्मक प्रवृत्तियों, विचलनों और पत्रकारीय मूल्यों और एथिक्स की अनदेखी और उल्लंघनों को आड़े हाथों लेते हुए इससे निपटने के लिए प्रेस काउन्सिल को दंडात्मक अधिकार देने की भी मांग की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उनके हालिया बयानों और साक्षात्कारों पर मीडिया जगत में हंगामा मचा हुआ है. हालांकि कुछ मीडिया विश्लेषकों, संपादकों और पत्रकारों ने जस्टिस काटजू के बयानों खासकर उसकी मूल भावना के प्रति काफी हद तक सहमति जताई है.

लेकिन कई संपादकों के साथ-साथ एडिटर्स गिल्ड, अखबार मालिकों के संगठन- आई.एन.एस से लेकर न्यूज चैनलों के मालिकों के संगठन- न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसियेशन (एन.बी.ए) और संपादकों के संगठन- ब्राडकास्टर्स एडिटर्स एसोसियेशन (बी.ई.ए) ने एक सुर में जस्टिस काटजू के बयानों की कड़ी आलोचना हुए उसे वापस लेने की मांग की है.

इन सभी की शिकायत है कि जस्टिस काटजू की समाचार मीडिया की समझ न सिर्फ बहुत सतही है बल्कि वे सभी अख़बारों, न्यूज चैनलों और पत्रकारों को एक साथ काले ब्रश से पेंट कर रहे हैं. उन्हें यह भी लग रहा है कि जस्टिस काटजू जवाबदेही के नाम पर समाचार माध्यमों गला दबाने का अधिकार मांग रहे हैं.

हालांकि जस्टिस काटजू ने अपने शुरूआती बयानों पर सफाई दी है और थोड़ा पीछे भी हटे हैं लेकिन कुलमिलाकर वे समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों को लेकर अपने मूल बयानों पर डटे हुए हैं.

नतीजा, दोनों ओर से तलवारें खींच गईं हैं. जस्टिस काटजू पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. न्यूज चैनलों पर कुछ हद तक इसका असर भी दिख रहा है. उदाहरण के लिए, मशहूर अभिनेत्री एश्वर्या राय की बेटी के जन्म की खबर पर चैनल बावले नहीं हुए.

यह और बात है कि इसके लिए बी.ई.ए ने सदस्य चैनलों को दस सूत्री निर्देश जारी किया था. चैनल इसे अपने स्व-नियमन व्यवस्था की कामयाबी के बतौर पेश कर रहे हैं. न्यूज चैनलों का दावा है कि स्व-नियमन की यह व्यवस्था हर लिहाज से बेहतर है और इसे काम करने और अपनी जड़ें जमाने का मौका मिलना चाहिए.

इस बहस और टकराव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि जस्टिस काटजू के बयानों ने न्यूज चैनलों के नैतिक विचलनों, कंटेंट के छिछलेपन, सनसनी और पूर्वाग्रहों-झुकावों से लेकर उनके नियमन, उसके स्वरूप, तरीके और दंड की सीमा जैसे मुद्दों पर पहले से ही जारी बहस को और तेज कर दिया है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे समाचार मीडिया को टीका-टिप्पणी और आलोचना से ऊपर एक ‘पवित्र गाय’ मानने की धारणा और उसपर खुद समाचार मीडिया के अंदर बरती जानेवाली ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ टूटेगी.

दरअसल, मीडिया का अपने कामकाज के तौर-तरीकों और प्रदर्शन पर खुद मीडिया में खुली चर्चा को प्रोत्साहित करना स्व-नियमन का ही हिस्सा है. सच यह है कि जस्टिस काटजू ने वास्तव में कोई नया मुद्दा नहीं उठाया है. अलबत्ता, उनकी भाषा खासकर उसकी टोन और कुछ मामलों में उनके अतिरेक पर ऊँगली उठाई जा सकती है.

लेकिन सच यह है कि उन्होंने वही बातें दोहराई हैं और वही सवाल उठाये हैं जो पिछले काफी समय से उठाये जा रहे हैं. लेकिन मीडिया में आमतौर पर उन्हें अनदेखा किया जाता रहा है. लेकिन अब समय आ गया है जब चैनलों को उन मुद्दों से नजरें चुराने या उनकी अनदेखी के बजाय उनपर खुलकर चर्चा करनी चाहिए.

ऐसा ही मुद्दा है न्यूज चैनलों सहित समूचे समाचार मीडिया में अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम समाज के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त रवैये और उनकी एक नकारात्मक स्टीरियोटाइप छवि प्रस्तुत करने का. जस्टिस काटजू ने इस मुद्दे से जुड़े एक बहुत संवेदनशील पहलू को उठाया है.

उनके मुताबिक, अधिकांश आतंकवादी हमलों, बम विस्फोटों आदि के बाद मीडिया खासकर न्यूज चैनल जिस तरह से बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल और छानबीन के जल्दबाजी में आतंकवादी समूहों के बारे में कयास लगाने लगते हैं या किसी अज्ञात ई-मेल/फोन के आधार किसी विशेष आतंकवादी समूह को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं, उस दौरान चैनलों की भाषा और टोन के कारण एक पूरे समुदाय को शक की निगाह से देखा जाने लगता है.

जस्टिस काटजू के मुताबिक, चैनलों समेत पूरे समाचार मीडिया के इस रवैये के कारण समाज में विभाजन बढ़ता है. हैरानी की बात यह है कि मीडिया में काटजू के बयानों/उद्गारों के हर पहलू पर चर्चा हुई और हो रही है लेकिन इस मुद्दे पर चुप्पी छाई हुई है. क्या यह मीडिया की ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ का एक और उदाहरण है?

निश्चय ही, यह मुद्दा समाचार मीडिया की एक ऐसी दुखती रग है जिसे या तो सिरे से ख़ारिज करने की कोशिश की जाती है और चर्चा लायक नहीं माना जाता है या फिर इसे एक अत्यधिक संवेदनशील मुद्दा बताकर उसपर चर्चा से बचने की कोशिश की जाती है. इस तरह इस मुद्दे पर एक सामूहिक चुप्पी साध ली जाती है.

लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारतीय समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में हाल के वर्षों में घटी आतंकवादी घटनाओं की कवरेज में कभी खुलकर और कभी बारीकी के साथ मुस्लिम समुदाय और इस्लाम धर्म के प्रति पूर्वाग्रह (कुछ मामलों में विद्वेष की हद तक) दिखाई पड़ा है.

हालांकि भारतीय मीडिया में अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति यह पूर्वाग्रह नया नहीं है लेकिन पिछले डेढ़-दो दशकों में यह और अधिक गहरा और विकृत होता गया है. खासकर १९९३ के मुंबई बम धमाकों के बाद से आतंकवादी हमलों और धमाकों की रिपोर्टिंग की भाषा, टोन और कलर में इस पूर्वाग्रह को साफ देखा जा सकता है. कुछ मामलों में इस कवरेज में एक सांप्रदायिक रुझान भी किसी से छुपा नहीं है.

मीडिया के इस पूर्वाग्रह और अतिरेकपूर्ण कवरेज से मुस्लिम समुदाय और इस्लाम धर्म की ऐसी छवि बनी है जिसमें पूरा समुदाय आतंकवादी या फिर आतंकवाद के समर्थक या उससे छुपे तौर पर सहानुभूति रखनेवाले समुदाय के बतौर पहचाना जाने लगा है जबकि इस्लाम धर्म की छवि एक हिंसक, आक्रामक, असहिष्णु, दकियानूसी और कट्टरपंथी धर्म की बना दी गई है.

यह सच है कि हाल के वर्षों में हुए कुछ बड़े और बर्बर आतंकवादी हमलों/बम विस्फोटों में कुछ मुस्लिम शामिल पाए गए हैं लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि उन्हें न सिर्फ मुस्लिम समाज का समर्थन हासिल नहीं है बल्कि आम मुसलमान उसके खिलाफ है. यही नहीं, इन बम विस्फोटों और आतंकवादी हमलों में खुद कई निर्दोष मुसलमान भी मारे गए हैं.

लेकिन मीडिया और चैनलों में अक्सर इन तथ्यों की अनदेखी की जाती है. यह भी देखा गया है कि इन आतंकवादी घटनाओं और कथित ‘प्लाटों’ के खुलासे की रिपोर्टिंग और कवरेज में एक अंधराष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ पाकिस्तान को निशाना बनाया जाता है लेकिन उसके वास्तविक निशाने पर देश के अंदर मुस्लिम समुदाय होता है. इन मौकों पर चैनलों की देशभक्ति जैसे उबाल मारने लगती है.

रिपोर्टिंग और कवरेज की भाषा और प्रस्तुति इतनी उग्र और आक्रामक होती है कि उसमें तर्क और तथ्यों के लिए जगह नहीं रह जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण पत्रकारीय मूल्यों- तथ्यपूर्णता (एक्यूरेसी), वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और संतुलन की कुर्बानी सबसे पहले दी जाती है. जाहिर है कि सबसे ज्यादा जोर सनसनी पैदा करने और दर्शकों को डराने पर रहता है.

नोट: आप सभी मित्रों से आग्रह है कि आप इस मुद्दे पर जो सोचते हैं, अपनी टिप्पणी जरूर भेजे..इस विषय पर चर्चा बहुत जरूरी है...

('कथादेश' के आगामी दिसंबर'११ में प्रकाशित हो रहे स्तम्भ की पहली किस्त..पूरे लेख के लिए स्टाल से खरीदकर पढ़ें..)

सोमवार, नवंबर 28, 2011

खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी यानी जादू की छड़ी !

सरकार बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए करोड़ों लोगों की आजीविका दांव पर लगाने जा रही है

लेकिन भाजपा का विरोध भी नाटक है  



अंदर और बाहर के तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की इजाजत देने का फैसला कर लिया. इस फैसले के लिए सरकार पर देशी और विदेशी बड़ी पूंजी का जबरदस्त दबाव था. आर्थिक उदारीकरण के प्रति मनमोहन सिंह सरकार की प्रतिबद्धता दांव पर थी.

गुलाबी अखबारों और सी.आई.आई-फिक्की के सम्मेलनों में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे थे. आर्थिक उदारीकरण के पैरोकार सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ के आरोप लगा रहे थे.

ऐसे में, यू.पी.ए सरकार की घबड़ाहट और हड़बड़ी समझी जा सकती है. उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के बीच अपनी गिरती साख की चिंता सता रही थी. इसी दबाव और हताशा में उसने पिछले एक पखवाड़े में ऐसे कई फैसले किये हैं जिससे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का विश्वास जीत सके. खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत के फैसले को भी इसी सन्दर्भ में देखने की जरूरत है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार ने उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले यह फैसला करके एक बड़ा लेकिन नपा-तुला राजनीतिक जोखिम लिया है.

कारण, सरकार को आशंका थी कि अगर अभी फैसला नहीं लिया तो चुनावों के बाद यह फैसला करना और मुश्किल हो जाएगा. खासकर अगर कांग्रेस राज्य विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो उसके लिए अपने और गठबंधन के राजनीतिक अंतर्विरोधों को साधना और मुश्किल हो जाएगा. खुद सरकार का राजनीतिक इकबाल कमजोर होगा.

ऐसे में, उसके लिए बड़े और विवादस्पद राजनीतिक और आर्थिक फैसले करना आसान नहीं होगा. जाहिर है कि इन सभी पहलुओं के मद्देनजर सरकार ने अंग्रेजी के मुहावरे ‘बाईट द बुलेट’ यानी जोखिम लेने का फैसला किया है.

लेकिन इस फैसले के पक्ष में सरकार जिस तरह के तर्क दे रही है और सपने दिखा रही है, उससे लगता है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी यानी वालमार्ट, टेस्को और कारफुर जैसी कंपनियों के आते ही महंगाई से लेकर बेरोजगारी तक, कृषि से लेकर आर्थिक विकास तक और किसानों से लेकर लघु और मंझोले उद्योगों तक सभी समस्याएं चुटकी बजाते ही हल हो जाएँगी.

वाणिज्य मंत्री का दावा है कि इस फैसले से अगले पांच सालों में एक करोड़ से अधिक रोजगार पैदा होगा, किसानों को उचित कीमत मिलेगी, उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और महंगाई पर अंकुश लगेगा.

इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को जादू की छड़ी की तरह देख रही है. अगर यह सच है तो यू.पी.ए सरकार ने इस फैसले को लेने में इतनी देर क्यों की? उसे यह फैसला बहुत पहले ले लेना चाहिए था. दूसरे, अगर खुदरा व्यापार में विदेशी सभी मर्जों की दवा है तो ५१ फीसदी और १० लाख की आबादी से अधिक के शहरों में ही स्टोर्स खोलने जैसे प्रतिबंधों की क्या जरूरत है?

असल में, इसे कहते हैं, फिसल पड़े तो हर गंगे. मतलब यह कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में सरकार को यह फैसला करना पड़ा है और अब उसे जायज ठहराने के लिए तर्क गढे जा रहे हैं और लोगों को सपने दिखाए जा रहे हैं.

लेकिन खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की सच्चाई उतनी सुन्दर और हसीन नहीं है, जितनी बताई जा रही है. पहली बात तो यह है कि अगर खुदरा व्यापार में बड़ी पूंजी महंगाई का इलाज होती तो देश में पिछले चार-पांच सालों में रिलायंस, बिग बाज़ार, आर.पी.जी, भारती, बिरला, टाटा जैसे बड़े औद्योगिक समूहों ने खुदरा व्यापार के क्षेत्र में पाँव पसारे हैं लेकिन इससे महंगाई कहीं कम नहीं हुई है.

इन बड़ी कंपनियों के सुपर स्टोर्स में भी कीमतें बाहर से कम नहीं हैं. इन कंपनियों के आने से न तो बिचौलिए खत्म हुए हैं और न ही किसानों को उनके उत्पादों की वाजिब कीमत और उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिल रहा है.

ऐसे में, क्या रिलायंस और भारती के साथ वालमार्ट और टेस्को जैसी बड़ी विदेशी खुदरा व्यापारी कंपनियों के आ जाने से सब कुछ बदल जाएगा? जी नहीं. तथ्य यह है कि अमेरिका और यूरोप के जिन विकसित देशों में वालमार्ट और टेस्को जैसी बड़ी कम्पनियाँ हैं, वहाँ भी उनसे किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ है.

अगर इन देशों में हर साल किसानों को अरबों डालर की सरकारी सब्सिडी न मिले तो किसान खत्म हो जाएं. अगर वालमार्ट और टेस्को से किसानों को इतना ही फायदा होता तो विकसित देशों को अपने किसानों को हर साल अरबों डालर की सब्सिडी नहीं देनी पड़ती.

तीसरे, खुदरा व्यापार में एक करोड़ रोजगार पैदा होने का दावा भी भ्रामक है. सच यह है कि संगठित खुदरा व्यापारी कम्पनियों का पूरा बिजनेस माडल कम से कम कर्मचारियों से, कम से कम वेतन पर, अधिक से अधिक काम पर टिका है. वालमार्ट और एक देशी परचून/खुदरा दूकान के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि वालमार्ट का प्रति कर्मचारी सालाना बिजनेस, घरेलू किराने से कई गुना ज्यादा है.

यह ठीक है कि इनमें कुछ हजार/लाख लोगों को रोजगार मिल जाएगा लेकिन इन बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के कारण जिन लाखों खुदरा व्यापारियों का कारोबार प्रभावित होगा, क्या उसकी भरपाई इससे हो पायेगी?

इसकी उम्मीद बहुत कम है. असल में, भारत जैसे देशों में खुदरा व्यापार सिर्फ व्यापार नहीं बल्कि रोजगार का सबसे बड़ा साधन है. इसमे कृषि क्षेत्र के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक, खुदरा व्यापार में कोई ३.३१ करोड़ लोग लगे हुए हैं. जिन्हें कोई काम नहीं मिलता, वे कुछ पैसे जुगाड के पटरी से लेकर घर के बाहर छोटी सी दूकान खोलकर बैठ जाते हैं.

यही कारण है कि पूरी दुनिया में दुकानों के घनत्व यानी प्रति एक लाख की आबादी पर कुल दुकानों की संख्या के मामले में भारत पहले नंबर पर है. इनमें से ज्यादातर दुकानों में पूरा परिवार लगा हुआ है. पूरे घर की रोजी-रोटी इससे ही चलती है.

इसलिए सरकार चाहे जो दावा करे लेकिन तथ्य यह है कि बड़ी विदेशी कंपनियों के आगे मुकाबले में बहुत कम देशी खुदरा व्यापारी टिक पाएंगे. दुनिया के अधिकांश देशों के अनुभव भी इसी ओर इशारा करते हैं. साथ ही, वालमार्ट और टेस्को जैसी कम्पनियाँ किसानों को लाभकारी मूल्य, उपभोक्ताओं को सस्ता सामान देने और रोजगार पैदा करने नहीं बल्कि मुनाफा कमाने आ रही हैं.

सीधी सी बात यह है कि अगर इन तीनों चीजों के साथ मुनाफा कमाना संभव होता तो देशी कम्पनियाँ भी यह कर सकती थीं. लेकिन यह तब तक संभव नहीं जब तक बड़ी कम्पनियाँ छोटे दुकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर न करें और किसानों, उत्पादकों और उपभोक्ताओं को अपने कब्जे में न लें.

साफ है कि खुदरा व्यापार को बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोलकर सरकार ने ऐसा सौदा किया है जिसमें चूना लगने का खतरा ज्यादा है और फायदे की उम्मीद कम. लेकिन बड़ी पूंजी को खुश करने में जुटी सरकार को इसकी परवाह कहाँ है?

पर इसके साथ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जो विपक्षी पार्टियां खासकर भाजपा इस फैसले के विरोध में इतनी आगबबूला दिख रही है, वे सिर्फ विरोध का नाटक कर रही हैं. तथ्य यह है कि भाजपा न सिर्फ आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की समर्थक है बल्कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के पक्ष में रही है.

अगर २००४ के आम चुनावों में एन.डी.ए सरकार हारी नहीं होती तो चुनावों के तुरंत बाद वाजपेयी सरकार खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की अनुमति दे देती. चुनावों से ठीक पहले तत्कालीन वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने ‘बिजनेस स्टैण्डर्ड’ को इंटरव्यू में कहा था कि उनकी सरकार खुदरा व्यापार में २६ फीसदी विदेशी पूंजी की इजाजत देगी.

यही नहीं, पिछले साल जिन कुछ राज्य सरकारों ने खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को मंजूरी के हक में राय जाहिर की थी, उनमें गुजरात की नरेन्द्र मोदी और पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार प्रमुख हैं. मजे की बात यह है कि जो उमा भारती वालमार्ट में आग लगाने की बात कर रही हैं, उनके अपने राज्य मध्यप्रदेश में भोपाल और इंदौर में और पडोसी छत्तीसगढ़ के रायपुर में भारती-वालमार्ट ने थोक व्यापार में यानी कैश एंड कैरी स्टोर्स खोल रखे हैं?

क्या उमा भारती वहां आग लगाने जाएँगी?

('नया इंडिया' के २८ नवम्बर'११ के अंक में प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप)

शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

कैसा लोकतंत्र है यह, जहाँ जनता की नहीं पूंजी की इच्छा बड़ी है?

अर्थनीति, राजनीति से मुक्त हो चुकी है और उसे निर्देशित कर रही है

दूसरी और आखिरी किस्त

ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार इन खतरों से वाकिफ नहीं है. इसके बावजूद अगर वह जोखिम उठाने को तैयार है तो इसका सिर्फ एक कारण है. वह यह कि वह बड़ी पूंजी की नाराजगी का जोखिम नहीं उठाना चाहती है. इसके लिए वह कोई भी राजनीतिक कुर्बानी देने को तैयार है.

सरकार के इस रवैये का ही एक और उदाहरण यह है कि आसमान छूती महंगाई के बावजूद न सिर्फ पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की गईं बल्कि हर १५ दिनों दिनों पर कीमतें बढ़ाई गई. सरकार और कांग्रेस को पता है कि आम आदमी इस फैसले से नाराज है और इसकी उसे राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है.


इसके बावजूद सरकार अपने फैसले पर डटी हुई है. इससे पूंजीवादी जनतंत्र की असलियत का पता चलता है. यह कैसा जनतंत्र है कि इसमें जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उल्टा कर रही है. लेकिन यह कोई भारत तक सीमित परिघटना नहीं है.

यूरोप खासकर यूनान (ग्रीस), इटली, पुर्तगाल, स्पेन जैसे आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे देशों की सरकारें जनमत के खिलाफ जाकर बड़ी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतखर्ची उपायों का पूरा बोझ आम लोगों पर डालने पर तुली हैं. इन देशों में सड़कों पर हो रहे जबरदस्त प्रदर्शनों से साफ़ है कि आम लोग इन उपायों का समर्थन नहीं कर रहे हैं.

लेकिन सवाल यह है कि इसे जनतंत्र कैसे कहा जाए जिसमें सरकारें लोगों की इच्छाओं और मर्जी के खिलाफ जाकर फैसले कर रही हैं? याद कीजिये, हाल में यूनान के (अब पूर्व) प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यु ने देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय संघ से मिलनेवाले बेलआउट पैकेज की शर्त के रूप में प्रस्तावित किफ़ायतखर्ची उपायों पर जब देश में जनमतसंग्रह कराने का एलान किया तो क्या हुआ था?

इस फैसले के खिलाफ न सिर्फ ब्रुसेल्स, बान से लेकर लन्दन और न्यूयार्क तक वित्तीय बाजारों में हंगामा मच गया बल्कि यूरोपीय संघ का पूरा राजनीतिक नेतृत्व किसी भी तरह से जनमतसंग्रह को टालने में जुट गया.

यह सबको पता था कि अगर जनमतसंग्रह हुआ तो लोग इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेंगे. मजबूरी में पापेंद्र्यू अपनी बात वापस लेनी पड़ी. लेकिन इससे भी बात नहीं बनी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसी तरह, इटली में बर्लुस्कोनी को हटाकर नई सरकार बनाई गई है जिसने बेलआउट पैकेज के बदले किफ़ायतखर्ची के कड़े उपाय लागू करने पर सहमति जताई है.

क्या यही ‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा’ शासन वाला लोकतंत्र है? साफ़ है कि इस पूंजीवादी उदार लोकतंत्र में जनता की इच्छा पर पूंजी की मर्जी ज्यादा भारी है. इसमें जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरजीह दी जा रही है. यही कारण है कि जब भी दोनों में टकराव की स्थिति पैदा होती है तो पूंजी के हितों के आगे जनहित की कुर्बानी देने में देर नहीं लगती है.

इस मायने में पूंजीवाद और जनतंत्र परस्पर विरोधी विचार हैं. दरअसल, मार्क्स ने पूंजीवाद को एक ऐसी ‘स्वतः संचालित व्यवस्था’ बताया था जो अपने भागीदारों की इच्छा और समझ से स्वतंत्र परिचालित होती है.

तात्पर्य यह कि एक स्वतः संचालित व्यवस्था होने के कारण पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य के किसी ऐसे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती है जो पूंजीवाद की स्वाभाविक गति को प्रभावित करे. लेकिन कोई भी लोकतंत्र तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता, जिसमें लोगों की इच्छाओं के मुताबिक राजनीति और राज्य हस्तक्षेप न करे. लेकिन यहाँ तो राजनीति और राज्य के हाथ बांध दिए गए हैं और पूंजी को मनमर्जी की खुली छूट मिली हुई है.

याद रहे कि एकीकृत यूरोपीय आर्थिक संघ और एकल मुद्रा- यूरो के बुनियाद में यही विचार है जिसने अर्थनीति को राजनीति से पूरी तरह आज़ाद कर दिया. आर्थिक एकीकरण के लिए हुई मास्ट्रिख संधि में अर्थनीति तय करने के मामले में सदस्य राष्ट्रों के हाथ बांधते हुए इस व्यवस्था की गई है कि कोई देश पूर्वघोषित वित्तीय घाटे की सीमा को नहीं लांघ सकता है.

मतलब यह कि आमलोगों की जरूरत भी हो तो सरकारें एक सीमा से ज्यादा खर्च नहीं कर सकती हैं. आश्चर्य नहीं कि आज यूरो को बचाने के लिए राजनीति यानी लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढाई जा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारत भी उसी रास्ते पर है. पिछली एन.डी.ए सरकार ने विश्व बैंक-मुद्रा कोष और आवारा बड़ी पूंजी के दबाव में संसद में वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम) कानून पारित किया था जिसमें वित्तीय घाटे की सीमा तय की गई है. यह अर्थनीति के राजनीति के बंधन से आज़ाद होने का एक और सबूत है.

हैरानी की बात नहीं है कि एन.डी.ए के बाद सत्ता में आई यू.पी.ए सरकार ने सबसे पहला काम इस कानून को नोटिफाई करने का किया था. समझना मुश्किल नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए राजनीतिक और आर्थिक नतीजों की परवाह किये बगैर जिस हड़बड़ी में फैसले कर रही है, उसकी जड़ें कहाँ हैं?


('जनसत्ता' के २३ नवम्बर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का दूसरी और अंतिम किस्त) 

गुरुवार, नवंबर 24, 2011

लोकतंत्र पर हावी पूंजी

बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए जनहित की अनदेखी की जा रही है  

पहली किस्त

यू.पी.ए सरकार बहुत दबाव और जल्दी में दिखाई दे रही है. उसपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का जबरदस्त दबाव है जो सरकार से इस बात पर सख्त नाराज है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में उसने आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ खास नहीं किया है.

नतीजा, पिछले एक सप्ताह में उसने ताबड़तोड़ कई फैसले किये हैं जिनका एकमात्र मकसद बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है. उदाहरण के लिए, वित्त मंत्रालय ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) के विवादस्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है.

इसी तरह, पेंशन फंड के बारे में संसद की स्थाई समिति की गारंटीशुदा आमदनी की सिफारिश को परे रखते हुए पी.एफ.आर.डी.ए कानून में संशोधन करके विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी दे दी गई है. साथ ही, आवारा विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों और कारपोरेट बांडों में विदेशी निवेश की सीमा ५ अरब डालर बढाकर क्रमश: १५ और २० अरब डालर कर दी गई है.

इसके अलावा बड़े विदेशी निवेशकों (क्यू.एफ.आई) को शेयर बाजार में सीधे निवेश का रास्ता खोलने की तैयारी हो चुकी है. इससे पहले सरकार ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद विवादास्पद नई मन्युफैक्चरिंग नीति को मंजूरी दे चुकी है.

यही नहीं, एयरलाइंस उद्योग में विदेशी निवेश खासकर विदेशी एयरलाइनों के निवेश को भी इजाजत देने की तैयारी हो गई है. साफ है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने की जल्दबाजी में है बल्कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपना समर्पण और भक्ति-भाव साबित करने पर भी तुल गई है.

सरकार की घबड़ाहट और जल्दबाजी समझी जा सकती है. असल में, मनमोहन सिंह सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की बढ़ती नाराजगी से घबड़ाई हुई है. इन दिनों बड़ी पूंजी खुद संकट में और इससे बाहर निकलने के लिए बेचैन है.

उसे लगता है कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्रियों की आपसी लड़ाई, सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच खींचतान और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राजनीतिक चुनौती में उलझकर यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ का शिकार हो गई है. इसके संकेत बड़ी पूंजी के मुखपत्र बन गए गुलाबी अखबारों से मिलते हैं जिनका दावा है कि न सिर्फ देशी-विदेशी बड़े कारोबारियों और उद्योगपतियों का देश की अर्थव्यवस्था में विश्वास कमजोर हुआ है बल्कि देश में ‘निवेश का माहौल’ खराब हो रहा है.

आमतौर पर बड़े उद्योगपति सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक बयान देने से बचते हैं लेकिन पिछले छह महीनों में एक के बाद दूसरे उद्योगपति ने खुलकर सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ की आलोचना की है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की अपील दोहराई है.

दरअसल, बड़ी पूंजी को यह आशंका सताने लगी है कि अगर यू.पी.ए सरकार ने आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण से जुड़े लेकिन वर्षों से फंसे, विवादस्पद और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय कुछ बड़े नीतिगत फैसले तुरंत नहीं किये तो अगले छह महीनों में ये फैसले करने और मुश्किल हो जाएंगे.

इसकी वजह यह है कि अगर आनेवाले विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो केन्द्र की यू.पी.ए सरकार की हालत राजनीतिक रूप से काफी कमजोर हो जायेगी. दूसरी ओर, सरकार के तीन साल पूरे हो जाएंगे और तीन साल के बाद यूँ भी किसी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फैसले करना मुश्किल हो जाता है.

जाहिर है कि इस कारण देशी-विदेशी बड़ी पूंजी बहुत बेचैन है. उसे यू.पी.ए सरकार से बहुत उम्मीद थी. खासकर २००९ के चुनावों में वामपंथी पार्टियों की हार और यू.पी.ए की उनपर निर्भरता खत्म हो जाने के बाद बड़ी पूंजी की उम्मीदें बहुत बढ़ गईं थीं.

माना जाता है कि चुनाव जीतने के बाद पहले दो-ढाई सालों में सरकारें राजनीतिक रूप सख्त और अलोकप्रिय फैसले ले लेती हैं क्योंकि उसके बाद उनपर अगले चुनावों का राजनीतिक दबाव बढ़ने लगता है. लेकिन पिछले दो-ढाई वर्षों में यू.पी.ए सरकार एक के बाद दूसरे विवादों, भ्रष्टाचार के आरोपों और आपसी खींचतान में ऐसी फंसी कि वह बड़ी पूंजी की अधिकांश उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई.

इससे बड़ी पूंजी की सरकार से निराशा बढ़ती जा रही है. उसके गुस्से का एक बड़ा कारण यह भी है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देश भर में जहाँ भी बड़ी पूंजी ने नए प्रोजेक्ट शुरू करने की कोशिश की, चाहे वह कोई स्टील प्लांट हो, अल्युमिनियम प्लांट हो, बिजलीघर हो, न्यूक्लियर पावर प्लांट हो, सेज हो, आटोमोबाइल यूनिट हो या कोई रीयल इस्टेट परियोजना, उसे स्थानीय आम जनता का विरोध झेलना पड़ रहा है.

लोग अपने जमीन, जल, जंगल और खनिज संसाधनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. इस कारण, बड़ी पूंजी न सिर्फ मन-मुताबिक प्रोजेक्ट नहीं लगा पा रही है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का पूरा दोहन नहीं कर पा रही है.

बड़ी पूंजी को उम्मीद थी कि सरकार उसे इस गतिरोध से निकालेगी. लेकिन उसकी यह उम्मीद भी पूरी होती नहीं दिखाई पड़ रही है. इससे बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत के गुस्से का अनुमान लगाया जा सकता है.

इस बीच, अजीम प्रेमजी, मुकेश अम्बानी और सुनील मित्तल जैसे बड़े उद्योगपतियों के बयानों ने सरकार की नींद उड़ा दी है. यह एक तरह से खतरे की घंटी थी. मनमोहन सिंह सरकार को लग गया कि अगर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए जल्दी से कुछ बड़े फैसले नहीं किये गए तो न सिर्फ सरकार चलाना मुश्किल हो जाएगा बल्कि सरकार खतरे में पड़ जायेगी.

इस डर से घबराई यू.पी.ए सरकार ने बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए पिछले एक सप्ताह में ऐसे कई बड़े नीतिगत फैसले किये हैं और आनेवाले दिनों में कई और करने जा रही है जिन्हें लेकर न सिर्फ व्यापक राजनीतिक सहमति नहीं है बल्कि उनका कई राजनीतिक दलों, जन संगठनों, ट्रेड यूनियनों, छोटे और खुदरा व्यापारियों के संगठनों द्वारा विरोध किया जा रहा है.

यही नहीं, इन फैसलों से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को भले खूब फायदा हो लेकिन अर्थव्यवस्था और खासकर आम लोगों के रोटी-रोजगार पर बुरा असर पड़ने की आशंका है.

उदाहरण के लिए, खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव को वित्त मंत्रालय की हरी झंडी को ही लीजिए. दुनिया भर के अनुभवों से साफ़ है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से आम उपभोक्ताओं को कोई खास फायदा नहीं होता लेकिन उनकी आक्रामक रणनीति के कारण करोड़ों छोटे और मंझोले व्यापारियों की रोटी-रोजी खतरे में पड़ सकती है.

इसी तरह, नई मन्युफैक्चरिंग नीति और पेंशन फंड में सुधारों के नाम पर न सिर्फ श्रमिकों के हितों की बलि चढ़ाई जा रही है बल्कि लाखों लोगों की जीवन भर की कमाई को शेयर बाजार में उड़ाने का रास्ता साफ किया जा रहा है.


जारी...


('जनसत्ता' के नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त)

मंगलवार, नवंबर 22, 2011

बाजार बड़ा या आत्म-नियमन?

कसमे-वादे, आत्मनियंत्रण और आत्म-नियमन सब बातें है, बातों का क्या

न्यूज चैनलों की दुनिया में इन दिनों खासी उथल-पुथल है. प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयानों और इरादों से हडकंप मच हुआ है. ऐसा लगता है कि चैनलों को जस्टिस काटजू के डंडे का डर सताने लगा है. नतीजा, काटजू के भूत से निपटने के लिए चैनलों के अंदर कुछ कम लेकिन बाहर कुछ ज्यादा आत्मानुशासन और आत्म-नियमन का जाप होने लगा है.

आत्म-नियमन को लेकर अपनी ईमानदारी का सबूत देने के लिए चैनलों के संपादकों ने मिल-जुलकर ‘तीसरी कसम’ के हिरामन की तर्ज पर तीन नहीं, दस कस्में खाई हैं. इनका लब्बोलुआब यह है कि चैनल जानी-मानी अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म की रिपोर्टिंग करते हुए बावले नहीं होंगे.

वैसे कहते हैं कि कसमें तोड़ने के लिए ही होती हैं. देखें, इस कसम पर चैनल कितने दिन टिकते हैं और सबसे पहले इसे कौन तोड़ता है? नहीं-नहीं, संपादकों और उनकी कसम की ईमानदारी पर मुझे कोई शक नहीं है. उनकी बेचैनी भी कुछ हद तक समझ में आती है.

हालांकि उनमें से कई चैनलों में मची गंध के लिए कुछ हद तक खुद भी जिम्मेदार हैं लेकिन यह भी ठीक है कि इनमें से कई थक गए हैं, कुछ पूरी ईमानदारी से उस अंधी दौड़ से बाहर निकलना चाहते हैं जिसके कारण चैनलों के न्यूजरूम में अधिकतर फैसले संपादकीय विवेक से कम और इस डर से अधिक लिए जाते हैं कि अगर हमने इसे तुरंत नहीं दिखाया तो हमारा प्रतिस्पर्धी चैनल इसे पहले दिखा देगा.

लेकिन क्या इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना इतना आसान है? शायद नहीं. असल में, सिर्फ संपादकों के हाथ में कंटेंट की बागडोर होती और उनपर कोई बाहरी दबाव मतलब टी.आर.पी का दबाव नहीं होता तो शायद इतनी मुश्किल नहीं होती.

लेकिन कठिनाई यह है कि कमान उनके हाथ में नहीं है. वह बाज़ार के हाथ में है. बाज़ार टी.आर.पी से चलता है. इसलिए न्यूज चैनलों के लिए कंटेंट के मामले में नीचे गिरने की इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना न सिर्फ मुश्किल होता जा रहा है बल्कि नामुमकिन सा दिखने लगा है.

वजह साफ़ है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि जहाँ टी.आर.पी के लिए ऐसी मारामारी और गलाकाट होड़ हो, संपादकीय फैसले प्रतिस्पर्धी चैनलों को देखकर लिए जाते हों और सभी भेड़ की तरह एक-दूसरे के पीछे गड्ढे में गिरने को तैयार हों, वहां इस अंधी दौड़ का सबसे पहला शिकार आत्मानुशासन और आत्म-नियमन ही होता है.

यह संभव है कि इस बार ऐश्वर्या राय के मामले में न्यूज चैनल अपनी कसम निभा ले जाएं. लेकिन इस कसम की असल परीक्षा यह नहीं है कि ऐश्वर्या राय के मामले में चैनलों ने अपनी कसम कितनी ईमानदारी से निभाई?

असल सवाल यह है कि क्या चैनलों को ऐसे हर मामले पर संयम बरतने के लिए सामूहिक कसम खानी पड़ेगी? क्या चैनलों का अपना सम्पादकीय विवेक इतना कमजोर हो चुका है कि वे खुद यह फैसला करने में अक्षम हो गए हैं कि क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं?

क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि चैनल बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आत्म-नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गए हैं? सवाल है कि जिन मामलों में चैनलों ने सामूहिक कसम नहीं खाई होगी मतलब बी.ई.ए ने निर्देश नहीं जारी किये होंगे, उनमें चैनलों को खुला खेल फर्रुखाबादी की छूट होगी?

हैरानी की बात नहीं है कि जिन दिनों ऐश्वर्या राय के मामले में बी.ई.ए के निर्देशों को आत्म-नियमन के मेडल की तरह दिखाया जा रहा था, उन्हीं दिनों दो हिंदी न्यूज चैनलों ने खुलकर और कुछ ने दबे-छुपे राजस्थान के भंवरी देवी हत्याकांड में भंवरी और आरोपी कांग्रेसी नेताओं के सेक्स सी.डी दिखाए.

सवाल है कि इस सेक्स सी.डी को दिखाने के पीछे उद्देश्य क्या था? इसमें कौन सा जनहित शामिल था? क्या यह ‘अच्छे टेस्ट’ में था? आश्चर्य नहीं कि केन्द्र सरकार ने इस मामले में दोनों चैनलों को नोटिस भेजने में देर नहीं लगाई. सवाल है कि सरकार को अपनी नाक घुसेड़ने का मौका किसने दिया?

दूसरी ओर, एक गंभीर अंग्रेजी चैनल में आत्म-नियमन का हाल यह है कि उसके एक प्राइम टाइम लाइव शो में आध्यात्मिक गुरु श्री-श्री रविशंकर का घंटों पहले किया गया इंटरव्यू ऐसे दिखाया गया, मानो वे उस चर्चा में लाइव शामिल हों. साफ़ तौर पर यह धोखाधड़ी थी. कार्यक्रम के अतिथि रविशंकर के साथ भी और दर्शकों के साथ भी.

जाहिर है कि इसके लिए चैनल की खूब लानत-मलामत हुई है. हालांकि शुरूआती ना-नुकुर और तकनीकी बहानों के बाद चैनल ने अपनी गलती को ‘अनजाने में हुई गलती’ बताते हुए माफ़ी मांग ली है. लेकिन क्या यह अनजाने में हुई गलती थी या समझ-बूझकर की गई थी?

यह सवाल इसलिए और भी मौजूं हो जाता है क्योंकि इसी चैनल पर कुछ महीने पहले प्राइम टाइम में फर्जी ट्विटर सन्देश दिखाने का आरोप लगा था. न सिर्फ ये ट्विटर सन्देश फर्जी और न्यूजरूम में लिखे गए थे बल्कि उनमें बहस में एक खास पक्ष लिया गया था.

हालांकि ऐसी गलती अनजाने में नहीं हो सकती लेकिन चैनल ने उसे भी ‘अनजाने में हुई गलती’ बताकर माफ़ी मांग ली थी. इन दोनों प्रकरणों से एक बात पक्की है कि चैनल में कहीं कुछ गंभीर रूप से गडबड है जिसके कारण लगातार ‘अनजाने में’ ऐसी गंभीर गलतियाँ हो रही हैं?

इसका अर्थ यह भी है चैनल के संपादक ‘जाने में’ मतलब सोच-समझकर काम नहीं कर रहे हैं. जब गंभीर चैनलों की यह हालत है तो बाकी की दशा क्या होगी? ऐसे में, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस हालत में कितने चैनलों को मौके पर उन कसमों-निर्देशों की याद आएगी और कितने अनजाने में उन्हें भूल जाएंगे?

देखते रहिए, अगले कुछ सप्ताहों में यह पता चल जाएगा कि बाजार बड़ा है या आत्म-नियमन?





('तहलका' के  30 नवम्बर'

11  के अंक में प्रकाशित स्तम्भ : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1021.html )

सोमवार, नवंबर 21, 2011

बड़ी पूंजी को खुश करने की कवायद

लेकिन आँख मूंदकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के खतरे बहुत हैं 

भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों और महंगाई रोकने में नाकामी के आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार अपनी खोई हुई साख हासिल करने के लिए बेचैन है. उसकी यह बेचैनी स्वाभाविक है. इसकी वजह यह है कि लोगों के बीच साख खो चुकी सरकार अपना वह इकबाल भी गँवा देती है जिसके बिना शासन करना मुश्किल हो जाता है.

यू.पी.ए सरकार भी अपना इकबाल गंवाती जा रही है. लेकिन साख गंवाना आसान है पर उसे दोबारा हासिल करना उतना ही मुश्किल है. यह सच्चाई यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस को भी पता है.

आश्चर्य नहीं कि सरकार और कांग्रेस दोनों को समझ में नहीं आ रहा है कि वह अपनी पाताल में पहुँच गई साख को हासिल करने के लिए क्या करें? ऐसी स्थिति में सरकारें अक्सर ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार हो जाती हैं. उनमें बड़े नीतिगत फैसले करने के लिए जरूरी राजनीतिक साहस नहीं रह जाता है.

मनमोहन सिंह सरकार पर भी यह आरोप लग रहा है कि वह ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार हो गई है. मजे की बात यह है कि यह शिकायत उस आम आदमी की ओर से कम आ रही है जिसके वोट पर वह २००९ में दोबारा सत्ता में पहुंची. यह शिकायत सबसे ज्यादा उद्योग जगत और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की ओर से आ रही है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले छह महीने में बड़े उद्योगपतियों की ओर से आ रही ऐसी शिकायतों और अपीलों की झडी सी लग गई है जिसमें यू.पी.ए सरकार को ‘नीतिगत पक्षाघात’ के लिए लताड़ते, पुचकारते और धमकाते हुए रुके हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और जमीन अधिग्रहण से लेकर कोयला आदि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और दोहन की प्रक्रिया में आ रही रुकावटों को हटाने के लिए सख्त फैसले करने के लिए समझाया जा रहा है. गुलाबी अख़बारों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की यह बेचैनी सबसे ज्यादा दिखाई पड़ रही है.

उनकी इस बेचैनी के कारणों को समझना मुश्किल नहीं है. असल में, पिछले डेढ़-दो वर्षों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, भ्रष्टाचार के मामलों में राजनेताओं-उद्योगपतियों के साथ कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों की गिरफ्तारी, सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच घात-प्रतिघात की राजनीति और सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच खींचतान के कारण पूरी सरकार ठप्प सी हो गई है.

मंत्री और नौकरशाह फैसले लेने में हिचक रहे हैं. सरकार राजनीतिक बैकलैश के डर से बड़े नीतिगत फैसले लेने से बच रही है. यही नहीं, सरकार का ज्यादा समय गठबंधन के प्रबंधन और अन्ना हजारे के आंदोलन की राजनीतिक चुनौती से निपटने में जाया हो रहा है.

इससे बड़ी पूंजी और उद्योगपतियों में गहरी नाराजगी और बेचैनी है क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि २००९ के चुनावों में यू.पी.ए की जीत और वामपंथी पार्टियों के समर्थन पर सरकार की निर्भरता के खत्म होने के बाद मनमोहन सिंह सरकार रुके पड़े आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी.

खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को लग रहा था कि सरकार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण खासकर वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए और अधिक खोलने, खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और उड्डयन-रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने जैसे राजनीतिक रूप से कठिन फैसले करेगी.

उनकी बढ़ती बेचैनी की एक वजह यह भी है कि राजनीतिक रूप से कठिन और संवेदनशील नीतिगत फैसले किसी सरकार के कार्यकाल के पहले दो-तीन वर्षों में ही संभव हो पाते हैं क्योंकि तीसरे वर्ष के बाद चुनाव नजदीक आने के कारण सरकारों के लिए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फैसले करना मुश्किल होने लगता है और उनपर लोकलुभावन फैसलों का दबाव बढ़ने लगता है.

लेकिन यू.पी.ए सरकार के पहले दो-सवा साल भ्रष्टाचार और अंदरूनी झगडों में बर्बाद हो गए. बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उद्योगपतियों को लगने लगा है कि अगर अब कुछ जल्दी नहीं हुआ तो फिर चीजें हाथ से निकल जाएँगी.

बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की बेचैनी और घबडाहट का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आमतौर पर राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक टिप्पणी करने से बचनेवाले उद्योगपतियों- एच.डी.एफ.सी के दीपक पारेख, टाटा समूह के रतन टाटा, विप्रो के अजीम प्रेमजी से लेकर रिलायंस के मुकेश अम्बानी तक ने खुलकर यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ की आलोचना शुरू कर दी है.

यहाँ तक कि भारती एयरटेल के सुनील मित्तल ने तो विपक्ष के नेताओं को भी खुली चिट्ठी लिखकर अपील की है कि वे टकराव की राजनीति छोड़ें और सरकार को आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद करें.

बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की एक शिकायत यह भी है कि वे देश भर में जहाँ भी नए प्रोजेक्ट लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जमीन-पानी और खनिज संसाधनों को लेकर स्थानीय जनता का विरोध शुरू हो जा रहा है. इससे अधिकांश बड़े प्रोजेक्ट ठप्प पड़े हुए हैं. राजनीतिक रूप से कमजोर सरकार लोगों के विरोध से निपट नहीं पा रही है.

इसके अलावा बड़े पूंजीपतियों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि भ्रष्टाचार के मामलों को सही तरीके से संभाल पाने में सरकार की नाकामी के कारण दर्जन भर बड़े उद्योगपति और सी.ई.ओ महीनों से जेल में हैं. कुछ और जांच के घेरे में हैं और जेल जा सकते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हर सरकार को बड़ी पूंजी की नाराजगी अपने लिए खतरे की घंटी लगती है. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. उसे भी लगने लगा है कि अगर जल्दी ही बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए नीतिगत फैसले नहीं किये गए तो वह न सिर्फ उसका समर्थन खो देगी बल्कि सरकार की स्थिरता भी खतरे में पड़ जायेगी.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आशंका से घबड़ाई यू.पी.ए सरकार ने पिछले सप्ताह एक झटके में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के मन-माफिक कई बड़े नीतिगत फैसलों का एलान कर दिया है. इनमें खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (५१ फीसदी तक) के लिए खोलने से लेकर उड्डयन और वित्तीय क्षेत्र के और उदारीकरण और उनमें विदेशी निवेश बढ़ाने के फैसले किये हैं.

यही नहीं, आसमान छूती महंगाई और इससे आम लोगों में बढ़ती नाराजगी के बावजूद बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सरकार पेट्रोल की कीमतों के वि-नियमन और वित्तीय घाटा न बढ़ने देने के फैसले पर डटी हुई है. इस कारण, सरकार भोजन के अधिकार विधेयक पर भी कुंडली मारकर बैठी हुई है. यही नहीं, वित्त मंत्री ने विनिवेश के लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया है.

साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार जनता की नाराजगी झेलने के लिए तैयार है लेकिन वह बड़ी पूंजी को और नाराज करने के लिए राजी नहीं है. यही कारण है कि वह खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत के फैसले की छोटे-बड़े व्यापारियों द्वारा विरोध और उससे होनेवाले राजनीतिक नुकसान को भी उठाने के लिए तैयार है.

साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने की हड़बड़ी में यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ से सीधे ‘नीतिगत ओवर-स्पीड’ की स्थिति में चली गई है. वह इन फैसलों से होनेवाले फायदे-नुकसान का ईमानदार और स्वतंत्र आकलन करने के बजाय सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का हित देख रही है.

इन फैसलों के जरिये वह उनका भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है. लेकिन इस कोशिश में वह व्यापक जनहित और अर्थव्यवस्था की जरूरतों की अनदेखी कर रही है जो भविष्य में देश को भारी पड़ सकते हैं. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि सरकारों को जनता से ज्यादा बड़ी पूंजी के हितों की चिंता है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में २१ नवम्बर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित संक्षिप्त लेख का पूरा हिस्सा)

गुरुवार, नवंबर 17, 2011

उत्तर प्रदेश के विभाजन से खुलती नई राहें

लेकिन तदर्थ फैसले के खतरे भी बहुत हैं

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती का बड़े राजनीतिक दांव चलने और उसके लिए राजनीतिक जोखिम उठाने में कोई जोड़ नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान चुनाव से ठीक पहले प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का प्रस्ताव करके बड़ा राजनीतिक जुआ खेला है.

मायावती के इस दांव ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश की गद्दी के तीनों दावेदारों खासकर कांग्रेस को मुश्किल में डाल दिया है बल्कि उत्तर प्रदेश के राजनीतिक और चुनावी एजेंडे को भी बदलने की कोशिश की है.

विरोधी भले इसे मायावती का चुनावी चाल कहें लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से साफ़ है उन्हें इसका माकूल जवाब देने में मुश्किल हो रही है. निश्चय ही, यह एक चुनावी चाल है लेकिन यह एक सोचा-समझा राजनीतिक दांव या जुआ भी है. यह स्वीकार करना पड़ेगा कि यह जोखिम उठाने की हिम्मत मायावती ही कर सकती थीं.

यह ठीक है कि एक गुणा-जोड़ (कैलकुलेटेड) करके उठाया गया राजनीतिक जोखिम है लेकिन मायावती यह जोखिम उठाने का साहस कर सकीं तो इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके नेताओं में राज्य को लेकर न तो कोई बड़ी और अलग सोच, समझ और कल्पना है, न कोई नया कार्यक्रम और योजना.

यहाँ तक कि उनमें मायावती जितना राजनीतिक जोखिम उठाने का साहस भी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा के इस फैसले ने प्रदेश की सभी पार्टियों को हक्का-बक्का कर दिया है. मायावती को अच्छी तरह पता है कि राज्य कैबिनेट के इस फैसले पर अगले सप्ताह विधानसभा की मुहर लग भी जाती है तो राज्य के विभाजन और चार नए राज्यों के बनने की प्रक्रिया राजनीतिक रूप से इतनी आसान नहीं होगी.

उन्हें यह भी पता है कि यह मुद्दा न सिर्फ आंध्र प्रदेश में तेलंगाना आंदोलन के कारण कांग्रेस के लिए दुखती रग बना हुआ है बल्कि इसने सपा और भाजपा के चुनावी गणित को भी गडबडा दिया है.

लेकिन कुछ देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि मायावती के इस फैसले के पीछे राजनीतिक ईमानदारी कम और दांवपेंच अधिक है, फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इसी बहाने उत्तर प्रदेश की सामाजिक जड़ता, ठहरी हुई राजनीति और गतिरुद्ध अर्थव्यवस्था में हलचल तो हुई है.

चूँकि मायावती के इस फैसले के पीछे सबसे बड़ा तर्क समग्र विकास और बेहतर प्रशासन है, इसलिए यह उम्मीद पैदा होती है कि इसके साथ शुरू होनेवाली राजनीतिक बहसों में बात अस्मिताओं की राजनीति से आगे राज्य के आर्थिक और मानवीय विकास और विभिन्न वर्गों में उसकी न्यायपूर्ण बंटवारे की ओर बढ़ेगी.

अफसोस की बात यह है कि बसपा समेत सभी पार्टियां इस बहस से मुंह चुराने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश या कहिये नए राज्यों के भविष्य के लिए यह चर्चा बहुत जरूरी है. असल सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के पीछे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तर्क कितने गंभीर और प्रभावी हैं?

पहली बात यह है कि छोटे राज्य आर्थिक विकास की गारंटी नहीं हैं. कारण यह कि आर्थिक विकास खासकर समावेशी विकास का सम्बन्ध का राजनीति और उसकी आर्थिक नीतियों से है. दूसरे, छोटे राज्य का मतलब बेहतर प्रशासन नहीं है. बेहतर प्रशासन के लिए भी बेहतर राजनीति की जरूरत है.

कहने का मतलब यह कि उत्तर प्रदेश का विभाजन उसके सभी मर्जों के इलाज की गारंटी नहीं है. लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अगर उत्तर प्रदेश का विभाजन न हो तो उसकी सभी समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाएँगी.

सच पूछिए तो दोनों ही मामलों में उत्तर प्रदेश की राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक समस्याओं का हल एक बेहतर राजनीति से ही संभव है जो न सिर्फ सोच और दृष्टि के मामले में नए विचारों से लैस हो बल्कि जो राजनीतिक प्रक्रिया में आम लोगों खासकर गरीबों की व्यापक भागीदारी पर खड़ी हो. समावेशी आर्थिक विकास, समावेशी जनतांत्रिक राजनीति के बिना संभव नहीं है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश में मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां अस्मिता की राजनीति पर आधारित अपने सीमित जातिगत आधार और संकीर्ण दृष्टि के कारण ऐसा समावेशी जनतांत्रिक राजनीति विकल्प देने में अक्षम साबित हुई हैं.

सवाल है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन से क्या यह चक्रव्यूह टूट पायेगा? विडम्बना यह है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन की यह मांग किसी व्यापक जनतांत्रिक आंदोलन से नहीं निकली है, इसलिए इस बात की सम्भावना कम है कि नए राज्यों में तुरंत कोई वैकल्पिक राजनीति उभर पाएगी.

इस कारण इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि शुरूआती वर्षों में इन नए राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता, जोड़तोड़, खरीद-फरोख्त, भ्रष्टाचार और कुप्रशासन का बोलबाला रहे. लेकिन क्या इस डर से नए राज्य का गठन नहीं किया जाना चाहिए?

इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि नए राज्यों खासकर बुंदेलखंड और पूर्वांचल को शुरूआती वर्षों में वित्तीय संसाधनों की कमी से जूझना पड़ेगा. उन्हें केन्द्रीय मदद की जरूरत पड़ेगी. लेकिन नए राज्यों के गठन को सिर्फ इस आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है.

लेकिन नए राज्य का मुद्दा सिर्फ उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक पुनर्गठन का सवाल भी नहीं है जैसाकि मायावती साबित करने की कोशिश कर रही हैं. मायावती ने राज्य के विभाजन के प्रस्ताव को कुछ इस तरह पेश किया है जैसे वह राज्य में नए जिलों या कमिश्नरियों की घोषणा कर रही हों.

बेशक, उत्तर प्रदेश के विभाजन के मुद्दे को तदर्थ और चलताऊ तरीके से आगे बढाने के बजाय उसपर व्यापक बहस और विचार-विमर्श की जरूरत है. यही नहीं, दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन को भी और नहीं टाला नहीं जाना चाहिए.

सच पूछिए तो दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग ही राज्यों के पुनर्गठन और नए राज्यों के बारे में व्यापक सहमति पर आधारित मानक तय कर सकता है. लेकिन यू.पी.ए सरकार और इससे पहले एन.डी.ए सरकार ने भी जिस तदर्थ तरीके और राजनीतिक अवसरवाद के आधार पर नए राज्यों का फैसला किया है, उसके कारण ही मायावती को यह राजनीतिक दांव चलने का मौका मिला है.

कांग्रेस और भाजपा इसके लिए मायावती की शिकायत नहीं कर सकते हैं. आखिर उत्तर प्रदेश का विभाजन का सवाल कोई ऐसी ‘पवित्र गाय’ नहीं है जिसपर चर्चा नहीं हो सकती है. भूलिए मत, उत्तराखंड हवा से नहीं, उत्तर प्रदेश से ही निकला था.

('राष्ट्रीय सहारा' के १७ नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, नवंबर 15, 2011

संकट में ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ और बेचैन सरकार

माल्या की मदद करके सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालना चाहती है 

कहते हैं समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है और अच्छे दिन बीतते समय नहीं लगता है. खासकर अगर आप फिजूलखर्च, तड़क-भड़क और मनमाने फैसले लेने में यकीन रखते हों तो समझिए कि मुसीबत दरवाजे पर इंतज़ार कर रही है. लेकिन लगता है कि ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ (किंग आफ गुड टाइम्स) को कारोबार का यह मामूली सबक याद नहीं रहा.

नतीजा, उनके भी बुरे दिन आ गए लगते हैं. खबर है कि देश की सबसे बड़ी शराब कंपनी यूनाइटेड ब्रूअरिज के मालिक और अरबपति विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गई है.

माली हालत खराब होने के कारण देश की दूसरी सबसे बड़ी निजी एयरलाइन किंगफिशर को पिछले एक-डेढ़ सप्ताह में अपनी 250 से ज्यादा फ्लाईट रद्द करनी पड़ी है. पायलटों और कर्मचारियों को अक्टूबर महीने की तनख्वाह अभी नहीं मिली है. कंपनी पर बैंकों, तेल कंपनियों, एयरपोर्ट और लीजदाताओं का साढ़े सात हजार करोड़ रूपये से अधिक का बकाया है.

यही नहीं, किंगफिशर एयरलाइंस की पतली हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले तीन वर्षों में उसे कोई 4700 करोड़ रूपयों का घाटा हुआ है. उसकी कुल परिसंपत्तियों के मुकाबले उसके कुल कर्ज का अनुपात 82 फीसदी तक पहुँच चुका है.

कंपनी की बिगड़ती माली हालत और भारी बकाए को देखते हुए तेल कंपनियों ने क्रेडिट पर तेल देना बंद कर दिया है जबकि उसे लीज पर विमान देनेवाली कम्पनियाँ भुगतान न होने के कारण अपने विमान वापस लेने लगी हैं.

यहाँ तक कि कंपनी के पास जहाजों के टायर बदलने के भी पैसे नहीं हैं. साफ है कि अगर यही हाल रहा तो अगले कुछ दिनों में किंगफिशर न सिर्फ दिवालिया हो जायेगी बल्कि उसे कर्ज देनेवाले बैंकों का पैसा भी डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है.

ऐसे संकट में कंपनियों और उनके मालिकों को सरकार की याद आती है. आश्चर्य नहीं कि विजय माल्या भी सरकार और बैंकों का दरवाजा खटखटा रहे हैं. हालांकि वे किंगफिशर के लिए सरकार से बेलआउट मांग रहे हैं लेकिन यह स्वीकार करते हुए शरमा रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें बेलआउट नहीं चाहिए बल्कि वे बैंकों से सिर्फ कर्ज लेने की क्रेडिट सीमा बढ़ाने और मौजूदा कर्ज पुनर्गठित करने की अपील कर रहे हैं.

चूँकि बैंक किंगफिशर में पहले ही बहुत पैसा झोंक चुके हैं और इस साल उन्हें लगभग 1300 करोड़ रूपये के कर्ज को इक्विटी में बदलना और डूबती कंपनी 23 फीसदी की भागीदारी लेने पर मजबूर होना पड़ा, इसलिए बैंक और पैसा लगाने में हिचक रहे हैं.

लेकिन माल्या चाहते हैं कि बैंक एयरलाइन में और पैसा लगाएं. सवाल है कि बैंक एक डूबती कंपनी में पैसा क्यों लगाएं? किंगफिशर इस बुरी स्थिति में कैसे पहुंची? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? लेकिन उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में ऐसे सवाल पूछने का चलन बंद हो चुका है. ऐसे में, किस में यह साहस है कि वह निजी क्षेत्र वह भी माल्या जैसे ताकतवर उद्योगपति से ऐसे असुविधाजनक सवाल पूछे?

सरकार भी ये प्रश्न पूछने के लिए तैयार नहीं है. उल्टे ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ की इस दयनीय स्थिति से उड्डयन मंत्री व्यालार रवि का दिल पसीज उठा है और उन्होंने माल्या की मदद के लिए वित्त मंत्री और पेट्रोलियम मंत्री से बात करने का वायदा किया है. खुद प्रधानमंत्री ने भी संकट में फंसी एयरलाइंस (किंगफिशर) की मदद के लिए ‘उपाय और संसाधन खोजने’ की बात कही है.

विडम्बना देखिए कि अभी कुछ महीनों पहले तक सरकारी एयरलाइन- एयर इंडिया की बदहाली के लिए सरकार की लानत-मलामत करते हुए निजी एयरलाइन कंपनियों की कार्यकुशलता, बिजनेस माडल और तेजतर्रार प्रबंधन का बखान किया जा रहा था. कहा जा रहा था कि सरकार एयरलाइन नहीं चला सकती और उसमें जनता का पैसा डूबाने से अच्छा होगा कि एयर इंडिया को भी किसी निजी एयरलाइन कंपनी को बेच दिया जाए.

कहते हैं कि विजय माल्या की एयर इंडिया पर लंबे समय से आँख लगी थी. आरोप तो यहाँ तक हैं कि किंगफिशर और दूसरी निजी एयरलाइंस को फायदा पहुंचाने के लिए सुनियोजित तरीके से एयर इंडिया को कमजोर और बर्बाद किया गया.

इसके बावजूद किंगफिशर डूब रही है. माल्या अपने को छोडकर बाकी सभी को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. उनके मुताबिक, किंगफिशर की यह हालत विमानन क्षेत्र में लगनेवाले अत्यधिक टैक्स, अत्यधिक रेगुलेशन, महंगे ईंधन, डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत और निजी विमान पर कंपनियों पर सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के नाम पर घाटे वाले रूटों पर उड़ानों की मजबूरी के चलते हुई है.

उनका यह भी तर्क है कि सिर्फ किंगफिशर ही नहीं, एयर इंडिया समेत सभी निजी एयरलाइंस की हालत खस्ता है. लब्बोलुआब यह कि एयरलाइंस उद्योग के मौजूदा संकट के लिए सरकार जिम्मेदार है और अब उसकी ही जिम्मेदारी है कि वह उन्हें इस संकट से निकालने के उपाय ढूंढे.

यह तर्क नया नहीं है. इसका सीधा सा मतलब यह है कि मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सरकारीकरण. इस तरह जब और जहाँ मुनाफा हो तो वह निजी कंपनियों का और जब घाटा हो तो सरकार के मत्थे. याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की यह सबसे खास पहचान रही है.

लेकिन मजे की बात यह है कि बात-बात में बाजार की दुहाई देनेवाले अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक अपनी ही बातों को भूल जाते हैं. लेकिन उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि वे खुद बाजार में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करने और उसे अपना काम करने देने की वकालत करते रहे हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि किंगफिशर की खराब माली हालत के लिए कोई और नहीं खुद उसका प्रबंधन जिम्मेदार है जिसने बाजार की अनदेखी करके एयरलाइन को मनमाने तरीके से चलाने की कोशिश की है. खुद बाजार के पैरोकार कहते रहे हैं कि बाजार किसी को नहीं बख्शता है. जाहिर है कि ‘अच्छे दिनों के बादशाह’ माल्या भी इसके अपवाद नहीं हैं.

सवाल यह है कि किंगफिशर और दूसरी निजी एयरलाइंस के मामले में भी बाजार को अपना काम क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? अगर ये एयरलाइन्स वित्तीय रूप से व्यावहारिक नहीं रह गईं हैं तो इन्हें डूब जाने देना चाहिए. यह माल्या जैसे उद्योगपतियों के लिए एक सबक होगा.

लेकिन सरकार माल्या की मदद के लिए बेचैन है. माल्या के साथ जल्दी ही जेट के नरेश गोयल और स्पाइसजेट के कलानिधि मारन भी खड़े दिखाई देंगे. इस मदद के लिए तर्क गढे जा रहे हैं. ये तर्क नए नहीं हैं.

कहा जा रहा है कि निजी एयरलाइंस के फेल होने से हजारों कर्मचारियों की नौकरी खतरे में पड़ जायेगी, लाखों यात्रियों को परेशानी होगी, देश की छवि खराब होगी, निवेशकों का विश्वास टूट जाएगा और कारोबारी माहौल बिगड जाएगा. खुद माल्या ट्वीट कर रहे हैं कि दुनिया भर में संकट में पड़ी निजी एयरलाइनों को उनकी सरकारों ने खुलकर मदद की है.

यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. असल में, सरकार माल्या की मदद के लिए इसलिए भी बेचैन है क्योंकि वह अपनी नाकामी को छुपाना चाहती है. सच यह है कि उड्डयन क्षेत्र के निजीकरण की उसकी नीति बुरी तरह फेल कर गई है. यही कारण है कि न सिर्फ किंगफिशर समेत अधिकांश निजी एयरलाइन्स बल्कि एयर इंडिया की भी हालत खस्ता है.

लेकिन इस नाकामी के लिए जिम्मेदार मंत्रियों और अफसरों के साथ-साथ निजी एयरलाइंस के मालिकों और प्रबंधकों को कटघरे में खड़ा करने और इस नीति पर पुनर्विचार करने के बजाय सरकार लीपापोती करने में जुट गई है.

चिंता की बात यह है कि सरकारी बैंकों को जबरन एक विफल कारोबार में पैसा झोंकने के लिए मजबूर किये जाने की तैयारी चल रही है. हैरानी की बात यह है कि अरबपति माल्या खुद अपना एक पैसा किंगफिशर में लगाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन वे चाहते हैं कि बैंक और पैसा लगाएं. माल्या मानें या न मानें लेकिन यह पिछले दरवाजे से बेलआउट है.

आखिर बैंकों का पैसा भी आम आदमी का पैसा है. उल्लेखनीय है कि खुद बैंकों की हालत अच्छी नहीं है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, अधिकांश बैंकों के नान परफार्मिंग एसेट (एन.पी.ए) यानी पैसे डूबने में बढोत्तरी हुई है. इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में शेयर बाजार में लिस्टेड बैंकों के एन.पी.ए में 33 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है और यह एक लाख करोड़ रूपये तक पहुँच गई है.

आशंका है कि अगले कुछ महीनों में ऐसे मामले और बढ़ेंगे. इसे देखते हुए मूडीज जैसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ने भारतीय बैंकों की रेटिंग घटा दी है. इसका अर्थ यह हुआ कि माल्या जैसों को उबारने की जल्दबाजी बैंकों को बहुत भारी पड़ सकती है. आश्चर्य नहीं होगा अगर जल्दी ही कई बैंक भी सरकार के दरवाजे बेलआउट की गुहार लगाते नजर आएं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे हालात में बैंकों के बेलआउट का मतलब प्रकारांतर से किंगफिशर जैसी कंपनियों के घाटे की भरपाई है. जाहिर है कि यह भरपाई आम आदमी की कीमत पर ही होगी. विडम्बना देखिए कि माल्या जैसे अमीरों की ऐश और मनमानियों का खामियाजा उस आम आदमी को उठाना होगा जिसके लिए हवाई यात्रा तो दूर, दो जून का भोजन भी सपना है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में 15 नवम्बर को प्रकाशित संक्षिप्त लेख का पूरा हिस्सा)

गुरुवार, नवंबर 10, 2011

दुष्चक्र में यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं

आर्थिक संकट अब राजनीतिक संकट में तब्दील होता दिख रहा है



यूरोप का आर्थिक-वित्तीय संकट दिन पर दिन गहराता जा रहा है. इस संकट की आग में यूरो जोन की एक के बाद दूसरी अर्थव्यवस्थाएं झुलसती जा रही हैं. मुश्किल यह है कि यह संकट सिर्फ एक या दो देशों तक सीमित या केवल आर्थिक और वित्तीय संकट नहीं रह गया है.

इस संकट से निपटने में यूरोपीय और अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी के कारण यह एक गंभीर राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. यूनान (ग्रीस) के प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू की बलि चढ़ चुकी है और इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की कुर्सी खतरे में है. यही नहीं, इसने यूरोप के आर्थिक और वित्तीय एकीकरण की प्रक्रिया को गंभीर खतरे में डाल दिया है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले सप्ताह फ़्रांस के कान शहर में जी-२० के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में भी यूरोपीय आर्थिक संकट ही छाया रहा. इस बैठक में यूरोप के साथ-साथ अन्य विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष और मुद्रा कोष के अधिकारी यूरोपीय आर्थिक संकट खासकर यूनान (ग्रीस) को दिवालिया होने से बचाने के उपाय ढूंढते रहे.

हालांकि इस बैठक में खूब माथापच्ची हुई, अनेकों सुझाव आए और इस संकट के समाधान के प्रस्ताव भी पारित किये गए लेकिन उसमें ठोस उपाय कुछ भी नहीं है. सिर्फ दावे और वायदे हैं और संकट में फंसे यूनान से लेकर इटली जैसे देशों के लिए कड़वी आर्थिक और राजनीतिक गोलियाँ हैं.

असल में, इस आर्थिक-वित्तीय संकट खासकर यूनान को दिवालिया होने से बचाने, इटली से लेकर स्पेन तक की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और सबसे बढ़कर निवेशकों में विश्वास पैदा करने के लिए से जितने वित्तीय संसाधनों और जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसकी कमी साफ़ दिखाई दे रही है.

संकट से निपटने की बातें खूब हो रही हैं, बैठकें खूब हो रही हैं और समाधान भी पेश किये जा रहे हैं लेकिन कोई भी देश इसके लिए अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार नहीं है. खासकर जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं.

नतीजा, यूनान (ग्रीस) को संकट से बाहर निकालने के लिए यूरोपीय नेताओं की माथापच्ची अभी जारी ही थी कि इटली की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने उनका सिरदर्द बढ़ा दिया है. समस्या यह है कि इटली की अर्थव्यवस्था यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर इटली की अर्थव्यवस्था एक बार ढही तो उसे सँभालने के लिए यूरोप के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही उसके झटके से उबरने की तैयारी है.

उन्हें यह भी पता है कि इटली की अर्थव्यवस्था के ढहने की स्थिति में स्पेन, पुर्तगाल जैसी पहले से संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्थाएं ही नहीं बल्कि फ़्रांस, जर्मनी जैसी बड़ी और ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं को भी लड़खड़ाते देर नहीं लगेगी.

इसके बावजूद संकट से निपटने के लिए जैसी राजनीतिक प्रतिबद्धता, इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए सक्रिय पहलकदमी की जरूरत है, उसके लिए राजनीतिक-आर्थिक रूप से सक्षम जर्मनी और फ़्रांस जैसे यूरोपीय देश और बाकी विकसित देश तैयार नहीं हैं. उल्टे कर्ज संकट से निपटने के नाम पर यूनान, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन जैसे देशों को खर्चों में कटौती के लिए मजबूर किया जा रहा है, उसके कारण स्थिति संभलने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.

एक तो खर्चों में कटौती का सारा बोझ जिस तरह से आम लोगों पर डाला जा रहा है, उसके कारण न सिर्फ लोगों की नाराजगी बढ़ रही है बल्कि इन उपायों को लोगों के गले उतारना भी राजनीतिक रूप से मुश्किल होता जा रहा है.

यूरोप के अधिकांश देशों में लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरकर इन कटौती प्रस्तावों का विरोध कर रहे हैं जिसके कारण सरकारें अलोकप्रिय और राजनीतिक वैधता खोती जा रही हैं. हालात कितने गंभीर होते जा रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आम लोग एक ओर हैं और सरकारें/संसद दूसरी ओर.

इन हालात में यूनानी प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू ने जब यूरोपीय संघ के साथ हुई डील और बेल आउट पैकेज पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की तो यूरोप के बाजारों में घबराहट फ़ैल गई और बाजार गिरने लगा. वित्तीय बाजार को यह आशंका थी और सही थी कि इस डील को लोग नामंजूर कर देंगे.

नतीजा, जर्मनी और फ़्रांस सहित यूरोपीय संघ और मुद्रा कोष के अधिकारियों ने पापेंद्र्यू पर जनमत संग्रह न कराने का जबरदस्त दबाव डाला. पापेंद्र्यू को धमकाया गया कि यूनान बेल आउट की शर्तों को तुरंत स्वीकार करे अन्यथा उसे कोई मदद नहीं मिलेगी. मजबूरी में पापेंद्र्यू को अपना फैसला बदलना पड़ा.

लेकिन इससे उनकी जो राजनीतिक फजीहत हुई, उसके कारण आखिरकार पापेंद्र्यू को जाना पड़ा. अब यूनान में एक सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि बेल आउट पैकेज के साथ जुड़ी शर्तों और आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू किया जा सके.

ऐसे ही हालात इटली में भी बन गए हैं जहाँ बाजार को खुश करने और सुधारों और कटौतियों की कड़वी गोली को लोगों के गले के नीचे उतारने के लिए यूरोपीय संघ के नेता बर्लुस्कोनी की बलि चढाने के लिए तैयार हैं. लेकिन इससे संकट सुलझ जाएगा, इसके आसार कम हैं.

असल में, यूरोपीय संघ और विकसित देशों के नेता मौजूदा कर्ज संकट से निपटने के लिए जिस रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, उससे संकट और गहराता जा रहा है. इसकी वजह यह है कि यह वित्तीय संकट जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करने के कारण पैदा हुआ है, उससे निपटने के नाम पर उन्हीं नीतियों को और कड़ाई से थोपने की कोशिश की जा रही है.

इससे आवारा वित्तीय पूंजी भले खुश और आश्वस्त हो जाए लेकिन संकट नहीं दूर होनेवाला है. दरअसल, यूरोप के मौजूदा वित्तीय संकट के समाधान के बतौर जिस तरह से खर्चों और वित्तीय घाटे में कटौती को आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे तय है कि लोगों की क्रयशक्ति पर बुरा असर पड़ेगा और मांग में कमी आ सकती है जिससे इन अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

अर्थव्यवस्थाएं न सिर्फ मंदी में फंस सकती हैं बल्कि यह मंदी लंबी खिंच सकती है. मंदी के कारण सरकारी राजस्व की वसूली में कमी आ सकती है जिससे कर्ज संकट और गंभीर रूप ले सकता है. साफ है कि यह एक दुष्चक्र है जिसमें यूरोप फंस गया है.

लेकिन यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व इस सच्चाई को सुनने और समझने को तैयार नहीं है. तथ्य यह है कि उसकी इसी जिद के कारण यूरोप को मौजूदा संकट का सामना करना पड़ रहा है.

अगर यूरोप के राजनीतिक नेतृत्व ने अमेरिकी मंदी के बाद लडखडाई वैश्विक अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए तैयार स्टिमुलस उपायों को हड़बड़ी में वापस नहीं लिया होता और वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतसारी नहीं शुरू की होती तो यह संकट शायद आता ही नहीं.

साफ है कि यूरोप अपने ही बनाए जाल में उलझ गया है.

('राजस्थान पत्रिका' के १० नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

महंगाई का राजनीतिक अर्थशास्त्र


अर्थनीति, राजनीति के नियंत्रण से मुक्त हो चुकी है और सरकार ने बाजार के आगे घुटने टेक दिए हैं





अर्थव्यवस्था जब राजनीति की पकड़ से निकल जाती है तो आम लोगों की जरूरतें कुछ होती हैं और अर्थव्यवस्था ठीक उसकी उलटी राह लेती है. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार के राज में भी अर्थव्यवस्था, राजनीति की पकड़ से बाहर निकल चुकी है.

इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई पिछले दो-ढाई वर्षों से लगातार नए रिकार्ड बना रही है लेकिन यू.पी.ए सरकार का उसपर कोई काबू नहीं रह गया है. सच पूछिए तो सरकार ने न सिर्फ महंगाई पर अंकुश लगाने के मुद्दे पर एक तरह से हाथ खड़े कर दिए हैं बल्कि महंगाई की सुरसा के आगे घुटने टेक दिए हैं.

यही नहीं, अर्थव्यवस्था पर यू.पी.ए सरकार की राजनीतिक पकड़ किस हद तक कमजोर पड़ चुकी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस दिन यह खबर आई कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई नौ महीने के नए रिकार्ड १२.२१ फीसदी पर पहुँच चुकी है, सरकारी तेल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतों में प्रति लीटर १.८२ रूपये की बढोत्तरी की घोषणा कर दी.

खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया कि इस फैसले से महंगाई और बढ़ेगी लेकिन उन्होंने यह कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि पेट्रोल की कीमतें नियंत्रणमुक्त हो चुकी हैं और कीमतें बढ़ाने का फैसला तेल कंपनियों का है, उसमें वह कुछ नहीं कर सकते हैं.

हालांकि इस फैसले का आर्थिक तर्क संदेहास्पद है लेकिन एक मिनट के लिए तेल की कीमतों में बढोत्तरी के आर्थिक तर्क को मान भी लिया जाए तो इसका राजनीतिक तर्क समझ से बाहर है. एक ऐसे समय में जब भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार साख के संकट का सामना कर रही है और आसमान छूती महंगाई के कारण आम लोगों के बीच अलोकप्रिय होती जा रही है, उस समय आग में घी डालने की तरह तेल की कीमतों में फिर बढोत्तरी के फैसले के दो ही अर्थ हो सकते हैं.

पहला यह कि यू.पी.ए सरकार अर्थव्यवस्था खासकर तेल कंपनियों की आर्थिक सेहत के हित में राजनीतिक जोखिम उठाने के लिए तैयार है और उसे इसके राजनीतिक नतीजों की बहुत परवाह नहीं है. दूसरे, अर्थव्यवस्था वास्तव में राजनीति की पकड़ से मुक्त हो चुकी है और वह आम लोगों की समस्याओं और जरूरतों से ज्यादा मुनाफे के खालिस आर्थिक तर्क से संचालित हो रही है. ऊपर से अलग दिखनेवाली इन दोनों ही बातों में वास्तव में कोई फर्क नहीं है. वे एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं. इसके आर्थिक-राजनीतिक निहितार्थ बहुत गहरे हैं.

लेकिन यह कोई अबूझ पहेली नहीं है. दरअसल, यह नव उदारवादी राजनीतिक-आर्थिक सैद्धांतिकी है जिसकी बुनियाद इस तर्क और समझ पर टिकी है कि राज्य यानी राजनीति को अर्थव्यवस्था से दूर रहना चाहिए. इस आधार पर अर्थव्यवस्था को राजनीतिक दबावों और हस्तक्षेप से मुक्त रखने और बाजार की शक्तियों के हवाले छोड़ने की वकालत की जाती रही है. वैसे तो इस सैद्धांतिकी की वैचारिक जड़ें मुक्त बाजार की क्लासिकल पूंजीवादी सैद्धांतिकी में धंसी हुई हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री थैचर के नेतृत्व में इसका नया पुनर्जन्म हुआ.

लेकिन इसका पालन-पोषण विश्व बैंक-मुद्रा कोष की अगुवाई में हुआ और ८० और खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद ९० के दशक में ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है’ (टीना फैक्टर) का हवाला देते हुए भारत जैसे तमाम विकासशील देशों पर थोप दिया गया. मजे की बात यह है कि भारतीय शासक वर्ग ने न सिर्फ इसे आगे बढ़कर स्वीकार किया बल्कि उसे जोर-शोर से लागू करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी. इसके तहत अर्थव्यवस्था यानी बाजार को राजनीति के नियंत्रण से मुक्त करने की शुरुआत एक गैर राजनीतिक व्यक्ति मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाने से हुई.

उसके बाद का इतिहास सबको पता है. इन दो दशकों में बाजार न सिर्फ राजनीति के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त होता चला गया बल्कि राजनीति की कमान भी बाजार के हाथों में पहुँच गई है. इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि इन दो दशकों में कांग्रेस, भाजपा और उनके गठबंधनों के अलावा तीसरे मोर्चे की सरकारें आईं लेकिन सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की रही हो लेकिन उनकी आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं आया.

सभी पूरी निष्ठा से नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे रहे. राजनीति, अर्थनीति की पिछलग्गू बनके रह गई. नतीजा, अर्थनीति के स्वतंत्र होते ही राजनीति सिर्फ राजनीति के लिए होने लगी जिसमें शोर तो बहुत है लेकिन कोई सत्व नहीं है.

इसी दौर में यह भी हुआ है कि अर्थनीति, बजट और आर्थिक फैसलों में राजनीति के बजाय बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उसके कारपोरेट प्रतिनिधियों का दखल बढ़ता चला गया है. इसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में बड़े उद्योगपतियों और टेक्नोक्रेट अर्थशास्त्रियों को शामिल करके संस्थागत रूप भी दे दिया गया है.

आर्थिक नीतियों और फैसलों में बड़ी पूंजी के लाबीइंग संगठनों- सी.आई.आई, एसोचैम और फिक्की और बड़े कारपोरेट समूहों का हस्तक्षेप किसी से छुपा नहीं है. यही नहीं, बड़े कारपोरेट समूह विभिन्न आर्थिक मंत्रालयों में अपनी पसंद के मंत्री और अफसर तक नियुक्त कराने में कामयाब होने लगे.

यही नहीं, अर्थनीति के राजनीति के नियंत्रण से मुक्त होने का एक और सुबूत यह है कि सरकार के गोदामों में रिकार्ड ६५० लाख टन से अधिक अनाज होने और उसके सड़ने और बर्बाद होने से खीजे सुप्रीम कोर्ट के उसे मुफ्त बाँटने के निर्देश के बावजूद यू.पी.ए सरकार टस से मस नहीं हुई. जाहिर है कि उसे वित्तीय घाटे की चिंता ज्यादा है.

कारण यह कि नव उदारवादी अर्थनीति में वित्तीय घाटे पर अंकुश को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है. वित्तीय घाटे पर अंकुश रखने के पीछे असली मकसद राजनीति को अंकुश में रखना है क्योंकि अगर आम लोगों को महंगाई से राहत देना है या उनकी दूसरी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना है तो निश्चित ही, वित्तीय घाटा बढ़ेगा. या फिर सरकार को अपनी आय बढ़ानी पड़ेगी जिसके लिए अमीरों और कारपोरेट पर टैक्स बढ़ाना पड़ेगा.

लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति अमीरों और कार्पोरेट्स पर टैक्स बढ़ाने का सबसे ज्यादा विरोध करती है क्योंकि वह इसे बाजार विरोधी मानती है. इस तरह, वित्तीय घाटे को काबू में करने के नाम पर इसका सारा जोर सरकारी खर्चों में कटौती और तमाम उत्पादों और सेवाओं के बाजार मूल्य के भुगतान पर होता है. इस तर्क के आधार ही यू.पी.ए सरकार पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने की वकालत करती रही है.

यही नहीं, इस बाजार में उसकी इतनी गहरी आस्था है कि पिछले दो साल से रिकार्ड बनाती महंगाई के बावजूद वह इसमें किसी भी हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसका मानना है कि यह महंगाई मांग और आपूर्ति के असंतुलन से पैदा हुई है और उसे बाजार का ‘अदृश्य हाथ’ ही ठीक करेगा.

यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री का भी यह मानना है कि यह महंगाई लोगों की आय बढ़ने और उसके कारण खाद्य वस्तुओं की मांग में बढोत्तरी के कारण है. साफ है कि प्रधानमंत्री इस महंगाई को भी अपनी अर्थनीति की सफलता के रूप में देख रहे हैं. नतीजा यह कि वह भी महंगाई पर अंकुश के लिए किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के बजाय बाजार के ‘अदृश्य हाथ’ पर भरोसा करके बैठे हैं.

इसी भरोसे के कारण वह हर कुछ महीने पर अगले कुछ महीनों में मुद्रास्फीति में कमी आने का दावा करते हैं. लेकिन वह भूल रहे हैं कि बाजार का ‘अदृश्य हाथ’ कीमतों को बढ़ाने के जरिये ही मांग और आपूर्ति के अंतर की भरपाई और इस तरह करोड़ों गरीबों को बाजार से बाहर कर रहा है.

यह है महंगाई का असली राजनीतिक अर्थशास्त्र.

(दैनिक 'नया इंडिया' और 'जनसंदेश टाइम्स' में क्रमश: ७ और ८ नवम्बर को प्रकाशित लेख)