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गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

चिदंबरम से है 'चमत्कार' की उम्मीद

लेकिन वित्त मंत्री क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और आवारा पूंजी को खुश करने में जुटे हैं

यह यू.पी.ए-२ सरकार का चौथा और २०१४ के आम चुनावों से पहले का आखिरी पूर्ण बजट है. यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस को वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से एक चमत्कारिक बजट की उम्मीद है. वैसा ही जैसा उन्होंने २००९ के चुनावों से पहले पेश किया था.
उस लोकलुभावन बजट के सहारे यू.पी.ए और कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने में आसानी हो गई थी. कांग्रेस चिदंबरम से उसी चमत्कार को दोहराने की उम्मीद कर रही है. लेकिन वित्त मंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि चमत्कारों को दोहराना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि चमत्कार बार-बार नहीं होते.
असल में, २००८-०९ और २०१३-१४ के बीच बहुत कुछ बदल चुका है. २००८-०९ में वैश्विक आर्थिक संकट के झटकों के बावजूद अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ६.७ फीसदी थी और उसके पहले २००७-०८ में वृद्धि दर ९.३ फीसदी तक पहुँच गई थी. लेकिन आज चालू वित्तीय वर्ष २०१२-१३ में वृद्धि दर फिसलकर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर ५ फीसदी पर पहुँच गई है जबकि पिछले साल (११-१२) भी यह मात्र ६.२ फीसदी थी.

साफ़ है कि अर्थव्यवस्था संकट में है. उद्योग क्षेत्र से लेकर कृषि क्षेत्र और निर्यात से लेकर निवेश तक का प्रदर्शन बद से बदतर होता गया है. यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती का शिकार होता दिख रहा है. इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है. 

यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह पिछले तीन-चार साल से लगातार महंगाई आसमान छू रही है. इसका सीधा असर न सिर्फ गरीबों और मध्य वर्ग के उपभोग पर पड़ा है बल्कि उसकी बचत भी प्रभावित हुई है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार न तो अर्थव्यवस्था को संभल पा रही है और न ही महंगाई पर काबू कर पा रही है. सच यह है कि उसने महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं. जैसे इतना ही काफी नहीं हो, पिछले चार साल में एक के बाद दूसरे घोटालों के भंडाफोड और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों ने सरकार की साख और इकबाल को पाताल में पहुंचा दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि किसी वित्त मंत्री के लिए बजट पेश करने की इससे प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं हो सकती थीं. इसके बावजूद पी. चिदंबरम से न सिर्फ यू.पी.ए और कांग्रेस पार्टी को चमत्कार की अपेक्षा है बल्कि आमलोगों को भी उनसे राहत और मरहम की उम्मीदें हैं. आम आदमी की इस बजट से एक क्षीण सी उम्मीद यह है कि वित्त मंत्री उसे आसमान छूती महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से राहत दिलाने के ठोस उपाय करेंगे.

यह बात और है कि पिछले छह महीने में जब से चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभाला है, आम आदमी की कसमें खानेवाली यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर ही डाला है.

लेकिन चिदंबरम को अच्छी तरह पता है कि यह चुनावी साल है और उनकी कांग्रेस पार्टी को वोट मांगने वापस उसी आम आदमी के पास जाना है जो महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था की बदहाली की मार झेल रहा है. स्वाभाविक तौर पर वह सरकार से बहुत नाराज है. यू.पी.ए सरकार के लिए यह बजट आम आदमी खासकर गरीबों, किसानों और मध्यवर्ग को मनाने और रिझाने का आखिरी मौका है.
लेकिन दूसरी ओर, वित्त मंत्री पर कारपोरेट क्षेत्र और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का भी जबरदस्त दबाव है. यू.पी.ए सरकार से उसकी नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. वह सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगाता रहा है और उसकी विश लिस्ट भी काफी लंबी है.
चिदंबरम उसकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. खासकर कार्पोरेट्स के एक बड़े हिस्से के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी के पक्ष में झुकने के बाद से कांग्रेस में बेचैनी है. कांग्रेस कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है.

पिछले छह महीनों में कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मन-मुताबिक जिस तरह से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताबड़तोड़ फैसले हुए हैं, उससे साफ़ है कि चिदंबरम चुनावी साल में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को खुश रखने का महत्व जानते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि बजट की व्यस्तताओं के बावजूद वित्त मंत्री ने पिछले महीने वैश्विक वित्तीय पूंजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन और फ्रैंकफर्ट का तूफानी दौरा किया और बड़े कार्पोरेट्स और निवेशकों को व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे एक ‘जिम्मेदार बजट’ पेश करेंगे.
चिदंबरम के इस बयान की गुलाबी आर्थिक मीडिया में यह व्याख्या की जा रही है कि यह बजट लोकलुभावन नहीं होगा और इसमें सबसे ज्यादा जोर राजकोषीय घाटे को कम करने यानी सरकारी खर्चों को कम करने पर होगा. लेकिन सरकारी खर्चों में कटौती करने पर लोकलुभावन बजट पेश करने की गुंजाइश सीमित हो जाती है. 
खुद वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी और अगले साल जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखने की घोषणा कर रखी है. हालाँकि चिदंबरम ने यह एलान मूडीज, स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स और फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करने के लिए किया था।

कारण, वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे न बढ़ाने की स्थिति में भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे ‘कबाड़’ श्रेणी (जंक स्टेटस) में डालने की धमकी दे रही थीं. इससे विदेशी पूंजी खासकर संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी के देश से पलायन और अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने का खतरा था.

लेकिन यह घोषणा करके चिदंबरम ने अपने हाथ खुद बाँध लिए हैं. अब उनके लिए यह बहाना बनाना आसान हो गया है कि वे बजट में आम लोगों के लिए बहुत राहत नहीं दे सकते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है और राजकोषीय घाटे को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा सकती हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकता है.
असल में, वित्त मंत्री की रणनीति यह है कि बजट को लेकर आमलोग ज्यादा उम्मीदें और अपेक्षाएं न पालें और जब लोगों की अपेक्षाएं कम होंगीं तो मामूली राहत देकर भी वाहवाही लूटी जा सकती है.
चिदंबरम इस रणनीति के जरिये एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं. एक ओर वे मध्यवर्ग को टैक्स में मामूली छूट और बचत पर कुछ रियायतें और गरीबों के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और खाद्य सुरक्षा योजना के लिए प्रतीकात्मक प्रावधान करके चुनावी गणित साधने की तैयारी कर रहे हैं.
वहीँ दूसरी ओर, वे सरकारी खर्चों में कटौती खासकर विकास और सामाजिक योजनाओं के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे में कमी और बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और कार्पोरेट्स को लुभाने के लिए और रियायतें देकर कार्पोरेट्स का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इन दोनों में उनकी प्राथमिकता क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करना और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना है. इसके लिए यू.पी.ए सरकार किसी भी हद तक जाने को तैयार है. आर्थिक सुधारों खासकर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बाजार के हवाले करने के फैसलों से वित्त मंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वे किसके प्रति जिम्मेदार हैं?

यह और बात है कि चुनावी मजबूरियों के कारण इसबार बजट भाषण में वे आम आदमी, किसानों, युवाओं, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की खूब दुहाईयाँ देंगे लेकिन बजट में उनके लिए प्रतीकात्मक प्रावधानों से ज्यादा कुछ नहीं होगा.

सच पूछिए तो अगर चुनावों में वोटों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों के पास जाने की मजबूरी नहीं होती तो यू.पी.ए और चिदंबरम को आम आदमी और गरीबों की याद भी नहीं आती.
('नेशनल दुनिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २१ फरवरी को प्रकाशित)               

मंगलवार, सितंबर 25, 2012

कुछ लाख अमीरों/कार्पोरेट्स के फायदे के लिए करोड़ों को संकट में डालने के खतरे

खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के निहितार्थ


यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को फिर से साबित करने का फैसला कर लिया है. उसने एक झटके में सब्सिडी कटौती, सरकारी कंपनियों के विनिवेश और अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान करके आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर मुहर लगा दी है.

खासकर गठबंधन सरकार के सबसे प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस और लगभग समूचे विपक्ष के खुले विरोध के बावजूद सरकार ने जिस तरह से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान किया है, उससे साफ़ हो गया है कि कांग्रेस के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने यह तय कर लिया है कि मौजूदा राजनीतिक संकट से बाहर निकलने के लिए देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करना और उसका समर्थन और विश्वास हासिल करना सबसे ज्यादा जरूरी है.

हालाँकि सरकार का दावा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत और विचार-विमर्श और उनकी चिंताओं को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए लिया गया है. देशी खुदरा व्यापारियों और उनके हितों की सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान किये गए हैं.
यही नहीं, उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के मुताबिक, इस फैसले से किसानों को उनके उत्पादों की अधिक और वाजिब कीमत मिलेगी, उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलेगा. उनके दावों पर भरोसा करें तो देश में कृषि संकट से लेकर महंगाई और बेरोजगारी जैसी बड़ी और मुश्किल समस्याओं का हल खुदरा व्यापार में बड़ी विदेशी पूंजी खासकर वालमार्ट, टेस्को, कार्फूर और मेट्रो जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से निकलेगा.
लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. दुनिया भर में खुदरा व्यापार में बड़ी और संगठित कंपनियों के प्रवेश के अनुभवों और भारत में खुदरा व्यापार की विशेष स्थिति को ध्यान में रखें तो यू.पी.ए सरकार का यह फैसला देश की बड़ी आबादी के लिए घातक और विनाशकारी साबित हो सकता है.
यह ठीक है कि इस फैसले से आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से खासकर बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों, उच्च मध्यवर्ग और बड़े किसानों को फायदा होगा. निश्चय ही, बड़ी खुदरा विदेशी कंपनियों के विशाल स्टोर्स में खरीददारी का आकर्षण मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ललचा रहा है और इनमें कुछ लाख युवाओं को रोजगार भी मिलेगा. यह भी सही है कि शुरू में बड़ी विदेशी कंपनियों के साथ आनेवाले निवेश के कारण अर्थव्यवस्था में उछाल भी दिख सकती है.

लेकिन असल सवाल यह है कि यह किस कीमत पर होगा? इसमें कोई दो राय नहीं है कि बड़ी और संगठित देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों की जबरदस्त आर्थिक ताकत, नेटवर्क और मार्केटिंग के आगे छोटे-मंझोले और यहाँ तक कि बड़े देशी खुदरा व्यापारियों का भी प्रतियोगिता में लंबे समय तक टिकना बहुत मुश्किल होगा.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के पास अथाह पूंजी है और इस कारण वे छोटे-मंझोले प्रतियोगियों को बाजार से बाहर करने के लिए लंबे समय तक घाटा खाकर भी सस्ता बेच सकते हैं. यह सिर्फ कोरी आशंका नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों और यहाँ तक कि खुद अमेरिका के उदाहरण से इसकी पुष्टि होती है जहाँ कई शोधों से यह तथ्य सामने आया है कि जिन भी इलाकों में बड़ी खुदरा कंपनियों के स्टोर्स खुले, वहां बड़े पैमाने पर छोटे स्टोर्स बंद हुए.
भारत के लिए इसके गंभीर मायने हैं जहाँ कृषि के बाद खुदरा व्यापार में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक, देश में कोई १.४ करोड़ खुदरा दूकानें हैं जिनमें कोई चार करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. अगर इनमें से हर व्यक्ति के परिवार को औसतन चार से पांच का माना जाए तो कोई १६ से २० करोड़ लोगों की आजीविका इन छोटी-मंझोली किराना दुकानों के भरोसे है.

असल में, ऐसे खुदरा व्यापार में ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी है जिन्हें कोई और रोजगार-धंधा नहीं मिला और वे घर के बाहर छोटी दूकान या रेहडी लगाकर आजीविका कमाने लगते हैं. यही कारण है कि छोटी खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले में भारत दुनिया में अव्वल है और यहाँ प्रति एक हजार की आबादी पर ११ छोटी किराना दुकानें हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी विदेशी खुदरा कंपनियों और उनके स्टोर्स से सबसे अधिक खतरा इन्हीं खुदरा व्यापारियों को ही है जिनके पास बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनके आक्रामक मार्केटिंग से निपटने की क्षमता और तैयारी बिलकुल नहीं है. यह सही है कि सभी छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी एकबारगी नहीं खत्म हो जाएंगे और उनका एक छोटा सा हिस्सा फिर भी बचा रहेगा लेकिन इसके साथ ही यह भी तय है कि उनका एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाएगा.
मान लीजिए कि छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारियों का ५० फीसदी भी मुकाबले में बाहर हो गया तो इसका मतलब होगा कोई दो करोड़ लोगों की आजीविका और उनपर निर्भर ८ करोड़ लोगों की रोजी-रोटी पर संकट क्योंकि संगठित और बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कम्पनियों में कुछ लाख लोगों को तो रोजगार मिल सकता है लेकिन सभी दो करोड लोगों के उसमें एडजस्ट होने की गुंजाइश नहीं है.
सवाल यह है कि क्या सरकार के पास उनके लिए रोजगार और रोजी-रोटी का कोई वैकल्पिक उपाय है? याद रहे कि कृषि पर पहले से ही ६० फीसदी आबादी निर्भर है और उसका बड़ा हिस्सा उससे बाहर निकलने के मौके की तलाश में है. दूसरी ओर, उद्योगों में भी रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं या बहुत नगण्य वृद्धि हुई है.

यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाबलेस ग्रोथ) बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है. ऐसे में, खुदरा व्यापार का क्षेत्र जो कम निवेश और साधनों के बावजूद आजीविका कमाने का अवसर देता है, उसे बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले करके करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी दांव पर लगाने का आर्थिक और सामाजिक तर्क समझ से बाहर है.

इसी तरह किसानों और उपभोक्ताओं को फायदे की बात भी एक मिथ है जिसे तथ्य की तरह प्रचारित किया जा रहा है. अगर बड़ी खुदरा कंपनियों से किसानों को इतना ही फायदा होता तो खुद अमेरिका और यूरोप में सरकारों को किसानों को अरबों डालर की सब्सिडी क्यों देनी पड़ रही है?
सच्चाई यह है कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से भारतीय किसान खासकर छोटे-मंझोले किसान मोलतोल नहीं कर पायेंगे और दूसरे, मौजूदा बिचौलियों की जगह सूट-बूट और टाई वाले बिचौलिए आ जायेंगे. ऐसे में, इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि किसानों को उनकी फसल और उत्पादों की उचित कीमत मिल पाएगी.
इसी तरह उपभोक्ताओं को भी शुरू में आकर्षित करने के लिए बड़ी कम्पनियाँ सस्ता सामान जरूर बेच सकती हैं लेकिन जब छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी उनके मुकाबले में बाहर हो जाएंगे और बड़ी कंपनियों का एकाधिकार सा हो जाएगा, उस समय उन्हें उपभोक्ताओं का खून चूसने में जरा भी देर नहीं लगेगी.

सरकार का दावा है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के गैर-प्रतियोगी तौर-तरीकों पर प्रतिस्पर्द्धा आयोग निगाह रखेगा. लेकिन हकीकत सभी जानते हैं कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आर्थिक-राजनीतिक रसूख के आगे नियामक संस्थाएं किस तरह से ‘बुरा न देखने-सुनने-बोलने वाले बन्दर’ बन जाती हैं.

इसी तरह सरकार का यह दावा भी बेमानी है कि खुदरा व्यापार में आनेवाली बड़ी विदेशी कम्पनियाँ देशी लघु और मंझोले उद्योगों से ३० फीसदी उत्पादों की खरीददारी करेंगी और कुल विदेशी निवेश का ५० फीसदी कोल्ड स्टोरेज जैसे बैक-एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने में खर्च करेंगी. सच यह है कि ये शर्तें सिर्फ दिखावा हैं और व्यवहार में शायद ही कभी लागू होती हैं.
ताजा मामला ही लीजिए. एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में सौ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देते हुए यू.पी.ए सरकार ने ३० फीसदी अनिवार्य घरेलू खरीददारी की शर्त लगाई थी लेकिन छह महीने से भी कम समय में स्वीडिश कंपनी आइकिया के दबाव में उसमें ढील देने की घोषणा कर दी है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक बार जब ये बड़ी कम्पनियाँ देश के अंदर आ जायेंगी, उसके बाद उन्हें किसी भी शर्त में बांधना संभव नहीं रह जाता है. उल्टे वे कम्पनियाँ सरकारों पर शर्त थोपने लगती हैं. ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं जब बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों ने न सिर्फ पहले स्वीकार किये गए शर्तों को नहीं माना बल्कि सरकारों को उन्हें बदलने के लिए मजबूर कर दिया है.

आखिर खुदरा व्यापार क्षेत्र को खोलने का फैसला सरकार बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के दबाव में ही कर रही है. ऐसे में भला कौन मानेगा कि यू.पी.ए या भविष्य की कोई सरकार ४३० अरब डालर के सालाना कारोबार वाली अमेरिकी खुदरा व्यापार कंपनी वालमार्ट से शर्तें मनवा सकेगी? 
 
 
 
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 27 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                            

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

पेट पर पत्थर बांधकर हथियारों पर खर्च

हथियार और फौज-फांटे से होगी देश की सुरक्षा या उसे चाहिए रोटी, रोजगार, स्कूल और अस्पताल? 

“युद्ध (और रक्षा) का मुद्दा इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि उसे सैन्य जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है.”

सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह और यू.पी.ए सरकार के बीच कभी खुले और कभी छिपे युद्ध के मौजूदा माहौल में जब देश की रक्षा तैयारियों और सेना के पास हथियारों की कमी का राष्ट्रीय रूदन तेज होने लगा है और चैनलों/अख़बारों की बहसों में सेना के रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ छाने लगे हैं, पत्रकार और १९०६ में फ़्रांस के प्रधानमंत्री जार्ज क्लीमेंसू की उपरोक्त पंक्तियाँ एक बार फिर प्रासंगिक हो उठी हैं.
वह इसलिए कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह की प्रधानमंत्री को लिखी चिठ्ठी से लेकर तमाम रिटायर्ड जनरल और रक्षा विशेषज्ञ इस बात पर एकमत दिख रहे हैं कि देश की रक्षा तैयारियां संतोषजनक नहीं हैं, सेनाओं के पास हथियारों और गोला-बारूद की कमी है और सेनाओं के आधुनिकीकरण पर पर्याप्त पैसा नहीं खर्च किया जा रहा है.
इन बयानों का सीधा तात्पर्य यह है कि देश सुरक्षित नहीं है और देश की सुरक्षा से समझौता किया जा रहा है. जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार जबरदस्त दबाव में है. वजह यह कि देश की सुरक्षा का सवाल हमेशा से बहुत भावुक और तथ्यों और तर्कों से परे मुद्दा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह ने बहुत सोच-समझकर इस मुद्दे को उठाया है. वह जानते हैं कि यह एक बहुत संवेदनशील मुद्दा है जिसे उठाकर सरकार को घेरना और उसे रक्षात्मक स्थिति में खड़ा कर देना आसान है.

नतीजा सामने है. सरकार मिमिया रही है. सफाई दे रही है कि रक्षा तैयारियों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा और सेनाओं के आधुनिकीकरण और हथियारों की खरीद के लिए पैसे की कमी नहीं होने दी जाएगी.

हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे समय में जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बढ़ती सब्सिडी के बोझ के कारण नींद नहीं आ रही है और बार-बार आमलोगों को कड़े फैसलों के लिए तैयार रहने को कहा जा रहा है, उस समय चालू वित्तीय वर्ष (12-13) के आधिकारिक रक्षा बजट में पिछले साल के संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 17 फीसदी की वृद्धि करते हुए 193407 करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया है.
यह देश के कुल बजट का लगभग 13 फीसदी है. यही नहीं, इसमें अकेले हथियारों और गोला-बारूद की खरीद के लिए 79578 करोड़ रूपयों का आवंटन किया गया. पिछले वर्ष की तुलना में यह वृद्धि लगभग 20.3 फीसदी की है.
लेकिन चौंकानेवाला तथ्य यह है कि वास्तविक रक्षा बजट इससे कहीं ज्यादा है. चालू वित्तीय वर्ष (12-13) में खुद वित्त मंत्रालय के व्यय बजट भाग-2 के मुताबिक, कुल रक्षा बजट 193407 करोड़ रूपये के बजाय 238205 करोड़ रूपये है जो कुल बजट का लगभग 16 फीसदी है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस साल केन्द्र सरकार जो हर रूपया खर्च करेगी, उसमें से 16 पैसे रक्षा के मद में जायेंगे.
असल में, बजट भाषण में घोषित रक्षा बजट में रक्षा मंत्रालय और सेना के पेंशन के बजट को शामिल नहीं किया गया है. इन दोनों मदों का कुल बजट 44798 करोड़ रूपये है. अगर इसे आधिकारिक रक्षा बजट 193407 करोड़ में जोड़ दिया जाये तो वास्तविक रक्षा बजट उछलकर 238205 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है. यह जी.डी.पी का 2.3 फीसदी है.

हैरानी की बात यह है कि थोक के भाव में ‘लीक’ और खोजी रिपोर्टों के दौर में इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया या फिर जान-बूझकर इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी गई है. आखिर जिस देश में कोई 40 फीसदी लोगों को दोनों जून रोटी नहीं मिलती हो, 42 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हों, गुजरे पन्द्रह सालों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने कृषि संकट के कारण आत्महत्या की हो और ग्रामीण इलाके में 22 रूपये और शहरी इलाके में 28 रूपये की गरीबी रेखा हो, वहाँ 238205 करोड़ रूपये रक्षा और हथियारों की खरीद पर खर्च करने का औचित्य क्या हो सकता है?
इसके बावजूद देश की सुरक्षा की चिंता में दुबले हुए जा रहे जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों को रक्षा बजट से संतोष नहीं है. ‘ये दिल मांगे मोर’ की तर्ज पर वे इसे नाकाफी बताते हुए सेनाओं के आधुनिकीकरण के बहाने चीन के रक्षा बजट और हथियारों की खरीद से प्रतिस्पर्द्धा करने पर जोर दे रहे हैं. तर्क दिया जा रहा है कि भारत रक्षा पर जी.डी.पी का सिर्फ 1.9 प्रतिशत खर्च कर रहा है जो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है.
लेकिन सच्चाई क्या है? सच यह है कि भारत पेट पर पत्थर बांधकर रक्षा पर खर्च कर रहा है. आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में देश की रक्षा जरूरतों को पूरा करने के नाम पर कृषि, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क-बिजली-पानी जैसी बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती की गई है या उन्हें अपेक्षित बजट नहीं दिया गया है.

कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. चालू वित्तीय वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये की तुलना अगर मानव संसाधन (74056 करोड़), स्वास्थ्य (34488 करोड़), कृषि (27931 करोड़) और ग्रामीण विकास (76430 करोड़) के कुल बजट 212905 करोड़ रूपये से की जाये तो यह कुल रक्षा बजट का मात्र 89 फीसदी है. साफ है कि रक्षा देश की शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण विकास पर भारी है.     

यही नहीं, वर्ष 12-13 के वास्तविक रक्षा बजट 238205 करोड़ रूपये में अगर परमाणु उर्जा विभाग (7650 करोड़), बी.एस.एफ (8566 करोड़), आई.टी.बी.पी (2432 करोड़), असम राइफल्स (2966 करोड़) और एस.एस.बी (1899 करोड़) के बजट को जोड़ लिया जाये तो कुल रक्षा बजट तेजी से उछलकर 261718 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है जो कुल बजट का 17.55 फीसदी है.

पूछा जा सकता है कि परमाणु उर्जा से लेकर बी.एस.एफ जैसे अर्द्धसैनिक बालों के बजट को रक्षा बजट में जोड़ने के पीछे क्या तर्क है?

असल में, परमाणु उर्जा विभाग के बजट को परमाणु हथियारों के विकास से अलग नहीं किया जा सकता है और उसका 75 फीसदी तक खर्च इस मद में होता है. इसी तरह मुख्यतः देश की सीमाओं पर तैनात बी.एस.एफ से लेकर एस.एस.बी को भी रक्षा के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है.
भले ही वे गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हों और उनका बजट गृह मंत्रालय के बजट से आता हो. लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि वे व्यापक तौर पर देश की सीमाओं की रक्षा में ही जुटे हैं, इसलिए उनका बजट रक्षा बजट का ही हिस्सा माना जाना चाहिए.
इसी तरह हथियारों और गोला-बारूद की खरीद पर होनेवाले खर्च को भी एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. एक बार फिर तथ्यों पर गौर कीजिये. यू.पी.ए-दो के कार्यकाल में पिछले चार बजटों (2009-2013) में रक्षा बजट में हथियारों और फ़ौज-फांटे की खरीद के लिए कुल 262600 करोड़ रूपये दिए गए.

यह उसके पहले कार्यकाल (2004-09) के बीच पांच सालों में हथियारों की खरीद के कुल बजट 137496 करोड़ रूपये की तुलना में 91 फीसदी की बढोत्तरी दर्शाती है. आश्चर्य नहीं कि आज भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया है.

स्टाकहोम की संस्था सीपरी के मुताबिक, 2007-11 के बीच चार वर्षों में पूरी दुनिया में हथियारों की खरीद का 10 फीसदी हिस्सा अकेले भारत ने ख़रीदा.
इसके बावजूद सेनाध्यक्ष जनरल वी.के सिंह कह रहे हैं कि हथियारों और गोला-बारूद के मामले में सेना की हालत खराब है तो सवाल उठता है कि क्या देश के स्कूलों-कालेजों, अस्पतालों को बंद करके और कृषि से लेकर सड़क-बिजली-पानी आदि को भगवान भरोसे छोडकर उनका बचा-खुचा बजट भी रक्षा और हथियारों की खरीद पर उड़ा दिया जाये?

क्या देश इसके लिए तैयार है? इसीलिए रक्षा जैसे अत्यंत गंभीर मसले को जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है और न ही उसे रक्षा सौदों में घूस खाने वाले नेताओं और अफसरों की मर्जी पर छोड़ा जा सकता है.

समय आ गया है जब देश रक्षा बजट के एक-एक पाई का हिसाब जनरलों और नेताओं/अफसरों दोनों से मांगे. भूलिए मत, देश अपना पेट काटकर रक्षा और हथियारों के लिए पैसे दे रहा है.

('दैनिक भास्कर' के आप-एड पृष्ठ पर १० अप्रैल को प्रकाशित लेख..इस बहस में आपका स्वागत है...) 

सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

वित्तीय कठमुल्लावाद की वापसी के खतरे

अर्थव्यवस्था को गति को तेज करने के लिए नए निवेश की सख्त जरूरत है

आम बजट पेश होने में अब एक माह से भी कम का समय बचा है. बजट की तैयारियां जोरों पर हैं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर अपेक्षाओं और उम्मीदों के बोझ के साथ चौतरफा दबाव भी हैं.

जैसाकि हर बजट के साथ होता है, इस बार भी बजट से पहले नार्थ ब्लाक में ताकतवर कारपोरेट समूहों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के प्रतिनिधियों से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष के अफसरों तक की आमदरफ्त बढ़ गई है.
अपने कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने और उसके अनुकूल नीतियों और बजट प्रावधानों के लिए जमकर लाबीइंग हो रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी इस बजट में बिना नाम लिए अपने लिए बेल आउट पैकेज चाहती है.

हालांकि औपचारिकता निभाने के लिए वित्त मंत्री ने किसान और ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों से भी बजट में उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की है लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट समूहों और फिक्की-सी.आई.आई-एसोचैम जैसे संगठित लाबीईंग समूहों की ताकत और प्रभाव के आगे वे कहीं नहीं ठहरते हैं.

वे न सिर्फ सरकार के अंदर लाबीइंग कर रहे हैं बल्कि बाहर भी अपने पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं. इसमें उन्हें गुलाबी अख़बारों की मदद भी मिल रही है जो बजट का एजेंडा कारपोरेट समूहों के पक्ष में तय करने में भिड़े हुए हैं.

लेकिन मजे की बात यह है कि जो कारपोरेट क्षेत्र इस बजट में अपनी मलाई के लिए लाबीइंग कर रहा है, वह सार्वजनिक तौर पर बजट को (आमलोगों के लिए) सख्त बनाने की वकालत कर रहा है. कहा जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार और वित्त मंत्री के पास २०१४ के आम चुनावों से पहले यह आखिरी मौका है जब वे कुछ सख्त फैसले ले सकते हैं.

यहाँ सख्त फैसले का मतलब यह है कि बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने के लिए पेट्रोलियम, खाद और खाद्य सब्सिडी में कटौती, विनिवेश में तेजी और आर्थिक सुधारों के आगे बढ़ाने वाले नीतिगत फैसलों की घोषणा की जाए.

यही नहीं, फिक्की के महासचिव राजीव कुमार ने एक बड़े अंग्रेजी अखबार में लिखकर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को सरकारी खजाने की कमर तोड़ने वाला बताते हुए वित्त मंत्री को अगले बजट में उसपर अमल से बचने की सलाह दी है. कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष तक सभी की सबसे बड़ी चिंता वित्तीय घाटे में बढ़ोत्तरी है.

साफ है कि वित्तीय कठमुल्लावाद फिर सक्रिय हो गया है. गुलाबी अख़बारों में रोज रिपोर्टें ‘प्लांट’ की जा रही हैं कि चालू वित्तीय वर्ष में वित्तीय घाटा का बजट अनुमान जी.डी.पी के ४.६ फीसदी से बढ़कर ५.६ फीसदी या उससे भी अधिक जा सकता है. कहा जा रहा है कि वित्तीय घाटे का यह स्तर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. यह अर्थव्यवस्था के लिए घातक है.


तर्क दिया जा रहा है कि इसे अगर इस साल काबू में करने के लिए सख्त फैसले नहीं किये गए तो अगले साल चुनाव वर्ष का बजट होने के करण वित्त मंत्री के लिए उसमें कोई कड़ा फैसला करना संभव नहीं होगा.

लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वित्तीय घाटे में कटौती के लिए आमलोगों खासकर गरीबों की सब्सिडी में कटौती को एकमात्र विकल्प बतानेवाले इस विकल्प पर भूलकर भी चर्चा नहीं करते हैं कि इसका एक तरीका सरकार की आय बढ़ाने का भी हो सकता है.
इसके लिए कारपोरेट और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को दी जा रही हजारों करोड़ रूपये की कर छूटों/रियायतों का खात्मा और कारपोरेट टैक्स में बढ़ोत्तरी का भी हो सकता है.

तथ्य यह है कि वर्ष २०१०-११ के बजट में अकेले कारपोरेट टैक्स में विभिन्न छूटों के जरिये कंपनियों को ८८२६३ करोड़ रूपये और सोने-हीरे पर सीमा शुल्क में छूट के रूप में ४८७९८ करोड़ रूपये दिए गए. अगर सिर्फ इन दोनों को ही जोड़ दिया जाए तो यह प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून पर होनेवाले अधिकतम व्यय के अनुमानों से भी ज्यादा है.

लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती है. यह भी चर्चा नहीं होती है कि जिस वित्तीय घाटे का इतना रोना रोया जाता है, क्या वह सचमुच, खतरे के निशान को पार कर गया है? तथ्य यह है कि दुनिया के अमीर देशों के संगठन- ओ.सी.ई.डी (ओसेड) के सदस्य देशों में वर्ष २०१० में वित्तीय घाटा औसतन जी.डी.पी के ७.५ फीसदी के आसपास था जबकि इसके वर्ष २०११ में जी.डी.पी के ६.१ फीसदी के करीब रहने का अनुमान है.

सच यह है कि किसी भी विकासशील देश में अर्थव्यवस्था में अत्यधिक निवेश की जरूरतों के कारण बजट में वित्तीय घाटा स्वाभाविक और काफी हद तक अनिवार्य भी माना जाता है. भारत इसका अपवाद नहीं है.

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय जिस मोड पर खड़ी है वहां उसे सबसे अधिक जरूरत बुनियादी संरचनात्मक ढांचे यानी बिजली-सड़क-रेल-बंदरगाह-पानी, सामाजिक ढांचे यानी शिक्षा-स्वास्थ्य और कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है ताकि समावेशी विकास को गति दी जा सके. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में ठहराव और गिरावट है.

असल में, दुनिया भर में छाई आर्थिक अनिश्चितता और विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं की बुरी स्थिति के कारण देश के अंदर भी निजी क्षेत्र नए निवेश से बच रहा है. ऐसे समय में निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय घाटे की चिंता न करते हुए सार्वजनिक निवेश में भारी बढ़ोत्तरी करने की जरूरत है. इससे निजी क्षेत्र के निवेश को भी आवेग मिलेगा.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट लाबीस्ट के इशारे पर बजट को लेकर हो रही सार्वजनिक चर्चाओं में एक बार फिर सबसे अधिक शोर वित्तीय घाटे में कटौती और आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को तेज करने को लेकर है.
लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने अपने हालिया अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की मौजूदा खस्ता हालत के सबसे अधिक जिम्मेदार यह सोच ही है.
इसने न सिर्फ २००७-०८ के वित्तीय ध्वंस की जमीन तैयार की बल्कि उसके बाद वित्तीय उत्प्रेरक (स्टिमुलस) पैकेजों की मदद से उससे उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्थाओं पर जिस हड़बड़ी में वित्तीय अनुशासन थोपने की कोशिश की गई, उससे ये अर्थव्यवस्थाएं फिर से मंदी और संकट में फंस गई हैं.

क्या वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी इससे कोई सबक लेंगे या बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को दांव पर लगाएंगे? बजट का इंतज़ार कीजिये.
('नया इंडिया' में २० फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)