तेज विकास दर के
बावजूद बिहार और गुजरात भुखमरी के पैमाने पर साथ खड़े हैं
लेकिन इससे पहले कि दोनों राज्यों के आर्थिक और मानवीय विकास और उनके सुशासन के दावों को करीब से देखा जाए, यह जानना बहुत जरूरी है कि इन दोनों मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल २१ वीं सदी का पहला दशक है जिसमें न सिर्फ ये दोनों राज्य बल्कि देश के अधिकांश राज्यों में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार में तेजी देखी गई है और खुद भारत की जी.डी.पी वृद्धि दर पूर्व के सभी दशकों से तेज रही है.
राष्ट्रीय राजनीति में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार
के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की बढ़ती दावेदारी और आपसी प्रतिस्पर्द्धा के पीछे सबसे
बड़ी वजह यह मानी जाती रही है कि दोनों ने अपने-अपने राज्यों में ‘सुशासन’ के जरिये
न सिर्फ चमत्कारिक और तेज आर्थिक विकास सुनिश्चित किया है बल्कि अपने-अपने राज्यों
को विकास दर के मामले में देश के टाप राज्यों में पहुंचा दिया है. इस कारण दोनों
अपने को ‘विकासपुरुष’ के रूप में पेश करते रहे हैं.
यही नहीं, दोनों में एक समानता
और है. दोनों खुद को अपने-अपने राज्यों की क्षेत्रीय, गुजराती और बिहारी अस्मिता के
प्रतीक के बतौर पेश करते हैं. लेकिन दोनों के बीच विकास के नीतिश बनाम नरेन्द्र मोदी
माडल को ज्यादा बेहतर बताने की होड़ भी है.
लेकिन उनके दावों की सच्चाई क्या है? असल में, उनके दावे ‘आधी हकीकत
और आधा फ़साना’ के ऐसे उदाहरण हैं जिनके आधार पर उनकी ‘विकास पुरुष’ की छवियाँ गढ़ी
गई हैं. इन दावों को बारीकी और करीब से देखने पर ही यह स्पष्ट हो पाता है कि उनमें
कितना यथार्थ है और कितना मिथ? लेकिन इससे पहले कि दोनों राज्यों के आर्थिक और मानवीय विकास और उनके सुशासन के दावों को करीब से देखा जाए, यह जानना बहुत जरूरी है कि इन दोनों मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल २१ वीं सदी का पहला दशक है जिसमें न सिर्फ ये दोनों राज्य बल्कि देश के अधिकांश राज्यों में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार में तेजी देखी गई है और खुद भारत की जी.डी.पी वृद्धि दर पूर्व के सभी दशकों से तेज रही है.
इस तथ्य पर गौर कीजिए:
·
१९९४-९५
से १९९९-०० के बीच देश की जी.डी.पी वृद्धि दर औसतन ६.०९ फीसदी थी जो २०००-०१ से
२००९-१० के बीच बढ़कर औसतन ७ फीसदी हो गई. इस दौरान गुजरात की राज्य जी.डी.पी
वृद्धि दर ९४-९५ से ९९-०० के बीच औसतन ८ फीसदी थी जो ००-०१ से ०९-१० के बीच बढ़कर
८.६८ फीसदी हो गई है.
साफ़ है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में औसतन
सिर्फ ०.६८ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है. अलबत्ता, इस बीच बिहार में जी.डी.पी
वृद्धि दर ने जरूर तेज छलांग लगाईं है. बिहार में ९४-९५ से ९९-०० के बीच जी.डी.पी
की औसत वृद्धि दर ४.७० फीसदी थी जो ००-०१ से ०९-१० के बीच उछलकर औसतन ८.०२ फीसदी
तक पहुँच गई है. लेकिन इन दस वर्षों में पांच वर्ष लालू प्रसाद और पांच वर्ष नीतिश
कुमार की सरकार रही है.
दूसरे, इसी दौरान देश के कई और राज्यों की औसत
वृद्धि दर में ऐसी ही उछाल देखी गई है. इन राज्यों में छत्तीसगढ़ (२.८८ फीसदी से
७.९८ फीसदी), हरियाणा (५.९६ फीसदी से ८.९५ फीसदी), उत्तराखंड (३.२२ फीसदी से ११.८४
फीसदी), ओडिशा (४.४२ फीसदी से ७.९५ फीसदी) और महाराष्ट्र (६.३० फीसदी से ८.१३
फीसदी) जैसे राज्य शामिल हैं जिनका आर्थिक प्रदर्शन किसी भी मायने में गुजरात या
बिहार से कमतर नहीं है.
साफ है कि तेज आर्थिक विकास के मामले में गुजरात
या बिहार कोई अपवाद नहीं हैं और न ही यह सिर्फ इन दोनों राज्यों तक सीमित परिघटना
है. सच यह है कि इन दोनों राज्यों को देश और अन्य राज्यों की तेज आर्थिक विकास का
फायदा मिला है क्योंकि यह संभव नहीं है कि देश और बाकी राज्यों में आर्थिक विकास
ठप्प हो और सिर्फ गुजरात और बिहार तेज रफ़्तार से भाग रहे हों.
और अब आइये इन दोनों राज्यों के आर्थिक विकास के तथ्यों के आलोक में
विकास पुरुषों के विकास के फ़साने को समझा जाए:
-
यह एक
तथ्य है कि गुजरात आर्थिक विकास और प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद (एस.डी.पी)
के मामले में लंबे अरसे से देश के शीर्ष राज्यों में रहा है. ऐसा नहीं है कि यह
‘चमत्कार’ भाजपा और खासकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में हुआ है.
तथ्यों के मुताबिक, गुजरात प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद के मामले में गुजरात
पिछले चार दशकों से अधिक समय से देश के शीर्ष के दस बड़े राज्यों में पांचवें या
छठे स्थान पर रहा है. एकाध बार चौथे स्थान पर भी रहा है.
लेकिन प्रति व्यक्ति
राज्य घरेलू उत्पाद के मामले में हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे
राज्य उससे आगे हैं. साफ़ है कि मोदी ने आर्थिक विकास के मामले में कोई ऐसा चमत्कार
नहीं कर दिया है जो और कोई मुख्यमंत्री नहीं कर पाया है.
-
दूसरी
ओर, बिहार में नीतिश कुमार के कार्यकाल में बिहार की जी.डी.पी वृद्धि दर (०५-०६
में ०.९२ फीसदी, ०६-०७ में १७.७५ फीसदी, ०७-०८ में ७.६४ फीसदी, ०८-०९ में १४.५८
फीसदी, ०९-१० में १०.४२ फीसदी, १०-११ में १४.७७ फीसदी और ११-१२ में १३.१३ फीसदी) जरूर
चमत्कारिक और हैरान करनेवाली दिखती है लेकिन वह न सिर्फ एकांगी और विसंगत वृद्धि
का नमूना है बल्कि आंकड़ों का चमत्कार है.
असल में, यह बिहार की अर्थव्यवस्था के
अत्यधिक छोटे आकार में हो रही वृद्धि का नतीजा है जिसे अर्थशास्त्र में बेस प्रभाव
कहते हैं. चूँकि बिहार की जी.डी.पी का आकार छोटा है और उसकी वृद्धि दर भी कम थी,
इसलिए जैसे ही उसमें थोड़ी तेज वृद्धि हुई, वह प्रतिशत में चमत्कारिक दिखने लगी.
दूसरे, बिहार की मौजूदा आर्थिक वृद्धि दर न सिर्फ
एकांगी और विसंगत है बल्कि वह अर्थव्यवस्था के सिर्फ कुछ क्षेत्रों में असामान्य
उछाल के कारण आई है. उदाहरण के लिए, बिहार की आर्थिक वृद्धि में मुख्यतः निर्माण
क्षेत्र यानी सड़कों-पुलों-रीयल इस्टेट में बूम की बड़ी भूमिका है.
यही नहीं, इस तेज
वृद्धि दर के बावजूद बिहार की प्रति व्यक्ति आय २००५-०६ में ८३४१ रूपये थी जो
नीतिश कुमार के कार्यकाल के दौरान बढ़कर २०१०-११ तक २००६९ रूपये तक पहुंची है.
अब अगर इसकी तुलना देश के कुछ अगुवा राज्यों की
प्रति व्यक्ति आय से करें तो पता चलता है कि हरियाणा के ९२३८७ रूपये, पंजाब के
६७४७३ रूपये, महाराष्ट्र के ८३४७१ रूपये और तमिलनाडु के ७२९९३ रूपये से काफी पीछे
है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर बिहार में जी.डी.पी की यह तेज वृद्धि दर इसी तरह बनी
रहे और अगुवा राज्य भी अपनी गति से बढते रहे तो देश के अगुवा राज्यों तक पहुँचने
में बिहार को अभी कम से कम दो दशक और लगेंगे.
लेकिन उससे भी जरूरी बात यह है कि बिहार में
मौजूदा विकास/वृद्धि के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वहाँ औद्योगिक विकास खासकर
मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में कोई विकास नहीं है और बुनियादी ढांचे खासकर बिजली
के मामले में स्थिति बद से बदतर हुई है. इसी तरह, कृषि में भी अपेक्षित वृद्धि
नहीं दिखाई दे रही है.
ऐसे और भी कई तथ्य हैं जो इन दोनों राज्यों में तेज आर्थिक विकास की
विसंगतियों की सच्चाई सामने लाते हैं. लेकिन अगर एक मिनट के लिए उनके दावों को
स्वीकार भी कर लिया जाए तो असल सवाल यह है कि तेज वृद्धि दर के बावजूद इन राज्यों
में मानव विकास का क्या हाल है?
क्या इस तेज विकास का फायदा भोजन, गरीबी उन्मूलन,
शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार आदि क्षेत्रों और राज्य के सभी इलाकों और
समुदायों को भी मिला है?
इस मामले में तथ्य बहुत निराश करते हैं:
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बिहार
में गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य-शिक्षा और रोजगार के हाल के बारे में जितनी कम बात
की जाए, उतना ही अच्छा है. नीतिश कुमार के कार्यकाल में तेज वृद्धि दर के बावजूद
मानव विकास के सभी मानकों पर बिहार अभी भी देश के बड़े राज्यों में सबसे निचले
पायदान के तीन राज्यों में बना हुआ है.
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लेकिन
तीव्र आर्थिक वृद्धि के बावजूद मानव विकास के कई मानकों पर गुजरात का रिकार्ड
शर्मनाक है. उदाहरण के लिए, भुखमरी के मामले में गुजरात, देश के सबसे बदतर राज्यों
की सूची में बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों के साथ बराबरी में खड़ा है. यहाँ तक कि
उत्तर प्रदेश भी भुखमरी के इंडेक्स में गुजरात से ऊपर है.
यह इस बात का सबूत है कि
गुजरात में गैरबराबरी बहुत अधिक है और तीव्र विकास का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँच
रहा है. यही नहीं, बाल कुपोषण दर के मामले में भी गुजरात का रिकार्ड देश के कई
विकसित राज्यों की तुलना में बहुत खराब और बदतर राज्यों के करीब है.
इसके अलावा, गुजरात में तेज आर्थिक विकास का लाभ
आदिवासियों और मुस्लिमों को नहीं मिला है. खासकर मुस्लिमों के साथ भेदभाव यहाँ तक
कि उनके अघोषित आर्थिक बायकाट की नीति के कारण उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इन तथ्यों से साफ़ है कि मोदी और नीतिश खुद को ‘विकास पुरुष’ के रूप
में चाहे जितना पेश करें लेकिन उन्होंने विकास का कोई नया, ज्यादा समावेशी और
टिकाऊ माडल नहीं पेश किया है. उनकी अर्थनीति किसी भी रूप में केन्द्र की यू.पी.ए
सरकार या किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री से अलग नहीं है.
दोनों (खासकर मोदी) उन्हीं
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं जो गरीबों को बाईपास करके निकल
जाने के लिए जानी जाती है. सच यह है कि उन्होंने बहुत चतुराई से देश भर में हो रही
मौजूदा आर्थिक वृद्धि को अपनी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल कर लिया है लेकिन उसके
नकारात्मक नतीजों का ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोड दिया है.
इस मामले में दोनों का
कोई जवाब नहीं है. दोनों एक ही खेल के माहिर हैं और इस कारण स्वाभाविक तौर पर
उनमें होड़ भी दिखाई पड़ती है. देखिये, छवियों की इस लड़ाई में कौन बीस बैठता है?
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 29 जून से 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित आलेख..अगले कुछ दिनों में मोदी और नीतिश कुमार के विकास और राजनीति की पोल खोलती रिपोर्टों की श्रृंखला लिखने का इरादा है...आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा.)