रविवार, अप्रैल 24, 2011

सफलता की कीमत

सफलता और समृद्धि की होड़ के बीच असफल और अकेले पड़ते जाने की त्रासदी  



नोयडा के एक समृद्ध और खाते-पीते परिवारों वाली कालोनी में अपने फ़्लैट में पिछले छह महीने से बंद दो बहनों की कारुणिक कथा को अपवाद मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. सच पूछिए तो इस घटना ने शहरी मध्यवर्गीय समाज की बढ़ती समृद्धि के बीच टूटते-बिखरते रिश्तों, बढ़ते सामाजिक अलगाव और सघन होते अकेलेपन की त्रासदी से पर्दा उठा दिया है.

इस कहानी से यह भी पता चलता है कि आगे बढ़ने की होड़ और सफलताओं की गुलाबी कहानियों के बीच मध्यवर्गीय समाज के अंदर अकेलेपन और अलगाव के अँधेरे कोने किस कदर फैलते जा रहे हैं. यह कहानी उन असफल लोगों की भी दुखान्तिका है जो किन्हीं कारणों से पीछे छूट गए और अकेले पड़ते चले गए.    

लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है. यह अनायास भी नहीं है. वास्तव में, इस कहानी का प्लाट नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इर्द-गिर्द बुना गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन नीतियों ने भारतीय राजनीति, अर्थनीति के साथ-साथ समाज खासकर मध्यवर्गीय समाज को भी बहुत गहराई के साथ प्रभावित किया है.

इन नीतियों के साथ देश में जिस तरह से आर्थिक समृद्धि और अधिक से अधिक भौतिक सुख-सुविधाओं को बटोरने की होड़ को आर्थिक प्रगति और सफलता का पर्याय बना दिया गया, उसके बाद मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, चाहतों और इच्छाओं को जैसे बेलगाम पर लग गए.


नतीजा, सबसे आगे निकलने की एक ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई कि उसमें पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक संबंधों की बलि चढ़ते देर नहीं लगी. देखते ही देखते सफल लोगों का एक ऐसा शहरी समाज बनने लगा जिसमें संबंधों और रिश्तों की बुनियाद मानवीय मैत्री, परस्पर सहयोग, एक-दूसरे का आदर जैसे सार्वभौम मानवीय मूल्यों के बजाय लेन-देन, डर-भय, शक्ति और निजी जरूरत बनती जा रही है.

लोग एक ऐसी मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें रिश्तों, संबंधों और उनसे जुड़ी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है. उल्टे भावनाओं को सफलता की राह में रोड़ा और मजाक की चीज़ मान लिया गया है.

यही नहीं, सफलता के लिए एक-दूसरे का पैर खींचने से लेकर दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ शुरू हो गई है कि किसी को किसी की परवाह नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि हर कीमत पर सफलता हासिल करने की होड़ में लगे व्यक्ति के लिए समाज और परिवार की भूमिका लगातार महत्वहीन होती जा रही है या परिवार का दायरा निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है. परिवार का मतलब अधिक से अधिक पति-पत्नी-बच्चे रह गए हैं.

इन परिवारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे अपनी ही सफलताओं में इस कदर खोये हुए हैं या रोज के जीवन संघर्षों में ऐसे फंसे हुए हैं कि उनके पास यह जानने-देखने की फुर्सत नहीं है कि उनके पड़ोसी का क्या हाल है? कहने का मतलब यह कि लोग अपनी ही सफलताओं के बंदी हो चुके हैं.


जाहिर है कि यह सफलता की होड़ की सामाजिक-पारिवारिक कीमत है जिसे बदलते हुए दौर की जरूरत बताकर जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस नई व्यवस्था में जितने सफल लोग हैं, उनकी तुलना में असफल लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है.

लेकिन इस नव उदारवादी व्यवस्था में असफल लोगों की कोई कीमत नहीं है. उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है - न परिवार, न नाते-रिश्तेदार, न पड़ोसी, न समाज और न ही राज्य. उन्हें अपने ही हाल पर छोड़ दिया गया है. यह एक नए तरह समाज है जिसमें सिर्फ सर्वश्रेष्ठ को जीने का हक है. जो दौड़ में छूट गया, गिर गया या शामिल नहीं हुआ, उसे परिवार-समाज पर बोझ समझा जाने लगता है.       
सबसे दुखद यह है कि इस पूरी प्रक्रिया की चरम परिणति असफल लोगों के निरंतर अलगाव और अकेलेपन के रूप में आ रही है जिसमें उनके सामने आत्महत्या के रूप में अपनी असफलता की कीमत चुकाने या फिर नोयडा की दो बहनों की तरह घुट-घुटकर मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जा रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में देश में आत्महत्याओं की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. एक ओर नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त और असहाय से हो गए किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी ओर, सफलता की होड़ में पीछे छूट गए और किनारे कर दिए गए मध्यमवर्गीय लोग जान दे रहे हैं.

इस मायने में, नोयडा की बहल बहनों की कहानी को उन त्रासद कहानियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जिसमें हर ओर से निराश-हताश पूरा का पूरा परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली है. पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, मुंबई से लेकर छोटे-छोटे शहरों में भी ऐसी मध्यवर्गीय पारिवारिक सामूहिक आत्महत्या की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है.

जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की सबसे ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक आत्महत्याओं वाले शहर की कुख्याति बंगलूर के हिस्से आई है जो नव उदारवादी अर्थनीति की सफलता का भी सबसे चमकदार उदाहरण बनकर उभरा है. बंगलूर में वर्ष २००९ में हर दिन कोई छह लोगों ने आत्महत्या की यानी हर चार घंटे पर एक आत्महत्या! इसी तरह, चेन्नई में हर छह घंटे में और दिल्ली में हर सात घंटे में एक व्यक्ति ने आत्महत्या की.


सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वजह साफ है. नव उदारवादी नीतियों ने सफलता और समृद्धि की होड़ तो तेज कर दी लेकिन असफल और पीछे छूटे लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा का ऐसा कोई विश्वसनीय ढाँचा नहीं खड़ा किया है जो नोयडा की बहल बहनों के अकेलेपन औए अलगाव को दूर कर सके.

साफ है कि इन नीतियों के कारण आर्थिक पूंजी चाहे जितनी पैदा हो रही हो लेकिन सामाजिक पूंजी लगातार रीतती जा रही है. सामाजिक पूंजी के इस क्षरण की कीमत किसी न किसी रूप में हम सभी चुका रहे हैं. आखिर सफल लोगों का व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन भी कितना खाली और रीता होता जा रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है. आर्थिक समृद्धि के बावजूद मध्यमवर्गीय परिवारों में जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियों खासकर मानसिक बीमारियों की बढ़ती जकड़ इसका एक और सबूत है.

खतरे की घंटी बज चुकी है. क्या लोग और समाज सुन रहे हैं?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २३ अप्रैल को प्रकाशित) 

शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

अन्ना से आगे


मीडिया इस लड़ाई में कहाँ तक साथ चलेगा?


भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में मध्य वर्ग को अन्ना हजारे के रूप में एक नया नायक मिल गया है. इस नायक को गढ़ने में कई अन्य कारकों के अलावा समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के आंदोलन को समाचार चैनलों ने अभूतपूर्व कवरेज दी. उसने रातों-रात अन्ना हजारे को देश के करोड़ों मध्यवर्गीय परिवारों का ऐसा नायक बना दिया जिसमें लोग गांधी की छवि देखने लगे.


इस मीडिया कवरेज का वायरल की तरह असर हुआ. देश के दर्जनों बड़े शहरों और जिलों में अन्ना हजारे के समर्थन में लोग सड़कों पर निकल आए. जगह-जगह धरना, प्रदर्शन और अनशन होने लगे और उनकी भी लाइव कवरेज होने लगी. अगले चार-पांच दिनों तक न्यूज चैनलों पर अन्ना और उनके आंदोलन के अलावा कुछ नहीं था.

जंतर-मंतर चैनलों का स्टूडियो बन गया था. एंकर वहीँ से लाइव कर रहे थे और पल-पल की खबर दे रहे थे. यहां तक कि अनशन स्थल पर चल रही हर छोटी-बड़ी गतिविधि चैनलों के जरिये सीधे लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंच रही थी. इस कवरेज की नाटकीयता के कारण कई बार यह सब एक रियलिटी शो की तरह भी लग रहा था.

लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इस 24x7 कवरेज की सबसे खास बात यह थी कि चैनलों ने इस आंदोलन का खुलकर समर्थन किया. सच पूछिए तो अधिकांश चैनलों ने इस आंदोलन को एक तरह से गोद ले लिया था. चैनलों के सुपर और स्लग पर इंडिया अगेंस्ट करप्शन, भ्रष्टाचार से जंगजैसे नारे छाए हुए थे.

यही नहीं, चैनलों में एक तरह से इस आंदोलन के ज्यादा से ज्यादा करीब दिखने और उसका प्रवक्ता बनने की होड़ सी मची हुई थी. जाहिर है कि सभी इसका श्रेय लूटने की कोशिश में भी जुटे थे. हर चैनल यह साबित करने में जुटा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में वही सबसे आगे रहा है. 


कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की इस मुहिम का जबरदस्त असर पड़ा. इस कवरेज से उत्साहित और प्रेरित मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्गीय युवाओं, प्रोफेशनल्स और महिलाओं का एक हिस्सा घरों-दफ्तरों से निकलकर जंतर-मंतर आदि जगहों पर पहुंचा. उससे ऐसा जनमत बना कि लोकपाल के मुद्दे पर पहले दाएं-बाएं कर रही यू.पी.ए सरकार ने न सिर्फ आंदोलन के आगे घुटने टेक दिए बल्कि लोकपाल विधेयक तैयार करने के लिए बनी संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति में सिविल सोसायटी के पांच सदस्यों को शामिल करने पर भी राजी हो गई.


इसके साथ ही, अन्ना हजारे अब अन्ना बन चुके थे और हर चैनल पर छा चुके थे. उनके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू से लेकर प्रेस कांफ्रेंस की लाइव कवरेज तक में कोई चैनल पीछे नहीं रहा. साफ तौर पर समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर यह एक नए तरह की एडवोकेसी पत्रकारिता है.

हालांकि चैनलों के लिए किसी मुद्दे पर मुहिम चलाना कोई नई बात नहीं है. पहले भी चैनलों ने जेसिका और प्रियदर्शिनी मट्टू को न्याय जैसे कई मुद्दों पर सामाजिक मुहिम को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है. पिछले कुछ महीनों से कई चैनल भ्रष्टाचार के बड़े मामलों के खिलाफ भी एक मुहिम सी छेड़े हुए हैं.

लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि चैनलों ने भ्रष्टाचार जैसे अत्यंत ज्वलनशील राजनीतिक मुद्दे पर न सिर्फ अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन के पक्ष में खुलकर स्टैंड लिया है बल्कि उन्हें एक नायक की तरह खड़ा करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

लेकिन इस आधार पर आंदोलन के कुछ आलोचकों का यह निष्कर्ष पूरी तरह सही नहीं है कि अन्ना और उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का सृजन है. सच यह है कि चैनल या सोशल मीडिया आंदोलन नहीं खड़ा कर सकते. वे उसे हवा दे सकते हैं. आंदोलन के लिए समाज में जरूरी वस्तुगत स्थितियां मौजूद होनी चाहिए.

कहने की जरूरत नहीं है कि सर्वग्रासी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में लोगों में गुस्सा अंदर ही अंदर उबल रहा था. अन्ना हजारे के अनशन ने उसे बाहर निकलकर आने का मौका दिया. यह भी सच है कि इस आंदोलन के रणनीतिकारों ने २४ घंटे के दर्जनों समाचार चैनलों की मौजूदगी का भरपूर फायदा उठाया.

लेकिन ऐसे तर्कों का कोई मतलब नहीं है कि चैनल नहीं होते या सोशल मीडिया नहीं होता तो यह आंदोलन इतनी दूर नहीं जा पाता. तथ्य यह है कि यह २४ घंटे के १०० से अधिक न्यूज चैनलों और लाखों की सदस्यता वाले सोशल मीडिया के दौर का जनांदोलन था जिसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव को इन माध्यमों ने कई गुना बढ़ा दिया. 

इससे पता चलता है कि इस दौर में मीडिया कितना प्रभावशाली हो गया है. समाचार मीडिया की बढ़ती ताकत और प्रभाव को लेकर अब किसी को शक नहीं रह जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल अपनी इस ताकत को पहचानेंगे? क्या वे भ्रष्टाचार के सहोदर कारपोरेट लूट के खिलाफ देश भर में चल रहे आन्दोलनों को इतनी ही सहानुभूति से कवरेज देंगे?

क्या वे दिल्ली में अपना हक मांगने आनेवाले किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, दलितों और गरीबों के प्रदर्शनों और रैलियों को इसी उत्साह से कवर करेंगे? क्या उनकी यह एडवोकेसी गरीबों के हक-हुकूक के सवालों के साथ भी ऐसे ही खड़ी होगी?


अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि अभी तक वे ऐसे मुद्दों और आन्दोलनों को अनदेखा करते रहे हैं. कई बार तो उनके खिलाफ भी खड़ा हो जाते रहे हैं. क्या अब उनका यह रवैय्या बदलेगा?

एक बात तय है. इस आंदोलन ने आमलोगों को उनकी ताकत का अहसास करवा दिया है. यह भी तय है कि यह आंदोलन सिर्फ लोकपाल तक नहीं रुकनेवाला है. अब मीडिया और न्यूज चैनलों को तय करना है कि वे इस लड़ाई में कहां तक साथ चलेंगे?

(पिछले १२ अप्रैल को लिखा गया आलेख जो 'तहलका' के ३० अप्रैल के अंक में छपा है) 

सोमवार, अप्रैल 18, 2011

खेल नहीं युद्ध चाहते हैं चैनल

खेल को खेल रहने दो


कहते हैं कि खेल लोगों, समुदायों और देशों के बीच शांति और मित्रता का माध्यम हैं. ओलम्पिक खेलों के पीछे यही उद्देश्य है. अक्सर जिस खेल भावना की बात होती है, उसका अर्थ भी प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद एक दूसरे का सम्मान और मित्रता को बढ़ावा देना है. लेकिन भारतीय खासकर हिंदी समाचार चैनलों की राय इससे बिल्कुल अलग है. इन दिनों जब विश्व कप क्रिकेट का तमाशा पूरे शबाब पर है, चैनलों पर युद्धोन्माद अपने चरम पर पहुंच गया है.

वैसे हिंदी समाचार चैनलों के लिए क्रिकेट पहले भी सिर्फ एक खेल नहीं था. लेकिन विश्व कप सेमीफाइनल में भारत-पाकिस्तान मुकाबले को लेकर जिस तरह का युद्धोन्मादी माहौल बनाया गया, उसने सारी सीमाएं तोड़ दीं. खेल, खेल नहीं रह गया बल्कि वर्चुअल युद्ध में बदल गया.

चैनलों पर इस बहुचर्चित सेमीफाइनल मैच को लेकर जिस तरह की रिपोर्टिंग हुई, पैकेज तैयार हुए और चर्चाएं हुईं, उसमें भाषा और प्रस्तुति खेल की नहीं बल्कि युद्ध की थी.

हालांकि इस खेल में कोई चैनल पीछे नहीं था और चैनलों के बीच खेल को युद्ध घोषित करने का युद्ध सा चल रहा था लेकिन कई ने सभी सीमाएं तोड़ दीं. आज तक जैसे चैनल ने इसे भारत-पाकिस्तान के बीच चौथा महायुद्ध घोषित कर दिया.

इस अर्थ में कि इससे पहले भारत-पाकिस्तान के बीच तीन सैन्य युद्ध हो चुके हैं और मोहाली के मैदान में यह चौथा युद्ध होने जा रहा है. यही नहीं, हद तो यह हो गई कि चैनल ने भारतीय कप्तान धोनी और पाकिस्तानी कप्तान अफरीदी को अपने-अपने देशों की सैनिक यूनिफार्म में खड़ा कर दिया.

इस होड़ में अन्य हिंदी चैनल भी पीछे नहीं रहे. सभी अपने-अपने तरीके से इस युद्धोन्माद को हवा देने में लगे रहे. कोई इसे फाइनल मैच से भी बड़ा बता रहा था तो कोई यह कह रहा था कि सेमीफाइनल में पाकिस्तान को जरूर हराओ, भले फाइनल हार जाओ. इस प्रक्रिया में, चैनलों की भाषा मारकाट की भाषा में बदल गई और उसके साथ चलनेवाले वायस ओवर का स्वर लगातार ऊँचा और तीखा होता चला गया. यही नहीं, वायस ओवर के साथ बजनेवाला संगीत भी युद्धक संगीत में तब्दील हो गया.

चैनलों की कवरेज से ऐसा लग रहा था कि जैसे उनका वश चलता तो वे भारत-पाकिस्तान के बीच वास्तविक युद्ध करा देते लेकिन ऐसा न करा पाने की खीज वे दोनों देशों के बीच क्रिकेट मैच से पूरी कर रहे हैं. हालत यह हो गई कि जी न्यूज पर क्रिकेट के एक विशेष कार्यक्रम में पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी बिशन सिंह बेदी को एंकर से बहस करना पड़ा कि खेल को खेल रहने दीजिए. खेल में एक टीम जीतेगी और एक हारेगी. यह खेल का हिस्सा है. ऐसा मत करिए कि कल लोग हारनेवाली टीम के खिलाडियों के घरों पर पत्थर फेंकने लगें. बेदी का डर अन्यथा नहीं है. ऐसा पहले हो चुका है.

लेकिन चैनलों पर क्रिकेट और खासकर पाकिस्तान से मैच को लेकर जिस तरह का पागलपन हावी था, उसमें तर्क और विवेक की गुंजाइश कहां रह जाती है? आश्चर्य नहीं कि इस युद्धोन्मादी माहौल में अधिकांश हिंदी चैनलों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्रिकेट कूटनीति पसंद नहीं आई.  

यही कारण है कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने के लिए की गई पहल के तौर पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को मोहाली में मैच देखने का न्यौता देने के फैसले पर चैनलों की प्रतिक्रिया न सिर्फ उत्साहजनक नहीं थी बल्कि उनका रूख काफी हद तक आलोचनात्मक था.

नतीजा, चैनलों के युद्धोन्माद ने इस तरह की किसी शांति और दोस्ती की पहल और उससे कुछ निकलने की उम्मीद में पहले ही पलीता लगा दिया था. कहने की जरूरत नहीं है कि खेल के जरिये शांति और दोस्ती की उम्मीदों के परवान चढने के लिए एक अनुकूल माहौल और जनमत अनिवार्य शर्त है.

ऐसा जनमत बनाने में मीडिया की बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा लगता है कि समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों के शब्दकोष में शांति और दोस्ती जैसे शब्द नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि शांति और दोस्ती की बातें करने से टी.आर.पी नहीं आती है.

इस मामले में उनका एजेंडा बिल्कुल साफ है. चैनलों ने एक तरह से पाकिस्तान को एक दुश्मन देश घोषित कर दिया है. यही नहीं, अगर युद्धोन्माद भड़काने से टी.आर.पी बढ़ती है तो उन्हें युद्धोन्माद भड़काने में जरा भी झिझक नहीं होती. उन्हें इसकी बिल्कुल परवाह नहीं होती कि इसके नतीजे क्या होंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि क्रिकेट की आड़ में इस तरह के अंध राष्ट्रवाद और पाकिस्तान विरोधी युद्धोन्माद से दोनों देशों के रिश्तों को इस हद तक नुकसान पहुंच रहा है कि उसकी भरपाई मुश्किल होती जा रही है. यह दोनों देशों के दूरगामी हितों के लिए न सिर्फ एक बड़ा नुकसान है बल्कि दोनों के लिए घातक है.  

अफसोस की बात यह है कि क्रिकेट ने रिश्तों को बेहतर बनाने का एक मौका दिया था, उसे टी.आर.पी की अंधी होड़ ने बेकार कर दिया. आखिर चैनल और क्या-क्या टी.आर.पी की भेंट चढाएंगे?

('तहलका' के १५ अप्रैल'११ के अंक में प्रकाशित)

बुधवार, अप्रैल 06, 2011

जनांदोलनों की राह में खड़े हैं नव उदारवादी आर्थिक सुधार और एन.जी.ओ



अरब जगत में जनक्रांति और जनांदोलनों के नए उभार ने भारत में जनांदोलनों की मौजूदा दशा-दिशा को लेकर एक नई बहस शुरू कर दी है. बहुतेरे विश्लेषक इस बात पर हैरानी जाहिर कर रहे हैं कि भारत में भी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक हालात काफी हद तक अरब देशों जैसे ही हैं.

भ्रष्टाचार चरम पर है, क्रोनी कैपिटलिज्म का बोलबाला है, सरकार की साख लगातार गर्त में जा रही है, तमाम संस्थाओं का तेजी से क्षरण हो रहा है, अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार के बावजूद बड़ी आबादी को उसका लाभ नहीं मिल पा रहा है, गैर बराबरी बढ़ रही है, महंगाई आसमान छू रही है, बेरोजगारी दर नए रिकार्ड बना रही है और देश के एक बड़े हिस्से में विद्रोह से हालात हैं. इसके बावजूद क्या कारण है कि भारत में मिस्र या ट्यूनीशिया जैसी जनक्रांति या जनांदोलन नहीं हो रहे हैं?

इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह समझना जरूरी है कि अरब जगत और भारत के बीच कई समानताओं के बावजूद यह तुलना असंगत और बेमानी है. दोनों के बीच सबसे बड़ा फर्क तो यह है कि भारत में एक कार्यकारी लोकतंत्र है और वह तमाम सीमाओं, दबावों और विसंगतियों के बावजूद राजनीतिक बदलाव और अभिव्यक्ति की आज़ादी की उतनी गुंजाइश छोड़ता है कि लोगों के आक्रोश को संघनित होने और फट पड़ने के आसार कमजोर हो जाते हैं.

इसके साथ ही, यह भी मानना पड़ेगा कि साख के गंभीर संकट के बावजूद भारतीय शासक वर्ग ने अभी तक बहुत चतुराई के साथ राजनीतिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों को मैनेज किया है.

इसलिए इस प्रश्न में छिपी चिंता और बेचैनी से सहमत होते भी यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जनांदोलन न तो हवा में पैदा होते हैं और न सिर्फ बौद्धिक भावुकता और जुगाली से पैदा होते हैं. हर जनांदोलन अपने देश और काल-परिस्थिति की पैदाइश होता है. यह भी ठीक है कि जनांदोलनों की आग में ही पककर कोई लोकतंत्र और समाज और निखरता है.

असल में, जनांदोलन समाज की सामूहिक इच्छा, आकांक्षा, सोच और परिवर्तन की अभिव्यक्ति होते हैं. जब भी कोई समाज और देश राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक रूप से ठहराव और गतिरोध का शिकार हो जाता है, जनांदोलन ही उसे तोड़ते और नई दिशा देते हैं.

इस मायने में, जनांदोलन किसी समाज और देश की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता की अभिव्यक्ति हैं. इस लिहाज से आज भारत में अनुकूल राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद किसी बड़े, व्यापक और जनतांत्रिक जनांदोलन का न होना एक बड़ी चिंता की बात है. इससे मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और वैचारिक गतिरुद्धता का पता चलता है.

लेकिन इसके साथ ही यह कहना भी बहुत जरूरी है कि आज भी देश के अधिकांश हिस्सों में स्थानीय स्तर पर बहुतेरे जनांदोलन चल रहे हैं. इन जनांदोलनों की सबसे खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और जल, जंगल और जमीन की कारपोरेट लूट के खिलाफ चल रहे हैं.

इनमें कई जनांदोलन स्वतः-स्फूर्त हैं, कई छोटे-छोटे जनसंगठनों या राजनीतिक दलों की अगुवाई में चल रहे हैं, कई संवैधानिक-जनतांत्रिक दायरों में और कुछ उससे बाहर भी चल रहे हैं और कई किसी खास मुद्दे (जैसे नर्मदा बचाओ) पर राष्ट्रीय पहचान भी हासिल कर चुके हैं. तात्पर्य यह कि जमीन पर बहुत बेचैनी और हलचल है.

लेकिन स्थानीय और छोटे-छोटे जनांदोलनों के बीच राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक समन्वय नहीं है, उनके बीच गहरे राजनीतिक मतभेद भी हैं और कई मामलों में व्यक्तिगत मतभेद और अहम की लड़ाइयां भी हैं. इसके अलावा कई आन्दोलनों में किसी एक खास मुद्दे से आगे देखने और उसे एक व्यापक राजनीतिक-वैचारिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ने की दृष्टि का अभाव भी दिखाई देता है.

लेकिन इन महत्वपूर्ण कारणों के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े, व्यापक और जनतांत्रिक जनांदोलन की गैर-मौजूदगी के पीछे और भी कई बड़े कारण हैं. एक बड़ा कारण तो खुद नव उदारवादी अर्थनीति और नई आर्थिक नीतियां हैं. यह बहुत अंतर्विरोधी बात लग सकती है कि जिन नीतियों के खिलाफ देश में सबसे अधिक जनांदोलन चल रहे हैं, वही बड़े जनांदोलनों को खड़े होने से रोक रही है.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और नई आर्थिक नीतियों के साथ देश में एक बड़े मध्य और नव धनिक वर्ग का उदय हुआ है जिसे वास्तव में, इन नीतियों का फायदा मिला है. नतीजा, ये वर्ग न सिर्फ इन नीतियों के खुले समर्थक के रूप में सामने आया है बल्कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण से निकली समृद्धि ने उसकी आँखों पर पट्टी बांध दी है.

जाहिर है कि इस कारण इस प्रभावशाली वर्ग के बड़े और मुखर हिस्से के निहित स्वार्थ इन नीतियों के जारी रहने और मौजूदा व्यवस्था के बने रहने से जुड़ गए हैं. ७०-८० के दशक तक इस मध्य वर्ग की न सिर्फ जनांदोलनों के साथ गहरी सहानुभूति थी बल्कि उसका एक बड़ा हिस्सा इन जनांदोलनों की अगली कतार में भी दिखता था.

लेकिन अब यह वर्ग व्यवस्था के साथ खड़ा दिखता है. उसे मौजूदा व्यवस्था से वैसी गहरी शिकायत और नाराजगी नहीं है, जैसी हाशिए पर धकेल दी गई देश की एक बड़ी आबादी में है. वह अब बुनियादी बदलाव के नहीं बल्कि सुधारों के साथ खड़ा है.

दूसरे, विश्व बैंक के निर्देश पर राष्ट्रीय सरकारों ने भारत समेत तमाम विकासशील देशों में गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ) का जाल सा बिछा दिया है जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मदद और केन्द्रीय-स्थानीय सरकारों के समर्थन से ग्रासरूट स्तर पर लोगों के गुस्से और नाराजगी को समेटने और उन्हें कुछ राहत देने और सीमित और क्रमिक सुधारों की दिशा में मोडना शुरू कर दिया है. इससे व्यवस्था को जनांदोलनों का झटका झेलने के लिए एक तरह कुशन मिल गया है.

एन.जी.ओ ने जनांदोलनों की धार को कमजोर और भोथरा कर दिया है. सच तो यह है कि कई जनांदोलनों का भी धीरे-धीरे एनजीओकरण हो गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये एन.जी.ओ इस व्यवस्था के साथ गहरे नाभिनालबद्ध हैं और उन्होंने व्यवस्था और जनांदोलनों के बीच जबरदस्त घालमेल पैदा कर दिया है.

जाहिर है कि अन्य कई कारणों के साथ इन दोनों कारणों ने भी फिलहाल देश में जनांदोलनों की अग्रगति को रोक दिया है. जनांदोलनों की शक्तियों के लिए यह समय परीक्षा का है. उन्हें जनांदोलनो को न सिर्फ एन.जी.ओ के कब्जे से बाहर निकलना होगा बल्कि अपना एजेंडा व्यापक, खुला और जनतांत्रिक करना होगा और अपनी धार भी तेज करनी होगी.

(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित)

मंगलवार, अप्रैल 05, 2011

चैनलों पर मानव निर्मित आपदा

लोगों को आश्वस्त और सतर्क नहीं बल्कि डराते हैं चैनल



समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदाओं से शायद ही कोई बड़ी खबर होती हो. उनमें होनेवाली धन-जन की भारी हानि के कारण लोगों की उनमें स्वाभाविक दिलचस्पी होती है. इतिहासकार और समाजशास्त्री भी मानते हैं कि ‘अज्ञात के भय’ से निपटने की जरूरत से ही ‘समाचार’ जानने-बताने की शुरुआत हुई.

तात्पर्य यह कि ‘समाचार’ के मूल में इंसान के अंदर बैठा वह ‘अज्ञात का भय’ है जिसके पूर्व ज्ञान से वह अपनी, अपने परिवारजनों और समुदाय के बचाव और उनकी हिफाजत करने में समर्थ हो पाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं से अधिक ‘अज्ञात का भय’ शायद ही कोई और हो?

आश्चर्य नहीं कि जापान में हालिया भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी से हुई बर्बादी और तबाही की खबरें न सिर्फ भारतीय समाचार चैनलों में बल्कि पूरी दुनिया के मीडिया में छाई हुई हैं. जापान के ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े भूकंप और उसके बाद आई भयंकर सुनामी ने जापान को ही नहीं, पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है.

हालांकि जापान के लिए भूकंप कोई नई बात नहीं हैं और यह उसकी पूर्व तैयारी ही थी जिसके कारण भारी तबाही और बर्बादी के बावजूद जनहानि उतनी नहीं हुई, जितनी २००४ की सुनामी के दौरान भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया सहित हिंद महासागर के कई देशों में हुई थी.

जापानी सुनामी और उसके साथ आई बर्बादी और तबाही ने भारतीयों को २००४ की सुनामी की याद दिला दी है. यह भी एक कारण है कि विश्व कप क्रिकेट के बुखार में डूबे होने के बावजूद चैनलों ने जापान के भूकंप और सुनामी को काफी कवरेज दी है.

स्वाभाविक तौर पर चैनलों पर विकराल सुनामी लहरों और उनके साथ आई तबाही की दहला देनेवाली फुटेज/तस्वीरें छाई हुई हैं. इन्हें देखकर सिहरन और लाचारी का अनुभव होता है. ये तस्वीरें खुद ही तबाही की दास्ताँ कहती हैं. सच पूछिए तो यहीं शायद शब्द बेमानी हो जाते हैं.

लेकिन चैनलों के लिए प्राकृतिक आपदा और उससे हुई तबाही की ये फुटेज/तस्वीरें सिर्फ खबर का हिस्सा भर नहीं हैं बल्कि उससे अधिक ज्यादा से ज्यादा दर्शक खींचने का जरिया बन गई हैं. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों पर खौफनाक सुनामी लहरों के साथ हो रही तबाही की फुटेज बार-बार दिखाई गईं. एक ही फुटेज को सुबह से शाम तक सैकड़ों बार रिपीट किया गया. यहां तक कि हर बुलेटिन में ये तस्वीरें बार-बार रिपीट हुईं. कई बार तो कुछ खास दृश्यों को उसी तरह रिपीट किया गया जैसे हिंदी धारावाहिकों में किया जाता है.

इससे कई बार यह आशंका होती है कि चैनल कहीं लोगों के डर, लाचारी और बेचैनी को भुनाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं. इस आशंका को इस तथ्य से और बल मिलता है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों पर भूकंप और सुनामी से हुई तबाही के बारे में वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण तरीके से खबरें देने और उसके वैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट करने के बजाय ज्यादा जोर सनसनी, घबराहट और बेचैनी को बढ़ाने पर दिखाई पड़ा. उनकी रिपोर्टों का उद्देश्य दर्शकों में जागरूकता फ़ैलाने, उन्हें आश्वस्त करने और इंसानी जज्बे के प्रति हौसला रखने के बजाय उन्हें डराने और बेबसी का अहसास कराने पर अधिक था.

आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही कई हिंदी चैनलों पर जापानी सुनामी के बहाने महाप्रलय की पूर्व चेतावनियां, महाविनाश के पांच संकेत और २०१२ में दुनिया के खत्म होने सम्बन्धी निहायत ही अवैज्ञानिक, बे-सिरपैर के और डरावने विशेष कार्यक्रम चलने लगे. वैसे भी हिंदी चैनलों का यह प्रिय विषय है.

अकसर ही महाप्रलय और महाविनाश और इस तरह दुनिया के खत्म होने की विशेष रिपोर्टें चलती रहती हैं जिनमें कुछ फ़िल्मी और कुछ असली प्राकृतिक आपदाओं की फुटेज को मिक्स करके दर्शकों को डराने और चैनल से चिपकाने की कोशिश होती है.

चैनलों की ये रिपोर्टें और कार्यक्रम वास्तव में, दर्शकों के लिए मानव निर्मित आपदा से कम नहीं हैं. ऐसी रिपोर्टें प्राकृतिक आपदाओं को लेकर न सिर्फ वैज्ञानिक समझ का मजाक उड़ाती हैं बल्कि उस इंसानी जज्बे का भी अपमान करती हैं जो जापान और किसी भी अन्य देश में पुनर्निर्माण के लिए साहस, धैर्य और दृढ़ता के साथ दोबारा उठ खड़ा होती है.

यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं है. कई मामलों में वे बताकर नहीं आती हैं. कुछ मामलों में उनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. लेकिन अधिकांश मामलों में प्राकृतिक आपदाओं की मार इंसानी लापरवाही और भूलों के कारण कई गुना बढ़ जाती है.

वास्तव में, प्राकृतिक आपदाओं में होनेवाला धन-जन का भारी नुकसान प्राकृतिक आपदा के कारण कम और मानवीय लापरवाहियों और गलतियों के कारण ज्यादा होता है. यही कारण है कि अधिकांश प्राकृतिक आपदाएं काफी हद तक मानव निर्मित आपदाएं भी होती हैं.

अफसोस कि प्राकृतिक आपदाओं को मानव निर्मित आपदा बनाने में समाचार चैनलों की भूमिका भी बढ़ती जा रही है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय न्यूज चैनलों से कहीं ज्यादा गंभीरता, प्रौढता, धैर्य, विवेक, संवेदनशीलता, वस्तुनिष्ठता, एक्यूरेसी और संपादकीय निगरानी की जरूरत होती है.

साफ है कि न्यूज चैनलों से ‘अज्ञात का भय’ बढ़ाने की नहीं कम करने की अपेक्षा होती है. लेकिन हो यह रहा है कि आपदाओं के वक्त चैनल और अधिक बेकाबू हो जा रहे हैं. इस मायने में, जापानी सुनामी आत्मावलोकन का मौका देती है. अकसर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलनेवाले देश के बतौर यह हमारे लिए सबक लेने का समय है कि आपदाओं की रिपोर्टिंग में कितनी अधिक संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है.

(तहलका के ३१ मार्च के अंक में प्रकाशित )

शनिवार, अप्रैल 02, 2011

पूंजीवादी विकास माडल की अनिवार्य परिणति है यह पिछड़ापन

उत्तर भारत को सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिया गया है


विकीलिक्स के एक खुलासे से सामने आया गृह मंत्री पी. चिदम्बरम का वह बयान बहुत हैरान नहीं करता है जिसके मुताबिक उन्होंने 2009 में अमेरिकी राजदूत से बातचीत में कहा था कि भारत की आर्थिक वृद्धि को उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों ने रोक रखा है और अगर ये राज्य न होते तो देश की विकास दर कहीं ज्यादा होती.

अब खुद चिदंबरम भले ही इस बयान का खंडन करें लेकिन सच यह है कि नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों के बीच ऐसा सोचने या ऐसी राय रखनेवालों की कमी नहीं है. यह और बात है कि राजनीतिक कारणों से वे खुलकर ऐसा बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

असल में, ९० के दशक में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद से नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों ने जिस तरह से जी.डी.पी की ऊँची वृद्धि दर को अर्थनीति के लिए मोक्ष मान लिया, ऐसी सोच जोर पकड़ने लगी. नतीजा, आर्थिक मैनेजरों में जी.डी.पी की ऊँची वृद्धि दर की राह में किसी भी अड़चन या रुकावट पैदा करनेवाले आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक कारकों के प्रति एक खास तरह का अपमान भाव और चिढ़ दिखाई पड़ने लगी.

उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि ऐसा क्यों है और इसे ठीक कैसे किया जाए? उदाहरण के लिए, पिछड़े राज्यों ही नहीं, कृषि क्षेत्र को भी ऊँची विकास दर हासिल करने की राह में एक बड़ा रोड़ा मान लिया गया क्योंकि पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र की हालत बद से बदतर होती चली गई है.

इसका परिणाम यह हुआ है कि पिछले डेढ़-दो दशकों से कृषि क्षेत्र की औसतन सालाना वृद्धि दर दो फीसदी के आसपास बनी हुई है जिसके कारण कुल जी.डी.पी की वृद्धि दर भी ७-८ प्रतिशत से ऊपर नहीं पहुंच पा रही है. इस आधार पर कृषि क्षेत्र को विकास दर की तेज रफ़्तार पर ब्रेक लगानेवाला मान लिया गया है. सतही तौर पर और सन्दर्भ से काटकर देखें तो यह बात उसी तरह ‘तथ्यपूर्ण’ लगती है जैसे यह राय कि पिछड़े राज्यों के खराब आर्थिक प्रदर्शन के कारण भारत की जी.डी.पी वृद्धि दर में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है.

यह तर्क कुछ वैसा ही ‘तर्क’ है जो गरीबी के लिए गरीबों को जिम्मेदार मानता है. लेकिन सच यह है कि जैसे कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के लिए वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं जिन्होंने कृषि क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया है, उसी तरह से उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारणों के अलावा मौजूदा आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ऊँची वृद्धि दर के नशे में चूर आर्थिक मैनेजर जानबूझकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं और पिछड़े राज्यों को पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.

लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्य पिछड़े इसलिए हैं कि उन्हें जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है. असल में, यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति है. पूंजीवादी विकास माडल अपने मूल चरित्र में एक असमान और विषम विकास को प्रोत्साहित करता है. पूंजीवादी विकास प्रक्रिया में कुछ क्षेत्रों को जानबूझकर पिछड़ा रखा जाता है ताकि उन इलाकों से सस्ते श्रम की आपूर्ति होती रहे.

यह प्रक्रिया अंग्रेजों के ज़माने में ही शुरू हो गई थी जिन्होंने व्यापार की दृष्टि से तटीय इलाकों में निवेश किया और इसके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया. दूसरे, अंग्रेजों ने उत्तर भारत के राज्यों को १८५७ के विद्रोह और उनके बगावती तेवर की सजा भी दी और इन इलाकों की उपेक्षा की.

अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के बाद भी कमोबेश उपनिवेशवादी हुकूमत की नीतियां ही जारी रहीं. पूंजीवादी विकास के जिस माडल को अपनाया गया, उसमें निजी पूंजी पहले से विकसित उन्हीं इलाकों में गई, जहां पहले से ही अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मौजूद था. उत्तर और पूर्व भारत के राज्य आज़ाद भारत में भी सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि पूंजीवाद में मुनाफा सस्ते श्रम और श्रम के शोषण पर टिका है. नतीजा, देश के अंदर उत्तर भारत और पूर्व भारत के राज्यों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया है जहां से पश्चिमी और दक्षिणी भारत के विकास के लिए जरूरी सस्ते श्रम की आपूर्ति होती है.

यह आपूर्ति जारी रहे, इसके लिए जरूरी है कि देश के कुछ इलाके पिछड़े बने रहें. इस स्थिति को देश के सभी क्षेत्रों के समान विकास के लिए एक प्रतिबद्ध राज्य ही बदल सकता था लेकिन भारतीय राज्य के एजेंडे पर यह सवाल कभी भी प्राथमिकता से नहीं आया. लेकिन १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद तो रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई.

इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका और भी सीमित हो गई और अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी के हाथों में आ गई. यही पूंजी अर्थनीति तय करने लगी और वे ही विकास का एजेंडा निर्धारित करने लगे.

जाहिर तौर पर इस दौर में भी देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों और राज्यों में गई है, जहां उन्हें अन्य इलाकों की तुलना में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मिला है. यही नहीं, इस दौर में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली, वह यह कि देश के विभिन्न राज्यों के बीच देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी को आकर्षित करने की होड़ सी मच गई. इसके लिए राज्य सरकारों ने निजी पूंजी को मनमाने तरीके से अनाप-शनाप रियायतें और छूट देनी शुरू कर दीं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस होड़ में उत्तर और पूर्व भारत के राज्य अनेक कारणों से एक बार फिर पिछड़ गए और देशी-विदेशी निजी पूंजी का संकेन्द्रण कुछ ही राज्यों और उनमें भी कुछ ही इलाकों तक सीमित हो गया है.

निश्चय ही, इसमें इन राज्यों में खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, बदहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बदतर मानवीय विकास जैसे कई कारक भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ये वास्तविक कारण नहीं हैं बल्कि ये राज्य जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, ये उनकी पैदाइश हैं.

आश्चर्य नहीं कि उत्तर भारत के पिछड़े राज्य एक बार फिर अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं. चिदंबरम के बयान से ऐसा लगता है कि भारतीय राज्य ने मान लिया है कि इन राज्यों और इलाकों में न सिर्फ कुछ बदल नहीं सकता है बल्कि बदलने की जरूरत भी नहीं है.

('राष्ट्रीय सहारा' के 'हस्तक्षेप' में २ अप्रैल'११ को प्रकाशित)