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बुधवार, अक्टूबर 09, 2013

दंगों की रिपोर्टिंग के सबक

दंगों की रिपोर्टिंग का नया एथिक्स: पहचान छुपाएँ या बताएं?

भारत के लिए सांप्रदायिक दंगे कोई नई परिघटना नहीं हैं. जाहिर है कि न्यूज मीडिया के लिए भी इन सांप्रदायिक दंगों की कवरेज का अनुभव नया नहीं है.

इसके बावजूद हर छोटे-बड़े दंगे को भड़काने में न्यूज मीडिया खासकर भाषाई अखबारों की भूमिका और ज्यादातर मामलों में उसकी एकपक्षीय, असंतुलित और भडकाऊ कवरेज पर उँगलियाँ उठती रही हैं.

मुजफ्फरनगर के दंगों की कवरेज भी इसका अपवाद नहीं है. हालाँकि इसबार ज्यादा सवाल सोशल मीडिया और मोबाइल फोन के दुरुपयोग, उनके जरिये अफवाहें फ़ैलाने और लोगों को भड़काने पर उठ रहे हैं लेकिन अखबार और न्यूज चैनल भी सवालों के घेरे से बाहर नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारीय आचार संहिता सांप्रदायिक दंगों की कवरेज में तथ्यों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता और सावधानी बरतने की सिफारिश करते हुए दंगे में मारे गए/घायल लोगों की धार्मिक पहचान को उजागर न करने की सलाह देती है.

लेकिन आरोप है कि अंग्रेजी के कुछ राष्ट्रीय दैनिकों और न्यूज चैनलों ने मुजफ्फरनगर के दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान दंगों के शिकार लोगों की धार्मिक/जातीय पहचान नहीं छुपाई. जैसे, एन.डी.टी.वी-24x7 के श्रीनिवासन जैन पर आरोप है कि उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग और ‘ट्रुथ एंड हाईप’ कार्यक्रम में न सिर्फ दंगे में शामिल समुदायों की धार्मिक/जातीय पहचान का खुलकर उल्लेख किया बल्कि दंगों में मारे गए और हमलावरों की पहचान करने में भी संकोच नहीं किया.
इसी तरह के आरोप ‘द हिंदू’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्टिंग पर भी लग रहे हैं. कहा जा रहा है कि इस तरह की रिपोर्टिंग से देश के दूसरे हिस्सों में भी धार्मिक समुदायों के बीच तनाव बढ़ता और भावनाएं भडकती हैं.

लेकिन ‘द हिंदू’ के रीडर्स एडिटर ने मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गए/घायल लोगों, पीड़ितों, विस्थापितों और हमलावरों की धार्मिक पहचान उजागर करने का बचाव करते हुए तर्क दिया है कि देश में सांप्रदायिक दंगों की बदलती प्रकृति और स्वरुप के मद्देनजर सांप्रदायिक कुप्रचार अभियान की कलई खोलने के लिए यह जरूरी हो गया है.
उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान भगवा सांप्रदायिक संगठनों ने बेहद शातिराना तरीके से स्थानीय हिंदी अखबारों की हेडलाइन को बदलकर अत्यंत भडकाऊ हेडलाइन लगाईं, उसे सोशल मीडिया पर शेयर और प्रचारित किया.

इसी तरह दोनों पक्षों के शातिर सांप्रदायिक तत्वों/संगठनों ने दंगे में मारे गए लोगों की संख्या और उनकी धार्मिक पहचान को लेकर भी सोशल मीडिया और उससे बाहर अफवाहें फ़ैलाने और एकतरफा कुप्रचार के जरिये दोनों समुदायों को भड़काने की कोशिश की. इसके कारण दोनों ही समुदायों में कहीं ज्यादा तनाव और बेचैनी फैली. मुजफ्फरनगर से पहले पिछले साल असम के दंगों के दौरान भी यह प्रवृत्ति साफ़ दिखाई पड़ी थी.

इस सन्दर्भ में जरूरी सवाल यह है कि जब सांप्रदायिक तत्व सोशल मीडिया और मोबाइल आदि आधुनिक संचार साधनों का इस्तेमाल तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, झूठ और अफवाहें फ़ैलाने और एक-दूसरे समुदाय को कुप्रचार का निशाना बनाने के लिए कर रहे हैं, उस समय उसका जवाब कैसे दिया जाए? ऐसे समय में मुख्यधारा के अख़बारों/चैनलों की भूमिका क्या होनी चाहिए?

अगर अफवाहों की काट सच्चाई और तथ्यों को सामने लाने में हैं तो अखबारों/चैनलों से सबसे बड़ी अपेक्षा यह होनी चाहिए कि वे सच को सामने लाएं और शरारती तत्वों और संगठित सांप्रदायिक संगठनों को लोगों को गुमराह करने का मौका न दें.
इसलिए अगर कुछ चैनल और अखबार दंगों की रिपोर्टिंग में पारंपरिक पत्रकारीय आचार संहिता से अलग दंगों में मारे गए/घायल, विस्थापित लोगों और हमलावरों की पहचान बता रहे हैं तो इसे भड़काने के बजाय तथ्यों से झूठ, अफवाह और कुप्रचार के जवाब के रूप में देखना चाहिए.

( ‘तहलका’ के १५ अक्टूबर के अंक में प्रकाशित स्तंभ) 

शनिवार, अक्टूबर 05, 2013

चुप्पी के इस षड्यंत्र को तोड़ने की चुनौती

श्रमजीवी पत्रकार कानून को बेमानी क्यों बना दिया गया है?

तीसरी और आखिरी किस्त

दूसरी ओर, अखबारों से सबक लेकर निजी न्यूज चैनलों ने अपने संस्थानों में शुरू से ही ठेके पर नियुक्तियां कीं, यूनियनें नहीं बनने दीं और न्यूजरूम में आतंक-नियंत्रण का माहौल बनाए रखा.

हालाँकि यह सच है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में शुरू हुए ज्यादातर बड़े न्यूज चैनलों ने शुरुआत में अखबारों की तुलना में ज्यादा वेतन दिया खासकर ऊपर के पदों पर ऊँची तनख्वाहें दीं, तुलनात्मक रूप से कामकाज का माहौल भी अच्छा था लेकिन उसकी वजह यह थी कि शुरुआत में टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी थी और नया माध्यम होने और उसकी संभावनाओं को देखते हुए निवेशक पैसा झोंक रहे थे.
लेकिन पिछले पांच-सात सालों में कई कारणों जैसे टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की अति-आपूर्ति, न्यूज चैनलों की संख्या में वृद्धि और तीखी प्रतियोगिता, वितरण-मार्केटिंग के बेतहाशा बढ़ते खर्चे, अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण विज्ञापन राजस्व में गिरावट आदि से स्थितियां बदल गईं हैं.
छंटनी के हालिया मामलों से साफ़ है कि न्यूज चैनलों के लिए ‘आछे दिन, पाछे गए’. अब यहाँ चैनलों के बढ़ते घाटे पर अंकुश लगाने के नामपर न्यूजरूम के एकीकरण, पुनर्गठन और कर्मियों की संख्या के तार्किकीकरण की आंधी चल रही है. चैनलों में कम से कम स्टाफ में काम चलाने पर जोर है.

नए बिजनेस माडल में अधिक तनख्वाहें पानेवाले वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों और मंझोले कर्मियों को हटाकर उनकी जगह कम तनख्वाह में जूनियर स्तर पर भर्तियाँ करने की रणनीति आम होती जा रही है. यही नहीं, ए.एन.आई जैसी एजेंसी से ज्यादा से ज्यादा खबरें लेने और अपने रिपोर्टिंग/कैमरामैन आदि स्टाफ में कटौती की प्रवृत्ति आम हो रही है. इसके नतीजे में मौजूदा स्टाफ पर काम का बोझ बढ़ाने और छुट्टियों/सुविधाओं में कटौती की शिकायतें भी बढ़ी हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबको न्यूज चैनलों की खराब आर्थिक स्थिति और बढ़ते घाटे की आड़ में जायज ठहराया जा रहा है. तर्क यह दिया जा रहा है कि चैनलों को बंद करने और हजारों पत्रकारों को बेरोजगार करने से बेहतर है कि कुछ लोग छंटनी, वेतन कटौती और बढ़े हुए काम के बोझ का दर्द बर्दाश्त करें.
लेकिन तथ्य क्या हैं? नेटवर्क-१८ के ही उदाहरण को लीजिए. नेटवर्क-१८ को चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में १८ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ है. पिछले साल उसे घाटा हुआ था लेकिन इस साल मुनाफा कमाने के बावजूद उसने ३५० कर्मियों को निकाल दिया. दूसरी बात यह है कि कई बड़े न्यूज चैनल इसलिए घाटे में नहीं हैं क्योंकि उनके स्टाफ की लागत अधिक है बल्कि इसलिए घाटे में हैं क्योंकि उनके प्रबंधन ने अच्छे दिनों में जमकर फिजूलखर्ची की, विस्तार के मनमाने फैसले किये और ऊँची दरों पर कर्ज लिया.
यही नहीं, न्यूज चैनलों के प्रधान संपादकों/प्रबंध संपादकों/स्टार एंकरों के साथ-साथ उनके सी.ई.ओ आदि की तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, कुछ मामलों में तो ये तनख्वाहें इतनी अधिक (अश्लीलता की हद तक) हैं कि एक संपादक की तनख्वाह ३० जूनियर स्टाफ या १५ मंझोले स्टाफ के बराबर है. इसके बावजूद छंटनी की गाज हमेशा मंझोले/जूनियर स्टाफ पर गिरती है.

साफ़ है कि यह माडल न सिर्फ अन्यायपूर्ण है बल्कि टिकाऊ नहीं है. इस माडल की कीमत चैनलों के पत्रकार और मीडियाकर्मी ही नहीं चुका रहे हैं. इसकी कीमत आम दर्शकों और व्यापक अर्थों में भारतीय लोकतंत्र को भी चुकानी पड़ रही है.

चैनलों में पत्रकारों की छंटनी के कारण न सिर्फ उनके कवरेज और उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ रहा है और स्टाफ की कमी की भरपाई हलके-फुल्के मनोरंजन से की जा रही है बल्कि उनके रिपोर्टिंग की कवरेज में विविधता खत्म हो रही है और उसका दायरा सीमित हो रहा है. 

यही नहीं, स्टाफ की कमी का असर खबरों और उनके तथ्यों की जांच-पड़ताल और छानबीन भी पड़ रहा है और भविष्य में और अधिक पड़ेगा. इसका असर संपादकीय निगरानी पर भी पड़ रहा है. इसके कारण खबरों में तथ्यात्मक गलतियाँ बढ़ रही हैं.
दर्शकों को सही, पूरी और व्यापक जानकारी नहीं मिल रही है और घटते कवरेज की भरपाई के रूप में उन्हें चर्चाओं/बहसों के नामपर शोर/एकतरफा विचारों से बहरा बनाया जा रहा है. जाहिर है कि यह दर्शकों का नुकसान है और अगर एक सक्रिय और प्रभावी लोकतंत्र के लिए हर तरह से सूचित नागरिक अनिवार्य शर्त हैं तो सूचना के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में न्यूज चैनलों की मौजूदा स्थिति और उसमें काम कर रहे पत्रकारों का टूटता मनोबल लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है.
इसलिए समय आ गया है जब चैनलों/अखबारों में काम करनेवाले पत्रकारों के कामकाज की स्थितियों पर सार्वजनिक चर्चा हो. यह इसलिए भी जरूरी है कि अन्य पेशों की तुलना में लोकतंत्र की सेहत के लिए पत्रकारिता के पेशे की अहमियत बहुत महत्वपूर्ण है.

यही वजह है कि आज़ादी के बाद ५० के दशक में पत्रकारों/कर्मियों के लिए संसद ने अलग से श्रमजीवी पत्रकार कानून बनाया. उनके लिए अलग से वेतन आयोग गठित किये गए. लेकिन अफसोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया कम्पनियाँ न सिर्फ इस कानून की धज्जियाँ उड़ाने में लगी हुई हैं बल्कि केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से इसे पूरी तरह से बेमानी बना दिया गया है. स्थिति यह हो गई है कि बड़े अखबार समूह इस कानून को ही अप्रासंगिक साबित करके खत्म करने की मांग कर रहे हैं.
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस कानून को और सशक्त, प्रभावी और व्यापक बनाने की जरूरत है. उसके दायरे में न्यूज चैनलों के श्रमजीवी पत्रकारों को भी लाने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा जरूरी है.

नेटवर्क-१८ की छंटनी को यूँ ही बेकार नहीं जाने दिया जाना चाहिए. अच्छी बात यह है कि युवा पत्रकारों के एक छोटे लेकिन प्रतिबद्ध समूह ने इस मुद्दे पर बनी ‘चुप्पी के षड्यंत्र’ को तोड़ने की पहल की है. उसका स्वागत किया जाना चाहिए.

(‘कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित स्तंभ...तीसरी और आखिरी किस्त)

गुरुवार, अक्टूबर 03, 2013

पत्रकारों की छंटनी मुद्दा क्यों नहीं है?

मीडिया कंपनियों के बीच अघोषित सहमति है कि वे एक-दूसरे के यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं को रिपोर्ट नहीं करेंगे

इन दिनों न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों में घबराहट, बेचैनी और आतंक का माहौल है. हालाँकि चैनलों को देखते हुए आपको बिलकुल अंदाज़ा नहीं लगेगा लेकिन सच यह है कि चैनलकर्मियों में इनदिनों अपनी नौकरी की सुरक्षा, वेतन और सेवा शर्तों और भविष्य को लेकर असुरक्षाबोध बहुत अधिक बढ़ गया है.
इसकी वजह यह है कि पिछले कुछ महीनों में न्यूज चैनलों में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों (जैसे कैमरामैन, वीडियो एडिटर, रिसर्चरों आदि) की लगातार छंटनी हो रही है. लेकिन महीने भर पहले जिस तरह से नेटवर्क-१८ समूह (सी.एन.एन-आई.बी.एन, आई.बी.एन-७, सी.एन.बी.सी, आवाज़) से एक झटके में ३५० से ज्यादा पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों की छंटनी हुई है, उससे यह घबराहट और बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई है.
हालाँकि सबकी खबर लेनेवाले किसी भी चैनल पर आपने यह ‘खबर’ नहीं देखी होगी या इक्का-दुक्का अखबारों और कुछ स्वतंत्र मीडिया पोर्टलों को छोड़कर मुख्यधारा के ज्यादातर अखबारों ने भी इस ‘खबर’ को छापने लायक नहीं समझा.

ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये वही न्यूज चैनल या अखबार हैं जिन्होंने कुछ साल पहले किंगफिशर एयरलाइन में कोई १५० एयर हास्टेस और एयरलाइन कर्मियों की छंटनी को सुर्खी बनाने में देर नहीं की थी. सवाल यह है कि न्यूज चैनलों/अखबारों के लिए टी.वी पत्रकारों/कर्मियों की इतनी बड़ी संख्या में छंटनी की ‘खबर’ एयरलाइन कर्मियों की छंटनी की खबर की तुलना में कम महत्वपूर्ण क्यों है कि उसे १० सेकेण्ड की फटाफट खबर या स्क्रोल के लायक भी नहीं माना गया?

यही नहीं, जब कुछ युवा पत्रकारों ने टी.वी-१८ के पत्रकारों की मनमानी छंटनी के विरोध में पत्रकार एकजुटता मंच (जर्नलिस्ट सोलिडारिटी फोरम) गठित करके सी.एन.एन-आई.बी.एन के फिल्म सिटी, नोयडा स्थित दफ्तर पर प्रदर्शन किया तो उसकी भी कोई ‘खबर’ चैनलों में दिखाई नहीं दी या किसी अखबार में नहीं छपी.
हैरानी की बात यह है कि कोई १५० से ज्यादा युवा और वरिष्ठ पत्रकारों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया और वे नारे लगाते हुए पूरे फिल्म सिटी के इलाके में घूमे लेकिन चैनलों/अखबारों ने इसे ‘खबर’ लायक नहीं माना. मजे की बात यह है कि फिल्म सिटी में ज्यादातर हिंदी/अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं और उस दिन चैनलों के न्यूज रूम में पत्रकारों-संपादकों के बीच दबे-छुपे इसी प्रदर्शन की चर्चा हो रही थी.  
लेकिन इसका पर्याप्त कवरेज तो दूर, किसी टी.वी बुलेटिन या अखबारों ने नोटिस तक नहीं लिया. गोया ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ ही नहीं हो. हालाँकि पत्रकारों की ओर से लंबे अरसे बाद ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ था जिसमें टी.वी के पत्रकारों/कर्मियों ने छंटनी के खिलाफ आवाज़ उठाई थी.

हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ समूह के बाद अंग्रेजी बिजनेस न्यूज चैनल ब्लूमबर्ग टी.वी में भी लगभग ४० पत्रकारों की छंटनी हुई लेकिन इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर इसकी ‘खबर’ कहीं नहीं छपी या दिखी. बात सिर्फ दो चैनलों की नहीं है. नेटवर्क-१८ से पहले पिछले एक साल में एन.डी.टी.वी के मुंबई ब्यूरो और दिल्ली मुख्यालय से लगभग १०० पत्रकारों/टी.वी कर्मियों और टी.वी टुडे (आज तक, हेडलाइंस टुडे) में लगभग दो दर्जन से अधिक पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी है.

यही नहीं, पिछले वर्षों में शुरू हुए छोटे-मंझोले न्यूज चैनलों में से कई बंद हो गए हैं या कई मरणासन्न हालत में हैं जिनके कारण कम से कम २५० से ज्यादा पत्रकारों/कर्मियों को बेरोजगार होना पड़ा है. लेकिन यह टी.वी न्यूज चैनलों तक सीमित परिघटना नहीं है. अखबारों/प्रिंट मीडिया में भी छंटनी का दौर पिछले एक साल से अधिक समय से जारी है.
पिछले दिनों ‘आउटलुक’ समूह ने कई पत्रिकाएं बंद करने और कुछ की समयावधि बढ़ाने की घोषणा की और इसके कारण कोई १२० से ज्यादा पत्रकारों की छंटनी कर दी गई है. इसी तरह ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसे देश के सबसे ज्यादा बिकने और कमाई करनेवाले अखबारों में दर्जनों पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी है. नेटवर्क-१८ समूह की ओर से प्रकाशित ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका में भी संपादक सहित कई पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो. पिछले सालों में खासकर २००८ के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद कई चैनलों और अखबारों में पत्रकारों के वेतन में सालाना इजाफा (इन्क्रीमेंट) नहीं हुआ या आसमान छूती महंगाई की तुलना में बहुत कम इन्क्रीमेंट हुआ और कुछ मीडिया समूहों में तो वेतन बढ़ोत्तरी तो दूर उल्टे उसमें कटौती कर दी गई.

यही नहीं, चैनलों/अखबारों से पत्रकारों की छंटनी के कारण बचे पत्रकारों/टी.वी कर्मियों का काम का बोझ बढ़ गया है, उनके काम के घंटे बढ़ गए हैं, छुट्टियाँ घट गईं है और दबाव-तनाव बढ़ गया है. लेकिन नौकरी जाने के भय से कोई पत्रकार इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. गरज यह कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में कुलमिलाकर न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों में काम करने की स्थितियां बाद से बदतर हुई हैं. पत्रकारों की नौकरियां जाने के साथ उनमें असुरक्षा बोध बहुत ज्यादा बढ़ गया है.

इसके बावजूद दुनिया भर की खबर देनेवाले न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की छंटनी, काम करने की बदतर होती परिस्थितियां, बढ़ता असुरक्षा बोध और तनाव कोई ‘खबर’ नहीं है.
इसी तरह आपने श्रमजीवी पत्रकारों का वेतन तय करने के लिए सरकार की ओर से गठित जस्टिस मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में हुई देरी और फिर सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के खिलाफ बड़े अखबारों के मालिकों के सुप्रीम कोर्ट जाने के बारे में भी बहुत ज्यादा खबरें नहीं पढ़ी होंगी. क्या यह कोई संयोग या अपने बारे में बात न करने का संकोच है? क्या यह पत्रकारों की खुद पर थोपी गई सेल्फ-सेंसरशिप है?
लेकिन अगर ऐसा होता तो पिछले दो-तीन सालों में न्यूज चैनलों/अखबारों के अंदर का हालचाल बतानेवाले मीडिया वेब पोर्टल इतने लोकप्रिय नहीं होते और यहाँ तक कि चैनलों/अखबारों के दफ्तरों में सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पोर्टल्स में से एक नहीं होते.

इसी तरह आप सोशल मीडिया में न्यूज मीडिया के कामकाज और उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की स्थिति पर खुद पत्रकारों की नियमित टिप्पणियां, चर्चाएं और आक्रोश पढ़ और देख सकते हैं. इसके बावजूद न्यूज मीडिया में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की समस्याओं, मुश्किलों और तकलीफों के बारे रिपोर्ट और चर्चा करने के लिए जगह नहीं है तो ऐसा क्यों है? क्या यह ‘चुप्पी का षड्यंत्र’ है?

असल में, इस ‘चुप्पी के षड्यंत्र’ की वजह न्यूज मीडिया के स्वामित्व के पूंजीवादी ढाँचे में है. यह किसी से छुपा नहीं है कि बड़ी कारपोरेट पूंजी और छोटी-मंझोली पूंजी की मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले पत्रकारों की मौजूदा स्थिति के लिए मीडिया कम्पनियाँ और उनका प्रबंधन जिम्मेदार है.
चाहे पत्रकारों की नियुक्ति की अपारदर्शी व्यवस्था हो या संविदा पर नियुक्ति के साथ जुड़ा नौकरी का अस्थायित्व हो या कंपनी के पक्ष में झुकी सेवाशर्तें हों या वेतन/प्रोन्नति/इन्क्रीमेंट तय करने के मनमाने तौर-तरीके हों- इसकी जिम्मेदारी मीडिया कम्पनियों की है.
इसी तरह सामूहिक छंटनी का फैसला भी कंपनियों का है. लेकिन वे हरगिज नहीं चाहती हैं कि उनके चैनलों और अखबारों में इसकी रिपोर्ट की जाए या उसपर चर्चा हो क्योंकि वे पत्रकारों की नौकरी, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों को सार्वजनिक मुद्दा नहीं बनने देना चाहते हैं.  
यही नहीं, मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे एक-दूसरे के बारे में खासकर उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं, शोषण और उत्पीडन को रिपोर्ट नहीं करेंगे. इसकी वजह स्पष्ट है. आपने अंग्रेजी का मुहावरा सुना होगा- ‘कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है’ (डाग डज नाट ईट डाग).
 
मीडिया कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में खासकर पत्रकारों की स्थिति के बारे में इसलिए रिपोर्ट या चर्चा नहीं करती हैं क्योंकि कल उनकी कंपनी में काम करनेवाले पत्रकारों की बदतर स्थितियों के बारे में कोई दूसरा चैनल/अखबार रिपोर्ट कर सकता है. उन्हें पता है कि सभी न्यूज मीडिया कंपनियों में पत्रकारों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है. इसलिए वे उसे छुपाने और सार्वजनिक चर्चा का मुद्दा बनने देने से रोकने के लिए हर कोशिश करते हैं.
(कथादेशके अक्टूबर अंक में प्रकाशित स्तंभ की पहली किस्त..अगली किस्त कल..)
 
 

रविवार, जुलाई 07, 2013

भारत में लोक सेवा प्रसारण की चुनौतियाँ

कहाँ हैं  आम आदमी की आवाज़ और उनका वास्तविक लोक प्रसारक?

पहली क़िस्त

मैं समझता हूँ कि अज्ञानता से मुक्ति उतनी ही जरूरी है जितनी भूख से मुक्ति. जनसंचार के माध्यम बहुत उपयोगी हैं लेकिन उनके साथ एक खतरा भी जुड़ा हुआ है कि निजी हितों के लिए उनका दुरुपयोग किया जा सकता है...धनपति या अमीर मुल्क अपने मीडिया के माध्यम से देश और दुनिया को अपने उन सोच और विचारों की बाढ़ में डुबो सकते हैं जो सही या गलत हो सकते हैं.”
-जवाहर लाल नेहरु, ५ मार्च’१९६२
भारत एक तरह के सूचना और जनसंचार विस्फोट के दौर से गुजर रहा है. देश में जनसंचार के माध्यमों का तेजी से विस्तार हो रहा है और उनकी पहुँच बढ़ रही है. देश में पंजीकृत समाचारपत्रों/पत्रिकाओं की संख्या ८५७५४ (आर.एन.आई, वर्ष ११-१२ की ‘प्रेस इन इंडिया’ रिपोर्ट) तक पहुँच चुकी है, कुल निजी टी.वी चैनलों की संख्या ८४८ और इसमें न्यूज और सम सामयिक विषयों के चैनलों की संख्या ३९३ है और रेडियो खासकर एफ.एम रेडियो का भी तेजी से विस्तार हो रहा है.

फिक्की-के.पी.एम.जी (२०१३) की मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग का आकार वर्ष २०१२ में ८२ हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है और उसकी वृद्धि की रफ़्तार १२.६ फीसदी रही. यह भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के दुगुने से भी ज्यादा है.

देश जन माध्यमों के तीव्र विस्तार और प्रसार का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनका राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव बढ़ रहा है, नागरिकों के एक बड़े हिस्से की सोच-रहन-सहन पर उसका असर बढ़ रहा है और सार्वजनिक जीवन में उन्हें राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर एजेंडा तय करते हुए देखा जा सकता है.
इसे लेकर अब बहुत विवाद नहीं है कि जन माध्यमों की सक्रियता सार्वजनिक और नागरिक जीवन के सभी पक्षों को गहरे प्रभावित कर रही है. कई विश्लेषकों का मानना है कि माध्यमों के तीव्र प्रसार के साथ भारत एक ‘मीडियाटाईज्ड समाज’ में बदलता जा रहा है जहाँ नागरिकों के एक बड़े हिस्से के पास राज-समाज खासकर राजनीति और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में सूचनाएं और विचार प्राथमिक स्रोतों और खिलाड़ियों के बजाय जन माध्यमों के जरिये पहुँच रही हैं.
इसके कारण आज जन माध्यम न सिर्फ जनमत को बनाने और उसे प्रभावित करने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं बल्कि आम जन जीवन में भी लोगों की आदतों, रुचियों, इच्छाओं और उनके व्यवहार पर गहरा असर डाल रहे हैं. ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि खुद इन जन माध्यमों की अपनी सोच, एजेंडा, दिशा और चरित्र क्या है?

जाहिर है कि इस सवाल का उत्तर बहुत गहराई से जन माध्यमों के स्वामित्व (ओनरशिप) और उनके एजेंडे और सोच-विचार से जुड़ा हुआ है. भारत में जन माध्यम मुख्यत: निजी क्षेत्र के हाथों में हैं. प्रिंट मीडिया (अखबार/पत्रिकाएं) पर तो पूरी तरह से निजी क्षेत्र का वर्चस्व है जबकि मूलतः सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में रहे प्रसारण माध्यमों (टी.वी/रेडियो) में भी पिछले दो दशकों में निजी क्षेत्र का दायरा और दखल तेजी से बढ़ा है. इसी तरह सिनेमा शुरू से पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथ में रहा है.

जन माध्यमों पर बड़ी निजी पूंजी का बढ़ता वर्चस्व
इस बीच एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि जन माध्यमों पर निजी क्षेत्र के बढ़ते वर्चस्व और खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछले दो दशकों में जन माध्यमों के स्वामित्व में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी प्रवेश और प्रभाव में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है.

जन माध्यमों में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश के साथ मीडिया उद्योग के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है. इसके साथ मीडिया उद्योग में कुछ बड़े देशी-विदेशी मीडिया समूहों का वर्चस्व बढ़ा है. मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण (कंसन्ट्रेशन) और एकाधिकारवादी और अल्पधिकरवादी (मोनोपोली और अल्गापोली) प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं.

इसके कारण जन माध्यमों की अंतर्वस्तु (कंटेंट) और उसके चरित्र में भी बदलाव साफ़ देखे जा सकते हैं. असल में, कारपोरेटीकरण के बाद मीडिया कंपनियों पर उनके निवेशकों की ओर से मुनाफे का दबाव बढ़ा है और नतीजे में, अधिक से अधिक से मुनाफा कमाने के लिए मीडिया कम्पनियाँ जन माध्यमों और पत्रकारिता की आचार संहिता (एथिक्स) के साथ समझौता कर रही हैं, पत्रकारिता के उसूलों और मूल्यों को तोड़ रही हैं और कारपोरेट हितों के अनुकूल एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी है.
हाल के अनेकों उदाहरणों से साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों के स्वामित्व वाले मीडिया समूहों के लिए लोकतंत्र और जनहित की तुलना में निजी कारपोरेट हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
इस कारण लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत विचारों की विविधता और बहुलता के लिए कारपोरेट जन माध्यमों में जगह दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है. दूसरी ओर, जन माध्यमों के कंटेंट में भी आम लोगों और उनके सरोकारों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए जगह कम होती जा रही है.

जन माध्यमों में लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने और सार्वजनिक हित की प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नामपर सस्ते-फूहड़-फ़िल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है.

एक मायने में, कारपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं.

लेकिन कारपोरेट जन माध्यमों के इस बुनियादी चरित्र और उद्देश्य को लेकर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और चिंता जाहिर की जाती रही है. इसी पृष्ठभूमि में जनहित को सर्वोपरि माननेवाले और लोगों के जानने और स्वस्थ मनोरंजन के अधिकार के लिए समर्पित लोक सेवा प्रसारण को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की मांग होती रही है.
इसकी वजह यह है कि इस मुद्दे पर अधिकांश मीडिया अध्येता और विश्लेषक एकमत हैं कि निजी पूंजी के स्वामित्व वाले जन माध्यमों की सीमाएं स्पष्ट हैं क्योंकि वे व्यावसायिक उपक्रम हैं, मुनाफे के लिए विज्ञापनदाताओं और निवेशकों के दबाव में कंटेंट के साथ समझौता करना उनके स्वामित्व के ढांचे में अन्तर्निहित है और वे व्यापक जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा करते रहेंगे.

लोक सेवा प्रसारण की कसौटियां  
हालाँकि लोक प्रसारण सेवा का विचार नया नहीं है लेकिन यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि लोक सेवा प्रसारण की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि वह न राज्य (सरकार) के नियंत्रण में होनी चाहिए और न ही निजी व्यावसायिक प्रसारकों के अधिकार में. वह इन दोनों के नियंत्रण और दबावों से बाहर और वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र और स्वायत्त होनी चाहिए.

उसका मुख्य उद्देश्य सभी वर्गों, समुदायों और समूहों के लोगों को बिना किसी लैंगिक-जातिवादी-धार्मिक-एथनिक पूर्वग्रह के उनकी नागरिक की भूमिका निभाने के लिए जरूरी सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित सूचनाएं उपलब्ध कराना, उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अधिकतम संभव विचारों से अवगत कराना, उन्हें शिक्षित करने के लिए जानकारी, विचार और चर्चाओं से रूबरू कराना और उनके स्वस्थ मनोरंजन के लिए सृजनात्मक विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करना होना चाहिए.

इसके साथ ही, लोक सेवा प्रसारण की एक और महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि उसमें कार्यक्रमों के निर्माण से लेकर उसके प्रबंधन में आम लोगों और बुद्धिजीवियों/कलाकारों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए. लेकिन पिछले कुछ दशकों में व्यावसायिक प्रसारण माध्यमों के बढ़ते वर्चस्व के बीच इस विचार को हाशिए पर ढकेल दिया गया था.
यह मान लिया गया था कि व्यावसायिक प्रसारण के विस्तार और बढ़ोत्तरी में लोक सेवा की जरूरतें भी पूरी हो जायेंगी. यही कारण है कि भारत समेत दुनिया के ज्यादातर देशों में लोक प्रसारण सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है. ज्यादातर देशों में लोक प्रसारण के नामपर राज्य और सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलनेवाले राष्ट्रीय प्रसारक हैं जिन्हें न तो पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, न उन्हें सृजनात्मक आज़ादी हासिल है और न ही वे जनहित में प्रसारण कर रहे हैं.
अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर देशों में वे सरकार के भोंपू में बदल दिए गए हैं और दूसरी ओर, उन्हें निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में ढकेल दिया गया है.

इस कारण लोगों में एक ओर उनकी साख बहुत कम है और दूसरी ओर, निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में उनका इस हद तक व्यवसायीकरण हो गया है कि उनमें लोक प्रसारण सेवा की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है.

इस प्रक्रिया में वे न तो लोक प्रसारण सेवा की कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही पूरी तरह व्यावसायिक प्रसारक की तरह काम कर पा रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सत्तारुढ़ दल और नौकरशाही के साथ-साथ व्यावसायिक शिकंजे में उनका दम घुट रहा है.

जारी .....

('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित लेख की पहली क़िस्त)

मंगलवार, जून 04, 2013

शेखर गुप्ता जी, मीडिया के तालाब को सिर्फ छोटी मछलियाँ नहीं गन्दी कर रही हैं

यहाँ तो सगरे कूप में भांग पड़ी है 
 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
 जाहिर है कि इसके कारण मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष पर बैठे इन मुट्ठी भर कारपोरेट मीडिया समूहों के मालिकों और उनके चुनिंदा संपादकों/पत्रकारों की ताकत और प्रभाव में भी भारी इजाफा हुआ है. उनकी प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट मंत्रियों और अफसरों तक और शासक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक सीधी पहुँच है.
 
इनकी पहुँच और प्रभाव का कुछ अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि इनमें से कई मीडिया मालिक और पत्रकार विभिन्न पार्टियों की ओर से और कुछ ‘सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक’ योगदान के कोटे से राज्यसभा में नामांकित सदस्य हैं.
इनके बढ़ते प्रभाव का अंदाज़ा नीरा राडिया के टेप्स से भी चलता है जिसमें इन समूहों के जाने-माने पत्रकार लाबीइंग से लेकर कारपोरेट के इशारे पर लिखते/बोलते और फिक्सिंग करते हुए पाए गए.
इस मीडिया उद्योग के पिरामिड के मध्य में वे क्षेत्रीय/भाषाई कारपोरेट मीडिया समूह हैं जो हाल के वर्षों में तेजी से फले-फूले हैं और अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से भी बाहर निकले हैं. इसके साथ ही उन्होंने अखबार के साथ-साथ टी.वी, रेडियो और इंटरनेट में भी पाँव फैलाया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि ये बहुत महत्वाकांक्षी हैं और इन्होंने स्थानीय शासक वर्ग में अपनी पैठ और प्रभाव के बलपर अपने कारोबार को फैलाया है. वे मीडिया के अलावा दूसरे कारोबारों में भी घुस रहे हैं ताकि बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के मुकाबले टिक सकें.

यही नहीं, इनमें से कई ने मौके की नजाकत को समझते हुए बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के साथ गठजोड़ में चले गए हैं.  

इन क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों के लिए उनके कारोबारी हित सबसे ऊपर हैं और मुनाफे के लिए वे किसी भी समझौते को तैयार रहते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों और राज्य सरकारों के बीच संबंध अत्यधिक ‘मधुर’ बने रहे हैं.
इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों से मिलनेवाला विज्ञापन राजस्व और दूसरे कारोबारी फायदे रहे हैं. इस कारण ये मीडिया समूह राज्य सरकारों को नाराज नहीं करना चाहते हैं. यही नहीं, कई क्षेत्रीय मीडिया समूहों की क्षेत्रीय शासक दलों के साथ गहरी निकटता बन गई है क्योंकि इन दलों के शीर्ष नेता और मीडिया समूहों के मालिक या तो एक हैं या उनके कारोबारी हित गहरे जुड़ गए हैं.
इसका एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि हाल के वर्षों में कई राज्यों में उनके ताकतवर नेताओं/मुख्यमंत्रियों/दलों ने जनमत को प्रभावित करने में मीडिया के बढ़ते महत्व को समझते हुए परोक्ष या सीधे मीडिया में निवेश किया है और अखबार और खासकर न्यूज चैनल शुरू किये हैं.

यही नहीं, पंजाब, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो शासक दलों ने टी.वी वितरण यानी केबल उद्योग पर कब्ज़ा जमा लिया है और उसके जरिये चैनलों की बाहें मरोड़ते रहते हैं. दूसरी ओर, कई राज्यों में कमजोर सरकारों/मुख्यमंत्रियों को ताकतवर क्षेत्रीय मीडिया समूह विज्ञापन से लेकर दूसरे कारोबारी फायदों के लिए ब्लैकमेल करते भी दिख जाते हैं.

मीडिया उद्योग के पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में हैं छोटी-मंझोली वे मीडिया कम्पनियाँ जिनके पीछे वैध-अवैध तरीके से रीयल इस्टेट, चिट फंड, लाटरी, ठेकेदारी, नर्सिंग होम/निजी विश्वविद्यालयों, डांस बार से लेकर अंडरवर्ल्ड तक से कमाई गई पूंजी लगी है.
इनका असली मकसद मीडिया कारोबार से ज्यादा न्यूज मीडिया को अपने वैध-अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन/सरकार से बचाने और सार्वजनिक जीवन में साख बटोरने के लिए इस्तेमाल करना है. ये मीडिया कम्पनियाँ घाटे के बावजूद कैसे चलती रहती हैं, इस रहस्य का सीधा संबंध उनके दूसरे वैध-अवैध कारोबार के फलने-फूलने के साथ जुड़ा हुआ है.
आश्चर्य नहीं कि इन मीडिया कंपनियों के मालिक उसका इस्तेमाल नेताओं/अफसरों तक पहुँचने और उनसे लाबीइंग के लिए करते हैं.
यही नहीं, इन मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को भी पत्रकारिता से मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए दलाली करनी पड़ती है. इन मीडिया समूहों में संपादक/ब्यूरो चीफ जैसे पदों पर पहुँचने की सबसे बड़ी योग्यता पत्रकारों की सत्तासीन पार्टी के साथ नजदीकी और उनके संपर्क/पहुँच होते हैं.

सारदा समूह को ही लीजिए जिसके चैनलों/अखबारों के सी.ई.ओ कुणाल घोष पेशे से पत्रकार होने के बावजूद समूह के शीर्ष पर इसलिए पहुँच पाए कि उनके तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व के साथ नजदीकी संबंध थे. हैरानी की बात नहीं है कि कुणाल घोष तृणमूल के राज्यसभा सांसद भी बन गए.

लेकिन सारदा ऐसी अकेली कंपनी नहीं है जो अपने अवैध धंधों पर पर्दा डालने, उसे एक विश्वसनीयता देने और सरकार/सत्तारुढ़ पार्टी के साथ नजदीकी का फायदा उठाने के लिए अखबार/चैनल चला रही थी. देश में ऐसे अखबारों/चैनलों की संख्या सैकड़ों में है.
क्या यह सिर्फ संयोग है कि देश में इस समय केन्द्र सरकार ने ८२५ चैनल के लाइसेंस दिए हुए हैं जिनमें लगभग आधे न्यूज चैनल हैं? जाहिर है कि इन न्यूज चैनलों में से लगभग आधे ऐसे ही कारोबारियों के चैनल हैं जिनके धंधे और आमदनी के स्रोत साफ़ नहीं हैं.
हालाँकि वे घाटे में चल रहे हैं, वहां काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब हैं, तनख्वाह तक समय पर नहीं मिलती है और पत्रकारिता से इतर कामों का दबाव रहता है लेकिन उनकी ‘कामयाबी’ देखकर ऐसे ही दूसरे कारोबारियों की मीडिया के धंधे में उतरने की लाइन लगी हुई है.
हालाँकि मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष से लेकर नीचे तक यानी बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों से लेकर छोटी-मंझोली कंपनियों तक सभी कम या बेशी पत्रकारिता के नामपर खबरों की खरीद-फरोख्त के धंधे में लगी हुई हैं, भांति-भांति के समझौते करके अपने दूसरे कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं और पाठकों-दर्शकों की आँख में धूल झोंकने में शामिल हैं.

लेकिन बड़ी कारपोरेट मीडिया कम्पनियाँ इसका सारा दोष पिरामिड के निचले और कुछ हद तक मध्य हिस्से की मीडिया कंपनियों पर डालकर अपना दामन बचाने की कोशिश कर रही हैं.

पिछले दिनों कोलकाता में इंडियन चैंबर आफ कामर्स की एक सभा में जी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा ने शिकायती लहजे में कहा कि पुलिस से बचने के लिए आज मीडिया कारोबार में बिल्डर्स, हिस्ट्री शीटर्स आ रहे हैं. (http://www.thehoot.org/web/Does-owning-media-help-/6761-1-1-10-true.html )

दूसरी ओर, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक शेखर गुप्ता ने भी अपने एक लेख ‘मेरे पास मीडिया है’ (http://www.indianexpress.com/news/national-interest-mere-paas-media-hai/1108319/ ) में दोष फिक्सर-कारोबारियों पर मढते हुए अपनी साख बचाने के लिए बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों को सचेत किया है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या कुछ चिट फंड, रीयल इस्टेट, डांस बार आदि धंधे करनेवाले मीडिया कारोबार में आ गए हैं और मीडिया के पवित्र सरोवर को गन्दा कर रहे हैं या फिर मुद्दा ‘सगरे कूप में भांग’ पड़ने की है?
अगर मुद्दा सिर्फ कुछ मछलियों के तालाब को गन्दा करने का है तो साफ़-सुथरी और गंभीर पत्रकारिता करनेवाले बड़े मीडिया समूह ऐसी मछलियों का पर्दाफाश क्यों नहीं करते हैं? वे ऐसी मीडिया कंपनियों की कारगुजारियों पर चुप क्यों रहते हैं?
आखिर शेखर गुप्ता के पास कौन सी ऐसी जादुई ताबीज है जिससे वे बता सकते हैं कि मीडिया कारोबार का कौन सा कारोबारी गंभीर और साफ़-सुथरी पत्रकारिता करने के लिए इस धंधे में है या आ रहा है और कौन पुलिस/प्रशासन से बचने और सरकार से अनुचित फायदे लेने के लिए आया है?

क्या यह सच नहीं है कि न्यूज मीडिया के धंधे के बड़े खिलाडी ज्यादा व्यवस्थित, सृजनात्मक और प्रबंधकीय नवोन्मेष के साथ खबरें बेचते या तोड़ते-मरोड़ते हैं जबकि छोटे-मंझोले खिलाडी वह कला नहीं सीख पाए हैं और इसलिए बहुत भद्दे तरीके से खबरों का धंधा करते हैं? उनकी चोरी जल्दी ही पकड़ी भी जाती है.

सबसे बड़ी बात यह है कि दर्शकों/पाठकों में उनकी साख न के बराबर है, इसलिए वे व्यापक पाठक/दर्शक समूह को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं लेकिन जिन बड़े अखबारों/चैनलों पर सबसे अधिक पाठकों/दर्शकों का भरोसा है, वे खबरों का सौदा करके जब उन्हें अँधेरे में रखते हैं या उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, तो वे आम पाठकों/दर्शकों और उनके साथ व्यापक जन समुदाय और उनके हितों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.

क्या यह अब भी बताने की जरूरत है कि सारदा समूह के न्यूज चैनलों और जी न्यूज की पत्रकारिता में लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा कौन है?

('कथादेश' के जून'13 अंक में प्रकाशित टिप्पणी की आखिरी क़िस्त। पहली क़िस्त आप 24 मई को पढ़ चुके हैं)