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शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

शुक्रवार, मई 30, 2014

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

क्या १८८ साल की भरी-पूरी उम्र में कई उतार-चढाव देख चुकी हिंदी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत पहले ८०-९० के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है. बहुतेरे और भी संपादक और विश्लेषक इससे सहमत हैं.
उनका तर्क है कि आज की हिंदी पत्रकारिता हिंदी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार के साथ पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है. उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है. वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है, पत्रकारों के विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.
हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है क्योंकि वहां हिंदी न्यूज चैनलों का ही बोलबाला है. हिंदी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिंदी अखबारों के संपादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं. उनकी लाखों-करोड़ों में सैलरी है.

इसके अलावा हिंदी न्यूज चैनलों के आने से पत्रकारों के वेतन बेहतर हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि दीन-हीन और खासकर आज़ादी के बाद सत्ता की चाटुकारिता करनेवाली हिंदी पत्रकारिता के तेवर और धार में भी तेजी आई है. आज वह ज्यादा बेलाग और सत्ता को आईना दिखानेवाली पत्रकारिता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है. इनमें से कई दावे और तथ्य १९७७ से पहले की हिंदी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं.
दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिंदी मीडिया उद्योग के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिंदी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों. क्या हिंदी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिंदी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिंदी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?
हिंदी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई ७५ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी.

सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें आत्मा नहीं है? 

अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है.’ सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है?
क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है?
मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है?

क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का एलान करते हुए यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं?

यही नहीं, हिंदी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का ‘स्वर्णयुग’ सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके मुठी भर पत्रकारों तक सीमित है. कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे-मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई सुधार नहीं आया है. वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ बिना नियुक्त पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के वे काम करने को मजबूर हैं.
उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उनकी बदहाल हालत देखकर आप कह नहीं सकते हैं कि हिंदी अखबारों और चैनलों में बड़ी कारपोरेट पूंजी आई है, वे शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं, उनके मुनाफे में हर साल वृद्धि हो रही है और वे ‘स्वर्णयुग’ में पहुँच गए हैं.
उदाहरण के लिए हिंदी के बड़े अखबारों की मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी को ही लीजिए. उनका तर्क है कि इस वेतन आयोग के मुताबिक तनख्वाहें दी गईं तो अखबार चलाना मुश्किल हो जाएगा. अखबार बंद हो जाएंगे. सवाल यह है कि अखबार या चैनल स्ट्रिंगरों की छोडिये, अपने अधिकांश पूर्णकालिक पत्रकारों को भी बेहतर और सम्मानजनक वेतन देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?

क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में बेहतरीन युवा प्रतिभाएं आने के लिए तैयार नहीं हैं? आप मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता के कथित ‘स्वर्णयुग’ के बावजूद हिंदी क्षेत्र के कालेजों/विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली और टापर छात्र-छात्राएं इसमें आने के लिए तैयार नहीं हैं या उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है.

दूसरी ओर, हिंदी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह भी दिन पर दिन संकुचित और सीमित होती जा रही है. आश्चर्य नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है.
हैरानी की बात नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता के इस ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प में घटे हैं.
यही नहीं, हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है. वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है. उसे उस विशाल हिंदी समाज की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं. लेकिन मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है.

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

(समाचार4मीडिया वेबसाइट पर प्रकाशित यह टिप्पणी यहाँ भी पढ़ सकते हैं: http://www.samachar4media.com/Is-this-the-golden-era-of-hindi-journalism )

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

पत्रकारिता के नीरा राडिया काल में ‘निष्पक्षता’

नत्थी पत्रकारिता के खतरे   

न्यूज चैनल- ‘आज तक’ के एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल के बीच ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज मीडिया और चैनलों पर सुर्ख़ियों में है.
अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ भाजपा नेताओं से लेकर कुछ न्यूज चैनल तक एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी पर पत्रकारिता की नैतिकता (एथिक्स) और मर्यादा लांघने का आरोप लगा रहे हैं. इस ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में वाजपेयी की केजरीवाल से अति-निकटता और सलाहकार जैसी भूमिका को निशाना बनाते हुए उनकी निष्पक्षता पर ऊँगली उठाई जा रही है.
आरोप लगाया जा रहा है कि वाजपेयी आम आदमी पार्टी की ओर झुके हुए हैं और चैनल के अंदर आप के प्रतिनिधि/प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वाजपेयी भी आशुतोष जैसे कई पत्रकार-संपादकों की तरह हैं जो चैनल/अखबार में आम आदमी पार्टी के पक्ष में काम कर रहे हैं, खबरों के साथ तोडमरोड कर रहे हैं और पार्टी के अनुकूल जनमत बनाने के अभियान में शामिल हैं.

इस कारण केजरीवाल के साथ उनका इंटरव्यू ‘फिक्सड’ और पी-आर किस्म का है जिसका मकसद केजरीवाल की सकारात्मक छवि गढना है और जिसमें शहीद भगत सिंह तक को इस्तेमाल किया जा रहा है.

सवाल यह है कि क्या वाजपेयी और केजरीवाल की ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत सिर्फ एक स्वाभाविक
सौजन्यता/औपचारिकता या हद से हद तक एक तरह का बडबोलापन है या फिर इसे पत्रकारीय निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता माना जाए?
हालाँकि पत्रकारिता के नीरा राडिया और पेड न्यूज काल में पुण्य प्रसून और केजरीवाल की बातचीत काफी शाकाहारी लगती है लेकिन इसमें पत्रकारिता की नैतिकता, मानदंडों और प्रोफेशनलिज्म के लिहाज से असहज और बेचैन करनेवाले कई पहलू हैं. इस बातचीत में वाजपेयी किसी स्वतंत्र पत्रकार और नेता के बीच बरती जानेवाली अनिवार्य दूरी को लांघते हुए दिखाई पड़ते हैं.
दूसरे, पत्रकारिता और पी-आर में फर्क है और पत्रकार का काम किसी भी नेता (चाहे वह कितना भी लोकप्रिय और सर्वगुणसंपन्न हो) की अनुकूल ‘छवि’ गढना नहीं बल्कि उसकी सच्चाई को सामने लाना है.

असल में, किसी भी पत्रकारीय साक्षात्कार में पत्रकार-एंकर अपने दर्शकों का प्रतिनिधि होता है और इस नाते उससे अपेक्षा होती है कि वह साक्षात्कारदाता से वे सभी सवाल पूछेगा जो उसके दर्शकों को मौका मिलता तो उससे पूछते. याद रहे कि कोई भी पत्रकारीय इंटरव्यू पत्रकार और साक्षात्कारदाता खासकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय या पद पर बैठे नेता के बीच की निजी बातचीत नहीं है.

सच यह है कि जब कोई नेता अपने को इंटरव्यू के लिए पेश करता है तो इसके जरिये वह लोगों के बीच यह सन्देश देने की कोशिश करता है कि वह अपने विचारों/क्रियाकलापों में पूरी तरह पारदर्शी है, कुछ भी छुपाना नहीं चाहता है और हर तरह के सार्वजनिक सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल के लिए तैयार है.
ऐसे में, पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस नेता से कड़े से कड़े और मुश्किल सवाल पूछे ताकि उसके विचारों/क्रियाकलापों से लेकर उसकी कथनी-करनी के बीच के फर्क और अंतर्विरोधों को उजागर किया जा सके. क्या पुण्य प्रसून वाजपेयी, केजरीवाल से इंटरव्यू करते हुए इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हुए भी जो बात खलती है, वह यह है कि ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में केजरीवाल कार्पोरेट्स और प्राइवेट सेक्टर के बारे में बात करने से बचने की दुहाई देते नजर आते हैं क्योंकि इससे मध्यवर्ग नाराज हो जाएगा.

लेकिन क्या यह वही अंतर्विरोध नहीं है जिसे इंटरव्यू में उजागर किया जाना चाहिए? यही नहीं, यह और भी ज्यादा चिंता की बात है कि वाजपेयी जैसा जनपक्षधर पत्रकार केजरीवाल को अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि गढ़ने के लिए भगत सिंह के इस्तेमाल का मौका दे.

कहने की जरूरत नहीं है कि यहीं से फिसलन की शुरुआत होती है जब कोई पत्रकार किसी नेता-पार्टी के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) दिखने लगता है. 
('तहलका' के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)                                       

शनिवार, मार्च 15, 2014

चैनलों के पर्दे पर उत्तर पूर्व

राष्ट्रीय मीडिया उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखता है

अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया की दिल्ली के पाश बाजार लाजपतनगर में नस्लीय हत्या और उसकी न्यूज मीडिया में कवरेज ने पिछले साल अक्टूबर में कोई पन्द्रह दिनों के लिए अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर की यात्रा की दिला दी. ईटानगर के पास रानो हिल्स स्थित राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता पढ़ाने गया था.
वहीँ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर चर्चा के दौरान एक छात्रा ने पूछा, ‘देश के बड़े और राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर उत्तर-पूर्व के राज्य और उनकी खबरें क्यों नहीं दिखाई पड़ती हैं?’ प्रश्न बहुत सीधा था और शायद उत्तर भी कि उत्तर-पूर्व नस्लीय भेदभाव का शिकार है.
हालाँकि उत्तर-पूर्व की रुटीन घटनाओं में राष्ट्रीय खबर बनने लायक न्यूज वैल्यू न होने से लेकर दिल्ली से दूरी जैसे तर्कों के जरिये विद्यार्थियों के सामने न्यूज चैनलों का पक्ष रखने की भी कोशिश की और खूब गरमागरम बहस भी हुई लेकिन सच यह है कि खुद इन कमजोर तर्कों से सहमत नहीं था.

ऐसा लग रहा था कि जैसे बहाने बना रहा हूँ और जिसका बचाव नहीं किया जा सकता है, उसका असफल बचाव करने की कोशिश कर रहा हूँ. सच यही है कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में एक बारीक और कई बार बहुत नग्न और बर्बर किस्म की नस्लीय उपेक्षा और पूर्वाग्रहों का शिकार है.    

बात वहीँ खत्म नहीं हुई. उसके बाद से लगातार सोचता रहा कि आखिर हमारे राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से उत्तर-पूर्व क्यों गायब है? क्या वह देश का हिस्सा नहीं है? क्या वहां की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक घटनाओं के बारे में देश के बाकी हिस्सों के लोगों को नहीं जानना चाहिए? वहां के लोग देश के बाकी हिस्सों से किसी मायने में कमतर हैं?

खुद उत्तर पूर्व के लोग राष्ट्रीय चैनलों में अपने इलाके और समाज को न देखकर क्या महसूस करते होंगे? बात-बात पर राष्ट्रभक्ति का राग अलापनेवाले चैनलों के लिए आखिर उत्तर-पूर्व के क्या मायने हैं और वह उनके न्यूज एजेंडा में कहाँ है?

तथ्य यह है कि जब कभी उत्तर-पूर्व चैनलों पर दिखता भी है तो वह किसी बड़े एथनिक नरसंहार या बम विस्फोट में बड़ी संख्या में मारे जाने या कन्फ्लिक्ट की किसी ऐसी बड़ी घटना के कारण दिखता है या फिर चीन की कथित घुसपैठ या अरुणाचल पर चीन के दावे या विभिन्न अलगाववादी आन्दोलनों और उनकी हिंसक कार्रवाइयों के कारण गाहे-बगाहे सुर्ख़ियों में दिख जाता है.

गोया उत्तर-पूर्व में एथनिक झगडों, अलगाववादी आन्दोलनों, तनावों, हत्याओं, नरसंहारों के अलावा और कुछ होता ही नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय मीडिया में उत्तर पूर्व की एक इकहरी छवि बन गई है जो नस्ली भेदभाव का ही विस्तार और उसे मजबूत करने में मदद करती है.   

इस अर्थ में दिल्ली में नीडो तानिया की नस्ली हत्या के लिए जमीन तैयार करने में न्यूज मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. यह सच है कि नीडो की हत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में काफी जगह मिली. न्यूज मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ राजधानी में नस्लीय भेदभाव को मुद्दा बनाया.
इससे सरकार, पुलिस-प्रशासन और राजनीतिक दलों पर दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में नस्लीय भेदभाव, छींटाकशी और हमलों के शिकार उत्तर पूर्व के लोगों खासकर विद्यार्थियों और युवा पेशेवरों को संरक्षण देने और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि नीडो तानिया की हत्या के मुद्दे को न्यूज मीडिया से पहले दिल्ली में रहनेवाले उत्तर पूर्व के युवाओं और सजग नागरिक समाज के एक हिस्से ने जोरशोर से उठाया. उनकी सक्रियता और लाजपतनगर थाने पर जोरदार प्रदर्शन के कारण न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर भी इसके कवरेज का दबाव बढ़ा.

इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी और जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले और प्रदर्शनकारियों के दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों और नेताओं से मिलकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग ने नस्ली भेदभाव के मुद्दे को न सिर्फ जिन्दा रखा बल्कि केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस को कार्रवाई और न्यूज मीडिया को कवरेज देने के लिए मजबूर किया.

अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर उत्तर पूर्व के युवाओं और दिल्ली के नागरिक समाज खासकर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा सहित दूसरे वाम-जनवादी छात्र संगठनों ने राजधानी की सड़कों पर लगातार इस मुद्दे को उठाया नहीं होता और उत्तर पूर्व के लोगों के साथ वर्षों से जारी नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को मुद्दा नहीं बनाया होता तो क्या न्यूज मीडिया और चैनल इस मुद्दे को इतना कवरेज देते या नस्ली भेदभाव को मुद्दा बनाते?
अनुभव यही बताता है कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए राजधानी और देश के बाकी हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव कोई मुद्दा नहीं रहा है. अगर रहा होता तो शायद नीडो की जान नहीं जाती.
असल में, दिल्ली सहित देश के अन्य हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिसे जानबूझकर अनदेखा किया जाता है या छुपाया-दबाया जाता है. यही नहीं, मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक ‘राष्ट्रवादी’ हिस्से को लगता है कि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव और छींटाकशी की सच्चाई को स्वीकार करने पर इसका फायदा उत्तर पूर्व के अलगाववादी समूह उठाएंगे.

इसलिए वह सच्चाई से अवगत होते हुए भी न सिर्फ उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने से हिचकिचाता है बल्कि अक्सर उसे सख्ती से नकारने की कोशिश करता है. इसी तरह मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से को लगता है कि यह भेदभाव सिर्फ उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नहीं बल्कि दिल्ली में दक्षिण और मुंबई में बिहार-यू.पी आदि के लोगों के साथ भी होता है. इसी तर्क के आधार पर कुछ साल पहले तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव के आरोपों को नकारने की कोशिश की थी.

लेकिन नीडो तानिया की हत्या के बाद राजधानी में जिस बड़ी संख्या में उत्तर पूर्व के युवा सड़कों पर उतर आए और अपने गुस्से और पीड़ा का इजहार किया, उससे साफ़ है कि यह मामला सामान्य झगडे-मारपीट और हत्या का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. अगर यह एक सामान्य हत्या की घटना होती तो उत्तर पूर्व के हजारों युवा सड़कों पर नहीं उतर आते.
सच यह है कि नीडो तानिया की मौत एक ट्रिगर की तरह थी जिससे रोजमर्रा के जीवन में नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को झेलनेवाले उत्तर पूर्व को लोगों के दबे गुस्से और पीड़ा को फूटकर बाहर आने का मौका दिया.
कई स्वतंत्र संस्थाओं की रिपोर्ट्स इस कड़वी सच्चाई की पुष्टि करती है. जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सेंटर फार नार्थ ईस्ट एंड पॉलिसी रिसर्च की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहनेवाले उत्तर पूर्व के ८१ प्रतिशत नागरिकों ने स्वीकार किया कि उन्हें कालेज, विश्वविद्यालय, बाजार और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर नस्लीय भेदभाव और छींटाकशी का शिकार होना पड़ता है.

इसके अलावा नार्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर और हेल्पलाइन की २००९ की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर पूर्व के ८६ फीसदी से ज्यादा लोगों को नस्ली भेदभाव और यौन उत्पीडन (सेक्सुअल हैरेसमेंट) का शिकार होना पड़ता है. इन रिपोर्टों से साफ़ है कि उत्तर पूर्व के लोगों को अपने ही देश और उसकी राजधानी में नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इसके बावजूद न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का एक हिस्सा इसबार भी नीडो तानिया की हत्या को नस्ली भेदभाव का मामला मानने से इनकार करते हुए इसे तात्कालिक उत्तेजना में हुए झगडे और मारपीट के मामले की तरह पेश करता रहा.
सबसे अफ़सोस की बात यह है कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट’ और ‘ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरीज’ से दबाना-छुपाना चाहा.
लेकिन सलाम करना चाहिए उत्तर पूर्व के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे अनदेखा करना मुश्किल हो गया.  
अच्छी बात यह है कि न्यूज मीडिया और चैनलों के बड़े हिस्से ने इसे नस्ली भेदभाव के एक उदाहरण के रूप में पेश करते हुए मुद्दा बनाया. असल में, देश की राजधानी में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ होनेवाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं.

चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसायटी- सब अलग-अलग कारणों से उससे आँख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं. उन्हें इससे ‘देश की छवि’ से लेकर ‘उत्तर पूर्व में अलगाववादियों द्वारा भुनाने’ की चिंता सताने लगती है. लेकिन इससे समस्या घटने के बजाय बढ़ती जा रही है. 

विडम्बना देखिए कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों/शहरों में उत्तर पूर्व के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीडन और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
हालाँकि नीडो नस्ली भेदभाव की कीमत चुकानेवाला पहला युवा नहीं है और स्थितियां नहीं बदलीं तो वह आखिरी भी नहीं है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या का खून अभी सूखा भी नहीं था कि राजधानी के मुनिरका में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और साकेत में एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, इस घटना के बाद मुनिरका गांव की रेजिडेंट वेलफेयर एसोशियेसन ने बिलकुल खाप की तरह व्यवहार करते हुए उत्तर पूर्व के लोगों पर कई तरह की बेतुकी पाबंदियां आयद कर दीं. यही नहीं, मुनिरका के मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों घरों से निकालने और उन्हें घर न देने का फैसला भी कर लिया.

हालाँकि इस फैसले पर हंगामे के बाद मुनिरका के स्थानीय मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में ऐसा कोई फैसला करने से इनकार करते दावा किया कि वे सिर्फ ‘नशा करने, हंगामा करने और रात को देर से घर लौटनेवालों’ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके निशाने पर कौन है और क्यों?  

हैरानी की बात यह है कि पुलिस ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन मकान-मालिकों के फैसले के आगे अपनी विवशता भी जाहिर कर दी क्योंकि यह उनका ‘अधिकार’ है कि वे किसे किरायेदार रखें और किसे नहीं? सवाल यह है कि क्या यह नस्ली भेदभाव का एक और सुबूत नहीं है?
ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता दिया जाता था या फिर उन्हें रुटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात है. उत्तर पूर्व के लोगों के रहन-सहन और खान-पान से लेकर बात-व्यवहार के बारे में आम दिल्लीवालों में अनेकों भ्रामक धारणाएं, स्टीरियोटाइप्स और पूर्वाग्रह हैं.
यहाँ तक कि खुद पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी का रवैय्या भी कम भेदभावपूर्ण नस्ली नहीं है. विभिन्न मामलों में दिल्ली पुलिस का व्यवहार भी उसी पूर्वाग्रह और स्टीरियोटाइप्स से संचालित होता रहा है. उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में स्थानीय लोगों को शिक्षित करने के बजाय उल्टे उत्तर पूर्व के लोगों के लिए दिल्ली में “क्या करें और क्या न करें” की लंबी सूची जारी की हुई है.

यही नहीं, जब चीन के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर आ रहे थे तो दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के कई युवाओं को तिब्बती समझकर पकड़ लिया और थाने में बैठाए रहे. मामला सिर्फ दिल्लीवालों, दिल्ली पुलिस और प्रशासन तक सीमित नहीं है बल्कि सच यह है कि इस नस्ली भेदभाव की जड़ें काफी गहरी और व्यापक हैं और आम जनजीवन का कोई भी वर्ग और समूह इसके प्रभाव से बचा हुआ नहीं है.     

मीडिया भी इसका अपवाद नहीं है. राष्ट्रीय मीडिया खासकर न्यूज चैनल उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखते हैं और उत्तर पूर्व के बारे में अपनी कवरेज में प्रचलित पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्स को ही मजबूत करते हैं.
उदाहरण के लिए, अन्ना हजारे के अनशन को 24X7 कवरेज देनेवाले और उन्हें ‘महानायक’ बनानेवाले चैनलों ने मणिपुर में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ पिछले १४ साल से अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की कितनी बार सुध ली?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन उत्तर पूर्व में ऐसे अनेकों मामले/मुद्दे/घटनाएँ हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया ने या तो अनदेखा किया या फिर तोडमरोड कर पेश किया है.
लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. अच्छी बात यह है कि इससे चैनलों-अख़बारों से लेकर सिविल सोसायटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले कुछ महीनों में होनेवाले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी उत्तर पूर्व के लोगों के लिए फटा जा रहा है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुईं है.

इसके शिकार सिर्फ उत्तर पूर्व के ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होनेवाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती देने और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक स्थानों/मंचों को नस्ली रूप से ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाना होगा.
अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर उत्तर पूर्व के हैं? इन चैनलों पर उत्तर पूर्व की ख़बरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के उत्तर पूर्व में रिपोर्टर हैं? यही नहीं, मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र या कथानक उत्तर पूर्व के हैं?
मनोरंजन से लेकर न्यूज चैनलों तक में उत्तर पूर्व के लोगों और इलाके के प्रतिनिधित्व और उनकी पूर्वाग्रहों से मुक्त प्रस्तुति का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि लोगों को शिक्षित करने और उनमें संवेदनशीलता पैदा करने में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

यह एक तथ्य है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की संख्या नगण्य है, वे फैसले लेने की जगहों पर नहीं हैं और उत्तर पूर्व के राज्यों में उनके संवाददाता भी नहीं हैं.

यही नहीं, इन चैनलों के रिपोर्टर/संपादक शायद ही कभी उत्तर पूर्व के राज्यों की रिपोर्टिंग पर गए हों. आश्चर्य नहीं कि न्यूजरूम में ऐसे गेटकीपरों और रिपोर्टरों की संख्या बहुतायत में है जो कभी उत्तर पूर्व नहीं गए और वहां के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर धारणाएं बना रखी हैं.

क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें? 
('कथादेश' के मार्च'2014 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)