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सोमवार, जून 24, 2013

एक वर्चुअल मौत का सुसाइड नोट

फेसबुक उर्फ़ सोशल मीडिया के स्वर्ग से विदाई   

जहाँ तक याद आता है, ८० के दशक में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी- ‘मि. नटवरलाल’! उन दिनों अपनी उम्र के बाकी दोस्तों की तरह मैं भी अमिताभ का दीवाना था और मुझे अमिताभ-रेखा की जोड़ी पसंद थी.
इस फिल्म में शायद पहली बार अमिताभ ने बच्चों के लिए एक गाना गया था-‘मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों! एक किस्सा सुनाऊं...’
इस गाने के आखिर में अमिताभ थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में कहते हैं-“...खुदा की कसम मजा आ गया...मुझे मारकर बेशरम खा गया...” इसपर तपाक से एक बच्चा पूछता है, ‘लेकिन आप तो जिन्दा हैं?’ अमिताभ थोड़े खुन्नस में कहते हैं, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’

कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.

वह आपकी नई पहचान और मित्रों का नया अड्डा बनने लगा है. इस अड्डे पर क्या चल रहा है, यह उत्सुकता बार-बार इसके अंजुमन तक खींच ले जाती है. उससे ज्यादा यहाँ कुछ कहने और बहस छेड़ने की बेचैनी के कारण लगता था कि फेसबुक से जाना मुमकिन नहीं होगा.
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. शुरूआती बेचैनी के बाद अब एक निश्चिन्तता सी है. इससे पहले कि फेसबुक मुझे मारकर खा जाता. उसे विदा कहने में ही भलाई दिखी. नहीं जानता कि इस निश्चय पर कब तक टिकना होगा.

उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.

असल में, पिछले कई हप्तों से फेसबुक के साथ आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में जीने पर अपन को भी यह अहसास हो रहा था कि एक लत सी लगती जा रही है. अपना एक्टिविस्ट भी जाग उठता था. सच कहूँ तो सोया एक्टिविस्ट जग गया था.
चाहे यू.पी.ए सरकार का भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियां हों या भगवा गणवेशधारियों की सांप्रदायिक राजनीति- उनकी कारगुजारियों, सबकी पोल खोलने की बेचैनी सुबह-दोपहर-शाम फेसबुक पर खींच ही लाती थी. खासकर भगवा राजनीति के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के खतरों को बताने के उत्साह ने एक मिशनरी जिद सी हासिल कर ली थी.

हालाँकि इंटरनेट के धर्मान्ध हिंदुओं से गालियाँ भी खूब मिलती थीं लेकिन एक आश्वस्ति भी रहती थी कि चोट निशाने पर लगी है. फेसबुक पर लिखने और अपनी बात कहने का उत्साह का आलम यह था कि जिस वर्ड फ़ाइल में लिखकर टिप्पणियां करता था, उसमें से एक फ़ाइल में ४८५१२ शब्द और एक फ़ाइल में ३३१४ शब्द हैं. मतलब दो-तीन सालों में फेसबुक एक्टिविज्म में कोई ५२ हजार शब्द लिख डाले यानी एक छोटी किताब पूरी हो गई.   
कई बार लगता था कि देखें तो वहां क्या बहस या चर्चा चल रही है? क्या मुद्दे उठ रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’ वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म है. यह भी कि यहाँ आपको विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-वैचारिक धाराओं के दोस्तों की आवाजें सुनने को मिल जाती हैं.

यह भी कि बहसें भी कई बार ज्यादा तीखी और आक्रामक होती हैं. कई बार निपटाने का भाव ज्यादा होता है और बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है.
इस मायने में फेसबुक एक ऐसे खुले और भीड़ भरे पब्लिक मैदान की तरह है जहाँ सबको एक हैंड माइक मिला हुआ है. आप इस मैदान बोलते-ललकारते-कटाक्ष और लाइक करते रहिये. बदले में इस सबके लिए तैयार रहिये. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ सब बोल रहे हैं और कोई किसी की सुन नहीं रहा है.

कई बार यह भी लगता है कि कुछ मित्र इन झगडों में छुपे-चुपके ‘परपीड़ा सुख’ और कुछ ‘पर-रति सुख’ का मजा भी ले रहे होते हैं. झूठ नहीं बोलूँगा, कई बार खुद भी आभासी/वास्तविक दोस्तों के ऐसे झगडों और बहसों में दूर से ताक-झाँक करके मजा लेता रहा हूँ.
लेकिन इधर काफी दिनों से लगने लगा था कि इसके कारण वास्तविक दुनिया का पढ़ना-लिखना कम हो रहा है. यह अहसास इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा था. इसलिए तय किया कि फेसबुक की आभासी दुनिया से फिलहाल, विदाई ली जाए.

संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
 
सोचा है कि जब भी मन कुछ टिप्पणी करने का करेगा तो यहाँ ब्लॉग पर ही लिखूंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.       

मंगलवार, नवंबर 13, 2012

दीपावली ऐसे मनाएं, जैसे इन विद्यार्थियों ने मनाई

ये उम्मीद के दिए हैं, इन्हें सलाम कीजिये
 
मेरे विद्यार्थी अक्सर मुझे चौंकाते रहते हैं. आज दीपावली के दिन उन्होंने फिर मुझे चौंका दिया. वैसे तो इस बार की दीपावली कुछ अवसाद और कुछ बेचैनी के बीच गुजर रही थी. लेकिन मेरे विद्यार्थियों ने उसमें कुछ खुशी और उत्साह की वजहें जोड़ दीं. कहें कि उन्होंने मेरी दीपावली बना दी है.
हुआ यह कि पिछले सप्ताह गुरुवार को सुबह आई.आई.एम.सी में हिंदी पत्रकारिता की कक्षा में जाकर बैठा और कुछ चर्चा शुरू करने की भूमिका बना ही रहा था कि कक्षा प्रतिनिधि आदर्श शुक्ल धीरे से बगल में खड़े हो गए. फिर कुछ हिचकिचाते हुए आदर्श कान में फुसफुसाने लगे कि सर, तरुणकान्त का सुझाव है कि क्यों न हम इस दीवाली अपनी खुशियों में से कुछ गरीब बच्चों में भी बाँटें? आपस में कुछ पैसे इक्कट्ठा करें और उससे कुछ मिठाइयां और चाकलेट आदि खरीदकर फुटपाथ पर रहनेवाले बच्चों के बीच बाँटें.

फिर पूरी क्लास में इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई और तुरंत सबकी सहमति बन गई. यह तय हुआ कि हर छात्र/छात्रा अपनी मर्जी से जो दे सकते हैं और संकाय सदस्यों से भी जो मिले, उसे जुटा कर थोड़ी खुशियाँ- मिठाइयों/चाकलेट/पटाखों उन बच्चों तक भी पहुंचाई जाए, जो बिलकुल हाशिए पर हैं. उससे ज्यादा अच्छी बात यह हुई कि क्लास में उसके बाद यह चर्चा भी हुई कि छात्र/छात्राएं उन गरीबों/हाशिए पर पड़े लोगों/बच्चों की मदद और उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए स्थाई मदद कैसे करें?
यह भी बात हुई कि दान देने और खुशियाँ बांटने के साथ-साथ पत्रकारिता के विद्यार्थी होने के नाते वे उनकी परेशानियां, समस्याएं और मुद्दे उठाने में मदद करें. यह भी तय हुआ कि उनके बीच नियमित तौर पर जाया जाए, उनकी तकलीफों और समस्याओं को समझने की कोशिश की जाए और संभव हो तो राशन कार्ड बनवाने में आर.टी.आई आदि के जरिये मदद की जाए. आई.आई.एम.सी के आसपास की कुछ झुग्गी बस्तियों के बारे में लैब जर्नल निकाला जाए, अखबारों में लिखा जाए, कम्युनिटी रेडियो पर चर्चा की जाए और ब्लाग/फेसबुक आदि पर उठाया जाए.
यह बात पिछले हप्ते हुई और फिर शुक्रवार को संस्थान में दीपावली की छुट्टियाँ हो गईं. हालाँकि आदर्श ने शुक्रवार को बताया कि वे लोग पैसे इक्कट्ठा कर रहे हैं और संस्थान के बाकी कोर्सेज के विद्यार्थियों का भी सहयोग मिल रहा है. लेकिन फिर तीन दिन कुछ पता नहीं चला कि आगे क्या हुआ?
आज दोपहर फेसबुक पर कुछ तस्वीरें दिखीं और यह देखकर अच्छा लगा कि हिंदी पत्रकारिता के छात्र/छात्राओं- आदर्श, आरती, कामिनी, आशा, सुमित और आनंद ने अपना वायदा निभाया. आज वे सब फुटपाथ के उन बच्चों के बीच गए. उनके साथ दीपावली मनाई. लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह हुई कि वे अपने साथ गर्म कपड़े ले गए थे. उन्होंने इन बच्चों में जाड़ों के लिए गर्म कपड़े भी बांटे. यह ख्याल उन्हें बाद में आया होगा. लेकिन अच्छा लगा कि उन्हें इन गरीब बच्चों की असली तकलीफ का ध्यान आया.

शाबास मेरे दोस्तों. सरोकार की पत्रकारिता यहीं से शुरू होती है. सरोकार की पत्रकारिता सिर्फ किताबों और क्लास रूम की बहसों से नहीं बल्कि उन गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों के बीच जाने और उनकी तकलीफों को समझने और उससे जुड़ने से आती और आगे बढ़ती है. जानता हूँ कि यह सिर्फ शुरुआत है. लेकिन इस शुरुआत में उम्मीदों के दिए टिमटिमा उठे हैं.
आइये, इन विद्यार्थियों को सलाम करें और कामना करें कि उनके अंदर यह सरोकार जीवित रहें, वे इसे आगे बढ़ाएं और पत्रकारिता को नई धार दें.


सोमवार, नवंबर 12, 2012

किसकी दीपावली?

दीपावली बाजार का, बाजार के लिए और बाजार के द्वारा त्यौहार बनती जा रही है

उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजार की पकड़ से बच पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा हो गया है. पर्व-त्यौहार भी इसके अपवाद नहीं हैं. हालाँकि किसी भी समाज में पर्व-त्यौहार उसकी संस्कृति, उत्सवधर्मिता और सामाजिकता की पहचान होते हैं, वे लोगों की सामूहिकता, आपसी मेलजोल और खुशी बांटने के मौके होते हैं.
लेकिन ठीक इन्हीं कारणों से वे बाजार को भी लुभाते हैं. बाजार को इसमें खुशियों की मार्केटिंग और खरीदने-बेचने का मौका दिखाई देता है. खासकर एक ऐसे दौर में जब वास्तविक खुशी दुर्लभ होती जा रही है, बाजार उपभोक्ता वस्तुओं को उत्सव और खुशियों का पर्याय बनाके बेचने के मौके की तरह इस्तेमाल करता है.
इसके लिए बाजार पारंपरिक त्यौहारों के नए अर्थ गढ़ता है, उनकी नए सिरे से पैकेजिंग करता है और उन्हें बाजार और वस्तुओं से जोड़ देता है. दीपावली उन त्यौहारों में है जिसे बाजार की सबसे पहले नजर लगी. विडम्बना देखिये कि एक ऐसा त्यौहार जो अंधकार पर प्रकाश की जीत का उत्सव है, वह आज जैसे सामुदायिक सामूहिकता, साझेदारी और संतोष पर व्यक्तिगत उपभोग, लालच और तड़क-भड़क की जीत का उत्सव बन गया है.

दीपावली आते ही बाजार जिस तरह से अति सक्रिय हो जाता है और त्यौहार को महंगे उपभोक्ता सामानों की खरीद और महंगे उपहारों के लेन-देन तक में सीमित कर देता है, उसमें त्यौहार की वास्तविक भावनाएं कहीं पीछे छूट जाती हैं और उसकी जगह गैर जरूरी उपभोग, फिजूलखर्ची और दिखावा हावी हो जाता है.

यह ठीक है कि दीपावली का एक पहलू लक्ष्मी की पूजा से जुड़ा रहा है. लेकिन इसमें वह लक्ष्मी नहीं थीं जो आज के बाजार की असीमित उपभोग की आराध्य देवी हैं बल्कि यह लक्ष्मी दरिद्रता से मुक्ति और घर में इतने धन-धान्य की इच्छा से जुडी थीं जिसमें ‘साईँ इतना दीजिए जिसमें कुटुंब समय, खुद भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाए.’
मुझे याद है, छुटपन में हम पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अति पिछड़े इलाके के एक गाँव में दीपावली की रात के बाद भोर में घर के हर कमरे में सूप पीटते हर गाते जाते थे-“अइसर-पईसर दरिदर निकसे, लछमी घर वास हो.” मतलब यह कि लक्ष्मी की प्रार्थना वहीं तक थी, जहाँ तक घर से दरिद्रता को निकालने की आस थी.
लेकिन आज दीपावली का मतलब सिर्फ और सिर्फ लक्ष्मी और बाजार की उपासना तक सीमित रह गया है. सच पूछिए तो बाजार ने दीपावली का पूरी तरह से टेक-ओवर कर लिया है और इसे कारोबार का उत्सव बना दिया है. यह बाजार की, बाजार के लिए और बाजार के द्वारा त्यौहार बनटी जा रही है.

आज दीपावली के बाजार पर हजारों करोड़ रूपये का कारोबार दांव पर लगा रहता है. बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ खासकर उपभोक्ता सामान/आटोमोबाइल आदि बनानेवाली और रीयल इस्टेट कम्पनियाँ छह महीने पहले से तैयारी करने लगती हैं.

इसकी वजह यह है कि दशहरे से दीपावली के बीच के महीने भर में जितनी खरीददारी होती है, वह साल के कई महीनों की कुल खरीददारी से अधिक होती है. हैरानी की बात नहीं है कि इस दौरान अखबारों/टी.वी चैनलों पर कार से लेकर टी.वी तक भांति-भांति के विज्ञापनों और पुल-आउट की भरमार लग जाती है.

यही नहीं, मीडिया और मार्केटिंग के जरिये कम्पनियाँ ऐसा माहौल बनाती हैं जिसमें दीपावली के मौके पर उपहार लेना-देना एक अनिवार्य शगुन सा बना दिया जाता है. इस लेन-देन को संबंधों की निकटता के पर्याय की तरह देखा जाने लगा है.
आपने दीपावली पर अपने घर के अंदर और घर से बाहर अपने सगे संबंधियों-करीबियों को कितना महंगा उपहार दिया, इससे संबंधों की व्याख्या की जाने लगती है. एक तरह से दीपावली के मौके पर दिए जानेवाले उपहारों की कीमत आपसी संबंधों और उनकी निकटता के पैमाने बना दिए गए हैं. इस तरह संबंधों में भावनाओं की जगह वस्तुओं ने ले ली है. त्यौहार की सात्विक खुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण उपहार की खुशी हो गई है.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. दीपावली पर उपहार देने के इस बाजारी कर्मकांड को कारोबारी समुदाय ताकतवर-प्रभावशाली खासकर सत्ता में बैठे नेताओं-अफसरों को खुश करने और बदले में उनकी कृपादृष्टि हासिल करने के मौके की तरह भी इस्तेमाल करता है. कई मामलों में यह उपहार की आड़ में घूस देने या पी.आर करने का भी मौका है.

आश्चर्य नहीं कि दीपावली के मौके पर दिए जानेवाले कारपोरेट गिफ्ट का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ा है. उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम के मुताबिक, वर्ष २०१० में देश के कारपोरेट समूहों ने लगभग ३२०० करोड़ रूपये के उपहार दिए. इस साल मंदी के कारण इसके घटकर २००० करोड़ रूपये रहने की उम्मीद है. इस मायने में दीपावली वास्तव में सबसे लोकप्रिय कारपोरेट त्यौहार बन चुकी है.

लेकिन दूसरी ओर, आसमान छूती महंगाई, घटती आय, दिन पर दिन बढ़ती बेरोजगारी और सामाजिक असुरक्षा से आमलोगों में दीपावली मनाने को लेकर वह उत्साह नहीं रह गया है जो उसकी सामूहिकता की पहचान रही है. आज बाजार की ओर से पेश की जा रही आदर्श दीपावली गरीबों की तो छोडिये, बहुतेरे मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए उनका दीवाला निकालने के लिए काफी है.
अलबत्ता, तीन-तेरह और तमाम तिकडमों से लेकर भ्रष्ट तौर-तरीकों से अथाह पैसा कमानेवाले नव दौलतिया वर्गों के लिए दीपावली अपनी धन-सम्पदा दिखाने का एक मौका बन गई है. अगर आप अपने आसपास गौर से देखें तो पायेंगे कि महंगे उपहारों से लेकर धूम-धड़ाके से भरी दीपावली मनानेवालों में ज्यादातर यही नव दौलतिया वर्ग है क्योंकि लक्ष्मी सबसे ज्यादा उसी पर मेहरबान हैं.
सच पूछिए तो लक्ष्मी आज उनकी कैद में हैं. यह विडम्बना है कि देश में एक ओर दरिद्रता बढ़ रही है, उस दरिद्रता के साथ अशिक्षा-बीमारी-भूखमरी और जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट का अँधेरा बढ़ रहा है और दूसरी ओर, एंटीला जैसे धन-दौलत के नए महल भी जगमगा रहे हैं.
अफसोस यह कि आज के भारत में दीपावली अँधेरे पर प्रकाश की जीत का नहीं बल्कि दरिद्रता के अँधेरे के विस्तार और बढ़ती गहनता के बीच शाइनिंग इंडिया की जीत का त्यौहार बनता जा रहा है.

आप खुद सोचिये कि इस दीपावली में कितने भारतीयों की खुशी शामिल है?

और इन भारतीयों को देने के लिए भारतीय राज्य के पास क्या है?


('शुक्रवार' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                                 

शनिवार, जुलाई 28, 2012

नव उदारवाद और मध्यवर्ग: रिश्ता ‘कॉम्प्लीकेटेड’ है

मध्य वर्ग के बड़े  हिस्से को नव उदारवादी सुधारों से तनाव, अवसाद और बेचैनी ज्यादा मिली है   

नव उदारवादी भूमंडलीकरण की आभासी दुनिया के सबसे बड़े सोशल नेटवर्क- फेसबुक की भाषा में कहें तो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग के बीच गहरा रिश्ता होते हुए भी यह इधर कई कारणों से ‘जटिल’ (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है. हालाँकि नव उदारवादी सुधारों की शुरुआत में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति एकतरफा प्यार दिखता था, बाद में यह रिश्ता काफी गहरा होता गया लेकिन इधर कुछ वर्षों से वह कुछ ‘काम्प्लीकेटेड’ सा होता जा रहा है.
असल में, इस मध्यवर्ग और नव उदारवादी सुधारों के बीच के रिश्ते के कई आख्यान हैं. एक ओर नव उदारवादी सुधारों की मुखर पैरोकार रंगीन पत्रिकाओं और गुलाबी अखबारों की वे फीलगुड ‘सक्सेज स्टोरीज’ हैं जिनके मुताबिक मध्यवर्ग नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से सबसे ज्यादा फायदा मध्यवर्ग को हुआ है, सुधारों के कारण उसकी दमित आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को पंख मिल गए हैं और वह सफलता की नई कहानियां लिख रहा है.
इन सुधारों से एक नव दौलतिया वर्ग का जन्म हुआ है जो उपभोग के मामले में विकसित पश्चिमी देशों की बराबरी कर रहा है. नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की संतान के रूप में पैदा हुआ यह नया मध्यवर्ग अत्यंत गतिशील है, देशों की सीमाएं उसके लिए बेमानी हो चुकी हैं और सोच-विचार और रहन-सहन में वह देश के दायरे से बाहर निकल चुका है.

इस आख्यान में यह उच्च मध्यवर्ग आर्थिक सुधारों के सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में सामने आता है और उसके सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी दिखाई पड़ता है. इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने मालामाल कर दिया है.

यही नहीं, आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ इस वर्ग की राष्ट्रीय और कुछ हद तक क्षेत्रीय राजनीति और नीति निर्माण को प्रभावित करने की ताकत भी आनुपातिक रूप से बहुत बढ़ गई है. राष्ट्रीय एजेंडा और बहसों की दिशा तय करने में वह बहुत सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभा रहा है.      

लेकिन इसके उलट दूसरे आख्यान में मध्यवर्ग खासकर निम्न और गैर-मेट्रो मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदें-आकांक्षाएं और सपने भी आसमान छू रहे हैं लेकिन नव उदारवादी सुधारों से उन्हें अभी कुछ खास नहीं मिला है. सफलता की इक्का-दुक्का कहानियों को छोड़ दिया जाए तो वह नव उदारवादी सुधारों की मार झेलता हुआ दिखाई पड़ता है.
यहाँ बेरोजगारी का अवसाद है, प्राइवेट-कांट्रेक्ट नौकरी की असुरक्षा, कम वेतन और बदतर सेवा शर्तों का तनाव है, बढ़ती महंगाई और खर्चों का दबाव है, घर-मकान से लेकर फ्रीज-टी.वी-मोटरसाइकिल के कर्जों की ई.एम.आई का बोझ है और सफलता की अंधी दौड़ में पीछे छूटते जाने की पीड़ा है. राज्य और बाजार दोनों ने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है और उसका अकेलापन बढ़ता जा रहा है.
हालाँकि यह मध्यवर्ग नव उदारवादी सुधारों के ‘असफलों’ (लूजर्स) में है लेकिन इसकी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से उम्मीदें-अपेक्षाएं-आकांक्षाएं अभी पूरी तरह से टूटी नहीं है, पूरा मोहभंग नहीं हुआ है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की आलोचनाएं ध्यान से सुन रहा है और भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के कारण बढ़ती गैर बराबरी उसे चुभने लगी है.

यही नहीं, इस सबके कारण उसमें बहुत बेचैनी है, गुस्सा है और उसका धैर्य जवाब दे रहा है. वह बार-बार सड़कों पर उतर रहा है, भ्रष्टाचार से लेकर व्यवस्था परिवर्तन तक के मुद्दे उसे आंदोलित कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक भ्रम-संशय और रेडिकल सपने के अभाव में बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा है. लेकिन वह रास्ता खोज रहा है.

यही कारण है कि नव उदारवादी सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग का रिश्ता दिन पर दिन और जटिल (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है. हालाँकि देश को अभी भी यह समझाने की कोशिश जारी है कि नव उदारवादी सुधारों के अलावा कोई विकल्प नहीं है. साथ ही, ‘सक्सेज स्टोरीज’ के जरिये लोगों का भरोसा जीतने की भी कोशिशें जारी हैं.
इसके बावजूद एक छोटे से लेकिन बहुत मुखर और मेट्रो-बड़े शहरों तक सीमित उच्च मध्यवर्ग को छोड़ दिया जाये तो निम्न मध्यवर्ग का इन सपनों से भरोसा टूटता सा दिख रहा है. भारत ही नहीं, नव उदारवाद के मक्का माने-जानेवाले अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी नव उदारवादी आर्थिकी पर सवाल उठने लगे हैं, मध्यवर्ग सड़कों पर उतरने लगा है और ‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’ जैसे आंदोलन दिखने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में नव उदारवादी सुधारों के खिलाफ बढ़ती बेचैनी और गुस्से की बड़ी वजह २००७-०८ में अमेरिका सब-प्राइम संकट और उसके बाद आई मंदी थी जिसने जल्दी ही यूरोप को अपने चपेट में ले लिया. इस आर्थिक-वित्तीय संकट की मार ने अमेरिका और यूरोप से लेकर दुनिया के कई देशों में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदों-आकांक्षाओं और सपनों को तोड़ दिया है.

जले पर नमक छिड़कने की तरह सरकारों ने आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर किफायतशारी (आस्ट्रीटी) उपायों का सारा बोझ मध्यवर्ग पर डाल दिया है. नतीजा यह हुआ है कि मध्यवर्ग सड़कों पर उतर आया है. उसके गुस्से की सबसे बड़ी वजह यह है कि इस वैश्विक आर्थिक संकट की जड़ में वे ही नव उदारवादी सुधार हैं जिनकी आड़ में आवारा वित्तीय पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को लूट की खुली छूट मिल गई थी.     

जाहिर है कि अमेरिका से लेकर यूरोप में नव उदारवाद पर उठ रहे सवालों ने भारतीय मध्यवर्ग के भी एक बड़े हिस्से को बेचैन कर दिया है. उसकी बेचैनी इसलिए भी है क्योंकि वह देख रहा है कि नव उदारवादी सुधारों का फायदा एक छोटे से वर्ग को मिल रहा है.
इस नव दौलतिया वर्ग के जीवन और रहन-सहन में आई समृद्धि निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में वंचना के भाव को और बढ़ा रही है. यही नहीं, नई अर्थव्यवस्था के सबसे चमकते सेवा क्षेत्र में जिस तरह से कम वेतन और बदतर सेवा शर्तों के तहत मध्य वर्गीय युवाओं को काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जहाँ नौकरी के साथ कोई सम्मान नहीं है और कोई भविष्य नहीं है, उसके कारण होड़ में पीछे छूटने का भाव भी बढ़ता जा रहा है.
आप किसी भी शापिंग माल, बी.पी.ओ, होटल-रेस्तरां और सेवा कंपनी में काम करने वाले निचले स्तर के कर्मचारियों और मैनेजरों से बात कीजिए, आपको इस नई अर्थव्यवस्था की चमक के अंदर का अँधेरा दिखने लगेगा.
दूसरी ओर, देश के बड़े हिस्से में गरीब, किसान, श्रमिक, आदिवासी, दलित-पिछड़े समुदाय नव उदारवादी सुधारों और उसके तहत बड़ी पूंजी और देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों द्वारा जल, जंगल, जमीन और खनिजों को हथियाए जाने के खिलाफ पहले से ही खड़े हैं. आश्चर्य नहीं कि उनके विरोध के कारण आज देश में अधिकांश इलाकों में सेज से लेकर बड़े-बड़े औद्योगिक प्रोजेक्ट फंसे पड़े हैं.

नव उदारवादी सुधारों के प्रति बढते मोहभंग का एक सबूत यह भी है कि संगठित मध्यवर्ग के कई तबके जैसे छोटे व्यापारी-दूकानदार सुधारों के दूसरे चरण के तहत खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के खिलाफ खड़े हो गए हैं. उसी तरह संगठित श्रमिक भी श्रम सुधारों के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने लगे हैं. मारुति के मानेसर फैक्ट्री में श्रमिकों के बढते असंतोष के बीच हुआ हादसा इसका एक ताजा उदाहरण है.

कहना मुश्किल है कि आनेवाले दिनों में यह ‘काम्प्लीकेटेड’ रिश्ता क्या रूप लेगा और उसका क्या भविष्य है? लेकिन इतना तय है कि नव उदारवाद के साथ भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का एकतरफा प्यार और गहरा रिश्ता टूटते सपनों-आकांक्षाओं के बीच जबरदस्त तनाव और दबाव में है.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 28 जुलाई को प्रकाशित टिप्पणी) 

रविवार, अप्रैल 24, 2011

सफलता की कीमत

सफलता और समृद्धि की होड़ के बीच असफल और अकेले पड़ते जाने की त्रासदी  



नोयडा के एक समृद्ध और खाते-पीते परिवारों वाली कालोनी में अपने फ़्लैट में पिछले छह महीने से बंद दो बहनों की कारुणिक कथा को अपवाद मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. सच पूछिए तो इस घटना ने शहरी मध्यवर्गीय समाज की बढ़ती समृद्धि के बीच टूटते-बिखरते रिश्तों, बढ़ते सामाजिक अलगाव और सघन होते अकेलेपन की त्रासदी से पर्दा उठा दिया है.

इस कहानी से यह भी पता चलता है कि आगे बढ़ने की होड़ और सफलताओं की गुलाबी कहानियों के बीच मध्यवर्गीय समाज के अंदर अकेलेपन और अलगाव के अँधेरे कोने किस कदर फैलते जा रहे हैं. यह कहानी उन असफल लोगों की भी दुखान्तिका है जो किन्हीं कारणों से पीछे छूट गए और अकेले पड़ते चले गए.    

लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है. यह अनायास भी नहीं है. वास्तव में, इस कहानी का प्लाट नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इर्द-गिर्द बुना गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन नीतियों ने भारतीय राजनीति, अर्थनीति के साथ-साथ समाज खासकर मध्यवर्गीय समाज को भी बहुत गहराई के साथ प्रभावित किया है.

इन नीतियों के साथ देश में जिस तरह से आर्थिक समृद्धि और अधिक से अधिक भौतिक सुख-सुविधाओं को बटोरने की होड़ को आर्थिक प्रगति और सफलता का पर्याय बना दिया गया, उसके बाद मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, चाहतों और इच्छाओं को जैसे बेलगाम पर लग गए.


नतीजा, सबसे आगे निकलने की एक ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई कि उसमें पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक संबंधों की बलि चढ़ते देर नहीं लगी. देखते ही देखते सफल लोगों का एक ऐसा शहरी समाज बनने लगा जिसमें संबंधों और रिश्तों की बुनियाद मानवीय मैत्री, परस्पर सहयोग, एक-दूसरे का आदर जैसे सार्वभौम मानवीय मूल्यों के बजाय लेन-देन, डर-भय, शक्ति और निजी जरूरत बनती जा रही है.

लोग एक ऐसी मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें रिश्तों, संबंधों और उनसे जुड़ी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है. उल्टे भावनाओं को सफलता की राह में रोड़ा और मजाक की चीज़ मान लिया गया है.

यही नहीं, सफलता के लिए एक-दूसरे का पैर खींचने से लेकर दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ शुरू हो गई है कि किसी को किसी की परवाह नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि हर कीमत पर सफलता हासिल करने की होड़ में लगे व्यक्ति के लिए समाज और परिवार की भूमिका लगातार महत्वहीन होती जा रही है या परिवार का दायरा निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है. परिवार का मतलब अधिक से अधिक पति-पत्नी-बच्चे रह गए हैं.

इन परिवारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे अपनी ही सफलताओं में इस कदर खोये हुए हैं या रोज के जीवन संघर्षों में ऐसे फंसे हुए हैं कि उनके पास यह जानने-देखने की फुर्सत नहीं है कि उनके पड़ोसी का क्या हाल है? कहने का मतलब यह कि लोग अपनी ही सफलताओं के बंदी हो चुके हैं.


जाहिर है कि यह सफलता की होड़ की सामाजिक-पारिवारिक कीमत है जिसे बदलते हुए दौर की जरूरत बताकर जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस नई व्यवस्था में जितने सफल लोग हैं, उनकी तुलना में असफल लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है.

लेकिन इस नव उदारवादी व्यवस्था में असफल लोगों की कोई कीमत नहीं है. उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है - न परिवार, न नाते-रिश्तेदार, न पड़ोसी, न समाज और न ही राज्य. उन्हें अपने ही हाल पर छोड़ दिया गया है. यह एक नए तरह समाज है जिसमें सिर्फ सर्वश्रेष्ठ को जीने का हक है. जो दौड़ में छूट गया, गिर गया या शामिल नहीं हुआ, उसे परिवार-समाज पर बोझ समझा जाने लगता है.       
सबसे दुखद यह है कि इस पूरी प्रक्रिया की चरम परिणति असफल लोगों के निरंतर अलगाव और अकेलेपन के रूप में आ रही है जिसमें उनके सामने आत्महत्या के रूप में अपनी असफलता की कीमत चुकाने या फिर नोयडा की दो बहनों की तरह घुट-घुटकर मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जा रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में देश में आत्महत्याओं की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. एक ओर नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त और असहाय से हो गए किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी ओर, सफलता की होड़ में पीछे छूट गए और किनारे कर दिए गए मध्यमवर्गीय लोग जान दे रहे हैं.

इस मायने में, नोयडा की बहल बहनों की कहानी को उन त्रासद कहानियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जिसमें हर ओर से निराश-हताश पूरा का पूरा परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली है. पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, मुंबई से लेकर छोटे-छोटे शहरों में भी ऐसी मध्यवर्गीय पारिवारिक सामूहिक आत्महत्या की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है.

जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की सबसे ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक आत्महत्याओं वाले शहर की कुख्याति बंगलूर के हिस्से आई है जो नव उदारवादी अर्थनीति की सफलता का भी सबसे चमकदार उदाहरण बनकर उभरा है. बंगलूर में वर्ष २००९ में हर दिन कोई छह लोगों ने आत्महत्या की यानी हर चार घंटे पर एक आत्महत्या! इसी तरह, चेन्नई में हर छह घंटे में और दिल्ली में हर सात घंटे में एक व्यक्ति ने आत्महत्या की.


सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वजह साफ है. नव उदारवादी नीतियों ने सफलता और समृद्धि की होड़ तो तेज कर दी लेकिन असफल और पीछे छूटे लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा का ऐसा कोई विश्वसनीय ढाँचा नहीं खड़ा किया है जो नोयडा की बहल बहनों के अकेलेपन औए अलगाव को दूर कर सके.

साफ है कि इन नीतियों के कारण आर्थिक पूंजी चाहे जितनी पैदा हो रही हो लेकिन सामाजिक पूंजी लगातार रीतती जा रही है. सामाजिक पूंजी के इस क्षरण की कीमत किसी न किसी रूप में हम सभी चुका रहे हैं. आखिर सफल लोगों का व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन भी कितना खाली और रीता होता जा रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है. आर्थिक समृद्धि के बावजूद मध्यमवर्गीय परिवारों में जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियों खासकर मानसिक बीमारियों की बढ़ती जकड़ इसका एक और सबूत है.

खतरे की घंटी बज चुकी है. क्या लोग और समाज सुन रहे हैं?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २३ अप्रैल को प्रकाशित)