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शनिवार, जून 22, 2013

भाजपा अंदर मीडिया है या मीडिया अंदर भाजपा?

भाजपा में देख तमाशा कुर्सी का

भारतीय जनता पार्टी का मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से और न्यूज चैनलों का भाजपा से प्यार किसी से छिपा नहीं है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा के कई नेताओं की ‘लोकप्रियता’ और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में ‘चमकाने’ में टीवी की बड़ी भूमिका है.
कई तो बिना किसी राजनीतिक जमीन के सिर्फ चैनलों के कारण भाजपा की राजनीति में चमकते हुए सितारे हैं.
दूसरी ओर, मीडिया और न्यूज चैनल भी भाजपा को इसलिए पसंद करते हैं कि दोनों का दर्शक वर्ग एक है और दोनों तमाशा पसंद करते हैं. न्यूज चैनलों का कारोबार तमाशे से चलता है तो भाजपा की राजनीति तमाशे के बिना कुछ नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि बीते सप्ताह गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जब पार्टी में लंबे समय से जारी सत्ता संघर्ष अपने क्लाइमेक्स पर पहुंचा तो उस तमाशे को 24x7 और वाल-टू-वाल कवर करने के लिए मीडिया और चैनलों की भारी भीड़ मौजूद थी.

जाहिर है कि वहां एक हाई-वोल्टेज तमाशे के सभी तत्व मौजूद थे. पार्टी में कथित तौर पर ‘सबसे लोकप्रिय’ नेता नरेन्द्र मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास और कानाफूसियां तेज थीं. आडवाणी और कई दूसरे नेता इसे लेकर नाराज बताये जा रहे थे और बीमारी का बहाना बनाकर गोवा नहीं पहुंचे.

इसके बाद भारतीय झगडा पार्टी बनती जा रही भाजपा में गोवा और फिर दिल्ली में जो कुछ हुआ, उसका कुछ आँखों देखा और कुछ कानों सुना हाल पूरे देश ने चैनलों पर देखा और अहर्निश देख रहे हैं.
एक धारावाहिक सोप आपेरा की तरह यह ड्रामा चैनलों पर जारी है जहाँ घटनाक्रम हर दिन और कई बार कुछ घंटों और मिनटों में नया मोड़ ले रहा है. इसमें एक पल उत्साह और खुशी के पटाखे हैं और दूसरे पल आंसू और बिछोह है और तीसरे पल साजिशों और कानाफूसी का रहस्य-रोमांच है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेन्स’ का दावा करनेवाली भाजपा की नैतिकता और अनुशासन की धोती सार्वजनिक तौर पर खुल रही है. लेकिन मुश्किल यह है कि पार्टी इसकी शिकायत किससे करे?

आखिर चैनलों में भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष के बारे में चल रहे किस्से-कहानियों, साजिशों, उठापटक और खेमेबंदी से जुड़ी ‘खबरों’ का स्रोत खुद भाजपा और आर.एस.एस के नेता हैं. सच यह है कि ‘खबरों’ के नाम पर चल रहे इन किस्से-कहानियों में सबसे ज्यादा कथित ‘खबरें’ भाजपा और आर.एस.एस के विभिन्न गुटों के नेताओं की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ ‘प्लांटेड स्टोरीज’ हैं.

खास बात यह है कि इनमें से ज्यादातर ‘खबरें’ भाजपा बीट कवर करनेवाले उन रिपोर्टरों के जरिये आ रही हैं जो खुद भी भाजपा के इस या उस खेमे के करीब माने जाते हैं. इन रिपोर्टरों की पहुँच भाजपा/आर.एस.एस नेताओं के अंत:पुर तक है और कुछ उनके किचेन कैबिनेट तक में शामिल हैं.
इनमें से कई रिपोर्टर चैनलों पर रिपोर्टिंग और विश्लेषण के नामपर भाजपा के विभिन्न गुटों/खेमों के प्रवक्ता से बन जाते हैं और संबंधित गुटों का बचाव करते दिखने लगते हैं. हालाँकि यह कोई नई बात नहीं है. भाजपा और चुनिंदा पत्रकारों के बीच रिश्ता बहुत पुराना है. अतीत में इनमें से कई पत्रकार बाद में पार्टी में एम.पी और मंत्री भी बने हैं.
सच पूछिए तो भाजपा/आर.एस.एस में पत्रकारों की यह घुसपैठ काफी अंदर तक है. लेकिन इसके उलट मीडिया के अंदर भाजपा की घुसपैठ भी काफी दूर तक रही है. इस घुसपैठ के नतीजे रामजन्म भूमि अभियान के दौरान दिखे और इन दिनों नरेन्द्र मोदी को लेकर मीडिया के एक बड़े हिस्से के उत्साह में भी दिखाई दे रहा है.

लेकिन भाजपा-न्यूज मीडिया के इस ‘मुहब्बत’ की कीमत वे पाठक-दर्शक चुका रहे हैं जिन्हें देश के मुख्य विपक्षी दल के बारे में ‘खबरों’ के नामपर ‘प्लांटेड स्टोरीज’ और कानाफूसियों-अफवाहों से काम चलाना पड़ रहा है.

('तहलका' के 30 जून के अंक में प्रकाशित स्तंभ)       

बुधवार, जून 12, 2013

आडवाणी का ‘ब्रह्मास्त्र’ और भाजपा का संकट

भारतीय झगड़ा पार्टी बनती बीजेपी के इस संकट के लिए खुद पार्टी और आर.एस.एस नेतृत्व जिम्मेदार हैं

कहते हैं कि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है. खासकर २४ घंटे के चैनलों और मोबाइल युग में तो घंटे और मिनट भी गिने जाने लगे हैं. देश के मुख्य विपक्षी दल- भारतीय जनता पार्टी में भी मिनटों में राजनीति बदल रही है.

गोवा कार्यकारिणी की बैठक के दौरान रविवार को उनके प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने इंतज़ार कर रिपोर्टरों से कहा कि घंटों में नहीं, मिनटों में बड़ा एलान होने जा रहा है. फिर खूब धूम-धड़ाके के साथ एलान हुआ कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष होंगे.

इससे पहले से ही हर ओर मोदी की जय-जयकार हो रही थी लेकिन पार्टी अध्यक्ष की इस घोषणा के साथ ही पार्टी के सभी नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार मोदी के आगे नतमस्तक दिख रहे थे और मीडिया में अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर दी गई थी.

लेकिन २४ घंटे भी नहीं बीते कि भाजपा की राजनीति में काफी उलटफेर हो गया दिखता है. ‘प्रथम ग्रासे, मक्षिका पाते’ (पहले ही कौर में मक्खी का गिरना) की तर्ज पर पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देकर ऐसा ब्रह्मास्त्र चला कि भाजपा नेताओं को सिर छुपाने की जगह नहीं मिल रही थी.
इस्तीफा देते हुए उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर यह कहते हुए करारा हमला बोला कि यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाया था. आडवाणी के इस आरोप ने भाजपा खासकर उसके नए नेता नरेन्द्र मोदी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा कि पार्टी में अब निजी हितों और एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है.
साफ़ है कि आडवाणी ने एक ही झटके में न सिर्फ चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी कर दी बल्कि पार्टी के अंदर जारी सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई को सड़क पर ला दिया है. आडवाणी के इस फैसले से पार्टी के अंदर घमासान और तेज होना तय है.

हालाँकि उन्होंने आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन आडवाणी ने एक बार इस्तीफा देकर और उससे अधिक इस्तीफे के कारण बताकर दांव बहुत ऊँचा कर दिया.

यहाँ से वे किन शर्तों और समझौते के साथ वापस लौटे हैं, इसका खुलासा होना बाकी है. इससे यह तय है कि पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष खत्म नहीं हुआ है और अभी नाटक के पहले अंक का पर्दा गिरा है.  

असल में, आडवाणी के लिए अब खोने को कुछ नहीं है. इसलिए वे पार्टी और आर.एस.एस से आसानी से और बिना बड़ी कीमत वसूले इस्तीफे को वापस करने के लिए राजी हुए होंगे, इसकी सम्भावना कम है.
जाहिर है कि आडवाणी के मोदी के खिलाफ इस तरह खड़ा हो जाने के बाद भाजपा और खासकर आर.एस.एस के सामने अब दो ही विकल्प हैं. एक, वह आडवाणी को जनसंघ के जमाने के नेता बलराज मधोक की तरह किनारे कर दे. दूसरे, उनके साथ समझौते में जाए और उनकी कुछ शर्तों को स्वीकार करे. ये दोनों ही विकल्प आसान नहीं हैं.
दोनों ही विकल्पों के साथ पार्टी के अंदर गुटबाजी और सत्ता संघर्ष के और तेज होने की आशंका है. नाराज आडवाणी पार्टी के अंदर रहें या बाहर, दोनों ही स्थितियों में वे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करते रह सकते हैं और मोदी के विजय अभियान के रथ को पंक्चर करने के लिए काफी हैं.
जाहिर है कि जो विश्लेषक अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर रहे थे, उन्हें थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा. यही नहीं, जो विश्लेषक गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अंदर और उससे बाहर काफी उठापटक, खींचतान और लाबीइंग के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा को पार्टी में मोदी के राज्यारोहण की तरह देख रहे थे, उन्हें भी मिनटों-घंटों-दिनों नहीं बल्कि सप्ताहों इंतज़ार करना पड़ सकता है.

यह सच है कि आडवाणी और उनका गुट मोदी को बहुत लंबे समय तक नहीं रोक पायेगा. लेकिन इतना तय है कि पार्टी में आनेवाले दिनों में काफी उठापटक और नतीजे में, सड़कों पर तमाशा और छीछालेदर दिखाई देगा.

इसकी वजह यह है कि मोदी भाजपा में प्रधानमंत्री पद के आधे दर्जन से ज्यादा उम्मीदवारों के बीच जारी महत्वाकांक्षाओं की तीखी होड़ में एक कदम भले आगे निकल गए हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री और सत्ता की संभावित मलाई में हिस्से के लिए जारी खींचतान और उठापटक खत्म हो गई है.
इसके उलट आशंका यह है कि गोवा में निजी महत्वाकांक्षाओं की यह लड़ाई जिस तरह से खुलकर सामने आ गई है, वह आनेवाले दिनों में और अप्रिय शक्ल ले सकती है. खासकर नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक जितने बेसब्र होंगे, खुद को प्रधानमंत्री और एकछत्र नेता के रूप में पेश करने के लिए जितना दबाव बढ़ाएंगे, यह लड़ाई में पार्टी की उतनी ही सार्वजनिक छीछालेदर होगी.
वैसे भी गुटबंदी और आपसी झगडों के कारण बीजेपी को भारतीय झगडा पार्टी कहा जाने लगा है. हालाँकि यह छवि कोई एक दिन में नहीं बनी है. भाजपा चाहे खुद को कितनी भी सबसे अलग पार्टी बताए (पार्टी विथ डिफरेन्स) या अनुशासन और अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात करे लेकिन सच यह है कि निजी महत्वाकांक्षाओं पर आधारित गुटबाजी, खेमेबंदी, उठापटक, साजिशों और दुरभिसंधियों का इतिहास बहुत पुराना है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. ८० और ९० के दशक में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी और बाद में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच कभी दबे और कभी खुले में यह खींचतान और उठापटक चलती रही है.

यह गुटबाजी, उठापटक, साजिशें और एक-दूसरे को निपटाने की कोशिशें बाद में बिना किसी अपवाद के पार्टी की हर राज्य इकाई और अनुषांगिक संगठनों तक पहुँच गई. यहाँ तक कि खुद पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस गुटबंदी और उठापटक के बड़े खिलाड़ी हैं. उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह बनाम कल्याण सिंह बनाम कलराज मिश्र की लड़ाई ने भाजपा को आसमान से पाताल में पहुंचा दिया.
सच पूछिए तो गुटबंदी और आपसी उठापटक के मामले में भाजपा पूरी तरह से कांग्रेस संस्कृति में रंग चुकी है. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी इस गुटबंदी और विरोधियों को एन-केन-प्रकारेण निपटाने के माहिर हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसी कारण भाजपा के बड़े नेताओं में मोदी के हाथ में पार्टी की कमान सौंपे जाने से घबराहट है. उन्हें पार्टी नेतृत्व में हो रहे इस पीढ़ीगत और वैचारिक-राजनीतिक बदलाव में अपनी जगह को लेकर बेचैनी है. आडवाणी के खुले विद्रोह में ऐसे कई वरिष्ठ नेताओं की आवाज़ को सुना जा सकता है.

यही कारण है कि भाजपा और आर.एस.एस नेतृत्व इसे अनदेखा करने का जोखिम नहीं ले सकता है. सच पूछिए तो वह अपने ही बनाए जाल में फंस गया है. इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद भाजपा और आर.एस.एस का अलोकतांत्रिक सांगठनिक ढांचा जिम्मेदार है जहाँ बड़े राजनीतिक फैसले पार्टी के अंदर नहीं बल्कि आर.एस.एस के मुख्यालय नागपुर में लिए जाते हैं.

यही नहीं, पार्टी में गुटबंदी-खेमेबाजी का मुख्य स्रोत भी आर.एस.एस और नागपुर ही है जो गुटबंदी और नेताओं के झगड़ों को अपनी पंच की भूमिका और पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करता है.
          
लेकिन इससे सत्ता की दावेदारी कर रहे देश के प्रमुख विपक्षी दल की दयनीय स्थिति का पता चलता है. माना जाता है कि किसी देश में लोकतंत्र और उसकी मुख्य एजेंसी- पार्टी राजनीति की सेहत का अंदाज़ा लगाना हो तो उसकी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी से ज्यादा बेहतर है, उसके मुख्य विपक्षी दल की सेहत को टटोलना.

देश में मुख्य संसदीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा स्थिति को देखकर भारतीय लोकतंत्र की सेहत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इससे पता चलता है कि मुख्यधारा की पार्टी राजनीति सत्ता-लिप्सा और व्यक्तिगत स्वार्थों का साध्य बन गई है और वह देश और लोकतंत्र को कुछ देने की स्थिति में नहीं रह गई है.
 
(दैनिक 'कल्पतरु एक्सप्रेस', आगरा में 11 जून को छपी टिप्पणी)    

मंगलवार, अक्टूबर 23, 2012

'चिल्लर' आरोपों से घिरते गडकरी

क्या यह सिर्फ संयोग है कि आर.एस.एस को भाजपा को ठीक करने के लिए ‘सामाजिक उद्यमी’ नितिन गडकरी मिले?
खुद को ‘सामाजिक उद्यमी’ बतानेवाले भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. आज के ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में उनके ‘सामाजिक उपक्रम’ पूर्ति पावर एंड सुगर लिमिटेड के बारे में कई नए खुलासे सामने आए हैं http://timesofindia.indiatimes.com/india/Questions-swirl-around-source-of-funding-of-Gadkaris-firm/articleshow/16920160.cms  इससे पहले अरविंद केजरीवाल ने भी गडकरी पर विदर्भ में किसानों की जमीन हथियाने और कृषि सिंचाई के लिए बने बाँध से अपनी चीनी मिल और बिजलीघर के लिए पानी लेने जैसे आरोप लगाये थे.

इन आरोपों पर गडकरी का जवाब है कि वे पूर्ति कम्पनी के मुखिया का पद १४ महीने पहले छोड़ चुके हैं. उनकी कम्पनी के अधिकारियों की सफाई यह है कि कहीं कोई गडबडी नहीं है और सब कुछ कानूनी तौर पर सही और पारदर्शी है.
उनका दावा है कि पूर्ति कंपनी में ठेकेदारों और बिल्डरों के निवेश में क्या गलत है? यह और बात है कि इनमें से कई ठेकेदार श्री गडकरी के महाराष्ट्र के लोक-निर्माण मंत्री रहते हुए सरकारी ठेके हासिल कर चुके हैं.
गडकरी की यह सफाई अपेक्षित थी. आखिर वे अरविंद केजरीवाल के खुलासे और आरोपों को ‘चिल्लर’ आरोप बता चुके हैं. यह भी कि महाराष्ट्र की सिंचाई परियोजनाओं में भ्रष्टाचार/घोटालों के बावजूद ठेकेदारों को जल्दी से जल्दी भुगतान के लिए चिट्ठी लिखने को सही ठहरा चुके हैं और कह चुके हैं कि वे ऐसी दस चिट्ठियां और लिखेंगे. ऐसे में, अगर उनके सामाजिक उपक्रम में ठेकेदार भाइयों ने निवेश कर दिया तो उसमें कोई लेन-देन (क्वीड प्रो क्यो) देखने की जरूरत नहीं है!
भूलिए मत ये उसी ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ के अध्यक्ष हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का यह कहते हुए बचाव किया था कि उनके फैसले अनैतिक हो सकते हैं लेकिन गैरकानूनी नहीं हैं.
यही नहीं, गडकरी का बचाव करते हुए भाजपा नेता अरूण जेटली ने एक मासूम सा तर्क दिया कि राजनीति करनेवालों को भी अपना घर चलाना पड़ता है और इसके लिए कोई बिजनेस करे तो इसमें बुराई क्या है? यह रहा उनके इंटरव्यू का लिंक: http://www.ndtv.com/article/india/politicians-too-need-to-earn-a-living-arun-jaitley-to-ndtv-281714
लेकिन जेटली जी भूल गए कि गडकरी का दावा है कि वे अपने लिए बिजनेस नहीं करते हैं बल्कि वे ‘सामाजिक उद्यमी’ हैं और उन्होंने चीनी मिल से लेकर बिजलीघर तक सब विदर्भ के किसानों की भलाई के लिए लगाया है. अब अगर इस सामाजिक प्रकल्प में कोई ठेकेदार/बिल्डर भी योगदान करना चाहे तो वे उसे इस पुण्यकार्य से कैसे रोक सकते हैं?  

याद रहे गडकरी किसी और की नहीं बल्कि भगवा ब्रिगेड में नैतिक सत्ता के प्रतीक होने का दावा करनेवाले आर.एस.एस की पसंद हैं. कई भगवा समर्थक यह तर्क देते दिख जाते हैं कि भाजपा तो भ्रष्टाचार/घोटालों की कांग्रेसी संस्कृति में डूब गई है लेकिन आर.एस.एस दाग-विहीन शुद्ध-धवल और नैतिकता के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा हुआ है.
लेकिन क्या यह सिर्फ संयोग है कि उसी आर.एस.एस को भाजपा को ठीक करने के लिए ‘सामाजिक उद्यमी’ नितिन गडकरी मिले. यही नहीं, संघ के आशीर्वाद से उन्हें भाजपा का संविधान बदलकर दूसरा कार्यकाल भी मिल रहा है. साफ़ है कि यहाँ तो ‘सगरे कूप में भांग पड़ी है’ और गडकरी उसके एक प्रतीक भर हैं.   

बुधवार, मार्च 07, 2012

भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति को नकार

राजनीति का मुहावरा बदल रहा है क्योंकि लोग बेचैन हैं और उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं  

 
राजनीतिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को राजनीतिक दल हमेशा की तरह अपने निकट दृष्टि चश्मे से देखने और इसकी या उसकी जीत-हार के सन्दर्भ में समझाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इन नतीजों का यह सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है कि मतदाता भ्रष्टाचार और उसके सबसे अश्लील रूप सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं.

हालांकि चुनावों के दौरान यह दावे किये गए कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है लेकिन नतीजों से साफ़ है कि भ्रष्टाचार न सिर्फ एक बड़ा मुद्दा था बल्कि मतदाताओं ने इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी राज्य सरकारों और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को भी नहीं बख्शा.

यही कारण है कि चाहे उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार हो या फिर गोवा की दिगंबर कामत की कांग्रेस-एन.सी.पी सरकार या उत्तराखंड की भाजपा सरकार, मतदाताओं ने इन सभी सरकारों झटका दिया है. इनमें से पंजाब में अकाली दल-भाजपा सरकार बाल-बाल बच गई तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए कि मतदाताओं के सामने विकल्प के तौर पर खड़ी कांग्रेस को लोग भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, कमरतोड महंगाई और नाकारे विपक्ष की भूमिका के कारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे.

लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि मतदाताओं ने इन भ्रष्ट और निजी हितों के लिए सार्वजनिक संसाधनों की लूट में लगी राज्य सरकारों को भी पूरी तरह से माफ नहीं किया. यह नहीं भूलना चाहिए कि ये चुनाव २०११ के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में हो रहे थे. इस आंदोलन में जिस तरह से बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी हुई और लोगों में बेचैनी दिखाई पड़ी, उसके निशाने पर मुख्य रूप से यू.पी.ए और खासकर कांग्रेस थी.
बिला शक, कांग्रेस को उसकी कीमत चुकानी पड़ी है. वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में नकार दी गई, गोवा में सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि पंजाब और उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा सरकारों के खिलाफ माहौल होने के बावजूद कांग्रेस उसे भुनाने में नाकाम रही. इससे एक बार फिर यह साफ़ हो गया कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कांग्रेस के भरोसे छोड़ना खतरे से खाली नहीं है.

इससे निश्चय ही राष्ट्रीय स्तर यू.पी.ए के बरक्श एक नए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के लिए जगह बनने लगी है. कांग्रेस के लिए यह खतरे की घंटी है. यही नहीं, एक मायने में मतदाताओं ने खासकर उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक, अति पिछड़ा और अति दलितों वोटों के लिए कांग्रेस की चुनावों से ठीक पहले की अवसरवादी कोशिशों को भी नकार दिया है.

कांग्रेस युवा मतदाताओं की बात कर रही थी लेकिन राहुल गाँधी के हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान में न तो तो कोई नई दृष्टि थी और न ही वह साख और भरोसा कि वह मतदाताओं को उत्साहित और प्रेरित कर पता.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन विधानसभा चुनावों में लोगों के उत्साह और मतदान में बढ़ोत्तरी के बावजूद सच्चाई यह है कि उनके पास चुनने के लिए कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. इन राज्यों में सत्ता की दावेदार सभी प्रमुख पार्टियों को लोगों कई बार आजमा लिया है.

लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा. हर नई सरकार ने चाहे वह भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या सार्वजनिक संसाधनों की लूट का या सत्ता का इस्तेमाल परिवार और उसके इर्द-गिर्द जमा अफसरों-ठेकेदारों-दलालों के काकस के निजी हितों को आगे बढ़ाने का या फिर लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ का उसने पिछली सरकारों के रिकार्ड को तोड़ दिया.
आश्चर्य की बात नहीं है कि बिना किसी अपवाद के हर राज्य में पांच सालों में मंत्रियों/विधायकों की संपत्ति में न्यूनतम दस से लेकर सौ गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है. यही नहीं, इन राज्यों में सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जो पहले से करोड़पति हैं.

इसके अलावा सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों ने इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया. जीतने वाले उम्मीदवारों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने औसतन एक से दो करोड़ रूपये खर्च न किये हों. यह सचमुच चिंता की बात है कि चुनाव जिस तरह से ज्यादा से ज्यादा महंगे होते जा रहे हैं, उसमें चुनावों से बुनियादी बदलाव की संभावनाएं सिमटती जा रही हैं.                

लेकिन इन विधानसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के थे. यहाँ जिस तरह से मतदाताओं ने मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार को ख़ारिज कर दिया है और समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया है, उससे साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसमें बदलाव और लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं को महसूस किया जा सकता है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.
यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव साफ़ देखी जा सकती है.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत लगभग ६० फीसदी तक पहुँच गया. यह पिछली बार की तुलना में १० से १४ फीसदी तक अधिक है.

इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है. सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिखे. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकला, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस उनकी संकीर्ण जातिवादी/धार्मिक पहचानों के दायरों में बंद करना मुश्किल होगा.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ी जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी आर्थिक विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ी.

ऐसा लगता है कि ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के बदलते मिजाज को भांप नहीं पाईं क्योंकि जब मतदाता संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति से बाहर निकलने और अपनी आकांक्षाएं अभिव्यक्त कर रहे थे, वे उन्हें फिर उन्हीं संकीर्ण दायरों में पीछे खींचने की कोशिश कर रही थीं.    

इन चुनावों में तीसरा बदलाव यह दिखा कि मुस्लिम वोटर अब किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है बल्कि अन्य जातियों/समुदायों की तरह ही अपने मुद्दों, जरूरतों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर वोट कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है.

इसके उलट रोजी-रोटी, बिजली-सड़क-पानी और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ समावेशी विकास के लिए वोट कर रहा है. वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है. इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं.
निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोगों ने अपने तरीके से राजनीतिक दलों को सबक सिखाया है. सबक नंबर एक, मतदाताओं को भ्रष्टाचार और राजनीतिक अहंकार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.

सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए. कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं.

चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.
कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने राज्य में एक नई प्रगतिशील, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बनाया है. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होने चाहिए.

('जनसत्ता' के ७ मार्च के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख...आपकी टिप्पणियों का स्वागत है...)

मंगलवार, जनवरी 10, 2012

भ्रष्ट और अपराधी तत्वों की आखिरी शरणस्थली बन गई है भाजपा

दागियों पर पर्दा डालने के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति को आड़ की तरह इस्तेमाल करती है भाजपा  

दूसरी और आखिरी किस्त

असल में, भाजपा की राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण कोई पहली घटना नहीं है और न ही यह कोई अपवाद है. पार्टी की राजनीति को नजदीक से देखने वाले जानते हैं कि ९० के दशक में कांग्रेसी नेता और तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम के भ्रष्टाचार के आरोपों में पकडे जाने के मुद्दे पर कार्रवाई की मांग को लेकर संसद ठप्प कर देनेवाली भाजपा को हिमाचल प्रदेश में सत्ता के लिए सुखराम के साथ हाथ मिलाने में कोई शर्म नहीं आई.

इसी तरह, यू.पी.ए सरकार के मंत्री शिबू सोरेन को दागी बताकर मंत्रिमंडल से निकलने की मांग को लेकर भाजपा ने संसद के अंदर और बाहर खूब हंगामा किया लेकिन झारखण्ड में जोड़तोड़ करके उन्हीं शिबू सोरेन के साथ सत्ता की मलाई चाट रही है.


यही नहीं, भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पहले कल्याण सिंह के नेतृत्व में दलबदलुओं, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और दागियों के साथ सबसे बड़ा मंत्रिमंडल बनाके और फिर मायावती के नेतृत्व में बसपा के साथ सत्ता की साझेदारी करके राजनीतिक अवसरवाद का नया रिकार्ड बनाया. भाजपा के छोटे से राजनीतिक इतिहास में ऐसे अवसरवादी राजनीतिक समझौतों की एक पूरी श्रृंखला है.

कर्नाटक में पार्टी ने खनन माफिया के बतौर कुख्यात रेड्डी बंधुओं की बगावत के बाद उनके आगे घुटने टेक दिए और बाद में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे येद्दियुरप्पा ने भी भाजपा नेतृत्व की पूरी फजीहत कराने के बाद ही इस्तीफा दिया.

सच पूछिए तो आज भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धनबलियों को राजनीतिक संरक्षण और प्रोत्साहन देने में भाजपा किसी भी मध्यमार्गी पार्टी से पीछे नहीं नहीं है. किसी भी अन्य पार्टी की तरह भाजपा में भी सत्ता के दलालों, भ्रष्ट और लुटेरे ठेकेदारों/कंपनियों, माफियाओं और अवसरवादी तत्वों की तूती बोल रही है.

पार्टी की राज्य इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व में भी ऐसे तत्वों की पैठ बहुत गहरी हो चुकी है. यह बहुत बड़ा भ्रम है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बहुत साफ़-सुथरा है और इसलिए निचले स्तर पर ऐसे भ्रष्ट/अपराधी/अवसरवादी तत्वों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सच यह है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हैं.

भाजपा के नेता भले स्वीकार न करें लेकिन तथ्य यह है कि इन भ्रष्ट और अपराधी तत्वों के आगे शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से लाचार हो चुका है. उसकी लाचारी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि आडवाणी से लेकर सुषमा स्वराज तक और उमा भारती से लेकर आर.एस.एस की कथित नाराजगी के बावजूद पार्टी बाबू सिंह कुशवाहा और अन्य दागियों को निकालने के लिए तैयार नहीं है?

आखिर भाजपा किसे धोखा दे रही है? क्या यह संभव है कि पार्टी के शीर्ष नेता और यहाँ तक कि आर.एस.एस भी जिस फैसले से नाराज हो, उसे पलटना इतना मुश्किल हो? यह तभी संभव है जब या तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की कथित नाराजगी सिर्फ सार्वजनिक दिखावे के लिए हो या फिर उन्होंने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हों?

भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के लिए ये दोनों ही बातें सही हैं. असल में, वे गुड भी खाना चाहते हैं और गुलगुले से परहेज का नाटक भी करते हैं. सच यह है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर भाजपा की राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता जैसे-जैसे उजागर होती जा रही है, उसके लिए सत्ता, साधन के बजाय साध्य बनती जा रही है.

जाहिर है कि जब सत्ता ही साध्य बन जाए तो उसे हासिल करने के लिए पार्टी को कोई भी जोड़तोड़ करने, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने और भ्रष्ट/अपराधी तत्वों के साथ गलबहियां करने में कोई संकोच नहीं रह गया है. इसलिए उत्तर प्रदेश में जो रहा है, वह भाजपा के इसी राजनीतिक-वैचारिक स्खलन से पैदा हुए अवसरवाद की राजनीति का नया मुकाम है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता और स्खलन एक ऐसी सर्वव्यापी और सर्वग्रासी परिघटना बन चुकी है जिससे सत्ता के खेल में शामिल कोई भी पार्टी अछूती नहीं बची है. हैरानी की बात नहीं कि दागी तत्व बहुत सहजता के साथ एक से दूसरी पार्टी और तीसरी से चौथी पार्टी में प्रवेश, सम्मान और निर्णायक मक़ाम हासिल करने में कामयाब होते हैं.

एक पार्टी के लिए दागी, दूसरे के लिए राजनीतिक सफलता की कुंजी है. यहाँ तक कि सिद्धांतत: मान लिया गया है कि यही व्यवहारिक राजनीति है और व्यावहारिक राजनीति, विचार, सिद्धांत और मूल्यों से नहीं चलती है. मतलब यह कि इसमें अगर आप सफल हैं तो सब कुछ जायज है.

जाहिर है कि भाजपा भी इस नई व्यावहारिक राजनीतिक संस्कृति की अपवाद नहीं है. लेकिन भाजपा के साथ खास बात यह है कि वह राजनीतिक नैतिकता, शुचिता और सदाचार की जितनी ही अधिक डींगे हांकती है, उतनी ही बेशर्मी से उनकी धज्जियाँ भी उड़ाती है. इसमें उसे कोई संकोच या असुविधा महसूस नहीं होती है. इस मामले में उसके साहस का शायद ही कोई और पार्टी मुकाबला कर पाए.

असल में, भाजपा जिस उग्र हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी पर आधारित राजनीति करती है, उसमें उसके पास दागियों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे छुपाने की अवसरवादी सुविधा है. यह सुविधा किसी भी और पार्टी के पास नहीं है.

सैमुएल जानसन ने कहा था कि ‘राष्ट्रवाद और देशभक्ति लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है.’ भाजपा के मामले में यह बात सौ फीसदी सच है. भ्रष्ट/अपराधी और दागी तत्वों को भाजपा इसीलिए बहुत आकर्षित करती है. ऐसे तत्व भाजपा में आ कर न सिर्फ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के झंडे के नीचे अपने सभी पापों को ढंकने-छुपाने में कामयाब हो जाते हैं बल्कि बड़े आराम से अपने काले कारबार को भी जारी रख पाते हैं.

जाने-अनजाने मुख्तार अब्बास नकवी ने भाजपा की गंगा से तुलना करते हुए हिंदुत्व के प्रतीक का ही इस्तेमाल किया. भाजपा की राजनीति की यही असलियत है. लेकिन हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की संकीर्ण और घृणा आधारित राजनीति से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

('जनसत्ता' के ९ जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी किस्त)

सोमवार, जनवरी 09, 2012

भाजपा के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की असलियत


अवसरवाद का दूसरा नाम भाजपा है

पहली किस्त
 
भारतीय जनता पार्टी को दाग अच्छे लगने लगे हैं. पार्टी के आशीर्वाद से इन दिनों उत्तरप्रदेश की राजनीति में दागियों की चांदी हो गई है. विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भ्रष्टाचार के आरोपों में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा सहित कई और मंत्रियों और विधायकों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं.

इन दागी मंत्रियों, विधायकों और नेताओं को न सिर्फ ससम्मान भाजपा में शामिल कराया जा रहा है बल्कि उनमें से अधिकांश को पार्टी टिकट से भी नवाजा जा रहा है. इनके अलावा बलात्कार से लेकर घूस लेकर संसद में सवाल पूछने के दोषी नेताओं के नाम भी भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में शामिल हैं.

भाजपा के इस फैसले ने उसके बहुतेरे समर्थकों को स्तब्ध कर दिया है, विश्लेषकों को चौंका दिया है और ये सभी हैरानी जाहिर कर रहे हैं. इसकी वजह यह है कि जो पार्टी खुद को अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ के आधार पर सभी पार्टियों से अलग (पार्टी विथ डिफ़रेंस) बताती है और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ लड़ने का नारा लगाते नहीं थकती है, वह दूसरी पार्टियों से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए दागियों को थोक के भाव में पार्टी में कैसे और क्यों शामिल कर रही है?

सवाल यह भी उठ रहा है कि जो भाजपा दूसरी पार्टियों के दागियों के मुद्दे पर सिर आसमान पर उठाए रहती है, हप्तों संसद नहीं चलने दिया है और रामराज्य और सुशासन के दम भरती रहती है, वह किस मुंह से दागियों का बचाव कर रही है? दूसरी पार्टियों के दागी भाजपा में आकर पार्टी के लिए तिलक कैसे बन जाते हैं?

मजे की बात यह है कि भाजपा नेता किरीट सोमैया ने सिर्फ चार दिन पहले जिन बाबू सिंह कुशवाहा को उत्तर प्रदेश में दस हजार करोड़ रूपयों से अधिक के बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम) घोटाले का सूत्रधार बताया था और जो सी.बी.आई जांच के घेरे में फंसे हैं, उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की पूरी सहमति से ससम्मान पार्टी में शामिल करा लिया गया.

लेकिन कुशवाहा अकेले दागी नेता नहीं हैं, जिन्हें भाजपा ने इस तरह बाहें फैलाकर स्वागत किया है. ऐसे बसपाई मंत्रियों, विधायकों और नेताओं की तादाद अच्छी खासी है जिन्हें उनकी चुनाव जीतने की काबिलियत के आधार पर पार्टी में शामिल कराया गया है.

ऐसे नेताओं में मायावती सरकार के एक और पूर्व मंत्री बादशाह सिंह हैं जिन्हें लोकायुक्त जांच में दोषी पाए जाने के कारण हटाया गया था. कुछ और मंत्रियों जैसे अवधेश वर्मा, ददन मिश्र आदि को भी मायावती ने ऐसे ही आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया. भाजपा ने इन सभी को हाथों-हाथ लिया है. कई और पूर्व बसपाई मंत्री/विधायक और सांसद कतार में हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि थोक के भाव में दागियों को पार्टी में शामिल करने और उन्हें चुनावों में उम्मीदवार बनाने के फैसले की मीडिया और बौद्धिक हलकों में खूब आलोचना हुई है. यही नहीं, भाजपा में पार्टी के अंदर भी निचले स्तर पर विरोध के इक्का-दुक्का स्वर उभरे हैं और अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, लालकृष्ण आडवाणी समेत कई वरिष्ठ नेता भी नाराज हैं.

लेकिन घोषित तौर पर पार्टी प्रवक्ता और उनके नेता भांति-भांति के तर्कों से इस फैसले को जायज ठहराने में जुटे हैं. पार्टी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी के मुताबिक, ‘भाजपा वह गंगा है जिसमें कई परनाले गिरते हैं लेकिन उससे गंगा की निर्मलता पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.’

दूसरी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के अनुसार, ‘यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं बल्कि बहुत सोच-समझकर लिया गया है. इसका उद्देश्य पिछड़ी खासकर अति पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को आगे बढ़ाना है.’ वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को बाबू सिंह कुशवाहा में मायावती की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ ‘व्हिसल-ब्लोवर’ दिख रहा है.

लेकिन भाजपा नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को अहसास है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देशव्यापी जनमत और राजनीतिक माहौल में पार्टी का मध्यमवर्गीय आधार इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है.

उसकी बेचैनी को भांपते हुए टी.वी चर्चाओं में कई भाजपा नेता और बुद्धिजीवी मध्यमवर्गीय जनमत को इस आधार पर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि चूँकि ये दागी पार्टी में निचले स्तर के नेता हैं और रहेंगे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व साफ़-सुथरा है, इसलिए ये दागी पार्टी की नीतियों और सरकार को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं.

इस फैसले का बचाव ‘व्यावहारिक राजनीति के तकाजों’ के आधार पर भी किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस के माफियाओं और भ्रष्ट उम्मीदवारों से निपटने के लिए भाजपा को भी ऐसे तत्वों को मैदान में उतारना जरूरी है जो चुनाव जीत सकें.

कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा की इन दलीलों में कोई दम नहीं है. ये तर्क उसके चरम राजनीतिक अवसरवाद पर पर्दा डालने की कोशिश भर हैं. सच पूछिए तो भाजपा के इस फैसले पर हैरानी से अधिक हंसी आती है.

भाजपा के लिए यह कोई नई बात नहीं है. पार्टी इस खेल में माहिर हो चुकी है. उसके लिए अवसरवाद अब सिर्फ रणनीतिक मामला भर नहीं है बल्कि उसके राजनीतिक दर्शन का हिस्सा बन चुका है.

आश्चर्य नहीं कि भाजपा तात्कालिक राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए अपने घोषित राजनीतिक सिद्धांतों और मूल्यों की बिना किसी अपवाद के बलि चढ़ाती आई है. यह उसकी राजनीति की सबसे बड़ी पहचान बन गई है.

जारी...

('जनसत्ता' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त...बाकी कल)

सोमवार, सितंबर 12, 2011

काठ की हांडी को दोबारा चढ़ाने की कोशिश कर रही है भाजपा


बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद में है भाजपा


कहते हैं कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती है. लेकिन लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने यह मुहावरा नहीं सुना है. यही कारण है कि वह इन दिनों काठ की हांड़ी दोबारा चढ़ाने की कोशिश कर रही है. पिछले एक सप्ताह में उसके राष्ट्रीय नेतृत्व ने दो ऐसे बड़े फैसले किये हैं जिनसे उसकी दुविधा, हताशा और घबराहट का पता चलता है.

सबसे पहले खुद पार्टी नेताओं को हैरान करते हुए ‘प्राइममिनिस्टर इन वेटिंग’ लाल कृष्ण आडवाणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण के लिए देश भर में रथयात्रा शुरू करने का एलान कर दिया.

और अब पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तराखंड में मौजूदा मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को हटाकर पूर्व मुख्यमंत्री बी.सी. खंडूरी को सत्ता सौंपने की घोषणा कर दी है. इन फैसलों से पता चलता है कि देश के मुख्य विपक्षी दल में नए विचारों और नेतृत्व का किस कदर अकाल पैदा हो गया है.

अन्यथा उम्र के इस पड़ाव और सक्रिय राजनीति से विदाई की इस वेला में आडवाणी की इस राजनीतिक बेचैनी और लालसा का क्या तर्क हो सकता है? इसी तरह, खुद को ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ बतानेवाली भाजपा उत्तराखंड में इस बेशर्मी से कोश्यारी-खंडूरी-निशंक के बीच सत्ता के ‘म्यूजिकल चेयर’ का खेल नहीं खेल रही होती.

ऐसा लगता है कि भाजपा लोगों को बेवकूफ समझती है. यही कारण है कि उसने उत्तराखंड में पिछले पांच साल में दो बार मुख्यमंत्री बदला और जल्दी ही होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले मैदान में खंडूरी को उतारकर काठ की हांड़ी को दोबारा चढ़ाने की कोशिश की है.

लोग कहने लगे हैं कि भाजपा ने उत्तराखंड को मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बना दिया है. राज्य बनने के बाद पहले दो वर्षों के कार्यकाल में भाजपा ने पहले नित्यानंद स्वामी और फिर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वे भी २००२ में पार्टी की हार को टाल नहीं सके.

इसके बाद २००७ में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद बी.सी. खंडूरी लाए गए लेकिन उन्हें २००९ के आम चुनावों में प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें हारने के आरोप में हटाकर निशंक को कुर्सी सौंप दी गई.

लेकिन जब यह लगने लगा कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे निशंक आसन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी की नैय्या पार नहीं लगा पाएंगे, तो एक बार फिर खंडूरी पर दांव लगाने का फैसला किया है. लेकिन क्या उत्तराखंड के लोग भी खंडूरी पर दांव लगाने को तैयार हैं?

सवाल यह है कि अगर उनका नेतृत्व इतना चमत्कारी होता तो वे २००९ में पार्टी को राज्य की एक भी लोकसभा सीट क्यों नहीं दिलवा पाए? दूसरे, पार्टी को खंडूरी के नेतृत्व पर इतना ही विश्वास है तो उन्हें २००९ में हटाया क्यों?

ऐसा लगता है कि भाजपा की उम्मीद लोगों को सीमित स्मृति पर टिकी है लेकिन सच यह है कि वह खुद स्मृति दोष की शिकार है. लगता है कि पार्टी दिल्ली में १९९३ से १९९८ के बीच खुराना-साहब सिंह वर्मा-सुषमा स्वराज के प्रयोग के हश्र को भूल गई?

इसी तरह, १९९८ में चुनावों से ठीक कुछ महीने पहले साहब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया था लेकिन नतीजा यह हुआ कि उसके बाद से दिल्ली में आज तक भाजपा विपक्ष में बैठी है.

असल में, भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि वह दावे भले नेतृत्व के ‘चमत्कार’ पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही भरोसा करती है. लेकिन नेतृत्व के ‘चमत्कार’ की सीमाएं होती हैं. इस राजनीतिक सबक को भाजपा भूल रही है. वाजपेयी के चमत्कारिक नेतृत्व को भी २००४ के चुनावों में मुंह की खानी पड़ी और २००९ में आडवाणी का जादू फीका रहा.

तथ्य यह है कि नए नेतृत्व के साथ-साथ नए विचारों और कार्यक्रमों की भी जरूरत होती है. अन्यथा, यह नई बोतल में पुरानी शराब से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है. सच यह है कि भाजपा की सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की नहीं बल्कि नए विचारों और कार्यकर्मों की है. इस मामले में पार्टी का दिवालियापन जगजाहिर हो चुका है.

लेकिन पार्टी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है. पर इसके अनगिनत उदाहरण सामने हैं. यह पार्टी नेतृत्व का दिवालियापन ही है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आडवाणी के नेतृत्व में रथयात्रा निकालने जा रही है.

क्या भाजपा को मालूम नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद उसकी विश्वसनीयता पाताल छू रही है? जो पार्टी कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं से लेकर येदियुरप्पा के आगे घुटने टेक चुकी हो और जिसकी सभी राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों, उसके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कौन गंभीरता से लेगा? यही नहीं, पिछली एन.डी.ए सरकार के टेलीकाम, तहलका से लेकर ताबूत घोटाले की कथाएं लोगों की स्मृति से क्षीण नहीं हुई हैं.

सच पूछिए तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा नेताओं और सरकारों के इसी रिकार्ड के कारण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व भाजपा के पास नहीं बल्कि एक गैर राजनीतिक एन.जी.ओ और उसके नेता अन्ना हजारे के पास है. भाजपा नेता मानें या न मानें लेकिन अन्ना हजारे की सफलता, भाजपा की विफलता से निकली है.

असल में, नेतृत्व से ज्यादा उसकी साख और विश्वसनीयता महत्वपूर्ण होती है. लेकिन चाहे आडवाणी हों या खंडूरी, उनके नेतृत्व की क्या साख है? क्या आडवाणी ने अपनी राज्य सरकारों में बढ़ते भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ किया? उलटे वे एक ऐसे लाचार नेता के रूप में सामने आए हैं जिसने महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह आँखें बंद कर रखी हैं.

यही नहीं, नेतृत्व हवा में नहीं जमीन पर बनता है. अगर जमीन फिसलन भरी है तो अच्छे से अच्छे नेतृत्व को फिसलने से नहीं बचाया जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तराखंड में निशंक और खुद खंडूरी ने शासन में कोई कमाल तो दूर लोगों की न्यूनतम अपेक्षाएं भी पूरी नहीं की हैं.

उत्तराखंड के निर्माण से लोगों की जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें चाहे कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी सरकार रही हो या भाजपा की तमाम सरकारें – किसी ने पूरा नहीं किया है. लूट-खसोट और भाई-भतीजावाद की ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई है जिसमें न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा को अलग करना मुश्किल है बल्कि उसमें राज्य और उसके लोगों के हित सबसे पहले कुर्बान किये जाते हैं. इसकी अपवाद न खंडूरी की पूर्ववर्ती सरकार थी और न निशंक की मौजूदा सरकार.

ऐसे में, भाजपा नेतृत्व की काठ की हांडी दोबारा चढ़ाने की कोशिश का हश्र क्या होगा, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. हालांकि उत्तराखंड में लोगों के पास बहुत विकल्प नहीं है. कांग्रेस से लोगों की निराशा किसी से छुपी नहीं है. लगता है कि भाजपा इसे देखते हुए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद कर रही है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में १२ सितम्बर को प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप)

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

भगवा की तिरंगा राजनीति

इतिहास को दोहराने की कोशिश में मजाक बन गई है भाजपा की तिरंगा यात्रा

“ देशभक्ति, दुष्टों-लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है.”
- सैमुएल जॉन्सन

सैमुएल जॉन्सन की यह पंक्ति भारतीय जनता पार्टी और उसके युवा संगठन भारतीय जनता युवा मोर्चा की तिरंगा यात्रा पर बिल्कुल फिट बैठती है. ऐसे राजनीतिक तमाशे करने में भाजपा का कोई जवाब नहीं है. वैसे भी भाजपा के लिए ‘देशभक्ति’ हमेशा से आखिरी शरणस्थली रही है. एक बार फिर वह जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में ऐतिहासिक लाल चौक पर २६ जनवरी को तिरंगा फहराने के अभियान के जरिये खुद को सबसे बड़ा देशभक्त और बाकी सभी को देशद्रोही साबित करने की अपनी जानी-पहचानी राजनीति पर उतर आई है.

असल में, लोगों की भावनाएं भडकाकर राजनीति को सांप्रदायिक आधारों पर ध्रुवीकृत करने का भाजपा और संघ परिवार का यह खेल अब बहुत जाना-पहचाना हो चुका है. यह और बात है कि उसके ऐसे सभी अभियानों से हमेशा सबसे अधिक नुकसान देश को ही हुआ है. श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का इससे भी बड़ा जज्बाती अभियान १९९२ में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी चला चुके हैं. उस समय केन्द्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने फौज और अर्ध सैनिक बलों के घेरे में सुनसान लाल चौक पर डा. जोशी से तिरंगा फहरावाकर उनकी मनोकामना पूरी कर दी थी.

लेकिन १९९२ के बाद कश्मीर की स्थिति किसी से छुपी नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि डा. जोशी की तिरंगा यात्रा ने भी कश्मीर में स्थितियों को बिगाड़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन संघ परिवार को इसकी परवाह कहां रही है? उसके लिए तो हमेशा से देशहित से ऊपर संकीर्ण पार्टी हित रहा है. अगर ऐसा नहीं है तो क्या कोई भी संवेदनशील राजनीतिक पार्टी कश्मीर के मौजूदा हालात में ऐसी भडकाऊ यात्रा निकालता जिससे स्थितियों के और बिगड़ने का खतरा हो? लेकिन जो पार्टी तर्क के बजाय भावनाओं की राजनीति करने की चैम्पियन हो उसे तर्कों और यथार्थ की परवाह क्या होगी?

लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती है. भाजपा और संघ परिवार के ऐसे दुस्साहसी राजनीतिक ड्रामों से देश भली-भांति परिचित हो चुका है. भाजपा की देशभक्ति की पोल खुल चुकी है. तहलका रक्षा घोटाले से लेकर कारगिल ताबूत घोटाले के पर्दाफाश और बंगारू लक्ष्मन, दिलीप सिंह जूदेव से लेकर अब येदियुरप्पा तक भाजपा की असलियत लोगों के सामने आ चुकी है. जाहिर है कि भाजपा अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए तिरंगे का इस्तेमाल कर रही है.

अन्यथा देश को अच्छी तरह से पता है कि संघ परिवार तिरंगे को कितना प्यार करता है? भाजपा आखिर किसे धोखा दे रही है? सच यह है कि संघ परिवार और भाजपा तिरंगे से ज्यादा भगवे झंडे को प्यार करते हैं. हेडगेवार बहुत पहले तिरंगे को अशुभ बताकर भगवे की वकालत कर चुके हैं.

मार्क्स ने बहुत पहले कहा था कि इतिहास अपने को दोहराता है लेकिन जहां पहली बार वह एक त्रासदी होता है, वहीँ दूसरी बार प्रहसन या मजाक बन जाता है. भाजपा की यह दूसरी तिरंगा यात्रा एक मजाक से अधिक कुछ नहीं है.