बुधवार, जून 12, 2013

आडवाणी का ‘ब्रह्मास्त्र’ और भाजपा का संकट

भारतीय झगड़ा पार्टी बनती बीजेपी के इस संकट के लिए खुद पार्टी और आर.एस.एस नेतृत्व जिम्मेदार हैं

कहते हैं कि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है. खासकर २४ घंटे के चैनलों और मोबाइल युग में तो घंटे और मिनट भी गिने जाने लगे हैं. देश के मुख्य विपक्षी दल- भारतीय जनता पार्टी में भी मिनटों में राजनीति बदल रही है.

गोवा कार्यकारिणी की बैठक के दौरान रविवार को उनके प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने इंतज़ार कर रिपोर्टरों से कहा कि घंटों में नहीं, मिनटों में बड़ा एलान होने जा रहा है. फिर खूब धूम-धड़ाके के साथ एलान हुआ कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष होंगे.

इससे पहले से ही हर ओर मोदी की जय-जयकार हो रही थी लेकिन पार्टी अध्यक्ष की इस घोषणा के साथ ही पार्टी के सभी नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार मोदी के आगे नतमस्तक दिख रहे थे और मीडिया में अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर दी गई थी.

लेकिन २४ घंटे भी नहीं बीते कि भाजपा की राजनीति में काफी उलटफेर हो गया दिखता है. ‘प्रथम ग्रासे, मक्षिका पाते’ (पहले ही कौर में मक्खी का गिरना) की तर्ज पर पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देकर ऐसा ब्रह्मास्त्र चला कि भाजपा नेताओं को सिर छुपाने की जगह नहीं मिल रही थी.
इस्तीफा देते हुए उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर यह कहते हुए करारा हमला बोला कि यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाया था. आडवाणी के इस आरोप ने भाजपा खासकर उसके नए नेता नरेन्द्र मोदी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा कि पार्टी में अब निजी हितों और एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है.
साफ़ है कि आडवाणी ने एक ही झटके में न सिर्फ चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी कर दी बल्कि पार्टी के अंदर जारी सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई को सड़क पर ला दिया है. आडवाणी के इस फैसले से पार्टी के अंदर घमासान और तेज होना तय है.

हालाँकि उन्होंने आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन आडवाणी ने एक बार इस्तीफा देकर और उससे अधिक इस्तीफे के कारण बताकर दांव बहुत ऊँचा कर दिया.

यहाँ से वे किन शर्तों और समझौते के साथ वापस लौटे हैं, इसका खुलासा होना बाकी है. इससे यह तय है कि पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष खत्म नहीं हुआ है और अभी नाटक के पहले अंक का पर्दा गिरा है.  

असल में, आडवाणी के लिए अब खोने को कुछ नहीं है. इसलिए वे पार्टी और आर.एस.एस से आसानी से और बिना बड़ी कीमत वसूले इस्तीफे को वापस करने के लिए राजी हुए होंगे, इसकी सम्भावना कम है.
जाहिर है कि आडवाणी के मोदी के खिलाफ इस तरह खड़ा हो जाने के बाद भाजपा और खासकर आर.एस.एस के सामने अब दो ही विकल्प हैं. एक, वह आडवाणी को जनसंघ के जमाने के नेता बलराज मधोक की तरह किनारे कर दे. दूसरे, उनके साथ समझौते में जाए और उनकी कुछ शर्तों को स्वीकार करे. ये दोनों ही विकल्प आसान नहीं हैं.
दोनों ही विकल्पों के साथ पार्टी के अंदर गुटबाजी और सत्ता संघर्ष के और तेज होने की आशंका है. नाराज आडवाणी पार्टी के अंदर रहें या बाहर, दोनों ही स्थितियों में वे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करते रह सकते हैं और मोदी के विजय अभियान के रथ को पंक्चर करने के लिए काफी हैं.
जाहिर है कि जो विश्लेषक अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर रहे थे, उन्हें थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा. यही नहीं, जो विश्लेषक गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अंदर और उससे बाहर काफी उठापटक, खींचतान और लाबीइंग के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा को पार्टी में मोदी के राज्यारोहण की तरह देख रहे थे, उन्हें भी मिनटों-घंटों-दिनों नहीं बल्कि सप्ताहों इंतज़ार करना पड़ सकता है.

यह सच है कि आडवाणी और उनका गुट मोदी को बहुत लंबे समय तक नहीं रोक पायेगा. लेकिन इतना तय है कि पार्टी में आनेवाले दिनों में काफी उठापटक और नतीजे में, सड़कों पर तमाशा और छीछालेदर दिखाई देगा.

इसकी वजह यह है कि मोदी भाजपा में प्रधानमंत्री पद के आधे दर्जन से ज्यादा उम्मीदवारों के बीच जारी महत्वाकांक्षाओं की तीखी होड़ में एक कदम भले आगे निकल गए हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री और सत्ता की संभावित मलाई में हिस्से के लिए जारी खींचतान और उठापटक खत्म हो गई है.
इसके उलट आशंका यह है कि गोवा में निजी महत्वाकांक्षाओं की यह लड़ाई जिस तरह से खुलकर सामने आ गई है, वह आनेवाले दिनों में और अप्रिय शक्ल ले सकती है. खासकर नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक जितने बेसब्र होंगे, खुद को प्रधानमंत्री और एकछत्र नेता के रूप में पेश करने के लिए जितना दबाव बढ़ाएंगे, यह लड़ाई में पार्टी की उतनी ही सार्वजनिक छीछालेदर होगी.
वैसे भी गुटबंदी और आपसी झगडों के कारण बीजेपी को भारतीय झगडा पार्टी कहा जाने लगा है. हालाँकि यह छवि कोई एक दिन में नहीं बनी है. भाजपा चाहे खुद को कितनी भी सबसे अलग पार्टी बताए (पार्टी विथ डिफरेन्स) या अनुशासन और अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात करे लेकिन सच यह है कि निजी महत्वाकांक्षाओं पर आधारित गुटबाजी, खेमेबंदी, उठापटक, साजिशों और दुरभिसंधियों का इतिहास बहुत पुराना है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. ८० और ९० के दशक में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी और बाद में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच कभी दबे और कभी खुले में यह खींचतान और उठापटक चलती रही है.

यह गुटबाजी, उठापटक, साजिशें और एक-दूसरे को निपटाने की कोशिशें बाद में बिना किसी अपवाद के पार्टी की हर राज्य इकाई और अनुषांगिक संगठनों तक पहुँच गई. यहाँ तक कि खुद पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस गुटबंदी और उठापटक के बड़े खिलाड़ी हैं. उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह बनाम कल्याण सिंह बनाम कलराज मिश्र की लड़ाई ने भाजपा को आसमान से पाताल में पहुंचा दिया.
सच पूछिए तो गुटबंदी और आपसी उठापटक के मामले में भाजपा पूरी तरह से कांग्रेस संस्कृति में रंग चुकी है. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी इस गुटबंदी और विरोधियों को एन-केन-प्रकारेण निपटाने के माहिर हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसी कारण भाजपा के बड़े नेताओं में मोदी के हाथ में पार्टी की कमान सौंपे जाने से घबराहट है. उन्हें पार्टी नेतृत्व में हो रहे इस पीढ़ीगत और वैचारिक-राजनीतिक बदलाव में अपनी जगह को लेकर बेचैनी है. आडवाणी के खुले विद्रोह में ऐसे कई वरिष्ठ नेताओं की आवाज़ को सुना जा सकता है.

यही कारण है कि भाजपा और आर.एस.एस नेतृत्व इसे अनदेखा करने का जोखिम नहीं ले सकता है. सच पूछिए तो वह अपने ही बनाए जाल में फंस गया है. इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद भाजपा और आर.एस.एस का अलोकतांत्रिक सांगठनिक ढांचा जिम्मेदार है जहाँ बड़े राजनीतिक फैसले पार्टी के अंदर नहीं बल्कि आर.एस.एस के मुख्यालय नागपुर में लिए जाते हैं.

यही नहीं, पार्टी में गुटबंदी-खेमेबाजी का मुख्य स्रोत भी आर.एस.एस और नागपुर ही है जो गुटबंदी और नेताओं के झगड़ों को अपनी पंच की भूमिका और पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करता है.
          
लेकिन इससे सत्ता की दावेदारी कर रहे देश के प्रमुख विपक्षी दल की दयनीय स्थिति का पता चलता है. माना जाता है कि किसी देश में लोकतंत्र और उसकी मुख्य एजेंसी- पार्टी राजनीति की सेहत का अंदाज़ा लगाना हो तो उसकी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी से ज्यादा बेहतर है, उसके मुख्य विपक्षी दल की सेहत को टटोलना.

देश में मुख्य संसदीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा स्थिति को देखकर भारतीय लोकतंत्र की सेहत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इससे पता चलता है कि मुख्यधारा की पार्टी राजनीति सत्ता-लिप्सा और व्यक्तिगत स्वार्थों का साध्य बन गई है और वह देश और लोकतंत्र को कुछ देने की स्थिति में नहीं रह गई है.
 
(दैनिक 'कल्पतरु एक्सप्रेस', आगरा में 11 जून को छपी टिप्पणी)    

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