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रविवार, अप्रैल 19, 2015

पचास साल में सवा तीन कोस

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) की विशाखापत्तनम कांग्रेस से आगे की चुनौती 

भला किसने सोचा होगा कि भारत में वामपंथी राजनीति की हरावल पार्टी- भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) अपनी स्थापना के पचासवें साल में उससे भी बुरे हाल में खड़ी होगी जहाँ से 1964 में उसने अपनी यात्रा शुरू की थी? अपने स्वर्ण जयंती साल में पार्टी न सिर्फ सबसे गहरे और कठिन वैचारिक-राजनीतिक संकट का सामना कर रही है बल्कि अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से गुजर रही है. राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खतरे में है. 

सीपीआई-एम को इतने गंभीर वैचारिक-राजनीतिक संकट से उस समय भी नहीं गुजरना पड़ा था जब 1964 में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) टूटी थी. उस समय एक नया हौसला था, ‘क्रांति’ का सपना था और पी. सुन्दरैया, ए.के.गोपालन, ई.एम.एस नम्बूदरीपाद, टी.नागीरेड्डी, प्रमोद दासगुप्ता, हरे कृष्ण कोनार, ज्योति बसु जैसे नेताओं/संगठनकर्ताओं का एक एकजुट और प्रतिबद्ध नेतृत्व था जो सीपीआई नेतृत्व के संशोधनवादी लाइन के खिलाफ ‘वर्ग संघर्ष’ पर जोर देने की वकालत करते हुए नई राह पर निकला था. 

लेकिन 50 सालों में सीपीआई-एम कहाँ पहुंची? 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने कुल 98 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें से सिर्फ 9 सीटों (अगर केरल में वाम मोर्चा समर्थित दो स्वतंत्र उम्मीदवारों की जीत को जोड़ लिया जाए तो कुल 11 सीटों) पर उसे जीत मिली और उसे देश में पड़े कुल वोटों का सिर्फ 3.2 फीसदी वोट मिला. यह 1964 में सीपीआई-एम की स्थापना के बाद से अब तक का सबसे कम वोट प्रतिशत है.

ऐसा लगता है कि पार्टी नौ दिन चले अढाई कोस की तर्ज पर 50 साल में सवा तीन कोस चल पाई है. पार्टी की राजनीतिक ढलान साफ़ दिख रही है. पश्चिम बंगाल जहाँ सीपीआई-एम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने 1977 से 2011 तक एकछत्र राज किया और जो किसी जमाने में अभेद्य लाल दुर्ग समझा जाता था, वहां की राजनीति में वह क्रमश: अप्रासंगिक होने की ओर बढती हुई दिखाई दे रही है. पश्चिम बंगाल में पार्टी के वोटों में जिस तेजी से क्षरण हो रहा है, वह चौंकानेवाला है. पार्टी को राज्य में 2009 के आम चुनावों में 33.1 फीसदी, 2011 के विधानसभा चुनावों में 30 फीसदी और 2014 के आम चुनावों में मात्र 22.7 फीसदी वोट मिले.

इसके उलट राज्य में भाजपा के वोटों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. यह जले पर नमक छिडकने की तरह है. लेकिन सच यही है कि बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच हो रहे ध्रुवीकरण में सबसे ज्यादा नुकसान सीपीआई-एम को हो रहा है जिसके राजनीतिक आधार से समर्थकों के अलावा कार्यकर्त्ता और स्थानीय स्तर के नेता भी भाजपा की ओर जा रहे हैं. नतीजा, पार्टी 2014 के आम चुनावों में राज्य की 42 सीटों में से मात्र दो सीटें जीत पाईं जितनी की राज्य की राजनीति में हाशिए की पार्टी समझे जानेवाली भाजपा को मिलीं. यहाँ तक कि पार्टी ने 1964 में स्थापना के बाद 1967 में अपने पहले लोकसभा चुनाव राज्य से चार सीटें जीतीं थीं.

इसके अलावा पार्टी के दूसरे गढ़ केरल में भी स्थिति अच्छी नहीं है. वहां की बीस सीटों में से वाम-लोकतान्त्रिक मोर्चे (एलडीएफ) को कुल 8 सीटें (सीपीआई-एम को पांच) सीटें मिलीं जबकि पार्टी इसबार वहां से इसकी दुगुनी सीटें जीतने की उम्मीद कर रही थी. केरल में लगभग एक नियम की तरह हर पांच साल में एक बार सीपीआई-एम के नेतृत्ववाले एलडीएफ और एक बार कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूडीएफ को सत्ता और सीटें मिलती हैं. इस कारण पार्टी इस बार यहाँ से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कर रही थी लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी. उल्लेखनीय है कि केरल में 2011 के विधानसभा चुनावों में एलडीएफ बहुत मामूली अंतर से हार गया था.

लेकिन राज्य में पार्टी के करिश्माई नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन (1964 में गठित पार्टी के 32 प्रमुख नेताओं में से अब जीवित बचे दो नेताओं में से एक) और राज्य सचिव पिनराई विजयन के बीच दो धडों में बंट गई है. पिछले दस सालों से ज्यादा समय से दोनों नेताओं के बीच तीखे संघर्ष और खींचतान के कारण पार्टी का हाल बेहाल है. इसका नतीजा हाल के आम चुनावों में दिखाई पड़ा. लेकिन पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इस झगड़े को आज तक सुलझा नहीं सका है और इसके कारण भाजपा यहाँ भी अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है.

सीपीआई-एम के लिए अगर कोई राहत की बात है तो वह यह कि उत्तर पूर्व के राज्य त्रिपुरा में पार्टी की मजबूत पकड़ बनी हुई है. विधानसभा चुनावों के साथ 2014 के लोकसभा चुनावों में सीपीआई-एम ने राज्य की दोनों सीटें 64 फीसदी वोट के साथ जीत लीं. लेकिन इसे पार्टी से ज्यादा राज्य में मुख्यमंत्री माणिक सरकार और उनकी साफ़-सुथरी छवि और बेहतर सरकार की जीत माना जा रहा है. यही नहीं, अपने ज्यादा मजबूत गढ़ों में पिट गई सीपीआई-एम के लिए यह भले सांत्वना पुरस्कार की तरह हो लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में त्रिपुरा की जीत के कोई बहुत मायने नहीं हैं. इस जीत से पार्टी के दिन नहीं बहुरनेवाले हैं.
   
असल में, देश के तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में सबसे प्रभावी और ताकतवर पार्टी होने के कारण राष्ट्रीय राजनीति और खासकर गैर कांग्रेसी-गैर भाजपा तीसरे मोर्चे के अंदर सीपीआई-एम की जो हैसियत रही है, वह पश्चिम बंगाल और केरल में पार्टी की राजनीतिक फिसलन के कारण तेजी से ढलान की ओर है. याद रहे कि पार्टी के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने 2004 के आम चुनावों में अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया और उसे कुल 60 सीटें मिलीं. इस कारण उसकी यूपीए सरकार बनवाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही और इस सरकार में शामिल न होते हुए भी वह लगभग ड्राइवर की सीट पर थी.

हालाँकि 543 की संसद में 60 सीटें 10 फीसदी से कुछ ही ज्यादा बनती हैं लेकिन तथ्य यह है कि वास्तविक संसदीय मौजूदगी की तुलना में सीपीआई-एम और वाम मोर्चे का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव कहीं ज्यादा दिखाई पड़ा. यह एक अवसर था जब पार्टी और उसके नेतृत्व में वाम मोर्चा एक लम्बी राजनीतिक छलांग लगा सकता था. इसके लिए जरूरी था कि पार्टी अपने राजनीतिक प्रभाव के प्रमुख तीन राज्यों की सीमा को तोड़कर देश के अन्य हिस्सों खासकर हिंदी क्षेत्रों में विस्तार करे. पार्टी कांग्रेस में यह फैसला भी किया गया. पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने खुद आगे बढ़कर इसकी जिम्मेदारी भी ली.

लेकिन 2004 से लेकर 2014 के बीच देश और खासकर हिंदी क्षेत्रों में पार्टी के विस्तार का लक्ष्य तो दूर रहा, सीपीआई-एम ने अपने मजबूत किले भी गँवा दिए. आखिर ऐसा क्यों हुआ? कहने की जरूरत नहीं है कि इसका कोई एक कारण नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण सीपीआई-एम का राजनीतिक-वैचारिक विचलन और रणनीतिक भूलें हैं. पार्टी ने जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में एक ओर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध किया लेकिन दूसरी ओर, केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को उन्हीं नीतियों को आगे बढाने दिया. यही नहीं, खुद पश्चिम बंगाल में उन्हीं नीतियों को जोर-जबरदस्ती लागू करने की कोशिश की.

सिंगुर और नंदीग्राम में बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने पार्टी के समर्थन से जिस तरह लाठी-गोली के जरिए जमीन छीनने की कोशिश की, उसका नतीजा उसे भुगता पड़ा. यही नहीं, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार की राजनीतिक-प्रशासनिक नाकामियों जैसे पीडीएस घोटाला, रिजवानुर रहमान हत्याकाण्ड, सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की सबसे बदतर स्थिति का सामने आना और जंगलमहाल इलाके में दमन आदि ने वाम मोर्चे की पहले से ही घटती लोकप्रियता को और नीचे धकेल दिया. यही नहीं, पार्टी में जिस तरह से गुंडे, लम्पट, ठेकेदार, दलाल और भ्रष्ट तत्व घुस आये और जिला मुख्यालय से लेकर ग्राम पंचायत तक पार्टी के चहरे बन गए और समानांतर सरकार चलाने लगे, उससे आमलोगों में नाराजगी बढ़ी.

हालाँकि पार्टी ने ऐसे तत्वों को बाहर निकालने के लिए ‘शुद्धिकरण अभियान’ चलाया लेकिन वह आँख में धूल झोंकने की कोशिश ही साबित हुई. असल में, तीन दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता में रही पार्टी में जिस तरह का अहंकार और निश्चिंतता आ गई, उसने पार्टी में किसी तरह के बदलाव की सम्भावना खत्म कर दी. यहाँ तक कि सीपीआई-एम का राज्य और केन्द्रीय नेतृत्व किसी भी तरह की आलोचना सुनने को तैयार नहीं था, विरोध की हर आवाज़ को दबा दिया गया. पार्टी ने उन वाम बुद्धिजीवियों और छोटी पार्टियों की आलोचनाओं और विरोध का जवाब दमन से दिया जो उनसे सहानुभूति रखते थे. पार्टी नेतृत्व के इस रवैये ने उसे डूबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

लेकिन सीपीआई-एम का मौजूदा संकट सिर्फ पश्चिम बंगाल-केरल में पराजय के कारण भर नहीं है. राजनीति में हार-जीत चलती रहती है. भाजपा 1984 के आम चुनावों में सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी लेकिन अगले डेढ़ दशक में वह गठबंधन के जरिए केंद्र की सत्ता में और तीन दशकों में अकेले दम पर दिल्ली की सरकार में पहुँच गई. सीपीआई-एम का संकट कहीं ज्यादा गहरा और बड़ा है. उसका संकट यह है कि वह इन 50 सालों में वाम राजनीति को तीन राज्यों से बाहर नहीं ले जा पाई. उलटे इन राज्यों के बाहर जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भी उसका प्रभाव लगातार सिकुड़ता और सिमटता गया है.

खासकर हिंदी क्षेत्रों में वह जिस तरह से सांप्रदायिकता से लड़ने के नामपर अपनी स्वतंत्र पहचान और राजनीति को त्यागकर सत्तालोलुप, भ्रष्ट, परिवारवादी-जातिवादी और अवसरवादी राजनीति करनेवाली मध्यमार्गी पार्टियों और उनके नेताओं की पिछलग्गू बन गई, उसके कारण उसका विस्तार तो दूर जो जनाधार बचा था, वह भी उनका साथ छोड़कर मुलायम-लालू के साथ चला गया. सांप्रदायिकता से लड़ने के नामपर सीपीआई-एम ने जिस तरह से सामाजिक न्याय के नारे के नीचे जातियों की गोलबंदी और जोड़-गुणा की रणनीति को आगे बढ़ाया, उसकी सीमाएं और अंतर्विरोध शुरू से ही जाहिर थे लेकिन बुरी तरह पिट जाने के बावजूद वह आज तक इस रणनीति से आगे नहीं बढ़ पाई है.

असल में, सीपीआई-एम की पचास साल की राजनीति की सबसे बड़ी नाकामी यह है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी स्वतंत्र पहचान और पहलकदमी के बजाय हमेशा कोई कंधा खोजती रही. आश्चर्य नहीं कि पार्टी एक पेंडुलम की तरह पहले कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए गैर कांग्रेसी पार्टियों और यहाँ तक कि रणनीतिक रूप से भाजपा के साथ गलबहियां करने तक पहुँच गई और उसके बाद भाजपा के उभार को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ ब्रेकफास्ट/डिनर करने लगी. इस रणनीति पर चलते-चलते एक दौर ऐसा आया कि सीपीआई-एम और बाकी मध्यमार्गी पार्टियों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया.

इस दौर में हालत यह हो गई थी कि सी.पी.आई-एम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत बुर्जुआ राजनीति के चाणक्यमाने जाने लगे थे जिनकी सबसे बड़ी खूबीबुर्जुआ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच मध्यस्थता कराना,  जोड़तोड़ करना और बेमेल गठबंधनों को चलाना था. ऊपर से आ रहे इन संकेतों की तार्किक परिणति यह हुई कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम की हिंदी पट्टी की राज्य इकाइयों में भी सुरजीत की अनुकृतियाँ उभर आई कहने की जरूरत नहीं है कि सीपीआई-एम की यह रणनीति न सिर्फ बुरी तरह से नाकाम रही है बल्कि उसे इसका भारी राजनीतिक खामियाजा भी भुगतना पड़ा है.

यही नहीं, इस प्रक्रिया में सीपीआई-एम एक रैडिकल बदलाव की वामपंथी-कम्युनिस्ट पार्टी के बजाय सरकारी वामपंथी पार्टी में बदलती गई जहाँ उसका सबसे ज्यादा जोर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की सरकारों को बचाए रखने में लगने लगा. सरकार चलाने और उसे बनाए रखने के लिए वह मुद्दों को भी कुर्बान करने लगी. इसके कारण वह धीरे-धीरे अपने रैडिकल एजेंडे और मुद्दों को छोड़कर यथास्थितिवादी सरकारी पार्टी में तब्दील होती चली गई. पार्टी नेतृत्व में ऊपर से लेकर नीचे तक नौकरशाही और ‘बासिज्म’ हावी होने लगी, पार्टी जनसंघर्षों से दूर होने लगी, यहाँ तक कि खुद के शासित राज्यों में जनांदोलनों के दमन पर उतर आई और नए जनांदोलनों/विमर्शों जैसे छोटे राज्यों, पर्यावरण, नारी, आदिवासी-दलित के संवाद करने में नाकाम रही.

इसके साथ ही उसमें वह चमक और आकर्षण भी खत्म होने लगा जो किसी भी वामपंथी/कम्युनिस्ट पार्टी के रैडिकल बदलाव के एजेंडे में सहज रूप से होता है. हैरानी की बात नहीं है कि सीपीआई-एम की राजनीति और वैचारिकी आज छात्रों-युवाओं को उस तरह से आकर्षित नहीं कर पा रही है जिस तरह से कुछ दशकों पहले तक करती थी. इससे ज्यादा चौंकानेवाली बात क्या हो सकती है कि तीन राज्यों से बाहर उसकी ताकत और प्रभाव का चौथा राज्य माने जानेवाले जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में उसके छात्र संगठन-एसएफआई में पार्टी की राजनीतिक लाइन के खिलाफ खुला विद्रोह हो गया और पार्टी को पूरी यूनिट को भंग करना पड़ा.

इस सबके बीच ज्यादा चिंता की बात यह है कि अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने के खतरे का सामना कर रहे सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी नहीं दिख रही है और न ही उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है. उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का रवैया हैरान करनेवाला है.

अफ़सोस की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरीके से कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सीपीआई-एम कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है. कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है
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लेकिन अगले साल अप्रैल में पार्टी कांग्रेस की तैयारी कर रही सीपीआई-एम से जिस तरह की ख़बरें आ रही हैं, उससे यह आशंका बढ़ रही है कि भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद अपनी गलतियों उर्फ़ ऐतिहासिक भूलों से सीखने के बजाय वह एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है. यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. आम चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं
   
यह सीपीआई-एम के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए
पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं

लेकिन क्या सीपीआई-एम इसके लिए तैयार है

(यह आलेख 'तहलका' के लिए पिछले साल लिखा गया था, जब सीपीएम के पचास साल पूरे थे. आज जब सीताराम येचुरी पार्टी की विशाखापत्तनम कांग्रेस के बाद नए महासचिव चुने गए हैं, इस आलेख में उठाये गए सवाल एक बार फिर महत्वपूर्ण हो गए हैं)         

सोमवार, मई 19, 2014

हा-हा! वामपंथ दुर्दशा देखि न जाई

क्या सरकारी वामपंथ हाशिए से अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है?

लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे यानी सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई की ऐतिहासिक हार हुई है. वाम मोर्चे का यह प्रदर्शन पिछले तीन दशकों में अब तक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. सीटों और कुल वोटों दोनों के मामलों में आई गिरावट खतरे की घंटी है. सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई दोनों की राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता खतरे में पड़ गई है. पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम और भाजपा के वोटों में सिर्फ कुछ फीसदी वोटों का ही फर्क रह गया है.
इस हार से पहले से ही हाशिए पर पहुँच चुके सरकारी वामपंथ के लिए राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने का खतरा पैदा हो गया है. लेकिन लगता नहीं है कि वाम मोर्चे के नेतृत्व खासकर सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी और उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है.

उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का व्यवहार हैरान करनेवाला है.

सी.पी.आई-एम नेताओं का कहना है कि चुनावों में त्रिपुरा और केरल में पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक है जबकि पश्चिम बंगाल में खराब प्रदर्शन के लिए तृणमूल सरकार की गुंडागर्दी, आतंकराज और बूथ कब्ज़ा जिम्मेदार है.
माकपा महासचिव प्रकाश करात का तर्क है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे वामपंथी पार्टियों की वास्तविक ताकत को प्रदर्शित नहीं करते हैं. यह सही है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल ने सरकारी मशीनरी और गुंडों की मदद से आतंकराज कायम कर दिया है जिसकी मार वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर पड़ रही है.
लेकिन क्या सिर्फ इस कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथ का प्रदर्शन इतना खराब और लगातार ढलान की ओर है? जाहिर है कि सी.पी.आई-एम का राष्ट्रीय और स्थानीय नेतृत्व सच्चाई से आँख चुरा रहा है.

क्या यह सच नहीं है कि तृणमूल के गुंडों में तीन चौथाई वही हैं जो कल तक सी.पी.आई-एम के साथ खड़े थे? हैरानी की बात नहीं है कि नंदीग्राम के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले तत्कालीन माकपा सांसद लक्षमन सेठ आज पाला बदलकर तृणमूल की ओर खड़े हैं.

यह कड़वा सच है कि पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम ने जिस हिंसा-आतंक की राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उसका बेहिचक इस्तेमाल किया है, वह पलटकर उसे निशाना बना रही है.
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सी.पी.आई-एम पश्चिम बंगाल में न सिर्फ तृणमूल सरकार की खामियों और विफलताओं को उठाने में नाकाम रही है बल्कि राजनीतिक रूप से उसकी लोकलुभावन राजनीति का जवाब खोजने में कामयाब नहीं हुई है. उसके पास न तो राज्य की राजनीति में कोई नया आइडिया और मुद्दा है और न ही राष्ट्रीय राजनीति में वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा राजनीति के लिए कोई चमकदार आइडिया पेश कर पा रही है.  
इसका नतीजा केरल में भी दिख रहा है. देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद केरल में सी.पी.आई-एम उसकी धुरी नहीं बन पाई तो उसका कारण क्या है? लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के बदतर प्रदर्शन और केरल में फीके प्रदर्शन को एक मिनट के लिए भूल भी जाएँ तो देश के अन्य राज्यों में वामपंथी पार्टियों की दुर्गति के लिए कौन जिम्मेदार है?

खासकर हिंदी प्रदेशों में सरकारी वामपंथ की ऐसी दुर्गति का क्या जवाब है? हालाँकि हिंदी प्रदेशों में वामपंथ की दुर्गति कोई नई बात नहीं है लेकिन इन चुनावों में वह लगभग अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ चला है.

इसकी वजह यह है कि हिंदी प्रदेशों और पंजाब सहित महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में आम आदमी पार्टी सरकारी वामपंथ के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर आई है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी वामपंथ ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा वैकल्पिक राजनीति को जिस तरह से सपा-राजद-जे.डी-यू-जे.डी-एस,बी.जे.डी,द्रुमुक-अन्ना द्रुमुक-वाई.एस.आर.पी जैसी उन मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी गठबंधन की बंधक और जातियों के गठजोड़ तक सीमित कर दिया है जो खुद भ्रष्टाचार और कारपोरेट-परस्त नीतियों के आरोपों से घिरी हैं.
इस कारण आज वाम मोर्चे ने अपनी स्वतंत्र पहचान खो दी है और उसे भी सपा-बसपा-आर.जे.डी जैसी तमाम मध्यमार्गी, अवसरवादी, सत्तालोलुप और कारपोरेट-परस्त पार्टियों की भीड़ में शामिल पार्टियों में मान लिया गया है जो धर्मनिरपेक्षता के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाती हैं.

कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के साथ यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निकटता और उनके दुमछल्ले की छवि सरकारी वामपंथ के लिए भारी पड़ी है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन अवसरवादी और सत्तालोलुप मध्यमार्गी पार्टियों के संग-साथ के लिए वामपंथ ने अपने रैडिकल मुद्दों को छोड़ने के साथ और विचारों को भी लचीला बना दिया है.   

हैरानी की बात नहीं है कि इन चुनावों में मुद्दों, विचारों और व्यक्तियों की लड़ाई और बहसों में वामपंथ कहीं नहीं था. ऐसा लग रहा था जैसे लड़ाई शुरू होने से पहले ही वामपंथ ने हथियार डाल दिए हों. वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग और वैचारिक रूप से दुविधा में दिख रहा था. पूरे चुनाव के कथानक में वाम राजनीति की कहीं कोई चर्चा नहीं थी. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारी वामपंथ और उसका वैचारिक-राजनीतिक दिवालियापन जिम्मेदार था.
यही नहीं, धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरह से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सरकारी वामपंथ कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है.

कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है.

आशंका यह है कि इससे सीखने के बजाय भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद सरकारी वामपंथ एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है.
यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं.   
यह सरकारी वामपंथ के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं.

लेकिन क्या सरकारी वामपंथ इसके लिए तैयार है?         

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

क्यों जा रहा है वामपंथ हाशिए पर?

आम आदमी पार्टी से क्या सीख सकता है वामपंथ?

हालिया विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की भारी हार, भाजपा की प्रभावी जीत और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के चमकदार प्रदर्शन ने राष्ट्रीय राजनीति खासकर उत्तर भारत में वामपंथ की सिकुड़ती भूमिका और उसके लगातार हाशिए पर खिसकते जाने की प्रक्रिया को एक बार फिर रेखांकित किया है.

यह सच है कि इन पाँचों राज्यों में छिटपुट इलाकों को छोड़कर मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों और दूसरी रैडिकल वामपंथी शक्तियों की राजनीतिक-सांगठनिक रूप से कोई खास मौजूदगी नहीं थी, इसके बावजूद सभी रंग और विचारों के वामपंथी दलों और संगठनों के लिए बड़ी चिंता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनीति का दक्षिणपंथी झुकाव बढ़ता जा रहा है और वामपंथ हाशिए पर जा रहा है.
यही नहीं, वामपंथी पार्टियों के लिए चिंता की बात यह भी है कि कांग्रेस और भाजपा और यहाँ तक कि पारंपरिक मध्यमार्गी क्षेत्रीय पार्टियों से ऊबे और नाराज मतदाताओं के जरिये बन रहे ‘तीसरे स्पेस’ के एक वैकल्पिक दावेदार और नेता के बतौर आम आदमी पार्टी सामने आ गई है जिसके शानदार प्रदर्शन की धमक दिल्ली से बाहर देश के बड़े हिस्से में सुनाई पड़ रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियां खुद को इस ‘तीसरे स्पेस’ की स्वाभाविक दावेदार मानती रही हैं और अगले आम चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी क्षेत्रीय दलों के ढीले-ढाले तीसरे मोर्चे को खड़ा करने के मनसूबे बाँध रहे थे.

लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत ने इस वामपंथी पार्टियों के तीसरे मोर्चे के माडल की राजनीतिक वैधता पर सवालिया निशान लगा दिया है.
आखिर भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, कुशासन, बदतर कानून-व्यवस्था, बिजली-सड़क-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य की खराब स्थिति से लेकर जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट तक और धनबल-बाहुबल-लालबत्ती की राजनीतिक संस्कृति से लेकर आम जनता के साथ संवाद के मामले में कांग्रेस और भाजपा की सरकारों की तुलना में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय दलों की सरकारों का प्रदर्शन कहाँ से बेहतर है?
उल्टे कई मामलों में वे कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से बदतर ही हैं. आखिर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार किस मामले में कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से बेहतर है?  
यही नहीं, पिछले दो-ढाई दशकों में सिर्फ सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए माकपा के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे की पहल पर बननेवाले अवसरवादी तीसरे मोर्चे की हकीकत लोगों को पता चल चुकी है. हैरानी की बात नहीं है कि २००९ के आम चुनावों से ठीक पहले परमाणु समझौते के खिलाफ यू.पी.ए-एक से बाहर निकले वाम मोर्चे ने जैसे-तैसे बसपा से लेकर टी.डी.पी तक को इकठ्ठा करके मोर्चा बनाने की कोशिश की थी जिसे लोगों ने पूरी तरह से नकार दिया था.

इस कथित तीसरे मोर्चे की दयनीय हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज तीसरे मोर्चे की तमाम चर्चाओं के बावजूद कोई भी गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दल चुनावों से पहले एक नीतिगत और कार्यक्रमों पर आधारित गठबंधन के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ता है और वे सभी चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहते हैं.

सबसे हैरान करनेवाली बात यह है कि खुद माकपा के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे की मुख्य पार्टियां भी चंद संसदीय सीटों के वास्ते एक-दूसरे के खिलाफ अवसरवादी गठबंधन के लिए हाथ-पैर मारती दिखाई दे रही हैं.
उदाहरण के लिए, माकपा आंध्र प्रदेश में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जगन मोहन रेड्डी की वाई.एस.आर कांग्रेस से गठबंधन की जुगत में है तो भाकपा तेलंगाना क्षेत्र में टी.आर.एस को रिझाने की कोशिश कर रही है. इसी तरह बिहार में भाकपा नीतिश कुमार की जे.डी-यू को गले लगाने के लिए बेताब है तो माकपा लालू प्रसाद की आर.जे.डी के इंतज़ार में है.
यही नहीं, उत्तर प्रदेश और उडीसा से लेकर तमिलनाडु तक वाम मोर्चे की दोनों पार्टियां साथियों की तलाश में इस या उस मध्यमार्गी दल की गणेश परिक्रमा करने में जुटी हैं.   
लेकिन वाम मोर्चे की घटते हुए राजनीतिक रसूख का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कोई उन्हें बहुत भाव नहीं दे रहा है और न ही उनके दावों के बावजूद कथित तीसरे मोर्चे का गुब्बारा फूल रहा है.

उल्लेखनीय है कि दो महीने पहले वाम मोर्चे की पहल पर आयोजित धर्मनिरपेक्ष सम्मेलन में आए चंद्रबाबू नायडू भाजपा की ओर कदम बढ़ा चुके हैं जबकि जगन मोहन भाजपा के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहे हैं.

यही नहीं, वाम मोर्चे के कथित तीसरे मोर्चे के प्रस्तावित साथी जैसे नवीन पटनायक से लेकर जयललिता तक कभी भी पलता मारकर भाजपा के पाले में जा सकते हैं जबकि मुलायम और लालू यादव कांग्रेस के खेमे में जा सकते हैं.

हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद अगरतल्ला में माकपा की केन्द्रीय समिति की ताजा बैठक के बाद पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी पार्टियों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाने का संकल्प दोहराया है.
इससे साफ़ है कि माकपा और उसके नेतृत्ववाला वाम मोर्चा हालिया चुनावों और उसके नतीजों खासकर आम आदमी पार्टी की कामयाबी से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है.
वह समझ नहीं पा रही है कि आम आदमी पार्टी की जीत कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ कांग्रेसी संस्कृति में रमी सपा-बसपा-तृणमूल-जे.डी.यू-डी.एम.के-बी.जे.डी-टी.डी.पी.-ए.आई.डी.एम.के जैसी सभी मध्यमार्गी पार्टियों के खिलाफ एक वैकल्पिक राजनीति की जीत है जो नीतियों-कार्यक्रमों से लेकर विचार-राजनीतिक व्यवहार तक में एक वास्तविक विकल्प की मांग कर रही है.   
ऐसा लगता है कि माकपा और वाम मोर्चा इस सन्देश के निहितार्थ को समझ नहीं पा रहे हैं और अभी भी जिस तरह बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को सीने से चिपकाए रहती है, उसी तरह राजनीतिक रूप से पिट चुके तीसरे मोर्चे को गले से लगाये हुए हैं.

यही नहीं, उनका गुप्त कांग्रेस प्रेम भी खत्म होता नहीं दिख रहा है. पिछले राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के समर्थन से यह साफ़ हो गया है कि चुनावों के बाद माकपा एक बार फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ी हो सकती है. इसके कारण उसकी स्थिति न सिर्फ हास्यास्पद होती जा रही है बल्कि वाम मोर्चे की साख गिरी है और वामपंथ की चमक फीकी पड़ी है.   

असल में, माकपा और वाम मोर्चे की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह स्वतंत्र पहलकदमी लेने और देश के सामने एक मुकम्मल वाम विकल्प देने का साहस नहीं कर रही है. पिछले दो-ढाई दशकों से देश के अधिकांश हिस्सों खासकर उत्तर भारत में अपनी कमजोर स्थिति और सांप्रदायिक ताकतों के उभार का हवाला देकर माकपा ने वामपंथ को कभी लालू, कभी मुलायम और कभी कांग्रेस का पिछलग्गू बना दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी उसे भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है. इसके कारण उत्तर भारत में वामपंथी पार्टियों का बचा-खुचा जनाधार भी खिसक चुका है. नतीजा यह कि अब वे पूरी तरह से इन मध्यमार्गी पार्टियों की बैसाखी पर निर्भर हैं.
लेकिन इसका सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान यह हुआ है कि आज भारतीय राजनीति में आमलोगों को वामपंथ और बाकी मध्यमार्गी पार्टियों के बीच कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है.

यह सच है कि वामपंथी पार्टियों के नेताओं और सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में डूबे दलों और नेताओं के साथ खड़े होकर वाम पार्टियां भी दलों के दलदल में कमोबेश वैसी ही नजर आती हैं.

यहाँ तक कि आर्थिक नीतियों के मामले में भी वाम मोर्चे की कथनी-करनी का अंतर सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं ने मिटा दिया.

सच पूछिए तो आज वामपंथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी स्वतंत्र पहचान और आमलोगों के बीच अपनी राजनीतिक साख को बहाल करना है. इसके लिए वाम पार्टियों को जड़ों की ओर लौटना होगा.
इसका अर्थ यह है कि उन्हें मध्यमार्गी दलों का पिछलग्गू बनना छोड़ना होगा, आम जनता के बुनियादी हकों के लिए रैडिकल संघर्षों को आगे बढ़ाना होगा और देश के सामने साहस के साथ एक मुकम्मल वाम विकल्प पेश करने की तैयारी करनी होगी. वामपंथ को यह जोखिम उठाना ही होगा क्योंकि बिना राजनीतिक जोखिम उठाए वह खुद को हाशिए पर जाने से नहीं रोक सकता है.
आम आदमी पार्टी की शानदार सफलता वामपंथ के लिए चेतावनी है. लेकिन वाम पार्टियां चाहें तो स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी, उसके लिए जोखिम उठाने और नए राजनीतिक प्रयोग करने के मामले में आम आदमी पार्टी से बहुत कुछ सीख सकती हैं.

सवाल यह है कि क्या वाम पार्टियां सीखने और इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?

('नेशनल दुनिया' के 20 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)