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सोमवार, जून 03, 2013

राजनीति या बंदूक: किसके हाथ में है कमान?

अराजक सैन्य दुस्साहसवाद भारी पड़ सकता है माओवादी राजनीति पर 

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अगर देश और समाज में रैडिकल बदलाव लाने के उद्देश्य से बनी एक राजनीतिक पार्टी है तो उसे इस सवाल का जवाब देना होगा कि छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमले और २७ कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं और सुरक्षाकर्मियों की हत्या से उसे राजनीतिक रूप से क्या हासिल हुआ है?
खुद पार्टी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए दावा है कि उसने बस्तर के ‘हजारों निर्दोष आदिवासियों पर सलवा जुडूम के जरिये जुल्म ढानेवाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा और राज्य में जनविरोधी नीतियों को लागू करनेवाले कांग्रेस नेताओं का सफाया करके बदला लिया है.’
सवाल यह है कि क्या यह ‘बदला लेनेवाली’ भाषा एक रैडिकल बदलाव के लिए आम जनता को गोलबंद करके राजनीतिक-वैचारिक लड़ाई लड़नेवाली कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा है या किसी अराजक-कठमुल्ला आतंकवादी संगठन की भाषा?

उससे ज्यादा बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि व्यापक जनतांत्रिक आन्दोलनों और राजनीतिक पहलकदमियों से अलग-थलग इस तरह की सैन्य कार्रवाइयों की ‘राजनीति’ क्या है?

यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसी कोई भी सैन्य कार्रवाई चाहे जितनी धमाकेदार हो और उसका तात्कालिक प्रभाव चाहे जितना नाटकीय हो लेकिन अगर उसके पीछे की राजनीति सिर्फ ‘वर्ग-शत्रुओं से बदला लेने’ यानी ‘सफाया लाइन’ तक सीमित है तो उसकी परिणति एक तरह के अराजक राबिनहुडवाद में ही होनी तय है.

मुश्किल यह है कि बहुतेरे मध्यवर्गीय क्रांतिकारियों के लिए ‘रोमांटिक’ लेकिन अपने मूल चरित्र में अराजक राबिनहुडवाद से सबसे ज्यादा नुकसान रैडिकल बदलाव की राजनीति को ही होता है.

इसकी वजह यह है कि यह सैन्यवादी राबिनहुडवाद गरीब जनता को लोकतांत्रिक जनसंघर्षों में उतरने और कारपोरेट लूट और सरकारों की जनविरोधी नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ जन प्रतिरोध खड़ा करने से रोकता है.

वे न सिर्फ बंदूक और सैन्य दलम पर निर्भर होते चले जाते हैं बल्कि अन्याय और जुल्म के खिलाफ लड़ाई में मूकदर्शक बनकर रह जाते हैं. यही नहीं, ‘बदला लेने और सफाया’ करने की राजनीति से हिंसा-प्रतिहिंसा का जो दौर शुरू होता है, उसमें आम गरीबों के जनसंघर्षों और लोकतांत्रिक पहलकदमियों के लिए भी जगह और सम्भावना और भी खत्म होती चली जाती है.

छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड और पश्चिम बंगाल तक माओवादी राजनीति की समस्या यह है कि वह आम गरीब जनता खासकर आदिवासियों को प्रतिरोध आंदोलन में उतारने और बड़े जनसंघर्ष खड़ा करने में नाकाम रही है. वह ऐसा करने में इसलिए नाकाम रही है क्योंकि उसकी वैचारिकी में बंदूक उसकी राजनीति पर हावी हो गई है.
इसके कारण जहाँ भी गरीब लोगों ने जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट और अन्याय के खिलाफ लड़ने की पहल की और जनसंघर्षों में उतरे, वहां भी माओवादी पार्टी की सैन्य कार्रवाइयों ने उन जनतांत्रिक आन्दोलनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है. उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में लालगढ़ और जंगलमहल के आंदोलन को लीजिए, जहाँ भाकपा (माओवादी) की सैन्य कार्रवाइयों ने एक बड़े जन-उभार की संभावनाओं को खत्म कर दिया.
यह सच है कि रैडिकल बदलाव की नक्सल राजनीति खासकर माओवादी पार्टियों में ‘वर्ग-शत्रुओं के सफाए’ की यह लाइन नई नहीं है लेकिन नक्सलबाड़ी उभार के बाद पिछले पैंतालीस वर्षों में गंगा से गोदावरी तक में बहुत पानी बह चुका है.

इस बीच, वैश्विक स्तर पर भी और देश में भी वाम-क्रांतिकारी राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में बहुत बदलाव आया है. इस बीच, दुनिया भर में खासकर लातिन अमेरिका और दक्षिण पूर्वी एशिया में शासक वर्गों के तीखे हमलों के कारण माओवादी पार्टियों और आन्दोलनों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और वे ढलान पर हैं.

दूसरी ओर, नेपाल में नेकपा (माओवादी) ने न सिर्फ हथियार डालकर खुली लोकतांत्रिक राजनीति में दखल देने का ऐतिहासिक फैसला किया बल्कि चुनाव लड़कर सत्ता में भागीदारी भी की है. लेकिन भारत में लगता है कि भाकपा (माओवादी) ने दुनिया भर और खुद देश के अनुभवों से कोई खास सबक नहीं सीखा है.
उसकी सशस्त्र क्रान्ति की लाइन पर अत्यधिक जोर और उसके कारण बंदूक पर अति निर्भरता ने उसकी राजनीति को न सिर्फ पीछे ढकेल दिया है बल्कि राजनीतिक रूप से भी वह अलग-थलग पड़ गई है. यही नहीं, इसके कारण वह पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के साथ एक ऐसे घिसाव-थकाव की लड़ाई में फंस गई है जहाँ उसे रणनीतिक और सैन्य रूप से भी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है.
क्या यह सच नहीं है कि भाकपा (माओवादी) की केन्द्रीय समिति के आधे से अधिक सदस्य या तो गिरफ्तार कर लिए गए हैं या मारे गए हैं? यही नहीं, भारतीय राज्य ने माओवाद के खिलाफ जिस तरह से युद्ध छेड दिया है, उसका मुकाबला सिर्फ सैन्य प्रतिकार या गुरिल्ला युद्ध से नहीं किया जा सकता है. ऐसा कोई भी मुकाबला आत्मघाती होगा.

इस युद्ध का जवाब सिर्फ आम जनता की एकजुटता और जन-प्रतिरोध से ही दिया जा सकता है.

लेकिन छत्तीसगढ़ के ताजा सैन्य हमले को देखकर लगता है कि भाकपा (माओवादी) अपनी सैन्य ताकत को लेकर अति-आत्मविश्वास का शिकार हो गई है.

ऐसे ही, अति-आत्मविश्वास के कारण श्रीलंका में एल.टी.टी.ई (लिट्टे) का सफाया हो गया जबकि लिट्टे की सैन्य ताकत और लड़ने की तैयारी भाकपा (माओवादी) से कई गुना ज्यादा थी.

दूर जाने की जरूरत नहीं है. इसी सैन्य दुस्साहसवाद के कारण खुद भाकपा (माओवादी) को जिस तरह से आंध्र प्रदेश में बड़े धक्के लगे और वहां से पीछे हटना पड़ा, वह किसी से छुपा नहीं है. यही नहीं, पश्चिम बंगाल में लालगढ़ में कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के अर्द्धसैनिक बलों के हाथों मारे जाने और पूरे आंदोलन को धक्के की घटना भी बहुत पुरानी नहीं है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राज्य न तो सैन्य रूप से और न ही राजनीतिक रूप से इतना कमजोर है कि उसे देश के एक छोटे से इलाके में गुरिल्ला टुकडियों और ‘मुक्त क्षेत्र’ की ताकत के बल पर परास्त किया जा सके.

सच पूछिए तो कांग्रेस नेताओं पर इस तरह से हमला और उनकी हत्या करके भाकपा (माओवादी) खुद ही शासक वर्गों के ट्रैप में फंस गई है जो माओवादी आंदोलन को कुचलने के लिए और अधिक सैन्य ताकत के इस्तेमाल का बहाना तलाश रहा था.
इस तरह उसने खुद ही सैन्य दमन को आमंत्रित किया है और शासक वर्ग की पार्टियों को एकजुट कर दिया है. यह अराजक सैन्य दुस्साहसवाद उसे बहुत भारी पड़ सकता है. साफ़ है कि माओवादी राजनीति हिंसा-प्रतिहिंसा की एक अंधी गली में फंस गई है. उसकी राजनीति पर बंदूक के हावी होने और राजनीति के पीछे चले जाने के कारण पार्टी कोई भी राजनीतिक पहल नहीं कर पा रही है.
यहाँ तक कि कई क्षेत्रों और इलाकों में भाकपा (माओवादी) के राजनीतिक नेतृत्व का अपनी सशस्त्र गुरिल्ला टुकडियों पर नियंत्रण नहीं रह गया है. इस तरह के कई हथियारबंद दस्ते न सिर्फ वसूली दस्ते में पतित हो गए हैं बल्कि कुछ एक-दूसरे का ही खून बहाने पर उतर आए हैं. झारखण्ड में कुछ दस्ते तो पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के एजेंट बन गए हैं.

लेकिन इसमें हैरानी की बात नहीं है. बंदूक पर अति निर्भरता के कारण ऐसा कई और आन्दोलनों के साथ पहले भी हो चुका है. पिछले कुछ महीनों में खुद भाकपा (माओवादी) के अंदर से जिस तरह की बहसें (जैसे उडीसा में राज्य सचिव सब्यसाची पांडा के विद्रोह) सामने आईं हैं, उससे साफ़ है कि माओवादी राजनीति के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं.
 
अफसोस यह है कि इसपर पुनर्विचार करने के बजाय इसे सुकमा हमले जैसी धमाकेदार सैन्य कार्रवाइयों से ढंकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इससे अंतत: रैडिकल बदलाव की राजनीति का ही नुकसान हो रहा है.                      

('राष्ट्रीय सहारा' के 1 जून के अंक में 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, मई 05, 2012

वामपंथी अराजकतावाद का शिकार हो गया है माओवाद

माओवादी आंदोलन में राजनीति पर बंदूक हावी हो गई है


माओवादियों द्वारा पहले उडीशा में बी.जे.डी विधायक झीना हिकाका और दो इतालवी पर्यटकों और फिर छत्तीसगढ़ में सुकमा के कलक्टर अलेक्स पाल मेनन के अपहरण और उन्हें बंधक बनाए जाने की घटनाओं से एक बार फिर साफ़ हो गया है कि माओवादी आंदोलन न सिर्फ भारतीय राज्य के साथ एक अंतहीन सैन्य घिसाव-थकाव की लड़ाई में फंस गया है बल्कि उसकी राजनीति पर बंदूक पूरी तरह से हावी हो गई है.
माओवादी आंदोलन के पैरोकारों और उसके रोमांटिक समर्थकों को ‘अपहरण-बंधक बनाने और राज्य सरकारों को समर्पण करने के लिए मजबूर करनेवाली’ ये सैन्य कार्रवाइयों चाहे जितनी ‘साहसिक, चमकदार और सफल’ लगती हों लेकिन सच यह है कि इनमें सी.पी.आई (माओवादी) की हताशा, दिशाहीनता और बिखराव को साफ़ देखा जा सकता है.
खुद लेनिन ने लिखा है कि “अराजकतावाद हताशा की पैदाइश है.” अफ़सोस की बात यह है कि माओवादी आंदोलन भी अराजकतावाद का शिकार हो गया है. तथ्य यह है कि पिछले तीन-चार वर्षों में भारतीय राज्य के साथ खुले-छिपे युद्ध में माओवादी आंदोलन को न सिर्फ भारी सैन्य नुकसान उठाना पड़ा है बल्कि राजनीतिक तौर भी उसकी स्थिति कमजोर हुई है.
आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ सालों में भारतीय राज्य द्वारा माओवादी आंदोलन को ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ बताये जाने और उसके खिलाफ खुला युद्ध छेड दिए जाने के बाद से सी.पी.आई (माओवादी) के शीर्ष नेतृत्व के आधे से अधिक नेता या तो मारे गए हैं या पकड़ लिए गए हैं.
बढते राज्य दमन और हमले के कारण हालत यह हो गई है कि माओवादी पार्टी के विभिन्न राज्य और क्षेत्रीय इकाइयों के बीच संपर्क कमजोर हो गया है, पार्टी एक तरह से कई गुटों में बंट गई है, अलग-अलग इलाकों में सक्रिय पार्टी इकाइयों के बीच तालमेल नहीं है और वे स्वतंत्र इकाइयों की तरह काम करने लगी हैं, इससे आपसी प्रतिद्वंद्विता और खींचतान बढ़ी है, मनमानी और अराजक सैन्य कार्रवाइयां बढ़ी हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कारण माओवादी पार्टी कोई बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने में नाकाम रही है.
नतीजा यह कि वह सिर्फ बचाव की लड़ाई लड़ रही है जिसमें जब-तब सुरक्षा बलों के खिलाफ गुरिल्ला सैन्य कार्रवाइयों को छोड़ दिया जाये तो पार्टी राजनीतिक रूप से कहीं दिखाई नहीं देती है. चाहे वह झारखंड हो या छत्तीसगढ़ या उडीशा या आंध्र प्रदेश- अपनी सक्रियता के सभी इलाकों में सी.पी.आई (माओवादी) अच्छे-खासे जनाधार के बावजूद राजनीतिक रूप से न सिर्फ हाशिए पर है बल्कि इन राज्यों/क्षेत्रों की राजनीति में उसका कोई हस्तक्षेप भी नहीं दिखाई देता है.
हैरानी की बात नहीं है कि उन सभी इलाकों में जहाँ माओवादियों का सबसे अधिक प्रभाव और सक्रियता है, कहते हैं कि वहाँ उनकी जनताना सरकार भी चलती है, वहाँ भाजपा और दूसरे शासकवर्गीय दलों का बोलबाला है.
माओवादियों के इस राजनीतिक हाशियाकरण की बड़ी वजह उनकी वैचारिक-रणनीतिक-कार्यनीतिक लाइन में निहित है जो देश में ‘क्रांति और बदलाव’ के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर आँख मूंदकर चल रहे हैं. लेकिन पिछले पचास वर्षों में दुनिया और भारत में राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक रूप से इतना बदलाव आया है कि माओवादियों की सशस्त्र क्रांति की लाइन मौजूदा दौर में आत्महत्या का पर्याय बन गई है.
खासकर जब वह लाइन जनता को गोलबंद करके उनकी फौरी और दूरगामी मांगों पर खुली राजनीतिक कार्रवाइयों में उतारने और राजनीतिक हस्तक्षेप का निषेध करती हो. इससे जनता के राजनीतिकरण, गोलबंदी और उसकी पहलकदमी खोलने का काम पीछे छूट गया है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रभाव के क्षेत्रों में खुद आम जनता की माओवादी गुरिल्लाओं के बंदूकों पर निर्भरता इस हद तक बढ़ गई है कि दमन की स्थिति में वह कोई राजनीतिक प्रतिरोध नहीं कर पाती है और माओवादी सैन्य दस्तों का इंतज़ार करती रह जाती है.
जनता की भूमिका मूकदर्शक और ज्यादातर मामलों में माओवादी सैन्य कार्रवाइयों के बाद जवाबी पुलिसिया जुल्म और दमन की मार झेलने तक सीमित हो जाती है. दूसरी ओर, राज्य दमन के प्रतिरोध में जवाबी सैन्य कार्रवाइयों का दबाव और आकर्षण बढ़ता जाता है. नतीजे में, माओवादी सैन्य दस्ते सुरक्षा बलों पर जवाबी हमले करते हैं और यह एक दुष्चक्र की तरह बन जाता है.
असल में, राज्य भी यही चाहता है कि यह लड़ाई उसके और माओवादी गुरिल्लाओं के बीच रहे और जनता इसमें मूकदर्शक बनी रहे. माओवादी राजनीति राज्य के इस ट्रैप में फंस गई है. इस तरह माओवादी आंदोलन सुरक्षा बलों के साथ घिसाव-थकाव की एक ऐसी लड़ाई में फंस गया है जहाँ बंदूक ही उसकी राजनीति की दिशा भी तय करने लगी है.
यह एक ऐसा राजनीतिक विचलन है जिसमें फंसने के बाद माओवादी आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन कम और सैन्य दस्ता अधिक लगता है जिसकी कमान राजनीति के बजाय बंदूक के हाथों में चली गई है. इसके कारण पूरा आंदोलन एक सैन्यवादी दलदल में फंस गया है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्याओं, जातिवादी नरसंहारों, अपहरण-फिरौती से लेकर ठेकेदारों-बड़ी कंपनियों से लेवी वसूल कर उन्हें प्राकृतिक और खनिज संसाधनों के दोहन की इजाजत देना है.
सवाल यह है कि जो माओवादी आंदोलन जंगलों और आदिवासी इलाकों में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा प्राकृतिक/खनिज संसाधनों की लूट और मनमाने दोहन को सबसे बड़ा मुद्दा बनाता है, वह उन्हीं कंपनियों को लेवी लेकर लूटने की छूट क्यों दे देता है?
यही नहीं, माओवादी आंदोलन में राजनीति के पीछे चले जाने का सबूत यह भी है कि वह अधिकांश मौकों पर उन शासकवर्गीय पार्टियों के लिए एक मोहरा भर बन जाता है जो उसका राजनीतिक-रणनीतिक इस्तेमाल करके किनारे छोड़ देते हैं. आंध्र प्रदेश में पहले चंद्रबाबू नायडू, फिर वाई एस राजशेखर रेड्डी ने, हाल में बंगाल में ममता बैनर्जी ने, बिहार में लालू प्रसाद ने चुनावों के दौरान उनका इस्तेमाल किया और बाद में उनके खिलाफ सैन्य आपरेशन शुरू करने में कोई हिचक नहीं दिखाई.
असल में, वाम आंदोलन में बंदूक के प्रति अति आकर्षण कोई नई बात नहीं है. लेकिन इसके साथ ही वाम राजनीति में बंदूक की भूमिका और उसकी शक्ति और सीमाओं को लेकर चलनेवाली बहसें भी बहुत पुरानी हैं. भारत में भी कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत से ही ये सवाल उठते रहे हैं. यहाँ तक कि भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों के बीच भी ये बहसें चलीं और भगत सिंह ने ‘बम का दर्शन’ शीर्षक लंबा लेख लिखकर स्थिति साफ़ की.
आज़ादी के बाद भी देश में क्रांति और बदलाव के रास्ते को लेकर ये बहसें जारी रहीं. वाम आंदोलन में इस सवाल पर विभाजन भी हुए और बंदूक का रास्ता पकड़नेवाले कई नक्सलवादी वाम दलों ने बंदूक के बजाय जनसंघर्षों और जन गोलबंदी की खुली राजनीति का रास्ता अपनाया जिनमें सी.पी.आई (एम.एल-लिबरेशन) प्रमुख है.
लेकिन माओवादी अभी भी हथियारबंद क्रांति की राह पर डटे हुए हैं. लेकिन बंदूक पर अति निर्भरता और राजनीति के पीछे चले जाने के कारण यह पूरा आंदोलन वामपंथी अराजकतावाद में फंस गया है. उसके विचलन साफ़ दिखाई दे रहे हैं.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि माओवादी आंदोलन में इसे लेकर कोई पुनर्विचार या बहस नहीं दिखाई दे रही है और बुनियादी बदलाव का एक बड़ा आंदोलन बिखरता जा रहा है. यह एक त्रासदी है लेकिन इसके लिए माओवादी खुद सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 5 मई को प्रकाशित टिप्पणी: http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17)