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बुधवार, अक्टूबर 27, 2010

क्या लेकर आ रहे हैं ओबामा?

भारत पर परमाणु उत्तरदायित्व कानून में बदलाव से लेकर अमेरिकी कंपनियों के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने का दबाव बढ़ रहा है

दिल्ली एक बार फिर सज रही है. खासकर संसद भवन को झाडा-पोछा और सजाया जा रहा है. संसद के कर्मचारियों की वर्दी को बदलने और उसे नया रंग देने पर विचार चल रहा है. पांच सितारा होटल आई.टी.सी मौर्या शेरेटन को तीन दिन के लिए बुक कर दिया गया है. पकवानों की सूची बन रही है. सुरक्षा बंदोबस्त को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. दिल्ली की ही तरह मुंबई में भी सडकों को ठीक किया जा रहा है. लब्बोलुआब यह कि सरकार मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.

जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोई सामान्य मेहमान नहीं हैं. भारतीय शासक वर्गों ने जब से अमेरिका को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ मानते हुए उसके साथ अपना वर्तमान और भविष्य जोड़ लिया है, तब से उनके लिए हर अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा ईश्वरीय आगमन से कम नहीं होता है. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ओबामा के स्वागत में बिछी जा रही है. ओबामा को खुश करने के लिए हर जतन किया जा रहा है. हालांकि वे नवंबर के पहले सप्ताह में भारत पहुंच रहे हैं. लेकिन इस यात्रा के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक सरगर्मियां पिछले कई महीनों से जारी हैं. यात्रा की तैयारी में दोनों देशों के दर्जनों छोटे-बड़े अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की आवाजाही लगी है.

हमेशा की तरह कारपोरेट मीडिया इस यात्रा को लेकर माहौल बनाने में जुट गया है. इस यात्रा से भारत-अमेरिका सामरिक और रणनीतिक मैत्री के और गहरे होने से लेकर ओबामा से भारत को और क्या मिल सकता है, इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं. कई देशी-विदेशी थिंक टैंक भारत-अमेरिका मैत्री का रोड मैप पेश करते हुए यह बताने में लग गए हैं कि इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए दोनों सरकारों को क्या करना चाहिए?

बुश प्रशासन के दो बड़े अधिकारियों से सजे थिंक टैंक- सेंटर फार ए न्यू अमेरिकन सेक्यूरिटी (सी.एन.ए.एस) ने बाकायदा एक परचा जारी करके इस बात की वकालत की है कि एशिया में चीन की बढ़ती ताकत से गड़बडाते शक्ति संतुलन को दुरुस्त करने के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है.

थिंक टैंक के मुताबिक इसके लिए अमरीका को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावे का खुलकर समर्थन करना चाहिए बल्कि भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाना चाहिए. लेकिन अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार बदले में भारत को भी कुछ वायदे और नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए. सी.एन.ए.एस के अनुसार भारत को तेजी से सिविल परमाणु समझौते को लागू करना चाहिए जो कि परमाणु उत्तरदायित्व सम्बन्धी विवादों के कारण लटक गया है.

दरअसल, अमेरिका चाहता है कि भारत हाल ही में संसद में पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन करके दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर सप्लाई करनेवाली अमेरिकी कंपनियों के उत्तरदायित्व को कम करे. हालांकि परमाणु उत्तरदायित्व कानून उतना कठोर नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था लेकिन इसके बावजूद परमाणु रिएक्टर और अन्य साजो-सामान सप्लाई करने को आतुर अमेरिकी कंपनियां- जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस आदि इस कानून के कई प्रावधानों को लेकर परेशान और नाराज हैं.

वे किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं उठाना चाहती हैं. उन्हें सबसे अधिक आपत्ति परमाणु उत्तरदायित्व कानून की धारा १७(बी) को लेकर है. उनकी मांग है कि भारत सरकार को इस प्रावधान को हल्का करना चाहिए जो त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भारतीय आपरेटर को सप्लायर के खिलाफ राइट टू रिकोर्स का अधिकार देता है.

अमेरिकी कंपनियां चाहती हैं कि उत्तरदायित्व कानून से यह प्रावधान हटाया जाए और अगर ऐसा करना संभव न हो तो भारत सरकार परमाणु बिजली संयंत्र के आपरेटर यानी न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन आफ इंडिया(एन.पी.सी.आई.एल) को द्विपक्षीय समझौते में यह अधिकार छोड़ते हुए अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न करने का स्वैछिक ‘वचन’(अंडरटेकिंग) देने के लिए तैयार करे. हैरानी की बात यह है कि अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम में कुछ भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं जो भारतीय परमाणु बिजली कारोबार के बाज़ार में अपना हिस्सा तो चाहती हैं लेकिन दुर्घटना की स्थिति में सीमित और न्यूनतम उत्तरदायित्व के लिए भी तैयार नहीं हैं.

यही नहीं, अमेरिकी कंपनियां यू.पी.ए सरकार पर यह भी दबाव बनाये हुए हैं कि परमाणु उत्तरदायित्व कानून को प्रचलित करने के लिए बनाये जानेवाले नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं को हल्का और ढीला रखा जाए. साफ है कि ये बड़ी और प्रभावशाली अमेरिकी कंपनियां भारतीय संसद द्वारा पास कानून और उसकी भावना के विपरीत उसे बेमानी बनाने पर तुली हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा और उनका प्रशासन अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम के साथ खुलकर खड़ा है.

वह हर तरह से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसी रणनीति के तहत ओबामा प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु संधि को लागू करने के लिए पहले अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन आन सप्लीमेंट्री कंपनसेशन फार न्यूक्लियर डेमेज (सी.एस.सी) पर हस्ताक्षर करे. भारत इसके लिए तैयार है लेकिन अमेरिका का कहना है कि इसपर हस्ताक्षर करने से पहले भारत को अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून को इसके प्रावधानों के अनुकूल बनाना होगा.

ओबामा की यात्रा की तैयारी के सिलसिले में हाल ही में भारत आये राजनीतिक मामलों के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्स ने साफ संकेत दिया कि भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. इसका अर्थ साफ है कि अगर भारत को सी.एस.सी पर हस्ताक्षर करना है तो उसे अपने संसद द्वारा पारित घरेलू कानून को बदलना पड़ेगा. जबकि भारतीय अधिकारियों का कहना है कि उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के अनुकूल है और सी.एस.सी में कहीं नहीं कहा गया है कि यह घरेलू राष्ट्रीय कानूनों के ऊपर है.

इसके बावजूद अमेरिका दबाव बनाये हुए है. ओबामा ने अपनी यात्रा से ठीक एक पखवाड़े पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत चिट्ठी लिखकर दबाव और बढ़ा दिया है. इस चिट्ठी में ओबामा ने भारत से अमेरिकी अपेक्षाओं का उल्लेख किया है. जाहिर है कि ओबामा की विश लिस्ट बहुत भारी-भरकम है. ओबामा चाहते हैं कि दौरे के दौरान भारत न सिर्फ कई लंबित रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाए बल्कि कई बड़े रक्षा सौदों जैसे लगभग ५.८ अरब डालर (२६ हजार करोड़ रूपये) के युद्धक मालवाही विमान सी-१७ ग्लोबमास्टर आदि की खरीद को भी हरी झंडी दिखाए.

ओबामा चीन के खिलाफ भारत को ‘मजबूत बनाने’ के लिए यह भी चाहते हैं कि भारत अपने खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी खासकर वालमार्ट जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले. इसके अलावा वे अमेरिकी कंपनियों के लिए वित्तीय क्षेत्र खासकर पेंशन-बीमा आदि को भी और उदार बनाने की मांग कर रहे हैं. वह यह भी चाहते हैं कि भारत अपना घरेलू बाजार अमेरिकी कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए खोले. लेकिन दूसरी ओर, खुद ओबामा घरेलू राजनीति के दबावों के कारण भारतीय कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग के दरवाजे बंद करने की हर जुगत कर रहे हैं. यही नहीं, वे सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे पर भी कोई प्रतिबद्धता नहीं देना चाहते हैं.

इस मामले में अमेरिकी रणनीति बिल्कुल साफ है. किसी भी दोस्ती में उसकी दिलचस्पी तभी तक है जब तक वह उसके आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को पूरा करती है. असल में, उसे अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं दिखता है. भारत में भी अमेरिकी दिलचस्पी की वजहें स्पष्ट हैं. अमेरिका भारत को अपने अपने उद्योगों और सेवाओं के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखता है. उसे मालूम है कि मरते अमेरिकी परमाणु रिएक्टर उद्योग और अन्य साजो-सामानों के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है. दूसरी ओर, वह रणनीतिक तौर पर चीन के खिलाफ भारत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ही अमेरिका उच्च तकनीकी निर्यात सम्बन्धी प्रतिबंधों को हटाने, परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति आदि भारत अनुकूल दिखनेवाले फैसले कर रहा है या करने को तैयार है. साफ है कि अमेरिका के लिए यह ‘दोस्ती’ किसी भावना या आदर्श के आधार पर नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक हितों पर आधारित है. इस मामले में वह किसी मुगालते में नहीं है. ऐसे में, भारत को सोचना है कि उसके हित इस ‘दोस्ती’ में कहां तक सध रहे हैं? देखने होगा कि ओबामा भारत से जो मांग रहे हैं, उसके बदले दे क्या रहे हैं?

इस सवाल पर विचार करना इसलिए जरूरी है कि अमेरिका भारत को दोस्त की तरह कम और अपने एक ‘क्लाइंट स्टेट’ की तरह अधिक देखता है. यही कारण है कि अमेरिकी कंपनियां न सिर्फ परमाणु उत्तरदायित्व कानून की जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि अमेरिका अपनी ‘दोस्ती’ की कीमत भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़कर अमेरिकी विदेश नीति के साथ नत्थी करने के रूप में मांग रहा है. सवाल है कि वह ‘दोस्ती’ की जो ‘कीमत’ मांग रहा है, क्या भारत वह कीमत चुकाने को तैयार है?
('राष्ट्रीय सहारा' में २७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख का विस्तारित रूप)

शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

ओबामा को भी चाहिए 'दुश्मन'


 
हालिया सीनेट उपचुनाव में राजनीतिक झटका झेलने और गिरती लोकप्रियता से परेशान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने  अमरीकी राजनीति के जाने-पहचाने टोटकों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस में 'स्टेट आफ नेशन' भाषण में अमेरिकियों को भारत, चीन और जर्मनी का भय दिखाते हुए चेताया है कि अगर अमेरिका ने जल्दी अपना ढंग-ढर्रा नहीं बदला और उनके प्रशासन द्वारा प्रस्तावित सुधारों को समर्थन नहीं दिया तो इन देशों की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं उसे पीछे छोड़ देंगी. ओबामा ने लगभग ललकारते हुए कहा कि उन्हें यह मंजूर नहीं है कि उनका देश दूसरे स्थान पर आये. जाहिर है कि यह कहते हुए ओबामा का मकसद अपने देशवासियों को उन सुधारों के लिए तैयार करना था जो वे अमेरिका की कथित सर्वोच्चता बनाये रखने के नाम पर आगे बढ़ाना चाहते हैं लेकिन जिन्हें लेकर अमेरिकी जनता में संदेह और असंतोष गहरा रहे हैं.

यह अमेरिकी राजनीति का सबसे आजमाया हुआ फार्मूला है. असल में, जैसे ही किसी राष्ट्रपति और उसके प्रशासन की लोकप्रियता गिरने लगती है और घरेलू समस्याओं को सुलझाना मुश्किल होने लगता है, वह बाहरी खतरों का डर दिखाना शुरू कर देता है. इस प्रक्रिया में वह एक सच्चा-झूठा "दुश्मन" गढ़ता है. फिर उससे लड़ने के नाम पर पूरे देश को अपने सही-गलत फैसलों का समर्थन करने के लिए तैयार कर लेता है. पिछले कोई सौ सालों का अमेरिकी इतिहास ऐसे ही प्रकरणों से भरा पड़ा है. अमेरिका के बारे में माना जाता है कि वह एक असली या नकली "दुश्मन" के बिना जिन्दा नहीं रह सकता है. इतिहास गवाह है कि पहले कम्युनिज्म का डर दिखा कर अमेरिकी जनता को गोलबंद किया गया, फिर सोवियत संघ का खतरा दिखा कर शीत युद्ध लड़ने के बहाने एक विशाल सैन्य-औद्योगिक तंत्र खड़ा किया गया और उसके बाद 'सभ्यताओं के संघर्ष' के नाम पर जेहादी इस्लाम को शत्रु घोषित किया गया.

हालांकि कथित जेहादी इस्लाम के खिलाफ अमेरिकी युद्ध अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है लेकिन अमेरिकी जनता के सामने उसकी असलियत उजागर होने लगी है. खुद ओबामा इराक और अफगानिस्तान में जेहादी इस्लाम से एक बेमानी और अंतहीन लड़ाई में फंसे अमेरिका को इससे बाहर निकालने का वायदा करके सत्ता में आये थे. लेकिन इस वायदे को पूरा करना तो दूर ओबामा इसमे और फंसते जा रहे हैं. दूसरी ओर, अमेरिकी जनता पर पिछले एक-डेढ़ साल से पड़ रही वित्तीय संकट की मार और तीखी होती जा रही है. बेरोजगारी दर 10 प्रतिशत से ऊपर चल रही है. ओबामा वित्तीय व्यवस्था से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के जो वायदे करके सत्ता में आये थे, उनमें से कोई वायदा वे पूरा करते नहीं दिखाई दे रहे हैं. उलटे वे उन्ही पिटी-पिटाई नव उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं जिन्हें मौजूदा वित्तीय संकट के लिए जिम्मेदार माना जाता है.

जाहिर है कि ओबामा का राजनीतिक संकट बढ़ रहा है. मौजूदा हालत को देखकर अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि आनेवाले दिनों में उनकी परेशानियाँ और बढ़ेगी. ऐसे में, ओबामा प्रशासन को बहुत शिद्दत से एक ऐसे 'दुश्मन' की तलाश है जिसका डर दिखाकर लोगों को अपने पीछे लामबंद किया जा सके. लेकिन दिक्कत यह है कि इस बीच जेहादी इस्लामी के हव्वे की हवा काफी हद तक निकल चुकी है. हालांकि अब भी किसी एयरलाइंस को उड़ाने के षड्यंत्र और कभी किसी और षड़यंत्र के बहाने जेहादी इस्लाम के भूत को जिन्दा रखने की कोशिश जारी है लेकिन उसे बहुत दूर तक खींचना मुश्किल हो रहा है. इसलिए एक नए 'दुश्मन' की तलाश है. राष्ट्रपति ओबामा के ताजा भाषण से ऐसा लगता है कि अमेरिका ने कम से कम तात्कालिक तौर पर भारत-चीन के रूप में नया 'दुश्मन' तलाश लिया है. वित्तीय संकट की मार से परेशान अमेरिकी नागरिकों को भारत-चीन का डर दिखाना थोडा आसान और विश्वसनीय भी है. ओबामा प्रशासन अमेरिकियों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि उनकी आर्थिक और वित्तीय मुश्किलों के लिए भारतीय-चीनी जिम्मेदार हैं जो उनकी नौकरियां छिन रहे हैं, सस्ते आयात से अमेरिकी कंपनियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसी आधार पर वे आउटसोर्सिंग के खिलाफ मुहिम चलाने का ऐलान कर रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह टिपिकल अमेरिकी 'पैरानोइया' है कि अगर अमेरिका ने अपने को नहीं संभाला और मुकाबले के लिए तैयार नहीं हुआ तो भारत-चीन जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाएं उसे पीछे छोड़ देंगी. तथ्य यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मौजूदा खस्ताहाल स्थिति के लिए बाहरी नहीं अंदरूनी कारण और घरेलू आर्थिक नीतियां ज्यादा जिम्मेदार हैं. लेकिन उन्हें ठीक करने के बजाय ओबामा प्रशासन भारत और चीन को निशाना बनाकर अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है.

हालांकि कई विश्लेषक इस बयान को अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा अपने देशवासियों को एक स्वस्थ आर्थिक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने के परिप्रेक्ष्य में देखने की बात  कह रहे हैं लेकिन ओबामा के बयान के टोन से साफ है कि बात इतनी सीधी  और सरल नहीं है. अगर वह सचमुच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चाहते हैं तो उन्हें एक के बाद एक संरक्षणवादी कदम उठाने से परहेज करना चाहिए था. लेकिन इसके बजाय ओबामा लगातार आउटसोर्सिंग को निशाना बना रहे हैं और संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं. यही नहीं, चाहे कोपेनहेगेन का जलवायु सम्मलेन रहा हो या डब्लू.टी.ओ का मंच या फिर संयुक्त राष्ट्र का मंच- ओबामा प्रशासन लगातार भारत और चीन को निशाना बना रहा है.

जाहिर है कि यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का नहीं बल्कि किसी भी तरह अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने की जिद है. इसमें छुपे एक अंधराष्ट्रवादी अमेरिकी सर्वोच्चता के भाव को साफ पढ़ा जा सकता है. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वह होती है जिसमें आप दूसरे या तीसरे स्थान पर भी आ सकते हैं लेकिन अमेरिका के रूख से जाहिर है कि वह ऐसी किसी भी स्थिति के लिए तैयार नहीं है. दरअसल, वह इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि अमेरिका अब एक ढलती हुई ताकत है. यही इतिहास का सत्य है. एक से बड़े एक साम्राज्यों का पतन इतिहास का सबसे बड़ा सच है. अमेरिकी 'साम्राज्य' की भी यही गत होनी है. आज नहीं तो 40-50 साल बाद ही सही. दूसरी बात यह है कि इसके लिए कोई और नहीं खुद अमेरिका और उसकी 'साम्राज्यवादी' नीतियां जिम्मेदार हैं. वह अपने ही बोझ से ढह रहा है.

ओबामा अगर इस 'साम्राज्य' को ढहने से बचाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले बाहरी 'दुश्मन' तलाशने के बजाय अपने घर के अन्दर झांकना चाहिए. उन्हें और अमेरिका को स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत- चीन समेत हर देश को आगे बढ़ने का पूरा हक़ है और अमेरिका को उसमें अड़ंगे लगाने का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन इसके लिए उन्हें अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक तंत्र के खिलाफ लड़ना पड़ेगा जिसका निहित स्वार्थ हमेशा से टकराव और युद्धों में रहा है. क्या ओबामा में यह साहस है या वह भी पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह गढ़े हुए "दुश्मन" के खिलाफ लड़ने की राजनीति को आगे बढ़ाएंगे ?