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शनिवार, जुलाई 06, 2013

याराना पूंजीवाद की एक और मिसाल है गैस की बढ़ी कीमतें

आम आदमी को चुकानी पड़ेगी इस बढ़ोत्तरी की कीमत
दूसरी क़िस्त 
इसी तरह खाद की कीमतों में भी भारी इजाफा करना होगा लेकिन सवाल यह है कि पहले से ही बिजली से लेकर बीज-खाद-कीटनाशकों की बढ़ी कीमतों के कारण उत्पादन लागत बढ़ने से त्रस्त गरीब और मंझोले किसान क्या यह बोझ उठा पाएंगे?
क्या इस बढ़ी लागत की भरपाई के लिए सरकार अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाएगी? क्या इससे महंगाई और नहीं बढ़ेगी? क्या यह फैसला महंगाई की आग में घी डालनेवाला नहीं है?
असल में, इस फैसले के लागू होने के बाद उसका असर चौतरफा होगा क्योंकि बिजली, परिवहन और उर्वरकों की लागत में भारी इजाफे से हर वस्तु-उत्पाद और सेवा की कीमत में बढ़ोत्तरी तय है. इससे चौतरफा महंगाई बढ़ेगी. ऐसा नहीं है कि सरकार को यह पता नहीं है. खुद वित्त मंत्री से लेकर पेट्रोलियम मंत्री तक यह स्वीकार करते हैं कि इससे उपभोक्ताओं पर बोझ पड़ेगा.

लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई है, उससे और क्या नतीजा निकाला जा सकता है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अम्बानी की रिलायंस को होगा. यह एक तरह से छप्पर-फाड़ मुनाफे की गारंटी है. यह ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का एक और उदाहरण है जब एक बड़े कार्पोरेट्स समूह के फायदे के लिए सार्वजनिक और आम आदमी के हितों को कुर्बान करने में भी सरकारें शर्माती नहीं हैं.

याद कीजिए, आज से सिर्फ चार साल पहले जब के.जी बेसिन गैस की कीमतों को तय करने को लेकर दोनों अम्बानी भाइयों- मुकेश और अनिल अम्बानी के बीच कानूनी जंग चल रही थी, मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने तर्क था कि गैस राष्ट्रीय संपत्ति है और इसकी कीमतें तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है.
उस समय भी यू.पी.ए सरकार ने मुकेश अम्बानी को खुश करने के लिए गैस की कीमतें २.४० डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दोगुना बढ़ाकर ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दी थी. उस समय ये कीमतें २०१४ तक के लिए तय की गईं थीं लेकिन दो साल बीतते ही रिलायंस ने ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ को अपनी संपत्ति मानकर उसकी कीमतें फिर से बढ़ाने का दबाव डालना शुरू कर दिया. इसके लिए उसने सुनियोजित तरीके से के.जी. बेसिन से गैस का उत्पादन कम करना शुरू कर दिया.
तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने विरोध किया और गैस का उत्पादन कम करने के लिए रिलायंस पर जुर्माना ठोंकने की पहल की तो उन्हें हटा दिया गया. यह किसी से छुपा नहीं है कि पेट्रोलियम मंत्रालय में रिलायंस की पसंद के मंत्री और अधिकारी ही टिक पाते हैं.

यह और बात है कि रिलायंस के.जी. बेसिन की गैस के उत्पादन के लिए नियुक्त ठेकेदार भर है और इसकी असली मालिक सरकार है. लेकिन मजे की बात यह है कि के.जी. बेसिन की गैस के मुनाफे का ९० फीसदी रिलायंस को जाता है और ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की ट्रस्टी सरकार के खजाने में सिर्फ १० फीसदी मुनाफा आता है.

यही नहीं, घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत डालर में तय करने का औचित्य भी समझ से बाहर है? जब देश में पैदा होनेवाली किसी और चीज की कीमतें घरेलू उपभोक्ताओं के लिए डालर में नहीं तय की जाती हैं तो गैस की कीमत डालर में क्यों तय की गई है?
कहने की जरूरत नहीं है कि गैस की कीमतें डालर में तय करने से भी गैस कंपनियों को भारी फायदा है क्योंकि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के साथ उनका मुनाफा मौजूदा कीमतों पर ही बढ़ता रहता है. उदाहरण के लिए, पिछले दो महीनों में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ११ फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की है जिसका अर्थ यह है कि बिना किसी हर्रे-फिटकरी के रिलायंस के मुनाफे में ११ फीसदी की बढ़ोत्तरी.
यही नहीं, पिछले दो वर्षों में गैस की कीमत में बिना बढ़ोत्तरी के भी सिर्फ डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ३३ फीसदी से ज्यादा की गिरावट के कारण रिलायंस को ३३ फीसदी ज्यादा फायदा हुआ है.

सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के बीच गैस की कीमतों में डालर में १०० फीसदी बढ़ोत्तरी से रिलायंस के मुनाफे में कितना भारी मुनाफा होगा और देश और आम उपभोक्ताओं को कितना भारी नुकसान होगा. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सरकार कीमतें बढाते हुए बार-बार आयातित गैस की १४.१७ डालर की कीमत का हवाला दे रही है.

सवाल यह है कि अगर घरेलू गैस और आयातित गैस की कीमतें बराबर होंगी तो घरेलू खोज और उत्पादन की क्या जरूरत है?

दूसरे, उर्जा विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने वास्तविक उदाहरण के जरिये बताया है कि दुनिया के अलग-अलग बाजारों में गैस की कीमतें अलग-अलग हैं और उन्हें नजीर के बतौर पेश करना उचित नहीं है. याद रहे कि अमेरिका से लेकर पडोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी घरेलू गैस की कीमतें भारत से कम हैं.
ऐसे में, यू.पी.ए सरकार के इस फैसले पर गंबीर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. आखिर अगले साल चुनाव हैं और इतना महत्वपूर्ण फैसला अगली सरकार पर छोड़ने के बजाय यू.पी.ए सरकार ने अगले साल अप्रैल से लागू होनेवाले कीमतें अभी तय करने की हड़बड़ी क्यों दिखाई? इस फैसले की राजनीतिक नैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं. वामपंथी पार्टियों ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है. 
लेकिन हैरानी की बात यह है कि २०१४ में प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर रहे और यू.पी.ए सरकार के कटु आलोचक नरेन्द्र मोदी सरकार के इस फैसले पर चुप हैं? भाजपा से लेकर सपा-जे.डी-यू-बसपा तक सभी खामोश हैं.

आखिर मुकेश अम्बानी को नाराज करने का जोखिम लेना इतना आसान नहीं है? क्या मान लिया जाए कि, ‘सभी पार्टियां अब मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी हैं?’

('शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

किसके लिए बढ़ाई गईं हैं गैस की कीमतें?

आम उपभोक्ताओं को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी जबकि रिलायंस चांदी नहीं सोना काटेगी

पहली क़िस्त

यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने के लिए बेचैन है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उसकी यह बेचैनी बढ़ती जा रही है. कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है.
इसका ताजा सबूत यह है कि खुद सरकार के अंदर बिजली और उर्वरक मंत्रालय के अलावा कई वरिष्ठ मंत्रियों की आपत्तियों और विरोध को ठुकराते हुए उसने प्राकृतिक गैस की कीमतों को दोगुना करने का फैसला किया है. इस फैसले के मुताबिक, अगले साल एक अप्रैल से प्राकृतिक गैस की कीमत मौजूदा ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू (मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) से १०० फीसदी बढ़कर ८.४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू हो जाएगी.
मजे की बात यह है कि खुद पेट्रोलियम मंत्रालय ने गैस की कीमत ६.७७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू प्रस्तावित किया था लेकिन मंत्रिमंडल ने कई कदम आगे बढ़कर उसे ८.४२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने का फैसला किया.

यही नहीं, इसके बाद हर तीन महीने पर कीमतों की समीक्षा होगी जिसका एक ही अर्थ है कि कीमतें आगे भी बढ़ती रहेंगी और हैरानी नहीं होगी, अगर २०१५ तक ये १४-१५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू तक पहुँच जाएँ.

ऐसा मानने की वजह यह है कि घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमतें तय करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है जिसने गैस की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय कीमतों और आयातित गैस की कीमतों के बराबर करने का फार्मूला पेश किया है.

यह फार्मूला कुछ ऐसा है, जैसे भारत में पैदा होनेवाले अनाजों और फलों-सब्जियों की कीमत अंतर्राष्ट्रीय कीमतों या अमेरिका/यूरोप की कीमतों के बराबर कर दिया जाए. उदाहरण के लिए, अमेरिका में इस समय टमाटर अगर लगभग २ डालर प्रति किलो है तो भारत में उसकी कीमत १२० रूपये प्रति किलो कर दी जाए.
हैरानी की बात यह है कि यह फार्मूला सुझानेवाले अर्थशास्त्री सी. रंगराजन की घरेलू गैस की कीमतें तय करने के बारे में कोई विशेषज्ञता नहीं है. ‘द हिंदू’ के संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख में उर्जा मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने घरेलू गैस की कीमतों को तय करने के रंगराजन समिति के फार्मूले को ‘खुला मजाक’ बताया था. उनका तर्क था कि घरेलू गैस की कीमतें घरेलू उत्पादन लागत, मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होनी चाहिए.           
इसके बावजूद सरकार ने ९ महीने बाद लागू होनेवाली गैस की कीमतों को जिस जल्दबाजी में दोगुना बढ़ाने का फैसला किया है, उससे उसकी असली मंशा साफ़ हो जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के तुरंत बाद कई सप्ताहों से पस्त चल रहे शेयर बाजार में अचानक ५१२ अंकों का उछाल दर्ज किया गया. खासकर मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस के अलावा अन्य सरकारी तेल-गैस कंपनियों के शेयरों की कीमतों में खासी तेजी देखी गई.

इससे अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस फैसले से किसे फायदा होगा और सबसे अधिक खुश कौन होगा? यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मुकेश अम्बानी की रिलायंस पिछले दो साल से यू.पी.ए सरकार पर गैस की कीमतों को बढ़ाने की मांग को लेकर जबरदस्त दबाव बनाए हुए थी.

इसके लिए उसने देश में गैस की भारी किल्लत और उसके कारण अनेकों गैस आधारित बिजलीघरों के ठप्प पड़े रहने के बावजूद कृष्णा-गोदावरी (के.जी.) बेसिन से गैस का उत्पादन घटाकर महज १९ प्रतिशत तक कर दिया था. यही नहीं, रिलायंस के दबाव का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस मांग का विरोध कर रहे तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को पिछले साल के मंत्रिमंडल फेरबदल में हटाकर विज्ञान और तकनीकी मंत्री बना दिया गया था.
उसी दिन यह तय हो गया था कि यू.पी.ए सरकार मुकेश अम्बानी की मांग को पूरा करने में ज्यादा समय नहीं लगायेगी. उम्मीद के मुताबिक, नए पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली पिछले छह महीने से इस एकसूत्री मुहिम में जुटे हुए थे और रिलायंस को छप्पर फाड़ मुनाफे की गारंटी करनेवाले इस फैसले के पक्ष में दलीलें तैयार कर रहे थे.  
इस फैसले के पक्ष में यू.पी.ए सरकार और मोइली की सबसे बड़ी दलील यह है कि इससे प्राकृतिक गैस की खोज और उत्पादन के क्षेत्र में निवेश खासकर विदेशी बढ़ेगा जिससे गैस के उत्पादन में वृद्धि होगी और आयात पर निर्भरता कम होगी.

लेकिन सच ठीक इसके उलट है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, खुद मंत्रिमंडल की बैठक में पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि इस फैसले के कारण सरकार समेत आम लोगों पर पड़नेवाला बोझ निश्चित है लेकिन इसके संभावित फायदे अनिश्चित हैं. यह बोझ मामूली नहीं है.

सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता के मुताबिक, अकेले रिलायंस की के.जी बेसिन गैस की बढ़ी कीमतों के कारण बिजली और उर्वरक के मद में सरकार पर पांच वर्षों (२०१४-२०१९) में ९६००० करोड़ रूपये की सब्सिडी का बोझ पड़ेगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि भविष्य में गैस की कीमतों में और बढ़ोत्तरी के साथ सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता जाएगा. लेकिन राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती की मौजूदा नीति के मद्देनजर सरकार आखिरकार यह बोझ आम उपभोक्ताओं पर ही डालेगी जिसका अर्थ होगा- यात्रा भाड़े से लेकर बिजली और खाद की दरों में भारी बढ़ोत्तरी.
एक मोटे आकलन के मुताबिक, ताजा वृद्धि के लागू होने पर गैस से बननेवाली बिजली में प्रति यूनिट दो रूपये की वृद्धि होगी जबकि यूरिया ६००० रूपये टन यानी प्रति किलो ६ रूपया महंगा हो जाएगा. इसी तरह सी.एन.जी की कीमतों में न्यूनतम ३० फीसदी की बढ़ोत्तरी तय है.
स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक, गैस की बढ़ी हुई कीमतों के बाद गैस से बननेवाली बिजली की कीमत प्रति यूनिट लगभग ५.४० रूपये से लेकर ६.४० पैसे प्रति यूनिट तक पहुँच सकती है. सवाल यह है कि क्या बिजली की यह भारी कीमत आम उपभोक्ता चुका पाएंगे?

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का तर्क है कि आम उपभोक्ता चाहता है कि बिजली न होने से अच्छा है कि थोड़ी महँगी ही सही लेकिन बिजली मिले. लेकिन लगता है, चिदम्बरम बहुत धूम-धाम के साथ शुरू हुए एनरान के दाभोल प्रोजक्ट को भूल गए जो इसलिए फ्लाप साबित हुआ क्योंकि उसकी बिजली बहुत महँगी थी और राज्य बिजली बोर्ड महँगी बिजली खरीदकर सस्ती बिजली बेचने के कारण दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया.

आशंका यह है कि घरेलू गैस की कीमतों में भारी वृद्धि के बाद गैस से चलनेवाले ज्यादातर बिजलीघर महँगी बिजली के कारण एनरान की गति को प्राप्त होंगे या फिर इसकी कीमत आम उपभोक्ता को चुकानी होगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। कल पढ़िए अगली क़िस्त)