आम आदमी को चुकानी पड़ेगी इस बढ़ोत्तरी की कीमत
लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई है, उससे और क्या नतीजा निकाला जा सकता है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अम्बानी की रिलायंस को होगा. यह एक तरह से छप्पर-फाड़ मुनाफे की गारंटी है. यह ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का एक और उदाहरण है जब एक बड़े कार्पोरेट्स समूह के फायदे के लिए सार्वजनिक और आम आदमी के हितों को कुर्बान करने में भी सरकारें शर्माती नहीं हैं.
यह और बात है कि रिलायंस के.जी. बेसिन की गैस के उत्पादन के लिए नियुक्त ठेकेदार भर है और इसकी असली मालिक सरकार है. लेकिन मजे की बात यह है कि के.जी. बेसिन की गैस के मुनाफे का ९० फीसदी रिलायंस को जाता है और ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की ट्रस्टी सरकार के खजाने में सिर्फ १० फीसदी मुनाफा आता है.
सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के बीच गैस की कीमतों में डालर में १०० फीसदी बढ़ोत्तरी से रिलायंस के मुनाफे में कितना भारी मुनाफा होगा और देश और आम उपभोक्ताओं को कितना भारी नुकसान होगा. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सरकार कीमतें बढाते हुए बार-बार आयातित गैस की १४.१७ डालर की कीमत का हवाला दे रही है.
सवाल यह है कि अगर घरेलू गैस और आयातित गैस की कीमतें बराबर होंगी तो घरेलू खोज और उत्पादन की क्या जरूरत है?
आखिर मुकेश अम्बानी को नाराज करने का जोखिम लेना इतना आसान नहीं है? क्या मान लिया जाए कि, ‘सभी पार्टियां अब मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी हैं?’
('शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
दूसरी क़िस्त
इसी तरह खाद की कीमतों में भी भारी इजाफा करना होगा लेकिन सवाल यह है
कि पहले से ही बिजली से लेकर बीज-खाद-कीटनाशकों की बढ़ी कीमतों के कारण उत्पादन
लागत बढ़ने से त्रस्त गरीब और मंझोले किसान क्या यह बोझ उठा पाएंगे?
क्या इस बढ़ी
लागत की भरपाई के लिए सरकार अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाएगी? क्या इससे
महंगाई और नहीं बढ़ेगी? क्या यह फैसला महंगाई की आग में घी डालनेवाला नहीं है?
असल में, इस फैसले के लागू होने के बाद उसका असर चौतरफा होगा क्योंकि
बिजली, परिवहन और उर्वरकों की लागत में भारी इजाफे से हर वस्तु-उत्पाद और सेवा की
कीमत में बढ़ोत्तरी तय है. इससे चौतरफा महंगाई बढ़ेगी. ऐसा नहीं है कि सरकार को यह
पता नहीं है. खुद वित्त मंत्री से लेकर पेट्रोलियम मंत्री तक यह स्वीकार करते हैं
कि इससे उपभोक्ताओं पर बोझ पड़ेगा. लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई है, उससे और क्या नतीजा निकाला जा सकता है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अम्बानी की रिलायंस को होगा. यह एक तरह से छप्पर-फाड़ मुनाफे की गारंटी है. यह ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का एक और उदाहरण है जब एक बड़े कार्पोरेट्स समूह के फायदे के लिए सार्वजनिक और आम आदमी के हितों को कुर्बान करने में भी सरकारें शर्माती नहीं हैं.
याद कीजिए, आज से सिर्फ चार साल पहले जब के.जी बेसिन गैस की कीमतों को
तय करने को लेकर दोनों अम्बानी भाइयों- मुकेश और अनिल अम्बानी के बीच कानूनी जंग
चल रही थी, मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने तर्क था कि गैस राष्ट्रीय संपत्ति है और
इसकी कीमतें तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है.
उस समय भी यू.पी.ए सरकार ने
मुकेश अम्बानी को खुश करने के लिए गैस की कीमतें २.४० डालर प्रति एम.बी.टी.यू से
लगभग दोगुना बढ़ाकर ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दी थी. उस समय ये कीमतें २०१४ तक
के लिए तय की गईं थीं लेकिन दो साल बीतते ही रिलायंस ने ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ को
अपनी संपत्ति मानकर उसकी कीमतें फिर से बढ़ाने का दबाव डालना शुरू कर दिया. इसके
लिए उसने सुनियोजित तरीके से के.जी. बेसिन से गैस का उत्पादन कम करना शुरू कर
दिया.
तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने विरोध किया और गैस का
उत्पादन कम करने के लिए रिलायंस पर जुर्माना ठोंकने की पहल की तो उन्हें हटा दिया
गया. यह किसी से छुपा नहीं है कि पेट्रोलियम मंत्रालय में रिलायंस की पसंद के
मंत्री और अधिकारी ही टिक पाते हैं. यह और बात है कि रिलायंस के.जी. बेसिन की गैस के उत्पादन के लिए नियुक्त ठेकेदार भर है और इसकी असली मालिक सरकार है. लेकिन मजे की बात यह है कि के.जी. बेसिन की गैस के मुनाफे का ९० फीसदी रिलायंस को जाता है और ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की ट्रस्टी सरकार के खजाने में सिर्फ १० फीसदी मुनाफा आता है.
यही नहीं, घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत डालर में तय करने का औचित्य भी
समझ से बाहर है? जब देश में पैदा होनेवाली किसी और चीज की कीमतें घरेलू उपभोक्ताओं
के लिए डालर में नहीं तय की जाती हैं तो गैस की कीमत डालर में क्यों तय की गई है?
कहने
की जरूरत नहीं है कि गैस की कीमतें डालर में तय करने से भी गैस कंपनियों को भारी
फायदा है क्योंकि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के साथ उनका मुनाफा मौजूदा
कीमतों पर ही बढ़ता रहता है. उदाहरण के लिए, पिछले दो महीनों में डालर के मुकाबले
रूपये की कीमत में ११ फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की है जिसका अर्थ यह है कि
बिना किसी हर्रे-फिटकरी के रिलायंस के मुनाफे में ११ फीसदी की बढ़ोत्तरी.
यही नहीं, पिछले दो वर्षों में गैस की कीमत में बिना बढ़ोत्तरी के भी
सिर्फ डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ३३ फीसदी से ज्यादा की गिरावट के कारण
रिलायंस को ३३ फीसदी ज्यादा फायदा हुआ है. सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के बीच गैस की कीमतों में डालर में १०० फीसदी बढ़ोत्तरी से रिलायंस के मुनाफे में कितना भारी मुनाफा होगा और देश और आम उपभोक्ताओं को कितना भारी नुकसान होगा. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सरकार कीमतें बढाते हुए बार-बार आयातित गैस की १४.१७ डालर की कीमत का हवाला दे रही है.
सवाल यह है कि अगर घरेलू गैस और आयातित गैस की कीमतें बराबर होंगी तो घरेलू खोज और उत्पादन की क्या जरूरत है?
दूसरे, उर्जा विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने वास्तविक उदाहरण के जरिये
बताया है कि दुनिया के अलग-अलग बाजारों में गैस की कीमतें अलग-अलग हैं और उन्हें
नजीर के बतौर पेश करना उचित नहीं है. याद रहे कि अमेरिका से लेकर पडोसी पाकिस्तान
और बंगलादेश में भी घरेलू गैस की कीमतें भारत से कम हैं.
ऐसे में, यू.पी.ए सरकार
के इस फैसले पर गंबीर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. आखिर अगले साल चुनाव हैं और इतना
महत्वपूर्ण फैसला अगली सरकार पर छोड़ने के बजाय यू.पी.ए सरकार ने अगले साल अप्रैल
से लागू होनेवाले कीमतें अभी तय करने की हड़बड़ी क्यों दिखाई? इस फैसले की राजनीतिक
नैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं. वामपंथी पार्टियों ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है.
लेकिन हैरानी की बात यह
है कि २०१४ में प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर रहे और यू.पी.ए सरकार के कटु
आलोचक नरेन्द्र मोदी सरकार के इस फैसले पर चुप हैं? भाजपा से लेकर
सपा-जे.डी-यू-बसपा तक सभी खामोश हैं. आखिर मुकेश अम्बानी को नाराज करने का जोखिम लेना इतना आसान नहीं है? क्या मान लिया जाए कि, ‘सभी पार्टियां अब मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी हैं?’
('शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
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