आपदा के समय ही चैनलों को क्यों याद आती है पर्यावरणवादियों की?
हालाँकि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों का देहरादून में स्थाई संवाददाता और ब्यूरो नहीं है, ज्यादातर स्ट्रिंगर्स के भरोसे हैं और यही कारण है कि इस आपदा और उसकी भयावहता के बारे में राष्ट्रीय चैनलों को पहले एक-दो दिनों तक अंदाज़ा नहीं चला. इसकी वजह से सबसे तेज से लेकर आपको आगे रखनेवाले चैनलों को रीएक्ट करने में समय लगा.
कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था. जल्दी ही बचाव में लगे वायु सेना और राज्य सरकार के हेलीकाप्टर्स पर चढ़कर आपदाग्रस्त इलाकों तक पहुँचने और राहत और बचाव की ‘एक्सक्लूसिव’ कवरेज दिखाने की होड़ में स्टार रिपोर्टरों की हैरान-हांफती-उत्तेजनापूर्ण रिपोर्टें चैनलों पर छा गईं. पीपली लाइव से हालात बन गए.
स्टार एंकर/रिपोर्टर दिल्ली लौट आयेंगे. हिमालय की कराह पीछे छूट जाएगी. चैनलों पर फिर से ‘विकास’ का अहर्निश कोरस शुरू हो जाएगा. जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो.
लेकिन क्या मानव निर्मित आपदा की शुरुआत यहीं से नहीं होती है?
('तहलका' के 15 जुलाई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
उत्तराखंड में भारी बारिश और बादल फटने से जैसी तबाही आई है, उसने
पूरे देश को हिला दिया है. ऐसी बड़ी प्राकृतिक आपदाएं सबके लिए परीक्षा की घड़ी होती
हैं. न्यूज मीडिया भी उसका अपवाद नहीं है.
ऐसी त्रासदी और संकट के समय में जब भारी
तबाही हुई हो, लाखों लोगों की जान दाँव पर लगी हो, सूचनाओं की मांग बहुत बढ़ जाती
है.
संकट के समय में लोग अपने सगे-संबंधियों, मित्रों और सबसे बढ़कर अपने जैसे लोगों
की पल-पल की खैर-खबर जानना चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि ऐसे संकट के समय में चौबीस
घंटे के न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या बहुत बढ़ जाती है.
चैनल भी इसे जानते हैं. उनके लिए यह अपनी कवरेज से दर्शकों का भरोसा
जीतने और अपने दर्शक वर्ग के विस्तार का मौका होता है. जाहिर है कि कोई चैनल ऐसी
प्राकृतिक आपदाओं के कवरेज में पीछे नहीं रहना चाहता है. उत्तराखंड की ह्रदय
विदारक आपदा भी इसकी अपवाद नहीं थी. हालाँकि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों का देहरादून में स्थाई संवाददाता और ब्यूरो नहीं है, ज्यादातर स्ट्रिंगर्स के भरोसे हैं और यही कारण है कि इस आपदा और उसकी भयावहता के बारे में राष्ट्रीय चैनलों को पहले एक-दो दिनों तक अंदाज़ा नहीं चला. इसकी वजह से सबसे तेज से लेकर आपको आगे रखनेवाले चैनलों को रीएक्ट करने में समय लगा.
यानी सिर्फ उत्तराखंड की विजय बहुगुणा सरकार को ही इस आपदा की तीव्रता
को समझने और राहत-बचाव का काम शुरू करने में देर नहीं लगा बल्कि न्यूज चैनलों भी
देर से जगे. अगर राष्ट्रीय चैनलों ने १६-१७ जून की रात/सुबह से इस खबर को उठा लिया
होता, उनके स्थाई संवाददाता फील्ड में उतर गए होते और उसकी रिपोर्टिंग को
प्राथमिकता दी गई होती तो शायद राज्य और केन्द्र सरकार पर राहत-बचाव को जल्दी और
बड़े पैमाने पर शुरू करने का दबाव बना होता.
यह एक सबक है. राष्ट्रीय चैनल होने का
दावा करनेवाले चैनलों के पास देश के कोने-कोने में तो दूर, राज्यों की राजधानियों
में भी स्थाई संवाददाता और ब्यूरो (ओ.बी) नहीं हैं. आखिर क्यों?
लेकिन एक बार जब न्यूज चैनल उत्तराखंड आपदा की कवरेज में उतरे तो
उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया. चैनलों में अधिक से अधिक रिपोर्टिंग टीम भेजने और
आपदाग्रस्त क्षेत्रों में सबसे पहले पहुँचने का दावा करने की होड़ सी लग गई. चैनलों
के जाने-पहचाने स्टार एंकरों/रिपोर्टरों के अलावा दर्जनों रिपोर्टर/कैमरामैन
आपदाग्रस्त इलाकों में ओ.बी वैन के साथ उतर गए. कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था. जल्दी ही बचाव में लगे वायु सेना और राज्य सरकार के हेलीकाप्टर्स पर चढ़कर आपदाग्रस्त इलाकों तक पहुँचने और राहत और बचाव की ‘एक्सक्लूसिव’ कवरेज दिखाने की होड़ में स्टार रिपोर्टरों की हैरान-हांफती-उत्तेजनापूर्ण रिपोर्टें चैनलों पर छा गईं. पीपली लाइव से हालात बन गए.
यह और बात है कि उत्तराखंड और वहां के भूगोल-पारस्थितिकी से अनजान
रिपोर्टर उसकी भरपाई नाटकीयता और तबाही के विजुअल्स से करते नजर आए. हद तो यह कि
कई चैनल केदारनाथ की तबाही के बीच मंदिर के बचे रहने के चमत्कार से अभिभूत दिखे.
उधर,
‘विकास’ की चिंता में हमेशा दुबले और पर्यावरणवादियों को ‘विकास’ के दुश्मन
बतानेवाले चैनलों के संपादक-एंकरों को इलहाम हुआ कि उत्तराखंड में बेलगाम और
विनाशकारी ‘विकास’ के कारण ही यह प्राकृतिक आपदा वास्तव में, मानव-निर्मित आपदा
है.
चैनलों पर अचानक पर्यावरणवादियों की पूछ बढ़ गई. हिमालय में मौजूदा अनियंत्रित
‘विकास’ के माडल पर तीखे सवालों के बीच चैनलों के स्टूडियो गर्म हो गए.
लेकिन जल्दी ही यह गुस्सा
मोदी बनाम राहुल और कांग्रेस-बी.जे.पी की तू-तू-मैं-मैं में स्खलित हो गया. यह इस
बात का संकेत है कि कुछ ही दिनों में उत्तराखंड की त्रासदी चैनलों की सुर्ख़ियों से
उतर जाएगी और इस आपदा को भी भुला दिया जाएगा. स्टार एंकर/रिपोर्टर दिल्ली लौट आयेंगे. हिमालय की कराह पीछे छूट जाएगी. चैनलों पर फिर से ‘विकास’ का अहर्निश कोरस शुरू हो जाएगा. जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो.
लेकिन क्या मानव निर्मित आपदा की शुरुआत यहीं से नहीं होती है?
('तहलका' के 15 जुलाई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
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