कहाँ हैं आम आदमी की आवाज़ और उनका वास्तविक लोक प्रसारक?
पहली क़िस्त
फिक्की-के.पी.एम.जी (२०१३) की मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग का आकार वर्ष २०१२ में ८२ हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है और उसकी वृद्धि की रफ़्तार १२.६ फीसदी रही. यह भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के दुगुने से भी ज्यादा है.
जाहिर है कि इस सवाल का उत्तर बहुत गहराई से जन माध्यमों के स्वामित्व (ओनरशिप) और उनके एजेंडे और सोच-विचार से जुड़ा हुआ है. भारत में जन माध्यम मुख्यत: निजी क्षेत्र के हाथों में हैं. प्रिंट मीडिया (अखबार/पत्रिकाएं) पर तो पूरी तरह से निजी क्षेत्र का वर्चस्व है जबकि मूलतः सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में रहे प्रसारण माध्यमों (टी.वी/रेडियो) में भी पिछले दो दशकों में निजी क्षेत्र का दायरा और दखल तेजी से बढ़ा है. इसी तरह सिनेमा शुरू से पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथ में रहा है.
जन माध्यमों में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश के साथ मीडिया उद्योग के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है. इसके साथ मीडिया उद्योग में कुछ बड़े देशी-विदेशी मीडिया समूहों का वर्चस्व बढ़ा है. मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण (कंसन्ट्रेशन) और एकाधिकारवादी और अल्पधिकरवादी (मोनोपोली और अल्गापोली) प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं.
जन माध्यमों में लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने और सार्वजनिक हित की प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नामपर सस्ते-फूहड़-फ़िल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है.
एक मायने में, कारपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं.
उसका मुख्य उद्देश्य सभी वर्गों, समुदायों और समूहों के लोगों को बिना किसी लैंगिक-जातिवादी-धार्मिक-एथनिक पूर्वग्रह के उनकी नागरिक की भूमिका निभाने के लिए जरूरी सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित सूचनाएं उपलब्ध कराना, उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अधिकतम संभव विचारों से अवगत कराना, उन्हें शिक्षित करने के लिए जानकारी, विचार और चर्चाओं से रूबरू कराना और उनके स्वस्थ मनोरंजन के लिए सृजनात्मक विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करना होना चाहिए.
इस कारण लोगों में एक ओर उनकी साख बहुत कम है और दूसरी ओर, निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में उनका इस हद तक व्यवसायीकरण हो गया है कि उनमें लोक प्रसारण सेवा की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है.
इस प्रक्रिया में वे न तो लोक प्रसारण सेवा की कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही पूरी तरह व्यावसायिक प्रसारक की तरह काम कर पा रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सत्तारुढ़ दल और नौकरशाही के साथ-साथ व्यावसायिक शिकंजे में उनका दम घुट रहा है.
जारी .....
('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित लेख की पहली क़िस्त)
पहली क़िस्त
“मैं समझता हूँ कि अज्ञानता से मुक्ति उतनी ही जरूरी है जितनी भूख से
मुक्ति. जनसंचार के माध्यम बहुत उपयोगी हैं लेकिन उनके साथ एक खतरा भी जुड़ा हुआ है
कि निजी हितों के लिए उनका दुरुपयोग किया जा सकता है...धनपति या अमीर मुल्क अपने
मीडिया के माध्यम से देश और दुनिया को अपने उन सोच और विचारों की बाढ़ में डुबो
सकते हैं जो सही या गलत हो सकते हैं.”
-जवाहर लाल नेहरु, ५ मार्च’१९६२
भारत एक तरह के सूचना और जनसंचार विस्फोट के दौर से गुजर रहा है. देश
में जनसंचार के माध्यमों का तेजी से विस्तार हो रहा है और उनकी पहुँच बढ़ रही है.
देश में पंजीकृत समाचारपत्रों/पत्रिकाओं की संख्या ८५७५४ (आर.एन.आई, वर्ष ११-१२ की
‘प्रेस इन इंडिया’ रिपोर्ट) तक पहुँच चुकी है, कुल निजी टी.वी चैनलों की संख्या
८४८ और इसमें न्यूज और सम सामयिक विषयों के चैनलों की संख्या ३९३ है और रेडियो
खासकर एफ.एम रेडियो का भी तेजी से विस्तार हो रहा है. फिक्की-के.पी.एम.जी (२०१३) की मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग का आकार वर्ष २०१२ में ८२ हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है और उसकी वृद्धि की रफ़्तार १२.६ फीसदी रही. यह भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के दुगुने से भी ज्यादा है.
देश जन माध्यमों के तीव्र विस्तार और प्रसार का दूसरा और महत्वपूर्ण
पक्ष यह है कि उनका राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव बढ़ रहा है, नागरिकों के एक बड़े
हिस्से की सोच-रहन-सहन पर उसका असर बढ़ रहा है और सार्वजनिक जीवन में उन्हें
राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर एजेंडा तय करते हुए देखा जा सकता है.
इसे लेकर अब
बहुत विवाद नहीं है कि जन माध्यमों की सक्रियता सार्वजनिक और नागरिक जीवन के सभी
पक्षों को गहरे प्रभावित कर रही है. कई विश्लेषकों का मानना है कि माध्यमों के
तीव्र प्रसार के साथ भारत एक ‘मीडियाटाईज्ड समाज’ में बदलता जा रहा है जहाँ
नागरिकों के एक बड़े हिस्से के पास राज-समाज खासकर राजनीति और दूसरे महत्वपूर्ण
मुद्दों के बारे में सूचनाएं और विचार प्राथमिक स्रोतों और खिलाड़ियों के बजाय जन
माध्यमों के जरिये पहुँच रही हैं.
इसके कारण आज जन माध्यम न सिर्फ जनमत को बनाने और उसे प्रभावित करने
में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं बल्कि आम जन जीवन में भी लोगों की आदतों, रुचियों,
इच्छाओं और उनके व्यवहार पर गहरा असर डाल रहे हैं. ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण
हो जाता है कि खुद इन जन माध्यमों की अपनी सोच, एजेंडा, दिशा और चरित्र क्या है?
जाहिर है कि इस सवाल का उत्तर बहुत गहराई से जन माध्यमों के स्वामित्व (ओनरशिप) और उनके एजेंडे और सोच-विचार से जुड़ा हुआ है. भारत में जन माध्यम मुख्यत: निजी क्षेत्र के हाथों में हैं. प्रिंट मीडिया (अखबार/पत्रिकाएं) पर तो पूरी तरह से निजी क्षेत्र का वर्चस्व है जबकि मूलतः सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में रहे प्रसारण माध्यमों (टी.वी/रेडियो) में भी पिछले दो दशकों में निजी क्षेत्र का दायरा और दखल तेजी से बढ़ा है. इसी तरह सिनेमा शुरू से पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथ में रहा है.
जन माध्यमों पर बड़ी निजी पूंजी का बढ़ता वर्चस्व
इस बीच एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि जन माध्यमों पर निजी क्षेत्र
के बढ़ते वर्चस्व और खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछले दो दशकों में जन
माध्यमों के स्वामित्व में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी प्रवेश और प्रभाव में
उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है. जन माध्यमों में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश के साथ मीडिया उद्योग के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है. इसके साथ मीडिया उद्योग में कुछ बड़े देशी-विदेशी मीडिया समूहों का वर्चस्व बढ़ा है. मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण (कंसन्ट्रेशन) और एकाधिकारवादी और अल्पधिकरवादी (मोनोपोली और अल्गापोली) प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं.
इसके कारण जन माध्यमों की अंतर्वस्तु (कंटेंट) और उसके चरित्र में भी
बदलाव साफ़ देखे जा सकते हैं. असल में, कारपोरेटीकरण के बाद मीडिया कंपनियों पर
उनके निवेशकों की ओर से मुनाफे का दबाव बढ़ा है और नतीजे में, अधिक से अधिक से
मुनाफा कमाने के लिए मीडिया कम्पनियाँ जन माध्यमों और पत्रकारिता की आचार संहिता
(एथिक्स) के साथ समझौता कर रही हैं, पत्रकारिता के उसूलों और मूल्यों को तोड़ रही
हैं और कारपोरेट हितों के अनुकूल एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी है.
हाल के अनेकों
उदाहरणों से साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों के स्वामित्व
वाले मीडिया समूहों के लिए लोकतंत्र और जनहित की तुलना में निजी कारपोरेट हित
ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
इस कारण लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत विचारों की विविधता और बहुलता के
लिए कारपोरेट जन माध्यमों में जगह दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है. दूसरी ओर, जन
माध्यमों के कंटेंट में भी आम लोगों और उनके सरोकारों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए
जगह कम होती जा रही है. जन माध्यमों में लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने और सार्वजनिक हित की प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नामपर सस्ते-फूहड़-फ़िल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है.
एक मायने में, कारपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं.
लेकिन कारपोरेट जन माध्यमों के इस बुनियादी चरित्र और उद्देश्य को
लेकर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और चिंता जाहिर की जाती रही है. इसी
पृष्ठभूमि में जनहित को सर्वोपरि माननेवाले और लोगों के जानने और स्वस्थ मनोरंजन
के अधिकार के लिए समर्पित लोक सेवा प्रसारण को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की मांग
होती रही है.
इसकी वजह यह है कि इस मुद्दे पर अधिकांश मीडिया अध्येता और विश्लेषक
एकमत हैं कि निजी पूंजी के स्वामित्व वाले जन माध्यमों की सीमाएं स्पष्ट हैं
क्योंकि वे व्यावसायिक उपक्रम हैं, मुनाफे के लिए विज्ञापनदाताओं और निवेशकों के
दबाव में कंटेंट के साथ समझौता करना उनके स्वामित्व के ढांचे में अन्तर्निहित है
और वे व्यापक जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा करते रहेंगे.
लोक सेवा प्रसारण की कसौटियां
हालाँकि लोक प्रसारण सेवा का विचार नया नहीं है लेकिन यहाँ स्पष्ट
करना जरूरी है कि लोक सेवा प्रसारण की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि वह
न राज्य (सरकार) के नियंत्रण में होनी चाहिए और न ही निजी व्यावसायिक प्रसारकों के
अधिकार में. वह इन दोनों के नियंत्रण और दबावों से बाहर और वास्तविक अर्थों में
स्वतंत्र और स्वायत्त होनी चाहिए. उसका मुख्य उद्देश्य सभी वर्गों, समुदायों और समूहों के लोगों को बिना किसी लैंगिक-जातिवादी-धार्मिक-एथनिक पूर्वग्रह के उनकी नागरिक की भूमिका निभाने के लिए जरूरी सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित सूचनाएं उपलब्ध कराना, उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अधिकतम संभव विचारों से अवगत कराना, उन्हें शिक्षित करने के लिए जानकारी, विचार और चर्चाओं से रूबरू कराना और उनके स्वस्थ मनोरंजन के लिए सृजनात्मक विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करना होना चाहिए.
इसके साथ ही, लोक सेवा प्रसारण की एक और महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि
उसमें कार्यक्रमों के निर्माण से लेकर उसके प्रबंधन में आम लोगों और
बुद्धिजीवियों/कलाकारों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए. लेकिन पिछले कुछ दशकों में
व्यावसायिक प्रसारण माध्यमों के बढ़ते वर्चस्व के बीच इस विचार को हाशिए पर ढकेल
दिया गया था.
यह मान लिया गया था कि व्यावसायिक प्रसारण के विस्तार और बढ़ोत्तरी
में लोक सेवा की जरूरतें भी पूरी हो जायेंगी. यही कारण है कि भारत समेत दुनिया के
ज्यादातर देशों में लोक प्रसारण सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है. ज्यादातर देशों
में लोक प्रसारण के नामपर राज्य और सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलनेवाले
राष्ट्रीय प्रसारक हैं जिन्हें न तो पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, न
उन्हें सृजनात्मक आज़ादी हासिल है और न ही वे जनहित में प्रसारण कर रहे हैं.
अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर देशों
में वे सरकार के भोंपू में बदल दिए गए हैं और दूसरी ओर, उन्हें निजी प्रसारकों के
साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में ढकेल दिया गया है. इस कारण लोगों में एक ओर उनकी साख बहुत कम है और दूसरी ओर, निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में उनका इस हद तक व्यवसायीकरण हो गया है कि उनमें लोक प्रसारण सेवा की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है.
इस प्रक्रिया में वे न तो लोक प्रसारण सेवा की कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही पूरी तरह व्यावसायिक प्रसारक की तरह काम कर पा रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सत्तारुढ़ दल और नौकरशाही के साथ-साथ व्यावसायिक शिकंजे में उनका दम घुट रहा है.
जारी .....
('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित लेख की पहली क़िस्त)
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