सोमवार, मई 30, 2011

किसानों के साथ धोखा और जुल्म का दूसरा नाम है यमुना एक्सप्रेसवे


किसानों की जमीन लूटने में लगी है जे.पी. एसोशिएट


कल दिन में आगरा में था. एकता परिषद के मित्रों ने जन सुनवाई के लिए बुलाया था. मुद्दा था- यमुना एक्सप्रेसवे और उसके किनारे टाउनशिप बनाने के लिए नोयडा से लेकर आगरा तक किसानों की लाखों हेक्टेयर जमीन को मनमाने तरीके से अधिग्रहण करने और उसे जे.पी. एसोशिएट और दूसरी रीयल इस्टेट कंपनियों को देने का. मेरे साथ दिल्ली से कल सुबह गांधीवादी विचारक राजीव वोरा और कृषि से जुड़े सवालों पर वैकल्पिक दृष्टि के साथ लिखने और लड़नेवाले देवेंदर शर्मा. जन सुनवाई की अध्यक्षता एकता परिषद के पी.वी. राजगोपाल कर रहे थे.


दिल्ली से आगरा के रास्ते में ही पता चला कि जन सुनवाई राजा की मंडी के पास जिस जगह पर होनी थी, वहां जिला प्रशासन ने उसकी अनुमति देने से मना कर दिया है. यही नहीं, यह भी खबर मिली कि जिला प्रशासन गावों में किसानों को जन सुनवाई में हिस्सा लेने पर देख लेने की धमकी दे रहा है. किसानों को आतंकित करने और धमकाने के अलावा उन्हें फुसलाया जा रहा है. आयोजकों ने बताया और बाद में पीड़ित किसानों की बात सुनते हुए इसकी पुष्टि भी हुई कि पूरे इलाके में जबरदस्त आतंक का माहौल है.


किसी तरह जल्दी में यूथ हास्टल के सभागार में जन सुनवाई का इंतजाम किया गया. सुनवाई में कोई डेढ़ सौ के आसपास किसान पहुंचे थे. लेकिन वे सभी एक वे एक तरह से अलग-अलग गावों के प्रतिनिधि थे. कोई १२ बजे से शुरू हुई जन सुनवाई ५ बजे तक चली. इसके बाद शुरू हुई किसानों की एक के बाद आपबीती. सबके पास अपना और अपने गांव के दूसरे साथियों का वह दुखड़ा था जिसमें एक्सप्रेसवे और टाउनशिप के नाम पर जबरिया जमीन अधिग्रहण और उसके लिए अपनाए तौर-तरीकों का मार्मिक ब्यौरा था.  


किसानों के बयानों से कई बातें सामने आईं जिनके बारे में मीडिया में नहीं के बराबर या बहुत कम चर्चा हुई है. सबका कहना था कि इस परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण के मामले में जे.पी. एसोशिएट्स के अधिकारियों ने किसानों से करार पर दस्तखत कराने के लिए हर तौर-तरीके इस्तेमाल किए. उनसे लुभावने वायदे किए गए. कहा गया कि हर परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी दी जायेगी. मुआवजे के साथ अगले ३३ सालों तक प्रति एकड़ के हिसाब से हर महीने २५ हजार रूपये दिए जाएंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि जिन किसानों ने इन झांसों में आकार जमीन दे दी, उन्हें कुछ खास नहीं मिला. वे सभी अब पछता रहे हैं.  


लेकिन जो किसान इसके बाद भी करार के लिए तैयार नहीं हुए, उन्हें डराया-धमकाया गया. कहा गया कि जिला और पुलिस प्रशासन कंपनी की जेब में हैं. किसानों को इस सच्चाई का अनुभव भी हुआ. कई किसानों को आगरा में कंपनी के दफ्तर- अनामिका में बुलाकर धमकाया गया. उस दौरान वहां स्थानीय एस.डी.एम और सी.ओ भी मौजूद रहते थे. कुछ किसानों की जमीन को अगल-बगल से घेर दिया गया ताकि उसके पास करार के अलावा कोई चारा न रहे. कुछ को घोषित मुआवजे से कुछ अतिरिक्त रकम देकर तोडा गया.


इसके बाद भी जो नहीं माना, उसे डराने के लिए बिजली विभाग की ओर से बिजली चोरी और बड़े-बड़े बिजली के बिल भेजे गए. छोटे दुकानदारों के घर नाप-तौल विभाग से लेकर वैट-सेल टैक्स अफसरों को डराने के लिए भेजा गया. यही नहीं, कुछ किसानों के खिलाफ पुलिस ने फर्जी मुकदमे लादने शुरू कर दिए. कहने का मतलब यह कि अगर आपने चुपचाप करार पर दस्तखत करके जमीन नहीं दे दी तो आपको तोड़ने के लिए कंपनी के गुंडों से लेकर पुलिस और दूसरे सरकारी विभागों की ओर से साम-दाम-दंड-भेद सभी आजमाए गए. नतीजा, अधिकांश किसानों के पास करार पर दस्तखत करने और जमीन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.


इसके बावजूद काफी किसान अभी भी डटे हुए हैं. वे जमीन देने के लिए तैयार नहीं हैं. वे लड़ रहे हैं. पुलिस और कंपनी के गुंडों की मार झेल रहे हैं. उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है. उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा है. उनका सब्र टूट रहा है.


जारी...कल बात करेंगे, इस परियोजना के नाम पर मचे जमीन की लूट की...

मंगलवार, मई 24, 2011

जयराम को चाहिए वर्ल्ड क्लास फैकल्टी


विश्वविद्यालय आसमान से नहीं, अपने समाज से पैदा होते हैं  



जयराम रमेश को सुर्ख़ियों में बने रहना आता है. इसके लिए उन्हें विवादों की भी परवाह नहीं रहती है. कई बार वे विवाद पैदा करने के लिए ही बोलते हैं. बहुत लोगों को लगता है कि रमेश खरी-खरी बातें और कई बार बिना सोचे बोलकर विवादों में फंस जाते हैं. लेकिन रमेश इतने भोले और मासूम नहीं हैं, जितना उनके बारे में ऐसी राय रखनेवाले मानते हैं.


सच यह है कि रमेश बहुत सोच-समझकर बोलते हैं और उनके हर कहे का बहुत गहरा मतलब होता है जिसे कई बार उनके दोस्त और निंदक दोनों नहीं समझ नहीं पाते हैं. रमेश ने पिछले कुछ वर्षों में बहुत मेहनत से अपनी पर्यावरणवादी छवि गढ़ने की कोशिश की है जो बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से भी नहीं डरता और उसूलों का पक्का है. उनके कुछ फैसलों और बयानों से लगा कि इसमें कुछ हकीकत भी है.


लेकिन धीरे-धीरे उनकी सच्चाई सामने आने लगी है. जैतापुर से लेकर पास्को तक उनकी कड़क छवि बड़ी पूंजी की गर्मी से पिघलने लगी है. उन्हें भी अब पर्यावरण के बदले विकास की चिंता सताने लगी है. लेकिन जैसे-जैसे उनका असली चेहरा सामने आ रहा है, अपनी गढ़ी हुई छवि से प्यार करनेवाले रमेश अपनी मजबूरियां गिनाने लगे हैं.


लेकिन रमेश, आखिर रमेश हैं. उन्हें अब इलहाम हुआ है कि आई.आई.टी और आई.आई.एम में आनेवाले विद्यार्थी वर्ल्ड क्लास हैं लेकिन उनकी फैकल्टी और उनका शोध वर्ल्ड क्लास नहीं है. कहना मुश्किल है कि वर्ल्ड क्लास से उनका मतलब क्या है? लेकिन कई विश्लेषकों और अख़बारों ने भी उनकी इस राय से सहमति जताई है.


ऐसा लगता है कि वर्ल्ड क्लास से उनका मतलब विकसित पश्चिमी देशों से प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय जर्नलों में रिसर्च पेपर्स छपने और नोबल प्राइज जीतने से है. अगर यह कसौटी है तो निश्चय ही, आई.आई.टी और आई.आई.एम से लेकर तमाम अकादमिक संस्थानों और विश्वविद्यालय की फैकल्टी और उनका शोध वर्ल्ड क्लास का नहीं है. सच यह है कि इस तरह की वर्ल्ड क्लास फैकल्टी और शोध दुनिया के कुछ चुनिन्दा देशों तक सीमित है जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ़्रांस आदि शामिल हैं.

लेकिन इन देशों में वर्ल्ड क्लास फैकल्टी और शोध के पीछे वर्ल्ड क्लास विश्वविद्यालय और अकादमिक संस्थान हैं जो २०-४० साल में नहीं बल्कि २०० साल से लेकर ४०० सालों में बने हैं. उनका एक इतिहास और विरासत है. दूसरे, इन देशों ने अपने वर्ल्ड क्लास विश्वविद्यालयों को खड़ा करने के लिए आर्थिक संसाधन और अकादमिक स्वतंत्रता मुहैया कराने में में कभी कोई संकोच नहीं किया है. तीसरे, उनका शिक्षा और शोध का सालाना बजट भारत जैसे विकासशील देशों की तुलना में कई गुना अधिक है. चौथे, उन्होंने उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के लिए उसके विस्तार के साथ उसमें सभी वर्गों की पहुंच और बराबरी सुनिश्चित की है.


इसलिए एक ऐसे देश में जहां अभी भी २५ फीसदी से अधिक आबादी साक्षर नहीं है, कालेज और यूनिवर्सिटी जाने लायक युवाओं की कुल आबादी में से मुश्किल से १४ फीसदी को वहां प्रवेश मिल पाता हो, उच्च शिक्षा समेत पूरी शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ४ फीसदी से भी कम हो और जहां ९५ फीसदी विश्वविद्यालयों को सिर्फ परीक्षा कराने और डिग्री बांटने तक सीमित कर दिया गया है, वहां वर्ल्ड क्लास शिक्षक और शोध कहां से और कैसे पैदा होंगे?


कहने की जरूरत नहीं है कि वर्ल्ड क्लास संस्थान, शिक्षक और शोध आसमान से नहीं पैदा नहीं होते हैं. वे आयातित भी नहीं किए जाते, जैसाकि यू.पी.ए सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खोलने के लिए तर्क गढ़ रही है. यही नहीं, वर्ल्ड क्लास संस्थान और शिक्षक देश के बाकी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की उपेक्षा करके और अधिक से अधिक संसाधन झोंककर आई.आई.टी और आई.आई.एम जैसे इलीट संस्थान खड़े करने से भी पैदा नहीं होते.   


याद रखिये, विश्वविद्यालय अपने देश और समाज की खास परिस्थितियों में पैदा होते और बढ़ते हैं. उनका अपने समाज और संस्कृति से आवयविक सम्बन्ध होता है. वर्ल्ड क्लास विश्वविद्यालय और संस्थान एक लंबी प्रक्रिया में बनते हैं जिसमें वे अपने समाज से लेते हैं और दूसरी ओर, उसे वापस भी देते हैं.


लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में सभी आई.आई.टीज विदेशी मदद से खड़े किए गए और उनका अपने आसपास के समाज से कुछ खास लेना-देना नहीं है. यही हाल आई.आई.एम का है. उनका अपने समाज और उसकी जरूरतों से कोई सम्बन्ध नहीं है. जैसे अंग्रेजों ने कालेज और यूनिवर्सिटीज काले अंग्रेज पैदा करने के लिए बनाए थे, कुछ उसी तरह आई.आई.टीज और आई.आई.एम देश और समाज की सेवा के लिए नहीं बल्कि बड़ी पूंजी के हितों को पूरा करने के लिए खड़े किए गए. 


जयराम रमेश उसी व्यवस्था की पैदाइश हैं और उसी सोच में रचे-बसे हैं जिसके लिए वर्ल्ड क्लास का मतलब बड़ी पूंजी के लिए अनुकूल शोध पेश करना है. वे वर्ल्ड क्लास के सपने के नाम पर देश की शिक्षा व्यवस्था को देशी-विदेशी निजी पूंजी को सौंपना चाहते हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने रिलायंस के साथ मैरिन संस्थान शुरू करके दे दी है.


जाहिर है कि वे ऐसे बयानों के जरिये फैकल्टी को अपमानित करके इलीट संस्थानों और इलीट उच्च शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं. जरूरत रमेश के इस बयान के निहितार्थों को समझने की है.                                   

रविवार, मई 22, 2011

यू.पी.ए-दो : पांच साल की कमाई, दो साल में गंवाई


यू.पी.ए-२ के दो साल : घोटालों और महंगाई का तोहफा



कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए-२ सरकार के दो साल भ्रष्टाचार के नए रिकार्डों और आसमान छूती महंगाई के बीच पूरे हो गए. यू.पी.ए खेमे में भले ही जश्न का माहौल हो लेकिन इस जश्न पर छाए मातम के माहौल को अनदेखा करना मुश्किल है. आखिर किस बात का जश्न मनाएं? किसे नहीं पता कि पांच सालों की कमाई वह पिछले दो सालों में गंवा चुकी है.  



इस सरकार में केन्द्रीय मंत्री रहे ए. राजा और यू.पी.ए की प्रमुख सहयोगी पार्टी के नेता करूणानिधि की बेटी कनिमोरी भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गए २-जी महाघोटाले में जेल में हैं. कांग्रेस संसदीय दल के सचिव रहे सुरेश कलमाडी कामनवेल्थ घोटाले में जेल में हैं और महाराष्ट्र में आदर्श हाउसिंग घोटाले की जांच जारी है. सी.वी.सी पद पर दागी पी.जे थामस की नियुक्ति को खुद सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है. 

लेकिन इस सबके बावजूद माना जा रहा है कि यह सिर्फ ट्रेलर भर है. आनेवाले दिनों में ऐसे और भी घोटालों के खुलासे हो सकते हैं. सरकार और कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार से लड़ने और घोटालेबाज नेताओं के खिलाफ कार्रवाई के कितने भी दावे करें. लेकिन कोई भी उसपर विश्वास करने को तैयार नहीं है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मनमोहन सिंह सरकार का इकबाल कितना कमजोर पड़ चुका है.



कहने की जरूरत नहीं है कि घोटालों की दिन पर दिन लंबी और गहरी होती छाया के बीच सरकार की चमक फीकी पड़ चुकी है. असल में, घोटाले इस सरकार की पहचान बन चुके हैं. इस हद तक कि लगभग हर सौदे और समझौते से घोटाले की गंध आ रही है. इन घोटालों की खास बात यह है कि यह सरकार कीमती सार्वजनिक संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों को कौडियों के भाव देशी-विदेशी कंपनियों को सौंपने में लगी है.



अगर इस सरकार में आपकी सही जगह तक पहुंच है या आप उसके चहेतों की सूची में हैं तो आपके लिए स्पेक्ट्रम से लेकर कोल लाइसेंस तक सभी कौडियों के मोल उपलब्ध है. इस क्रोनि पूंजीवाद के दौर में बड़ी कारपोरेट पूंजी के बल्ले-बल्ले हैं. इस पूंजी के हितों को पूरा करने के लिए गरीबों के रोजी-रोजगारपर हमले से लेकर उनके जल-जमीन-जंगल को जबरन छीनने की कोशिशें बढ़ती जा रही हैं.


जैसे इतना ही काफी नहीं हो. यू.पी.ए-दो को आसमान छूती महंगाई के लिए भी याद किया जायेगा. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस सरकार ने न सिर्फ महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं बल्कि उसे महंगाई की आग में तेल डालने में भी संकोच नहीं हो रहा है. इस महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है. विश्व खाद्य संगठन और विश्व बैंक का कहना है कि खाद्य वस्तुओं की तेज महंगाई ने करोड़ों लोगों को फिर से गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिया है और वे भूखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं.  



लेकिन वायदे के बावजूद सरकार अभी तक खाद्य सुरक्षा का कानून नहीं ले आ पाई है. एन.ए.सी के सीमित सुझावों को भी मनमोहन सिंह सरकार ने अव्यवहारिक बताकर ठुकरा दिया है. यही नहीं, एक ओर करोड़ों गरीब भूखे पेट सोने को मजबूर हैं और दूसरी ओर, सरकार गोदामों में करोड़ों टन अनाज दबाकर बैठी है.



वहां अनाज को चूहे खा रहे हैं या वह सड़ रहा है या फिर उसे औने-पौने दामों में निर्यात करने (यानी एक और घोटाले) की तैयारी है. सच पूछिए तो इस समय सरकार खुद सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है. लेकिन उसे लोगों की भूख से ज्यादा अपने वित्तीय घाटे की फ़िक्र है. इसकी वजह यह है कि उसपर वित्तीय घाटे को कम करने के लिए देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के साथ-साथ विश्वबैंक-मुद्रा कोष का दबाव है.


विडम्बना देखिए कि एक ओर करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं और दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार डिनर डिप्लोमेसी में जुटी है. दो साल पूरा करने के जश्न के मौके पर आयोजित डिनर में कौन-कौन आ रहा है, सरकार के नुमाइंदे इसका हिसाब लगाने में लगे हैं.


ऐसे में, आज की रात देश में कितने बच्चे, माएं और बूढ़े भूखे सोए, इसकी परवाह किसे है? अलबत्ता सरकार अभी गरीबों का सर्वेक्षण कराने में व्यस्त है क्योंकि उसे पता नहीं है कि देश में गरीब कितने हैं!

पटना:२२ मई'११

शनिवार, मई 21, 2011

वामपंथ का भविष्य


भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा से इतर एक तीसरे वैकल्पिक मोर्चे की जगह बनी हुई है






पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की हार के बाद भारत में भी वामपंथी विचारधारा और राजनीति के अंत की भविष्यवाणियां सुर्ख़ियों में हैं. कहा जा रहा है कि सोवियत संघ के साथ वामपंथ के ध्वंस की हवा दो दशक बाद यहां पहुंची है लेकिन अंततः इतिहास के अंत से भारतीय वामपंथ का तयशुदा साक्षात्कार हो ही गया.

यह भी दावा किया जा रहा है कि अगर वामपंथ खासकर माकपा (सी.पी.आई-एम) ने खुद को एक सामाजिक जनवादी पार्टी में नहीं बदला तो उसका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है. चुटकी लेनेवाले अंदाज़ में कहा जा रहा है कि यह तो बहुत पहले ही हो जाना था और यह पता लगाया जाना चाहिए कि वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में ३४ सालों तक चुनाव कैसे जीतता रहा? 


कहने की जरूरत नहीं है कि कुछ लोग इसी दिन और मौके का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. खासकर पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के सफाए ने वामपंथ के आलोचकों को ऐसी भविष्यवाणियां और टिप्पणियां करने का मौका दे दिया है. यह मौका देने के लिए खुद वाम मोर्चा खासकर माकपा सबसे अधिक जिम्मेदार है.

लेकिन वामपंथ के वैचारिक और राजनीतिक आलोचक उसके अंत की घोषणा करने में न सिर्फ बहुत जल्दबाजी और अति उत्साह दिखा रहे हैं बल्कि लगता है कि वे खुद इतिहास के सबक को भूल गए हैं. इतिहास ने पिछले एक-डेढ़ दशकों में लातीन अमेरिका से लेकर यूरोप तक में किस तरह से करवट ली है, यह किसी से छुपा नहीं है.


माफ़ कीजियेगा, यह मानना किसी वैचारिक आस्था का प्रश्न नहीं है कि यह वामपंथ का अंत नहीं है और वामपंथ की प्रासंगिकता बनी रहेगी. सच पूछिए तो भारतीय समाज की विविधता और बहुलता के साथ-साथ उसमें मौजूद आर्थिक-सामाजिक विषमता, गैर-बराबरी और शोषण-उत्पीडन के मद्देनजर एक उच्चतर और वैकल्पिक राजनीतिक दर्शन के बतौर भारतीय राजनीति में वामपंथ की भूमिका और प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी.

असल में, राजनीति में किसी विचारधारा की प्रासंगिकता उसके समर्थकों और सिद्धांतकारों की मनोगत इच्छा से नहीं बल्कि उस समाज की ठोस वस्तुगत राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ और उसके मुताबिक आम लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों को अभिव्यक्त कर पाने से होती है.


इसलिए भारत में वामपंथ के भविष्य पर बात करते हुए असल सवाल यह बनता है कि क्या आज वामपंथ भारतीय समाज और राजनीति में एक उच्चतर वैचारिक विकल्प और आम लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं को पेश कर पा रहा है? इस सवाल के उत्तर के लिए हमें मौजूदा दौर में भारतीय वामपंथ की तीन विशिष्ट धाराओं की वैचारिक दृष्टि, राजनीतिक एजेंडे और दिशा, रणनीति और कार्यनीति को समझने की कोशिश करनी पड़ेगी.

ये तीन धाराएँ हैं: माकपा के नेतृत्व में संसदीय राजनीति में पूरी तरह से रम चुका वाम मोर्चा, नक्सलवादी विद्रोह से निकली और संसदीय राजनीति को जनसंघर्षों के मातहत रखने की वकालत करनेवाली रैडिकल वामपंथ की एम-एल धारा और संसदीय दायरे से बाहर सशस्त्र क्रांति में विश्वास करनेवाली माओवादी धारा. इनके अलावा भी देश में सैकड़ों स्वतंत्र वाम-लोकतान्त्रिक जनसंगठन और पार्टियां हैं जो स्वयं को वाम राजनीति और पहचान से जोड़कर देखती हैं.        


इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर वाम धारा की इन सभी पार्टियों, मोर्चों और जनसंगठनों की सामूहिक ताकत को जोड़ लिया जाए तो वामपंथ आज भी देश में एक बड़ी और प्रभावशाली राजनीतिक शक्ति है. दूसरे, वामपंथ की कुल शक्ति का अंदाजा सिर्फ उसकी संसदीय उपस्थिति से नहीं बल्कि जनसंघर्षों को खड़ा करने और उसकी अगुवाई से भी लगाया जाना चाहिए.

आज भी देश के बड़े हिस्से में गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हक और सम्मान की लड़ाई में वाम संगठन ही सबसे आगे हैं. तीसरे, राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिणपंथी झुकाव और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और सांप्रदायिक फासीवाद के उभार के खिलाफ सबसे सुसंगत राजनीतिक आवाज़ वामपंथ की ही है.


यही कारण है कि आज भी भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा के विकल्प में वाम के बिना एक विश्वसनीय तीसरे मोर्चे की कल्पना नहीं की जा सकती है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि भारतीय समाज की विविधता और बहुलता और लोगों की लोकप्रिय इच्छाओं और आकांक्षाओं को समेटने में कांग्रेस और भाजपा और उनके नेतृत्व में बने दोनों गठबंधन नाकाम रहे हैं. यही कारण है कि अपनी तमाम कमियों, अंतर्विरोधों और अस्थिरता के बावजूद तीसरे मोर्चे का सवाल प्रासंगिक बना रहता है.


कहने का आशय है कि भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वाम राजनीति के लिए जगह मौजूद है. लेकिन जगह होना और उसे भरने के लिए जरूरी तैयारी के साथ आगे आना दो अलग-अलग बातें हैं. मुश्किल यह है कि इस दौर में वामपंथ की तीनों विशिष्ट धाराएँ कुछ एक जैसे और कुछ अलग-अलग कारणों से राजनीतिक गतिरुद्धता में फंसी हुई हैं.

लेकिन इनमें राजनीतिक रूप से सबसे बड़ी ताकत होने के बावजूद पश्चिम बंगाल में हार के बाद सरकारी वामपंथ के सामने सचमुच एक अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है. इस चुनावी हार से उबरना और राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में अपने को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाना वाम मोर्चे खासकर माकपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है.


यह चुनौती आसान नहीं है जितनी वाम मोर्चे के समर्थक और खुद माकपा के नेता समझ रहे हैं. यह केवल एक चुनाव हारने तक सीमित मामला नहीं है. यह बुनियादी संकट है. असल में, एक पूंजीवादी लोकतंत्र में किसी भी रैडिकल वाम पार्टी या मोर्चे की असली भूमिका विपक्ष की होती है. यहां तक कि जनसंघर्षों के बल पर स्थानीय और क्षेत्रीय सरकारों में होने के बावजूद उसकी भूमिका में बदलाव नहीं होता.

लेकिन वाम मोर्चे और माकपा ने इस व्यवस्था के विपक्ष के बजाय खुद को सत्ता की पार्टी में बदल दिया है. उनकी सारी राजनीति अपनी तीन राज्य सरकारों को बचाने और उसके लिए अपने मुद्दों और जनसंघर्षों को भी कुर्बान करने तक पहुंच गई.


आश्चर्य नहीं कि माकपा एक ओर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध कर रही थी लेकिन दूसरी ओर, उन्हीं नीतियों को जबरन पश्चिम बंगाल में लागू कर रही थी. उसने इसके लिए नंदीग्राम और सिंगुर में गरीबों और किसानों का खून बहाने में भी संकोच नहीं किया. यही नहीं, वाम मोर्चे खासकर माकपा ने संयुक्त मोर्चे के नाम पर भारतीय राजनीति में वाम की स्वतंत्र दावेदारी को भी बहुत पहले छोड़ दिया.

यह एक ऐसी भूल थी जिसने वाम के अपने राजनीतिक आधार को खोखला कर दिया. उत्तर और दक्षिण भारत में वाम मोर्चे का आधार छीजता चला गया. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि पिछले दो दशकों में साम्प्रदायिकता को रोकने के नाम पर कभी कांग्रेस, कभी मुलायम, कभी लालू और कभी जयललिता का झंडा उठाने में लगे रहे वाम मोर्चे ने अवसरवादी, भ्रष्ट और बेमेल गठजोड़ों को आगे बढ़ाया.


गोया साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई लोगों के बुनियादी हक-हुकूक की लड़ाई से अलग हो. उसकी इसी राजनीतिक दिवालिएपन का नमूना चार साल तक यू.पी.ए-एक सरकार का समर्थन करने के बाद जल्दबाजी में एक अवसरवादी और साख खो चुके नेताओं का चुनावी तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश था जिसे लोगों ने ठुकरा दिया. इन कोशिशों के जरिये माकपा ने रही-सही साख भी गंवा दी.

लेकिन लगता नहीं कि माकपा ने इससे कोई सबक सीखा. हैरानी की बात नहीं है कि तमिलनाडु में माकपा-भाकपा ने भ्रष्टाचार और मनमानी के लिए मशहूर जयललिता के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. साफ है कि माकपा ने मान लिया है कि वह अकेले दम पर खड़ी नहीं हो सकती है.


दूसरी ओर, जनसंघर्षों से उसकी बढ़ती दूरी का प्रमाण यह है कि देश भर में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों, प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों के कारपोरेट लूट, जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ चल रहे ९० फीसदी जनांदोलनों में सरकारी वामपंथ कहीं नहीं है.

उल्टे माओवाद को कुचलने के नाम पर जनांदोलनों के खिलाफ चल रहे आपरेशन ग्रीन हंट में वह सरकार के साथ खड़ी है. लालगढ़ में वह इस आपरेशन की अगुवाई करती हुई दिखाई पड़ी. साफ है कि एक वामपंथी पार्टी के रूप में माकपा की भूमिका दिन पर दिन रैडिकल वामपंथ के बढ़ाव को रोकने के लिए शासक वर्गों द्वारा इस्तेमाल किए जानेवाले बफर में सीमित होती जा रही है.


लेकिन उम्मीद करनी चाहिए कि सत्ता से बाहर आने के बाद वह अपने विचलनों का आत्मनिरीक्षण करेगी और संसदीय राजनीति के अवसरवाद में फंसते जाने के बजाय गरीब जनता के जनसंघर्षों से अपने को जोड़ेगी. यही नहीं, उसे वामपंथी आंदोलन की दूसरी रैडिकल धाराओं के साथ-साथ अन्य वाम-लोकतान्त्रिक जनांदोलनों के साथ भी संवाद का रास्ता खोलना होगा.


लेकिन सबसे बढ़कर वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी को बुलंद करना होगा. मध्यमार्गी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे-पीछे बहुत चल चुके. अब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कीजिए. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए अपना अहंकार छोड़कर पहल माकपा को ही करनी होगी. इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २१ मई'११ को प्रकाशित)

शुक्रवार, मई 20, 2011

ब्रेकिंग न्यूज : आपरेशन ओसामा

ओसामा के मारे जाने की कहानी में झोल ही झोल


न्यूज चैनलों का ब्रेकिंग न्यूज प्रेम जगजाहिर है.इस प्रेम का आलम यह है कि चैनलों पर हर दस मिनट (कई चैनलों पर हर पांच, कुछ पर हर एक-दो मिनट) में एक बार ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलने का एक अघोषित नियम सा बन गया है. सच पूछिए तो न्यूज चैनलों की सांस ब्रेकिंग न्यूज से ही चलती है.

इस मायने में, न्यूज चैनल और ब्रेकिंग न्यूज एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. यह और बात है कि चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज प्रेम ने ब्रेकिंग न्यूज की ऐसी-तैसी कर दी है. वहां अब वह हर खबर ब्रेकिंग न्यूज है जो चैनल पर पहली बार चलती है.
लेकिन अकसर यह देखा गया है कि जब असल में ब्रेकिंग न्यूज आती है तो वे तैयार नहीं होते हैं. उस समय उनकी हड़बड़ी और गडबडियां देखने लायक होती हैं. उनमें जोश तो बहुत होता है लेकिन होश नहीं रहता.

आश्चर्य नहीं कि जब अल कायदा नेता ओसामा बिन लादेन की अमेरिकी कमांडो आपरेशन में मारे जाने की ब्रेकिंग न्यूज आई तो हिंदी और अंग्रेजी के देशी चैनल जोश में बावले हो गए. हालांकि उनके पास दिखाने को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की घोषणा और लादेन की कुछ फ़ाइल फुटेज के अलावा और कुछ खास नहीं था.


लेकिन इससे हमारे कल्पनाशील न्यूज चैनलों को कहां फर्क पड़ता है? एयर टाइम भरने के लिए खबर को फ़ैलाने और तानने की उनकी क्षमता असंदिग्ध है. खबर गढ़ने में उनका कोई जोड़ नहीं है.

जाहिर है कि लादेन के मारे जाने की खबर के मामले में भी उन्होंने सूचनाओं, तथ्यों और ताजा फुटेज की कमी की भरपाई अपनी कल्पनाशीलता, कच्ची-पक्की कहानियों, ओसामा के पुराने फ़ाइल फुटेज और स्टूडियो में एंकर और न्यूज रूम में रिपोर्टर की सांस फुलानेवाली उत्साह और उत्तेजना से भरी कमेंट्री के साथ की. उत्साह और उत्तेजना का आलम यह था कि एंकर-रिपोर्टर ओबामा को ओसामा और ओसामा को ओबामा बनाने से नहीं चूके.

कारण, चैनलों में हमेशा की तरह एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ लगी हुई थी. इसी हड़बड़ी और उत्साह में कई चैनलों ने मृत ओसामा की (फर्जी) तस्वीर भी दिखानी शुरू कर दी, यह चेतावनी देते हुए कि ये तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं. कहना मुश्किल है कि चैनलों के संपादकों को इस तस्वीर ने विचलित किया या नहीं?


लेकिन इस तस्वीर की सच्चाई यह थी कि यह इंटरनेट पर २००९ से मौजूद थी और हुआ यह होगा कि चैनलों के उत्साही रिसर्चरों ने जैसे ही गूगल के इमेज सर्च में यह तस्वीर देखी होगी, बिना जांच-पड़ताल के लपक लिया होगा. वैसे भी चैनलों में रिसर्च इंटरनेट पर गूगल बाबा के ज्ञान तक सीमित है.


चलिए मान लिया कि जैसे बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं, वैसे ही बड़ी-बड़ी खबरों के साथ-साथ छोटी-छोटी गलतियां होती रहती हैं. लेकिन यहां तो पूरी कहानी ही फ़िल्मी थी. हालांकि इसमें अपने देशी चैनलों की गलती (अगर मानें तो) सिर्फ इतनी थी कि वे इस अमेरिकी फ़िल्मी कहानी को बिना सोचे-समझे ज्यों का त्यों रिले कर रहे थे.

अमेरिका ने ओसामा को मारे जाने की जो कहानी गढ़ी, उसमें शुरू से इतने झोल थे कि खुद उसे कई बार कहानी बदलनी पड़ी. इसके बावजूद हर बार नई कहानी से जितने सवालों के जवाब मिलते थे, उससे ज्यादा नए सवाल पैदा हो जाते थे.


नतीजा, कमांडो आपरेशन के एक सप्ताह बाद भी हर दिन अमेरिकी प्रशासन से कभी आन द रिकार्ड और कभी आफ द रिकार्ड आधी सच्ची-आधी झूठी ख़बरें प्लांट की जा रही हैं. अमेरिकी मीडिया इसे एक धारावाहिक सीरियल की तरह से छाप और दिखा रहा है. देशी चैनल भी पूरी स्वामीभक्ति के साथ इस जूठन को परोसने में जुटे हुए हैं.

इस तरह हर दिन परस्पर विरोधी खबरें एक नए एंगल, कुछ नए मिर्च-मसाले के साथ बतौर एक्सक्लूसिव छप और दिखाई जा रही हैं. रही-सही कसर अपने देशी न्यूज चैनलों के अत्यंत सृजनशील आउटपुट डेस्क पर पूरी हो जाती है जो तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने के उस्ताद हैं.


इस तरह चैनलों पर ओसामा गाथा के नाम पर उल्टी-पुल्टी ख़बरें जारी हैं. लगता है कि चैनल खुद भी यह नहीं देखते कि उन्होंने कल क्या दिखाया था? यही कारण है कि लादेन, कमांडो आपरेशन, पाकिस्तान को लेकर एकता कपूर के धारावाहिकों की तरह बे-सिर पैर की रिपोर्टें दिखा रहे हैं जिनमें कोई तारतम्यता, तार्किकता और वास्तविकता नहीं है.

इसीलिए कहते हैं कि झूठ को याद रखने की जरूरत पड़ती है. इसके बावजूद हर बार उसे दोहराते हुए कुछ न कुछ गडबडी हो ही जाती है जिससे पोल खुल जाती है.
 
कहने की जरूरत नहीं है कि एबाटाबाद आपरेशन के बारे में ऐसा बहुत कुछ है जिसे अमेरिका और पाकिस्तान दोनों छुपा रहे हैं. संभव है कि कुछ महीनों या सालों (जैसे ओबामा के दोबारा चुनाव) के बाद विकीलिक्स की कृपा से सच्चाई सामने आए क्योंकि अभी तो अमेरिकी मीडिया ओसामा के मारे जाने की राष्ट्रीय उपलब्धि से उछल रहा है.
भारतीय चैनल भी अमेरिकी बहादुरी से पूरी तरह से अभिभूत हैं. नतीजा, देशी चैनलों का राष्ट्रवाद भी जोर मार रहा है और हमेशा की तरह बहस शुरू हो गई है कि हम भी पाकिस्तान के अंदर घुसकर ऐसी ही कमांडो कार्रवाई क्यों नहीं करते हैं?


चैनलों पर एंकरों के नथुने फड़क रहे हैं, सुरक्षा विशेषज्ञ, डिप्लोमैट और सेना के पूर्व जनरल ललकार रहे हैं और राजनेता चेतावनियां दे रहे हैं. लेकिन कोई नहीं बता रहा कि ऐसी कार्रवाई के क्या नतीजे हो सकते हैं? ऐसे मौकों पर अगर किसी ने तर्क और विवेकपूर्ण बात कहने की कोशिश की तो स्टार एंकरों की खिसियाहट, चिढ़ और गुस्सा देखते ही बनता है.


किसी ने ठीक ही कहा है कि युद्ध इतना गंभीर मामला है कि इसे जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. अब इसमें यह जोड़ लेना चाहिए कि ख़बरें इतनी गंभीर मुद्दा हैं कि उन्हें न्यूज चैनलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है.

(तहलका के ३१ मई'११ के अंक में प्रकाशित) 

बुधवार, मई 18, 2011

बेटियों के हत्यारे

सामाजिक टाइम बम्ब में तब्दील हो रहा है लैंगिक असंतुलन


हैरानी की बात नहीं है कि बाल लिंगानुपात के मामले में ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है. देश के सबसे संपन्न इलाके बेटियों के लिए सबसे खतरनाक इलाकों में तब्दील होते जा रहे हैं. हालांकि २००१ की तुलना में २०११ में पंजाब और हरियाणा में बाल लिंग अनुपात में मामूली सुधार हुआ है लेकिन ये दोनों राज्य अब भी बाल लिंगानुपात के मामले में देश के सभी राज्यों में सबसे बदतर स्थिति में हैं.


इन दोनों में बाल लिंगानुपात ८५० से भी नीचे है. इसी तरह बाल लिंगानुपात में सबसे अधिक गिरावट महाराष्ट्र और राजस्थान में दर्ज की गई है जहां पिछले एक दशक में बाल लिंगानुपात घटकर ८८३ रह गया है.

 
कहने की जरूरत नहीं है कि बेटियों की लगातार घटती संख्या एक ऐसे लैंगिक सामाजिक असंतुलन को पैदा कर रही है जो सामाजिक टाइम बम बनता जा रहा है. यह स्थिति सीधे तौर पर सामाजिक अराजकता और तनाव को निमंत्रण देने की तरह है. सवाल यह है कि बाल लिंगानुपात में इस लगातार कमी की वजहें क्या हैं?

 
निश्चय ही, इसके लिए सबसे अधिक वह सामंती पितृ-सत्तात्मक सामाजिक संरचना और सोच जिम्मेदार है जो न सिर्फ महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार करती है बल्कि महिलाओं को बोझ की तरह समझती है. इस सोच के कारण आज भी बेटियां अवांछित समझी जाती हैं और बेटों के लिए उनकी बलि तक चढ़ाने में संकोच नहीं होता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक सुधार और जनतांत्रिक आन्दोलनों, महिलाओं के जुझारू संघर्षों और कानूनी-संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद यह प्रतिगामी सोच अभी भी कमजोर नहीं हुई है. उल्टे यह सामंती सोच पूंजीवादी उपभोक्तावाद के साथ मिलकर औरत को एक उपभोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल करने में जुटी हुई है.

 
पूंजीवादी आधुनिकता के नाम पर औरत को कहने को दिखावटी आज़ादी मिली है लेकिन वास्तविकता में उसकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. औरतों के प्रति बर्बरता और क्रूरता नए रूपों में सामने आई है. आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल करके बालिका भ्रूण हत्या सबसे अधिक पढ़े-लिखे और आधुनिक परिवारों में ही हो रही है.

यही नहीं, तमाम आर्थिक तरक्की और बेटे और बेटी में कोई फर्क न होने के दावों के बावजूद लड़कियां किस कदर अवांछित बनी हुई हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पैदा होने के बाद बेटों की तुलना में बेटियों के जिन्दा रहने की उम्मीद कम रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस) के मुताबिक, १९९३-९७ के बीच पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर का अनुपात प्रति हजार लड़कों पर १०११ लड़कियों का था जो कि २०००-०४ के बीच बढ़कर १०४५ हो गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी वजह पैदा होने के बाद बेटियों की उपेक्षा और उनकी देखभाल में जानबूझकर बरती जानेवाली लापरवाही है.
   
यह सचमुच कितनी शर्मनाक बात है कि आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करनेवाले देश में जन्म के पहले वर्ष में लड़के की तुलना में एक लड़की के मरने की आशंका ४० प्रतिशत अधिक है जबकि पहले से पांचवें जन्मदिन के बीच लड़के की तुलना में एक लडकी के जिन्दा न रहने की आशंका ६१ फीसदी ज्यादा है.

 
इससे पता चलता है कि ऊँची विकास दर के बावजूद सामाजिक तौर पर भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ आगे बढ़ने को तैयार नहीं है बल्कि और प्रतिगामी होता जा रहा है. वह वैश्विक होती अर्थव्यवस्था और उसके साथ आ रही नकली और अधकचरी आधुनिकता और दूसरी ओर, महिलाओं की बढ़ती दावेदारी के साथ तालमेल न बैठा पाने का बदला लड़कियों और महिलाओं से निकाल रहा है.
   
नतीजा, हाल के वर्षों में लड़कियों के पब में जाने या वैलेंटाइन डे पर प्रेम के खुले इजहार के खिलाफ भगवा ब्रिगेड और नैतिकता के ठेकेदारों के हिंसक हमले या जाति-बिरादरी के बाहर प्रेम और विवाह के फैसले के खिलाफ खाप पंचायतों और परिवारों के हमले बढ़े हैं. इसी का दूसरा पहलु यह है कि लड़के की चाह न सिर्फ बढ़ती जा रही है बल्कि बदलते समय और आर्थिक दबावों के कारण परिवार छोटा रखने के दबाव का असर बढ़ते लिंग चयन (पुत्र के पक्ष में) के रूप में सामने आ रहा है.

 
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले दो दशकों में लिंग चयन में इस्तेमाल होनेवाली अल्ट्रा-साउंड मशीनों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है. अब यह किसी से छुपा नहीं है कि इन मशीनों की बढ़ती संख्या और बाल लिंगानुपात में गिरावट के बीच सीधा सम्बन्ध है.

 
यू.एन.एफ.पी.ए की एक रिपोर्ट के अनुमानों के मुताबिक, २००१-०५ के बीच प्रति २० बेटियों के जन्म पर एक बालिका भ्रूण का गर्भपात करवाया गया जो कि १९९६-२००० के बीच प्रति ३० बालिकाओं के जन्म पर एक बालिका भ्रूण के गर्भपात का था. इसका अर्थ यह हुआ कि २००१-०५ के बीच लिंग चयन के बतौर हर साल लगभग ५ लाख बालिका भ्रूणों का गर्भपात करवाया गया.

कहने की जरूरत नहीं है कि लिंग चयन के लिए अल्ट्रा-साउंड के इस्तेमाल के सबसे अधिक मामले उच्च और मध्यम वर्गीय परिवारों में देखे जाते हैं क्योंकि अल्ट्रा-साउंड के इस्तेमाल की फ़ीस देने की कूवत गरीब परिवारों में कम ही है. हालांकि देश के कुछ उत्तरी राज्यों में समृद्ध ग्रामीण परिवार भी इसमें पीछे नहीं हैं.  

 
लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि लिंग परीक्षण पर कानूनी रोक लगानेवाले पी.एन.डी.टी कानून के बावजूद न सिर्फ धड़ल्ले से लिंग परीक्षण और बालिका भ्रूण हत्या हो रही है बल्कि अल्ट्रा-साउंड मशीनों का काला कारोबार अस्पतालों-जांच केन्द्रों, डाक्टरों, पुलिस और अन्य सरकारी महकमों के संगठित गठजोड़ के संरक्षण में फल-फूल रहा है.
 
आश्चर्य नहीं कि यह आम शिकायत है कि बहुतेरी अल्ट्रा-साउंड मशीनें बिना किसी पंजीकरण के चल रही हैं. उनपर कभी कार्रवाई नहीं होती. यहां तक कि जिन कुछ मामलों में कार्रवाई हुई भी, उनमें बहुत कम मामलों में औपचारिक मुक़दमा दर्ज हुआ या फिर सजा हुई.

निश्चय ही, इसके पीछे भ्रष्टाचार के अलावा एक बड़ी वजह कानून लागू करनेवाली एजेंसियों और उनके अधिकारियों-कर्मचारियों पुरुष-सत्तात्मक और स्त्री विरोधी सोच का हावी होना है. इन एजेंसियों में पी.एन.डी.टी कानून तोड़नेवालों के प्रति एक छिपी हुई सहानुभूति देखी जा सकती है.

 
हैरानी की बात नहीं है कि लिंग चयन और बालिका भ्रूण हत्या के मामलों को रोकने में यह कानून पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ है. 

(सामयिक वार्ता के मई'११ अंक में प्रकाशित आलेख) 

मंगलवार, मई 17, 2011

कहां गईं बेटियां ?


उत्तर भूमंडलीकरण दौर में भी महिलाओं के खिलाफ सामाजिक-आर्थिक भेदभाव जारी है   



जनगणना २०११ के प्रारंभिक नतीजे उम्मीदों और आशंकाओं के मुताबिक ही हैं. जैसाकि ऐसी किसी भी बड़ी जनगणना के साथ होता है, इसमें भी कुछ अच्छी ख़बरें हैं, कुछ बहुत अच्छी ख़बरें नहीं हैं और कुछ बहुत निराश और चिंतिंत करनेवाली खबरें भी हैं. यह कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप जनगणना नतीजों को कहां खड़े होकर देख रहे हैं?

बड़ी आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ माननेवाले सरकारी हलकों के लिए ताजा जनगणना के नतीजे अपनी नाकामियों का ठीकरा बढ़ती आबादी पर फोड़ने के एक और मौके की तरह आए हैं.  हमेशा की तरह बढ़ती आबादी को लेकर छाती पीटने का क्रम शुरू हो गया है और देश के भविष्य को लेकर एक से एक भयावह तस्वीर खींची जा रही है.


हालांकि तथ्य यह है कि देश में आबादी बढ़ने की रफ़्तार लगातार कम हो रही है. ताजा जनगणना से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. इसके मुताबिक, जहां २००१ की पिछली जनगणना में १९९१-२००१ के बीच जनसंख्या की सालाना औसतन वृद्धि दर १.९५ प्रतिशत थी, वहीँ २००१ से २०११ के बीच जनसंख्या की औसतन सालाना वृद्धि दर गिरकर १.६२ प्रतिशत रह गई है.

सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि तमिलनाडु को छोड़कर देश के सभी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी दर्ज की गई है. तमिलनाडु में बढ़ोत्तरी की वजह बाहर से आप्रवासन को माना जा रहा है. जनसंख्या की वृद्धि दर में इस गिरावट से साफ है कि आबादी में बढ़ोत्तरी की रफ़्तार कम हो रही है. इसके बावजूद जनसंख्या बम का हौवा खड़ा करनेवाले आबादी को कोसने में लगे हैं.
 

लेकिन दूसरी ओर वे न सिर्फ साक्षरता में वृद्धि के लिए अपनी पीठ ठोंकने में जुटे हुए हैं बल्कि आबादी में युवाओं की बढ़ती तादाद को लेकर जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) के दावे भी कर रहे हैं. यह और बात है कि इस जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और युवाओं को बेहतर शिक्षा और मौके मुहैया कराने में उनकी ओर से अब तक कोई खास पहल या गंभीर कोशिश नहीं की गई है. उसके कारण जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति एक बड़ी दुर्घटना में तब्दील होती दिख रही है.


जनगणना से जनसंख्या वृद्धि दर में कमी और साक्षरता में बढ़ोत्तरी के अलावा एक और कुछ राहत की खबर यह है कि देश की कुल आबादी में महिला-पुरुष यानी लिंग अनुपात में मामूली सुधार हुआ है. ताजा जनगणना के मुताबिक, देश की आबादी में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की आबादी २००१ के ९२६ से बढ़कर ९४० हो गई है. १९६१ में भी लिंग अनुपात यही था. हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि लिंग अनुपात में यह सुधार जनगणना में प्रक्रिया में सुधार खासकर महिलाओं की गणना पर अतिरिक्त जोर देने के कारण भी हो सकता है.

लेकिन इस मामूली सुधार के बावजूद तथ्य यह है कि भारत और चीन, दुनिया के दस सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों में हैं जहां लिंग अनुपात सबसे बदतर है. इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि लिंग अनुपात के मामले में पड़ोसी देशों नेपाल, बर्मा, बंगलादेश और श्रीलंका और यहां तक कि पाकिस्तान का रिकार्ड भारत से बेहतर है!

यही नहीं, लिंग अनुपात में मामूली सुधार की वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में महिलाएं अपने वजूद को लेकर न सिर्फ अधिक सजग और मुखर हुई हैं बल्कि अपने संघर्षों के कारण प्रतिकूल सामंती और उपभोक्तावादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे के भीतर भी अपने लिए स्थितियां कुछ बेहतर कर पाई हैं. उनकी औसत आयु, जीवन और शैक्षिक स्तर में मामूली सुधार हुआ है जिसकी वजह से लिंग अनुपात में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है.

इसके बावजूद यह एक कड़वी सच्चाई है कि उत्तर भूमंडलीकरण और उदारीकरण के पिछले दो दशकों में कई मामलों में महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है. उनके खिलाफ हिंसा और अपराध के मामले बढ़े हैं. खाप पंचायतों के बर्बर हमले बढ़े हैं और खाप मानसिकता के असर से शहर और आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार भी अछूते नहीं बचे हैं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक दशक में देश में महिला-पुरुष अनुपात में मामूली सुधार के बावजूद हैरान करनेवाली खबर यह है कि देश में सुशासन के माडल माने जानेवाले राज्यों गुजरात और बिहार के अलावा सिर्फ जम्मू-कश्मीर में महिला-पुरुष अनुपात पहले की तुलना में और बिगड़ा है.

यही नहीं, गुजरात एकमात्र राज्य है जहां ९० और २१ वीं सदी के पहले दशक में लगातार महिला-पुरुष अनुपात में गिरावट दर्ज की गई है. २०११ में गुजरात में महिला-पुरुष अनुपात ९२० रह गया है और बाल लिंगानुपात के मामले में यह सिर्फ ८८६ है. क्या इसके लिए नरेंद्र मोदी की भगवा पुरुषत्वपूर्ण राजनीति जिम्मेदार है? कहना मुश्किल है लेकिन निश्चय ही, इसके लिए गुजरात की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है.


लेकिन इस जनगणना से सबसे चौंकानेवाली खबर यह है कि छह वर्ष से कम के आयु वर्ग में लड़कों की तुलना में लड़कियों की जनसंख्या में गिरावट का क्रम जारी है. जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, ०-६ वर्ष के आयुवर्ग में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या १९९१ के ९४५ से घटते हुए २००१ में ९२७ और अब २०११ में ९१४ रह गई है. उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में माना जाता है कि बाल लिंगानुपात का कम से कम ९५० होना चाहिए.

लेकिन भारत में बाल लिंगानुपात १९६१ के ९७६ के स्तर से लगातार नीचे जा रहा है. इसका अर्थ यह हुआ कि १९६१ से १९९१ के बीच तीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर ३१ बेटियों कम हो गईं. लेकिन चिंता की बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले बीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर और ३१ बेटियां गुम हो गईं. साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के इस दौर में बेटियां और भी अवांछित होती जा रही हैं.

जारी...