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शनिवार, मार्च 31, 2012

राजनीतिक सत्ता के साथ एम्बेडेड मीडिया का 'पेड न्यूज'

शासक वर्गीय पार्टियों का मीडिया मैनेजमेंट और चुनावों में स्पिन डाक्टर्स के खेल

दूसरी किस्त

लेकिन जब सत्ता के लिए मुकाबला शासक वर्ग की ही चार पार्टियों के बीच हो तो मीडिया ‘राजनीतिक हवा’ का रुख किसी एक ओर मोड़ने या उसके अनुकूल माहौल बनाने या फिर भ्रम पैदा करने या एजेंडा बदलने की कीमत वसूलने से भी पीछे नहीं रहता है. ‘पेड न्यूज’ की परिघटना इसी प्रक्रिया से निकली है.

हालांकि पिछले चुनावों में ‘पेड न्यूज’ इतना ज्यादा बेपर्दा हुआ कि खुद मीडिया की विश्वसनीयता ही दांव पर लग गई और खतरा पैदा हो गया कि पूंजीवादी लोकतंत्र में जनमत गढ़ने, सहमति निर्माण करने और लोगों को नियंत्रित करने का यह औजार कहीं भोथरा न हो जाए.

इस कारण खुले तौर पर ‘पेड न्यूज’ की खूब लानत-मलामत हुई, मीडिया संस्थानों ने ‘पेड न्यूज’ से तौबा करने की कसमें खाईं और चुनाव आयोग-प्रेस काउन्सिल जैसे सार्वजनिक नियामकों ने उसपर सख्ती बरतने के एलान किये.

ऐसा लगा कि इन विधानसभा चुनावों में ‘पेड न्यूज’ नामक धोखाधड़ी बीते दिनों की बात ही जायेगी. लेकिन जैसे चुनावों में कालाधन एक चुनावी सच्चाई है, वैसे ही ‘पेड न्यूज’ भी एक चुनावी सच्चाई है. खबरें हैं कि इन चुनावों में भी मीडिया (अखबार और न्यूज चैनल) ‘पेड न्यूज’ के जरिये दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगा है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है और अख़बारों के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी चैनल इसमें डुबकी लगाने में पीछे नहीं हैं. हालांकि इस बार थोड़ी सावधानी और चतुराई के साथ यह सब हो रहा है लेकिन अगर आप चैनलों के कवरेज और खासकर कुछ पार्टियों-नेताओं की रैलियों/भाषणों के अत्यधिक लाइव कवरेज को बारीकी से देखें तो ‘पेड न्यूज’ का कमाल साफ दिखने लगता है.


उदाहरण के लिए, चाहे राहुल गाँधी की रैलियों/सभाओं/रोड शो की अधिकांश चैनलों पर बिना अपवाद के लाइव कवरेज हो या उत्तर प्रदेश के अमेठी-रायबरेली-सुल्तानपुर में प्रचार करने पहुंची प्रियंका गाँधी को मिला अत्यधिक कवरेज हो, उसकी पत्रकारीय व्याख्या मुश्किल है.
एक विदेशी पत्रकार ने हैरानी में ट्वीट किया कि ‘प्रियंका गाँधी क्या हैं, किस राजनीतिक या संवैधानिक पद पर हैं जिन्हें चुनाव प्रचार में इतनी कवरेज मिल रही है?’ यह सचमुच में विचारणीय है कि कांग्रेस और यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बेटी के अलावा वे क्या हैं जिन्हें इस हद तक कवरेज के लिए उपयुक्त समझा गया?


इसी तरह, इस चुनाव में अन्य दलों और उनके नेताओं की उपेक्षा करके राहुल गाँधी को जिस तरह से 24X7 कवरेज मिली है, वह कांग्रेस की जमीनी ताकत और मौजूदगी से कई गुणा ज्यादा है. इस कवरेज में न सिर्फ अनुपात का ध्यान नहीं रखा गया बल्कि उसमें वस्तुनिष्ठता, तटस्थता और तथ्यपूर्णता की भी अनदेखी की गई.

मजे की बात यह है कि सभी पार्टियों के नेताओं में प्रचार में सबसे आगे रहने के बावजूद राहुल गाँधी एकमात्र ऐसे नेता है जो मीडिया के लिए सबसे अधिक अनुपलब्ध हैं. यह ठीक है कि मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती भी मीडिया से दूरी बनाकर रहती हैं लेकिन चुनावी मैदान की सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी होने के बावजूद उन्हें और उनकी पार्टी को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी नहीं मिला है.


इस तथ्य को भी अनदेखा करना मुश्किल है कि इन चुनावों में राहुल गाँधी की बहुत बारीकी से एक ‘एंग्री यंगमैन, राजनीतिक रूप से आक्रामक, मेहनती, राजनीतिक जोखिम उठानेवाला, कांग्रेस को लड़ाई में खड़ी कर देनेवाला और राजनीतिक रूप से परिपक्व होते’ युवा की छवि गढ़ी गई है.

अगर आप राहुल गाँधी की सार्वजनिक उपस्थिति और सभाओं/रैलियों/रोड शो में उनकी बोलने की शैली, अदाएं, मैनेरिज्म और भीड़ से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों को देखें तो उसमें स्वाभाविकता और स्वतःस्फूर्तता के बजाय एक तरह का एनीमेशन दिखेगा.

जाहिर है कि इसमें कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और स्पिन डाक्टरों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसके साथ ही, यह भी सच है कि खुद मीडिया और खासकर चैनल इस छवि निर्माण में खुलकर पार्टनर हो गए हैं.

कारण चाहे जो हो- स्वेच्छा या लालच लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका राजनीतिक फायदा कांग्रेस को मिला है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने इर्द-गिर्द एक “बज” यानी चर्चा पैदा करने में कामयाब हो गई है. उसने मीडिया की मदद से चुनावी एजेंडा सेट करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल की है जिसके कारण उसका राजनीतिक ग्राफ चढ़ा है.

मीडिया ने वास्तविक अर्थों में मैजिक मल्टीप्लायर की तरह ‘राहुल मैजिक’ को कई गुणा बढ़ाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. निश्चय ही, इस मायने में यह कांग्रेस की चुनाव मशीनरी के साथ-साथ मीडिया मैनेजमेंट की कामयाबी है और इसमें वह बाकी सभी दलों से काफी आगे है. आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान फिल्म अभिनेता और एम.पी राज बब्बर के हाथों में है.


ऐसा लगता है कि कांग्रेस से सीख लेकर भाजपा, सपा और कुछ हद तक बसपा ने भी कारपोरेट अंदाज़ में विज्ञापन फ़िल्में बनाई हैं जिन्होंने सभी न्यूज चैनलों पर कुछ दिनों के लिए जांघिये-बनियान के विज्ञापनों को पीछे छोड़ दिया है. एक तरह से इन विज्ञापन फिल्मों से पार्टियों की कारपोरेट ब्रांडिंग की जा रही है.

हैरानी की बात नहीं है कि कई पार्टियों और नेताओं ने पी.आर कंपनियों की मदद भी ली है और छवि चमकाने के लिए जमकर पैसे बहाए जा रहे हैं. इससे चैनलों की चांदी है. असल में, चैनलों के लिए मंदी के बीच चुनाव एक बड़े सहारे की तरह आया है. इसलिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है और सभी बहती गंगा में हाथ धोने में जुटे हैं.


लेकिन इस सबके बीच चैनलों ने दर्शकों को सचेत और सूचित करने की अपनी उस प्राथमिक भूमिका को काफी हद तक अनदेखा और कमजोर कर दिया है. पूंजीवादी लोकतंत्रों में कम से कम सैद्धांतिक तौर पर उनसे अपने दर्शकों चुनावों के मुद्दों, पार्टियों के कामकाज, उनके घोषणापत्रों, उम्मीदवारों के व्यक्तित्व और प्रदर्शन को तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष तरीके से सूचित और सचेत करने की अपेक्षा की जाती है ताकि लोग अपने मताधिकार का सही तरीके से इस्तेमाल कर सकें.

लेकिन खबर है कि इस बार मीडिया में ‘पेड न्यूज’ नए रूप में चल रहा है. अखबार और चैनल इस बार उम्मीदवारों की प्रशंसा में छापने के बजाय उनकी असलियत/सच्चाई न छापने के पैसे ले रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि उम्मीदवारों के बारे में सभी जानकारियां (उनकी कुल संपत्ति, शिक्षा और आपराधिक रिकार्ड) होने के बावजूद अख़बारों और चैनलों पर उनकी बारीकी से पड़ताल/छानबीन तो दूर है, उनकी तथ्यपूर्ण जानकारी भी नहीं दी जा रही है.

माननीय विधायकों/मंत्रियों की संपत्तियों में न्यूनतम दस-पन्द्रह गुने से लेकर सौ गुने तक की वृद्धि के पीछे क्या राज है? उम्मीदवारों के अतीत और वर्तमान की स्वतंत्र खोजबीन तो बहुत दूर की बात है.

क्या दर्शकों/पाठकों को यह जानने का अधिकार नहीं है? क्या यह सिर्फ चैनलों/अख़बारों और उनके पत्रकारों की उदासीनता और आलस है यह इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? यह वाचडाग मीडिया है या पालतू पेड मीडिया?

लेकिन राजनीतिक सत्ता के साथ एम्बेडेड मीडिया से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?

('कथादेश' में मार्च'१२ में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...पहली किस्त २९ मार्च को छपी है..)

सोमवार, मार्च 12, 2012

अब शुरू होगी अखिलेश यादव की असली परीक्षा

उनके शुरूआती संकेतों, संदेशों और फैसलों से सपा सरकार की दिशा तय हो जाएगी 

उत्तर प्रदेश में इस सप्ताह अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की नई सरकार सत्ता संभाल लेगी. पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में यह दूसरी सरकार है जिसे न सिर्फ पूर्ण और स्पष्ट बहुमत से प्राप्त है बल्कि जो इतनी सद्भावनाओं के बीच सत्ता में आई है. इसमें कोई शक नहीं है कि इस सरकार से उत्तर प्रदेश के लोगों को जबरदस्त उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं.

लेकिन अच्छी बात यह है कि इस सरकार के प्रति लोगों में भारी सद्भावना है और लोग अखिलेश यादव को पूरा मौका और समय देने के लिए तैयार हैं. यह नई सपा सरकार की सबसे बड़ी पूंजी है.

याद रहे, इससे पहले २००७ में मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार भी इससे थोड़ी ही कम सीटों लेकिन पूर्ण बहुमत और सभी वर्गों की सद्भावनाओं के बीच सत्ता में पहुंची थी. मायावती सरकार से भी लोगों खासकर गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, किसानों, युवाओं और महिलाओं को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. लोगों ने मायावती को भी पूरा मौका और समय दिया.

लेकिन उन्होंने वह मौका और लोगों की सद्भावनाओं को गंवाने में ज्यादा समय नहीं लगाया. बसपा सरकार जल्दी ही संगठित भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी, राजनीतिक अहंकार, मनमानी और दमन-उत्पीड़न की सरकार बन गई जिसका खमियाजा उसे इन चुनावों में भुगतना पड़ा है.

इस मायने में यह चुनाव वास्तव में मायावती सरकार के खिलाफ जनादेश है. बसपा सरकार के खिलाफ लोगों के गुस्से का सबसे अधिक फायदा समाजवादी पार्टी को मिला. हालांकि इसके कई राजनीतिक, सामाजिक और सांगठनिक कारण हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन चुनावों में समाजवादी पार्टी को एक सकारात्मक जनादेश भी मिला है.
इसमें समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों, नकारात्मक के बजाय सकारात्मक प्रचार और उसके साथ खुद अखिलेश यादव की साफ़-सुथरी छवि और गुंडा-माफिया राज के खात्मे की उनकी स्पष्ट प्रतिबद्धता की बहुत बड़ी भूमिका है.

लेकिन सपा के लिए चुनाव जीतना जितना आसान था, खासकर बसपा विरोधी माहौल के कारण, उससे अधिक मुश्किल और चुनौती भरा रास्ता आगे का है. युवा अखिलेश यादव से अपेक्षाएं और उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं. ये अपेक्षाएं और उम्मीदें उन्होंने खुद पैदा की हैं.

उनके सामने चुनौती न सिर्फ एक भ्रष्टाचार मुक्त और साफ़-सुथरी सरकार चलाने और गुंडों-माफियाओं पर अंकुश लगाते हुए कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने की चुनौती है बल्कि उन वायदों और प्रतिबद्धताओं को भी पूरा करना है जिसका वायदा घोषणापत्र में किया गया है.

जाहिर है कि यह आसान नहीं होगा. हालांकि अखिलेश यादव के पास पांच साल हैं लेकिन सच यह है कि उत्तर प्रदेश के लोगों खासकर युवाओं में जितनी बेचैनी है, उसके कारण कई मामलों में कुछ करके दिखाने को उनके पास बहुत कम समय है. अखिलेश यादव ने अपने पिता से लोहिया जी का यह कथन जरूर सुना होगा कि ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं.’

उत्तर प्रदेश में लोगों की आकांक्षाएं जिस तरह से उबल रही हैं, उससे लगता नहीं है कि लोग खासकर युवा बहुत दिनों तक इंतज़ार करेंगे. सनद रहे कि मायावती सरकार के पराभव की शुरुआत भी सिर्फ दो सालों में ही २००९ के आम चुनावों के साथ हो गई थी.

उम्मीद है कि अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी पिछली सरकार के हश्र को याद रखेगी. इस नाते अगले कुछ महीने अखिलेश की परीक्षा के होंगे. उनकी सबसे पहली और सबसे बड़ी परीक्षा कानून-व्यवस्था को बनाए रखने खासकर समाजवादी पार्टी से जुड़े विधायकों, सांसदों और पार्टी कार्यकर्ताओं-पदाधिकारियों को कानून हाथ में लेने, गुंडागर्दी करने और थानों को चलाने से रोकना होगा.

लेकिन चिंता की बात यह है कि मतगणना के नतीजों के आने के बाद से जिस तरह से पूरे प्रदेश से सपा नेताओं और समर्थकों की मनमानी, गुंडागर्दी और हंगामों की खबरें आ रही हैं, उससे माहौल बिगड़ रहा है. खासकर दलितों पर हमलों से सामाजिक सद्दभाव बिगड़ रहा है.

इसपर अगर तुरंत अंकुश नहीं लगाया गया और अपराधियों को दण्डित नहीं किया गया तो इसका बहुत गलत सन्देश जाएगा. यह कहने से काम नहीं चलेगा कि यह बसपा समर्थक अफसरों की सपा को बदनाम करने की साजिश है. इन बहानों से काम नहीं चलेगा.

सच सामने है. आगरा के बाह क्षेत्र के विधायक अरिदमन सिंह के समर्थकों पर बसपा समर्थक दलित ग्राम प्रधान के पति की हत्या का आरोप लगा है. यह और ऐसे ही कुछ और मामले अखिलेश यादव की सरकार के लिए पहले टेस्ट केस हैं. अगर इस मामले में विधायक सहित बाकी नामजद अपराधियों को तुरंत जेल भेजने में सरकार नाकाम रहती है तो सरकार की फिसलन शुरू हो जायेगी, जिसे फिर रोक पाना मुश्किल हो जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार संकेतों, संदेशों और मिसालों से चलती है. प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस मशीनरी सपा के नए नेतृत्व से बयानों से आगे बढ़कर स्पष्ट संकेतों का इंतज़ार कर रही है. उदाहरण के लिए, चुनावों के दौरान अखिलेश यादव ने जिस तरह से डी.पी. यादव को पार्टी में घुसने से रोक दिया था, वहीँ से उनका राजनीतिक ग्राफ चढना शुरू हुआ.
उस एक कदम से सपा के खिलाफ विपक्ष के सबसे बड़े आरोप की धार भोथरी हो गई थी. हालांकि यह तथ्य है कि सपा के नेताओं और विधायकों में ऐसे दागी और अपराधिक छवि के लोगों की तादाद अच्छी-खासी है जो मौके के इंतज़ार में हैं.

इस अर्थ में अखिलेश यादव की यह भी बड़ी परीक्षा है कि वे मंत्रिमंडल में किन लोगों को शामिल करते हैं और उन्हें कौन से विभाग देते हैं? अगर मंत्रिमंडल में ऐसे कुछेक ‘माननीयों’ को जगह मिल जाती है जिनकी छवि दागदार है और आपराधिक मामलों में आरोपित हैं तो जैसे तालाब को गंदा करने के लिए एक भी मछली काफी होती है, वैसे ही मंत्रिमंडल में उनकी उपस्थिति भर से एक गलत सन्देश चला जाएगा. यही नहीं, उन्हें अपने विधायकों, सांसदों और मंत्रियों पर पूरा अंकुश रखना होगा.

इसी तरह नौकरशाहों की नियुक्तियों में भी अगर योग्य, ईमानदार, काम के प्रति निष्ठावान और संवेदनशील अफसरों के बजाय भ्रष्ट, अक्षम और काम के बजाय व्यक्तिगत निष्ठा को पैमाना बनाया गया तो वह स्थिति आते देर नहीं लगेगी जो पिछली बसपा और उसके पहले सपा और भाजपा सरकारों के दौरान रही है.

अखिलेश यादव को याद रखना होगा कि इस बार वे गठबंधन और सरकार चलाने की मजबूरी जैसे बहाने नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने छप्पर फाड़ बहुमत दिया है.

 कहने की जरूरत नहीं है कि सपा और अखिलेश यादव को ऐतिहासिक अवसर मिला है. वे अगर मुलायम सिंह यादव के बेटे नहीं होते तो शायद ही यह मौका उन्हें मिलता. पर याद रहे, इतिहास में ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते हैं. उनके नेतृत्व की असली परीक्षा अब शुरू हो रही है. 

('नया इंडिया' में १२ मार्च को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)                  

बुधवार, मार्च 07, 2012

भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति को नकार

राजनीति का मुहावरा बदल रहा है क्योंकि लोग बेचैन हैं और उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं  

 
राजनीतिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को राजनीतिक दल हमेशा की तरह अपने निकट दृष्टि चश्मे से देखने और इसकी या उसकी जीत-हार के सन्दर्भ में समझाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इन नतीजों का यह सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है कि मतदाता भ्रष्टाचार और उसके सबसे अश्लील रूप सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं.

हालांकि चुनावों के दौरान यह दावे किये गए कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है लेकिन नतीजों से साफ़ है कि भ्रष्टाचार न सिर्फ एक बड़ा मुद्दा था बल्कि मतदाताओं ने इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी राज्य सरकारों और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को भी नहीं बख्शा.

यही कारण है कि चाहे उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार हो या फिर गोवा की दिगंबर कामत की कांग्रेस-एन.सी.पी सरकार या उत्तराखंड की भाजपा सरकार, मतदाताओं ने इन सभी सरकारों झटका दिया है. इनमें से पंजाब में अकाली दल-भाजपा सरकार बाल-बाल बच गई तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए कि मतदाताओं के सामने विकल्प के तौर पर खड़ी कांग्रेस को लोग भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, कमरतोड महंगाई और नाकारे विपक्ष की भूमिका के कारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे.

लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि मतदाताओं ने इन भ्रष्ट और निजी हितों के लिए सार्वजनिक संसाधनों की लूट में लगी राज्य सरकारों को भी पूरी तरह से माफ नहीं किया. यह नहीं भूलना चाहिए कि ये चुनाव २०११ के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में हो रहे थे. इस आंदोलन में जिस तरह से बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी हुई और लोगों में बेचैनी दिखाई पड़ी, उसके निशाने पर मुख्य रूप से यू.पी.ए और खासकर कांग्रेस थी.
बिला शक, कांग्रेस को उसकी कीमत चुकानी पड़ी है. वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में नकार दी गई, गोवा में सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि पंजाब और उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा सरकारों के खिलाफ माहौल होने के बावजूद कांग्रेस उसे भुनाने में नाकाम रही. इससे एक बार फिर यह साफ़ हो गया कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कांग्रेस के भरोसे छोड़ना खतरे से खाली नहीं है.

इससे निश्चय ही राष्ट्रीय स्तर यू.पी.ए के बरक्श एक नए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के लिए जगह बनने लगी है. कांग्रेस के लिए यह खतरे की घंटी है. यही नहीं, एक मायने में मतदाताओं ने खासकर उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक, अति पिछड़ा और अति दलितों वोटों के लिए कांग्रेस की चुनावों से ठीक पहले की अवसरवादी कोशिशों को भी नकार दिया है.

कांग्रेस युवा मतदाताओं की बात कर रही थी लेकिन राहुल गाँधी के हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान में न तो तो कोई नई दृष्टि थी और न ही वह साख और भरोसा कि वह मतदाताओं को उत्साहित और प्रेरित कर पता.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन विधानसभा चुनावों में लोगों के उत्साह और मतदान में बढ़ोत्तरी के बावजूद सच्चाई यह है कि उनके पास चुनने के लिए कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. इन राज्यों में सत्ता की दावेदार सभी प्रमुख पार्टियों को लोगों कई बार आजमा लिया है.

लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा. हर नई सरकार ने चाहे वह भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या सार्वजनिक संसाधनों की लूट का या सत्ता का इस्तेमाल परिवार और उसके इर्द-गिर्द जमा अफसरों-ठेकेदारों-दलालों के काकस के निजी हितों को आगे बढ़ाने का या फिर लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ का उसने पिछली सरकारों के रिकार्ड को तोड़ दिया.
आश्चर्य की बात नहीं है कि बिना किसी अपवाद के हर राज्य में पांच सालों में मंत्रियों/विधायकों की संपत्ति में न्यूनतम दस से लेकर सौ गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है. यही नहीं, इन राज्यों में सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जो पहले से करोड़पति हैं.

इसके अलावा सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों ने इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया. जीतने वाले उम्मीदवारों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने औसतन एक से दो करोड़ रूपये खर्च न किये हों. यह सचमुच चिंता की बात है कि चुनाव जिस तरह से ज्यादा से ज्यादा महंगे होते जा रहे हैं, उसमें चुनावों से बुनियादी बदलाव की संभावनाएं सिमटती जा रही हैं.                

लेकिन इन विधानसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के थे. यहाँ जिस तरह से मतदाताओं ने मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार को ख़ारिज कर दिया है और समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया है, उससे साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसमें बदलाव और लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं को महसूस किया जा सकता है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.
यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव साफ़ देखी जा सकती है.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत लगभग ६० फीसदी तक पहुँच गया. यह पिछली बार की तुलना में १० से १४ फीसदी तक अधिक है.

इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है. सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिखे. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकला, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस उनकी संकीर्ण जातिवादी/धार्मिक पहचानों के दायरों में बंद करना मुश्किल होगा.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ी जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी आर्थिक विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ी.

ऐसा लगता है कि ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के बदलते मिजाज को भांप नहीं पाईं क्योंकि जब मतदाता संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति से बाहर निकलने और अपनी आकांक्षाएं अभिव्यक्त कर रहे थे, वे उन्हें फिर उन्हीं संकीर्ण दायरों में पीछे खींचने की कोशिश कर रही थीं.    

इन चुनावों में तीसरा बदलाव यह दिखा कि मुस्लिम वोटर अब किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है बल्कि अन्य जातियों/समुदायों की तरह ही अपने मुद्दों, जरूरतों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर वोट कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है.

इसके उलट रोजी-रोटी, बिजली-सड़क-पानी और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ समावेशी विकास के लिए वोट कर रहा है. वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है. इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं.
निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोगों ने अपने तरीके से राजनीतिक दलों को सबक सिखाया है. सबक नंबर एक, मतदाताओं को भ्रष्टाचार और राजनीतिक अहंकार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.

सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए. कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं.

चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.
कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने राज्य में एक नई प्रगतिशील, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बनाया है. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होने चाहिए.

('जनसत्ता' के ७ मार्च के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख...आपकी टिप्पणियों का स्वागत है...)

शुक्रवार, मार्च 02, 2012

मीडिया के मुंह पेड न्यूज का खून

जस्टिस मार्कंडेय काटजू आप कहाँ है? एडिटर्स गिल्ड कहाँ है?


पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनावी पेड न्यूज फिर लौट आया है. वैसे वह कहीं गया नहीं था क्योंकि मुनाफे की बढ़ती भूख के बीच न्यूज मीडिया में पेड न्यूज ही शाश्वत सत्य है, बाकी सब भ्रम है. प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम?

रिपोर्टों के मुताबिक, चुनाव आयोग को पंजाब में पेड न्यूज की कोई ५२३ शिकायतें मिलीं जिनमें से कोई ३३९ मामलों में आयोग ने उम्मीदवारों को नोटिस जारी किया. इसके जवाब में २०१ उम्मीदवारों ने स्वीकार किया कि उन्होंने खबरों के लिए पैसे दिए और वे उसे अपने चुनाव खर्च में जोडेंगे. अन्य ७८ उम्मीदवारों ने इन आरोपों को नकारा है जबकि ३८ मामलों में उम्मीदवारों या संबंधित मीडिया संस्थान ने आरोपों को चुनौती दी है.

अब उन २०१ मामलों में मीडिया संस्थानों की प्रतिक्रिया या उनपर प्रेस काउंसिल की कार्रवाई का इंतज़ार है जिनमें उम्मीदवारों ने खबरों के बदले में पैसे देने की बात स्वीकार की है. वैसे कहते हैं कि इस बार पंजाब में पेड न्यूज का आलम यह था कि सत्ता की दावेदार पार्टियों का शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जिसने अख़बारों/चैनलों के पैकेज न लिए हों.

मतलब यह कि पेड न्यूज जितना व्यापक था, उसकी तुलना में ५२३ शिकायतें कुछ भी नहीं हैं. आरोप तो यहाँ तक हैं कि पेड न्यूज के पैकेजों को खरीदने के लिए उम्मीदवारों को ब्लैकमेल तक किया गया कि उन्हें ब्लैकआउट कर दिया जाएगा.

लेकिन इस मामले में पंजाब कोई अपवाद नहीं है. गोवा के लिए पेड न्यूज कोई नई परिघटना नहीं है. पिछले साल एक पत्रकार ने वहां के सबसे अधिक प्रसार वाले अंग्रेजी दैनिक के मार्केटिंग मैनेजर को एक स्टिंग आपरेशन में चुनावों के एक संभावित उम्मीदवार से ‘अनुकूल और सकारात्मक खबर’ के बदले में पैसे मांगते हुए पकड़ लिया.
इस घटना से साफ़ हो गया कि अवैध खनन से लेकर विधायकों और वोटरों की खरीद-फरोख्त के लिए कुख्यात हो चुके गोवा के अख़बार और चैनल भी बिकाऊ हैं.

ऐसे में, चुनावी पेड न्यूज की प्रयोगभूमि उत्तर प्रदेश के अखबार और चैनल भी कहाँ पीछे रहनेवाले हैं? खबरें हैं कि यहाँ भी बहती चुनावी गंगा में अखबार और चैनल जमकर हाथ धो रहे हैं. अख़बारों और चैनलों के चुनावी पैकेजों की खूब चर्चाएँ हैं.

अलबत्ता कहते हैं कि इस बार पेड न्यूज का तरीका थोड़ा बदला हुआ है. अखबार और चैनल उम्मीदवारों के पक्ष में प्रशंसात्मक खबरों/रिपोर्टों के बजाय इस बार नकारात्मक या उनकी असलियत बतानेवाली खबरें/रिपोर्टें न छापने के लिए पैसे ले रहे हैं. यह अख़बारों/चैनलों में पेड न्यूज का नया काला जादू है.          

असल में, इन चुनावों को २०१४ के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है और इस कारण इनपर बड़े राजनीतिक दांव लगे हुए हैं. नतीजा, पैसा पानी की तरह बह रहा है. चैनल/अखबार भी दोनों हाथों से बटोरने में जुटे हुए हैं.

कहने का अर्थ यह कि पिछले काफी दिनों से पेड न्यूज को लेकर मचे हो-हंगामे, विरोधों और चुनाव आयोग/प्रेस काउंसिल की सक्रियता के बावजूद चुनावी पेड न्यूज न सिर्फ जिन्दा है बल्कि बदले तौर-तरीकों के साथ और मोटा और मजबूत हुआ है.

हालांकि उत्तर प्रदेश में एक विधायक की सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अख़बारों/चैनलों की उत्साहपूर्ण भागीदारी के बाद एक बार यह उम्मीद जरूर जगी थी कि चुनावी पेड न्यूज अब रूक जाएगा.
लेकिन लगता है कि अख़बारों/चैनलों को पेड न्यूज के खून का ऐसा स्वाद लग गया है कि उनकी भूख और बढ़ती ही जा रही है. अफसोस की बात यह है कि इस भूख ने उनसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है. खबरों को बेचकर या खबरों को छुपाकर वे अपने पाठकों/दर्शकों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं.

लेकिन ऐसा करते हुए अपनी साख और विश्वसनीयता के साथ खेल रहे हैं. इस खेल में वे सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खम्भे को ही दांव पर नहीं लगा रहे हैं बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. वह इसलिए कि लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता के पास अपने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में पूरी और सच्ची जानकारी होना जरूरी शर्त है?

लेकिन क्या हमारे अखबार/चैनल लोगों को पूरी और सच्ची जानकारी दे रहे हैं? संभव है कि कुछ अपवाद हों लेकिन आरोप हैं कि इस बार अखबार/चैनल उम्मीदवारों की असलियत छुपाने के लिए पैसे ले रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि सभी उम्मीदवारों द्वारा दाखिल संपत्ति और आपराधिक रिकार्ड के सार्वजनिक ब्यौरों के बावजूद अख़बारों/चैनलों ने उसे विस्तार से छापने/दिखाने में भी संकोच किया. उम्मीदवारों के हलफनामों की बारीकी से छानबीन, उनके आय के स्रोतों की पड़ताल, उनके आपराधिक मामलों की पुलिस जांच से लेकर कोर्ट की कार्रवाई तक की ताजा स्थिति से लेकर उनके अन्य कारनामों को सामने लाना तो बहुत दूर की बात है.
क्या यह सिर्फ अख़बारों/चैनलों के पत्रकारों की काहिली/उदासीनता है या इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? गौर से देखें तो पैटर्न साफ़ दिखता है. इसके कारण ही राजनीति और संसद/विधानसभाओं में कृपा शंकर सिंह जैसे माननीयों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनकी संपत्ति न जाने किस जादू से देखते-देखते न्यूनतम दस से लेकर सौ और हजार गुने तक बढ़ जा रही है.

आखिर इसे सामने कौन लाएगा? कहते हैं कि कभी एक खोजी पत्रकारिता नाम की चीज हुआ करती थी. लगता है, पेड न्यूज के साथ वह इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. केवल खोजी पत्रकारिता ही नहीं, पेड न्यूज के कैंसर ने पत्रकारिता की आत्मा से लेकर उसकी आवाज़ तक को मारना शुरू कर दिया है.   

नतीजा, न्यूज मीडिया की धार भोथरी और आवाज़ कमजोर पड़ने लगी है. लेकिन बीमार न्यूज मीडिया भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है. डर यह है कि कहीं पेड न्यूज से निकला रास्ता पेड लोकतंत्र की राह न बनाने लगे. जस्टिस मार्कंडेय काटजू आप कहाँ है?

(पाक्षिक "तहलका" के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ से...इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते और टिप्पणी कर सकते हैं: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1134.html#en )

मंगलवार, फ़रवरी 28, 2012

उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है

जो मतदाता उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ या वापस दायरों में बंद करना मुश्किल होगा

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर कयासों का दौर जारी है. ईमानदारी की बात यह है कि किसी को ठीक-ठीक पता नहीं है कि नतीजे किस करवट बैठेंगे या त्रिशंकु लटकेंगे? राजनीतिक रूप से बहुत ऊँचे दांव वाले इस चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन उत्तर प्रदेश के मैदानों से ऐसी कई खबरें आ रही है जिनसे सत्ता परिवर्तन से अधिक नए और ज्यादा गहरे बदलाव की उम्मीदें बंधने लगी हैं.

यह उस राज्य के लिए ज्यादा अच्छी खबर है जिसके बारे में मान लिया गया था कि यहाँ कुछ नहीं बदल सकता है और कवि धूमिल ने शायद इसी हताशा में लिखा था कि ‘इस कदर कायर हूँ/ कि उत्तर प्रदेश हूँ.’

लेकिन उत्तर प्रदेश खड़ा हो रहा है. यह और बात है कि वह इस तरह नहीं खड़ा हो रहा है, जैसा युवराज चाहते हैं. वह उस तरह भी नहीं खड़ा हो रहा है जैसे बहनजी चाहती हैं. वह उस तरह भी नहीं बदल रहा है जैसे समाजवादी युवराज चाहते हैं और न वह बदलकर हिन्दुत्ववादी हो रहा है, जैसा रामभक्त चाहते हैं.

इन सबकी इच्छाओं से अलग उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसके कारण उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को बदलना पड़ रहा है. सच पूछिए तो इन चुनावों की सबसे उल्लेखनीय बात यही है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.

यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. यह संभव है कि इन चुनावों के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव शायद उतनी स्पष्ट न दिखे.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत औसतन ५७ से लेकर ६० फीसदी के बीच पहुँच गया है. यह पिछली बार की तुलना में १० से १५ फीसदी तक अधिक है. इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है.

सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिख रहे हैं. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस अपने दायरों में बंद करना मुश्किल होगा. आश्चर्य नहीं कि सभी राजनीतिक पार्टियों की सांस अटकी हुई है.

दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ रही है जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ रही है.

तीसरा खास बदलाव यह दिख रहा है कि मुस्लिम वोटर किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है. इस बार वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है.

इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं. निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोग अपने तरीके से राजनीतिक दलों को कई सबक सिखाने जा रहे हैं. सबक नंबर एक, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.
सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए.

कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं. चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.

कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के वोटर एक नई प्रगतिशील. जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बना रहे हैं. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होंगे.
इससे उत्तर प्रदेश में एक नए वाम-लोकतान्त्रिक मिजाज की राजनीति के लिए जगह बनी है. लेकिन क्या बदलाव की ताकतें इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

(दैनिक 'नया इंडिया' में २७ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

रविवार, फ़रवरी 26, 2012

माफ़ कीजिये युवराज, पूंजीवादी विकास माडल की अनिवार्य परिणति है उत्तर प्रदेश का पिछड़ापन

कैसे दूर करेंगे राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश का पिछड़ापन जब उत्तर भारत को सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिया गया है?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने राज्य के पिछड़ेपन को बड़ा मुद्दा बनाया है. हालांकि उत्तर प्रदेश का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन कोई नई परिघटना नहीं है और न ही यह केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित है.

सच यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदी पट्टी के उन राज्यों में है जिनके पिछड़ेपन, गरीबी, भूखमरी, बीमारी आदि के कारण उन्हें बीमारू राज्यों में शुमार किया जाता है. लेकिन राहुल गाँधी के आक्रामक प्रचार के कारण इस मुद्दे पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है.

सवाल उठने लगे हैं कि ये राज्य विकास की दौड़ में पीछे क्यों छूट रहे हैं और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उल्लेखनीय है कि पिछले साल विकीलिक्स के एक खुलासे में गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस बयान को लेकर खासा विवाद हुआ था, जिसके मुताबिक उन्होंने 2009 में अमेरिकी राजदूत से बातचीत में कहा था कि भारत के आर्थिक विकास को उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों ने रोक रखा है और अगर ये राज्य न होते तो देश की विकास दर कहीं ज्यादा होती.

हालांकि चिदंबरम ने इस बयान का खंडन कर दिया लेकिन सच यह है कि नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों के बीच ऐसा सोचने या ऐसी राय रखनेवालों की कमी नहीं है.
सतही तौर पर और सन्दर्भ से काटकर देखें तो चिदंबरम या उन जैसों की यह राय उसी तरह तथ्यपूर्ण लगती है जैसे यह तर्क कि गरीबी के लिए गरीब ही जिम्मेदार हैं. इसके उलट सच यह है कि जैसे गरीबी के लिए गरीब नहीं बल्कि वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिन्होंने गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.

इसी तरह, उत्तर भारत के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारणों के अलावा मौजूदा आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ऊँची वृद्धि दर के नशे में चूर आर्थिक मैनेजर जानबूझकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं और पिछड़े राज्यों को उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.

लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्य पिछड़े इसलिए हैं कि उन्हें जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है. असल में, यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति है. पूंजीवादी विकास माडल अपने मूल चरित्र में एक असमान और विषम विकास को प्रोत्साहित करता है. पूंजीवादी विकास प्रक्रिया में बड़े इलाके को जानबूझकर पिछड़ा रखा जाता है ताकि उन इलाकों से विकसित क्षेत्रों में सस्ते श्रम की आपूर्ति होती रहे.

यह प्रक्रिया अंग्रेजों के ज़माने में ही शुरू हो गई थी जिन्होंने व्यापार और भारत से कच्चा माल अपने देश ले जाने के लिए शुरू में बंदरगाह वाले तटीय इलाकों में निवेश किया और इसके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया.

दूसरे, अंग्रेजों ने उत्तर भारत के राज्यों को १८५७ के विद्रोह और उनके बगावती तेवर की सजा भी दी और जानबूझकर इन इलाकों की उपेक्षा की. अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के बाद भी कमोबेश उपनिवेशवादी नीतियां ही जारी रहीं. पूंजीवादी विकास के जिस माडल को अपनाया गया, उसमें निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों में गई, जहां पहले से ही अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मौजूद था.

नतीजा, उत्तर भारत के राज्य आज़ाद भारत में भी सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफा सस्ते श्रम और श्रम के शोषण पर टिका होता है.

यही कारण है कि देश के अंदर उत्तर भारत के बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पूर्व भारत के झारखण्ड, उड़ीसा और असम जैसे राज्यों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया है जहां से मुंबई समेत पश्चिमी और दक्षिणी भारत के अलावा पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों विकास के लिए जरूरी सस्ते श्रम की आपूर्ति होती है.

यह आपूर्ति जारी रहे, इसके लिए जरूरी है कि देश के कुछ इलाके पिछड़े बने रहें और उससे भी ज्यादा जरूरी है बेरोजगारी बनी रहे. कहने की जरूरत नहीं कि इस स्थिति को देश के सभी क्षेत्रों के समान विकास के लिए प्रतिबद्ध एक सशक्त राज्य ही बदल सकता था लेकिन भारतीय राज्य के एजेंडे पर यह सवाल कभी भी नहीं आया.

लेकिन १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद तो रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई. कारण यह कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका और भी सीमित हो गई और अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी के हाथों में आ गई. यही पूंजी अर्थनीति तय करने लगी और वे ही विकास का एजेंडा निर्धारित करने लगे.

जाहिर तौर पर इस दौर में भी देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों और राज्यों में गई है, जहां उन्हें अन्य इलाकों की तुलना में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मिला है. यही नहीं, इस दौर में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली है, वह यह है कि देश के विभिन्न राज्यों के बीच देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी को आकर्षित करने की होड़ सी मच गई है.

इस कारण बड़ी पूंजी की बार्गेनिंग की क्षमता बहुत बढ़ गई है. वे राज्य सरकारों पर अपनी शर्तें थोपने में कामयाब हो रही हैं. इसके लिए राज्य सरकारों ने निजी पूंजी को मनमाने तरीके से अनाप-शनाप रियायतें और छूट देनी शुरू कर दी है.

लेकिन मजे की बात यह है कि इस होड़ में उत्तर भारत के राज्य अनेक कारणों से एक बार फिर पिछड़ गए हैं और देशी-विदेशी निजी पूंजी का संकेन्द्रण कुछ ही राज्यों और उनमें भी कुछ ही इलाकों तक सीमित हो गया है.

निश्चय ही, इसमें इन राज्यों में खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, बदहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बदतर मानवीय विकास जैसे कई कारक भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ये वास्तविक कारण नहीं हैं बल्कि ये राज्य जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, ये उनकी पैदाइश हैं.

नतीजा यह कि उदारीकरण के बाद पिछले दो दशकों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी विकसित राज्यों की ओर ही दौड़ती दिखाई दी है और उत्तर भारत के पिछड़े राज्य उनकी तुलना में बहुत कम निजी निवेश आकर्षित कर पाए हैं. वे एक बार फिर अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं.

ऐसे में, कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी चुनावों के दौरान भले ही उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन के लिए पिछले बीस वर्षों में सत्ता में रही दूसरी पार्टियों को जिम्मेदार ठहराएं लेकिन सच यह है कि न तो कांग्रेस के विजन डाक्यूमेंट, न घोषणापत्र और न ही उनके भाषणों में इस दुष्चक्र को तोड़ने की कोई दृष्टि या रणनीति दिखाई पड़ती है.

ऐसा लगता है कि उत्तर भारतीय राज्य आगे भी सस्ते श्रम के बाड़े बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. असल में, इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए जिस राजनीतिक साहस और इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व में सिरे से गायब है. वे तो बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की सेवा में और उसे खुश रखने में व्यस्त हैं.

(दैनिक "राजस्थान पत्रिका" में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)