शनिवार, जुलाई 28, 2012

नव उदारवाद और मध्यवर्ग: रिश्ता ‘कॉम्प्लीकेटेड’ है

मध्य वर्ग के बड़े  हिस्से को नव उदारवादी सुधारों से तनाव, अवसाद और बेचैनी ज्यादा मिली है   

नव उदारवादी भूमंडलीकरण की आभासी दुनिया के सबसे बड़े सोशल नेटवर्क- फेसबुक की भाषा में कहें तो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग के बीच गहरा रिश्ता होते हुए भी यह इधर कई कारणों से ‘जटिल’ (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है. हालाँकि नव उदारवादी सुधारों की शुरुआत में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति एकतरफा प्यार दिखता था, बाद में यह रिश्ता काफी गहरा होता गया लेकिन इधर कुछ वर्षों से वह कुछ ‘काम्प्लीकेटेड’ सा होता जा रहा है.
असल में, इस मध्यवर्ग और नव उदारवादी सुधारों के बीच के रिश्ते के कई आख्यान हैं. एक ओर नव उदारवादी सुधारों की मुखर पैरोकार रंगीन पत्रिकाओं और गुलाबी अखबारों की वे फीलगुड ‘सक्सेज स्टोरीज’ हैं जिनके मुताबिक मध्यवर्ग नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से सबसे ज्यादा फायदा मध्यवर्ग को हुआ है, सुधारों के कारण उसकी दमित आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को पंख मिल गए हैं और वह सफलता की नई कहानियां लिख रहा है.
इन सुधारों से एक नव दौलतिया वर्ग का जन्म हुआ है जो उपभोग के मामले में विकसित पश्चिमी देशों की बराबरी कर रहा है. नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की संतान के रूप में पैदा हुआ यह नया मध्यवर्ग अत्यंत गतिशील है, देशों की सीमाएं उसके लिए बेमानी हो चुकी हैं और सोच-विचार और रहन-सहन में वह देश के दायरे से बाहर निकल चुका है.

इस आख्यान में यह उच्च मध्यवर्ग आर्थिक सुधारों के सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में सामने आता है और उसके सबसे बड़े पैरोकार के रूप में भी दिखाई पड़ता है. इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने मालामाल कर दिया है.

यही नहीं, आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ इस वर्ग की राष्ट्रीय और कुछ हद तक क्षेत्रीय राजनीति और नीति निर्माण को प्रभावित करने की ताकत भी आनुपातिक रूप से बहुत बढ़ गई है. राष्ट्रीय एजेंडा और बहसों की दिशा तय करने में वह बहुत सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभा रहा है.      

लेकिन इसके उलट दूसरे आख्यान में मध्यवर्ग खासकर निम्न और गैर-मेट्रो मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदें-आकांक्षाएं और सपने भी आसमान छू रहे हैं लेकिन नव उदारवादी सुधारों से उन्हें अभी कुछ खास नहीं मिला है. सफलता की इक्का-दुक्का कहानियों को छोड़ दिया जाए तो वह नव उदारवादी सुधारों की मार झेलता हुआ दिखाई पड़ता है.
यहाँ बेरोजगारी का अवसाद है, प्राइवेट-कांट्रेक्ट नौकरी की असुरक्षा, कम वेतन और बदतर सेवा शर्तों का तनाव है, बढ़ती महंगाई और खर्चों का दबाव है, घर-मकान से लेकर फ्रीज-टी.वी-मोटरसाइकिल के कर्जों की ई.एम.आई का बोझ है और सफलता की अंधी दौड़ में पीछे छूटते जाने की पीड़ा है. राज्य और बाजार दोनों ने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है और उसका अकेलापन बढ़ता जा रहा है.
हालाँकि यह मध्यवर्ग नव उदारवादी सुधारों के ‘असफलों’ (लूजर्स) में है लेकिन इसकी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से उम्मीदें-अपेक्षाएं-आकांक्षाएं अभी पूरी तरह से टूटी नहीं है, पूरा मोहभंग नहीं हुआ है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की आलोचनाएं ध्यान से सुन रहा है और भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के कारण बढ़ती गैर बराबरी उसे चुभने लगी है.

यही नहीं, इस सबके कारण उसमें बहुत बेचैनी है, गुस्सा है और उसका धैर्य जवाब दे रहा है. वह बार-बार सड़कों पर उतर रहा है, भ्रष्टाचार से लेकर व्यवस्था परिवर्तन तक के मुद्दे उसे आंदोलित कर रहे हैं लेकिन राजनीतिक भ्रम-संशय और रेडिकल सपने के अभाव में बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा है. लेकिन वह रास्ता खोज रहा है.

यही कारण है कि नव उदारवादी सुधारों और भारतीय मध्यवर्ग का रिश्ता दिन पर दिन और जटिल (काम्प्लीकेटेड) होता जा रहा है. हालाँकि देश को अभी भी यह समझाने की कोशिश जारी है कि नव उदारवादी सुधारों के अलावा कोई विकल्प नहीं है. साथ ही, ‘सक्सेज स्टोरीज’ के जरिये लोगों का भरोसा जीतने की भी कोशिशें जारी हैं.
इसके बावजूद एक छोटे से लेकिन बहुत मुखर और मेट्रो-बड़े शहरों तक सीमित उच्च मध्यवर्ग को छोड़ दिया जाये तो निम्न मध्यवर्ग का इन सपनों से भरोसा टूटता सा दिख रहा है. भारत ही नहीं, नव उदारवाद के मक्का माने-जानेवाले अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी नव उदारवादी आर्थिकी पर सवाल उठने लगे हैं, मध्यवर्ग सड़कों पर उतरने लगा है और ‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’ जैसे आंदोलन दिखने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में नव उदारवादी सुधारों के खिलाफ बढ़ती बेचैनी और गुस्से की बड़ी वजह २००७-०८ में अमेरिका सब-प्राइम संकट और उसके बाद आई मंदी थी जिसने जल्दी ही यूरोप को अपने चपेट में ले लिया. इस आर्थिक-वित्तीय संकट की मार ने अमेरिका और यूरोप से लेकर दुनिया के कई देशों में मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की उम्मीदों-आकांक्षाओं और सपनों को तोड़ दिया है.

जले पर नमक छिड़कने की तरह सरकारों ने आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर किफायतशारी (आस्ट्रीटी) उपायों का सारा बोझ मध्यवर्ग पर डाल दिया है. नतीजा यह हुआ है कि मध्यवर्ग सड़कों पर उतर आया है. उसके गुस्से की सबसे बड़ी वजह यह है कि इस वैश्विक आर्थिक संकट की जड़ में वे ही नव उदारवादी सुधार हैं जिनकी आड़ में आवारा वित्तीय पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को लूट की खुली छूट मिल गई थी.     

जाहिर है कि अमेरिका से लेकर यूरोप में नव उदारवाद पर उठ रहे सवालों ने भारतीय मध्यवर्ग के भी एक बड़े हिस्से को बेचैन कर दिया है. उसकी बेचैनी इसलिए भी है क्योंकि वह देख रहा है कि नव उदारवादी सुधारों का फायदा एक छोटे से वर्ग को मिल रहा है.
इस नव दौलतिया वर्ग के जीवन और रहन-सहन में आई समृद्धि निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में वंचना के भाव को और बढ़ा रही है. यही नहीं, नई अर्थव्यवस्था के सबसे चमकते सेवा क्षेत्र में जिस तरह से कम वेतन और बदतर सेवा शर्तों के तहत मध्य वर्गीय युवाओं को काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जहाँ नौकरी के साथ कोई सम्मान नहीं है और कोई भविष्य नहीं है, उसके कारण होड़ में पीछे छूटने का भाव भी बढ़ता जा रहा है.
आप किसी भी शापिंग माल, बी.पी.ओ, होटल-रेस्तरां और सेवा कंपनी में काम करने वाले निचले स्तर के कर्मचारियों और मैनेजरों से बात कीजिए, आपको इस नई अर्थव्यवस्था की चमक के अंदर का अँधेरा दिखने लगेगा.
दूसरी ओर, देश के बड़े हिस्से में गरीब, किसान, श्रमिक, आदिवासी, दलित-पिछड़े समुदाय नव उदारवादी सुधारों और उसके तहत बड़ी पूंजी और देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों द्वारा जल, जंगल, जमीन और खनिजों को हथियाए जाने के खिलाफ पहले से ही खड़े हैं. आश्चर्य नहीं कि उनके विरोध के कारण आज देश में अधिकांश इलाकों में सेज से लेकर बड़े-बड़े औद्योगिक प्रोजेक्ट फंसे पड़े हैं.

नव उदारवादी सुधारों के प्रति बढते मोहभंग का एक सबूत यह भी है कि संगठित मध्यवर्ग के कई तबके जैसे छोटे व्यापारी-दूकानदार सुधारों के दूसरे चरण के तहत खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के खिलाफ खड़े हो गए हैं. उसी तरह संगठित श्रमिक भी श्रम सुधारों के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने लगे हैं. मारुति के मानेसर फैक्ट्री में श्रमिकों के बढते असंतोष के बीच हुआ हादसा इसका एक ताजा उदाहरण है.

कहना मुश्किल है कि आनेवाले दिनों में यह ‘काम्प्लीकेटेड’ रिश्ता क्या रूप लेगा और उसका क्या भविष्य है? लेकिन इतना तय है कि नव उदारवाद के साथ भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का एकतरफा प्यार और गहरा रिश्ता टूटते सपनों-आकांक्षाओं के बीच जबरदस्त तनाव और दबाव में है.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 28 जुलाई को प्रकाशित टिप्पणी) 

सोमवार, जुलाई 23, 2012

जन्दाल का जंजाल

उर्फ़ देर से दुर्घटना भली, भले फूटे दर्शकों की समझ का सिर   

नसनी, अति-उत्साह और उत्तेजना न्यूज चैनलों की स्थाई पहचान बन चुकी है. हालाँकि बीते कई सालों से चैनलों के कर्ता-धर्ता यह दावा करते रहे हैं कि ये चैनलों के बालपन की समस्याएं हैं जो उम्र बढ़ने के साथ खत्म होती जाएंगी और चैनलों में प्रौढता आएगी.
लेकिन उम्र बढ़ने के बावजूद चैनलों का लड़कपन खत्म होता नहीं दिख रहा है. उल्टे चैनलों में अति-उत्साह, उत्तेजना और सनसनी के लगातार बढते जोर को देखकर कई बार आशंका होती है कि कहीं उन्हें हाई ब्लड प्रेशर की स्थाई शिकायत तो नहीं हो गई है?
जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदाल उर्फ अबू जुंदल उर्फ अबू जंदाल उर्फ अबू जंदल उर्फ अबू हमजा के मामले को ही लीजिए. कथित तौर पर लश्कर-ए-तैय्यबा से जुड़े और मुंबई पर २६/११ के आतंकवादी हमले के निर्देशकों में से एक जबीउद्दीन अंसारी की सउदी अरब की मदद से २१ जून को दिल्ली में गिरफ्तारी के बाद से भारतीय मीडिया में जिस तरह की अति-उत्साह और उत्तेजना से भरी और सनसनीखेज रिपोर्टिंग हुई है, उससे बाकी दर्शकों की तो नहीं जानता लेकिन अपनी जानकारी और समझ कम बढ़ी और भ्रम और हैरानी ज्यादा बढ़ गई.

चैनलों की रिपोर्टिंग की हालत यह थी कि शुरूआती कई दिनों तक तो अंसारी के नाम को लेकर उलझन बनी रही. जितने चैनल, जितने अखबार- उतने मुंह और उतनी ही कहानियां. नाम का यह भ्रम इस हद तक पहुँच गया कि गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि गिरफ्तार जंदाल, अबू हमजा नहीं है.

इसके बावजूद यह उलझन आज भी बनी हुई है कि वह जिंदाल है, जुंदल है या जंदाल है. जैसे नाम का जंजाल काफी नहीं था, समाचार मीडिया खासकर चैनलों में जंदाल के कारनामों को लेकर एक से एक सनसनीखेज ‘खबरें’ दिखाई गईं. इस मामले में चैनलों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ने की ऐसी होड़ मची हुई थी कि अति-उत्साह और उत्तेजना में वे तथ्यों से कम और कल्पना से अधिक काम ले रहे थे.

अपनी कल्पनाशीलता में वे ऐसी-ऐसी रिपोर्टें दिखा रहे थे कि आज की रिपोर्ट कल की रिपोर्ट को काट रही थी, सुबह का ‘खुलासा’ शाम के ‘खुलासे’ पर उल्टा पड़ रहा था और एक चैनल की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दूसरे की एक्सक्लूसिव को सर के बल खड़ी कर दे रही थी.

पता नहीं चैनलों में अपने पिछले दिनों की रिपोर्टों को देखने का चलन है या नहीं लेकिन उनपर जिस तरह हर दिन सुबह-शाम जंदाल से पूछताछ के बाद सूत्रों के हवाले से ‘खुलासे’ प्रसारित हो रहे थे, उसमें कोई तारतम्यता नहीं दिख रही थी.

ऐसा लगता है कि चैनल या तो बहुत जल्दी में रहते हैं और कल क्या दिखाया था, इसका ख्याल करने की फुर्सत नहीं होती है या फिर वे ‘दिखाओ और भूल जाओ’ यानी स्मृति-भ्रंश की बीमारी के शिकार हो गए हैं.    

लेकिन क्या इस स्मृति-भ्रंश की बड़ी वजह यह नहीं है कि ऐसे मामलों में चैनल (और अखबार भी) ‘सूत्रों’ पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं? यह भी कि वे इन ख़ुफ़िया-पुलिस सूत्रों से सवाल नहीं पूछते हैं और उनसे मिली हर कच्ची-पक्की जानकारी को बिना किसी छानबीन और जांच-पड़ताल के और अक्सर अपनी ओर से भी कुछ नमक-मिर्च लगाकर चैनलों पर उगल देते हैं?

यही नहीं, अधिकांश चैनलों की रिपोर्टिंग में तथ्यों/भाषा के स्तर पर संयम, संतुलन और वस्तुनिष्ठता को भी किनारे रख दिया जाता है. इस मामले में इंडिया टी.वी और बाकी चैनलों के बीच का फर्क खत्म होते देर नहीं लगती है.   

लेकिन क्या करें, जब अति-उत्साह और उत्तेजना से भरे चैनलों का नीति वाक्य  ‘देर से, दुर्घटना भली’ बन गया है. यह और बात है कि इस दुर्घटना में हम दर्शकों की समझ और जानकारी का सिर फूटता है. लेकिन इससे चैनलों को क्या फर्क पड़ता है?

('तहलका' के 31 जुलाई के अंक में प्रकाशित 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ में प्रकाशित टिप्पणी) 

गुरुवार, जुलाई 19, 2012

रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार के बीच आसमान छूती महंगाई

नीतिगत लकवे के कारण महंगाई बढ़ रही है    

आंकड़ों के बारे में आपने यह मसल जरूर सुनी होगी- झूठ, महाझूठ और आंकड़े! इन दिनों महंगाई के आंकड़ों पर यह मसल कुछ ज्यादा ही सटीक बैठती है. आम आदमी आसमान छूती महंगाई की मार से भले त्रस्त हो लेकिन मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, मई की तुलना में जून महीने में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू.पी.आई) पर आधारित महंगाई की दर में मामूली कमी दर्ज की गई है और मुद्रास्फीति दर मई के ७.५५ फीसदी से घटकर ७.२५ फीसदी हो गई है.
जाहिरा तौर पर मंत्रियों और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के चेहरों पर मुस्कराहट लौट आई है लेकिन अधिकांश विश्लेषक मुद्रास्फीति दर में आई गिरावट से हैरान है क्योंकि वे उसमें मामूली बढोत्तरी की आशंका जता रहे थे. समाचार एजेंसी रायटर्स के एक सर्वेक्षण में विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों ने जून में मुद्रास्फीति की दर ७.६२ फीसदी रहने का अनुमान लगाया था.
सवाल है कि यह चमत्कार कैसे हुआ? असल में, इसका वास्तविक महंगाई से कम और सांख्यकी से ज्यादा संबंध है. सच पूछिए तो यह एक सांख्यिकीय चमत्कार है. पिछले साल की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल की वृद्धि प्रतिशत में कम दिखाई देती है. इसे अर्थशास्त्र में हाई बेस प्रभाव यानी आधार वर्ष में ऊँची दर का असर कहते हैं. चूँकि पिछले वर्ष जून महीने में थोक मुद्रास्फीति दर ९.५१ फीसदी थी, इसलिए इस साल की बढोत्तरी तुलनात्मक रूप से खासी कम दिखाई दे रही है.

दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़े अस्थाई हैं और दो महीने बाद जारी होनेवाले मुद्रास्फीति के संशोधित आंकड़ों में आमतौर पर बढोत्तरी का रुझान देखा गया है. जैसे जून के थोक मुद्रास्फीति दर के साथ-साथ अप्रैल महीने की मुद्रास्फीति की दर (अस्थाई) को ७.२३ फीसदी से संशोधित करके ७.५० फीसदी कर दिया गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि दो महीने बाद जून के मुद्रास्फीति के वास्तविक आंकड़े मौजूदा दर से ऊँचे रह सकते हैं.

तीसरी बात यह है कि जून महीने के थोक मुद्रास्फीति के आंकड़ों की अगर बारीकी से छानबीन की जाए तो साफ़ है कि खाद्य मुद्रास्फीति की दर अभी भी न सिर्फ ऊँची बनी हुई है बल्कि मई की तुलना में जून में उसमें बढ़ोत्तरी भी हुई है. मई में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १०.७४ फीसदी थी जो जून महीने में बढ़कर १०.८१ फीसदी हो गई है.
इसमें भी सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि जून महीने में चावल की कीमतों में ६.७ फीसदी, गेहूं में ७.४६ फीसदी, दालों में ६.८२ फीसदी और सब्जियों में २०.४८ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. इससे साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई की आग सिर्फ सब्जियों-फलों तक सीमित नहीं है बल्कि आम आदमी की थाली के सबसे बुनियादी अनाजों- गेहूं-चावल-दाल की कीमतों में भी भभक रही है.
खाद्यान्नों की यह महंगाई इसलिए ज्यादा हैरान करनेवाली है क्योंकि इस समय सरकार के गोदामों में रिकार्ड ८.२ करोड़ टन अनाज का भण्डार है. वैसे सरकार के पास केवल ६.४ करोड़ टन अनाज के भंडारण की व्यवस्था है. मजे की बात यह है कि इस साल सरकार ने ३.८ करोड़ टन गेहूं की खरीद की है. इसका अर्थ यह हुआ कि कोई १.८ करोड़ टन अनाज असुरक्षित भण्डारण के कारण बर्बाद या खराब हो सकता है.

इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल महंगाई से लड़ने में करने में नाकाम रही है. वह चाहती तो इस अनाज भण्डार से महंगाई खासकर खाद्यान्नों की महंगाई पर अंकुश लगा सकती थी. लेकिन इसके उलट अनाज का यह रिकार्डतोड़ भण्डार खाद्यान्नों की महंगाई की बड़ी वजह बन गया है.

असल में, यह यू.पी.ए सरकार के खाद्य प्रबंधन की नाकामी है. वह इस तरह कि इस समय सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है. जब सरकार खुद ६८२ लाख टन अनाज दबा कर बैठ जाएगी तो बाजार में एक कृत्रिम किल्लत पैदा होना तय है जिसका फायदा खाद्यान्नों के बड़े व्यापारी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उठा रही हैं.
यू.पी.ए सरकार चाहती तो वह इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत लागू करके अनाज को जरूरतमंदों तक पहुंचा सकती थी बल्कि उसे नियंत्रित और सस्ती कीमतों पर खुले बाजार में उतारकर अनाजों की महंगाई को काबू में कर सकती थी. कहने की जरूरत नहीं है कि अनाजों की महंगाई पर अंकुश से सब्जियों की महंगाई पर भी अंकुश लगाने में मदद मिलती क्योंकि इससे मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं पर अंकुश लगता और सट्टेबाज-मुनाफाखोर हताश होते.
लेकिन यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है, भले ही अनाज खुले में सड़ या बर्बाद हो जाए या उसे चूहे खा जाएँ. सरकार की इस अनिच्छा और उदासीन रवैये के पीछे एकमात्र कारण राजकोषीय घाटे को कम करने और इसके लिए खाद्य सब्सिडी को कम से कम रखने की जिद है.

इसका कोई समझदार अर्थशास्त्रीय या राजनीतिक तर्क नहीं है लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अतिरिक्त व्यामोह और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश रखने के लिए यू.पी.ए सरकार जिद पर अड़ी हुई है. वह न सिर्फ गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज देने में आनाकानी कर रही है बल्कि वाजिब दामों पर बाजार में अनाज उतारने से भी हिचकिचा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार के इस ‘नीतिगत लकवे’ का फायदा अनाजों के बड़े सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं. यही नहीं, गोदामों में रिकार्डतोड़ अनाज रखने के कारण उसके रखरखाव पर भारी खर्च हो रहा है और अनाज सड़ और बर्बाद भी हो रहा है, उसके कारण सरकार का खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ता ही जा रहा है.
दूसरी ओर, खाद्य वस्तुओं की महंगाई भी बेकाबू बनी हुई है. सच पूछिए तो ‘रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार और ऊँची खाद्य मुद्रास्फीति दर’ की मौजूदा परिघटना एक पहेली बन चुकी है. लेकिन यह पहेली वास्तव में, यू.पी.ए सरकार की नव उदारवाद नीतियों की ऐसी नाकामी है जिसकी असली कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
इस सबके बीच इस साल मॉनसून के धोखा देने की बढ़ती आशंका और उसके कारण खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर बढ़ते दबाव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है. पिछले दस दिनों में सब्जियों की कीमतों में जो उछाल दिखा है, वह जल्दी ही खाद्यान्नों की कीमतों में भी दिखाई पड़ने लगेगी. सट्टेबाज और जमाखोर सरकार के रूख पर नजर लगाये हैं.

अगर वह अब भी अपने नीतिगत लकवे से बाहर नहीं निकली तो उसका सबसे अधिक फायदा अनाजों के व्यापार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ और व्यापारी उठाएंगे और आमलोग उसकी कीमत चुकायेंगे. इस मायने में पिछले कुछ दिनों में सब्जियों/खाद्यान्नों की कीमतों में हुई भारी बढ़ोत्तरी यू.पी.ए सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

इसलिए उसे जून के मुद्रास्फीति के भ्रामक आंकड़ों में राहत महसूस करने और झूठे दावे करने के बजाय पिछले कुछ दिनों में सब्जियों से लेकर खाद्यान्नों की कीमतों में आई बेतहाशा उछाल को लेकर सतर्क और सक्रिय होना चाहिए.
अगर उसने इस रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार का अब भी इस्तेमाल नहीं किया तो पूछा जाना चाहिए कि आम आदमी के पैसे से बना यह अनाज भण्डार किस दिन और काम के लिए है?
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 17 जून के अंक में आप-एड पर प्रकाशित लेख)                      

                              

मंगलवार, जुलाई 17, 2012

मानवाधिकारों के मामले में सत्तातंत्र के साथ क्यों खड़ा है मीडिया?

यह कारपोरेट मीडिया का ‘जनतंत्र’ है जिसमें आम नागरिकों के मानवाधिकार के साथ सौदा और समझौता संभव है

दूसरी और आखिरी किस्त
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आन्दोलनों को पुलिसिया ताकत से दबाने की कोशिश में भारतीय राज्य ने न सिर्फ पुलिस को मनमानी करने की छूट दे रखी है बल्कि उसकी मनमानी और गैर-कानूनी कार्रवाइयों को संरक्षण देने के लिए काले कानून बनाने में भी संकोच नहीं किया है.
नतीजा यह कि इन इलाकों में मानवाधिकार बेमानी होकर रह जाते हैं. पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं करते हैं. यहाँ तक कि ‘युद्ध’ जैसी स्थिति का हवाला देकर मानवाधिकार हनन के मामलों का बचाव किया जाने लगता है. इस स्थिति में मानवाधिकार हनन के मामले उठानेवाले संगठन और कार्यकर्ता राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों को खटकने लगते हैं.
यही नहीं, मानवाधिकार हनन के मामले उठानेवाले संगठनों और कार्यकर्ताओं को राज्य अपने दुश्मन की तरह देखने लगता है. हैरानी की बात नहीं है कि इन मामलों को उठानेवाले पी.यू.सी.एल, पी.यू.डी.आर जैसे मानवाधिकार संगठन और उनके कार्यकर्ताओं पर एक ओर ‘आतंकवादियों के हमदर्द’, ‘माओवादियों के समर्थक’ और ‘विदेशी ताकतों की कठपुतली’ जैसे आरोप मढ़कर उनका खलनायकीकरण किया जाता है और दूसरी ओर, उनपर प्रत्यक्ष हमले भी बढे हैं.

अफसोस की बात यह है कि समाचार माध्यम मानवाधिकार संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं पर हो रहे परोक्ष और प्रत्यक्ष हमलों में उनके साथ खड़े होने के बजाय ज्यादातर मामलों में राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं. इस मामले में वे सत्तातंत्र के भोपूं से बन गए हैं और राज्य और उसकी एजेंसियां उन्हें खुलकर मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ प्रचार युद्ध में इस्तेमाल कर रही हैं.

सीमा आज़ाद के मामले में भी समाचार मीडिया के एक बड़े हिस्से का रवैया पुलिस के भोपूं की तरह ही था. जबकि समाचार मीडिया से अपेक्षा यह की जाती है कि वे मानवाधिकार संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं के साथ खड़े होंगे क्योंकि वे उनके सबसे स्वाभाविक मित्र हैं. असल में, न्यूज मीडिया जिस अभिव्यक्ति की आज़ादी की ताकत पर खड़ा है, उसकी गारंटी के लिए संघर्ष करनेवालों की कतार में सबसे आगे मानवाधिकार संगठन ही रहते हैं.
अभिव्यक्ति की आज़ादी को बनाये रखने में मानवाधिकार संगठनों और उन हजारों-लाखों राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी भूमिका है जो संविधान से हासिल विभिन्न मौलिक अधिकारों की किसी भी कीमत पर हिफाजत के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते रहते हैं. उनके लिए मामूली से मामूली नागरिक के मानवाधिकार सबसे पहले हैं और वे इस मुद्दे पर किसी भी समझौते या सौदे के लिए तैयार नहीं हैं.
उनके समझौताविहीन संघर्षों का ही नतीजा है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी काफी हद तक बची हुई है. आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि देश में इमरजेंसी के दौरान सेंसरशिप और मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ लड़नेवालों में सबसे आगे राजनीतिक-सामाजिक-मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता और नेता खड़े थे. अन्यथा कौन नहीं जानता कि अखबारों के बड़े हिस्से ने ‘घुटने के बल चलने के लिए कहे जाने पर रेंगना’ शुरू कर दिया था.

इसी तरह जगन्नाथ मिश्र के बिहार प्रेस विधेयक और राजीव गाँधी के मानहानि विधेयक के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद करनेवालों में पत्रकारों के साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता ही खड़े थे. सच पूछिए तो देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी उसमें कटौती करने या उसे सीमित करने के तमाम दबावों और परोक्ष-अपरोक्ष कोशिशों के बावजूद बनी हुई है तो इसकी वजह ये संघर्ष ही हैं.

सबक यह कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी इसलिए नहीं बची हुई है कि सत्तातंत्र उदार और जनवाद पसंद है बल्कि उसकी हिफाजत के लिए निरंतर सतर्क, सजग और मुखर नागरिक समूहों और राजनीतिक-सामाजिक संगठनों का दबाव और संघर्ष है. न्यूज मीडिया भी इन्हीं समूहों का हिस्सा है. वह उनसे अलग-थलग होकर अपनी आज़ादी की हिफाजत नहीं कर सकता है.
दूसरे, अभिव्यक्ति की आज़ादी को अन्य मानवाधिकारों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. अन्य मानवाधिकार सुरक्षित हैं तो अभिव्यक्ति की आज़ादी सुरक्षित है और अभिव्यक्ति की आज़ादी बची हुई है तो अन्य मानवाधिकार भी बचे रहेंगे. उनकी परस्पर गारंटी ही उनका भविष्य है.
इसलिए याद रहे कि अगर आप दूसरे की आज़ादी की हिफाजत के लिए नहीं बोलेंगे या उसके साथ नहीं खड़े होंगे तो आप अपनी आज़ादी को भी बहुत दिनों तक सुरक्षित नहीं रख सकते हैं. मीडिया को यह सच जितनी जल्दी समझ में आ जाये, उतना अच्छा होगा. लेकिन मुश्किल यह है कि कारपोरेट न्यूज मीडिया के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी का मसला उतना बड़ा और महत्वपूर्ण मसला नहीं रह गया है.

कारपोरेट मीडिया और सत्तातंत्र के मजबूत गठजोड़ और गहरे होते रिश्तों के बीच मुख्यधारा के न्यूज मीडिया को मुनाफे के लिए अपनी आज़ादी भी गिरवी रखने में कोई संकोच नहीं रह गया है. मुनाफे के लोभ ने उनकी जुबान बिना किसी सेंसरशिप के ही बंद कर दी है. उन्हें चुप करने के लिए सत्तातंत्र को किसी इमरजेंसी या बाहरी सेंसरशिप की जरूरत नहीं रह गई है.

अलबत्ता, जब भी उनके मुनाफे, आर्थिक हितों या अन्य धंधों पर कोई चोट होती है या उसकी आशंका दिखती है तो कारपोरेट मीडिया समूहों को अभिव्यक्ति की आज़ादी याद आने लगती है. इस अर्थ में वे अभिव्यक्ति की आज़ादी को सत्ता प्रतिष्ठान से एक मोलतोल के औजार की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं.
अन्यथा उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी की कोई खास परवाह नहीं है. सच यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान के साथ उनके आर्थिक-राजनीतिक हित इस हद तक एकाकार हो गए हैं कि वे बिना किसी बाहरी दबाव के खुद व्यवस्था के सबसे बड़े पैरोकार और प्रवक्ता हो गए हैं.
ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर कारपोरेट मीडिया समूहों के अख़बारों/चैनलों के लिए भी माओवादी ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ दिखने लगे हैं. इस अर्थ में वे माओवाद के खिलाफ राज्य की ओर से छेड़े युद्ध यानी ग्रीन हंट में राज्य के साथ खड़े हैं. सच यह है कि मीडिया का बड़ा हिस्सा इस ग्रीन हंट में पुलिस/अर्द्ध सैनिक बलों/ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) हो चुका है और उनके प्रचार युद्ध का हथियार बन चुका है.

यही कारण है कि सीमा आज़ाद या सोनी सोरी या ऐसे ही दूसरे मामलों में वह सच्चाई सामने लाने के बजाय राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों की ओर से छेड़े उस कुप्रचार अभियान का हिस्सा बन जाता है जो सीमा आज़ाद जैसों को माओवादी और देश का दुश्मन साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखते हैं.

इसी का तार्किक विस्तार यह है कि कारपोरेट मीडिया के अखबार/चैनल माओवाद के खिलाफ युद्ध में सुरक्षा बलों/पुलिस की ओर से हो रहे मानवाधिकार हनन के गंभीर मामलों को भी न सिर्फ अनदेखा करते हैं बल्कि उसे यह कहकर जायज ठहराने लगते हैं कि युद्ध जैसी स्थिति में यह स्वाभाविक है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है या खुद माओवादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, इसलिए उनसे निपटने में मानवाधिकारों का ध्यान रख पाना संभव नहीं है.
यह कारपोरेट मीडिया का ‘जनतंत्र’ है जिसमें आम नागरिकों के मानवाधिकार के साथ भी सौदा और समझौता संभव है. इस तरह देखा जाए तो सीमा आज़ाद के मामले में कारपोरेट मीडिया और उसके अखबारों/चैनलों की चुप्पी किसी नादानी, जानकारी/समझ के अभाव या अन्य खबरों में उलझे रहने के कारण नहीं है बल्कि बहुत सोची-समझी और रणनीतिक है.  
साफ़ है कि कारपोरेट मीडिया और उसके अख़बारों/चैनलों ने अपना पक्ष तय कर लिया है. वे भारतीय राज्य की माओवाद के खिलाफ लड़ाई में निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ प्रेक्षक नहीं हैं और न ही वे इस लड़ाई में पिस रहे निर्दोष नागरिकों के मानवाधिकारों के पैरोकार बनने को तैयार हैं. इस प्रक्रिया में उन्होंने सच को दांव पर लगा दिया है. पत्रकारिता के बुनियादी उद्देश्यों और मूल्यों से किनारा कर लिया है.

वे भूल गए हैं कि समाचार माध्यमों और पत्रकारिता से पहली अपेक्षा सच के साथ खड़े होने की जाती है. उनकी पहली और आखिरी प्रतिबद्धता सच के साथ खड़ा होना है. यह इसलिए भी जरूरी है कि जनतंत्र में न्यूज मीडिया और पत्रकारिता की पहली वफ़ादारी नागरिकों के प्रति है और नागरिकों के लिए सच जानना इसलिए जरूरी है ताकि वे खुद मुख्तार बन सकें और अपने फैसले ले सकें.

कहने की जरूरत नहीं है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे आदर्श और मूल्य बेमानी हैं, अगर न्यूज मीडिया लोगों को सच बताने के लिए तैयार नहीं है. मानवाधिकार संगठन यही सवाल तो उठा रहे हैं कि लोगों को सीमा आज़ाद या सोनी सोरी या प्रशांत राही के मामलों में पूरी सच्चाई बताने के लिए अखबारों/चैनलों को आगे आना चाहिए?
सवाल यह है कि क्या आम लोगों को यह जानने का हक नहीं है कि सीमा आज़ाद का ‘अपराध’ क्या है कि उन्हें आजीवन कारावास जैसी उच्चतम सजा दी गई है? याद रहे कि पत्रकारिता की आत्मा या सत्व स्वतंत्र छानबीन, जांच-पड़ताल और खोजबीन के जरिये सच तक पहुँचना है.
अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट मीडिया की पत्रकारिता ने छानबीन, जांच-पड़ताल और खोजबीन का जिम्मा पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंप दिया है और वे सिर्फ उसके प्रवक्ता भर बनकर रह गए हैं.
ऐसे में, कारपोरेट मीडिया और उसकी पत्रकारिता को यह याद दिलाना बेमानी है कि पत्रकारिता के उच्च आदर्शों और मूल्यों में एक महत्वपूर्ण मूल्य कमजोर और बेजुबान लोगों की आवाज़ बनना भी है. भारत जैसे देश में पत्रकारिता की यह भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ गरीबों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ बहुत मुश्किल से सुनाई देती है.

भारत जैसे अत्यधिक असमान और गैर बराबरी से भरे समाज में जहाँ गरीब और कमजोर लोगों को भांति-भांति के भेदभाव, उत्पीडन और जुल्म झेलने पड़ते हैं, वहाँ पत्रकारिता से स्वाभाविक तौर पर यह अपेक्षा की जाती है कि वह उनकी आवाज़ बने और उनके खिलाफ हो रहे भेदभाव, उत्पीडन और जुल्मों को सामने लाये.

इसके बिना न तो एक बेहतर और बराबरी पर आधारित समाज संभव है और न ही वास्तविक जनतंत्र मुमकिन है. कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा दौर में जब गरीबों और कमजोर लोगों के मानवाधिकार सबसे ज्यादा संकट में हैं और उनपर हमले बढ़ रहे हैं तो एक जनपक्षधर न्यूज मीडिया और पत्रकारिता से यह अपेक्षा और उम्मीद और बढ़ जाती है कि वह कमजोर लोगों की आवाज़ बने, उनके मानवाधिकारों की रक्षा करे और सत्तातंत्र को निरंकुश होने से रोके.
लेकिन सवाल यह है कि क्या कारपोरेट मीडिया और उसके अखबार/चैनल जनपक्षधर रह गए हैं? सीमा आज़ाद का मामला एक और टेस्ट केस है और अफसोस और चिंता की बात है कि कारपोरेट मीडिया इसमें बुरी तरह से फेल होता दिख रहा है.
('कथादेश' के जुलाई'12 के अंक में इलेक्ट्रानिक मीडिया स्तम्भ में प्रकाशित टिप्पणी की आखिरी किस्त...आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इन्जार है...)

सोमवार, जुलाई 16, 2012

मानवाधिकारों के प्रति मीडिया की उदासी के मायने

मानवाधिकार हनन के बढते मामलों में मीडिया और चैनलों की चुप्पी का राज क्या है? 
पहली किस्त 

"पहले वे यहूदियों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.

फिर वे मानवाधिकारवादियों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं मानवाधिकारवादी नहीं था.

फिर वे ट्रेड यूनियनवालों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन वाला नहीं था.

फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.

फिर वे मेरे लिए आए

और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था.”

-    मार्टिन नीमोलर (हिटलर के दौर का जर्मन कवि)

इस चर्चित कविता को आप सबने कई बार पढ़ा-सुना होगा. कई कारणों से आज के भारत में यह छोटी सी कविता इतनी महत्वपूर्ण और जरूरी बन गई है कि उसे बार-बार पढ़ा और सुनाया जाना चाहिए. लेकिन लगता है कि समाचार माध्यमों खासकर न्यूज चैनलों के ज्यादातर संपादकों/पत्रकारों ने इसे नहीं पढ़ा/सुना है या भूल गए हैं.
अगर ऐसा नहीं होता तो वे देश में मानवाधिकार हनन के बढते मामलों पर ऐसे चुप नहीं होते. यह भी कि मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय कमल को आजीवन कारावास की सजा पर खामोश नहीं रहते. सबसे बढ़कर इस फैसले के खिलाफ रोष जाहिर करने के लिए राजधानी दिल्ली में मानवाधिकार संगठनों और जाने-माने बुद्धिजीवियों की ओर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ तीन संवाददाता नहीं पहुँचते.
यही नहीं, जहाँ तक मेरी जानकारी है कि उस प्रेस कांफ्रेंस की रिपोर्ट ‘द हिंदू’ को छोडकर किसी अखबार में नहीं छपी और न ही किसी चैनल पर चली. छिछले से छिछले विषयों और मुद्दों पर घंटों महाबहस और चर्चा करनेवाले चैनलों पर इस मुद्दे का चलते-चलते भी कहीं जिक्र नहीं हुआ. गोया यह कोई मुद्दा ही नहीं हो. यह और बात है कि इस मुद्दे पर न्यू और सोशल मीडिया (ब्लॉग और फेसबुक आदि) पर खूब चर्चा हो रही थी और लोगों की प्रतिक्रियाएं आ रही थीं.

यही नहीं, मानवाधिकार संगठनों के अलावा बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से में इस फैसले पर खासी बेचैनी दिखी. कोई ३०० से ज्यादा बुद्धिजीवियों/लेखकों/पत्रकारों/संस्कृतिकर्मियों ने इस फैसले पर हैरानी, चिंता और नाराजगी जाहिर करते जारी करते हुए बयान जारी किया लेकिन उसे भी किसी अखबार या चैनल ने नोटिस लेने लायक नहीं समझा.

कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदी के चैनलों और अधिकांश अखबारों के लिए हिंदी के लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी और उनकी राय कोई मायने नहीं रखती है. वे किसी भी मसले पर बोलें या राय रखें लेकिन चैनल और अखबार उसे टिकर पर चलाने या कोने-अंतरे में छापने लायक भी नहीं समझते हैं. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वे अपनी ही भाषा के बुद्धिजीवियों/लेखकों की कितनी कद्र करते हैं?
सच पूछिए तो समाचार माध्यमों खासकर हिंदी के समाचार माध्यम हिंदी के बुद्धिजीवियों/लेखकों से इतनी दूरी बरतते हैं कि उन्हें देखकर कहना मुश्किल है कि हिंदी क्षेत्र में बुद्धिजीवी/लेखक भी हैं. किसी बड़े और चर्चित लेखक की मौत के बाद ही पता चलता है कि हिंदी में ऐसा कोई लेखक भी था.
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि लेखकों/संस्कृतिकर्मियों/बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षरित बयान को चैनलों/अखबारों ने नोटिस लेने लायक नहीं माना. लेकिन असल सवाल यह नहीं है. मुद्दा यह है कि मुख्यधारा के अखबारों और चैनलों के लिए दो नौजवान मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं को ‘माओवादी’ बताकर फंसाने और फिर उन्हें आजीवन कारावास की सजा एक बड़ी खबर क्यों नहीं लगती है?

उन्हें क्यों नहीं लगता है कि इस मामले की गहराई से जांच-पड़ताल करने और मानवाधिकार संगठनों के आरोपों की छानबीन करके सच्चाई को सामने लाने के लिहाज से यह एक बड़ी ‘स्टोरी’ है? उन्हें सीमा आज़ाद का मामला भी विनायक सेन के मामले की तरह क्यों नहीं दिखता है जिसमें उन्होंने कुछ हद तक सक्रिय दिलचस्पी ली थी? उन्हें इस मामले में भी जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे मामलों की तरह ‘न्याय’ की हत्या क्यों नहीं दिखती है?

कहने की जरूरत नहीं है कि यह अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसे लेकर मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में एक ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ दिखाई पड़ रही है. सीमा आज़ाद से पहले उत्तराखंड में पत्रकार प्रशांत राही को ‘माओवादी’ बताकर कई साल जेल में बंद रखा गया लेकिन चैनलों/अखबारों ने शायद ही इस मामले की कभी सुध ली हो.
वही नहीं, ऐसे दर्जनों स्थानीय पत्रकार/लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी हैं जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘माओवादी साहित्य’ रखने के आरोप में या माओवादियों से संपर्क रखने या दूसरे फर्जी मामलों में गिरफ्तार करके लंबे समय तक जेल में रखा गया है.
आमतौर पर ९० फीसदी मामलों में उन पत्रकारों/लेखकों/बुद्धिजीवियों का गुनाह यह रहा है कि उन्होंने अपने इलाकों में माओवाद से लड़ने के नामपर पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा निर्दोषों को सताए जाने और फर्जी मुठभेड़ों का पर्दाफाश करने और सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार हनन के मामलों का खुलासा और विरोध किया है.   
इस कारण वे स्थानीय पुलिस की आँख में चुभते रहे हैं. पुलिस खुन्नस में उन्हें सबक सिखाने के लिए फर्जी मामलों में फंसाती रही है. उनमें से कई को अपने इलाकों में विकास के नामपर अंधाधुंध विस्थापन और जल-जंगल-जमीन और खनिजों की लूट के विरोध की सजा के तौर पर फर्जी मामलों में फंसाया गया है. सीमा आज़ाद का मामला इस प्रवृत्ति का ही एक और प्रमाण है.

लेकिन एक मायने में यह पिछले मामलों से अलग और चिंतित करनेवाला भी है. इस बार पुलिस की कार्रवाई पर स्थानीय अदालत ने भी न सिर्फ मोहर लगा दी है बल्कि यू.ए.पी.ए कानून के तहत आजीवन कारावास की सजा सुना दी है. इससे पहले के मामलों में आमतौर पर अदालतों में फर्जी पुलिसिया कार्रवाइयां ठहर नहीं पाई हैं. लेकिन यह एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति है जब अदालतें भी सच देखने से इनकार कर रही हैं.

उल्लेखनीय है कि पत्रकार और ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता (पी.यू.सी.एल की सचिव) सीमा आज़ाद और उनके पति और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता विश्वविजय कमल को इलाहाबाद की निचली अदालत ने बीते ८ जून को प्रतिबंधित सी.पी.आई (माओवादी) का सदस्य होने, अपने पास माओवादी साहित्य रखने, राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे आरोपों में दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास और २० हजार रूपये के जुर्माने की सजा सुनाई है. उन्हें आई.पी.सी की धारा १२० बी, १२१, १२१ ए के अलावा आतंकवाद विरोधी क़ानून यू.ए.पी.ए के तहत सजा सुनाई गई है. दोनों पिछले ढाई सालों से अधिक समय से जेल में बंद हैं.
मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि दोनों को ६ फरवरी’२०१० को दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में हिस्सा लेकर इलाहाबाद लौटने पर रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया गया. पी.यू.सी.एल के मुताबिक, दोनों को केन्द्र-राज्य की सरकारों की जनविरोधी नीतियों, पुलिसिया जुल्मों और मायावती सरकार की गंगा एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाओं के विरोध के कारण साजिशन फर्जी मामलों में फंसाया गया है.

मानवाधिकार संगठनों को लगता है कि यह पूरा मामला सीमा आज़ाद और विश्वविजय कमल जैसे मानवाधिकार और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पुलिसिया जुल्मों और जनविरोधी विकास योजनाओं के खिलाफ बोलने और लड़ने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं-नेताओं को डराने और चुप कराने के लिए गढा गया है.

निश्चय ही, सीमा आज़ाद का मामला अकेला ऐसा मामला नहीं है. मानवाधिकार हनन के मामलों को उठानेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ता पहले भी सरकार और पुलिस के निशाने पर रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या तेजी से बढ़ी है. ऐसे अनगिनत मामले हैं जिनमें मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को केन्द्र-राज्य सरकारों की शह पर पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने उत्पीडित किया है, उन्हें फर्जी मामलों में फंसाकर जेल में बंद रखा है, उनपर थर्ड डिग्री पुलिसिया जुल्म-यातना का इस्तेमाल किया है और कुछेक मामलों में तो उनकी हत्या तक करवा दी है.
इसी कारण बहुतों को लगता है कि अघोषित इमरजेंसी से जैसे हालात बनते जा हैं जिसमें अपने हक और बुनियादी बदलाव के लिए लड़नेवालों के साथ-साथ उनके प्रति सहानुभूति रखनेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को सत्तातंत्र द्वारा निशाना बनाया जा रहा है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों की यह शत्रुता उन इलाकों में सबसे ज्यादा दिखी है जहाँ भारतीय राज्य को क्रांतिकारी वामपंथी आन्दोलनों (नक्सली/माओवादी धारा) या अलगाववादी आन्दोलनों (कश्मीर/उत्तर पूर्व/पंजाब) या नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास योजनाओं के खिलाफ चल रहे जनतांत्रिक आन्दोलनों (जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट विरोधी आंदोलन) से कड़ी चुनौती मिली या मिल रही है और राज्य द्वारा उसे सैन्य ताकत से कुचलने की कोशिश के कारण युद्ध से हालात बन गए या बने हुए हैं.

('कथादेश' पत्रिका के जुलाई'12 अंक में प्रकाशित स्तम्भ...यह पहली किस्त है..कल दूसरी किस्त लेकिन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा)

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

‘टाइम’ की उलटबांसी

आर्थिक सुधारों के पक्ष में 'टाइम' के तर्क जले पर नमक छिड़कने की तरह हैं

जानी-मानी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ ने एशिया अंक की ताजा कवर स्टोरी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पिछले तीन साल के कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए थोड़ा सम्मानजक शब्दों में कहें तो उन्हें ‘उम्मीद से कम सफल’ और बिना लागलपेट के कहें तो ‘फिसड्डी’ (अंडर-अचीवर) घोषित करके चौतरफा हमलों से घिरे प्रधानमंत्री पर हमले के लिए विपक्ष को एक और हथियार दे दिया है.
आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने प्रधानमंत्री की नाकामियों खासकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में उनकी विफलता के बाबत ‘टाइम’ के आरोपों को हाथों-हाथ लिया है. यही नहीं, भाजपा बड़े गर्व और उत्साह से यह बताना भी नहीं भूल रही है कि ‘टाइम’ ने कुछ सप्ताहों पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व क्षमता की तारीफ़ की थी.
भाजपा की खुशी समझी जा सकती है. लेकिन तथ्य यह है कि ‘टाइम’ ने प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल के बारे में ऐसी कोई नई बात या रहस्योद्घाटन नहीं किया है जो देश में लोगों को पहले से मालूम न हो.

सच यह है कि प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार की आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामियों पर ऐसे कटाक्ष और आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं. ऐसे आरोप लगानेवालों में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर गुलाबी अखबारों तक और स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर देशी-विदेशी थिंक टैंक और फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबीइंग संगठन तक सभी शामिल रहे हैं.  

इस मायने में ‘टाइम’ पत्रिका की ओर से प्रधानमंत्री की रेटिंग और अर्थव्यवस्था की ‘स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. दोनों की कसौटियां और पैमाने एक जैसे हैं. प्रधानमंत्री से उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि वे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए उतनी कोशिश नहीं कर रहे हैं जितनी कि उनसे अपेक्षा और उम्मीदें थीं.
‘टाइम’ को भी लगता है कि प्रधानमंत्री फैसले नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि सत्ता का केन्द्र कहीं और है. वे अपने ही मंत्रियों के आगे लाचार हैं. पत्रिका के मुताबिक, यू.पी.ए सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों में घिरी है और वोट के चक्कर में सब्सिडी और सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ाती जा रही है.
हालाँकि ‘टाइम’ के आरोपों और कटाक्ष में नया कुछ नहीं है लेकिन इससे यह जरूर पता चलता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यू.पी.ए सरकार से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगाये बैठी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके पैरोकारों की उम्मीद खत्म होने लगी है और उनकी हताशा तुर्श होने लगी है.

स तुर्शी को अजीम प्रेमजी और एन. नारायणमूर्ति जैसे देशी उद्योगपतियों के बयानों से लेकर बड़े विदेशी कारपोरेट समूहों की उन धमकियों में भी महसूस किया जा सकता है जो आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार की नाकामी और विदेशी निवेशकों को कथित तौर पर परेशान और तंग करनेवाले नियम-कानूनों से नाराज होकर देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन रिपोर्टों और आलोचनाओं का एक बड़ा मकसद सरकार और खासकर प्रधानमंत्री पर दबाव बढ़ाना है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कई महीनों से बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके पैरोकार प्रधानमंत्री पर दबाव बनाये हुए हैं कि वे न सिर्फ आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले जैसे खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने की पहल करें बल्कि विदेशी कंपनियों और निवेशकों पर पीछे से टैक्स (वोडाफोन प्रकरण) और टैक्स देने से बचने पर रोक लगानेवाले गार जैसे नियमों को वापस लें.
इस दबाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर और ब्रिटिश वित्त मंत्री जार्ज ओसबोर्न के अलावा खुद प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने निजी तौर पर पूर्व वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने और वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स लगाने के फैसले को वापस लेने का दबाव बना रखा है.  
निश्चय ही, प्रधानमंत्री को अच्छी तरह से पता है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स की उनकी सरकार से नाराजगी और हताशा बढ़ती जा रही है. उन्हें इस नाराजगी के नतीजों का भी अंदाज़ा है. इस अर्थ में ‘टाइम’ की ताजा कवर स्टोरी को एक तरह से यू.पी.ए सरकार के समाधि लेख की तरह भी देखा जा सकता है.               

आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री जबरदस्त दबाव में हैं. खासकर उन्होंने जब से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला है, उनपर यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया है. इस दबाव में उन्होंने पिछले डेढ़ सप्ताह में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने वाले कई बयान दिए हैं. इन बयानों का मकसद एक ओर कारपोरेट जगत में फील गुड का माहौल पैदा करना और दूसरी ओर, सुधारों को लेकर राजनीतिक मूड का अंदाज़ा लगाना था.

हैरानी नहीं होगी अगर अगले कुछ सप्ताहों में यू.पी.ए सरकार अर्थव्यवस्था को दुरुस्त और इसके लिए देशी-विदेशी निवेशकों का विश्वास बहाल करने के नाम खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति और वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स लगाने और गार को ठंडे बस्ते में डालने जैसे फैसले करने की पहल करे.
यही नहीं, सरकार से आ रहे संकेतों से साफ़ है कि वह डीजल और खाद की कीमतों में वृद्धि जैसे फैसले भी करने पर विचार कर रही है. इसके अलावा सरकार रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में कटौती के लिए दबाव बढ़ाने की तैयारी में है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री के बयानों और सरकार से आ रहे संकेतों ने बाजार में फिर से नई उम्मीदें जगा दी हैं. पिछले कुछ दिनों में शेयर बाजार से लेकर रूपये की गिरती कीमत में सुधार आया है.
लेकिन असल सवाल यह है कि बाजार के चेहरे पर आई यह नई चमक किस कीमत पर आ रही है? क्या बाजार को खुश करने के लिए सरकार उन करोड़ों छोटे-मंझोले दुकानदारों की आजीविका दांव पर नहीं लगाने जा रही है जो खुदरा व्यापार में वाल मार्ट, टेस्को और मेट्रो जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नहीं टिक पायेंगे?

यही नहीं, विदेशी निवेशकों और कार्पोरेट्स को खुश करने के लिए क्या सरकार उन्हें भारतीय टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का नाजायज फायदा उठाने और टैक्स से बचने की तिकड़में करने की छूट देने के लिए तैयार है? यह भी कि एक संप्रभु देश के बतौर क्या भारत स्वतंत्र तौर पर अपने आर्थिक फैसले नहीं कर सकता?

मजे की बात यह है कि जो ब्रिटेन खुद अपने यहाँ गार लागू कर रहा है और इससे पहले पीछे से टैक्स लगाने का फैसला कर चुका है, वह भारत पर ऐसा न करने के लिए दबाव डाल रहा है. यह दोहरापन कोई नई बात नहीं है. आश्चर्य नहीं कि ‘टाइम’ की रिपोर्ट भी इस दोहरेपन की शिकार है. उसे प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी नाकामी यह दिखती है कि वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के हितों के अनुकूल नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रहे हैं.
लेकिन उसे यह नहीं दिखता कि प्रधानमंत्री और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी नाकामी यह है कि दो दशकों के आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबी, बेकारी, बीमारी, भूखमरी और वंचना में कोई खास कमी नहीं आई है.
मजे की बात यह है कि खुद ‘टाइम’ की कवर स्टोरी में स्वीकार किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में १९९४ में भारत १३५ वें स्थान पर था और २०११ में वह सिर्फ एक पायदान ऊपर १३४ वें स्थान पर पहुँच पाया है. क्या इन डेढ़ दशकों में औसतन ७ फीसदी से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के मामले में भारत की चींटी चाल प्रधानमंत्री और उससे अधिक नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की नाकामी नहीं है?

लेकिन इसके बावजूद ‘टाइम’ की उलटबांसी यह है कि मानव विकास के मामले में भारत के पिछड़ने का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का रूक जाना है.

यही नहीं, वह आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की इस तोतारटंत को भी दोहराता है कि गरीबी और बेकारी दूर करने के लिए आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार को तेज करना जरूरी है और इसके लिए आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को बढ़ाना जरूरी है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह तर्क जले पर नमक छिड़कने जैसा है.
लेकिन नव उदारवादी सुधारों की मुखर समर्थक ‘टाइम’ से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? कहने की जरूरत नहीं कि इसी सोच के कारण आर्थिक सुधारों की साख आम आदमी के बीच खत्म होती जा रही है और वे अंधी गली के आखिरी छोर पर पहुँच गए हैं. प्रधानमंत्री चाहकर भी उसे आगे नहीं ले जा सकते हैं.                  
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 10 जुलाई के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)