याराना पूंजीवाद अपवाद नहीं नियम बन गया है नव उदारवादी आर्थिकी का
दूसरी ओर, इस योजना के तहत संकटग्रस्त देशों पर थोपी गई शर्तों खासकर किफायतशारी के नामपर आमलोगों पर बोझ लादने और सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इससे राजनीतिक संकट बढ़ रहा है और संकट से निपटने की रणनीति को लेकर यूरोपीय देशों के बीच मतभेद और विवाद बढ़ने लगे हैं.
इस तरह बैंकों की देनदारियों की कोई संघीय गारंटी या बीमा नहीं होने के कारण वित्तीय संकट में फंसे देशों के बैंकों से पूंजी के सुरक्षित ठिकानों के पलायन के बाद डूबते बैंकों को संभालने का जिम्मा राष्ट्रीय सरकारों पर आ पड़ा है. इससे संकट और गहरा गया है.
लेकिन जब यह बुलबुला फूटा तो वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने की आड़ में डूबते हुए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को सार्वजनिक धन से उबारा गया और इस तरह निजी बैंकों/वित्तीय संस्थाओं की मनमानी, आपराधिक धोखाधड़ी और मिलीभगत को अनदेखा करते हुए उनके नुकसान का समाजीकरण किया गया. इसके कारण इन देशों में सार्वजनिक ऋण में भारी वृद्धि हुई और जिसकी भरपाई के लिए अब आमलोगों पर बोझ लादा जा रहा है.
लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि इन देशों का भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को जोरशोर से आगे बढ़ा रहा था जिसमें सार्वजनिक हितों की कीमत पर निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया गया, सार्वजनिक कंपनियों-उपक्रमों का बेलगाम निजीकरण किया गया और उन्हें मनमाना मुनाफा बनाने की इजाजत दी गई.
इस फर्जीवाड़े में यूनान की मदद वाल स्ट्रीट के बड़े अमेरिकी निवेश बैंकों जैसे गोल्डमैन साक्स आदि ने की और बदले में मोती कमाई की. इसके जरिये यूनान ने अपने राजकोषीय घाटे को कम करके दिखाया. लेकिन यह भी सच है कि यूरो क्षेत्र के विस्तार के लिए बेचैन यूरोपीय संघ के अधिकारियों और नेताओं ने भी जानबूझकर इसे अनदेखा किया.
इस फर्जीवाड़े के उजागर होने के बाद से यूरो क्षेत्र के प्रभावशाली देशों और मुद्रा कोष-वाल स्ट्रीट के प्रतिनिधियों की ओर से यूनानी राजनेताओं और अधिकारियों की लानत-मलामत शुरू हो गई, गोया इस सबके लिए वे अकेले जिम्मेदार हों. यही नहीं, अत्यधिक राजकोषीय घाटे और सरकारी कर्ज का सारा ठीकरा यूनानी जनता पर फोड़ा जाने लगा कि वे काम नहीं करते लेकिन उनकी तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, उनके सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर व्यय बहुत अधिक है आदि-आदि.
यही नहीं, यूरो क्षेत्र के इस आर्थिक संकट के संक्रमण का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी असर दिखने लगा है. साफ़ है कि यह आर्थिक संकट कहीं ज्यादा व्यापक, गहरा और व्यवस्थागत है. वास्तव में, यह संकट नव उदारवादी पूंजीवाद का है जो मुनाफे के अपने असीमित लोभ-लालच और मनमानियों की अंधी सुरंग के आखिरी छोर पर पहुँच गया है.
यूनान से शुरू हुआ यूरोपीय संघ का आर्थिक-वित्तीय संकट जहाँ एक ओर
आयरलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली जैसे देशों से होता हुआ साइप्रस तक पहुँच गया है,
वहीं यह आर्थिक संकट लगातार गहराता और एक बड़े राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है.
इस संकट ने एकल मुद्रा- यूरो स्वीकार करनेवाले यूरोपीय देशों यानी यूरो क्षेत्र के
आर्थिक-राजनीतिक भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
यह आशंका जोर पकड़ती जा रही
है कि देर-सवेर संकट में फंसे देशों- यूनान या स्पेन आदि को यूरो क्षेत्र से बाहर
निकलना पड़ेगा या यूरो को बचाने के लिए उन्हें निकाल दिया जायेगा और उसके बाद यूरो
को संभालना मुश्किल हो जाएगा.
इस आशंका को कई कारणों से बल मिल रहा है. पहली बात यह है कि यूनान,
स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों को इस संकट से उबारने के लिए जर्मनी और फ़्रांस के
नेतृत्व में यूरोपीय संघ ने जो बचाव योजना बनाई है, वह वित्तीय बाजारों को आश्वस्त
करने में नाकाम रही है. उल्टे संकट फैलता और गहराता जा रहा है और जर्मनी ने हाथ
खड़ा करना शुरू कर दिया है. दूसरी ओर, इस योजना के तहत संकटग्रस्त देशों पर थोपी गई शर्तों खासकर किफायतशारी के नामपर आमलोगों पर बोझ लादने और सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इससे राजनीतिक संकट बढ़ रहा है और संकट से निपटने की रणनीति को लेकर यूरोपीय देशों के बीच मतभेद और विवाद बढ़ने लगे हैं.
दूसरा कारण यह है कि यूरो क्षेत्र के इस संकट ने यूरोपीय देशों के
मौद्रिक एकीकरण और एकल मुद्रा- यूरो के विचार और उसपर आधारित प्रोजेक्ट पर सवाल
उठा दिए हैं. कहा जा रहा है कि बिना राजनीतिक एकीकरण के मौद्रिक एकीकरण का फैसला
गलत था.
यही नहीं, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं के बीच मौजूद विभिन्नताओं और
असमानताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें जिस तरह से एकल मुद्रा प्रोजेक्ट में शामिल
किया गया और शर्त के रूप में उनपर वित्तीय और मौद्रिक अंकुश थोपे गए, उसने
अर्थनीति तय करने के मामले में राष्ट्रीय सरकारों के हाथ बाँध दिए लेकिन वित्तीय
व्यवस्था की देनदारी उनके मत्थे ही रही.
हैरानी की बात यह है कि एकल मुद्रा- यूरो के अस्तित्व में आने के बाद
यूरो क्षेत्र के देशों के लिए राजकोषीय घाटे, सरकारी कर्ज, मुद्रास्फीति दर और
ब्याज दर को लेकर सीमा बाँध दी गई और उसकी निगरानी का जिम्मा यूरोपीय केन्द्रीय
बैंक (ई.सी.बी) को दे दिया गया लेकिन बैंकिंग व्यवस्था को एकीकृत करने यानी
बैंकिंग संघ बनाने को नजरंदाज कर दिया गया. इस तरह बैंकों की देनदारियों की कोई संघीय गारंटी या बीमा नहीं होने के कारण वित्तीय संकट में फंसे देशों के बैंकों से पूंजी के सुरक्षित ठिकानों के पलायन के बाद डूबते बैंकों को संभालने का जिम्मा राष्ट्रीय सरकारों पर आ पड़ा है. इससे संकट और गहरा गया है.
साफ़ है कि यूरोप के आर्थिक-वित्तीय एकीकरण का नव उदारवादी प्रोजेक्ट
संकट में है. यह सिर्फ यूनान या स्पेन या पुर्तगाल जैसे देशों का संकट नहीं हैं
बल्कि यह पूरे यूरोपीय संघ और वित्तीय पूंजीवाद का संकट है. वित्तीय पूंजीवाद के
हितों को आगे बढ़ाने के लिए जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को थोपा गया और आवारा
पूंजी के असीमित मुनाफे की भूख और मनमानियों को प्रोत्साहित किया गया, उसके कारण
इस संकट को देर-सवेर आना ही था.
सच पूछिए तो २००७-०८ के अमेरिकी सब-प्राइम संकट ने
सिर्फ एक ट्रिगर का काम किया और यूरो क्षेत्र के आंतरिक अंतर्विरोधों और कमजोरियों
को उघाड़कर सामने रख दिया. इस अर्थ में यूरो क्षेत्र का आर्थिक-वित्तीय संकट
अमेरिकी आर्थिक-वित्तीय संकट का ही विस्तार है जिसकी जड़ें नव उदारवादी आर्थिक
सैद्धांतिकी में हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के संरक्षण
में आवारा पूंजी ने जिस तरह से सस्ती और आसान वित्तीय पूंजी के जरिये दुनिया भर
में और खासकर २००२-२००८ के बीच अमेरिका और यूरोप में रीयल इस्टेट बुलबुले को पैदा
किया, उसे एक न एक दिन फूटना था. लेकिन जब यह बुलबुला फूटा तो वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने की आड़ में डूबते हुए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को सार्वजनिक धन से उबारा गया और इस तरह निजी बैंकों/वित्तीय संस्थाओं की मनमानी, आपराधिक धोखाधड़ी और मिलीभगत को अनदेखा करते हुए उनके नुकसान का समाजीकरण किया गया. इसके कारण इन देशों में सार्वजनिक ऋण में भारी वृद्धि हुई और जिसकी भरपाई के लिए अब आमलोगों पर बोझ लादा जा रहा है.
लेकिन मुश्किल यह है कि चाहे यूरोपीय राजनीतिक नेतृत्व हो या अमेरिकी
नेतृत्व या फिर जी-२० देशों का राजनीतिक नेतृत्व, कोई इस सच्चाई को स्वीकार करने
को तैयार नहीं है. उल्टे इसपर पर्दा डालने की कोशिश हो रही है.
नतीजा यह हो रहा है
कि इस संकट के लिए एक ओर जहाँ खुद संकटग्रस्त देशों को उनकी आंतरिक आर्थिक
कमजोरियों और गडबडियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वहीँ दूसरी ओर, समाधान
के नामपर उन्हीं नीतियों की कड़वी घूँट उनके गले उतारने की कोशिश हो रही है.
आश्चर्य नहीं कि इससे संकट और गहराता और फैलता जा रहा है.
असल में, यूरो क्षेत्र के नीति नियंता देशों खासकर जर्मनी और अभिजात
शासक वर्ग में यूनान जैसे संकटग्रस्त देशों को सजा देने का भाव अधिक है. गोया इस
संकट के लिए वे अकेले जिम्मेदार हों. यह सच है कि यूनान और बहुत हद तक स्पेन के
मौजूदा आर्थिक-वित्तीय संकट के लिए मूलतः इन देशों का भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और
उसका लुटेरे कारपोरेट क्षेत्र/वित्तीय संस्थाओं के साथ गठजोड़ जिम्मेदार है. लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि इन देशों का भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को जोरशोर से आगे बढ़ा रहा था जिसमें सार्वजनिक हितों की कीमत पर निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया गया, सार्वजनिक कंपनियों-उपक्रमों का बेलगाम निजीकरण किया गया और उन्हें मनमाना मुनाफा बनाने की इजाजत दी गई.
सबसे अधिक हैरानी और अफसोस की बात यह है कि यूनान, पुर्तगाल और स्पेन
आदि देशों में इन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को सबसे अधिक जोरशोर से सोशलिस्ट
पार्टियों के नेतृत्व में बढ़ाया गया. इन देशों में पिछले तीन दशकों में सबसे अधिक
समय तक सोशलिस्ट पार्टियों ने ही राज किया है लेकिन वे कहने को ही सोशलिस्ट
पार्टियां थीं.
आर्थिक और कुछ हद तक सामाजिक नीतियों के मामले में उनके और
अनुदारवादी-दक्षिणपंथी पार्टियों के बीच का फर्क खत्म हो गया था. यही नहीं, इन
पार्टियों के शासनकाल में याराना (क्रोनी) पूंजीवाद, भ्रष्टाचार और पसंदीदा कार्पोरेट्स को
छूट/रियायतें आदि अपने चरम पर था.
इस राजनीतिक नेतृत्व के दिवालिएपन का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता
है कि यूनान को यूरो क्षेत्र और एकल मुद्रा का हिस्सा बनाने की इतनी जल्दी थी कि
उसके लिए जरूरी आर्थिक-वित्तीय शर्तों को पूरा करने के लिए राजकोषीय घाटे और
सरकारी कर्ज आदि के फर्जी आंकड़े तैयार किये गए. इस फर्जीवाड़े में यूनान की मदद वाल स्ट्रीट के बड़े अमेरिकी निवेश बैंकों जैसे गोल्डमैन साक्स आदि ने की और बदले में मोती कमाई की. इसके जरिये यूनान ने अपने राजकोषीय घाटे को कम करके दिखाया. लेकिन यह भी सच है कि यूरो क्षेत्र के विस्तार के लिए बेचैन यूरोपीय संघ के अधिकारियों और नेताओं ने भी जानबूझकर इसे अनदेखा किया.
जाहिर है कि इससे यूनान के अधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व का हौसला
बढ़ा और एक के बाद दूसरी सरकारों ने राजकोषीय घाटे और सार्वजनिक कर्ज को कम दिखाने
के लिए आंकड़ों में हेरफेर किया. लेकिन जब तक यूरो क्षेत्र और यूनान में आर्थिक बूम
का माहौल था, इसे अनदेखा किया गया लेकिन जब २००७-०८ में अमेरिकी बुलबुला फूटा और
उसके साथ आए आर्थिक संकट के संक्रमण ने यूरोप को चपेट में लेना शुरू किया तो
यूनानी अर्थव्यवस्था की कमजोरियां उजागर होने लगीं.
पता चला कि २००९ की शुरुआत में
राजकोषीय घाटे का अनुमान जी.डी.पी का ३.७ फीसदी था जो सितम्बर महीने में संशोधित
करके पहले जी.डी.पी का ६ फीसदी और बाद में सीधे १२.७ फीसदी तक पहुँच गया.
कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. मई’२०१० में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी का
१३.७ फीसदी और यूनान का कुल सार्वजनिक कर्ज जी.डी.पी का १२० फीसदी रहने का संशोधित
अनुमान पेश किया गया. लेकिन नवंबर में यूरो क्षेत्र के आधिकारिक आडिट के बाद
यूरोस्टैट ने इसे और संशोधित कर दिया जिसके मुताबिक वर्ष २००९ में यूनान का
राजकोषीय घाटा बढ़कर जी.डी.पी का १५.४ फीसदी और सार्वजनिक कर्ज जी.डी.पी का १२६.८
फीसदी पहुँच गया. इस फर्जीवाड़े के उजागर होने के बाद से यूरो क्षेत्र के प्रभावशाली देशों और मुद्रा कोष-वाल स्ट्रीट के प्रतिनिधियों की ओर से यूनानी राजनेताओं और अधिकारियों की लानत-मलामत शुरू हो गई, गोया इस सबके लिए वे अकेले जिम्मेदार हों. यही नहीं, अत्यधिक राजकोषीय घाटे और सरकारी कर्ज का सारा ठीकरा यूनानी जनता पर फोड़ा जाने लगा कि वे काम नहीं करते लेकिन उनकी तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, उनके सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर व्यय बहुत अधिक है आदि-आदि.
जाहिर है कि यह सब यूनान को दिए बचाव पैकेज के बदले में उसपर थोपे गए
किफायतशारी उपायों को जायज ठहराने के लिए गढ़ी गई कहानियां थीं. सच यह है कि यूनान
में यह फर्जीवाडा एक दिन या साल में नहीं हुआ था और न ही यूरो क्षेत्र के
नेताओं/अधिकारियों और बड़ी पूंजी की जानकारी के बिना हुआ था.
यह सही है कि यूनानी
राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही निहायत ही भ्रष्ट और याराना पूंजीवाद को आगे
बढ़ानेवाली रही है लेकिन यूनान में सालों से मची इस लूट में सभी शामिल थे. यूरो
क्षेत्र का राजनीतिक नेतृत्व यूनान के आर्थिक-वित्तीय संकट की जिम्मेदारी से बच
नहीं सकता है और इसके लिए यूनानी जनता कहीं से जिम्मेदार नहीं है. अलबत्ता वह इस
संकट की भुक्तभोगी और पीड़ित है.
दूसरी बात यह है कि अगर मौजूदा संकट के लिए सिर्फ यूनान जिम्मेदार
होता तो यह आर्थिक संकट सिर्फ यूनान तक सीमित रहता. लेकिन तथ्य यह है कि इसकी चपेट
में यूनान के साथ-साथ पुर्तगाल, स्पेन, साइप्रस, आयरलैंड आ चुके हैं और इटली,
इंग्लैण्ड और फ़्रांस का नंबर आनेवाला है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था पहले से ही
मुश्किलों में है. यही नहीं, यूरो क्षेत्र के इस आर्थिक संकट के संक्रमण का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी असर दिखने लगा है. साफ़ है कि यह आर्थिक संकट कहीं ज्यादा व्यापक, गहरा और व्यवस्थागत है. वास्तव में, यह संकट नव उदारवादी पूंजीवाद का है जो मुनाफे के अपने असीमित लोभ-लालच और मनमानियों की अंधी सुरंग के आखिरी छोर पर पहुँच गया है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि यूनान और यूरो क्षेत्र के संकट ने नव
उदारवादी पूंजीवाद के यूरो प्रोजेक्ट के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. सवाल यह
है कि घाटे का समाजीकरण और मुनाफे का निजीकरण की व्यवस्था और कितने दिन
चलेगी?
यह भी कि लोगों की कीमत पर मुनाफे की अर्थनीति को लोग कब तक बर्दाश्त
करेंगे? मतलब यह कि आनेवाले दिनों में एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी की बहस न सिर्फ
प्रासंगिक बनी रहेगी बल्कि तेज होगी और उसी से यूरो और वैश्विक अर्थव्यवस्था का
भविष्य तय होगा.
पश्च नोट: भारत के लिए भी यह बहस बहुत प्रासंगिक है जहाँ आर्थिक--सामाजिक असमानता बहुत तेजी से बढती जा रही है. यही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था भी याराना पूंजीवाद के चंगुल में फंस गई है और लोगों की कीमत पर सार्वजानिक संसाधनों की लूट अपने चरम पर है.
('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जुलाई को प्रकाशित आलेख)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें