उर्फ़ देर से दुर्घटना भली, भले फूटे दर्शकों की समझ का सिर
चैनलों की रिपोर्टिंग की हालत यह थी कि शुरूआती कई दिनों तक तो अंसारी के नाम को लेकर उलझन बनी रही. जितने चैनल, जितने अखबार- उतने मुंह और उतनी ही कहानियां. नाम का यह भ्रम इस हद तक पहुँच गया कि गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि गिरफ्तार जंदाल, अबू हमजा नहीं है.
इसके बावजूद यह उलझन आज भी बनी हुई है कि वह जिंदाल है, जुंदल है या जंदाल है. जैसे नाम का जंजाल काफी नहीं था, समाचार मीडिया खासकर चैनलों में जंदाल के कारनामों को लेकर एक से एक सनसनीखेज ‘खबरें’ दिखाई गईं. इस मामले में चैनलों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ने की ऐसी होड़ मची हुई थी कि अति-उत्साह और उत्तेजना में वे तथ्यों से कम और कल्पना से अधिक काम ले रहे थे.
अपनी कल्पनाशीलता में वे ऐसी-ऐसी रिपोर्टें दिखा रहे थे कि आज की रिपोर्ट कल की रिपोर्ट को काट रही थी, सुबह का ‘खुलासा’ शाम के ‘खुलासे’ पर उल्टा पड़ रहा था और एक चैनल की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दूसरे की एक्सक्लूसिव को सर के बल खड़ी कर दे रही थी.
पता नहीं चैनलों में अपने पिछले दिनों की रिपोर्टों को देखने का चलन है या नहीं लेकिन उनपर जिस तरह हर दिन सुबह-शाम जंदाल से पूछताछ के बाद सूत्रों के हवाले से ‘खुलासे’ प्रसारित हो रहे थे, उसमें कोई तारतम्यता नहीं दिख रही थी.
ऐसा लगता है कि चैनल या तो बहुत जल्दी में रहते हैं और कल क्या दिखाया था, इसका ख्याल करने की फुर्सत नहीं होती है या फिर वे ‘दिखाओ और भूल जाओ’ यानी स्मृति-भ्रंश की बीमारी के शिकार हो गए हैं.
लेकिन क्या इस स्मृति-भ्रंश की बड़ी वजह यह नहीं है कि ऐसे मामलों में चैनल (और अखबार भी) ‘सूत्रों’ पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं? यह भी कि वे इन ख़ुफ़िया-पुलिस सूत्रों से सवाल नहीं पूछते हैं और उनसे मिली हर कच्ची-पक्की जानकारी को बिना किसी छानबीन और जांच-पड़ताल के और अक्सर अपनी ओर से भी कुछ नमक-मिर्च लगाकर चैनलों पर उगल देते हैं?
यही नहीं, अधिकांश चैनलों की रिपोर्टिंग में तथ्यों/भाषा के स्तर पर संयम, संतुलन और वस्तुनिष्ठता को भी किनारे रख दिया जाता है. इस मामले में इंडिया टी.वी और बाकी चैनलों के बीच का फर्क खत्म होते देर नहीं लगती है.
लेकिन क्या करें, जब अति-उत्साह और उत्तेजना से भरे चैनलों का नीति वाक्य ‘देर से, दुर्घटना भली’ बन गया है. यह और बात है कि इस दुर्घटना में हम दर्शकों की समझ और जानकारी का सिर फूटता है. लेकिन इससे चैनलों को क्या फर्क पड़ता है?
('तहलका' के 31 जुलाई के अंक में प्रकाशित 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ में प्रकाशित टिप्पणी)
सनसनी, अति-उत्साह और उत्तेजना न्यूज चैनलों की स्थाई पहचान बन चुकी
है. हालाँकि बीते कई सालों से चैनलों के कर्ता-धर्ता यह दावा करते रहे हैं कि ये
चैनलों के बालपन की समस्याएं हैं जो उम्र बढ़ने के साथ खत्म होती जाएंगी और चैनलों
में प्रौढता आएगी.
लेकिन उम्र बढ़ने के बावजूद चैनलों का लड़कपन खत्म होता नहीं दिख
रहा है. उल्टे चैनलों में अति-उत्साह, उत्तेजना और सनसनी के लगातार बढते जोर को
देखकर कई बार आशंका होती है कि कहीं उन्हें हाई ब्लड प्रेशर की स्थाई शिकायत तो
नहीं हो गई है?
जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदाल उर्फ अबू जुंदल उर्फ अबू जंदाल उर्फ
अबू जंदल उर्फ अबू हमजा के मामले को ही लीजिए. कथित तौर पर लश्कर-ए-तैय्यबा से
जुड़े और मुंबई पर २६/११ के आतंकवादी हमले के निर्देशकों में से एक जबीउद्दीन
अंसारी की सउदी अरब की मदद से २१ जून को दिल्ली में गिरफ्तारी के बाद से भारतीय
मीडिया में जिस तरह की अति-उत्साह और उत्तेजना से भरी और सनसनीखेज रिपोर्टिंग हुई
है, उससे बाकी दर्शकों की तो नहीं जानता लेकिन अपनी जानकारी और समझ कम बढ़ी और भ्रम
और हैरानी ज्यादा बढ़ गई. चैनलों की रिपोर्टिंग की हालत यह थी कि शुरूआती कई दिनों तक तो अंसारी के नाम को लेकर उलझन बनी रही. जितने चैनल, जितने अखबार- उतने मुंह और उतनी ही कहानियां. नाम का यह भ्रम इस हद तक पहुँच गया कि गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि गिरफ्तार जंदाल, अबू हमजा नहीं है.
इसके बावजूद यह उलझन आज भी बनी हुई है कि वह जिंदाल है, जुंदल है या जंदाल है. जैसे नाम का जंजाल काफी नहीं था, समाचार मीडिया खासकर चैनलों में जंदाल के कारनामों को लेकर एक से एक सनसनीखेज ‘खबरें’ दिखाई गईं. इस मामले में चैनलों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ने की ऐसी होड़ मची हुई थी कि अति-उत्साह और उत्तेजना में वे तथ्यों से कम और कल्पना से अधिक काम ले रहे थे.
अपनी कल्पनाशीलता में वे ऐसी-ऐसी रिपोर्टें दिखा रहे थे कि आज की रिपोर्ट कल की रिपोर्ट को काट रही थी, सुबह का ‘खुलासा’ शाम के ‘खुलासे’ पर उल्टा पड़ रहा था और एक चैनल की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दूसरे की एक्सक्लूसिव को सर के बल खड़ी कर दे रही थी.
पता नहीं चैनलों में अपने पिछले दिनों की रिपोर्टों को देखने का चलन है या नहीं लेकिन उनपर जिस तरह हर दिन सुबह-शाम जंदाल से पूछताछ के बाद सूत्रों के हवाले से ‘खुलासे’ प्रसारित हो रहे थे, उसमें कोई तारतम्यता नहीं दिख रही थी.
ऐसा लगता है कि चैनल या तो बहुत जल्दी में रहते हैं और कल क्या दिखाया था, इसका ख्याल करने की फुर्सत नहीं होती है या फिर वे ‘दिखाओ और भूल जाओ’ यानी स्मृति-भ्रंश की बीमारी के शिकार हो गए हैं.
लेकिन क्या इस स्मृति-भ्रंश की बड़ी वजह यह नहीं है कि ऐसे मामलों में चैनल (और अखबार भी) ‘सूत्रों’ पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं? यह भी कि वे इन ख़ुफ़िया-पुलिस सूत्रों से सवाल नहीं पूछते हैं और उनसे मिली हर कच्ची-पक्की जानकारी को बिना किसी छानबीन और जांच-पड़ताल के और अक्सर अपनी ओर से भी कुछ नमक-मिर्च लगाकर चैनलों पर उगल देते हैं?
यही नहीं, अधिकांश चैनलों की रिपोर्टिंग में तथ्यों/भाषा के स्तर पर संयम, संतुलन और वस्तुनिष्ठता को भी किनारे रख दिया जाता है. इस मामले में इंडिया टी.वी और बाकी चैनलों के बीच का फर्क खत्म होते देर नहीं लगती है.
लेकिन क्या करें, जब अति-उत्साह और उत्तेजना से भरे चैनलों का नीति वाक्य ‘देर से, दुर्घटना भली’ बन गया है. यह और बात है कि इस दुर्घटना में हम दर्शकों की समझ और जानकारी का सिर फूटता है. लेकिन इससे चैनलों को क्या फर्क पड़ता है?
('तहलका' के 31 जुलाई के अंक में प्रकाशित 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ में प्रकाशित टिप्पणी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें