क्योंकि 2012, 1991 नहीं है और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की पोल खुल चुकी है
नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पास फिलहाल इसका कोई समाधान नहीं दिख रहा है. इस संकट के इलाज के नामपर और ज्यादा नव उदारवादी दवा देने की कोशिशें न सिर्फ नाकाम हो गईं हैं बल्कि उनके कारण राजनीतिक संकट बढ़ने लगा है.
यही नहीं, यू.पी.ए सरकार के लिए कई महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों को लेने में सबसे ज्यादा मुश्किल इसलिए हो रही है क्योंकि टेलीकाम से लेकर उड्डयन क्षेत्र तक और कोयला से लेकर गैस आवंटन में कारपोरेट समूहों के बीच जबरदस्त खींचतान मची हुई है.
वे चाहते हैं कि अब जब वित्त मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के पास है तो सरकार बिना और विलम्ब के आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए. उनकी मांग है कि सरकार एक ओर राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए अपने खर्चों में कटौती करे, डीजल-खाद पर सब्सिडी में कमी करे और दूसरी ओर, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को मंजूरी जैसे रूके हुए फैसलों को हरी झंडी दे.
यही कारण है कि सरकार संकट से निपटने के लिए जो भी फैसले कर रही है, उसका बाजार पर कोई खास असर नहीं हो रहा है. उदाहरण के लिए, रिजर्व बैंक ने अप्रैल में मुद्रास्फीति की ऊँची दरों के बावजूद ब्याज दरों में एकबारगी आधा फीसदी की कटौती की लेकिन इससे निवेश में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई. अलबत्ता, कार्पोरेट्स और कटौती की मांग कर रहे हैं.
यह भी कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को मुंहमांगी रियायतें देने से हो सकता है कि संकट थोड़े समय के लिए टल जाए लेकिन वह खत्म नहीं होगा और कुछ समय बाद फिर उभर आएगा. इसलिए अब समय आ गया है जब इस संकट से निपटने के लिए बाहर के बजाय देश के अंदर और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बजाय सार्वजनिक संसाधनों पर भरोसा करके अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के उपाय किये जाएँ.
यह सही है कि इस संकट से निकलने का रास्ता इतना आसान नहीं है. एक ओर ऊँची मुद्रास्फीति और दूसरी ओर, गिरती वृद्धि दर के बीच फैसला करना आसान नहीं है. लेकिन इतना तय है कि अर्थव्यवस्था निवेश मांग रही है खासकर भौतिक और सामाजिक ढांचागत और कृषि क्षेत्र में. इस निवेश में ही दोनों समस्याओं का हल है.
लेकिन इसके लिए सरकार को फिलहाल, राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़नी पड़ेगी और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी करनी होगी. इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करते-करते देश वहां पहुँच गया है जहाँ से आगे की राह और फिसलन भरी है.
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 29 जून के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित मुख्य लेख का असंपादित रूप)
भारतीय अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों के बीच राष्ट्रपति
चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्री पद से इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने ‘मैं हूँ ना’ की तर्ज पर खुद वित्त मंत्रालय सँभालने का फैसला करके
घबराए बाजार, नाराज कारपोरेट जगत और बेचैन देशी-विदेशी निवेशकों को आश्वस्त करने
की कोशिश की है.
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के जनक और १९९१ में देश को गंभीर
आर्थिक संकट से निकालने वाले वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह बाजार, कारपोरेट
जगत और देशी-विदेशी निवेशकों के लाडले रहे हैं.
इस कारण बाजार, कारपोरेट जगत और देशी-विदेशी निवेशकों को उनसे बहुत
उम्मीदें हैं कि वे पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए साहसिक फैसले
करेंगे और खासकर ठहर गए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएंगे.
लेकिन उनके लिए यह चुनौती आसान नहीं है. एक ओर जहाँ उनपर उम्मीदों और
अपेक्षाओं का भारी बोझ है, वहीं चुनौतियाँ सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि
राजनीतिक-सामाजिक और वैचारिक ज्यादा हैं. सबसे पहली बात यह है कि १९९१ और २०१२ के
बीच गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है. मौजूदा आर्थिक-वित्तीय संकट १९९१ की तरह
सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है बल्कि यह एक वैश्विक आर्थिक संकट है जो मूलतः नव
उदारवादी पूंजीवाद का संकट है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पास फिलहाल इसका कोई समाधान नहीं दिख रहा है. इस संकट के इलाज के नामपर और ज्यादा नव उदारवादी दवा देने की कोशिशें न सिर्फ नाकाम हो गईं हैं बल्कि उनके कारण राजनीतिक संकट बढ़ने लगा है.
दूसरी ओर, वित्त मंत्री के बतौर मनमोहन सिंह के सामने आज राजनीतिक
चुनौतियाँ ज्यादा हैं. उसकी वजह यह है कि मनमोहनी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को
लेकर देश में भी सवाल उठने लगे हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों को लेकर खुद
यू.पी.ए और कांग्रेस के अंदर मतभेद साफ़ तौर पर दिख रहे हैं और नव उदारवादी आर्थिक
नीतियों को लेकर बनी राजनीतिक सर्वसम्मति में दरार उभर कर सामने आ गई है.
इसकी एक
बड़ी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की साख और चमक एक ओर भ्रष्टाचार और
सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के बड़े-बड़े मामलों के उजागर होने के कारण फीकी
पड़ने लगी है और दूसरी ओर, इन नीतियों के कारण ‘जल-जंगल-जमीन’ गवांने और बदले में
कुछ न पानेवाले किसानों, श्रमिकों और आदिवासियों ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया
है.
यही कारण है कि यू.पी.ए-दो सरकार के लिए आर्थिक सुधारों खासकर
विवादास्पद खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति, पेंशन, बीमा और उड्डयन
क्षेत्र में मौजूदा विदेशी पूंजी निवेश की सीमा में बढ़ोत्तरी और श्रम सुधारों को
आगे बढ़ाने में कठिनाई हो रही है और दूसरी ओर, नई औद्योगिक इकाइयों या ढांचागत
परियोजनाओं के लिए किसानों से जमीन अधिग्रहण या आदिवासी इलाकों में खनिजों के दोहन
में कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार के लिए कई महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों को लेने में सबसे ज्यादा मुश्किल इसलिए हो रही है क्योंकि टेलीकाम से लेकर उड्डयन क्षेत्र तक और कोयला से लेकर गैस आवंटन में कारपोरेट समूहों के बीच जबरदस्त खींचतान मची हुई है.
इस कारपोरेट युद्ध में फंसी यू.पी.ए सरकार सरकार नीतिगत रूप से पंगु
हो गई है. इसके लिए यह सरकार खुद जिम्मेदार है क्योंकि उसने आर्थिक वृद्धि के
नामपर जिस तरह से क्रोनी पूंजीवाद को फलने-फूलने का मौका दिया, जिसके कारण भ्रष्टाचार
और कारपोरेट लूट के बड़े-बड़े मामलों के खुलासों के बीच सरकार और खुद प्रधानमंत्री
ने राजनीतिक साख या पूंजी गँवा दी है.
कमजोर राजनीतिक साख के साथ कड़े फैसले ले
पाना आसान नहीं होता. ऐसे में, प्रधानमंत्री के लिए सबसे बड़ी चुनौती न सिर्फ सरकार
के इकबाल को बहाल करना और राजनीतिक पूंजी जुटाना है बल्कि आर्थिक नीतियों और
फैसलों को कारपोरेट दबाव और लाबीइंग से मुक्त कराना है.
जाहिर है कि यह आसान चुनौती नहीं है. यह किसी से छुपा नहीं है कि
आर्थिक सुधारों के कथित तौर पर रूक जाने से देशी-विदेशी कारपोरेट समूह सरकार से
सख्त नाराज हैं. अजीम प्रेमजी से लेकर एन.आर नारायणमूर्ति तक कई बड़े कार्पोरेट्स
ने खुलेआम सरकार पर नीतिगत अनिर्णय का शिकार होने का आरोप लगाते हुए उसकी तीखी
आलोचना की है. वे चाहते हैं कि अब जब वित्त मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के पास है तो सरकार बिना और विलम्ब के आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए. उनकी मांग है कि सरकार एक ओर राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए अपने खर्चों में कटौती करे, डीजल-खाद पर सब्सिडी में कमी करे और दूसरी ओर, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को मंजूरी जैसे रूके हुए फैसलों को हरी झंडी दे.
यही नहीं, वे यह भी चाहते हैं कि बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह
विदेशी पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स को आश्वस्त करें कि वह वोडाफोन मामले में पीछे से
टैक्स वसूलने, टैक्स देने से बचने पर अंकुश लगानेवाले गार नियमों और २ जी मामले
में १२४ लाइसेंसों को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उनके हितों का
ध्यान रखेगी.
साफ़ है कि कारपोरेट जगत खासकर बड़ी विदेशी पूंजी मौजूदा आर्थिक संकट
को एक मौके की तरह इस्तेमाल कर रही है. वह सरकार से ज्यादा से ज्यादा रियायतें लेने
की कोशिश कर रही है. सरकार दबाव में है और वह न सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनीतिक
कारणों से भी देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को खुश करने के लिए विवादास्पद आर्थिक
सुधारों को आगे बढ़ाने की जल्दी में दिख रही है.
लेकिन इन फैसलों से संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को तात्कालिक तौर पर
कोई मदद नहीं मिलने जा रही है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट की जड़ में
आर्थिक सुधारों में रुकावट नहीं बल्कि वही नव उदारवादी आर्थिक सुधार हैं जो
वैश्विक आर्थिक संकट के साथ-साथ घरेलू संकट के लिए भी जिम्मेदार हैं. यही कारण है कि सरकार संकट से निपटने के लिए जो भी फैसले कर रही है, उसका बाजार पर कोई खास असर नहीं हो रहा है. उदाहरण के लिए, रिजर्व बैंक ने अप्रैल में मुद्रास्फीति की ऊँची दरों के बावजूद ब्याज दरों में एकबारगी आधा फीसदी की कटौती की लेकिन इससे निवेश में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई. अलबत्ता, कार्पोरेट्स और कटौती की मांग कर रहे हैं.
इसी तरह, रिजर्व बैंक ने इस सप्ताह कार्पोरेट्स और विदेशी पूंजी के
लिए निवेश और कर्जों में कई ढील देने की घोषणा की है. इस फैसला आवारा विदेशी पूंजी
को प्रोत्साहित करनेवाला है. इससे अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी पर निर्भरता और बढ़
जाएगी. इसके बावजूद बाजार में निराशा का माहौल बना हुआ है.
बाजार सरकार और अब नए
वित्त मंत्री के बतौर प्रधानमंत्री से और बड़े फैसलों की उम्मीद कर रहा है. ऐसे
में, सवाल यह है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को मंजूरी या वोडाफोन मामले
में पीछे से टैक्स लगाने के फैसले को वापस लेने से क्या मौजूदा आर्थिक संकट टल
जाएगा?
वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोप के मौजूदा हाल को देखते हुए इस बात
की उम्मीद बहुत कम दिखाई देती है. सच यह है कि इस संकट से निपटने के लिए विदेशी
पूंजी या देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पर भरोसा करने से स्थिति नहीं संभलनेवाली है. यह भी कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को मुंहमांगी रियायतें देने से हो सकता है कि संकट थोड़े समय के लिए टल जाए लेकिन वह खत्म नहीं होगा और कुछ समय बाद फिर उभर आएगा. इसलिए अब समय आ गया है जब इस संकट से निपटने के लिए बाहर के बजाय देश के अंदर और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बजाय सार्वजनिक संसाधनों पर भरोसा करके अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के उपाय किये जाएँ.
यह सही है कि इस संकट से निकलने का रास्ता इतना आसान नहीं है. एक ओर ऊँची मुद्रास्फीति और दूसरी ओर, गिरती वृद्धि दर के बीच फैसला करना आसान नहीं है. लेकिन इतना तय है कि अर्थव्यवस्था निवेश मांग रही है खासकर भौतिक और सामाजिक ढांचागत और कृषि क्षेत्र में. इस निवेश में ही दोनों समस्याओं का हल है.
लेकिन इसके लिए सरकार को फिलहाल, राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़नी पड़ेगी और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी करनी होगी. इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करते-करते देश वहां पहुँच गया है जहाँ से आगे की राह और फिसलन भरी है.
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 29 जून के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित मुख्य लेख का असंपादित रूप)
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