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शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

शनिवार, सितंबर 28, 2013

सांप्रदायिकता की समस्या और उसका इलाज


० भगत सिंह 

(आज शहीद भगत सिंह का जन्मदिन है. उनकी स्मृति को सलाम करते हुए साम्प्रदायिकता की समस्या पर उनके विचार पेश हैं.
 
यह लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है। आप भी पढ़िए और सोचिए कि क्या सांप्रदायिकता का इससे ज़्यादा तार्किक और मज़बूत उत्तर और कुछ हो सकता है?)

"भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।

यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।

दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता
का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।

यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।

यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा
मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।

यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।"

शनिवार, सितंबर 21, 2013

उच्च शिक्षा की दुखान्तिका

उच्च शिक्षा में हालात इमरजेंसी के हैं और करोड़ों युवाओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है 

ब्रितानी कंपनी- क्वैक्रेल्ली साइमंड्स (क्यू.एस) की ओर से जारी दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान अपनी जगह नहीं बना पाया है. स्वाभाविक तौर पर इस रिपोर्ट के आने के बाद से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों खासकर विश्वविद्यालयों की दुर्गति और उनके खराब अकादमिक स्तर को लेकर एक बार फिर स्यापा शुरू हो गया है.

मजे की बात यह है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता इस रिपोर्ट पर ऐसी मासूमियत के साथ हैरानी जाहिर कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात एक कर दिया हो और उन्हें उम्मीद थी कि भारतीय विश्वविद्यालय इस वैश्विक सूची में जरूर होंगे.
यहाँ तक कि कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले एक साल में कई उच्च शिक्षा संस्थानों के दीक्षांत और अन्य समारोहों में भारतीय विश्वविद्यालयों के दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में जगह न बना पाने पर चिंता जाहिर की है. खुद प्रधानमंत्री भी इसपर कई बार चिंता जाहिर कर चुके हैं.

लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और ज्यादातर संस्थानों/विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा जमाए बैठी दमघोंटू नौकरशाही, अकादमिक दिशाहीनता और शैक्षिक अन्धकार से वाकिफ लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली रिपोर्ट नहीं है कि दुनिया के बेहतरीन २०० विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय शिक्षा संस्थान नहीं है या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ८०० उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में में भारत से केवल ११ शिक्षा संस्थान शामिल हैं.

हालाँकि इस वैश्विक रैंकिंग में कई प्रविधिमूलक समस्याएं हैं, इसके विकसित पश्चिमी देशों की शैक्षिक व्यवस्था और उसके मानदंडों के पक्ष में पूर्वाग्रह भी स्पष्ट हैं और बुनियादी तौर पर असमान और भिन्न परिस्थितियों में विकसित हुए और काम कर रहे शैक्षिक संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग बेमानी है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों में कोई समस्या नहीं है या उसका प्रदर्शन संतोषजनक है.
इसके उलट सच्चाई यह है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान अकादमिक तौर पर जबरदस्त गतिरुद्धता के शिकार हैं, शिक्षण और शोध की दशा और दिशा बद से बदतर होती जा रही है और वे मूलतः दाखिले-परीक्षा और डिग्रियां बाँटने तक सीमित रह गए हैं.
अफसोस की बात यह है कि इनमें से अधिकांश विश्वविद्यालयों/संस्थानों की डिग्रियां भी कागज के
टुकड़ों से ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास स्नातक ‘रोजगार के लायक नहीं’ (अनइम्प्लायबल) हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई तकनीकी कौशल है, न खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की भाषा दक्षता है और न ही बुनियादी सामान्य ज्ञान है.

हैरानी की बात नहीं है कि कुछ चुनिंदा अभिजात्य विश्वविद्यालयों और कालेजों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा संस्थान आज शिक्षित बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री में बदल गए हैं क्योंकि वहां पठन-पाठन के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है.

यह स्थिति एक बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी में बदलती जा रही है. एक ओर उद्योग और सेवा क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी का रोना रोया जा रहा है और दूसरी ओर, उच्च शिक्षा संस्थानों से डिग्री लेकर निकले करोड़ों युवा हैं जो एक गरिमापूर्ण रोजगार के लिए भटक रहे हैं. इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था, उसकी प्रतियोगी क्षमता और उसमें नवोन्मेष (इन्नोवेशन) पर पड़ रहा है.
त्रासदी यह है कि भारत की आबादी में दो-तिहाई युवाओं की मौजूदगी के कारण देश को जिस ‘जनसांख्यकीय लाभांश’ का फायदा उठाते हुए तेजी से तरक्की करना चाहिए था, वह उच्च शिक्षा की मौजूदा दुर्गति के कारण देश के लिए ‘जनसांख्यकीय दु:स्वपन’ में बदलता जा रहा है.
सच पूछिए तो यह उन युवाओं के साथ भी अन्याय है जिन्हें उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों की दुर्दशा की असली कीमत चुकानी पड़ रही है. यह तब है जब देश में विश्वविद्यालय/कालेज जाने की उम्रवाले युवाओं में से सिर्फ १८.१ फीसदी कालेज/विश्वविद्यालय का मुंह देख पाते हैं. इसके उलट विकसित देशों में यह ५० फीसदी से ऊपर है जबकि भारत जैसे कई विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में उच्च शिक्षा में कुल पंजीकरण अनुपात (जी.ई.आर) ३० फीसदी से ऊपर है.

योजना आयोग ने १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) में उच्च शिक्षा में जी.ई.आर को २५.१ फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. अगर यह लक्ष्य हासिल भी हो गया तो भी २०१७ में ७५ फीसदी युवा कालेज/महाविद्यालय से बाहर रहेंगे और भारत उच्च शिक्षा में प्रवेश के मामले में अपने समकक्ष देशों से पीछे रहेगा.

लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुँच से भी बड़ी समस्या उसकी गुणवत्ता का है जिसकी ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का बिलकुल ध्यान नहीं है. असल में, उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति सिर्फ चिंता की बात नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय इमरजेंसी की स्थिति है. यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई है. पिछले दशकों में नीति नियंताओं ने उच्च शिक्षा की जिस तरह से अनदेखी की, उसके साथ खिलवाड़ किया और उच्च शिक्षा संस्थानों को धीमी मौत मरने के लिए छोड़ दिया, उसका नतीजा सबके सामने है.
यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह उच्च शिक्षा में प्रवेश और गुणवत्ता की चुनौती से निपटने के लिए पिछले डेढ़ दशकों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया है, उसके कारण स्थिति बद से बदतर हुई है.
यही नहीं, उच्च शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण का नतीजा न सिर्फ उच्च शिक्षा के महंगे होने और गरीबों की पहुँच से बाहर होने के रूप में सामने आया है बल्कि उसकी गुणवत्ता के साथ भी समझौता किया जा रहा है. उच्च शिक्षा के निजीकरण के नाम जिस तरह पर से दुकानें खुली हैं और लूट सी मची हुई है, वह अब किसी से छुपा नहीं है.

उसपर तुर्रा यह कि अब यू.पी.ए सरकार उच्च शिक्षा की इस महा-दुर्गति का हल विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने का न्यौता देने में खोज रही है. सवाल यह है कि दुनिया के किस देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरी है? यह भी कि हार्वर्ड या एमआईटी या स्टैनफोर्ड या आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ने दुनिया के किन देशों में अपनी शाखाएं खोली हैं और क्या वह शाखा भी विश्वस्तरीय रैंकिंग में है?

असल में, उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति नियंता उसकी बुनियादी और संरचनात्मक समस्याओं और मर्ज से मुंह मोड़कर केवल लक्षणों का इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके कारण मर्ज बढ़ता और गंभीर होता जा रहा है.
सच यह है कि उच्च शिक्षा को स्कूल और माध्यमिक शिक्षा से काटकर नहीं देखा जा सकता है. आखिर छात्र वहीँ से कालेज/विश्वविद्यालय पहुँचते हैं. लेकिन शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद स्कूली और माध्यमिक शिक्षा खासकर सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं है. लेकिन स्कूली शिक्षा की यह दुर्दशा मूलतः दोहरी शिक्षा व्यवस्था का नतीजा है जिसके तहत एक ओर अभिजात्य निजी पब्लिक स्कूल हैं और दूसरी ओर अभावग्रस्त सरकारी स्कूल हैं.
चूँकि इस देश के शासक वर्गों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं जाते, इसलिए उन्हें उनके हाल पर
छोड़ दिया गया है. इसी तरह तमाम वायदों और दावों के बावजूद देश में शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ३-४ फीसदी तक पहुँच पाया है और इसमें भी उच्च शिक्षा के लिए कुल बजट जी.डी.पी के एक फीसदी से भी कम है जबकि ६० के दशक में कोठारी आयोग ने शिक्षा के लिए जी.डी.पी का न्यूनतम ६ फीसदी बजट मुहैया कराने की सिफारिश की थी.

सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय/संस्थानों की सूची में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान अपनी जगह कैसे बना पाएंगे, अगर उन्हें उनके समक्ष वैश्विक संस्थानों की तरह संसाधन, आज़ादी और स्वायतत्ता नहीं दी जायेगी?

ध्यान रहे कि वैश्विक रैंकिंग में पहुँचने के लिए जो भारांक हैं, उनके मुताबिक किसी शैक्षिक संस्थान की अकादमिक प्रतिष्ठा (४० फीसदी), रोजगार प्रदाताओं के बीच साख (१० फीसदी), छात्र-अध्यापक अनुपात (२० फीसदी), प्रति संकाय सदस्य शोध/साइटेशन (२० फीसदी), अंतर्राष्ट्रीय छात्र (५ फीसदी) और अंतर्राष्ट्रीय संकाय सदस्य (५ फीसदी) के आधार पर उसकी रैंकिंग तय होती है.
लेकिन अधिकांश भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्र-अध्यापक अनुपात अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी बदतर स्थिति में है. हालत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के तीस फीसदी से अधिक पद खाली हैं. यहाँ तक कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और आई.आई.टी जैसे संस्थानों में ३० से ४० फीसदी पद खाली हैं.
इसी तरह ज्यादातर विश्वविद्यालयों/संस्थानों की प्राथमिकता मौलिक शोध नहीं बल्कि अध्यापन (टीचिंग) है. यह भी शैक्षिक नीतियों का नतीजा है क्योंकि सरकार ने अध्यापन और शोध को एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह देखने के बजाय अधिकांश कालेजों/विश्वविद्यालयों को अध्यापन संस्थान और उनके समानांतर मौलिक शोध के लिए अभिजात्य संस्थानों को खड़ा किया जहाँ अध्यापन नहीं होता है.

अध्यापन और शोध को कृत्रिम तरीके से एक-दूसरे से काट देने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान न खुदा ही मिला और न विसाल-ए-सनम की तर्ज पर न अध्यापन में बेहतर कर पा रहे हैं और न ही शोध में कोई कमाल दिखा पा रहे हैं. जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में अधिकांश शिक्षा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय छात्र या अध्यापक आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं. 

नतीजा सबके सामने हैं. मानिए या नहीं लेकिन उच्च शिक्षा या कहिए कि पूरी शिक्षा जिस दुष्चक्र में फंस गई है, वह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है. इसे अनदेखा करने का मतलब देश के भविष्य के साथ धोखा करना है. इसकी कीमत युवा पीढ़ी के साथ देश को भी चुकानी पड़ेगी. 

(इस लेख का संक्षिप्त और सम्पादित अंश 'राजस्थान पत्रिका' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 सितम्बर'13 के अंक में प्रकाशित)                                            

मंगलवार, जनवरी 08, 2013

इस आन्दोलन ने महिला आन्दोलन को फिर से जिन्दा कर दिया है

यह अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है

दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए प्राणान्तक घावों के बावजूद जीना चाहती थी. देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते थे. लेकिन वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई. यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर यौन हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी.
उसके जाने के बाद भी दिल्ली, पंजाब, बिहार, गुजरात से लेकर बंगाल तक से स्त्रियों पर यौन हिंसा, बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं. अखबारों और चैनलों में अब भी ऐसी ख़बरों की भरमार है. लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है. इस बार अखबारों और न्यूज चैनलों में स्त्रियों पर होनेवाली बर्बर हिंसा की खबरों से ज्यादा जगह और सुर्ख़ियों में उसके विरोध की खबरें हैं.
उस बहादुर लड़की के संघर्ष और शहादत ने देश के लाखों नौजवानों खासकर लड़कियों और आम लोगों में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है. दिल्ली से लेकर देश भर के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में हजारों-लाखों युवा और आम नागरिक ‘हमें न्याय चाहिए’ और ‘हमें चाहिए- आज़ादी’ के नारों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं.
खासकर दिल्ली में जिस बड़ी संख्या में युवा सड़कों पर और उसमें भी खासकर सत्ता के केन्द्र रायसीना पहाड़ी, विजय चौक और इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं और पुलिसिया दमन के बावजूद पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, उसने सत्ता प्रतिष्ठान के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग को एक साथ चौंका और डरा दिया है.

हड़बड़ी और घबड़ाहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने कानून में बदलाव और दिल्ली गैंग रेप की जांच के लिए दो न्यायिक आयोग बनाने से लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किये हैं.
यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष तक रोज बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने से लेकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के वायदे कर रहे हैं. लेकिन लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है.
इंडिया गेट से लेकर विजय चौक तक हजारों की संख्या में पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल तैनात कर सैन्य छावनी बना देने और मेट्रो स्टेशन बंद करने के बावजूद हजारों की संख्या में नौजवान जंतर-मंतर पहुंचकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं. अपना गुस्सा जाहिर करने पहुँच रहे लोगों में छात्र-युवा लड़के और लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन उसमें ४० से ज्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है.
असल में, यह एक इन्द्रधनुषी विरोध प्रदर्शन है जिसमें रैडिकल वामपंथी संगठनों-आइसा, आर.वाई.ए, एपवा और दूसरे वामपंथी संगठन जैसे एस.एफ.आई, एडवा, एन.आई.एफ.डब्ल्यू आदि से लेकर जे.एन.यू छात्रसंघ तक और अस्मिता जैसे सांस्कृतिक संगठन से लेकर और जागोरी जैसे नारीवादी संगठनों तक कई रंगों-विचारों के संगठन हैं तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी से लेकर घोर दक्षिणपंथी ए.बी.वी.पी जैसे संगठन भी हैं.

लेकिन ए.बी.वी.पी जैसे संगठन और बाबा रामदेव जैसे धर्मगुरु को न सिर्फ इस आंदोलन में कोई तवज्जो नहीं मिली है बल्कि लोगों और खासकर युवाओं ने खुद ही अलग-थलग कर दिया है. इसके उलट आइसा-एपवा जैसे रैडिकल-वाम संगठन वहां नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और उनके तर्कों और विचारों को सुना जा रहा है.

लेकिन सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा संख्या में आम नौजवान खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं जो खुद वहां पहुँच रही हैं. इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है. वे सभी गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि ‘बस, अब बहुत हो चुका.’ सबके अपने पीड़ादायक अनुभव हैं जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का हौसला और साहस देते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन सभी लड़कियों-महिलाओं और उनके पुरुष साथियों और परिवारजनों ने चाहे वह घर की बंद चहारदीवारी हो या घर के बाहर कालोनी-मुहल्ले की सड़क या बस स्टैंड या खुद बस-मेट्रो या बाजार/शापिंग माल्स या आफिस या स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी या कोई और सार्वजनिक स्थान- लगभग हर दिन, कम या ज्यादा अश्लील फब्तियां, यौन उत्पीडन और अत्याचार अंदर जमा होते गुस्से के बावजूद डरकर और चुपचाप झेला है.
लेकिन दिल्ली गैंग रेप की बर्बरता ने उस डर को तोड़ दिया. उन हजारों-लाखों युवाओं खासकर लड़कियों को यह समझ में आ चुका है कि लड़ने और घरों से बाहर निकलकर अपनी आवाज़ बुलंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
उनका वर्षों से जमा गुस्सा फूट पड़ा है. उस गुस्से में शुरुआत में बदले की भावना भी दिखी जो न्याय की मांग करते हुए बलात्कारियों को फांसी की सजा और उनका रासायनिक बधियाकरण करने और कड़े से कड़े कानूनों की मांग कर रही थी.

लेकिन धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है जो न्याय का मतलब बदला नहीं समझती है, जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती हैं, जो कड़े कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस, कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले रही हैं जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नामपर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. वे ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

आश्चर्य नहीं कि जंतर-मंतर पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा युवा खासकर लड़कियां और महिलाएं उस गोलबंदी के साथ बैठने और नारे लगाने और गीत गाने में जुट रही हैं जिसकी अगुवाई वे प्रगतिशील-वाम संगठन कर रहे हैं जिसमें बलात्कारियों को फांसी की मांग के बजाय यह नारा लग रहा है कि ‘हमें क्या चाहिए- बेख़ौफ़ आज़ादी, घर में आज़ादी, रात में-दिन में घूमने-फिरने, आने-जाने की आज़ादी, काम करने की आज़ादी, स्कूल-कालेज जाने की आज़ादी, सिनेमा जाने की आज़ादी, प्रेम करने की आज़ादी...आज़ादी-आज़ादी.’ इस प्रक्रिया में उन हजारों युवाओं का राजनीतिकरण हो रहा है और उन्हें स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखने और समझने की दृष्टि मिल रही है. 
यहाँ ‘व्यक्तिगत, राजनीतिक बन रहा है और राजनीति, व्यक्तिगत मामला बन रही है (पर्सनल इज पोलिटिकल, पोलिटिकल इज पर्सनल).’ माफ कीजियेगा, वे भीड़ नहीं हैं क्योंकि वे एक उद्देश्य के साथ सड़कों पर उतरे हैं. वे ‘अराजकता के कद्रदान’ (कोनोसुर आफ एनार्की) तो कतई नहीं हैं क्योंकि यह सरकार और प्रशासन की अपराधियों-माफियाओं के साथ मिलकर पैदा की हुई अराजकता के खिलाफ एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बहाल करने की मांग का आंदोलन है.

वे विजय चौक और इंडिया गेट पर भारतीय संविधान या संसद या राष्ट्रपति भवन या नार्थ-साउथ ब्लाक को ध्वस्त करने भी नहीं पहुंचे थे और न ही उनका इरादा राजधानी और सत्ता के शीर्ष पर कोई अराजकता पैदा करना था.
यही नहीं, सरकारी और प्रशासनिक संवेदनहीनता से नाराजगी और गुस्से के बावजूद वे तालिबानी न्याय के पक्ष में नहीं हैं. अलबत्ता वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की नींद में खलल जरूर डालना चाहते हैं. वे उनकी शांति जरूर भंग करना चाहते हैं.
यह भी सच है कि वे समूचे राजनीतिक वर्ग और सत्ताधारियों से नाराज हैं. उन्हें लगता है और सौ फीसदी सही लगता है कि दिल्ली की वह बहादुर लड़की उस बस में गैंग रेप का विरोध करती और लड़ती हुई इसलिए मारी गई क्योंकि अपराधी-लम्पट तत्वों, भ्रष्ट पुलिस और परिवहन विभाग और उनके सबसे बड़े संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को आमलोगों की कोई परवाह नहीं है.
अफसोस की बात यह है कि इस जनउभार और धीरे-धीरे उसके आंदोलन बनने का स्वागत करने के बजाय कई उदार बुद्धिजीवी उससे भयभीत नजर आ रहे हैं. उन्हें यह एक अराजक भीड़ लग रही है जिसकी आक्रामकता और जल्दबाजी में वे फासीवादी आहट देख रहे हैं. उन्हें इसमें कानून के राज और व्यवस्था के प्रति खुला तिरस्कार और मखौल दिख रहा है.

उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है जोकि देश में पिछले कई दशकों और अनेकों बलिदानों के बाद खड़ा किये गए लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा. उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों पर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रही है.

सचमुच, उदार बुद्धिजीवियों की इस चिंता से चिंतित होने और सतर्क होने का समय आ गया है. सवाल यह है कि वे कैसा लोकतंत्र चाहते हैं? वे कैसी व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं? ये सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि एक ऐसे समय में जब देश में सत्ता-कार्पोरेट्स गठजोड़ की ओर से लोकतांत्रिक अधिकारों खासकर अभिव्यक्ति की आज़ादी, विरोध के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार आदि पर संगठित हमले बढ़ रहे हैं और खुद लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता-संकुचित होता जा रहा है, उस समय दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने ही नागरिकों और उनके सड़क पर उतरने से डर क्यों लग रहा है?
क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल पर होनेवाले चुनाव हैं? क्या नागरिकों का काम हर पांच साल पर उपलब्ध विकल्पों में एक सरकार चुन देना भर है? जाहिर है कि लोकतंत्र का मतलब नागरिकों का राजकाज के मुद्दों पर चुप रहना नहीं बल्कि सक्रिय भागीदारी है.

इस सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है. विरोध का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. इस मायने में दिल्ली में गैंग रेप के खिलाफ भड़के गुस्से और लोगों खासकर युवा लड़के-लड़कियों का सड़क पर उतरना और विरोध जाहिर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. उसने विरोध करने के अधिकार को फिर से बहाल करने की कोशिश की है. 

वे इन विरोध प्रदर्शनों में एक नागरिक के दायित्वबोध के साथ पहुँच रहे हैं. वे वहां भारतीय लोकतंत्र के एक सजग और सक्रिय नागरिक की तरह पहुँच रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग से हिसाब मांग रहे हैं.
यही नहीं, उन्हें वहां पहुंचकर विरोध जताने और अपनी आवाज़ उठाने की ताकत का अहसास हुआ है.  युवाओं के इस विरोध और आंदोलन ने एक भ्रष्ट, जड़, संवेदनहीन व्यवस्था को झकझोर दिया है. इस आंदोलन ने सत्ता में बैठे नेताओं की जवाबदेही की मांग करके लोकतंत्र को कमजोर नहीं बल्कि मजबूत किया है. इस आंदोलन ने अपनी तीव्रता के कारण बहुत छोटी अवधि में कई कामयाबियां हासिल की हैं.
इसकी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा से लेकर उनकी आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे उपर पहुंचा दिया है.

याद कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और उनकी आज़ादी और सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए थे? इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था?

कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी सबसे आखिर में और चलताऊ अंदाज़ जगह पाते रहे हैं.
लेकिन इस आंदोलन के बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए महिलाओं के मुद्दों को नजरंदाज कर पाना मुश्किल होगा. इस अर्थ में इस आंदोलन दूसरी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है.
इसने एक बलात्कार को दूसरे बलात्कार के खिलाफ खड़ा करने, एक आंदोलन को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और एक मुद्दे के विरुद्ध दूसरे मुद्दे को खड़ा करने की संकीर्ण अस्मितावादी बुद्धिजीवियों की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है.
इस आंदोलन की तीसरी बड़ी कामयाबी यह है कि लंबे अरसे बाद किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में और मुखरता के साथ मध्यम और निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएं खासकर युवा छात्राएं/लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में सड़कों पर उतरी हैं.

उन्होंने जिस तरह से पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय स्त्री की के आगमन की सूचना है. अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं नहीं आईं थीं.

इस आंदोलन की चौथी कामयाबी यह है कि इसने महिला आंदोलन को पुनर्जीवित कर दिया है. इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है. उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. उन्हें अब घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है. उनपर अब नैतिकता और इज्जत की रक्षा के नामपर भांति-भांति की पाबंदियां थोपना आसान नहीं होगा. वे अब और खुलकर अपनी इच्छाएं जाहिर कर सकेंगी और चुनाव की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगी. इस तरह पितृ-सत्ता को चुनौती बढ़ेगी.
हालाँकि पितृ-सत्ता के खिलाफ यह लड़ाई बहुत लंबी और कठिन है लेकिन इस आंदोलन ने जिस तरह से महिला आंदोलन को नई ताकत, उर्जा और गति दी है, उससे यह उम्मीद बढ़ी है कि पितृ-सत्ता के खिलाफ आंदोलन को नया आवेग मिलेगा.
क्या अब भी कहना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन से डरने के बजाय इससे आश्वस्त और आशान्वित होने की जरूरत है? सच पूछिए तो इस आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र और समाज को और बेहतर और जीवंत बनाने में मदद की है.

उस अनाम बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद भी लोग अगर घरों-कालेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अँधेरे को और गहरा करता, सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती जाती.

इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा है और साफ़ कर दिया है कि लोकतंत्र में लोगों से उपर कुछ भी नहीं है. 

('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जनवरी को प्रकाशित लेख का पूर्ण रूप)                  


शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

छात्र-युवा आंदोलन की पुनर्वापसी के मायने

छात्रसंघ और छात्र-युवा आन्दोलन लोकतान्त्रिक राजनीति के प्राण-वायु हैं

दिल्ली गैंग रेप और महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के खिलाफ देश भर खासकर दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन में छात्रों-युवाओं की सक्रिय, सचेत और नेतृत्वकारी भूमिका को सबने नोटिस किया है. इस बर्बर और शर्मनाक घटना के विरोध में जिस तरह से दिल्ली की सड़कों खासकर मुख्यमंत्री निवास-रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट और फिर जंतर-मंतर पर छात्रों-युवाओं का गुस्सा फूटा और पुलिस की ओर से हुए लाठीचार्ज, आंसूगैस और ठन्डे पानी की बौछारों के बावजूद वे डटे रहे, उसने सत्ता प्रतिष्ठान और समूचे राजनीतिक वर्ग को हिला कर रख दिया है.  
हालाँकि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में छात्र-युवाओं के इस तरह से सड़क पर उतरने और विरोध करने की तुलना ‘फ्लैश मॉब’ से करके उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है लेकिन सच यह है कि इसने ६० से लेकर ८० के दशक तक के छात्र-युवा आंदोलनों के तूफानी दौर और जज्बे की याद दिला दी है.

यह एक मायने में राष्ट्रीय जीवन और परिदृश्य से गायब से हो गए छात्र-युवा आंदोलन के पुनर्रूज्जीवन और वापसी का संकेत भी हो सकता है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मंडल-मंदिर से विभाजित और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के तड़क-भड़क से प्रभावित छात्र-युवा आंदोलन काफी कमजोर हो गया था और उसकी धमक क्षीण सी हो गई थी.

यही नहीं, शासक वर्गों ने छात्र-युवा आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर में खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों/कालेजों में पहले छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया और फिर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के जरिये छात्रसंघों को कमजोर, अराजनीतिक और पालतू बनाने की कोशिश की.
इसकी वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर कांग्रेस पार्टियों की केन्द्र सरकार रही हो या राज्य सरकारें सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आन्दोलनों से डरती रही हैं क्योंकि ६० से ८० के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देनेवाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.
इसके अलावा छात्र-युवा आन्दोलनों को कमजोर करने में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और उनके जेबी छात्र-युवा संगठनों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है. इन सत्तारुढ़ पार्टियों ने अपने छात्र-युवा संगठनों को केवल राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ और गुंडागर्दी करने के लिए इस्तेमाल किया है.

नतीजा सामने है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण और उसे धर्मों, जातियों, क्षेत्रों और भाषाओँ के आधार पर बांटने में इन शासक पार्टियों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण ने उसे आम छात्र-युवाओं और उनके वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया और इसके कारण छात्र-युवाओं का बड़े पैमाने पर अराजनीतिकरण हुआ.  

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों से देश में इक्का-दुक्का और क्षेत्र विशेष तक सीमित छात्र-युवा आन्दोलनों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर छात्र-युवा आंदोलन की धमक नहीं सुनाई दी है. ऐसा लगने लगा था, जैसे छात्र-युवा आंदोलन इतिहास की बात हो गए हों. लेकिन २०१० में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्र-युवाओं की बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी ने छात्र-युवा आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की नई उम्मीदें पैदा कर दीं.
इसी दौरान आइसा जैसे रैडिकल-वाम और कुछ दूसरे वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों के संघर्षों के दबाव में जे.एन.यू से लेकर इलाहाबाद और पटना तक कई विश्वविद्यालयों में इस साल छात्रसंघों के चुनाव हुए और उसमें आइसा और अन्य वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों की जीत हुई.
इसका असर हमारे सामने है. दिल्ली के बर्बर गैंग रेप के बाद विरोध में सबसे पहले वाम छात्र संगठनों की अगुवाई वाला जे.एन.यू छात्रसंघ उतरा. उसने मुनीरका और वसंत विहार में बाहरी रिंग रोड को घंटों जाम रखा.

उसके अगले दिन आइसा-आर.वाई.ए-एपवा की अगुवाई में जे.एन.यू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर पर जोरदार प्रदर्शन किया जिसपर पुलिस ने वाटर कैनन से ठंडे पानी की बौछारें छोडीं और लाठीचार्ज किया. लेकिन नाराज छात्र-युवा पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं हुए.

मुख्यमंत्री निवास पर छात्र-युवाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई को पूरे देश ने न्यूज चैनलों पर देखा. इसके बाद तो जैसे लोगों खासकर छात्र-युवाओं के सब्र का बाँध टूट पड़ा. रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई.
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे छात्र-युवाओं खासकर छात्राओं ने एक तरह से राजधानी में सत्ता के केन्द्रों को घेर लिया. पुलिस के लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन के बावजूद वे पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इंडिया गेट पर तो पुलिस ने हद कर दी जहाँ शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों खासकर छात्राओं-महिलाओं तक पर लाठियां चलाने में उसे कोई संकोच और शर्म महसूस नहीं हुई.
लेकिन इस दमन से यह आंदोलन कमजोर नहीं हुआ बल्कि पूरे देश में फ़ैल चुका है. इस आंदोलन में छात्रों-युवाओं खासकर महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी और उसके कारण बने जन-दबाव का ही नतीजा है कि इसने एक झटके में महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे पर ला खड़ा किया है.

केन्द्र और राज्य सरकारों से लेकर सभी राजनीतिक दलों की नींद टूट गई है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाले यौन हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से लेकर पुलिस को चुस्त और संवेदनशील बनाने, हेल्पलाइन शुरू करने जैसे फैसले-वायदे लिए जा रहे हैं.

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस मुद्दे पर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा-एपवा जैसे संगठनों ने विरोध की पहल नहीं की होती और दिल्ली सहित पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में छात्र-युवा सड़कों पर नहीं निकले होते तो क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों की नींद खुलती?
दिल्ली गैंग रेप अपनी सारी बर्बरता के बावजूद क्या बलात्कार का एक और मामला बनकर पुलिस-कोर्ट तक सीमित नहीं रह जाता? क्या महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा का सवाल हाशिए से राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ पाता? क्या महिलाओं के विभिन्न मुद्दों पर देश भर में शुरू हुई बहस और उससे पैदा हो रही सामाजिक जागरूकता संभव हो पाती?
कहने का गरज यह कि छात्र-युवा आंदोलन और छात्रसंघ किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के प्राणवायु हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उनपर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आन्दोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के तबके मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि देश के अधिकांश राज्यों में विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यहाँ तक कि बी.एच.यू., जामिया और ए.एम.यू जैसे कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में न सिर्फ छात्रसंघों के चुनाव प्रतिबंधित हैं बल्कि वहां छात्र संगठनों की गतिविधियों और सभा-चर्चाओं तक पर भी रोक है. इस कारण पिछले वर्षों में छात्र-युवाओं की कई पीढ़ियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ और छात्र-युवा आंदोलन ठंडे से पड़ते गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को भारी नुकसान हुआ है. छात्र-युवा राजनीति का गला घोंट देने के कारण न सिर्फ नया नेतृत्व नहीं आ रहा है बल्कि उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद मजबूत हुआ है.

समय आ गया है जब छात्र-युवा आन्दोलनों के महत्व और उनकी भूमिका को देखते हुए न सिर्फ सभी विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव अनिवार्य किये जाएँ बल्कि छात्र-युवा राजनीति को भी प्रोत्साहित किया जाए.

छात्रों-युवाओं को भी सत्तारुढ़ पार्टियों के जेबी छात्र-युवा संगठनों और अपराधी छात्र-युवा नेताओं के बजाय रैडिकल बदलाव की राजनीति करनेवाले वैचारिक-राजनीतिक छात्र-युवा संगठनों को आगे बढ़ाना होगा. अन्यथा उनके छात्रसंघ की भी वही मूकदर्शक की भूमिका होगी जो मौजूदा आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की रही?

('दैनिक भास्कर' के 4 जनवरी के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण)