बुधवार, अक्तूबर 31, 2012

कार्पोरेट्स के इशारे पर चल रही हैं सरकारें

सरकार, नौकरशाही और संसद में कार्पोरेट्स से सीधे और परोक्ष रूप से जुड़े मंत्रियों, अफसरों और सांसदों की संख्या बढ़ रही है  
 
दूसरी क़िस्त 
आश्चर्य नहीं कि संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यही नहीं, आज राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो सीधे-सीधे किसी न किसी बड़े कारपोरेट समूह के मुखिया हैं या उसके प्रमुख अधिकारी रहे हैं या सीधे तौर पर जुड़े रहे हैं. बात यहीं नहीं खत्म नहीं होती.
राजनीति पर बड़ी पूंजी का नियंत्रण किस हद तक बढ़ गया है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सरकार में अपने समर्थक मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति के लिए कारपोरेट समूह जमकर लाबीइंग कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें देशी-विदेशी कारपोरेट समूह केन्द्र और राज्यों में अपनी पसंद के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें अनुकूल मंत्रालय दिलवाने में कामयाब हुए हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में सरकार चाहे किसी भी पार्टी या गठबंधन की रही हो लेकिन इन कारपोरेट समूहों के समर्थक मंत्रियों और अफसरों की तादाद बढ़ती ही गई है. आश्चर्य नहीं कि राजनीति को आज देश में ८० फीसदी गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की चिंता नहीं रह गई है. वह अमीरों और बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने और उनकी रक्षा में जुटी हुई है.

यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के जरिये २२ लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़ रूपये की छूट दी गई है.
लेकिन जब भी गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा और उन्हें भोजन का अधिकार देने की बात होती है, राजनीति और बड़ी पूंजी को सब्सिडी और वित्तीय घाटे की चिंता सताने लगती है. हालांकि इसमें सिर्फ ७५ हजार से अधिकतम एक लाख करोड़ रूपये खर्च होने का आकलन है लेकिन हंगामा ऐसा होता है कि जैसे पूरा खजाना लुट रहा हो.
साफ है कि राजनीति और राजनेता अब गाँधी जी की वह जंत्री भूल चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कोई भी फैसला करने से पहले यह जरूर सोचो कि उससे सबसे गरीब भारतीय की आंख के आंसू पोंछने में कितनी मदद मिलेगी.’ कारण यह कि खुद राजनीति की आंख का पानी सूख चुका है और उसने बड़ी पूंजी नियंत्रित अर्थतंत्र के आगे घुटने टेक दिए हैं.
यह सही है कि इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास यानी जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेजी आई है और वह औसतन ७ से ८ फीसदी के बीच रही है. यह भी सही है कि इसके साथ भारी आर्थिक समृद्धि आई है.

लेकिन इनसे ज्यादा बड़ा सच यह है कि इस आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों, बड़े निवेशकों, टाप मैनेजरों, अमीरों, शहरी मध्य और उच्च मध्यवर्ग और ग्रामीण कुलकों के अलावा नेताओं-अफसरों-दलालों-माफियाओं-ठेकेदारों की जेब में गया है.

हालाँकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी के ३ से ५ फीसदी भी नहीं होगी लेकिन उनके घरों, रहन-सहन और जीवनशैली में जो समृद्धि और तड़क-भड़क आई है, वह अभूतपूर्व है. उनमें और दुनिया के सबसे विकसित देशों के अमीरों की जीवनशैली और उपभोग में कोई खास फर्क नहीं है.

लेकिन दूसरी ओर देश की बड़ी आबादी खासकर छोटे-मंझोले और भूमिहीन किसानों असंगठित श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों, अल्पसंख्यकों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि उल्टे उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इसके कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई और तेजी से बढ़ी है और आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी कई गुना बढ़ गई है. सरकारी संगठन- एन.एस.एस.ओ के ६६ वें दौर (२००९-१०) के सर्वेक्षण के मुताबिक, अकेले यू.पी.ए- एक के कार्यकाल (२००४-२००९) में शहरी और ग्रामीण परिवारों के उपभोग व्यय में अंतर ९१ फीसदी तक पहुँच गया है.
उल्लेखनीय है कि इन वर्षों में जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर ८.६४ प्रतिशत रही जोकि एक रिकार्ड है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने मनरेगा जैसी योजनाएं भी शुरू कीं, इसके बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है.

यही नहीं, एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण (२०११-१२) के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मामले में उपरी १० फीसदी और निचली १० फीसदी आबादी के बीच की कमाई में वृद्धि का अनुपात बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरों में इस अंतर का अनुपात बढ़कर १० से अधिक हो गया है.

इस बढ़ती गैर बराबरी का अंदाज़ा यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट से भी होता है जिसके अनुसार, देश में ७८ फीसदी आबादी २० रूपये से कम के उपभोग पर गुजारे के लिए मजबूर है.

यही नहीं, पिछले साल अक्टूबर में जब योजना आयोग ने ग्रामीण इलाके में २६ रूपये और शहरी इलाके में ३२ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया था तो देश में भारी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इस साल दाखिल संशोधित हलफनामे में योजना आयोग ने इसे और घटाकर ग्रामीण इलाके में २२.४२ रूपये और शहरी इलाके में २८.३५ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह गरीबी रेखा नहीं बल्कि भूखमरी रेखा है. साफ़ है कि आंकड़ों में गरीबी घटाई जा रही है लेकिन सच्चाई यह है कि इन दो दशकों में आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबों की वास्तविक संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है.  
दूसरी ओर, देश में आबादी एक छोटे से हिस्से के पास आई समृद्धि ने भी सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका के मुताबिक, देश में डालर अरबपतियों की संख्या ५५ तक पहुँच चुकी है. डालर अरबपतियों की कुल संख्या के मामले में भारत दुनिया के तमाम देशों में अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथे स्थान पर है.

यही नहीं, केपजेमिनी और रायल बैंक आफ कनाडा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में डालर लखपतियों (दस लाख डालर या ५.६ करोड़ रूपये से अधिक संपत्ति) की संख्या पिछले साल १.२५ लाख थी. हालाँकि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है क्योंकि यह शेयर बाजार और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर है लेकिन इसके बावजूद डालर लखपतियों के मामले में भारत दुनिया के टाप देशों की सूची में है.

हैरानी की बात नहीं है कि देश के एक छोटे से हिस्से के उपभोग का स्तर दुनिया के टाप अमीरों से मुकाबला कर रहा है. यही कारण है कि दुनिया भर के सभी टाप लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद देश के बड़े शहरों के शापिंग माल्स में उपलब्ध हैं. उनके लिए अब लन्दन, पेरिस या न्यूयार्क जाने की जरूरत नहीं है. बड़े शहरों की सड़कों पर दौड़ रही नई और मंहगी कारों और एस.यू.वी को देखकर यह कहना मुश्किल है कि भारत एक विकासशील देश है जहाँ एक तिहाई आबादी को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है.
लेकिन भारतीय अरबपतियों और अमीरों का उपभोग अश्लीलता की हदें भी पार करता जा रहा है. डालर अरबपतियों में से एक मुकेश अम्बानी ने मुंबई में एक अरब डालर यानी ५४०० करोड़ रूपये का २७ मंजिला घर बनवाया है. यही नहीं, उन्होंने अपनी पत्नी को २५० करोड़ रूपये का निजी हवाई जहाज उपहार में दिया जबकि छोटे भाई अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी टीना अम्बानी को ४०० करोड़ रूपये की लक्जरी नौका उपहार में दी है.
विजय माल्या के किस्से सबको पता हैं. जाहिर हैं कि ये अपवाद नहीं हैं. ऐसे अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है. लेकिन दूसरी ओर ऐसे भारतीयों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जिनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं. एक तिहाई से अधिक भारतीय भूखमरी के शिकार हैं. पांच वर्ष से कम उम्र के ४१ फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जिसका मतलब है कि वे कभी भी स्वस्थ-कामकाजी जीवन नहीं जी पायेंगे. मातृ मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का रिकार्ड कई पडोसी देशों से भी बदतर है.

आश्चर्य नहीं कि तेज विकास दर और समृद्धि की बरसात के बावजूद भारत वर्ष २०११ में मानव विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में दुनिया के १८७ देशों में १३४ वें स्थान पर था जबकि उसके पहले २०१० में भारत १६९ देशों की सूची में ११९ वें स्थान पर था.

इस मायने में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने भारत को सचमुच दो हिस्सों – इंडिया और भारत में बाँट दिया है. आर्थिक सुधारों का असली फायदा इंडिया और उसके मुट्ठी भर अमीरों, उच्च और मध्य वर्ग को मिला है जबकि इस ‘इंडिया’ के बेलगाम उपभोग की असली कीमत ८० फीसदी भारतीयों और देश के जल-जंगल-जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को चुकानी पड़ रही है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दो दशकों में जब देश “तेजी से तरक्की कर रहा था”, वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ के मुताबिक, सोलह वर्षों (१९९५-२०१०) में कोई २.५ लाख से ज्यादा किसान बढ़ते कृषि संकट के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हुए. खासकर २००२ से २००६ के बीच औसतन हर साल १७५०० किसानों ने आत्महत्या की है.
जारी.....

मंगलवार, अक्तूबर 30, 2012

आर्थिक उदारीकरण के दो दशक और इस दौर की राजनीति

कारपोरेट पूंजी की चाकर बन गई है राजनीति

पहली क़िस्त

भ्रष्टाचार और घोटालों के बीच फंसी कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार ने इसकी काट और खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का समर्थन हासिल करने के लिए एक झटके में आर्थिक सुधारों को आगे बढानेवाले कई बड़े लेकिन अत्यंत विवादास्पद फैसलों की घोषणा कर दी है.
इनमें एक ओर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बीमा और पेंशन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) को बढ़ाने जैसे फैसले हैं तो दूसरी ओर, राजकोषीय घाटा कम करने के नामपर डीजल और रसोई गैस, उर्वरकों आदि की कीमतों में भारी वृद्धि का फैसला शामिल है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन फैसलों का कारपोरेट मीडिया में खूब स्वागत हुआ है. शेयर बाजार में बहुत दिनों बाद रौनक लौट आई है और बाजार बम-बम है. बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के सी.ई.ओ से लेकर फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई और मुद्रा कोष जैसे बड़े देशी-विदेशी औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन और वैश्विक संस्थाएं इन फैसलों का खुलकर स्वागत कर रही हैं.

कल तक जो लाबी संगठन और कारपोरेट मीडिया मनमोहन सिंह सरकार को आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाने में नाकाम रहने के लिए आड़े हाथों ले रहे थे और सरकार को ‘नीतिगत लकवे’ का शिकार बता रहे थे, उनका सुर रातों-रात बदल गया है. वे सरकार के साहस और दूरदृष्टि की प्रशंसा करते हुए अफसोस जाहिर कर रहे हैं कि ये फैसले काफी पहले ही हो जाने चाहिए थे.

हालाँकि इन फैसलों को ‘जनविरोधी और देश-हित’ के खिलाफ बताते हुए यू.पी.ए गठबंधन में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी.एम.के और उसे बाहर से समर्थन दे रहे समाजवादी पार्टी और बसपा से लेकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा और वामपंथी मोर्चे तक ने विरोध किया है. तृणमूल कांग्रेस ने तो सरकार से समर्थन तक वापस ले लिया है.
लेकिन इनमें एक हद तक वामपंथियों के सैद्धांतिक विरोध को छोड़कर भाजपा समेत बाकी सभी पार्टियों का विरोध अवसरवादी और दिखावटी ज्यादा है. उदाहरण के लिए, भाजपा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की कट्टर समर्थक रही है और उसके नेतृत्ववाली एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में ही पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को विनियंत्रित करके बाजार के हवाले करने से लेकर बीमा क्षेत्र में विदेशी पूंजी को इजाजत दी गई थी.
यहाँ तक कि २००४ के आम चुनावों से पहले एन.डी.ए सरकार खुदरा व्यापार को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने की तैयारी कर चुकी थी. आश्चर्य नहीं कि वह अब भी बीमा क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाने का आज भी समर्थन कर रही है.
जहाँ तक गैर भाजपा-गैर कांग्रेस दलों की बात है तो उनमें वामपंथी मोर्चे की पिछली राज्य सरकारों के राजनीतिक-वैचारिक स्खलनों को छोड़ दिया जाए तो वामपंथी मोर्चा नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सैद्धांतिक और राजनीतिक विरोधी रहा है लेकिन उसके अलावा बाकी सभी अन्य दलों की आर्थिक नीति अस्पष्ट, अवसरवादी और आमतौर पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाली रही है.

ये पार्टियां जब भी राज्यों में या केन्द्र में सरकार में आईं हैं, उन्होंने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है. यहाँ तक कि वाम मोर्चे की राज्य सरकारों ने भी वैचारिक विरोध के बावजूद वही सब किया जो दूसरी राज्य सरकारें कर रही थीं. पश्चिम बंगाल की पिछली वाम मोर्चे की सरकार ने तो सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन छीनने के लिए पुलिसिया दमन के भी रिकार्ड तोड़ दिए.

सच पूछिए तो पिछले डेढ़-दो दशकों में आर्थिक नीति के मामले में शासक वर्ग की राजनीतिक पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं बचा है. वे सभी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की समर्थक हैं. खासकर कांग्रेस और भाजपा के बीच तो यह साबित करने की होड़ रहती है कि उन दोनों में आर्थिक उदारीकरण का सबसे पक्का और सक्रिय समर्थक कौन है.
राष्ट्रीय राजनीति में इन दोनों दलों की अगुवाई में ही दो राजनीतिक गठबंधन- एन.डी.ए और यू.पी.ए हैं जो बारी-बारी से पिछले १४ सालों से सत्ता में हैं और अधिकांश क्षेत्रीय दल इन्हीं दोनों गठबंधनों में आना-जाना करते रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन डेढ़ दशकों में और उससे पहले संयुक्त मोर्चे की सरकार के दौरान भी सभी सरकारों ने आँख मूंदकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू किया.
उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह अर्थनीति को राजनीति से अलग रखने की वकालत करती है. वह साफ़ तौर पर वकालत करती है कि राजनीति को अर्थनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और अर्थनीति को स्वतंत्रता से काम करने देना चाहिए.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में बाजार की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है और माना जाता है कि राज्य को बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए यानी राजनीति को अर्थनीति से दूर रहना चाहिए. इसे सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका लगातार सीमित करने की कोशिश की गई है और बाजार को अधिक से अधिक छूट दी गई है.

भारत में भी आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की प्रक्रिया के मूल में यही सैद्धांतिकी है. यही कारण है कि सरकार चाहे जिस भी पार्टी या गठबंधन, झंडे और रंग की हो लेकिन उसकी अर्थनीति में कोई बदलाव नहीं आता. अलबत्ता उसकी भाषा में कुछ दिखावटी बदलाव जरूर दिखाई देते हैं लेकिन बुनियादी तौर पर उसमें कोई अंतर नहीं है.
यही नहीं, इस दौर में नव उदारवादी अर्थनीति के मुताबिक आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों और नीति-निर्णयों में बाजार और बड़ी पूंजी का पूरी तरह से नियंत्रण हो गया है. चाहे वह प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद हो या योजना आयोग या विभिन्न मुद्दों पर गठित समितियां- आप हर महत्वपूर्ण नीति निर्माण और निर्णय की जगह पर नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों, बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुखों/मालिकों को बैठे देख सकते हैं.
इसके अलावा विश्व बैंक-मुद्रा कोष और डब्ल्यू.टी.ओ के रूप में वैश्विक आवारा पूंजी की प्रतिनिधि संस्थाएं हैं जो हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकारों को सलाह/निर्देश देती रहती हैं. अर्थनीति निर्माण और नीति-निर्णयों में उनकी जबरदस्त घुसपैठ है.

आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले दो दशकों में देश के प्रधानमंत्रियों, वित्त मंत्रियों, वित्त मंत्रियों के आर्थिक सलाहकारों और योजना आयोग के उपाध्यक्षों में से कई विश्व बैंक या मुद्रा कोष के पूर्व मुलाजिम रहे हैं. इन सबने मिलकर अर्थनीति को राजनीति से अलग और स्वतंत्र करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति के दबदबे के कारण अर्थनीति में आए दक्षिणपंथी झुकाव का असर राजनीति पर भी दिखने लगा है और भारतीय राजनीति में भी इस दक्षिणपंथी झुकाव को साफ़ देखा जा सकता है.

मार्क्स ने कभी कहा था कि ‘राजनीति, अर्थतंत्र का संकेंद्रित रूप है.’ इस अर्थ में उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय राजनीति का भी ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ काफी हद तक बदल गया है. यह बदलाव सिर्फ नेताओं, पार्टियों और मुद्दों के स्तर पर ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के चरित्र और अंतर्वस्तु के मामले भी साफ देखा जा सकता है.
भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर जैसे-जैसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का नियंत्रण बढ़ता गया है, तेज रफ़्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्था से निकलनेवाली समृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सिमटती गई है और पहले से हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे गरीबों, किसानों, आदिवासियों और दलितों को और हाशिए पर धकेल दिया गया है, वैसे-वैसे राजनीति पर भी अमीरों का दबदबा बढ़ता गया है और उसके साथ राजनीति की मुख्यधारा से गरीब और कमजोर वर्ग और उनके मुद्दे बाहर होते गए हैं.
(लखनऊ से सुभाष राय और हरे प्रकाश उपाध्याय के संपादन में प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के नवम्बर अंक में प्रकाशित हो रहे लम्बे लेख की पहली क़िस्त...कल दूसरी क़िस्त और विस्तार से आप उस पत्रिका में पढ़ें) 

सोमवार, अक्तूबर 29, 2012

कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है भारतीय जनतंत्र

राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी होती जा रही है
दूसरी क़िस्त

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ उठा यह तूफ़ान एक बार फिर यूँ ही गुजर जाएगा और जल्दी ही कारबार पहले की तरह चलने लगेगा? निश्चय ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जिस तरह का माहौल बना है और लोग सड़कों पर उतरकर विरोध कर रहे हैं, उससे एक उम्मीद बनी है.
लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है. भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं/मंत्रियों के घोटालों के खिलाफ पहले १९७७ और बाद में १९८९ में भी इसी तरह का माहौल बना था और उसके कारण दोनों ही बार सत्तारूढ़ कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. लेकिन अफसोस की बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन दोनों ‘क्रांतियों’ से बनी संभावनाओं और उम्मीदों का गर्भपात होने में ज्यादा देर नहीं लगी. यही नहीं, उन दोनों ‘क्रांतियों’ के कई नायक बाद में भ्रष्टाचार में लिथड़े पाए गए.
इसलिए इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अघोषित और षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी के टूटने, शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार के अनेकों मामलों के भंडाफोड, घोटालों के हम्माम में सत्ता पक्ष और विपक्ष के नंगे पकड़े जाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी गुस्से और विरोध के बावजूद इस ‘क्रांति’ का हश्र भी पहले से अलग नहीं होने जा रहा है.

हालाँकि इस बार यह त्रासदी कम और प्रहसन ज्यादा होगी. इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और खासकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसे संगठनों की होगी क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई में न सिर्फ वैचारिक-राजनीतिक स्पष्टता और समझदारी की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है बल्कि उसके अंतर्विरोध, सीमाएं और भटकाव भी सामने आने लगे हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी इस मुहिम के निशाने पर कुछ व्यक्ति (खासकर नेता/मंत्री) हैं और सारा जोर उन्हें पकड़ने और सजा दिलवाने की व्यवस्था बनवाने (लोकपाल) पर है. गोया सारे भ्रष्ट नेताओं को पकड़ लेने से भ्रष्टाचार की सांस्थानिक और व्यवस्थागत चुनौती खत्म हो जाएगी.
लेकिन वे भूल रहे हैं कि भ्रष्टाचार के ऐसे रावण मरते और जिन्दा होते रहेंगे क्योंकि इस रावण के प्राण उसकी उस नाभि में हैं जिसे अंदर से सड़ चुकी मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से प्राणवायु मिल रही है.
लेकिन क्या यह सिर्फ संयोग है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेताओं की आवाज़ सार्वजनिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट पर मद्धिम पड़ जाती है? यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण के नाम पर बाकायदा कानूनी तरीके से जिस तरह से पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा रही है, उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने के लिए हर तरह की छूट और रियायतें दी जा रही हैं और जनहित को किनारे करके बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं, उस नीतिगत भ्रष्टाचार को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

आखिर इसे नीतिगत भ्रष्टाचार क्यों न माना जाए, जब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में आकर सरकार कंपनियों की टैक्स चोरी पर अंकुश लगाने के लिए लाये गए गार नियमों को टाल देती है?

इसी तरह इस तथ्य को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि किंगफिशर एयरलाइंस और उसके मालिक विजय माल्या के मनमाने-बेतुके फैसलों और अश्लील फिजूलखर्ची के बावजूद सरकार आँखें मूंदें रही, सरकारी बैंक हजारों करोड़ का कर्ज देते रहे और एयरलाइन डूबती रही? क्या यह कारपोरेट-राजनेता-अफसर गठजोड़ की मिलीभगत के बिना संभव है?
यह अकेला उदाहरण नहीं है. भ्रष्टाचार और घोटालों के हालिया सभी बड़े मामलों में नियमों को तोड़ने-मरोड़ने में नेताओं-मंत्रियों-अफसरों के साथ-साथ बड़ी कम्पनियाँ भी शामिल रही हैं. आखिर भ्रष्टाचार के सभी बड़े मामलों में मांग पक्ष (नेताओं/मंत्रियों/अफसरों) के साथ आपूर्ति पक्ष (कंपनियों/ठेकेदारों) की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
सच यह है कि बड़े कार्पोरेट्स और उनकी पूंजी की बढ़ती ताकत के आगे पूरी राजनीतिक व्यवस्था ने घुटने टेक दिए हैं. सरकारें चाहे जिस रंग और झंडे की हों, वे उनके निर्देश पर चल रही हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स की अपने हितों के मुताबिक महत्वपूर्ण आर्थिक मंत्रालयों में मंत्री बनवाने और अनुकूल अफसरों की तैनाती करवाने से लेकर नीति निर्माण की प्रक्रिया तक में सीधी घुसपैठ हो चुकी है.

यहाँ तक कि राजनीति और कारोबार के बीच की विभाजन रेखा बेमानी सी होती जा रही है. कहना मुश्किल होता जा रहा है कि कौन कारोबारी है और कौन राजनेता? सच पूछिए तो नितिन गडकरी कोई अपवाद नहीं हैं और न ही राबर्ट वाड्रा-डी.एल.एफ सौदे से हैरान होने की जरूरत है.

सच यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कारपोरेट जगत और राजनीति में आश्चर्यजनक रूप से तरक्की करने और छलांग लगानेवाली अधिकांश कंपनियों और नेताओं की सतह से थोड़ा नीच खुरचिये तो आप पायेंगे कि दोनों एक-दूसरे में निवेश करके आगे बढ़े हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि आज भारतीय संसद में करोड़पतियों की संख्या नए रिकार्ड बना रही है. २००९ के आम चुनावों के नतीजों के आधार पर पत्रकार पी. साईंनाथ ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर आप सुपर अमीर यानी पांच करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति के मालिक हैं तो संसदीय चुनावों में दस लाख रूपये से कम की संपत्ति वाले प्रत्याशी की तुलना में आपकी सफलता की सम्भावना ७५ गुना बढ़ जाती है.
साफ़ है कि भारतीय जनतंत्र कारपोरेट नियंत्रित धनतंत्र में बदलता जा रहा है. क्या अब भी दोहराने की जरूरत रह जाती है कि भ्रष्टाचार और घोटालों की जड़ें कहाँ हैं और उसके लिए सिर्फ नेता ही नहीं बल्कि नीतियां भी उतनी ही जिम्मेदार हैं?

फिर यह मुद्दा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एजेंडे पर क्यों नहीं है? क्या देश एक बार फिर आधी-अधूरी क्रांति का गवाह बनने जा रहा है?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 27 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

शनिवार, अक्तूबर 27, 2012

राजनीतिक व्यवस्था की बढ़ती सड़न का नतीजा है गडकरी परिघटना और यह अपवाद नहीं हैं

कार्पोरेट नियंत्रित धनतंत्र में हैं भ्रष्टाचार की जड़ें 

पहली क़िस्त
देश हैरान और स्तब्ध है. जिस तरह से लगभग हर दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के शीर्ष पर बैठे मंत्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार और घोटालों के नए-नए मामले सामने आ रहे हैं और भ्रष्टाचार और घोटालों के मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच का फर्क खत्म होता दिख रहा है, उससे अचानक इन आरोपों में सच्चाई दिखने लगी है कि भ्रष्टाचार के हम्माम में सभी नंगे हैं.
ऐसा लगता है कि जैसे भ्रष्टाचार की बंद नाली का मुंह खुल गया हो और उससे निकलते कीचड़ की बाढ़ में सत्ता की राजनीति करनेवाला समूचा राजनीतिक वर्ग गले तक डूबा हुआ दिख रहा है. भ्रष्टाचार और घोटालों की कालिख के छींटों से शायद ही कोई अपवाद बचा हो.
सच पूछिए तो हालात कुछ हैं, जैसे शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ में मार्सेल्स कहता है कि ‘डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ सा गया है’, उसी तर्ज पर लगता है कि ‘भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था में कुछ नहीं, बहुत कुछ सड़ गया है’ और उसकी दुर्गन्ध से पूरे सार्वजनिक और राजनीतिक परिदृश्य में दमघोंटू सा माहौल बनता जा रहा है.

इस पूरे परिदृश्य में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों का बहरा कर देनेवाला शोर-शराबा है, एक-दूसरे को नंगा करने और बताने की होड़ है और इस प्रक्रिया में शायद पहली बार भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था को कैंसर की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार की जड़ों के इतनी गहराई और दूर तक फैले होने की सच्चाई से पर्दा हटता हुआ दिख रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश भर में आर.टी.आई और विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ताओं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारियों, अदालतों, सी.ए.जी-लोकायुक्त जैसी कुछ सजग एजेंसियों और एक हद तक समाचार माध्यमों की सक्रियता के कारण भ्रष्टाचार की इस सर्वव्यापकता और खासकर शीर्ष नेताओं के भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले रखने के लिए मुख्यधारा के सभी सत्ताधारी दलों और विपक्ष के बीच बने अघोषित से समझौते को करारा झटका लगा है.
भ्रष्टाचार खासकर सत्ता के शीर्ष के भ्रष्टाचार पर ऊँगली न उठाने और उसे दबाए-छुपाये रखने के लिए बनी सत्ता और विपक्ष की सहमति और उसे लेकर सार्वजनिक जीवन में बरती जानेवाली षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट सी गई है.
इसके कारण सत्ता और विपक्ष दोनों की बिलबिलाहट, बेचैनी और घबड़ाहट देखने लायक है. कांग्रेस और भाजपा से लेकर एन.सी.पी-राजद-सपा और दूसरे सभी सत्ताधारी-विपक्षी दलों को यह अहसास होने लगा है कि भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में वे सभी एक साथ डूब रहे हैं. नतीजा यह कि सभी एक-दूसरे को समझाने, चेताने और बचाने के लिए आगे आने लगे हैं.

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा नेताओं को चुप रहने का संकेत देते हुए कहा कि उनके पास भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के दामाद-बेटियों-बेटों के गडबड घोटालों के सबूत हैं लेकिन वे उनका खुलासा इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक दलों के नेताओं के बेटे-बेटियों और सगे-सम्बन्धियों को निशाना नहीं बनाती है.

कांग्रेस की राजनीतिक नैतिकता और मर्यादा के इस नए पाठ के बीच भाजपा महासचिव अरुण जेटली ने अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी के विशाल कारोबार का बचाव यह करते हुए किया है कि आखिर नेताओं को भी अपना परिवार और जीवन चलाना है.
खुद गडकरी का दावा रहा है कि वे कोई आम कारोबारी नहीं हैं बल्कि ‘सामाजिक उद्यमी’ हैं और उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि महाराष्ट्र के किसानों, गरीबों और बेरोजगारों के लिए चीनी मिल और बिजलीघर आदि लगाये हैं. अब पता चल रहा है कि उनके ‘सामाजिक उद्यमों’ के निवेशकों में ज्यादातर वे ठेकेदार और बिल्डर हैं जिन्हें उनके महाराष्ट्र का लोक निर्माण मंत्री रहते हुए ठेके मिले थे.
यही नहीं, गडकरी की ‘सामाजिक उद्यमिता’ का सबूत यह भी है कि उनकी कंपनी में निवेश करनेवाली कई कम्पनियाँ मुंबई की झुग्गियों से चलती हैं और उनके ड्राइवर से लेकर पी.ए तक कंपनी के निदेशकों में हैं! याद रखिये कि ये वही गडकरी हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में फंसे कर्नाटक के अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का यह कहते हुए बचाव किया था कि उनके फैसले अनैतिक हो सकते हैं लेकिन वे गलत या गैर-कानूनी नहीं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि खुद को सबसे अलग बतानेवाली (पार्टी विथ डिफ़रेंस) के अध्यक्ष ही नैतिक और अवैध होने के बीच इतनी साफ़ रेखा खींच सकते हैं. आश्चर्य नहीं कि उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बसपा से निकले गए और एन.आर.एच.एम घोटाले के प्रमुख आरोपी बाबू सिंह कुशवाहा को ससम्मान पार्टी में शामिल कराया.

निश्चय ही, कांग्रेस से लेकर भाजपा तक और तीसरे मोर्चे के तमाम दलों तक सभी जिस तरह से भ्रष्टाचार और घोटालों के संगीन आरोपों से घिरे हैं, उसके कारण राष्ट्रीय राजनीति और राज्य व्यवस्था की साख गहरे संकट में है. उसकी राजनीतिक वैधता सवालों के घेरे में है.
इस संकट का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू.पी.ए सरकार भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनियों में सामने आई अनियमितताओं और गडबडियों की स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. आखिर कांग्रेस किस मुंह से स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग कर सकती है जबकि खुद अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा से लेकर कई मंत्रियों और नेताओं पर भ्रष्टाचार, घोटाले या अनियमितताओं के गंभीर आरोप हैं.
दूसरी ओर, गडकरी के मामले के सामने आने के बाद से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नाटक कर रही भाजपा के सुर भी मद्धिम पड़ने भी लगे हैं क्योंकि उसकी अपनी पूंछ दबी हुई है. मजे की बात यह है कि सार्वजनिक तौर पर दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे के भ्रष्टाचार की जांच की मांग कर रही हैं, इसके बावजूद आपसी अघोषित सहमति का आलम यह है कि अब तक किसी स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच की घोषणा नहीं हुई.

इन दोनों पार्टियों के अलावा बाकी सभी क्षेत्रीय पार्टियों की तो जैसे आवाज़ ही चली गई है. सब खामोशी से तमाशा देखने में लगी हैं और तूफ़ान गुजरने का इंतज़ार कर रही हैं....

जारी .....

('जनसत्ता' के 27 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित सम्पादकीय आलेख की पहली क़िस्त) 

शुक्रवार, अक्तूबर 26, 2012

सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने की तैयारी

क्या हम अमेरिकी और एशियाई टाइगरों के हश्र को भूल गए हैं?

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
 
लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि निजी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ सरकारी बीमा कंपनियों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए हर तरह की तिकड़म कर रही हैं. इसके लिए वे घाटा खाकर भी एल.आई.सी की तुलना में कम और कई मामलों में लगभग आधी प्रीमियम पर बीमा पालिसी बेच रही हैं और अपने एजेंटों को मनमाना कमीशन दे रही हैं.
यह और बात है कि दावों को निपटाने के मामले में वे उपभोक्ता का खून चूस लेती हैं. इसके बावजूद बीमा नियामक- इरडा उनके आगे लाचार दिख रहा है. यहाँ तक कि हाल में कई निजी बीमा कंपनियों पर ३०० करोड़ रूपये के सेवाकर की चोरी के आरोप में नोटिस भी मिला है.
याद रहे कि अपने विवादास्पद हथकंडों और तिकड़मों से २००८ की अमेरिकी वित्तीय सुनामी को न्यौता देने में कई बीमा कम्पनियाँ भी शामिल थीं और उनमें से सबसे बड़ी ए.आई.जी (भारत में टाटा-ए.आई.जी) को डूबने से बचाने के लिए अमरीकी सरकार को सबसे अधिक ८५ अरब डालर का पैकेज देना पड़ा था.            
चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इन्हीं बीमा और पेंशन कंपनियों को न सिर्फ इस देश के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा और जीवन भर की कमाई सौंपने की तैयारी कर रही है बल्कि पूरे वित्तीय तंत्र की स्थिरता को खतरे में डाल रही है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी की ललचाई हुई निगाहें भारत के तेजी से बढ़ती पेंशन निधियों और बीमा बाजार पर लगी हुई है.

बड़ी कंपनियों के लाबी संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में सरकारी/अर्द्ध सरकारी और नई पेंशन योजना की कुल पेंशन निधि लगभग १५.४ लाख करोड़ रूपये की है जिसके वर्ष २०१५ तक बढ़कर २० लाख करोड़ रूपये हो जाने की उम्मीद है. अगर इसका कम से कम २ फीसदी भी मुनाफे के रूप में आए तो यह करीब ४ खरब रूपये होता है.

इसी तरह अभी बीमा बाजार २.१२ लाख करोड़ रूपये का है क्योंकि देश में बीमा की पहुँच सिर्फ ५ फीसदी लोगों तक है. लेकिन इसमें तेजी से वृद्धि हो रही है. वित्तीय और बीमा बाजार के विशेषज्ञों का मानना है कि आनेवाले वर्षों में बीमा उद्योग में १० से १५ फीसदी की वार्षिक दर से वृद्धि होगी. इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि दांव कितने ऊँचे हैं.
आश्चर्य नहीं कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर बड़े वित्तीय संस्थान और कम्पनियाँ और उनके पैरोकार जोरशोर से पेंशन और बीमा समेत समूचे वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने की मांग कर रहे थे. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर घरेलू वित्तीय क्षेत्र को खोलने के लिए अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक की सरकारों, उनके मंत्रियों-अफसरों और विश्व बैंक-मुद्रा कोष के अलावा अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का भी जबरदस्त दबाव था.
आश्चर्य नहीं कि सरकार ने पिछले सप्ताह बीमा और पेंशन क्षेत्र में और अधिक एफ.डी.आई की इजाजत देने का फैसला किया और इस सप्ताह अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर भारत की यात्रा पर हैं. दूसरे, ताजा फैसले समेत आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले हालिया फैसलों के जरिये यू.पी.ए सरकार पस्त पड़े वित्तीय बाजार में एक फीलगुड का माहौल बनाकर तात्कालिक तौर पर शेयर बाजार को चढाने की कोशिश कर रही है.

सरकार को उम्मीद है कि इससे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सकती है. याद रहे, प्रधानमंत्री ने हाल में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों के जरिये देशी-विदेशी उद्यमियों में ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) पैदा करने करने की जरूरत बताई थी.

लगता है कि प्रधानमंत्री और सरकार को वित्तीय क्षेत्र और उसकी कंपनियों की इस ‘पशु प्रवृत्ति’ के नतीजों की परवाह नहीं है. लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि वित्तीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे संवेदनशील क्षेत्र है और उसकी अस्थिरता पूरी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है. अमेरिकी वित्तीय सुनामी अपवाद नहीं थी.
उससे पहले ९७-९८ में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी ऐसे ही ध्वस्त हुई थीं. उनसे पहले मेक्सिको और कई लातिन अमेरिकी अमेरिकी देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी वित्तीय तंत्र के उदारीकरण के नतीजे भुगत चुकी हैं. यही नहीं, वित्तीय तंत्र के ध्वस्त होने के कारण उनमें से कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं दशकों पीछे चलीं गईं थीं.
सवाल है कि इन अनुभवों के मद्देनजर क्या सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए समूची अर्थव्यवस्था और करोड़ों लोगों के जीवन भर की कमाई और सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने की इजाजत दी जा सकती है?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 15 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

गुरुवार, अक्तूबर 25, 2012

वित्तीय सुनामी को न्यौता

पेंशन और बीमा सुधारों के नामपर विदेशी पूंजी को न्यौते के निहितार्थ

पहली क़िस्त
कहते हैं कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने यह कथन नहीं सुना है. अगर सुना होता तो वह अर्थव्यवस्था के सबसे संवेदनशील वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने से जुड़े जोखिमों को देखते हुए बीमा और पेंशन क्षेत्र में ४९ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की इजाजत देने का फैसला इस तरह से आनन-फानन में नहीं करती.
खासकर यह जानते-समझते हुए कि अमेरिका में २००७-०८ में जो वित्तीय सुनामी आई और जिसके कारण अमेरिका सहित पूरी दुनिया आर्थिक-वित्तीय संकट में फंस गई, उसे लाने में बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों खासकर निजी बैंकों, बीमा और पेंशन कंपनियों की सीधी भूमिका थी.
इन बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों ने अधिक से अधिक मुनाफे के लालच में वित्तीय बाजार में जिस तरह की सट्टेबाजी की, मनमाने तौर-तरीके अपनाये और जोखिम लेने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए, उसका स्वाभाविक नतीजा वित्तीय सुनामी के रूप में सामने आया. यही नहीं, उस वित्तीय सुनामी में न सिर्फ उन कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और कई उसमें डूब गईं बल्कि वे आज तक उससे उबर नहीं पाईं हैं.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के ३४ विकसित और अमीर देशों के संगठन- ओ.ई.सी.डी के सदस्य देशों की कुल पेंशन निधि को २००८ के वित्तीय संकट में ३.५ खरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा था. आज भी उन पेंशन निधियों की स्थिति यह है कि वर्ष २०११ में उनकी कुल निधि रिकार्ड २०.१ खरब डालर तक पहुँच गई लेकिन उनका औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) १.७ फीसदी दर्ज किया गया.

इन पेंशन निधियों में सार्वजनिक और निजी पेंशन निधियां शामिल हैं. उनकी बदतर स्थिति का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वित्तीय सुनामी के चपेटे में आए अमेरिका, जापान, इटली, स्पेन, ग्रीस जैसे देशों की पेंशन निधियों का बीते साल औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) २.२ से लेकर ३.६ प्रतिशत रहा.
अकेले जापान के सार्वजनिक पेंशन निधि को इस साल अप्रैल-जून के तीन महीनों में कुल २६.३१ अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा है. इन पेंशन निधियों को हो रहे नुकसान की सबसे बड़ी वजह यह है कि इन अमीर और विकसित देशों खासकर अमेरिका और यूरोप के देशों में वह वित्तीय बाजार खासकर शेयर बाजार अभी भी हांफ रहा है जिसमें इन निधियों ने निवेश कर रखा है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि इन पेंशन निधियों के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मुश्किल हो रही है. उसपर तुर्रा यह कि इस स्थिति से निपटने के नामपर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार पेंशन सुधारों का नुस्खा लेकर आ गए हैं जिसके तहत पेंशन लाभ की उम्र सीमा बढ़ाने जैसे कई प्रस्ताव किये जा रहे हैं.

यूरोप सहित ओ.ई.सी.डी के कई देशों में पेंशन पाने की उम्र सीमा यह कहकर बढ़ाई जा रही है कि लोगों की औसत आयु बढ़ रही है. अभी वहां सेवानिवृत्ति की औसत आयु ६५ वर्ष है जिसे बढ़ाकर ६७ साल या उससे अधिक किया जा रहा है ताकि पेंशन देनदारियों को टाला जा सके. यही नहीं, खुद ओ.ई.सी.डी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन सुधारों के कारण आनेवाले वर्षों में सेवानिवृत्त होनेवालों को औसतन २० से २५ फीसदी पेंशन लाभ कम मिलेंगे.

लेकिन इन कथित पेंशन सुधारों के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. फ़्रांस समेत कई देशों में पिछले साल जबरदस्त हड़तालें हुईं और खूब प्रदर्शन हुए. पूरा यूरोप राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में है. लेकिन विकसित देशों की पेंशन निधियों के मौजूदा संकट से सबक लेने के बजाय यू.पी.ए सरकार देश में सार्वजनिक पेंशन निधि के प्रबंधन और नई पेंशन योजनाएं शुरू करने के लिए उन्हीं कंपनियों को बुलाने जा रही है जिनकी उनके अपने देशों में भारी आलोचना हो रही है.
आखिर ४९ फीसदी विदेशी पूंजी लेकर आ रही इन कंपनियों में ऐसी क्या खूबी है जिसे देखकर यू.पी.ए सरकार भारत के करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई और वृद्धावस्था की एकमात्र सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने को तैयार हो गई है?
याद रहे कि २००८ में जब अमरीका में वित्तीय सुनामी आई और उसकी पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई और अपने साथ उसने दुनिया को भी आर्थिक संकट और मंदी में फंसा दिया तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय तंत्र उसके झटके को झेल गई क्योंकि वह वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ पूरी तरह नत्थी नहीं थी.

उस समय मनमोहन सिंह सरकार और खासकर कांग्रेस पार्टी ने इसका श्रेय लेते हुए दावा किया था कि यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की दूरदृष्टि है कि उन्होंने बैंकों, बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था और बाद की कांग्रेसी सरकारों ने घरेलू वित्तीय व्यवस्था के उदारीकरण और उसके वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ एकीकरण के मामले में बहुत सतर्कता बरती.

लेकिन सवाल यह है कि बीते चार सालों में ऐसा क्या बदल गया कि यू.पी.ए सरकार वित्तीय तंत्र के और उदारीकरण और उसे और ज्यादा विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन हो उठी है?

सवाल यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने जिन भारतीय कंपनियों को पेंशन निधि के प्रबंधन के लिए नामांकित किया है, उनका प्रदर्शन कैसा रहा है? उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने तीन साल पहले सभी लोगों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए नई पेंशन योजना शुरू की थी जिसके प्रबंधन के लिए देश की छह कंपनियों को नामांकित किया गया है.
इसके साथ ही सरकार ने पेंशन निधि के एक हिस्से को शेयर बाजार और बांड आदि में भी लगाने की अनुमति दी है. लेकिन इन तीन सालों में इन कंपनियों के प्रदर्शन पर गौर करें तो यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आता है कि पेंशन निधि से आ रहे प्रतिलाभ (रिटर्न) में काफी उतार-चढाव है. यह प्रतिलाभ २३.५१ फीसदी से लेकर नकारात्मक (-) ३.१५ फीसदी तक है.
इससे साफ़ है कि सेवानिवृत्त होते समय अपनी मेहनत की कमाई से एक निश्चित पेंशन पाने की अपेक्षा रखनेवाले असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों की उम्मीदें हमेशा वित्तीय खासकर शेयर बाजार की मोहताज बनी रहेंगी. इसकी बड़ी वजह यह है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भारत के पेंशन बाजार में करोड़ों कामगारों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने नहीं बल्कि मुनाफा कमाने आ रहे हैं.

इस मामले में उन निजी बीमा कंपनियों का प्रदर्शन और भी खराब है जिनमें एन.डी.ए सरकार ने २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत दी थी. पिछले एक दशक से अधिक समय से देश में जीवन और सामान्य बीमा के क्षेत्र में दो दर्जन से ज्यादा निजी देशी बीमा कम्पनियाँ विदेशी भागीदारों के साथ सक्रिय हैं. लेकिन तमाम दावों के विपरीत आम बीमा उपभोक्ताओं के जीवन में कोई ‘क्रांति’ नहीं आई है और न ही उनकी मुश्किलें कम हुई हैं.

बीमा नियामक इरडा के मुताबिक, वर्ष २००९-१० में जहाँ सरकारी बीमा कंपनी-एल.आई.सी ने ९६.५४ फीसदी दावों का निपटारा किया और केवल २ फीसदी दावों को नकारा, वहीं निजी बीमा कंपनियों ने उससे ११ फीसदी कम सिर्फ ८४.८८ फीसदी दावों का निपटारा किया जबकि तीन गुने से अधिक ७.६४ फीसदी दावों को खारिज कर दिया.
इसमें सबसे चौंकानेवाला तथ्य यह है कि करीब आधा दर्जन से अधिक निजी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत सिर्फ ५० से लेकर ६४ फीसदी के बीच है. यही नहीं, वर्ष २०१०-११ में एक बार फिर एल.आई.सी ने जहाँ ९७ फीसदी दावों को निपटाया, वहीँ निजी बीमा कंपनियों के प्रदर्शन में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
कई निजी-विदेशी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत ५० से ६५ फीसदी के बीच बना रहा. आश्चर्य नहीं कि देशभर में विभिन्न उपभोक्ता अदालतों और फोरमों में सबसे अधिक शिकायतें जिन कंपनियों के बारे में आती हैं, उनमें निजी बीमा कम्पनियाँ अगली पंक्ति में हैं....
जारी...दूसरी क़िस्त कल.. 
('जनसत्ता' के 15 अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)