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शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

मुकेश अम्बानी का बाजा बन जायेंगी अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ

लेकिन लोकतंत्र के लिए जरूरी है मीडिया में बहुलता और विविधता

तीसरी और आखिरी किस्त

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे हैं.
हिंदी क्षेत्रों में बड़े अखबार समूहों से प्रतियोगिता में बिहार में आर्यावर्त, प्रदीप, पाटलिपुत्र टाइम्स, जनशक्ति जैसे अखबार बंद हो गए, उत्तर प्रदेश में आज, स्वतंत्र भारत, अमृत प्रभात, जनवार्ता, स्वतंत्र चेतना और जनमोर्चा जैसे आधा दर्जन अखबार या तो बंद हो गए या मरणासन्न स्थिति में हैं, मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ में नई दुनिया और देशबंधु की स्थिति अच्छी नहीं है जबकि राजस्थान में नवज्योति जैसे अख़बारों की स्थिति बिगड़ती जा रही है.
इसी तरह टी.वी उद्योग में भी मनोरंजन क्षेत्र में स्टार, जी, कलर्स, सन नेटवर्क और न्यूज में टाइम्स टी.वी, टी.वी.टुडे, स्टार न्यूज और टी.वी-18 को छोडकर बाकी चैनलों के लिए लंबे समय तक प्रतियोगिता में टिके रहना मुश्किल होगा.

स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.

मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा.

यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों. इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों.

जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.

यही नहीं, यह भी देखा गया है कि प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती है. यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे अकसर सत्ता और दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.
मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं. उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.
यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अख़बारों/चैनलों                        का पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं.

आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.

कारपोरेट मीडिया की रिपोर्टों से कई बार ऐसा भ्रम पैदा होता है कि देश में सारी समस्याओं और गडबडियों खासकर भ्रष्टाचार की जड़ में केवल नेता, राजनीतिक दल और नौकरशाही है. लेकिन सच यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में वे सिर्फ मांग पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि कारपोरेट क्षेत्र आपूर्ति पक्ष है.
अगर पैसा देनेवाला नहीं होगा तो पैसा लेनेवाले को भ्रष्ट होने का मौका नहीं मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट क्षेत्र नियमों/कानूनों को तोड़कर अपने हितों को आगे बढ़ाने के बदले में ही नेताओं/अफसरों को पैसा देता है. यही नहीं, कारपोरेट क्षेत्र का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह अपने आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए मनोनुकूल नीतियां और कानून भी बनवाने में कामयाब हो रहा है.
लेकिन कारपोरेट मीडिया इन मुद्दों पर आमतौर पर चुप्प रहता है या बड़ी पूंजी के पक्ष में खुलकर जनमत बनाता और लाबीइंग करता है. यही नहीं, कारपोरेट मीडिया एक तरह से उस छलनी की तरह काम करता है जो सत्ता और व्यवस्था विरोधी या उसके हितों को नुकसान पहुंचानेवाले कंटेंट को लोगों तक नहीं पहुँचने देता है.

इस बारे में नोम चोमस्की/एडवर्ड हरमन ने प्रोपेगंडा माडल और ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ में विस्तार से बताया है कि कैसे कारपोरेट मीडिया एक ओर व्यवस्था/सत्ता विरोधी सूचनाओं/विचारों को रोकता है और दूसरी ओर, एक फर्जी सहमति का निर्माण करता है.

कारपोरेट मीडिया की बढ़ती ताकत के साथ हाल के वर्षों में एक और बड़ी चिंता उभर कर सामने आई है. यह अनुभव किया जा रहा है कि दुनिया के कई विकसित देशों में बड़ी पूंजी के साथ नाभिनालबद्ध कारपोरेट मीडिया की ताकत और प्रभाव के आगे वहां की चुनी हुई सरकारें भी घुटने टेक चुकी हैं और उन्हें खुश करने में लगी रहती हैं.
इस कारण कारपोरेट मीडिया का नीति निर्माण और महत्वपूर्ण फैसलों में भी हस्तक्षेप बढ़ा है. तथ्य यह है कि वे ही सरकारों का एजेंडा निर्धारित करने लगे हैं. इसके साथ ही, कारपोरेट मीडिया को प्रभावित करने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए एक विशाल जनसंपर्क और लाबीइंग उद्योग का जन्म और प्रसार हुआ है.
लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि उन वर्गों और समुदायों की जिनकी बड़े कारपोरेट मीडिया तक पहुँच नहीं है या जो बड़ी जनसंपर्क कंपनियों और लाबीइंग फर्मों की महँगी सेवाएं नहीं ले सकते, उनकी आवाजें और मुद्दे कारपोरेट मीडिया में सुनाई और दिखाई नहीं देते हैं.
यही नहीं, कारपोरेट मीडिया के इस अवांछित प्रभाव का नुकसान यह भी हुआ है कि सरकारें उनकी बंधक सी हो गईं हैं. हाल के महीनों में जिस तरह से ब्रिटेन में रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य और उसके अत्यधिक राजनीतिक प्रभाव की रिपोर्टें सामने आईं हैं, उससे यह साफ़ है कि मीडिया स्पेस में सिर्फ कुछ बड़ी कंपनियों के वर्चस्व का राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक नतीजा कितना घातक हो सकता है.

असल में, राजनीति जिस तरह अधिक से अधिक मीडिया संचलित (मेडीएटेड) होती जा रही है और उसमें गढ़ी हुई ‘छवियों’ की भूमिका बढ़ती जा रही है, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों की बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.

मौजूदा दौर में 24x7 लोगों तक पहुँचने, राजनीतिक एजेंडा सेट करने, छवि गढने से लेकर राजनीतिक नुकसान को कम करने (डैमेज कंट्रोल) में कारपोरेट मीडिया की बढ़ती भूमिका के कारण सरकारों, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए कारपोरेट मीडिया और उनके मालिकों को खुश रखना जरूरी हो गया है. वे उन्हें नाराज करने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.

ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि पहले ही सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अत्यधिक प्रभाव रखनेवाले मुकेश अंबानी और रिलायंस अपना मीडिया साम्राज्य खड़ा करने में कामयाब हो जाते हैं तो उसके नतीजे क्या होंगे?
याद रहे मीडिया उद्योग में होने के कई अघोषित फायदे हैं. नीरा राडिया टेप ने इस रहस्य से काफी हद तक पर्दा हटा दिया है कि बड़े कारपोरेट समूह मीडिया का अपने हित में किस तरह से इस्तेमाल करते हैं और कारपोरेट मीडिया किस तरह खुशी-खुशी इस्तेमाल होता है. मीडिया के एक सबसे ताकतवर खिलाड़ी के नाते मुकेश अंबानी और रिलायंस सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अपने प्रभाव का जमकर इस्तेमाल कर सकते हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आज से नहीं बल्कि आज़ादी के तुरंत बाद से किस तरह जूट प्रेस सरकार और राजनीतिक प्रतिष्ठान को अपने कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है.

निश्चय ही, मुकेश अंबानी और रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग में सिर्फ कारोबार के लिए नहीं आ रहे हैं. मीडिया कारोबार उनके लिए अपने विशाल औद्योगिक साम्राज्य के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने का भी माध्यम दिख रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि आम लोगों के हितों और रिलायंस के कारोबारी हितों के बीच टकराव में मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य किस ओर खड़ा होगा.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट समूहों के कारोबारी हितों के साथ आम लोगों खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, आदिवासियों और दलितों के टकराव बढ़ते ही जा रहे हैं. खासकर राष्ट्रीय और सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिज पर कब्जे और उनके अंधाधुंध दोहन के मुद्दे पर यह टकराव निर्णायक स्थिति में पहुँच चुका है.
ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.

('कथादेश' के फरवरी अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी किस्त..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा..)      

गुरुवार, फ़रवरी 23, 2012

मुकेश अम्बानी बनना चाहते हैं भारत के रुपर्ट मर्डाक

एन.डी.टी.वी, इंडिया टुडे, अमर उजाला, नई दुनिया, प्रभात खबर आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है

दूसरी किस्त
आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण में जाना पड़ा है. इसकी भी वजह यह है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रतियोगिता में आगे रहने के लिए उसने बाजार से काफी पैसा उगाहा है. इसमें दुनिया की सबसे बड़ी दस मीडिया कंपनियों में से एक वायाकाम भी शामिल है जिसके साथ संयुक्त उपक्रम में नेटवर्क-18 ने ‘कलर्स’ नामक मनोरंजन चैनल की शुरुआत की है.
लेकिन इस प्रक्रिया में नेटवर्क-18/टी.वी-18 पर 1300 करोड़ रूपये से अधिक का कर्ज भी हो गया था और साथ ही, उसे और विस्तार के लिए आगे भी और पूंजी की जरूरत थी. ऐसे में, उसने रिलायंस का दामन थामा और इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में देश की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी के सीधे प्रवेश का रास्ता खुल गया.
जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं. यहाँ तक कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं.

यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है. 

मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे. इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद जमा का 10 फीसदी भी मीडिया और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी कंपनियों को खरीद सकता है.
इसमें कोई शक नहीं है कि मुकेश अंबानी का इरादा 4 जी ब्राडबैंड सेवा में सबसे बड़े खिलाड़ी बनने के जरिये एक ओर दूरसंचार के बेहद लुभावने कारोबार में पैठ बनाने का है और दूसरी ओर, उसे मीडिया उद्योग से जोड़कर मनोरंजन कारोबार पर कब्ज़ा जमाने का है.
असल में, मुकेश अंबानी और रिलायंस की दूरसंचार और मीडिया/मनोरंजन उद्योग पर बहुत पहले से नजर है. रिलायंस की सहयोगी कंपनी इंफोटेल ब्राडबैंड ने पिछले साल 13000 करोड़ रूपये चुकाकर 4 जी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय लाइसेंस लिया है और उसकी योजना है कि वह उपभोक्ताओं को 3500 रूपये की सस्ती टैबलेट उपलब्ध कराएगा, जिसपर ब्राडबैंड के जरिये इंटरनेट से लेकर वीडियो/टी.वी/फिल्म जैसी सभी सेवाएं सस्ती दर पर उपलब्ध होंगी.

यही नहीं, रिलायंस के पास आई.पी.एल की मुंबई इंडियन टीम है. वह इसीलिए खेल के चैनल और साथ ही, केबल नेटवर्क कंपनियों को भी खरीदने की कोशिश में है.

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है. उदाहरण के लिए, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है.
वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है. ऐसे कई और उदाहरण हैं.
दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये गड़प कर लिया है.

असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.               

संकेत साफ़ है. भारत में भी मीडिया और मनोरंजन उद्योग में रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी के उतरने और स्टार नेटवर्क जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनी (रूपर्ट मर्डोक के न्यूज इंटर-नेशनल की उपांग) की सक्रियता के अलावा बेनेट कोलमैन, जी नेटवर्क और सन नेटवर्क जैसे बड़े और प्रभावशाली खिलाडियों की मौजूदगी के कारण बड़े उथल-पुथल से इनकार नहीं किया जा सकता है.
सच पूछिए तो मीडिया उद्योग में रिलायंस के नेटवर्क-18 और इनाडु समूह के साथ हुए डील के बाद जिस तरह से बेनेट कोलमैन (टाइम्स समूह) खेल चैनल निम्बस को खरीदने की कोशिश कर रहा है या स्टार क्षेत्रीय चैनलों को खरीदने में जुटा हुआ है, उसे देखते हुए हैरानी नहीं होगी कि आनेवाले महीनों में ऐसे कई और बड़े सौदों की घोषणा हो.
इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, एन.डी.टी.वी समूह, इंडिया टुडे समूह, अमर उजाला समूह, नई दुनिया समूह, प्रभात खबर समूह आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है.

("कथादेश" के फरवरी'१२ अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...इंतज़ार कीजिये तीसरी और आखिरी किस्त का...)

बुधवार, फ़रवरी 22, 2012

आखिर मुकेश अम्बानी का इरादा क्या है?

मीडिया का बढ़ता कारपोरेटीकरण और संकेन्द्रण : लोकतंत्र और टी.वी उद्योग के लिए रिलायंस-टी.वी 18 डील के मायने


भारतीय मीडिया और खासकर टी.वी उद्योग के लिए वर्ष २०१२ की शुरुआत बहुत धमाकेदार रही. देश में शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियों में बाजार पूंजीकरण के लिहाज से सबसे बड़ी कंपनी, मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 (मनोरंजन चैनल कलर्स और न्यूज चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन, सी.एन.बी.सी आदि) में कोई 17 अरब रूपये के निवेश का एलान करके सबको चौंका दिया.
इस डील के तहत रिलायंस के मालिकाने वाले इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 में 1700 करोड़ रूपये का निवेश किया है जिसके बदले में   टी.वी-18/नेटवर्क-18 ने इनाडु टी.वी समूह के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों को पूरी तरह और मनोरंजन चैनलों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है.

इस डील के साथ एक ही झटके में मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग की एक बड़ी खिलाड़ी बन गई है. खबरें यह भी हैं कि रिलायंस टी.वी वितरण के क्षेत्र में भी घुसने का रास्ता तलाश रही है और उसकी कई वितरण कंपनियों से उनके अधिग्रहण के लिए सौदा पटाने की कोशिश कर रही है. इसके अलावा वह कुछ खेल चैनलों को भी अधिग्रहीत करने के प्रयास में भी है. उल्लेखनीय है कि
रिलायंस आई.पी.एल क्रिकेट में सबसे महँगी टीमों में से एक मुंबई इंडियन की भी मालिक है. इसके अलावा रिलायंस को पूरे भारत में चौथी पीढ़ी (4 जी) ब्राडबैंड सेवाएं उपलब्ध करने का भी लाइसेंस मिल गया है.
असल में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग खासकर समाचार मीडिया और टी.वी उद्योग में मुकेश अंबानी की रिलायंस की दिलचस्पी किसी से छुपी नहीं है. 80 के दशक के आखिरी वर्षों में अंबानी ने ‘बिजनेस एंड पोलिटिकल ऑब्जर्वर’ अखबार शुरू किया था. हालांकि वह अखबार कई कारणों से नहीं चल पाया लेकिन इससे मीडिया में रिलायंस की दिलचस्पी कम नहीं हुई.
अलबत्ता, उन्होंने उसके बाद सीधे और सामने से किसी मीडिया कंपनी और उसके अखबार या चैनल में पूंजी निवेश करने के बजाय पीछे से उसे नियंत्रित करने की रणनीति अपनाई. माना जाता है कि परोक्ष रूप से देश के कई अखबारों और न्यूज चैनलों में उनका पैसा लगा हुआ है.

लेकिन रिलायंस के ताजा फैसले से जाहिर है कि मुकेश अंबानी की तैयारी अब नेपथ्य से मीडिया की राजनीतिक-रणनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय खुद उसके एक बड़े खिलाड़ी की तरह खेल में उतरने की है.
हालांकि यह डील खुद में बहुत जटिल प्रक्रिया के जरिये पूरी होगी और उसकी बारीकियां अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके जरिये मुकेश अंबानी की नेटवर्क18 में कोई 44 फीसदी और टी.वी18 में 28.5 फीसदी हिस्सेदारी होगी और वे इन कंपनियों में अकेले सबसे बड़े हिस्सेदार होंगे. तात्पर्य यह कि वे इन कंपनियों के वास्तविक मालिक होंगे.         
लेकिन खुद रिलायंस समूह का दावा है कि नेटवर्क18/टी.वी.18 समूह और उसके जरिये इनाडु टी.वी समूह पर मालिकाने के पीछे उसका एकमात्र मकसद अपने 4 जी ब्राडबैंड सेवा के लिए कंटेंट जुटाना है. इस डील के बाद रिलायंस का इन दोनों मीडिया समूहों के टी.वी चैनलों के कंटेंट और उनके अन्य मीडिया उत्पादों पर अधिकार होगा जिसे वह अपने ब्राडबैंड सेवा के ग्राहकों को लुभाने के लिए इस्तेमाल करेगी.
यही नहीं, रिलायंस समूह ने यह भी सफाई दी है कि इस डील के बाद भी नेटवर्क18/टी.वी18 के प्रबंधन, संचालन और संपादकीय नीति में कोई बदलाव नहीं होगा और वह उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. इसके लिए रिलायंस एक ‘स्वतंत्र’ ट्रस्ट- इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट गठित कर रहा है जिसमें कंपनी के मालिकों और प्रबंधकों के बजाय ‘जाने-माने लोग’ ट्रस्टी होंगे. रिलायंस इसी ट्रस्ट के जरिये नेटवर्क18/टी.वी18 में निवेश कर रहा है.

लेकिन रिलायंस के अतीत और मीडिया व्यवसाय में व्यवसाय से इतर कारणों से उसकी गहरी दिलचस्पी को देखते हुए उसके इस दावे पर भरोसा करना मुश्किल है. यह सही है कि मुकेश अंबानी और रिलायंस को अब मीडिया और मनोरंजन उद्योग में व्यवसाय की दृष्टि से भी बेहतर संभावनाएं दिखने लगी हैं और रिलायंस के विस्तार के नए क्षेत्रों में मीडिया व्यवसाय भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग का जिस गति और पैमाने पर विस्तार हुआ है, उसके कारण कई बड़े उद्योग और कारोबारी समूहों की उसमें दिलचस्पी बढ़ी है.

असल में, पिछले वर्ष की फिक्की-के.पी.एम.जी मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया उद्योग 2009 में 587 अरब रूपये का था जो 11 फीसदी की वृद्धि दर के साथ बढ़कर वर्ष 2010 में 652 अरब रूपये का हो गया. इस रिपोर्ट का अनुमान है कि पिछले साल कोई 13 फीसदी की बढोत्तरी के साथ इसका आकार बढ़कर 738 अरब रूपये हो जाएगा.
यही नहीं, इस रिपोर्ट का यह भी आकलन है कि भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग आनेवाले वर्षों में औसतन 14 फीसदी सालाना की वृद्धि दर के साथ वर्ष 2015 में लगभग 1275 अरब रूपये का विशाल उद्योग हो जाएगा.

साफ़ है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है. इसके साथ ही, इसमें दांव ऊँचे और बड़े होते जा रहे हैं. स्वाभाविक तौर पर इसके विस्तार के साथ इसमें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दिलचस्पी भी बढ़ रही है.
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आमतौर पर छोटी-मंझोली पूंजी के इस असंगठित उद्योग में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई मीडिया कंपनियों ने शेयर बाजार से पूंजी उठाई है और उनमें देशी-विदेशी निवेशकों ने पैसा लगाया है. आज ऐसी दर्जनों मीडिया कंपनियां हैं जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और जिनमें देशी-विदेशी पूंजी लगी हुई है. इनमें से कुछ कम्पनियाँ परंपरागत मीडिया कम्पनियाँ हैं जो पिछले कई दशकों से समाचारपत्र और फिल्म कारोबार में सक्रिय थीं.
लेकिन इनमें कई कम्पनियाँ खासकर टी.वी कम्पनियाँ ऐसी हैं जो नब्बे के दशक में टी.वी उद्योग के विस्तार के साथ पैदा हुईं और तेजी से फली-फूली हैं. उनके विस्तार में बड़ी पूंजी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. बड़ी पूंजी के प्रवेश के साथ ये कम्पनियाँ जिनमें कई आठ-दस साल पहले तक छोटी प्रोडक्शन कंपनी या एक खास इलाके तक सीमित समाचारपत्र कंपनी थीं, कुछ ही सालों में बड़ी कंपनियों में बदल गईं.
इनमें से कई का बाजार पूंजीकरण यानि बाजार भाव हजारों करोड़ रूपये का है. उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी, कलानिधि मारन की सन नेटवर्क का बाजार पूंजीकरण 11700 करोड़ रूपये है जबकि दूसरी बड़ी कंपनी जी इंटरटेन्मेंट का बाजार पूंजीकरण 11367 करोड़ रूपये है. (19 जनवरी’12 की शेयर कीमतों पर)
इसी तरह टी.वी-18 का बाजार पूंजीकरण लगभग 1122 करोड़ रूपये है जबकि यह कंपनी डेढ़-दो दशकों पहले तक एक छोटी सी प्रोडक्शन हाउस थी. इसके अलावा टी.वी टुडे (आज तक और हेडलाइंस टुडे आदि) का बाजार पूंजीकरण 350 करोड़ रूपये, एन.डी.टी.वी (एन.डी.टी.वी-24x7, एन.डी.टी.वी-इंडिया आदि) का 279 करोड़ रूपये और जी. न्यूज का 273 करोड़ रूपये है.
कई समाचारपत्र कम्पनियाँ भी शेयर बाजार में लिस्टेड हैं जिनमें जागरण प्रकाशन (बाजार पूंजीकरण 3094 करोड़ रूपये), डेक्कन क्रानिकल (874 करोड़ रूपये), दैनिक भास्कर-डी.बी कार्प (3390 करोड़ रूपये) और एच.टी मीडिया (3084 करोड़ रूपये) शामिल हैं.
हालांकि बेनेट कोलमैन (टाइम्स आफ इंडिया समूह), स्टार नेटवर्क, हिंदू समूह, आनंद बाजार पत्रिका समूह सहित देश की कई बड़ी मीडिया कम्पनियाँ अभी भी शेयर बाजार में लिस्टेड नहीं हैं लेकिन मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आनेवाले वर्षों में देर-सबेर इनमें से अधिकांश शेयर बाजार में आएँगी और लिस्टेड कंपनी होंगी.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जिस तरह से गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ रही है और दांव ऊँचे से ऊँचे होते जा रहे हैं, उसमें अधिकांश कंपनियों के लिए बड़ी पूंजी की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

('कथादेश' के फरवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त..बाकी बातें अगले दो किस्तों में..)

मंगलवार, जनवरी 24, 2012

लोकतंत्र और मीडिया उद्योग के लिए रिलायंस-टी.वी 18 डील के निहितार्थ

मीडिया का बढ़ता कारपोरेटीकरण और उसके मायने




भारतीय मीडिया और खासकर टी.वी उद्योग में इन दिनों खासी हलचल है. वर्ष २०१२ की शुरुआत बहुत धमाकेदार रही. देश में शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियों में बाजार पूंजीकरण के लिहाज से सबसे बड़ी कंपनी, मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 (मनोरंजन चैनल कलर्स और न्यूज चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन, सी.एन.बी.सी आदि) में कोई 17 अरब रूपये के निवेश का एलान करके सबको चौंका दिया.

इस डील के तहत रिलायंस के मालिकाने वाले इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 में 1700 करोड़ रूपये का निवेश किया है जिसके बदले में टी.वी-18/नेटवर्क-18 ने इनाडु टी.वी समूह के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों को पूरी तरह और मनोरंजन चैनलों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है.

इस डील के साथ एक ही झटके में मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग की एक बड़ी खिलाड़ी बन गई है. खबरें यह भी हैं कि रिलायंस टी.वी वितरण के क्षेत्र में भी घुसने का रास्ता तलाश रही है और उसकी कई वितरण कंपनियों से उनके अधिग्रहण के लिए सौदा पटाने की कोशिश कर रही है.

इसके अलावा वह कुछ खेल चैनलों को भी अधिग्रहीत करने के प्रयास में भी है. उल्लेखनीय है कि रिलायंस आई.पी.एल क्रिकेट में सबसे महँगी टीमों में से एक मुंबई इंडियन की भी मालिक है. इसके अलावा रिलायंस को पूरे भारत में चौथी पीढ़ी (4 जी) ब्राडबैंड सेवाएं उपलब्ध करने का भी लाइसेंस मिल गया है.

रिलायंस के ताजा फैसले से जाहिर है कि मुकेश अंबानी की तैयारी अब नेपथ्य से मीडिया की राजनीतिक-रणनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय खुद उसके एक बड़े खिलाड़ी की तरह खेल में उतरने की है.

हालांकि यह डील खुद में बहुत जटिल प्रक्रिया के जरिये पूरी होगी और उसकी बारीकियां अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके जरिये मुकेश अंबानी की नेटवर्क18 में कोई 44 फीसदी और टी.वी18 में 28.5 फीसदी हिस्सेदारी होगी और वे इन कंपनियों में अकेले सबसे बड़े हिस्सेदार होंगे. तात्पर्य यह कि वे इन कंपनियों के वास्तविक मालिक होंगे.

साफ़ है कि मुकेश अंबानी और रिलायंस को अब मीडिया और मनोरंजन उद्योग में व्यवसाय की दृष्टि से भी बेहतर संभावनाएं दिखने लगी हैं और रिलायंस के विस्तार के नए क्षेत्रों में मीडिया व्यवसाय भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है.

पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग का जिस गति और पैमाने पर विस्तार हुआ है, उसके कारण कई बड़े उद्योग और कारोबारी समूहों की उसमें दिलचस्पी बढ़ी है. पिछले वर्ष की फिक्की-के.पी.एम.जी मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया उद्योग 2009 में 587 अरब रूपये का था जो 11 फीसदी की वृद्धि दर के साथ बढ़कर वर्ष 2010 में 652 अरब रूपये का हो गया.

इस रिपोर्ट का अनुमान है कि पिछले साल कोई 13 फीसदी की बढोत्तरी के साथ इसका आकार बढ़कर 738 अरब रूपये हो जाएगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट का यह भी आकलन है कि भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग आनेवाले वर्षों में औसतन 14 फीसदी सालाना की वृद्धि दर के साथ वर्ष 2015 में लगभग 1275 अरब रूपये का विशाल उद्योग हो जाएगा. साफ़ है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है. इसके साथ ही, इसमें दांव ऊँचे और बड़े होते जा रहे हैं.

स्वाभाविक तौर पर इसके विस्तार के साथ इसमें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दिलचस्पी भी बढ़ रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आमतौर पर छोटी-मंझोली पूंजी के इस असंगठित उद्योग में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई मीडिया कंपनियों ने शेयर बाजार से पूंजी उठाई है और उनमें देशी-विदेशी निवेशकों ने पैसा लगाया है.

आज ऐसी दर्जनों मीडिया कंपनियां हैं जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और जिनमें देशी-विदेशी पूंजी लगी हुई है. इनमें से कुछ कम्पनियाँ परंपरागत मीडिया कम्पनियाँ हैं जो पिछले कई दशकों से समाचारपत्र और फिल्म कारोबार में सक्रिय थीं.

मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आनेवाले वर्षों में देर-सबेर इनमें से अधिकांश शेयर बाजार में आएँगी और लिस्टेड कंपनी होंगी. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जिस तरह से गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ रही है और दांव ऊँचे से ऊँचे होते जा रहे हैं, उसमें अधिकांश कंपनियों के लिए बड़ी पूंजी की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण में जाना पड़ा है. जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं.

यहाँ तक कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं. यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है.

मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे.

इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद जमा का 10 फीसदी भी मीडिया और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी कंपनियों को खरीद सकता है. यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है.

उदाहरण के लिए, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है. वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है.

ऐसे कई और उदाहरण हैं. दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये गड़प कर लिया है.

असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.

इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा नहीं हैं.

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे हैं.

स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.

मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा. यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों.

इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों. जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.

लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.

यही नहीं, यह भी देखा गया है कि प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती है.

यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे मुनाफे के लिए मीडिया और पत्रकारिता के मूल्यों और उसूलों को तोड़ने में हिचकते नहीं हैं. ऊँचे दांव के कारण बड़ा कारपोरेट मीडिया अकसर सत्ता और दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.

असल में, मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं. उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.

यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अख़बारों/चैनलों का पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं.

आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.

ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.

('राजस्थान पत्रिका' के २२ जनवरी'१२ के अंक में रविवारी संस्करण में प्रकाशित लेख का असंपादित पूर्ण संस्करण...इस मुद्दे पर और विस्तार से पढने के लिए कृपया, 'कथादेश' के फरवरी'१२ अंक में स्तम्भ 'इलेक्टानिक मीडिया' देखें..)