लेकिन लोकतंत्र के लिए जरूरी है मीडिया में बहुलता और विविधता
तीसरी और आखिरी किस्त
स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.
मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा.
यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों. इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों.
जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.
आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.
इस बारे में नोम चोमस्की/एडवर्ड हरमन ने प्रोपेगंडा माडल और ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ में विस्तार से बताया है कि कैसे कारपोरेट मीडिया एक ओर व्यवस्था/सत्ता विरोधी सूचनाओं/विचारों को रोकता है और दूसरी ओर, एक फर्जी सहमति का निर्माण करता है.
यही नहीं, कारपोरेट मीडिया के इस अवांछित प्रभाव का नुकसान यह भी हुआ है कि सरकारें उनकी बंधक सी हो गईं हैं. हाल के महीनों में जिस तरह से ब्रिटेन में रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य और उसके अत्यधिक राजनीतिक प्रभाव की रिपोर्टें सामने आईं हैं, उससे यह साफ़ है कि मीडिया स्पेस में सिर्फ कुछ बड़ी कंपनियों के वर्चस्व का राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक नतीजा कितना घातक हो सकता है.
असल में, राजनीति जिस तरह अधिक से अधिक मीडिया संचलित (मेडीएटेड) होती जा रही है और उसमें गढ़ी हुई ‘छवियों’ की भूमिका बढ़ती जा रही है, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों की बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.
मौजूदा दौर में 24x7 लोगों तक पहुँचने, राजनीतिक एजेंडा सेट करने, छवि गढने से लेकर राजनीतिक नुकसान को कम करने (डैमेज कंट्रोल) में कारपोरेट मीडिया की बढ़ती भूमिका के कारण सरकारों, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए कारपोरेट मीडिया और उनके मालिकों को खुश रखना जरूरी हो गया है. वे उन्हें नाराज करने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.
निश्चय ही, मुकेश अंबानी और रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग में सिर्फ कारोबार के लिए नहीं आ रहे हैं. मीडिया कारोबार उनके लिए अपने विशाल औद्योगिक साम्राज्य के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने का भी माध्यम दिख रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि आम लोगों के हितों और रिलायंस के कारोबारी हितों के बीच टकराव में मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य किस ओर खड़ा होगा.
तीसरी और आखिरी किस्त
यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि
मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी
थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया
कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे
हैं.
हिंदी क्षेत्रों में बड़े अखबार समूहों से प्रतियोगिता में बिहार में
आर्यावर्त, प्रदीप, पाटलिपुत्र टाइम्स, जनशक्ति जैसे अखबार बंद हो गए, उत्तर
प्रदेश में आज, स्वतंत्र भारत, अमृत प्रभात, जनवार्ता, स्वतंत्र चेतना और जनमोर्चा
जैसे आधा दर्जन अखबार या तो बंद हो गए या मरणासन्न स्थिति में हैं,
मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ में नई दुनिया और देशबंधु की स्थिति अच्छी नहीं है जबकि
राजस्थान में नवज्योति जैसे अख़बारों की स्थिति बिगड़ती जा रही है.
इसी तरह टी.वी उद्योग में भी मनोरंजन
क्षेत्र में स्टार, जी, कलर्स, सन नेटवर्क और न्यूज में टाइम्स टी.वी, टी.वी.टुडे,
स्टार न्यूज और टी.वी-18 को छोडकर बाकी
चैनलों के लिए लंबे समय तक प्रतियोगिता में टिके रहना मुश्किल होगा. स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.
मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा.
यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों. इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों.
जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.
यही नहीं, यह भी देखा गया है कि
प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के
स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती
है. यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे अकसर सत्ता और
दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.
मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ
यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी
गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के
सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं.
उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.
यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में
जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए
अख़बारों/चैनलों का
पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का
मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से
इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं. आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.
कारपोरेट मीडिया की रिपोर्टों से कई बार
ऐसा भ्रम पैदा होता है कि देश में सारी समस्याओं और गडबडियों खासकर भ्रष्टाचार की
जड़ में केवल नेता, राजनीतिक दल और नौकरशाही है. लेकिन सच यह है कि भ्रष्टाचार के
मामले में वे सिर्फ मांग पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि कारपोरेट क्षेत्र
आपूर्ति पक्ष है.
अगर पैसा देनेवाला नहीं होगा तो पैसा लेनेवाले को भ्रष्ट होने का
मौका नहीं मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट क्षेत्र नियमों/कानूनों को
तोड़कर अपने हितों को आगे बढ़ाने के बदले में ही नेताओं/अफसरों को पैसा देता है. यही
नहीं, कारपोरेट क्षेत्र का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह अपने आर्थिक हितों को आगे
बढ़ाने के लिए मनोनुकूल नीतियां और कानून भी बनवाने में कामयाब हो रहा है.
लेकिन कारपोरेट मीडिया इन मुद्दों पर
आमतौर पर चुप्प रहता है या बड़ी पूंजी के पक्ष में खुलकर जनमत बनाता और लाबीइंग
करता है. यही नहीं, कारपोरेट मीडिया एक तरह से उस छलनी की तरह काम करता है जो
सत्ता और व्यवस्था विरोधी या उसके हितों को नुकसान पहुंचानेवाले कंटेंट को लोगों
तक नहीं पहुँचने देता है. इस बारे में नोम चोमस्की/एडवर्ड हरमन ने प्रोपेगंडा माडल और ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ में विस्तार से बताया है कि कैसे कारपोरेट मीडिया एक ओर व्यवस्था/सत्ता विरोधी सूचनाओं/विचारों को रोकता है और दूसरी ओर, एक फर्जी सहमति का निर्माण करता है.
कारपोरेट मीडिया की बढ़ती ताकत के साथ हाल
के वर्षों में एक और बड़ी चिंता उभर कर सामने आई है. यह अनुभव किया जा रहा है कि
दुनिया के कई विकसित देशों में बड़ी पूंजी के साथ नाभिनालबद्ध कारपोरेट मीडिया की
ताकत और प्रभाव के आगे वहां की चुनी हुई सरकारें भी घुटने टेक चुकी हैं और उन्हें
खुश करने में लगी रहती हैं.
इस कारण कारपोरेट मीडिया का नीति निर्माण और
महत्वपूर्ण फैसलों में भी हस्तक्षेप बढ़ा है. तथ्य यह है कि वे ही सरकारों का
एजेंडा निर्धारित करने लगे हैं. इसके साथ ही, कारपोरेट मीडिया को प्रभावित करने और
उसका अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए एक विशाल जनसंपर्क और लाबीइंग उद्योग का
जन्म और प्रसार हुआ है.
लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि
उन वर्गों और समुदायों की जिनकी बड़े कारपोरेट मीडिया तक पहुँच नहीं है या जो बड़ी
जनसंपर्क कंपनियों और लाबीइंग फर्मों की महँगी सेवाएं नहीं ले सकते, उनकी आवाजें
और मुद्दे कारपोरेट मीडिया में सुनाई और दिखाई नहीं देते हैं. यही नहीं, कारपोरेट मीडिया के इस अवांछित प्रभाव का नुकसान यह भी हुआ है कि सरकारें उनकी बंधक सी हो गईं हैं. हाल के महीनों में जिस तरह से ब्रिटेन में रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य और उसके अत्यधिक राजनीतिक प्रभाव की रिपोर्टें सामने आईं हैं, उससे यह साफ़ है कि मीडिया स्पेस में सिर्फ कुछ बड़ी कंपनियों के वर्चस्व का राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक नतीजा कितना घातक हो सकता है.
असल में, राजनीति जिस तरह अधिक से अधिक मीडिया संचलित (मेडीएटेड) होती जा रही है और उसमें गढ़ी हुई ‘छवियों’ की भूमिका बढ़ती जा रही है, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों की बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.
मौजूदा दौर में 24x7 लोगों तक पहुँचने, राजनीतिक एजेंडा सेट करने, छवि गढने से लेकर राजनीतिक नुकसान को कम करने (डैमेज कंट्रोल) में कारपोरेट मीडिया की बढ़ती भूमिका के कारण सरकारों, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए कारपोरेट मीडिया और उनके मालिकों को खुश रखना जरूरी हो गया है. वे उन्हें नाराज करने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.
ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता
है कि पहले ही सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अत्यधिक प्रभाव रखनेवाले मुकेश अंबानी
और रिलायंस अपना मीडिया साम्राज्य खड़ा करने में कामयाब हो जाते हैं तो उसके नतीजे
क्या होंगे?
याद रहे मीडिया उद्योग में होने के कई अघोषित फायदे हैं. नीरा राडिया
टेप ने इस रहस्य से काफी हद तक पर्दा हटा दिया है कि बड़े कारपोरेट समूह मीडिया का
अपने हित में किस तरह से इस्तेमाल करते हैं और कारपोरेट मीडिया किस तरह खुशी-खुशी
इस्तेमाल होता है. मीडिया के एक सबसे ताकतवर खिलाड़ी के नाते मुकेश अंबानी और
रिलायंस सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अपने प्रभाव का जमकर इस्तेमाल कर सकते हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आज से नहीं
बल्कि आज़ादी के तुरंत बाद से किस तरह जूट प्रेस सरकार और राजनीतिक प्रतिष्ठान को
अपने कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है. निश्चय ही, मुकेश अंबानी और रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग में सिर्फ कारोबार के लिए नहीं आ रहे हैं. मीडिया कारोबार उनके लिए अपने विशाल औद्योगिक साम्राज्य के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने का भी माध्यम दिख रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि आम लोगों के हितों और रिलायंस के कारोबारी हितों के बीच टकराव में मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य किस ओर खड़ा होगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट
समूहों के कारोबारी हितों के साथ आम लोगों खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, आदिवासियों
और दलितों के टकराव बढ़ते ही जा रहे हैं. खासकर राष्ट्रीय और सार्वजनिक संसाधनों-
जल, जंगल, जमीन और खनिज पर कब्जे और उनके अंधाधुंध दोहन के मुद्दे पर यह टकराव
निर्णायक स्थिति में पहुँच चुका है.
ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी
देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी
स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.
('कथादेश' के फरवरी अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी किस्त..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा..)