कांग्रेस पार्टी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कांग्रेस पार्टी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, मई 16, 2014

जनतंत्र के हक़ में है कांग्रेस का जाना

धर्मनिरपेक्षता कुशासन और नाकामियों को छिपाने का हथियार नहीं है और लोकतंत्र में जवाबदेही तय होनी चाहिए

कांग्रेस का राजनीतिक रूप से लगभग सफ़ाया हो गया़ है. वह ऐतिहासिक हार की ओर बढ़ रही है. हालाँकि यह बहुत पहले ही तय हो चुका था. इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. कांग्रेस नेता भी कमोबेश इस नियति को स्वीकार कर चुके थे. लेकिन कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार होगी, यह आशंका कांग्रेस नेताओं और उससे सहानुभूति रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भी नहीं थी.

कांग्रेस की हार की वजह भी यही है. उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी लेकिन उसके नेताओं को या तो पता नहीं था या फिर अपने अहंकार और चापलूसी की संस्कृति के कारण वे उसे देखने को तैयार नहीं थे. कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी इस ऐतिहासिक हार के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है. उसके नेतृत्व की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अंधभक्ति का यही हश्र होना था.

दरअसल, कांग्रेस को यूपीए सरकार के राज में बढ़ते भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबों को राहत पहुँचाने में उसकी नाकामियों की सज़ा मिली है. यह जनतंत्र के हक़ में है. जनतंत्र में सरकार की नाकामियों और कुशासन की क़ीमत पार्टियों को चुकानी ही चाहिए. कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की तमाम नाकामियों और कुशासन के बावजूद अगर कांग्रेस की जीत होती तो कांग्रेस के अहंकार पता नहीं किस आसमान पर पहुँच जाता? क्या वह कारपोरेट लूट और नव उदारवादी नीतियों के लिए जनादेश की तरह व्याख्या नहीं करती?

इस अर्थ में यह फ़ैसला जनतंत्र के हक़ में है. कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों ने अपनी नाकामियों और कुशासन को 'धर्मनिरपेक्षता' की आड़ में छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोग इस झाँसे में नहीं आए. यह धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि साफ़ तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को लोगों के रोज़ी-रोटी के मुद्दों से काटकर सिर्फ सत्ता के लिए भुनाने की राजनीति की नाकामी है.

यह उन सभी बुद्धिजीवियों के लिए एक सबक़ है जो कांग्रेस और सपा-राजद जैसी पार्टियों के सीमित, संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति के भरोसे सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वकालत करते हैं. साफ़ है कि सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला एक नई और बेहतर जनोन्मुखी राजनीति ही कर सकती है.


मंगलवार, मई 13, 2014

क्या यह कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है?

यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है
 
एक्ज़िट पोल और ओपिनियन पोल के नतीजों के बारे जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा है. पिछले दो आम चुनावों में उनके अनुमान लगातार ग़लत साबित हुए हैं. इसे ध्यान में रखते हुए २०१४ के आम चुनावों के बारे में विभिन्न चैनलों के एक्ज़िट पोल के अनुमानों में जिस तरह से बीजेपी और एनडीए को बहुमत दे दिया गया है, उसपर हैरानी नहीं होनी चाहिए. 

लेकिन चर्चा और बहस के लिए एक क्षण के वास्ते इसके रुझानों को सही मान लिया जाए तो इसके क्या मायने है? इसके  कुछ मोटे मतलब तो बिल्कुल साफ़ हैं:

१. यह यूपीए ख़ासकर कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है. कांग्रेस का जिस तरह से पूरे देश से सफ़ाया हो रहा है और वह ऐतिहासिक पराजय की ओर बढ़ रही है, उससे साफ़ है कि लोगों ने बढ़ते भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, महँगाई और बेरोज़गारी के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसे राजनीतिक रूप से बिल्कुल हाशिए पर ढकेल दिया है. 

२. निश्चित तौर पर यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है. कारपोरेट्स ने जिस तरह से भाजपा/एनडीए और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर दाँव लगाया, पानी की तरह पैसा बहाया है और उसके नेतृत्व में कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह से मोदी की एक 'विकासपुरूष, निर्णायक फ़ैसला करनेवाला और सख़्त प्रशासक' की छवि गढ़ी है, उससे लगता है कि कारपोरेट्स और कारपोरेट्स मीडिया के गठजोड़ ने भारतीय लोकतंत्र में जनमत को तोड़ने-मरोड़ने (मैनुपुलेट) करने में निर्णायक बढ़त हासिल कर ली है.

३. यह मोदी को आगे करके ९० के दशक के रामजन्मभूमि अभियान के बाद पहली बार हिंदुत्व की राजनीति को एक बड़ी उछाल देने और उत्तर और पश्चिम भारत के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसे पूर्वी और दक्षिण भारत में घुसने, अपने बल पर ख़ुद को खड़ा करने और अपने फुटप्रिंट को बढ़ाने की आरएसएस के प्रोजेक्ट की पहली बड़ी और गंभीर कोशिश के रूप में भी देखा जाना चाहिए. उसने जिस तरह से विकास के छद्म के पीछे हिंदू ध्रुवीकरण का इस्तेमाल किया है, वह आरएसएस की बड़ी कामयाबी है. 

४. यह रोज़ी-रोटी और बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य के बुनियादी मुद्दों से काटकर सिर्फ जातियों के जोड़तोड़ से सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ने या कांग्रेस/सपा/बसपा/राजद के भरोसे सांप्रदायिकता से लड़ने की राजनीति की सीमाओं को भी उजागर कर रहा है.

फ़िलहाल इतना ही. बाक़ी विस्तार से जल्दी ही. 

रविवार, मई 11, 2014

बनारस की लड़ाई में बहुलतावादी भारत का विचार दांव पर लगा हुआ है

उत्तर प्रदेश में 90 के दशक की जहरीली सांप्रदायिक और सामंती दबदबे की राजनीति पैर जमाने की कोशिश कर रही है

बनारस की लड़ाई अपने आखिरी दौर में पहुँच गई है. बनारस में बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है. पूरे देश की निगाहें इस ऐतिहासिक शहर पर लगी हुई हैं. कारण साफ़ है. यह सिर्फ एक और वी.आई.पी सीट की लड़ाई नहीं है और न ही कोई स्थानीय मुद्दों पर हो रहा मुकाबला है. यह न तो गंगा को साफ़ करने और बचाने की जद्दोजहद है और न ही शहर को आध्यात्मिक नगर के रूप में पहचान दिलाने का चुनाव है. यह न तो चिकनी सड़क और २४ घंटे बिजली के लिए संघर्ष है और न ही बनारस को पेरिस या लन्दन बनाने की चाह का मुकाबला है. अगर ये मुद्दे कहीं थे भी तो अब पृष्ठभूमि में जा चुके हैं.     

यह बनारस में गंगा से ज्यादा गंगा-जमुनी संस्कृति और इस शहर की वह आत्मा को बचाने की लड़ाई हो रही है. यह इस शहर की सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक विविधता, अनेकता और बहुलता को बनाए रखने की लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ इस ऐतिहासिक शहर की आत्मा की लड़ाई नहीं है. दरअसल, बनारस की विविधता और बहुलता के बहाने यह ‘भारत’ के उस विचार के झंडे को बुलंद रखने की लड़ाई है जो अपनी सांस्कृतिक, वैचारिक, राजनीतिक विविधता और बहुलता पर गर्व करता है और जो हर तरह की और खासकर हिंदुत्व की संकीर्ण-पुनरुत्थानवादी से लेकर सामंती-फासीवादी धार्मिक पहचान से लड़ता आया है.
बनारस की इस लड़ाई में सामाजिक-आर्थिक समता और बराबरी पर आधारित एक आधुनिक, प्रगतिशील, समतामूलक, बहुलतावादी और भविष्योन्मुखी भारत का सपना दाँव पर लगा हुआ है. यह वह सपना है जिसे आज़ादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने देखा था. कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के पिछले ६७ सालों में इस सपने को मारने और खत्म करने की अनेकों कोशिशें की गईं हैं. लेकिन यह सपना जिन्दा है उन हजारों जनांदोलनों में जहाँ इस देश के गरीब आज भी अपने हक-हुकूक और एक बेहतर समाज और देश बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

आज अगर देश में लोकतंत्र जिन्दा है तो इन्हीं छोटी-बड़ी लड़ाइयों के कारण जिन्दा है. लोकतंत्र सिर्फ़ पांच साला चुनावों से नहीं, जनांदोलनों और आमलोगों की सक्रिय राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी से चलता है. लेकिन बनारस में यह लड़ाई दाँव पर है. बनारस में एक ओर हिंदुत्व की झंडाबरदार वे सांप्रदायिक ताकतें हैं जो देश को ‘विकास और सुशासन’ का सपना दिखाकर मध्ययुग में वापस ले जाना चाहती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि बनारस और पूरे उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ८० और ९० के दशक की जहरीली और आक्रामक सांप्रदायिक भाषा वापस लौट आई है. उसी तरह के जहरीले नारे, तेवर और तनाव के बीच नफरत का बुखार सिर चढ़कर बोल रहा है. यह राजनीति उत्तर प्रदेश को दो दशक पीछे खींच ले जाना चाहती है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के उभार के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यू.पी.ए गठबंधन खासकर कांग्रेस है जिसकी केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी रोकने में नाकाम रही है. हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति उसकी इन्हीं नाकामियों का फायदा उठाकर एक नई राजनीतिक वैधता और जन-समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है.

उसकी इन कोशिशों को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की नाकामियों, जनता की बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा न उतरने और जातिवादी-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संकीर्ण राजनीति से लाभ उठाने की हताश कोशिशों से बहुत मदद मिली है. यही नहीं, बहुजन समाज पार्टी की वह अवसरवादी और सिनिकल जातिवादी राजनीति भी उतार पर है जिसकी सीमाएं और अंतर्विरोध साफ़ दिखने लगी हैं और जिसके पास सामाजिक-आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का कोई सपना नहीं है.  

सच पूछिए तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस और सपा-बसपा ने मिलकर अपनी तरफ़ से उत्तर प्रदेश को भाजपा को सौंप दिया है. सच यह है कि उनके पास न तो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वैचारिक तैयारी है और न कोई प्रतिबद्धता. बिना किसी प्रगतिशील और जनोन्मुखी कार्यक्रम के जाति-संप्रदाय की गोलबंदी की संकीर्ण और सिनिकल राजनीति भी अंधे कुएं में फंस गई है. इसलिए कांग्रेस-सपा से हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति को चुनौती की कोई उम्मीद नहीं है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की अवसरवादी, सिनिकल और आमलोगों खासकर गरीबों के मुद्दों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से कटी हुई 'धर्मनिरपेक्ष राजनीति' के कारण 'धर्मनिरपेक्षता' का विचार और राजनीति दोनों गहरे संकट में फंस गई है.
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश और बनारस में अगर कोई उम्मीद बची है तो वह उन गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आम लोगों के कारण बची है जो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के पीछे छिपे खतरों को समझ रहे हैं. वे हिंदुत्व के उभार के पीछे खड़ी उन सामंती और बड़ी पूंजी की कारपोरेट ताकतों को देख रहे हैं जो पिछले दशकों की लड़ाइयों से मिले राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हकों को पलटने के लिए जोर मार रहे हैं.

वे अपने निजी अनुभवों से जानते हैं कि हिंदुत्व के इस उभार में जो सामाजिक वर्ग सबसे अधिक उछल और आक्रामक हो रहा है, वह उसके हितों के लिए लड़नेवाला नहीं बल्कि उन्हें छीनने और दबानेवाला वर्ग है. बनारस में भी हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति के पीछे खड़े चेहरों को पहचानना मुश्किल नहीं है. खासकर भगवा टोपी में दनदना रहे और विरोध और विवेक की हर आवाज़ को दबाने के लिए धमकाने से लेकर हिंसा तक का सहारा ले रहे हिंदुत्व के पैदल सैनिकों (फुट सोल्जर्स) में अच्छी-खासी तादाद उन सामंती दबंगों की है जिनकी गाली और लाठी की मार इन गरीबों और कमजोर वर्गों पर पड़ती रही है.      
क्या इससे कांग्रेस और उसके प्रत्याशी अजय राय लड़ सकते हैं? गौर करने की बात यह है कि अजय राय के साथ उसी सामंती दबंगों से बने सामाजिक आधार का तलछठ बचा हुआ है जो इस समय भाजपा का अगुवा दस्ता बना हुआ है. इसलिए उससे यह उम्मीद करना खुद को धोखे में रखना है कि वह साम्प्रदायिकता से मुकाबला करेगा और बनारस की आत्मा की हिफाजत करेगा. मजे की बात यह है कि भाजपा के नेता भी बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत कांग्रेस और अजय राय को मुकाबले में बता रहे हैं. यह भ्रम पैदा करने और विपक्ष के वोटों का बंटवारा सुनिश्चित कराने की कोशिश है. दूसरी ओर, बनारस में सपा और बसपा के प्रत्याशी पहले ही लड़ाई में हथियार डाल चुके हैं.

अच्छी बात यह है कि बनारस में लोगों के सामने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के रूप में एक मुकम्मल न सही लेकिन फौरी विकल्प है. इस लड़ाई का नतीजा चाहे जो हो लेकिन केजरीवाल ने भाजपा के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक-वैचारिक तौर पर चुनौती दी है. हालाँकि इस चुनौती की सीमाएं हैं. लेकिन खुद केजरीवाल के मैदान में उतरने से बनारस की लड़ाई एकतरफा नहीं रह गई है. उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बनारस की वैचारिक-राजनीतिक विविधता और बहुलता को पूरी तरह कुचलने की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं.    
असल में, बनारस की इस लड़ाई में केजरीवाल के साथ और स्वतंत्र तौर पर भी दर्जनों सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, जनांदोलनों, वाम-लोकतान्त्रिक छात्र-युवा संगठनों और बुद्धिजीवियों ने जो मुद्दे उठाए हैं, लोगों के बीच जाकर बात कही है और हिंदुत्व की राजनीति के खतरों पर एक राजनीतिक-वैचारिक बहस खड़ी की है, उससे बनारस में राजनीतिक माहौल बदला है. एक उम्मीद पैदा हुई है. नतीजा चाहे जो हो लेकिन बनारस में ‘भारत के विचार’ की भविष्य की लड़ाई की चुनौतियाँ और संभावनाएं एक साथ दिख रही हैं.

यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होनेवाली है. बनारस इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है. लेकिन इस लड़ाई में अभी और भी कई मोर्चे आनेवाले हैं.             

मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

राहुल मॉडल की सीमाएं उजागर और चमक फीकी पड़ चुकी है

आखिर राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी के माडलों में बुनियादी अंतर क्या है? 

अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने और विकास की गति को तेज करने को लेकर राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल की चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं.

दोनों मॉडलों में ज्यादा बुनियादी समानताओं और मामूली भाषा और शैलीगत भिन्नताओं के बावजूद राजनीतिक पंडित और स्पिन डाक्टर दोनों के बीच के बारीक फर्कों, उनकी खूबियों और कमियों को स्पष्ट करने में खूब पसीना बहा रहे हैं. खुद दोनों नेताओं ने इस फर्क को उछालने और उसपर जोर देने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है.
लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी शासक वर्ग की जिन दोनों प्रमुख और प्रतिनिधि पार्टियों की अगुवाई कर रहे हैं, उनकी वैचारिकी और अर्थनीति के केन्द्र में वही नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण और उसके जरिये हासिल की गई तेज आर्थिक वृद्धि दर को देश-समाज की सभी समस्याओं और चुनौतियों का हल मानती है.

आश्चर्य नहीं कि अपने बुनियादी चरित्र और अंतर्वस्तु में राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल में भी कोई खास अंतर नहीं है. यही कारण है कि दोनों मॉडलों को लेकर हो रही बहसों और चर्चाओं में विचारों, नीतियों, मुद्दों और कार्यक्रमों से ज्यादा उनके व्यक्तित्वों, भाषण शैलियों और अदाओं पर चर्चा हो रही है.
उदाहरण के लिए, राहुल गाँधी मॉडल को ही लीजिए जिसे नरेन्द्र मोदी मॉडल के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. सवाल यह है कि राहुल मॉडल में ऐसा नया या अनूठा क्या है जो उसे कांग्रेस या यू.पी.ए सरकार से अलग और विशिष्ट बनाता है?

हाल के महीनों में राहुल गाँधी के सार्वजनिक भाषणों में ऐसी कोई नई बात, सोच या आइडिया नहीं दिखाई पड़ा है जो कांग्रेस की वैचारिकी या नीतियों में कोई बड़े या उल्लेखनीय बदलावों की ओर इशारा करता हो.                                                                   

उनके भाषणों में वही समावेशी विकास और आर्थिक वृद्धि का लाभ गरीबों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुँचाने की बातें हैं, विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को सशक्त बनाने पर जोर है और युवाओं के लिए नए अवसर और उम्मीदें पैदा करने जैसे आह्वान और सपने हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार पिछले नौ सालों से यही बातें कर रही हैं. लेकिन व्यवहार में इसके ठीक उलट हो रहा है. तथ्य यह है कि पिछले छह-सात महीनों में कांग्रेस नेतृत्व ने नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को न सिर्फ निर्णायक रूप से अंगीकार किया है बल्कि खुलकर उसके समर्थन में आ गया है और उसकी हरी झंडी के बाद यू.पी.ए सरकार उन्हें जोरशोर से लागू करने और आगे बढ़ाने में भी जुटी है.

याद रहे, एक ओर कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी के नेतृत्व को औपचारिक रूप आगे बढ़ाया जा रहा था और दूसरी ओर, उसी समय पार्टी कार्यसमिति की मुहर के साथ यू.पी.ए सरकार खासकर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक झटके में खुदरा व्यापार से लेकर पेंशन क्षेत्र में एफ.डी.आई को इजाजत देने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने के कई बड़े और विवादस्पद फैसले किये हैं.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों से थोड़ी दूरी बनाकर चलनेवाले और सुधारों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से डालनेवाले कांग्रेस नेतृत्व ने पहली बार दिल्ली में खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के समर्थन में रैली आयोजित की जिसके स्टार वक्ता खुद राहुल गाँधी थे.

साफ़ है कि कांग्रेस नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण को लेकर अब कोई भ्रम नहीं है और उसने बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को खुश करने का और इसके लिए आर्थिक सुधारों पर दांव लगाने फैसला कर लिया है और पिछले छह महीनों में यहाँ तक कि पार्टी के उपाध्यक्ष बनने के बाद भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि राहुल गाँधी कांग्रेस नेतृत्व से अलग सोच रहे हैं.
असल में, राहुल मॉडल और कुछ नहीं बल्कि नव उदारवादी आर्थिक वैचारिकी पर आधारित बड़ी पूंजी-कारपोरेट निर्देशित ‘विकास’ और उसके भीतर गरीबों के लिए थोड़ी-मोड़ी राहतों की व्यवस्था करके उसे आमलोगों के बीच सहनीय बनाने तक सीमित है.

सच पूछिए तो यह रणनीति नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के राजनीतिक प्रबंधन की रणनीति है जिसका मकसद आर्थिक सुधारों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों-हाशिए पर पड़े लोगों का समर्थन जीतना और उसे उनके बीच स्वीकार्य बनाना है.
यहाँ तक कि अब तो विश्व बैंक ने भी इसी भाषा में बोलना शुरू कर दिया है. विश्व बैंक ने भी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को समावेशी बनाने के नामपर गरीबों को कुछ राहत देने और इसके लिए एन.जी.ओ आदि की मदद लेने की बात दशक भर पहले से ही शुरू कर दी थी.

इस सोच को २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के पिटने और एन.डी.ए की हार के बाद एक तरह की स्वीकार्यता मिली. अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति नियंताओं ने आर्थिक सुधारों को लोगों के गले उतारने के लिए समावेशी विकास और नरेगा जैसी योजनाएं शुरू कीं. नीति निर्णय में एन.जी.ओ को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) जैसे प्रबंध किये गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे एक राजनीतिक स्थिरता आई और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद मिली. याद रहे कि समावेशी विकास के नारों के बीच इसी दौर में जमीन की लूट का रास्ता साफ़ करने के लिए सेज आया, विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे और ज्यादा खोले गए और सार्वजनिक संसाधनों की लूट (जैसे २-जी और के.जी बेसिन आदि) तेज हुई.  

इसलिए जब राहुल गाँधी समावेशी विकास के लिए अधिकार आधारित एप्रोच की बात करते हैं तो आज वह एक मजाक से अधिक नहीं लगता है. एक नारे के बतौर समावेशी विकास अपनी चमक खो चुका है. उसकी सीमाएं किसी से छुपी नहीं हैं.                                            

सच यह है कि चाहे नरेगा हो या शिक्षा का अधिकार या खाद्य सुरक्षा का अधिकार- ये सभी अपने मूल अंतर्वस्तु में शिक्षा, रोजगार और भोजन के मौलिक अधिकार के आइडिया का मजाक उड़ानेवाले हैं. तथ्य यह है कि कांग्रेस और यू.पी.ए के समावेशी विकास की सीमा नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी सीमित और आधी-अधूरी योजनाएं हैं.

अन्यथा यह तो खुद राहुल गाँधी भी जानते हैं कि कारपोरेट निर्देशित विकास में आमलोगों को कुछ खास नहीं मिल रहा है. उल्टे उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. सी.आई.आई के सम्मेलन में खुद राहुल गाँधी ने स्वीकार किया कि ‘विकास के ज्वारभाटे में हर नाव ऊँचा उठ जाती है लेकिन यहाँ तो बहुसंख्यकों के पास नाव ही नहीं है.’
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत कारपोरेट विकास के मॉडल में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार तो जरूर तेज हुई है लेकिन उससे आई समृद्धि एक बहुत ही छोटे वर्ग तक सीमित हो गई है.

इसकी वजह यह है कि यह मूलतः ‘रोजगारविहीन, शहर केंद्रित और कुछ क्षेत्रों तक सीमित और सार्वजनिक संसाधनों की लूट’ पर आधारित ‘कारपोरेट विकास’ रहा है. इसके कारण न सिर्फ आर्थिक गैर बराबरी और विषमताएं बढ़ी हैं, गरीबों-आदिवासियों को उनके अपने जल-जंगल-जमीन-खनिजों से बेदखल किया गया है बल्कि लाखों किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं, श्रमिकों का शोषण-उत्पीडन बढ़ा है और श्रम की कोई गरिमा कम हुई है.
पर्यावरण विनाश को अनदेखा किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि देश भर में इन नीतियों और कारपोरेट लूट के खिलाफ किसान, श्रमिक, आदिवासी और गरीब लड़ाई में उतर आए हैं.

यह तथ्य है कि आज किसानों-गरीबों-आदिवासियों के इन विरोध प्रदर्शनों के कारण देश भर में दर्जनों पावर, स्टील, हाईवे, रीयल इस्टेट प्रोजेक्ट्स ठप्प पड़े हैं. दूसरी ओर, २-जी से लेकर कोयला आवंटन जैसे मामलों के खुलासों के बाद सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट और याराना पूंजीवाद पर सवाल उठने लगे हैं.
जाहिर है कि इससे कारपोरेट जगत बहुत बेचैन है और यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगा रहा है. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने पिछले छह महीनों में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट दबाव में आर्थिक सुधारों के बाबत बड़े फैसलों के साथ ठहरे पड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट की निवेश सम्बन्धी समिति गठित की है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों में पर्यावरण और आदिवासी जमीन से सम्बन्धी बाधाओं को दरकिनार करते हुए हजारों करोड़ के प्रोजेक्ट्स को एक्सप्रेस अनुमति दी है.

राहुल माडल की सीमाओं का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर राहुल गाँधी सी.आई.आई के जिस सम्मेलन में विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को और अधिकार देने की बात कर रहे हैं, गरीबों को सुनने और उन्हें विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बात कर रहे थे, उसी सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण में पंचायतों की अनुमति की बाध्यता में छूट देने का एलान किया. क्या अब भी राहुल मॉडल की सीमाएं बताने की जरूरत है?
हैरानी की बात नहीं है कि इसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है और उनके स्पिन डाक्टरों की उसे चमकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके खरीददार उससे मुंह मोड़ते दिख रहे हैं.

('राष्ट्रीय सहारा'के हस्तक्षेप में १ अप्रैल को प्रकाशित टिप्पणी)                                                               

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

चिदंबरम से है 'चमत्कार' की उम्मीद

लेकिन वित्त मंत्री क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और आवारा पूंजी को खुश करने में जुटे हैं

यह यू.पी.ए-२ सरकार का चौथा और २०१४ के आम चुनावों से पहले का आखिरी पूर्ण बजट है. यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस को वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से एक चमत्कारिक बजट की उम्मीद है. वैसा ही जैसा उन्होंने २००९ के चुनावों से पहले पेश किया था.
उस लोकलुभावन बजट के सहारे यू.पी.ए और कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने में आसानी हो गई थी. कांग्रेस चिदंबरम से उसी चमत्कार को दोहराने की उम्मीद कर रही है. लेकिन वित्त मंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि चमत्कारों को दोहराना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि चमत्कार बार-बार नहीं होते.
असल में, २००८-०९ और २०१३-१४ के बीच बहुत कुछ बदल चुका है. २००८-०९ में वैश्विक आर्थिक संकट के झटकों के बावजूद अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ६.७ फीसदी थी और उसके पहले २००७-०८ में वृद्धि दर ९.३ फीसदी तक पहुँच गई थी. लेकिन आज चालू वित्तीय वर्ष २०१२-१३ में वृद्धि दर फिसलकर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर ५ फीसदी पर पहुँच गई है जबकि पिछले साल (११-१२) भी यह मात्र ६.२ फीसदी थी.

साफ़ है कि अर्थव्यवस्था संकट में है. उद्योग क्षेत्र से लेकर कृषि क्षेत्र और निर्यात से लेकर निवेश तक का प्रदर्शन बद से बदतर होता गया है. यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती का शिकार होता दिख रहा है. इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है. 

यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह पिछले तीन-चार साल से लगातार महंगाई आसमान छू रही है. इसका सीधा असर न सिर्फ गरीबों और मध्य वर्ग के उपभोग पर पड़ा है बल्कि उसकी बचत भी प्रभावित हुई है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार न तो अर्थव्यवस्था को संभल पा रही है और न ही महंगाई पर काबू कर पा रही है. सच यह है कि उसने महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं. जैसे इतना ही काफी नहीं हो, पिछले चार साल में एक के बाद दूसरे घोटालों के भंडाफोड और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों ने सरकार की साख और इकबाल को पाताल में पहुंचा दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि किसी वित्त मंत्री के लिए बजट पेश करने की इससे प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं हो सकती थीं. इसके बावजूद पी. चिदंबरम से न सिर्फ यू.पी.ए और कांग्रेस पार्टी को चमत्कार की अपेक्षा है बल्कि आमलोगों को भी उनसे राहत और मरहम की उम्मीदें हैं. आम आदमी की इस बजट से एक क्षीण सी उम्मीद यह है कि वित्त मंत्री उसे आसमान छूती महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से राहत दिलाने के ठोस उपाय करेंगे.

यह बात और है कि पिछले छह महीने में जब से चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभाला है, आम आदमी की कसमें खानेवाली यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर ही डाला है.

लेकिन चिदंबरम को अच्छी तरह पता है कि यह चुनावी साल है और उनकी कांग्रेस पार्टी को वोट मांगने वापस उसी आम आदमी के पास जाना है जो महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था की बदहाली की मार झेल रहा है. स्वाभाविक तौर पर वह सरकार से बहुत नाराज है. यू.पी.ए सरकार के लिए यह बजट आम आदमी खासकर गरीबों, किसानों और मध्यवर्ग को मनाने और रिझाने का आखिरी मौका है.
लेकिन दूसरी ओर, वित्त मंत्री पर कारपोरेट क्षेत्र और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का भी जबरदस्त दबाव है. यू.पी.ए सरकार से उसकी नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. वह सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगाता रहा है और उसकी विश लिस्ट भी काफी लंबी है.
चिदंबरम उसकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. खासकर कार्पोरेट्स के एक बड़े हिस्से के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी के पक्ष में झुकने के बाद से कांग्रेस में बेचैनी है. कांग्रेस कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है.

पिछले छह महीनों में कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मन-मुताबिक जिस तरह से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताबड़तोड़ फैसले हुए हैं, उससे साफ़ है कि चिदंबरम चुनावी साल में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को खुश रखने का महत्व जानते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि बजट की व्यस्तताओं के बावजूद वित्त मंत्री ने पिछले महीने वैश्विक वित्तीय पूंजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन और फ्रैंकफर्ट का तूफानी दौरा किया और बड़े कार्पोरेट्स और निवेशकों को व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे एक ‘जिम्मेदार बजट’ पेश करेंगे.
चिदंबरम के इस बयान की गुलाबी आर्थिक मीडिया में यह व्याख्या की जा रही है कि यह बजट लोकलुभावन नहीं होगा और इसमें सबसे ज्यादा जोर राजकोषीय घाटे को कम करने यानी सरकारी खर्चों को कम करने पर होगा. लेकिन सरकारी खर्चों में कटौती करने पर लोकलुभावन बजट पेश करने की गुंजाइश सीमित हो जाती है. 
खुद वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी और अगले साल जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखने की घोषणा कर रखी है. हालाँकि चिदंबरम ने यह एलान मूडीज, स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स और फिच जैसी वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करने के लिए किया था।

कारण, वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे न बढ़ाने की स्थिति में भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे ‘कबाड़’ श्रेणी (जंक स्टेटस) में डालने की धमकी दे रही थीं. इससे विदेशी पूंजी खासकर संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी के देश से पलायन और अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने का खतरा था.

लेकिन यह घोषणा करके चिदंबरम ने अपने हाथ खुद बाँध लिए हैं. अब उनके लिए यह बहाना बनाना आसान हो गया है कि वे बजट में आम लोगों के लिए बहुत राहत नहीं दे सकते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है और राजकोषीय घाटे को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा सकती हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकता है.
असल में, वित्त मंत्री की रणनीति यह है कि बजट को लेकर आमलोग ज्यादा उम्मीदें और अपेक्षाएं न पालें और जब लोगों की अपेक्षाएं कम होंगीं तो मामूली राहत देकर भी वाहवाही लूटी जा सकती है.
चिदंबरम इस रणनीति के जरिये एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं. एक ओर वे मध्यवर्ग को टैक्स में मामूली छूट और बचत पर कुछ रियायतें और गरीबों के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और खाद्य सुरक्षा योजना के लिए प्रतीकात्मक प्रावधान करके चुनावी गणित साधने की तैयारी कर रहे हैं.
वहीँ दूसरी ओर, वे सरकारी खर्चों में कटौती खासकर विकास और सामाजिक योजनाओं के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे में कमी और बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और कार्पोरेट्स को लुभाने के लिए और रियायतें देकर कार्पोरेट्स का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इन दोनों में उनकी प्राथमिकता क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करना और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना है. इसके लिए यू.पी.ए सरकार किसी भी हद तक जाने को तैयार है. आर्थिक सुधारों खासकर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बाजार के हवाले करने के फैसलों से वित्त मंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वे किसके प्रति जिम्मेदार हैं?

यह और बात है कि चुनावी मजबूरियों के कारण इसबार बजट भाषण में वे आम आदमी, किसानों, युवाओं, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की खूब दुहाईयाँ देंगे लेकिन बजट में उनके लिए प्रतीकात्मक प्रावधानों से ज्यादा कुछ नहीं होगा.

सच पूछिए तो अगर चुनावों में वोटों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों के पास जाने की मजबूरी नहीं होती तो यू.पी.ए और चिदंबरम को आम आदमी और गरीबों की याद भी नहीं आती.
('नेशनल दुनिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २१ फरवरी को प्रकाशित)               

शनिवार, जून 16, 2012

'गरीबी' को सरकारी शब्दकोष से बाहर करने की तैयारी

'आम आदमी' सिर्फ बहाना है गरीबों को किनारे करने और 'खास आदमी' को आगे बढाने का  

यह तो गरीबों और गरीबी में कुछ ऐसी बात है कि वे मिथकीय फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से बार-बार जी उठते हैं. अन्यथा सरकारों, सत्तारुढ़ पार्टियों और नेताओं-अफसरों का वश चलता तो गरीब और गरीबी कब के खत्म हो चुके होते.
यह किसी से छुपा नहीं है कि उत्तर उदारीकरण दौर खासकर ९० के दशक और उसके बाद के वर्षों में बिना किसी अपवाद के सभी रंगों और झंडों की सरकारों और सत्तारुढ़ पार्टियों ने ‘गरीबी’ शब्द को सरकारी और राजनीतिक शब्दकोष से हटाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में न सिर्फ गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के आकलन के साथ छेड़छाड़ की गई है बल्कि आंकड़ों में गरीबी को कम से कम दिखाने की हरसंभव कोशिश की गई है.
लेकिन माफ कीजिए, यह सिर्फ योजना आयोग और उसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया की ‘गरीबी और गरीबों’ से मुक्ति पाने की हड़बड़ी और व्यग्रता का मामला भर नहीं है बल्कि सच यह है कि सत्ता के खेल में शामिल मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां ‘गरीबी और गरीबों’ से पीछा छुड़ाने के लिए व्यग्र हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज ‘गरीब और गरीबी’ शब्द अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के शब्दकोष से गायब हो चुके हैं या उसे हटाने की कोशिशें जारी हैं. उदाहरण के लिए, भाजपा के राजनीतिक शब्दकोष में पहले भी ‘गरीबी’ शब्द उपयोग से बाहर और किसी कोने-अंतरे में पड़ा शब्द रहा है लेकिन ‘इंडिया शाइनिंग’ के बाद तो ‘गरीबी’ शब्द उसके लिए एक बहिष्कृत और अभिशप्त शब्द हो गया.

लेकिन खुद को गरीबों की सबसे बड़ी हमदर्द और गरीबनवाज़ पार्टी बतानेवाली कांग्रेस ने भी ९० के दशक के बाद बहुत बारीकी और चतुराई के साथ ‘गरीबी’ शब्द से पीछा छुडा लिया. यह सिर्फ संयोग नहीं था कि ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ गरीबी और गरीबों के जरिये सत्ता की राजनीति करनेवाली कांग्रेस ने २००४ के चुनावों से ठीक पहले ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द की विदाई और उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का आना सिर्फ शब्दों के हेरफेर भर का मसला नहीं था. यह कांग्रेस की राजनीति और उसके राजनीतिक सोच में आए बड़े बदलाव का संकेत था.
इस बदलाव का निहितार्थ यह था कि कांग्रेस ने ९० के दशक के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और ‘इंडिया शाइनिंग’ के कोरस के बीच देश की आर्थिकी, समाज और राजनीति में आए बदलावों के मद्देनजर यह मान लिया कि ‘गरीबी’ अब कोई मुद्दा नहीं रहा क्योंकि आर्थिक सुधारों के कारण गरीबों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और उनकी संख्या तेजी से कम हुई है.
लगातार तीन आम/मध्यावधि चुनाव हार चुकी कांग्रेस को लगने लगा कि ‘गरीबी’ के नारे में वह राजनीतिक लाभांश नहीं रह गया है जो ७०-८० के दशक तक सत्ता तक पहुँचने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता था. पार्टी के रणनीतिकारों के यह लगने लगा कि गरीबों के बजाय अब तेजी से उभरते और मुखर मध्य और निम्न मध्यवर्ग को लक्षित करना ज्यादा जरूरी है और उसके लिए बेहतर शब्द ‘गरीबी’ नहीं बल्कि ‘आम आदमी’ है जो गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग को भी अपने अंदर समेट लेता है.

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने अपने राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ को रखने का फैसला किया. २००४ के आम चुनावों में कांग्रेस ने नारा दिया: “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ.”
कांग्रेस को इसका राजनीतिक फायदा भी मिला. कांग्रेस उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग खासकर निम्न मध्यवर्ग को अपनी ओर खींचने में कामयाब रही. नतीजा, कांग्रेस ने न सिर्फ अनुमानों के विपरीत बेहतर प्रदर्शन किया बल्कि उसके नेतृत्व में गठित यू.पी.ए सत्ता में भी पहुँच गई.
हालाँकि कांग्रेस ने वैचारिक-राजनीतिक तौर पर अपने नारों और कार्यक्रमों से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ रखते हुए अपने राजनीतिक आधार को व्यापक बनाने और उसमें गरीबों के साथ-साथ मध्य और निम्न मध्यवर्ग को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन व्यवहार में यह उसके एजेंडे से गरीबों की विदाई और उनकी जगह ज्यादा मुखर और मांग करनेवाला मध्यवर्ग के हावी होते जाने के रूप में सामने आया.

हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर यू.पी.ए-दो के एजेंडे पर गरीबों के मुद्दे और सवाल हाशिए पर जाने लगे और मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों को तेज करने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा.

यह सच है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल में नरेगा जैसी योजनाएं गरीबों के लिए शुरू की गईं और इस आधार पर कुछ विश्लेषक और कांग्रेस नेता दावा करते नहीं थकते हैं कि कांग्रेस अभी भी गरीबों के साथ खड़ी है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है.
तथ्य यह है कि यू.पी.ए सरकार के आठ सालों के कार्यकाल में जितना आर्थिक-भौतिक फायदा मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग को मिला है, उसका १० फीसदी भी गरीबों और निम्न मध्यवर्ग को नहीं मिला है. अपनी गरीबनवाजी का गुण गाने के लिए जिस नरेगा का इतना अधिक हवाला दिया जाता है, उसकी सच्चाई यह है कि उसके लिए केन्द्र सरकार औसतन हर साल ३५ से ४० हजार करोड़ रूपये खर्च करती है. वह भी गरीबों तक पूरा नहीं पहुँचता है.
लेकिन दूसरी ओर इसी दौरान मध्य और उच्च मध्यवर्ग को बजट में टैक्स छूटों/रियायतों के रूप में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से हर साल औसतन दो से ढाई लाख करोड़ रूपये का सालाना उपहार मिलता रहा. केन्द्र सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रमों के कोई १.८ करोड़ कर्मचारियों और अफसरों को छठे वेतन आयोग के वेतन वृद्धि के रूप में ५० हजार करोड़ रूपये से अधिक का लाभ दिया गया.

यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ‘आम आदमी’ के नाम पर हर साल देश के बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों और मध्यवर्ग को सालाना टैक्स छूटों/रियायतों में पांच लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का तोहफा दे रही है.

इससे साफ़ है कि ‘आम आदमी’ की सरकार वास्तव में किसकी सरकार है और कांग्रेस के लिए ‘आम आदमी’ के मायने क्या हैं? सच यह है कि गरीबों को अर्थनीति से बाहर करने के लिए ‘आम आदमी’ को आड़ की तरह इस्तेमाल किया गया है.
लेकिन पिछले आठ सालों के अनुभवों से यह साफ़ हो चुका है है कि ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘खास आदमी’ की अर्थनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ बेदखल हो चुकी है और उसी के स्वाभाविक और तार्किक विस्तार के तहत बाकी का बचा-खुचा काम योजना आयोग में बैठे मोंटेक सिंह आहलुवालिया पूरा कर रहे हैं.
उनके नेतृत्व में योजना आयोग गरीबी को न सिर्फ आंकड़ों में सीमित करने में जुटा है बल्कि योजनाओं/नीतियों से भी गरीबों को बाहर करने में लगा हुआ है. उनके इन प्रयासों को कांग्रेस नेतृत्व और यू.पी.ए सरकार का पूरा समर्थन हासिल है.

इसका सबूत यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक न सिर्फ पिछले तीन सालों से लटका हुआ है बल्कि उसमें से गरीबों को बाहर रखने के लिए हर दांव आजमाया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबी को राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर कर देने और हाशिए पर धकेल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद गरीब और गरीबी का मुद्दा लौट-लौटकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने लग रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि २२ रूपये और ३२ रूपरे की गरीबी रेखा को देश पचा नहीं पा रहा है. यही नहीं, देश भर में ‘जल-जमीन-जंगल’ के हक के लिए गरीबों की लड़ाइयों ने भी नव उदारवादी अर्थनीति के उन समर्थकों को गहरा झटका दिया है जो गरीबी और गरीबों को बीती बात मान चुके थे.
असल में, वे भूल गए कि गरीब उस फीनिक्स पक्षी की तरह से हैं जो अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठते हैं. आश्चर्य नहीं कि गरीब फिर-फिर दस्तक दे रहे हैं और पूरा सत्ता प्रतिष्ठान हिला हुआ है. उसे मजबूरी में ही सही, अपमानजनक और मजाक बन चुकी गरीबी रेखा पर पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ रहा है.

साफ़ है कि गरीब और गरीबी के सवाल इतनी आसानी से शासक वर्गों का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के 16 जून के हस्तक्षेप परिशिष्ट में प्रकाशित आलेख) 

बुधवार, मार्च 07, 2012

भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति को नकार

राजनीति का मुहावरा बदल रहा है क्योंकि लोग बेचैन हैं और उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं  

 
राजनीतिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को राजनीतिक दल हमेशा की तरह अपने निकट दृष्टि चश्मे से देखने और इसकी या उसकी जीत-हार के सन्दर्भ में समझाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इन नतीजों का यह सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है कि मतदाता भ्रष्टाचार और उसके सबसे अश्लील रूप सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं.

हालांकि चुनावों के दौरान यह दावे किये गए कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है लेकिन नतीजों से साफ़ है कि भ्रष्टाचार न सिर्फ एक बड़ा मुद्दा था बल्कि मतदाताओं ने इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी राज्य सरकारों और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को भी नहीं बख्शा.

यही कारण है कि चाहे उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार हो या फिर गोवा की दिगंबर कामत की कांग्रेस-एन.सी.पी सरकार या उत्तराखंड की भाजपा सरकार, मतदाताओं ने इन सभी सरकारों झटका दिया है. इनमें से पंजाब में अकाली दल-भाजपा सरकार बाल-बाल बच गई तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए कि मतदाताओं के सामने विकल्प के तौर पर खड़ी कांग्रेस को लोग भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, कमरतोड महंगाई और नाकारे विपक्ष की भूमिका के कारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे.

लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि मतदाताओं ने इन भ्रष्ट और निजी हितों के लिए सार्वजनिक संसाधनों की लूट में लगी राज्य सरकारों को भी पूरी तरह से माफ नहीं किया. यह नहीं भूलना चाहिए कि ये चुनाव २०११ के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में हो रहे थे. इस आंदोलन में जिस तरह से बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी हुई और लोगों में बेचैनी दिखाई पड़ी, उसके निशाने पर मुख्य रूप से यू.पी.ए और खासकर कांग्रेस थी.
बिला शक, कांग्रेस को उसकी कीमत चुकानी पड़ी है. वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में नकार दी गई, गोवा में सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि पंजाब और उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा सरकारों के खिलाफ माहौल होने के बावजूद कांग्रेस उसे भुनाने में नाकाम रही. इससे एक बार फिर यह साफ़ हो गया कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कांग्रेस के भरोसे छोड़ना खतरे से खाली नहीं है.

इससे निश्चय ही राष्ट्रीय स्तर यू.पी.ए के बरक्श एक नए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के लिए जगह बनने लगी है. कांग्रेस के लिए यह खतरे की घंटी है. यही नहीं, एक मायने में मतदाताओं ने खासकर उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक, अति पिछड़ा और अति दलितों वोटों के लिए कांग्रेस की चुनावों से ठीक पहले की अवसरवादी कोशिशों को भी नकार दिया है.

कांग्रेस युवा मतदाताओं की बात कर रही थी लेकिन राहुल गाँधी के हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान में न तो तो कोई नई दृष्टि थी और न ही वह साख और भरोसा कि वह मतदाताओं को उत्साहित और प्रेरित कर पता.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन विधानसभा चुनावों में लोगों के उत्साह और मतदान में बढ़ोत्तरी के बावजूद सच्चाई यह है कि उनके पास चुनने के लिए कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. इन राज्यों में सत्ता की दावेदार सभी प्रमुख पार्टियों को लोगों कई बार आजमा लिया है.

लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा. हर नई सरकार ने चाहे वह भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या सार्वजनिक संसाधनों की लूट का या सत्ता का इस्तेमाल परिवार और उसके इर्द-गिर्द जमा अफसरों-ठेकेदारों-दलालों के काकस के निजी हितों को आगे बढ़ाने का या फिर लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ का उसने पिछली सरकारों के रिकार्ड को तोड़ दिया.
आश्चर्य की बात नहीं है कि बिना किसी अपवाद के हर राज्य में पांच सालों में मंत्रियों/विधायकों की संपत्ति में न्यूनतम दस से लेकर सौ गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है. यही नहीं, इन राज्यों में सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जो पहले से करोड़पति हैं.

इसके अलावा सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों ने इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया. जीतने वाले उम्मीदवारों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने औसतन एक से दो करोड़ रूपये खर्च न किये हों. यह सचमुच चिंता की बात है कि चुनाव जिस तरह से ज्यादा से ज्यादा महंगे होते जा रहे हैं, उसमें चुनावों से बुनियादी बदलाव की संभावनाएं सिमटती जा रही हैं.                

लेकिन इन विधानसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के थे. यहाँ जिस तरह से मतदाताओं ने मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार को ख़ारिज कर दिया है और समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया है, उससे साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसमें बदलाव और लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं को महसूस किया जा सकता है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.
यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव साफ़ देखी जा सकती है.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत लगभग ६० फीसदी तक पहुँच गया. यह पिछली बार की तुलना में १० से १४ फीसदी तक अधिक है.

इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है. सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिखे. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकला, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस उनकी संकीर्ण जातिवादी/धार्मिक पहचानों के दायरों में बंद करना मुश्किल होगा.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ी जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी आर्थिक विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ी.

ऐसा लगता है कि ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के बदलते मिजाज को भांप नहीं पाईं क्योंकि जब मतदाता संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति से बाहर निकलने और अपनी आकांक्षाएं अभिव्यक्त कर रहे थे, वे उन्हें फिर उन्हीं संकीर्ण दायरों में पीछे खींचने की कोशिश कर रही थीं.    

इन चुनावों में तीसरा बदलाव यह दिखा कि मुस्लिम वोटर अब किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है बल्कि अन्य जातियों/समुदायों की तरह ही अपने मुद्दों, जरूरतों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर वोट कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है.

इसके उलट रोजी-रोटी, बिजली-सड़क-पानी और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ समावेशी विकास के लिए वोट कर रहा है. वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है. इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं.
निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोगों ने अपने तरीके से राजनीतिक दलों को सबक सिखाया है. सबक नंबर एक, मतदाताओं को भ्रष्टाचार और राजनीतिक अहंकार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.

सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए. कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं.

चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.
कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने राज्य में एक नई प्रगतिशील, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बनाया है. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होने चाहिए.

('जनसत्ता' के ७ मार्च के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख...आपकी टिप्पणियों का स्वागत है...)