राजनीति का मुहावरा बदल रहा है क्योंकि लोग बेचैन हैं और उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं
राजनीतिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील
उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को राजनीतिक दल
हमेशा की तरह अपने निकट दृष्टि चश्मे से देखने और इसकी या उसकी जीत-हार के सन्दर्भ
में समझाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इन नतीजों का यह सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है
कि मतदाता भ्रष्टाचार और उसके सबसे अश्लील रूप सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट को
और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं.
हालांकि चुनावों के दौरान यह दावे किये
गए कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है लेकिन नतीजों से साफ़ है कि भ्रष्टाचार न
सिर्फ एक बड़ा मुद्दा था बल्कि मतदाताओं ने इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों में
घिरी राज्य सरकारों और केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को भी
नहीं बख्शा.
यही कारण है कि चाहे उत्तर प्रदेश में
मायावती के नेतृत्ववाली बसपा सरकार हो या फिर गोवा की दिगंबर कामत की
कांग्रेस-एन.सी.पी सरकार या उत्तराखंड की भाजपा सरकार, मतदाताओं ने इन सभी सरकारों
झटका दिया है. इनमें से पंजाब में अकाली दल-भाजपा सरकार
बाल-बाल बच गई तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए कि मतदाताओं के सामने विकल्प के तौर
पर खड़ी कांग्रेस को लोग भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, कमरतोड महंगाई और नाकारे विपक्ष
की भूमिका के कारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे.
लेकिन इसके साथ यह भी उतना
ही बड़ा सच है कि मतदाताओं ने इन भ्रष्ट और निजी हितों के लिए सार्वजनिक संसाधनों
की लूट में लगी राज्य सरकारों को भी पूरी तरह से माफ नहीं किया. यह नहीं भूलना चाहिए कि ये चुनाव २०११
के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में हो रहे थे. इस आंदोलन में जिस तरह
से बड़े पैमाने पर लोगों की भागीदारी हुई और लोगों में बेचैनी दिखाई पड़ी, उसके
निशाने पर मुख्य रूप से यू.पी.ए और खासकर कांग्रेस थी.
बिला शक, कांग्रेस को उसकी
कीमत चुकानी पड़ी है. वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में
नकार दी गई, गोवा में सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि पंजाब और उत्तराखंड में भ्रष्टाचार
के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा सरकारों के खिलाफ माहौल होने के बावजूद कांग्रेस
उसे भुनाने में नाकाम रही. इससे एक बार फिर यह साफ़ हो गया कि साम्प्रदायिकता के
खिलाफ लड़ाई को कांग्रेस के भरोसे छोड़ना खतरे से खाली नहीं है.
इससे निश्चय ही राष्ट्रीय स्तर यू.पी.ए
के बरक्श एक नए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के लिए जगह बनने लगी है. कांग्रेस के लिए यह
खतरे की घंटी है. यही नहीं, एक मायने में मतदाताओं ने खासकर उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक,
अति पिछड़ा और अति दलितों वोटों के लिए कांग्रेस की चुनावों से ठीक पहले की अवसरवादी
कोशिशों को भी नकार दिया है.
कांग्रेस युवा मतदाताओं की बात कर रही थी लेकिन राहुल
गाँधी के हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान में न तो तो कोई नई दृष्टि थी और न ही वह साख
और भरोसा कि वह मतदाताओं को उत्साहित और प्रेरित कर पता.
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन
विधानसभा चुनावों में लोगों के उत्साह और मतदान में बढ़ोत्तरी के बावजूद सच्चाई यह
है कि उनके पास चुनने के लिए कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. इन राज्यों में सत्ता
की दावेदार सभी प्रमुख पार्टियों को लोगों कई बार आजमा लिया है.
लेकिन नतीजा वही
ढाक के तीन पात रहा. हर नई सरकार ने चाहे वह भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या सार्वजनिक
संसाधनों की लूट का या सत्ता का इस्तेमाल परिवार और उसके इर्द-गिर्द जमा
अफसरों-ठेकेदारों-दलालों के काकस के निजी हितों को आगे बढ़ाने का या फिर लोगों की
उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ का उसने पिछली सरकारों के रिकार्ड को तोड़
दिया.
आश्चर्य की बात नहीं है कि बिना किसी
अपवाद के हर राज्य में पांच सालों में मंत्रियों/विधायकों की संपत्ति में न्यूनतम
दस से लेकर सौ गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है. यही नहीं, इन राज्यों में सभी प्रमुख
पार्टियों के उम्मीदवारों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जो
पहले से करोड़पति हैं.
इसके अलावा सभी प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवारों ने इन
चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया. जीतने वाले उम्मीदवारों में शायद ही कोई ऐसा
होगा जिसने औसतन एक से दो करोड़ रूपये खर्च न किये हों. यह सचमुच चिंता की बात है
कि चुनाव जिस तरह से ज्यादा से ज्यादा महंगे होते जा रहे हैं, उसमें चुनावों से
बुनियादी बदलाव की संभावनाएं सिमटती जा रही हैं.
लेकिन इन विधानसभा चुनावों में सबसे
महत्वपूर्ण चुनाव उत्तर प्रदेश के थे. यहाँ जिस तरह से मतदाताओं ने मायावती के
नेतृत्ववाली बसपा सरकार को ख़ारिज कर दिया है और समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत
दिया है, उससे साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसमें बदलाव
और लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं को महसूस किया जा सकता है.
वैसे बदलाव की यह लहर
उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल
की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी
की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति
इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में
लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की
अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.
यही नहीं,
इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके
हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे
युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को
तोड़ने के लिए बेचैन हैं.
इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी
लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का
शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल
हैं. इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव साफ़ देखी जा
सकती है.
लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ
की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में
मतदान का प्रतिशत लगभग ६० फीसदी तक पहुँच गया. यह पिछली बार की तुलना में १० से १४
फीसदी तक अधिक है.
इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो
बिना उम्मीद के संभव नहीं है. सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और
महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिखे. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर
इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकला, उसकी
अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस उनकी संकीर्ण जातिवादी/धार्मिक पहचानों के
दायरों में बंद करना मुश्किल होगा.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की
दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी
बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के
दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था,
सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ी जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव
उदारवादी आर्थिक विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और
अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ी.
ऐसा
लगता है कि ये दोनों राष्ट्रीय पार्टियां उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के बदलते मिजाज
को भांप नहीं पाईं क्योंकि जब मतदाता संकीर्ण अस्मिताओं की राजनीति से बाहर निकलने
और अपनी आकांक्षाएं अभिव्यक्त कर रहे थे, वे उन्हें फिर उन्हीं संकीर्ण दायरों में
पीछे खींचने की कोशिश कर रही थीं.
इन चुनावों में तीसरा बदलाव यह दिखा कि
मुस्लिम वोटर अब किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है बल्कि अन्य
जातियों/समुदायों की तरह ही अपने मुद्दों, जरूरतों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को
ध्यान में रखकर वोट कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर
भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही
किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है.
इसके उलट रोजी-रोटी,
बिजली-सड़क-पानी और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ समावेशी विकास के लिए वोट कर रहा है.
वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है. इस तलाश में उसके सवाल उत्तर
प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं.
निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज
भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को
और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम
में नहीं रहना चाहिए.
चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित
राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोगों ने अपने तरीके से राजनीतिक दलों को सबक सिखाया
है. सबक नंबर एक, मतदाताओं को भ्रष्टाचार और राजनीतिक अहंकार बर्दाश्त नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते
भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.
सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम
गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में
दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को
लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.
तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज
राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके
टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन
कबके बीत गए. कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और
समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं.
चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों
में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों
के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.
कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश
के मतदाताओं ने राज्य में एक नई प्रगतिशील, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और
न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बनाया है. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और
नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होने चाहिए.
('जनसत्ता' के ७ मार्च के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख...आपकी टिप्पणियों का स्वागत है...)