लेकिन वित्त मंत्री क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और
आवारा पूंजी को खुश करने में जुटे हैं
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था संकट में है. उद्योग क्षेत्र से लेकर कृषि क्षेत्र और निर्यात से लेकर निवेश तक का प्रदर्शन बद से बदतर होता गया है. यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती का शिकार होता दिख रहा है. इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है.
यह बात और है कि पिछले छह महीने में जब से चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभाला है, आम आदमी की कसमें खानेवाली यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर ही डाला है.
पिछले छह महीनों में कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मन-मुताबिक जिस तरह से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताबड़तोड़ फैसले हुए हैं, उससे साफ़ है कि चिदंबरम चुनावी साल में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को खुश रखने का महत्व जानते हैं.
कारण, वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे न बढ़ाने की स्थिति में भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे ‘कबाड़’ श्रेणी (जंक स्टेटस) में डालने की धमकी दे रही थीं. इससे विदेशी पूंजी खासकर संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी के देश से पलायन और अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने का खतरा था.
यह और बात है कि चुनावी मजबूरियों के कारण इसबार बजट भाषण में वे आम आदमी, किसानों, युवाओं, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की खूब दुहाईयाँ देंगे लेकिन बजट में उनके लिए प्रतीकात्मक प्रावधानों से ज्यादा कुछ नहीं होगा.
यह यू.पी.ए-२ सरकार का चौथा और २०१४ के आम चुनावों से पहले का आखिरी पूर्ण
बजट है. यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस को वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से एक चमत्कारिक
बजट की उम्मीद है. वैसा ही जैसा उन्होंने २००९ के चुनावों से पहले पेश किया था.
उस
लोकलुभावन बजट के सहारे यू.पी.ए और कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने में आसानी हो
गई थी. कांग्रेस चिदंबरम से उसी चमत्कार को दोहराने की उम्मीद कर रही है. लेकिन
वित्त मंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि चमत्कारों को दोहराना बहुत मुश्किल होता है
क्योंकि चमत्कार बार-बार नहीं होते.
असल में, २००८-०९ और २०१३-१४ के बीच बहुत कुछ बदल चुका है. २००८-०९
में वैश्विक आर्थिक संकट के झटकों के बावजूद अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ६.७ फीसदी
थी और उसके पहले २००७-०८ में वृद्धि दर ९.३ फीसदी तक पहुँच गई थी. लेकिन आज चालू
वित्तीय वर्ष २०१२-१३ में वृद्धि दर फिसलकर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर ५
फीसदी पर पहुँच गई है जबकि पिछले साल (११-१२) भी यह मात्र ६.२ फीसदी थी. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था संकट में है. उद्योग क्षेत्र से लेकर कृषि क्षेत्र और निर्यात से लेकर निवेश तक का प्रदर्शन बद से बदतर होता गया है. यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती का शिकार होता दिख रहा है. इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है.
यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह पिछले तीन-चार साल से लगातार महंगाई
आसमान छू रही है. इसका सीधा असर न सिर्फ गरीबों और मध्य वर्ग के उपभोग पर पड़ा है
बल्कि उसकी बचत भी प्रभावित हुई है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार न तो अर्थव्यवस्था को
संभल पा रही है और न ही महंगाई पर काबू कर पा रही है. सच यह है कि उसने महंगाई के
आगे घुटने टेक दिए हैं. जैसे इतना ही काफी नहीं हो, पिछले चार साल में एक के बाद
दूसरे घोटालों के भंडाफोड और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों ने सरकार की साख और इकबाल
को पाताल में पहुंचा दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि किसी वित्त मंत्री के लिए बजट पेश करने की
इससे प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं हो सकती थीं. इसके बावजूद पी. चिदंबरम से न सिर्फ
यू.पी.ए और कांग्रेस पार्टी को चमत्कार की अपेक्षा है बल्कि आमलोगों को भी उनसे
राहत और मरहम की उम्मीदें हैं. आम आदमी की इस बजट से एक क्षीण सी उम्मीद यह है कि
वित्त मंत्री उसे आसमान छूती महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से राहत दिलाने
के ठोस उपाय करेंगे. यह बात और है कि पिछले छह महीने में जब से चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभाला है, आम आदमी की कसमें खानेवाली यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर सबसे अधिक बोझ आम आदमी पर ही डाला है.
लेकिन चिदंबरम को अच्छी तरह पता है कि यह चुनावी साल है और उनकी कांग्रेस
पार्टी को वोट मांगने वापस उसी आम आदमी के पास जाना है जो महंगाई से लेकर
भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था की बदहाली की मार झेल रहा है. स्वाभाविक तौर पर वह
सरकार से बहुत नाराज है. यू.पी.ए सरकार के लिए यह बजट आम आदमी खासकर गरीबों,
किसानों और मध्यवर्ग को मनाने और रिझाने का आखिरी मौका है.
लेकिन दूसरी ओर, वित्त
मंत्री पर कारपोरेट क्षेत्र और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का भी जबरदस्त दबाव है.
यू.पी.ए सरकार से उसकी नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. वह सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’
का आरोप लगाता रहा है और उसकी विश लिस्ट भी काफी लंबी है.
चिदंबरम उसकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. खासकर
कार्पोरेट्स के एक बड़े हिस्से के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार
नरेन्द्र मोदी के पक्ष में झुकने के बाद से कांग्रेस में बेचैनी है. कांग्रेस
कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है. पिछले छह महीनों में कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मन-मुताबिक जिस तरह से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताबड़तोड़ फैसले हुए हैं, उससे साफ़ है कि चिदंबरम चुनावी साल में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को खुश रखने का महत्व जानते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि बजट की व्यस्तताओं के बावजूद वित्त मंत्री
ने पिछले महीने वैश्विक वित्तीय पूंजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर,
लन्दन और फ्रैंकफर्ट का तूफानी दौरा किया और बड़े कार्पोरेट्स और निवेशकों को
व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे एक ‘जिम्मेदार बजट’ पेश करेंगे.
चिदंबरम
के इस बयान की गुलाबी आर्थिक मीडिया में यह व्याख्या की जा रही है कि यह बजट
लोकलुभावन नहीं होगा और इसमें सबसे ज्यादा जोर राजकोषीय घाटे को कम करने यानी
सरकारी खर्चों को कम करने पर होगा. लेकिन सरकारी खर्चों में कटौती करने पर
लोकलुभावन बजट पेश करने की गुंजाइश सीमित हो जाती है.
खुद वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को
जी.डी.पी के ५.३ फीसदी और अगले साल जी.डी.पी के ४.८ फीसदी के अंदर रखने की घोषणा
कर रखी है. हालाँकि चिदंबरम ने यह एलान मूडीज, स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स और फिच जैसी
वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश करने के लिए किया था।कारण, वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश और आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे न बढ़ाने की स्थिति में भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे ‘कबाड़’ श्रेणी (जंक स्टेटस) में डालने की धमकी दे रही थीं. इससे विदेशी पूंजी खासकर संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी के देश से पलायन और अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने का खतरा था.
लेकिन यह घोषणा करके चिदंबरम ने अपने हाथ खुद बाँध लिए हैं. अब उनके
लिए यह बहाना बनाना आसान हो गया है कि वे बजट में आम लोगों के लिए बहुत राहत नहीं दे
सकते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है और राजकोषीय घाटे को तुरंत
नियंत्रित नहीं किया गया तो वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा
सकती हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकता है.
असल में, वित्त मंत्री की
रणनीति यह है कि बजट को लेकर आमलोग ज्यादा उम्मीदें और अपेक्षाएं न पालें और जब
लोगों की अपेक्षाएं कम होंगीं तो मामूली राहत देकर भी वाहवाही लूटी जा सकती है.
चिदंबरम इस रणनीति के जरिये एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं. एक ओर
वे मध्यवर्ग को टैक्स में मामूली छूट और बचत पर कुछ रियायतें और गरीबों के लिए
डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और खाद्य सुरक्षा योजना के लिए प्रतीकात्मक प्रावधान करके
चुनावी गणित साधने की तैयारी कर रहे हैं.
वहीँ दूसरी ओर, वे सरकारी खर्चों में
कटौती खासकर विकास और सामाजिक योजनाओं के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे में
कमी और बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और कार्पोरेट्स को लुभाने के लिए और रियायतें
देकर कार्पोरेट्स का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इन दोनों में उनकी प्राथमिकता क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को खुश
करना और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना है. इसके लिए यू.पी.ए सरकार किसी भी हद तक
जाने को तैयार है. आर्थिक सुधारों खासकर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए
खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बाजार के हवाले करने के फैसलों से
वित्त मंत्री यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वे किसके प्रति जिम्मेदार हैं? यह और बात है कि चुनावी मजबूरियों के कारण इसबार बजट भाषण में वे आम आदमी, किसानों, युवाओं, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की खूब दुहाईयाँ देंगे लेकिन बजट में उनके लिए प्रतीकात्मक प्रावधानों से ज्यादा कुछ नहीं होगा.
सच पूछिए तो अगर चुनावों में वोटों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों के
पास जाने की मजबूरी नहीं होती तो यू.पी.ए और चिदंबरम को आम आदमी और गरीबों की याद
भी नहीं आती.
('नेशनल दुनिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २१ फरवरी को प्रकाशित)
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ब्लॉग के रंग रोगन को, नए कलेवर को देखकर लगता है 'वसंत' आ गया।
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