कैसे दूर करेंगे राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश का पिछड़ापन जब उत्तर
भारत को सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिया गया है?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान
कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने राज्य के पिछड़ेपन को बड़ा मुद्दा बनाया है. हालांकि
उत्तर प्रदेश का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन कोई नई परिघटना नहीं है और न ही यह केवल
उत्तर प्रदेश तक सीमित है.
सच यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदी पट्टी के उन राज्यों
में है जिनके पिछड़ेपन, गरीबी, भूखमरी, बीमारी आदि के कारण उन्हें बीमारू राज्यों
में शुमार किया जाता है. लेकिन राहुल गाँधी के आक्रामक प्रचार के कारण इस मुद्दे
पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है.
सवाल उठने लगे हैं कि ये राज्य विकास की
दौड़ में पीछे क्यों छूट रहे हैं और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उल्लेखनीय है कि
पिछले साल विकीलिक्स के एक खुलासे में गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस बयान को लेकर
खासा विवाद हुआ था, जिसके मुताबिक उन्होंने 2009 में अमेरिकी राजदूत से बातचीत में
कहा था कि भारत के आर्थिक विकास को उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों ने रोक
रखा है और अगर ये राज्य न होते तो देश की विकास दर कहीं ज्यादा होती.
हालांकि चिदंबरम
ने इस बयान का खंडन कर दिया लेकिन सच यह है कि नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों
के बीच ऐसा सोचने या ऐसी राय रखनेवालों की कमी नहीं है.
सतही तौर पर और सन्दर्भ से काटकर देखें
तो चिदंबरम या उन जैसों की यह राय उसी तरह ‘तथ्यपूर्ण’ लगती है जैसे यह तर्क कि गरीबी के लिए
गरीब ही जिम्मेदार हैं. इसके उलट सच यह है कि जैसे गरीबी के लिए गरीब नहीं बल्कि
वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिन्होंने गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.
इसी तरह, उत्तर
भारत के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारणों
के अलावा मौजूदा आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ऊँची वृद्धि दर के नशे में चूर आर्थिक
मैनेजर जानबूझकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं और पिछड़े राज्यों
को उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.
लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर और
पूर्व भारत के पिछड़े राज्य पिछड़े इसलिए हैं कि उन्हें जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है.
असल में, यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति है. पूंजीवादी विकास
माडल अपने मूल चरित्र में एक असमान और विषम विकास को प्रोत्साहित करता है. पूंजीवादी
विकास प्रक्रिया में बड़े इलाके को जानबूझकर पिछड़ा रखा जाता है ताकि उन इलाकों से विकसित
क्षेत्रों में सस्ते श्रम की आपूर्ति होती रहे.
यह प्रक्रिया अंग्रेजों के ज़माने में ही
शुरू हो गई थी जिन्होंने व्यापार और भारत से कच्चा माल अपने देश ले जाने के लिए
शुरू में बंदरगाह वाले तटीय इलाकों में निवेश किया और इसके लिए जरूरी
इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया.
दूसरे, अंग्रेजों ने उत्तर भारत के राज्यों को १८५७
के विद्रोह और उनके बगावती तेवर की सजा भी दी और जानबूझकर इन इलाकों की उपेक्षा
की. अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के बाद भी कमोबेश उपनिवेशवादी नीतियां ही जारी
रहीं. पूंजीवादी विकास के जिस माडल को अपनाया गया, उसमें निजी पूंजी उन्हीं विकसित
इलाकों में गई, जहां पहले से ही अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मौजूद था.
नतीजा, उत्तर भारत के राज्य आज़ाद भारत
में भी सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं. दोहराने की जरूरत
नहीं है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफा सस्ते श्रम और श्रम के शोषण पर टिका
होता है.
यही कारण है कि देश के अंदर उत्तर भारत के बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर
प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पूर्व भारत के झारखण्ड, उड़ीसा और असम
जैसे राज्यों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया है जहां से मुंबई समेत पश्चिमी
और दक्षिणी भारत के अलावा पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों विकास के लिए जरूरी सस्ते
श्रम की आपूर्ति होती है.
यह आपूर्ति जारी रहे, इसके लिए जरूरी है
कि देश के कुछ इलाके पिछड़े बने रहें और उससे भी ज्यादा जरूरी है बेरोजगारी बनी रहे. कहने की जरूरत नहीं कि इस स्थिति को देश के सभी क्षेत्रों के समान
विकास के लिए प्रतिबद्ध एक सशक्त राज्य ही बदल सकता था लेकिन भारतीय राज्य के
एजेंडे पर यह सवाल कभी भी नहीं आया.
लेकिन १९९१ में नव उदारवादी
आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद तो रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई. कारण यह कि नव
उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका और भी सीमित हो
गई और अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी के हाथों में
आ गई. यही पूंजी अर्थनीति तय करने लगी और वे ही विकास का एजेंडा निर्धारित करने
लगे.
जाहिर तौर पर इस दौर में भी देशी-विदेशी
बड़ी निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों और राज्यों में गई है, जहां उन्हें अन्य
इलाकों की तुलना में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मिला है. यही नहीं, इस दौर
में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली है, वह यह है कि देश के विभिन्न
राज्यों के बीच देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी को आकर्षित करने की होड़ सी मच गई है.
इस
कारण बड़ी पूंजी की बार्गेनिंग की क्षमता बहुत बढ़ गई है. वे राज्य सरकारों पर अपनी
शर्तें थोपने में कामयाब हो रही हैं. इसके लिए राज्य सरकारों ने निजी पूंजी को
मनमाने तरीके से अनाप-शनाप रियायतें और छूट देनी शुरू कर दी है.
लेकिन मजे की बात यह है कि इस होड़ में
उत्तर भारत के राज्य अनेक कारणों से एक बार फिर पिछड़ गए हैं और देशी-विदेशी निजी
पूंजी का संकेन्द्रण कुछ ही राज्यों और उनमें भी कुछ ही इलाकों तक सीमित हो गया
है.
निश्चय ही, इसमें इन राज्यों में खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, बदहाल
इन्फ्रास्ट्रक्चर और बदतर मानवीय विकास जैसे कई कारक भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ये
वास्तविक कारण नहीं हैं बल्कि ये राज्य जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, ये उनकी
पैदाइश हैं.
नतीजा यह कि उदारीकरण के बाद पिछले दो
दशकों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी विकसित राज्यों की ओर ही दौड़ती दिखाई दी है और उत्तर
भारत के पिछड़े राज्य उनकी तुलना में बहुत कम निजी निवेश आकर्षित कर पाए हैं. वे एक
बार फिर अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं.
ऐसे में, कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी
चुनावों के दौरान भले ही उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन के लिए पिछले बीस वर्षों में
सत्ता में रही दूसरी पार्टियों को जिम्मेदार ठहराएं लेकिन सच यह है कि न तो
कांग्रेस के विजन डाक्यूमेंट, न घोषणापत्र और न ही उनके भाषणों में इस दुष्चक्र को
तोड़ने की कोई दृष्टि या रणनीति दिखाई पड़ती है.
ऐसा लगता है कि उत्तर भारतीय राज्य आगे भी सस्ते श्रम के
बाड़े बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. असल में, इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए जिस
राजनीतिक साहस और इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके
नेतृत्व में सिरे से गायब है. वे तो बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की सेवा में और उसे खुश
रखने में व्यस्त हैं.
(दैनिक "राजस्थान पत्रिका" में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
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