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मंगलवार, सितंबर 03, 2013

लुढ़कता रुपया संकेत हैं अर्थव्यवस्था के गहराते संकट का

आवारा विदेशी पूंजी पर अति निर्भरता की रणनीति अर्थव्यवस्था को बड़े संकट की ओर ढकेल रही है 

डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में तेज गिरावट का दौर जारी है. अकेले अगस्त के तीसरे सप्ताह में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ५.५ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई और वह लुढककर रिकार्ड ६४.६५ रूपये तक पहुँच गई. मुद्रा बाजार में घबराहट और अनिश्चितता का आलम यह है कि रूपया हर दिन गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है.
 
यह गिरावट पिछले ढाई-तीन महीनों से जारी है. इस कारण २२ मई के बाद से डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में रिकार्ड १६.५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
हालाँकि इस बीच ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे अधिकांश विकासशील देशों की मुद्राओं में भी भारी से लेकर मध्यम स्तर की गिरावट दर्ज की गई है लेकिन विश्लेषकों के मुताबिक इन सबमें ब्राजील के रियाल के बाद भारतीय रूपये का प्रदर्शन सबसे कमजोर रहा है.
उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इस माहौल में रुपया किस हद और कहाँ तक गिरेगा, इसे लेकर अनिश्चितता और घबराहट का माहौल बना हुआ है. ड्यूश बैंक का कहना है कि रुपया अगले कुछ महीनों में डालर के मुकाबले गिरकर ७० रूपये तक पहुँच सकता है.

लेकिन दूसरी ओर बार्कलेज बैंक का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष के आखिर तक डालर के मुकाबले रूपया मजबूत होकर ६०-६१ रूपये के करीब रहेगा. डालर के मुकाबले रूपये की कीमत के ६५ रूपये से भी नीचे आ जाने के बाद खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि रूपये की कम कीमत लगाई जा रही है.

चिदंबरम ने रूपये को संभालने के लिए बाजार और विदेशी निवेशकों को भरोसा भी दिलाया है कि वे न सिर्फ चालू खाते और राजकोषीय घाटे को निर्धारित सीमा से बाहर नहीं जाने देंगे बल्कि विदेशी निवेश को लुभाने के लिए और कदम उठाएंगे.

लेकिन मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितता और निराशा के माहौल में इससे रूपये की सेहत कितनी सुधरेगी, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. हाल के महीनों में वित्त मंत्री से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर तक रूपये को चढ़ाने के लिए ऐसे दावे और वायदे कई बार कर चुके हैं लेकिन उनके दावों-वायदों का प्रभाव दो-तीन दिनों से ज्यादा नहीं रहता है.
इसकी वजह यह है कि रूपये का गिरना असली संकट नहीं है बल्कि यह सिर्फ संकट का लक्षण भर
है. असल में, यह अर्थव्यवस्था का संकट है जो रूपये की कमजोरी से लेकर शेयर बाजार में गिरावट तक में दिख रहा है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि रूपये की तेज गिरावट खुद भी एक संकट का रूप लेती जा रही है और पहले से डावांडोल भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट की ओर ढकेल रही है.
आखिर डालर के मुकाबले रूपये की तेज गिरावट की वजह क्या है? ज्यादातर विश्लेषकों का कहना है कि रूपये की कमजोरी की कई वजहें हैं लेकिन सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. रूपये में गिरावट की मुख्य वजह लगातार बढ़ते चालू खाते के घाटे और विदेशी निवेशकों के पलायन को माना जा रहा है. चालू खाते का घाटा व्यापार शेष (माल और सेवाओं के आयात को घटाकर निर्यात), निवल घटक आय (जैसे लाभांश और ब्याज) और निवल अंतरण भुगतान (जैसे विदेशी सहायता) का कुलयोग है जो मोटे तौर पर यह दिखाता है कि देश अपनी आय से कितना ज्यादा उपभोग कर रहा है.

यह चादर से बाहर पैर फ़ैलाने की तरह है. पिछले साल चालू खाते का घाटा ८८ अरब डालर तक पहुँच गया था जोकि जी.डी.पी का ४.८ फीसदी था. सरकार का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष में चालू खाते का घाटा बजट में अनुमानित ७० अरब डालर से कम रहेगा लेकिन कमजोर निर्यात के मद्देनजर बाजार और विदेशी निवेशकों को इस दावे पर भरोसा नहीं है.   

तथ्य यह है कि ऊँचे चालू खाते के घाटे के मामले में भारत इस समय दुनिया के चुनिंदा देशों में है और उससे अधिक चालू खाते का घाटा सिर्फ अमेरिका का है. आमतौर पर जी.डी.पी के २ फीसदी से कम चालू खाते के घाटे को सुरक्षित माना जाता है लेकिन भारत का चालू खाते का घाटा पिछले कई वर्षों से लगातार इस सुरक्षित सीमा से ऊपर रहा है.
चालू खाते के बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और बढ़ता घरेलू खपत, सोने और महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं का बढ़ता आयात है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए देश का अमीर और उच्च मध्यम वर्ग जिम्मेदार है जो चादर से बाहर पैर फैलाकर उपभोग कर रहा है. चाहे वह बड़ी कारों-एस.यू.वी में फूँकने वाला डीजल हो या सुरक्षित निवेश के लिए सोने का आयात या फिर महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की ललक हो- देश के अमीर और उच्च मध्य वर्ग की भूख बढ़ती ही जा रही है.
लेकिन इस कारण बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा यानी डालर चाहिए. इसके लिए विदेशी कर्ज या विदेशी निवेश या दोनों चाहिए और वह विदेशी निवेशकों को लुभाकर और उन्हें अधिक से अधिक छूट देकर ही संभव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो दशकों में जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया गया है, उनके केन्द्र में किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने की रणनीति रही है.

इसके लिए विदेशी निवेशकों को उनकी शर्तें मानकर मुंहमांगी छूट-रियायतें दी गईं हैं. लेकिन इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थाई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की तुलना में अस्थाई विदेशी निवेश खासकर संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.आई.आई) के जरिये शेयर और वित्तीय बाजार में आया है.

लेकिन यह आवारा पूंजी है जब उसे मुंहमांगा मुनाफा मिल रहा होता है, वह तेजी से और बड़ी मात्रा में आती है लेकिन जैसे ही मुनाफा कम होता है या किसी और देश की अर्थव्यवस्था में ज्यादा मुनाफे की सूरत दिखाई देती है, उसे देश छोड़कर निकलने में देर नहीं लगती है.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही हो रहा है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लड़खड़ा रही है. औद्योगिक उत्पादन निराशाजनक है. निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है. इस कारण कंपनियों के मुनाफे पर दबाव बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, आयात में कोई खास कमी नहीं होने के कारण चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है. जाहिर है कि इससे विदेशी निवेशकों में बहुत बेचैनी है और वे सुरक्षित विकल्प खोज में देश से निकल रहे हैं. 
इस बीच, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच वहां के केन्द्रीय बैंक ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लाये गए ‘उत्प्रेरक पैकेज’ (स्टिमुलस पैकेज) और उसके तहत ‘इजी मनी’ की नीति को वापस लेने का एलान किया है जिसके कारण विदेशी निवेशक वापस अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर रूख कर रहे हैं. इससे डालर की मांग बढ़ गई है और रूपये की कीमत में तेज गिरावट दर्ज की जा रही है.

इसका फायदा सट्टेबाज भी उठा रहे हैं. रूपये की कीमत में तेज उतार-चढाव में देशी-विदेशी सट्टेबाजों
की भी बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्थिति आज पैदा हुई है. पिछले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी.

यह स्थिति आज भारतीय अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख संरचनागत समस्या है जो सीधे तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का नतीजा है. इसने आय के असमान बंटवारे और गैर जरूरी उपभोग को बढ़ावा दिया है जिसका नतीजा चालू खाते के घाटे के रूप में सामने है.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र गति और अमेरिकी ‘इजी मनी’ के कारण डालर के तीव्र प्रवाह के बीच बढ़ते चालू खाते के घाटे की समस्या को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने लगातार नजरंदाज़ किया.
उल्टे उनके अति आत्मविश्वास का हाल यह था कि वे पूंजीगत खाते की परिवर्तनीयता (रूपये की पूर्ण परिवर्तनीयता) यानी पूंजी के प्रवाह पर से सारे नियंत्रण हटा लेने की बातें करने लगे थे. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक और सरकार ने पूंजी के प्रवाह को उदार बनानेवाले फैसले भी किये. लेकिन वे भूल गए कि १९९७-९८ में दक्षिण-पूर्वी एशियाई टाइगरों के साथ क्या हुआ था?
यही नहीं, मौजूदा संकट के संकेत पिछले दो साल से दिखने लगे थे. चालू खाते के बढ़ते घाटे, वैश्विक आर्थिक संकट और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के कारण रूपये पर दबाव बढ़ता जा रहा था. हैरानी की बात नहीं है कि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत अगस्त’२०११ में लगभग ४५ रूपये थी, वह गिरकर अगस्त’१२ में ५५ रूपये तक पहुँच गई और अब अगस्त’१३ में और गिरकर ६५ रूपये पर पहुँच गई है.

इस कारण यू.पी.ए सरकार पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने और इसके लिए विदेशी पूंजी को और रियायतें देने का दवाब बढ़ता ही जा रहा था. इसी दबाव में पिछले साल वित्त मंत्री का पद दोबारा संभालने वाले पी. चिदंबरम ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई से लेकर बैंक-बीमा और पेंशन क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और आवारा पूंजी यानी एफ.आई.आई को कई रियायतों का एलान किया.

यही नहीं, उन्होंने इस साल बजट पेश करते हर साफ़ तौर पर एलान किया कि तात्कालिक तौर पर चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वित्त मंत्री ने पिछले एक साल से विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है. विदेशी पूंजी को रियायतें देने के अलावा वे दुनिया भर में घूम-घूमकर निवेशकों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालाँकि इस कोशिश में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी पर और निर्भर बना रहे हैं. लेकिन मौजूदा उपभोग की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी पर बढ़ती यह निर्भरता अर्थव्यवस्था को एक बड़े और गहरे संकट की ओर ढकेल रही है.
उदाहरण के लिए, भारत पर विदेशी कर्ज पिछले दो सालों में २७ फीसदी बढ़ गया है. भारत पर जो विदेशी कर्ज मार्च’११ में ३०६ अरब डालर (जी.डी.पी का १७.५ प्रतिशत) था, वह इस साल मार्च में बढ़कर ३९० अरब डालर (जी.डी.पी का २१.२ प्रतिशत) हो गया है.

यही नहीं, सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें अल्पावधि के विदेशी कर्ज का अनुपात भी तेजी से बढ़ा है. रिपोर्टों के मुताबिक, कुल विदेशी कर्ज में अल्पावधि का कर्ज कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात में मार्च’११ के ४२ फीसदी से बढ़कर मार्च’१३ में ५९ फीसदी तक पहुँच गया है.

यह कर्ज ऐसे ही नहीं बढ़ा है, जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी तो अति आत्मविश्वास में सरकार ने देशी कारपोरेट समूहों को अल्पावधि के विदेशी कर्ज लेने की छूट दी.
 
हालाँकि आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे कई देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन जिस तरह से विदेशी पूंजी खासकर अल्पावधि का कर्ज बढ़ता जा रहा है, वह संकटग्रस्त देशों की दिशा में बढ़ने का संकेत है.

इससे न तो रूपये का संकट खत्म होनेवाला है और न ही अर्थव्यवस्था का संकट टलनेवाला है. विदेशी पूंजी को रियायतें और छूट देकर संकट टालने की रणनीति तात्कालिक तौर पर संकट से भले निजात दिला दे लेकिन वह अगले संकट की नींव तैयार करके जाती है.

आखिर अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याओं को दूर किये बिना विदेशी पूंजी के कोरामिन से अर्थव्यवस्था को कब तक दौडाया जा सकता है?

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 5 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, जून 08, 2013

आई.सी.यू की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था

आर्थिक संकट से निपटने की यू.पी.ए सरकार की रणनीति से माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो रही है


संकट में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की फिसलन जारी है. जैसीकि आशंका थी, पिछले वित्तीय वर्ष (१२-१३) की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च’१३) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र ४.८ फीसदी रही और पूरे वर्ष में पांच फीसदी दर्ज की गई जोकि आर्थिक वृद्धि दर के मामले में पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे फीका और बदतर प्रदर्शन है.
यही नहीं, चौथी तिमाही की ४.८ फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर इसलिए और भी निराशाजनक है क्योंकि यह तीसरी तिमाही की वृद्धि दर ४.७ फीसदी की तुलना न के बराबर सुधार की ओर संकेत करती है. इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के एक गंभीर गतिरुद्धता में फंस जाने का पता चलता है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदों को भी गहरा झटका लगा है.
हालाँकि इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सी.एस.ओ) ने फ़रवरी में जारी पूर्वानुमान में वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी वृद्धि दर के पांच फीसदी रहने का संकेत दिया था. लेकिन उस समय अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजरों ने इससे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जाहिर की थी क्योंकि उन्हें चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दिखाई दे रहे थे.

उन्हें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था तीसरी तिमाही में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है जहाँ से उसमें सुधार होना शुरू हो जाएगा. उनकी उम्मीद की दूसरी वजह यह थी कि पिछले साल अगस्त में पी. चिदंबरम के वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद से यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कई बड़े फैसले किये हैं जिसका असर चौथी तिमाही में दिखने की उम्मीद थी.

लेकिन ताजा रिपोर्टों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था अभी भी आई.सी.यू में पड़ी हुई है. सी.एस.ओ के मुताबिक, वर्ष २०१२-१३ में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र एक फीसदी और उसमें सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) की वृद्धि दर मात्र १.२ फीसदी रही.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- क्रिसिल के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का यह प्रदर्शन पिछले दशक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. क्रिसिल के मुताबिक, यह १९९१-९२ के संकट की याद दिलाता है जब औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर गिरकर मात्र ०.६ फीसदी और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर नकारात्मक (-)०.८ फीसदी रह गई थी.
चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ जनवरी से मार्च की तिमाही में बल्कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में आठ मूल ढांचागत उद्योगों की वृद्धि दर मात्र २.३ फीसदी दर्ज की गई है जोकि पिछले साल इसी अवधि में दर्ज की गई ५.७ फीसदी की वृद्धि दर की आधी से भी कम है.

यही नहीं, इस सप्ताह जारी एच.एस.बी.सी की पी.एम.आई रिपोर्ट के मुताबिक, बीते मई महीने में औद्योगिक गतिविधियों में सुधार तो दूर अप्रैल की तुलना में मामूली गिरावट के संकेत हैं. पी.एम.आई औद्योगिक इकाइयों के मैनेजरों से मांग सम्बन्धी सर्वेक्षण के आधार पर तैयार किया जाता है और वह मई महीने में पिछले ५० महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है.

लेकिन संकट सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है. इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर सेवा क्षेत्र पर भी पड़ा है. यहाँ तक कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी बीते वित्तीय वर्ष में वर्ष ११-१२ की तुलना में लगभग आधी रह गई है. कृषि की वृद्धि दर वर्ष १२-१३ में १.९ फीसदी रही जबकि उससे पहले के वर्ष में ३.६ फीसदी दर्ज की गई थी.
यही हाल निर्यात में बढ़ोत्तरी का है जिसमें चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में मात्र १.६८ फीसदी (डालर में) की वृद्धि दर्ज की गई है. उल्लेखनीय है कि पिछले वित्तीय वर्ष १२-१३ में निर्यात की वृद्धि दर में (-) १.८ फीसदी की गिरावट और आयात में ०.४ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जिसके कारण न सिर्फ व्यापार घाटे में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई बल्कि सबसे अधिक चिंताजनक वृद्धि चालू खाते के घाटे में हुई है जो बढ़कर जी.डी.पी के ५.१ फीसदी तक पहुँच गई है.
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया है कि चालू खाते के घाटे में हुई वृद्धि सबसे बड़ी चुनौती है. चालू खाते के घाटे में भारी वृद्धि के कारण डालर के मुकाबले रूपये पर दबाव बना हुआ है.

हालाँकि इस बीच मुद्रास्फीति की दर में नरमी आई है लेकिन वह अब भी सरकार और रिजर्व बैंक के अनुमानों से कहीं ज्यादा ऊँचाई पर बनी हुई है. वर्ष २०१२-१३ में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ७.४ फीसदी और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर ८.१ फीसदी रही.

कहने की जरूरत नहीं है कि महंगाई पर काबू पाने में नाकामी यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सबसे बड़ी विफलता साबित हुई है.

इसकी कीमत आम आदमी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी चुकानी पड़ी है. असल में, पिछले चार सालों से लगातार ऊँची महंगाई की दर से निपटने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया.
नतीजा, रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जिसका सीधा असर निवेश पर पड़ा. निवेश में कमी आने के कारण आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट दर्ज की गई है जोकि लुढ़ककर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है. इसके बावजूद मुद्रास्फीति पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
इस तरह ‘माया मिली, न राम’ की स्थिति पैदा हो गई है. उल्टे ऊँची मुद्रास्फीति की दर के साथ आर्थिक वृद्धि में गिरावट की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने की आशंका बढ़ती जा रही है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे ने यू.पी.ए सरकार की साख पाताल में पहुंचा दी. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार की रही-सही उम्मीदों पर यू.पी.ए सरकार के अंदर आर्थिक सुस्ती से निपटने की रणनीति पर मतभेदों, खींचतान और अनिर्णय ने पानी फेर दिया.

आखिरकार जब सरकार की नींद खुली और उसने घबराहट और जल्दबाजी में फैसले करने शुरू किये तो वह अर्थव्यवस्था को उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की दवा की बड़ी खुराक से ठीक करने की कोशिश करने लगी जिसके कारण अर्थव्यवस्था बीमार हुई है और जिसकी सफलता को लेकर पूरी दुनिया में सवाल उठाये जा रहे हैं.

असल में, यू.पी.ए सरकार ने अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए एक ओर बड़ी पूंजी खासकर विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे खोलने से लेकर नियमों/शर्तों को उदार बनाने तक और दूसरी ओर, बड़ी विदेशी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए राजकोषीय घाटे में कमी यानी सरकारी खर्चों और सब्सिडी में कटौती जैसे किफायतशारी (आस्ट्रिटी) के उपायों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया.
इसके तहत ही वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए न सिर्फ पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में भारी कटौती की बल्कि चालू साल के बजट में भी बहुत मामूली वृद्धि की है.
लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ है. आर्थिक वृद्धि को लेकर सी.एस.ओ के ताजा अनुमान से साफ़ है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की एक वजह सरकारी खर्चों में भारी कटौती भी है. दरअसल, जब अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता हो और आर्थिक वृद्धि गिर रही हो, उस समय सरकारी खर्चों खासकर सार्वजनिक निवेश में कटौती का उल्टा असर होता है.

इसकी वजह यह है कि आर्थिक विकास को तेज करने के लिए निवेश जरूरी है और जब आर्थिक अनिश्चितता और वैश्विक संकट के कारण निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे न आ रहा हो, उस समय सार्वजनिक निवेश में कटौती से स्थिति और बिगड़ जाती है. भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही होता दिखाई दे रहा है.

इससे एक बार फिर ‘माया मिली, न राम’ वाली स्थिति पैदा हो रही है. आर्थिक वृद्धि में गिरावट का सीधा असर सरकार के टैक्स राजस्व पर पड़ेगा और टैक्स वसूली कम होने से राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी तय है. इस तरह न आर्थिक विकास को गति मिल पाएगी और न राजकोषीय घाटे में कोई कमी आ पाएगी. यह एक दुश्चक्र है.
माना जाता है कि इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की चिंता छोड़कर आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर ढांचागत और सामाजिक क्षेत्र में भारी बढ़ोत्तरी करनी चाहिए.
इससे अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उसके साथ मांग बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश भी आगे आएगा. इससे आर्थिक गतिरुद्धता भंग होगी.
यह कोई समाजवादी फार्मूला नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में  कींसवादी अर्थशास्त्र है जिसे १९३० के दशक की महामंदी से निपटने के लिए जान मेनार्ड कींस ने पेश किया था.

लेकिन मुश्किल यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह में फंसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक को यह भरोसा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने जैसे आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ानेवाले फैसलों से देश में विदेशी निवेश तेजी से आएगा और उससे अर्थव्यवस्था एक बार फिर तेजी से दौड़ने लगेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ा जोखिम ले रही है. वह अर्थव्यवस्था के साथ एक बड़ा दाँव खेल रही है जिसमें हालिया वैश्विक उदाहरणों को देखते हुए कामयाबी की सम्भावना कम दिखाई दे रही है.
लेकिन अगर वह सफल भी हुई तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी का और बड़ा मोहताज बना देगी.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 8 जून को प्रकाशित टिप्पणी)                     


बुधवार, अप्रैल 03, 2013

सोने की भूख और चालू खाते का बढ़ता घाटा

अमीर फैला रहे चादर से बाहर पैर लेकिन उसकी कीमत चुकायेंगे गरीब

ऊँची मुद्रास्फीति और घटती वृद्धि दर के बीच बेहाल भारतीय अर्थव्यवस्था एक और बड़ी मुसीबत में फंसती हुई दिखाई दे रही है. यह मुसीबत है चालू खाते का घाटा जो १९९१ के दुगुने से भी ज्यादा हो चुका है और जिसके कारण दो दशक पहले भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.
ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, चालू खाते का घाटा वित्तीय वर्ष (१२-१३) की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में उछलकर जी.डी.पी के ६.७ फीसदी तक पहुँच गया है. साफ़ तौर पर चालू खाते का घाटा खतरे के निशान को पार कर गया है. खुद वित्त मंत्री ने भी बजट भाषण में स्वीकार किया था कि चालू खाते का बढ़ता घाटा उनके लिए सबसे बड़ी चिंता है.
यही नहीं, ब्रिक्स सम्मेलन से लौटते हुए खुद प्रधानमंत्री ने माना कि चालू खाते के घाटे की स्वीकार्य सीमा जी.डी.पी की ३ फीसदी है. चालू खाते का घाटा किसी देश के सेवाओं और जिंसों के निर्यात, विदेशों में निवेश और कैश ट्रांसफर से होनेवाली कुल आय और सेवाओं-जिंसों के आयात, देश में विदेशी निवेश और कैश ट्रांसफर पर होनेवाले खर्च के बीच का अंतर है.

यह अर्थव्यवस्था की सेहत का महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता है. इसकी भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा की जरूरत पड़ती है जिसके अभाव में कई बार देशों को अपनी देनदारियों के भुगतान में चूकना पड़ा है. इसका बहुत नकारात्मक असर उस देश की मुद्रा और उसकी साख पर पड़ता है.

यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था १९९१ के मुकाबले आज इस मायने में ज्यादा बेहतर स्थिति में है कि आज भारत के पास विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भण्डार है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, भारत के पार इस समय कुल २९३.४ अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है जोकि छह महीने के आयात के लिए पर्याप्त है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि दिसंबर’१२ में भारत का कुल विदेशी कर्ज ३७६.३ अरब डालर तक
पहुँच गया है और इस तरह विदेशी मुद्रा का भण्डार इसके ७८.६ फीसदी की ही भरपाई कर सकता है. यह साफ़ तौर पर सिर्फ नौ महीने पहले मार्च’१२ के कुल विदेशी कर्ज-कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात ८५.२ प्रतिशत की तुलना में बदतर होती स्थिति की ओर इशारा कर रहा है.
लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात है कि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज की मात्रा तेजी से बढ़ रही है. मार्च’१२ की तुलना में दिसंबर’१२ में जहाँ दीर्घावधि के विदेशी कर्ज में ६.४ प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीँ लघु अवधि के कर्ज में १७.५ फीसदी की तेज उछाल दर्ज की गई और यह ९१.९ अरब डालर पहुँच गया है. दिसंबर’१२ में लघु अवधि के विदेशी कर्ज, कुल विदेशी कर्ज के २४.४ फीसदी तक पहुँच गए हैं.

माना जाता है कि विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात जितना ज्यादा होता है, उससे अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का खतरा उतना ही बढ़ता जाता है. याद रहे कि ९० के दशक के उत्तरार्द्ध में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इसी कारण गहरे संकट में फंस गईं थीं.

हालाँकि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में कम है लेकिन चिंता की बात यह है कि यह तेजी से बढ़ रहा है. इसके तेजी से बढ़ने की एक बड़ी वजह चालू खाते का घाटा है जिसकी भरपाई के लिए लघु अवधि के कर्ज लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है.
यही नहीं, चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा को आकर्षित करने का दबाव और बढ़ जाता है. खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट भाषण में माना कि चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए इस साल कोई ७५ अरब डालर की जरूरत पड़ेगी और यह सिर्फ एफ.डी.आई, एफ.आई.आई और विदेशी व्यावसायिक कर्ज से ही आ सकता है.  
लेकिन विदेशी पूंजी अपनी ही शर्तों और कीमत के साथ आती है. नतीजा यह कि सरकार पर विदेशी निवेशकर्ताओं को न सिर्फ अधिक से अधिक छूट और रियायतें देने का दबाव रहता है बल्कि उसे उनकी अनुचित शर्तों को भी मानना पड़ता है.

उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने न सिर्फ अर्थव्यवस्था के कई संवेदनशील क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार, बीमा-पेंशन को प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश के लिए खोलने और उन्हें खुश करने के लिए टैक्स बचाने पर रोक नियमों (गार) को टालने का फैसला किया है बल्कि आवारा पूंजी कहे जानेवाले विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को लुभाने के लिए कई वित्तीय लेखपत्रों में निवेश की सीमा बढ़ाने से लेकर कई छूट/रियायतें दी गईं हैं.

यह सही है कि इसके कारण पिछले छह महीनों में देश में विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी यानी एफ.आई.आई का प्रवाह तेजी से बढ़ा है जबकि एफ.डी.आई में उस अनुपात में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है.
लेकिन आवारा पूंजी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह संकट का पहला संकेत मिलते ही देश छोड़कर निकल जाती है. उसके निकालने का सीधा असर वित्तीय बाजारों की स्थिरता और रूपये की कीमत पर पड़ता है और अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
पिछले दो-ढाई दशकों में दुनिया भर के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट में फंसने में इस आवारा पूंजी का पलायन एक बड़ी वजह रही है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजर चालू खाते को घाटे को कम करने के ठोस उपाय करने के बजाय उस घाटे की भरपाई के लिए देश को लघु अवधि के कर्जों और आवारा पूंजी पर निर्भर बनाते जा रहे हैं.

सवाल यह है कि चालू खाते का घाटा इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? इसकी मुख्य वजह यह है कि निर्यात में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है जबकि आयात तेजी से बढ़ रहा है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष २००१ में भारत का आयात जी.डी.पी का १० फीसदी था जो वर्ष २०११ में बढ़कर २५ फीसदी से ऊपर पहुँच चुका है जबकि इसी अवधि में निर्यात जी.डी.पी का ९.२ फीसदी से १६ फीसदी पहुंचा है.

साफ़ है कि भारत चादर से ज्यादा पैर फैला रहा है और यह खतरे की घंटी है. असल में, भारत के आयात में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल और सोने का है. खासकर पिछले कुछ सालों में देश में जिस
तरह से सोने की भूख बढ़ी है, वह चौंकानेवाली है.
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा सोना आयातक देश है. यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक खासकर पिछले चार वर्षों में तेजी से बढ़ी है. रिपोर्टों के मुताबिक, वर्ष २००२-०३ में भारत ने ३.८ अरब डालर का सोना आयात किया जो वर्ष २००३-०४ में लगभग तिगुना उछलकर १०.५ अरब डालर तक पहुँच गया. यह २००९-१० में और बढ़कर २८.६ अरब डालर और वर्ष ११-१२ में रिकार्ड़तोड़ उछाल के साथ ५७.५ अरब डालर तक पहुँच गया. चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) के पहले नौ महीनों में सोने का आयात ३९.५ अरब डालर पहुँच चुका है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इतनी भारी मात्रा में सोने के आयात के कारण न सिर्फ चालू खाते का घाटा बेकाबू हो रहा है बल्कि इसे कालेधन को छुपाने और सट्टेबाजी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

इससे अर्थव्यवस्था को दोहरा नुकसान हो रहा है. एक ओर, चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है, उसकी भरपाई के लिए आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ रही है और दूसरी ओर, निवेश योग्य पूंजी एक मृत परिसंपत्ति में बदलकर बेकार जा रही है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इसपर रोक लगाने के लिए कड़े फैसले करने से हिचकती रही है. यह ठीक है कि सोने के आयात पर आयात शुल्क में वृद्धि की गई है लेकिन उसका कोई असर नहीं पड़ा है.

सवाल यह है कि उसपर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाने से सरकार कन्नी क्यों काट रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सोने का भारी आयात करके इस देश के अमीर चादर से बाहर पैर फैला रहे हैं लेकिन जब देश आर्थिक संकट में फंसेगा तो उसकी सबसे अधिक कीमत गरीबों को चुकानी पड़ेगी.                  
('राष्ट्रीय सहारा' के 2 अप्रैल के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

शुक्रवार, मार्च 01, 2013

दुष्चक्र में भारतीय अर्थव्यवस्था

नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी हो गई है  

देर से और कुछ झिझकते हुए ही सही लेकिन यू.पी.ए सरकार ने आखिरकार मान लिया है कि पिछले दो वर्षों से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए बाहरी कारणों के अलावा घरेलू कारण भी उतने ही जिम्मेदार हैं. इससे पहले तक सरकार के आर्थिक मैनेजरों से लेकर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री तक अर्थव्यवस्था के बद से बदतर होते प्रदर्शन के लिए वैश्विक आर्थिक संकट को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी और विफलताओं से बचने की कोशिश किया करते थे.
लेकिन ताजा आर्थिक सर्वेक्षण (१२-१३) में सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए कुछ हद तक बाहरी कारण जिम्मेदार हैं लेकिन घरेलू कारण भी महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण घरेलू कारणों में उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की सीधी भूमिका और सरकार में सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के बोलबाले और बेहतर और पारदर्शी प्रशासन के अभाव को अनदेखा करता है जिनके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है.

इसके उलट वह आर्थिक वृद्धि में आई भारी गिरावट को सिर्फ कुछ आर्थिक-वित्तीय-प्रशासनिक कारकों तक सीमित कर देता है बल्कि इसके लिए वर्ष २००८-०९ में वैश्विक मंदी से निपटने के लिए दिए गए स्टिमुलस पैकेज को भी जिम्मेदार ठहरा देता है. इस तरह वह यू.पी.ए सरकार के उन दावों पर भी सवाल खड़े कर देता है जो वह वैश्विक मंदी के शुरूआती दौर से सफलतापूर्वक निपटने और देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए करती रही है.

आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई भारी गिरावट के लिए मुख्य तौर पर तीन कारण जिम्मेदार हैं. वह स्वीकार करता है कि वैश्विक आर्थिक मंदी से निपटने के लिए वर्ष २००८-०९ में दिए गए भारी स्टिमुलस पैकेज के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था संभल गई और उसने अगले दो वर्षों तक लगातार तेज वृद्धि दर हासिल की.
उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २००९-१० में ८.६ प्रतिशत और वर्ष २०१०-११ में ९.३ फीसदी थी. लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए दिया गया स्टिमुलस पैकेज बड़ा था जिसके कारण मांग बहुत तेजी से बढ़ी और इन दो वर्षों में उपभोग की वृद्धि दर औसतन ८ फीसदी तक पहुँच गई. लेकिन आपूर्ति सम्बन्धी बाधाओं के कारण इसने मुद्रास्फीति को हवा दी और उसमें तेज वृद्धि दर्ज की गई.
नतीजा यह हुआ कि इस बेकाबू मुद्रास्फीति को रोकने के लिए रिजर्व बैंक ने मौद्रिक उपायों के तहत ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करनी शुरू की और दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने स्टिमुलस पैकेज को वापस लेना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि अर्थव्यवस्था में मांग में कमी आनी शुरू हो गई और निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा. इससे अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी.

परिणाम यह हुआ कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २०११-१२ में गिरकर ६.२ प्रतिशत रह गई और चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.

इस संकट का असर सरकार के खजाने पर पड़ा है क्योंकि जी.डी.पी की वृद्धि दर में गिरावट के कारण राजस्व वसूली में भी कमी आई है. इसके कारण सरकार के राजकोषीय घाटे में वृद्धि हुई है. मजे की बात यह है कि जिस मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए वृद्धि की कुर्बानी की गई, वह मुद्रास्फीति भी पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
हालत यह है कि थोक मुद्रास्फीति की दर में हाल के महीनों में कमी जरूर आई है लेकिन वह अब भी ७ फीसदी के आसपास बनी हुई है. यही नहीं, उसके अंदर खाद्य मुद्रास्फीति दर और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अब भी दोहरे अंकों में बनी हुई है.
इस तरह अर्थव्यवस्था एक दुष्चक्र में फंस गई है और माया मिली, न राम वाली हालत हो गई. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर इससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं. आर्थिक सर्वेक्षण के नुस्खों और वित्त मंत्री के हालिया बयानों से ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था को दुष्चक्र में फंसानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं हैं, उल्टे वे उसकी और बड़ी डोज देने की वकालत करते हुए दिख रहे हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती खासकर सब्सिडी में कटौती की पैरवी करता है. उसके मुताबिक, इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति पर काबू पाने में आसानी होगी बल्कि रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने और निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी.

अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का मानना है कि इससे अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने में मदद मिलेगी क्योंकि यू.पी.ए सरकार ने उसे गति देने के लिए कई महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों का एलान पहले ही कर दिया है. इस तरह यह आर्थिक सर्वेक्षण उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में अर्थव्यवस्था की बीमारी का इलाज ढूंढता है जिनके कारण वह बीमार हुई है.
सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौट आएगी? हालाँकि सर्वेक्षण का दावा है कि अगले वित्तीय वर्ष (१३-१४) में अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करेगी और जी.डी.पी की वृद्धि दर ६.१ फीसदी से लेकर ६.७ फीसदी के बीच रहेगी.
लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह कुछ ज्यादा ही आशावादी नजरिया है. खासकर अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो उपाय सुझाए जा रहे हैं, उससे यह संकट और गहरा सकता है.

सच यह है कि अगर वित्त मंत्री ने आज बजट पेश करते हुए राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की उपेक्षा की तो अर्थव्यवस्था की स्थिति और बिगड़ सकती है. यूरोप का उदाहरण सामने है जहाँ मितव्ययिता की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्थाओं का संकट और गहरा गया है और आमलोगों को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
असल में, इस मुद्दे पर विचार बहुत जरूरी है क्योंकि जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के भरोसे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने प्रस्ताव किया जा रहा है, उसमें न सिर्फ उसकी स्थिति और बिगड़ने का खतरा है बल्कि उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि अगर अर्थव्यवस्था बड़ी पूंजी को दी गई छूटों/रियायतों के कारण कुछ समय के लिए फिर से उछाल हासिल भी कर ले तो वह स्थाई नहीं रह पाएगी.
दूसरे, उसका लाभ आमलोगों तक नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह उछाल बड़ी पूंजी का, बड़ी पूंजी के लिए और बड़ी पूंजी के द्वारा होगा.
खुद आर्थिक सर्वेक्षण ने स्वीकार किया है कि जब अर्थव्यवस्था तेज वृद्धि दर से बढ़ रही थी, उस समय भी उस अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हुए. दरअसल, यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास के माडल की सबसे बड़ी समस्या है कि वह न सिर्फ बार-बार संकट में फंसती रहती है बल्कि जब वह बेहतर प्रदर्शन कर रही होती है तब भी उसका लाभ आमलोगों खासकर गरीबों, बेरोजगारों और हाशिए पर पड़े लोगों को नहीं मिलता है.

अलबत्ता, वह जब संकट में फंस जाती है तो उसकी सबसे ज्यादा कीमत गरीबों और आम आदमी को चुकानी पड़ती है. अफ़सोस, आर्थिक सर्वेक्षण के पास इस संकट और दुष्चक्र का कोई उत्तर नहीं है.

साफ़ है कि नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी इस आर्थिक सर्वेक्षण में भी दिखाई दे रही है.                                
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २८ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

बजट'१३ : महंगाई और रोजगार का मुद्दा एजेंडे से गायब है

अर्थव्यवस्था का संकट निवेश की कमी से गहरा रहा है लेकिन चिदंबरम वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं

दूसरी क़िस्त    

इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. खुद भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यकीय संगठन (सी.एस.ओ) के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है जो पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.

इस कारण वित्त मंत्री पर एक ऐसा बजट पेश करने का दबाव है जो अर्थव्यवस्था की मद्धिम पड़ती रफ़्तार को फिर से तेज कर सके. इसके लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े. इस मुद्दे पर व्यापक सहमति है कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से बाहर निकालने के लिए निवेश बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

लेकिन निवेश बढ़ाने की रणनीति को लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. खुद वित्त मंत्री और उनके आर्थिक मैनेजरों समेत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का मानना है कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को निवेश के अनुकूल माहौल बनाने और निजी निवेश की राह में आनेवाली बाधाओं को हटाने पर जोर देना चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र पर छोड़ देना चाहिए.

इस नव उदारवादी रणनीति के तहत ही पी. चिदंबरम अगले बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने, ब्याज दरों में कमी करने के लिए रिजर्व बैंक को मनाने और देशी-विदेशी निजी निवेशकों और कार्पोरेट्स को निवेश के लिए प्रेरित करने हेतु और अधिक रियायतें देने की तैयारी कर रहे हैं.

लेकिन इस रणनीति की सफलता को लेकर अर्थशास्त्रियों में गहरे मतभेद हैं. अर्थशास्त्रियों के एक हिस्से का मानना है कि राजकोषीय घाटे में कटौती के ‘आब्सेशन’ और वित्तीय कठमुल्लावाद से अर्थव्यवस्था का संकट और गहरा सकता है.
इसके लिए वे यूरोप का उदाहरण देते हैं जहाँ राजकोषीय घाटे में कटौती के नामपर अपनाई गई किफायतशारी (आस्ट्रीटी) की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस गई है. असल में, जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही हो और मांग में गिरावट और आर्थिक अनिश्चितताओं के कारण निजी निवेश ठहर गया हो, उस समय अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए ‘उत्प्रेरक’ (स्टिमुलस) की जरूरत होती है.
कीन्सवादी अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, ऐसे समय में सरकार को कुछ समय के लिए राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़कर अर्थव्यवस्था में उत्पादक सार्वजनिक निवेश खासकर सामाजिक और भौतिक ढांचागत क्षेत्र में बढ़ाना चाहिए. सार्वजनिक निवेश बढ़ने से न सिर्फ रोजगार के नए अवसर बढ़ेंगे बल्कि उससे विभिन्न वस्तुओं और उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश आगे आएगा.

लेकिन अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी के संकट से उबारने के लिए चार साल पहले ही स्टिमुलस पैकेज दिया जा चुका है और उसके कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए अब राजकोषीय स्थिति को सुदृढ़ करने की सख्त जरूरत है.

उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने वर्ष २००७-०८ में अमेरिकी आर्थिक संकट के बाद पैदा हुई वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने कोई दो लाख करोड़ रूपये के स्टिमुलस पैकेज का एलान किया था. लेकिन इस स्टिमुलस पैकेज में करो में छूट और कारपोरेट क्षेत्र को दी गई रियायतें ज्यादा थीं और सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के लिए कोई खास कोशिश नहीं की गई.
इसका नतीजा यह हुआ कि इस पैकेज के कारण कारपोरेट क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाए रखने में कामयाब रहा लेकिन उसने वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर निवेश बढ़ाने में रूचि नहीं दिखाई. दूसरी ओर, स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे में तेजी से वृद्धि हुई.
इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे में भले वृद्धि हुई हो लेकिन उससे अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी की मार से उबरने में मदद मिली. आश्चर्य नहीं कि जी.डी.पी वृद्धि की रफ़्तार वैश्विक आर्थिक संकट के कारण वर्ष २००७-०८ के ९.३ फीसदी की तुलना में २००८-०९ में गिरकर ६.७ फीसदी रह गई थी, वह २००९-१० और १०-११ में बढ़कर क्रमश: ८.६ और ९.३ फीसदी तक पहुँच गई.

लेकिन उसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बढ़ते राजकोषीय घाटे की दुहाई देकर स्टिमुलस उपायों को वापस लेना शुरू कर दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर एक बार फिर लुढककर ६.२ फीसदी रह गई जिसके चालू वित्तीय वर्ष में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रह जाने का अनुमान है.

साफ़ है कि किफायतशारी की नीति काम नहीं कर रही हैं. उसका असर उल्टा हो रहा है. ऐसे में, यह सवाल बहुत मौजूं हो जाता है कि क्या वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के उन्हीं नीतियों पर और जोर देने से स्थिति और नहीं बिगड़ जाएगी?
लेकिन चिदंबरम के रवैये से लगता नहीं है कि वे इस नीति पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हैं. जाहिर है कि वे एक बड़ा जोखिम ले रहे हैं. वे सार्वजनिक निवेश के बजाय निजी देशी-विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी पर दांव लगा रहे हैं. इसके लिए वे उसकी हर मांग पूरी कर रहे हैं. राजकोषीय घाटे में कमी के लिए आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के साथ-साथ वे अर्थव्यवस्था के बचे क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल रहे हैं.
लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि क्या बड़ी देशी-विदेशी निजी पूंजी और कार्पोरेट्स अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की पहल करेंगे? हालाँकि चिदंबरम का जादू चला या नहीं, यह जानने के लिए अगले कुछ महीनों का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन इतना तय है कि वे एक बड़ा जुआ खेल रहे हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत भारी भी पड़ सकता है.

यही नहीं, अगर वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने में कामयाब भी होते हैं तो यह सवाल बना रहेगा कि यह किस कीमत पर हुआ और कितना स्थाई है? आखिर आमलोगों पर इतना बोझ डालकर और उनकी बुनियादी जरूरतों की अनदेखी करके और दूसरी ओर, बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को इतनी रियायतें देकर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने की इस रणनीति से किसे लाभ हो रहा है?

यही नहीं, इस रणनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के नामपर यह कार्पोरेट्स और आवारा विदेशी पूंजी को अधिक से अधिक रियायतें देने और उसकी सभी जायज-नाजायज मांगों को स्वीकार करती जा रही है.
एक अर्थ में यह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के ब्लैकमेल के आगे घुटने टेकने की तरह है. लेकिन अर्थव्यवस्था की कमान बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हाथों में सौंपने के बाद वित्त मंत्री के पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है.
काबू से बाहर महंगाई और आम आदमी की उम्मीदें

लेकिन सवाल यह भी है कि इस बजट में महंगाई से निपटने के लिए क्या होगा? दूसरे, इस चुनावी वर्ष में बजट से आम आदमी को क्या मिलनेवाला है? तीसरे, खाद्य सुरक्षा जैसे पिछले चुनावी वायदों का क्या होगा? क्या ये चिंताएं भी वित्त मंत्री की प्राथमिकता सूची में कहीं हैं?
निश्चय ही, वित्त मंत्री महंगाई को लेकर इनसे चिंतित हैं. लेकिन उनका मानना है कि महंगाई पर अंकुश के लिए भी राजकोषीय घाटे पर काबू पाना जरूरी है. इसलिए बजट में महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए अलग से कोई पहल और उपाय करने के बजाय वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके जरिये मांग और कीमतों पर दबाव कम करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन इससे महंगाई खासकर खाद्य महंगाई में कमी आने की उम्मीद बहुत कम है जोकि अभी भी दोहरे अंकों में चल रही है. इसी तरह बजट में आम आदमी खासकर गरीबों को कुछ नहीं मिलने जा रहा है. उल्टे गरीबी उन्मूलन की कई योजनाओं में काट-छांट और उनके बजट में कटौती की आशंका है.

अलबत्ता यह संभव है कि चिदंबरम आम आदमी के नामपर मध्यवर्ग को करों में रियायत देकर कांग्रेस की ओर आकर्षित करने की कोशिश करें. इससे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को भी शिकायत नहीं होगी क्योंकि मध्य वर्ग के हाथ में अधिक पैसा आने का सबसे अधिक फायदा उसे ही होता है. मध्य वर्ग आमतौर पर उस अतिरिक्त आय को उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करता है जिससे इन उत्पादों की मांग बढ़ती है.

लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि वित्त मंत्री इस बजट में खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर क्या प्रावधान करेंगे? कांग्रेस अगले आम चुनावों में इस योजना को भुनाना चाहती है. इस बात के पूरे आसार हैं कि वित्त मंत्री न चाहते हुए भी इस योजना के लिए बजटीय प्रावधान करेंगे.

लेकिन राजकोषीय घाटे को काबू में करने की उनकी प्राथमिकता के मद्देनजर यह संभव है कि वे इस योजना पर ईमानदारी से अमल के लिए जरूरी बजटीय प्रावधान के बजाय प्रतीकात्मक प्रावधान करें लेकिन बजट भाषण में बड़े-बड़े दावे करें.

यही नहीं, चुनावी वर्ष का बजट होने के नाते इसमें लच्छेदार बातें खूब होंगी, आम आदमी की खूब कसमें खाई जायेंगी, किसानों की दुहाई दी जाएगी लेकिन बजटीय प्रावधानों में वित्तीय कठमुल्लावाद की ही चलेगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में कवर स्टोरी)