नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी हो गई है
इसके उलट वह आर्थिक वृद्धि में आई भारी गिरावट को सिर्फ कुछ आर्थिक-वित्तीय-प्रशासनिक कारकों तक सीमित कर देता है बल्कि इसके लिए वर्ष २००८-०९ में वैश्विक मंदी से निपटने के लिए दिए गए स्टिमुलस पैकेज को भी जिम्मेदार ठहरा देता है. इस तरह वह यू.पी.ए सरकार के उन दावों पर भी सवाल खड़े कर देता है जो वह वैश्विक मंदी के शुरूआती दौर से सफलतापूर्वक निपटने और देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए करती रही है.
परिणाम यह हुआ कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २०११-१२ में गिरकर ६.२ प्रतिशत रह गई और चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.
आर्थिक सर्वेक्षण राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती खासकर सब्सिडी में कटौती की पैरवी करता है. उसके मुताबिक, इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति पर काबू पाने में आसानी होगी बल्कि रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने और निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी.
सच यह है कि अगर वित्त मंत्री ने आज बजट पेश करते हुए राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की उपेक्षा की तो अर्थव्यवस्था की स्थिति और बिगड़ सकती है. यूरोप का उदाहरण सामने है जहाँ मितव्ययिता की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्थाओं का संकट और गहरा गया है और आमलोगों को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
अलबत्ता, वह जब संकट में फंस जाती है तो उसकी सबसे ज्यादा कीमत गरीबों और आम आदमी को चुकानी पड़ती है. अफ़सोस, आर्थिक सर्वेक्षण के पास इस संकट और दुष्चक्र का कोई उत्तर नहीं है.
देर से और कुछ झिझकते हुए ही सही लेकिन यू.पी.ए सरकार ने आखिरकार मान
लिया है कि पिछले दो वर्षों से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए
बाहरी कारणों के अलावा घरेलू कारण भी उतने ही जिम्मेदार हैं. इससे पहले तक सरकार
के आर्थिक मैनेजरों से लेकर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री तक अर्थव्यवस्था के बद
से बदतर होते प्रदर्शन के लिए वैश्विक आर्थिक संकट को जिम्मेदार ठहराकर अपनी
जिम्मेदारी और विफलताओं से बचने की कोशिश किया करते थे.
लेकिन ताजा आर्थिक सर्वेक्षण
(१२-१३) में सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था की
वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए कुछ हद तक बाहरी कारण जिम्मेदार हैं लेकिन घरेलू
कारण भी महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण घरेलू कारणों में उन नव उदारवादी आर्थिक
नीतियों की सीधी भूमिका और सरकार में सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के बोलबाले और
बेहतर और पारदर्शी प्रशासन के अभाव को अनदेखा करता है जिनके कारण अर्थव्यवस्था
पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है. इसके उलट वह आर्थिक वृद्धि में आई भारी गिरावट को सिर्फ कुछ आर्थिक-वित्तीय-प्रशासनिक कारकों तक सीमित कर देता है बल्कि इसके लिए वर्ष २००८-०९ में वैश्विक मंदी से निपटने के लिए दिए गए स्टिमुलस पैकेज को भी जिम्मेदार ठहरा देता है. इस तरह वह यू.पी.ए सरकार के उन दावों पर भी सवाल खड़े कर देता है जो वह वैश्विक मंदी के शुरूआती दौर से सफलतापूर्वक निपटने और देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए करती रही है.
आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई भारी
गिरावट के लिए मुख्य तौर पर तीन कारण जिम्मेदार हैं. वह स्वीकार करता है कि वैश्विक
आर्थिक मंदी से निपटने के लिए वर्ष २००८-०९ में दिए गए भारी स्टिमुलस पैकेज के
कारण भारतीय अर्थव्यवस्था संभल गई और उसने अगले दो वर्षों तक लगातार तेज वृद्धि दर
हासिल की.
उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २००९-१० में ८.६
प्रतिशत और वर्ष २०१०-११ में ९.३ फीसदी थी. लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक,
अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए दिया गया स्टिमुलस पैकेज बड़ा था जिसके कारण मांग
बहुत तेजी से बढ़ी और इन दो वर्षों में उपभोग की वृद्धि दर औसतन ८ फीसदी तक पहुँच
गई. लेकिन आपूर्ति सम्बन्धी बाधाओं के कारण इसने मुद्रास्फीति को हवा दी और उसमें
तेज वृद्धि दर्ज की गई.
नतीजा यह हुआ कि इस बेकाबू मुद्रास्फीति को रोकने के लिए रिजर्व बैंक
ने मौद्रिक उपायों के तहत ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करनी शुरू की और दूसरी ओर,
केंद्र सरकार ने स्टिमुलस पैकेज को वापस लेना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि
अर्थव्यवस्था में मांग में कमी आनी शुरू हो गई और निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव
पड़ा. इससे अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी. परिणाम यह हुआ कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २०११-१२ में गिरकर ६.२ प्रतिशत रह गई और चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.
इस संकट का असर सरकार के खजाने पर पड़ा है क्योंकि जी.डी.पी की वृद्धि
दर में गिरावट के कारण राजस्व वसूली में भी कमी आई है. इसके कारण सरकार के
राजकोषीय घाटे में वृद्धि हुई है. मजे की बात यह है कि जिस मुद्रास्फीति को काबू
में करने के लिए वृद्धि की कुर्बानी की गई, वह मुद्रास्फीति भी पूरी तरह से काबू
में नहीं आई है.
हालत यह है कि थोक मुद्रास्फीति की दर में हाल के महीनों में कमी
जरूर आई है लेकिन वह अब भी ७ फीसदी के आसपास बनी हुई है. यही नहीं, उसके अंदर
खाद्य मुद्रास्फीति दर और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अब
भी दोहरे अंकों में बनी हुई है.
इस तरह अर्थव्यवस्था एक दुष्चक्र में फंस गई है और माया मिली, न राम
वाली हालत हो गई. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक
मैनेजर इससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं. आर्थिक सर्वेक्षण के नुस्खों और
वित्त मंत्री के हालिया बयानों से ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था को दुष्चक्र में
फंसानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं हैं,
उल्टे वे उसकी और बड़ी डोज देने की वकालत करते हुए दिख रहे हैं. आर्थिक सर्वेक्षण राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती खासकर सब्सिडी में कटौती की पैरवी करता है. उसके मुताबिक, इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति पर काबू पाने में आसानी होगी बल्कि रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने और निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी.
अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का मानना है कि इससे अर्थव्यवस्था की सुस्ती
को तोड़ने में मदद मिलेगी क्योंकि यू.पी.ए सरकार ने उसे गति देने के लिए कई
महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों का एलान पहले ही कर दिया है. इस तरह यह आर्थिक
सर्वेक्षण उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में अर्थव्यवस्था की बीमारी का इलाज
ढूंढता है जिनके कारण वह बीमार हुई है.
सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था फिर
से पटरी पर लौट आएगी? हालाँकि सर्वेक्षण का दावा है कि अगले वित्तीय वर्ष (१३-१४)
में अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करेगी और जी.डी.पी की वृद्धि दर ६.१ फीसदी से
लेकर ६.७ फीसदी के बीच रहेगी.
लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह कुछ ज्यादा ही
आशावादी नजरिया है. खासकर अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो उपाय सुझाए जा रहे
हैं, उससे यह संकट और गहरा सकता है. सच यह है कि अगर वित्त मंत्री ने आज बजट पेश करते हुए राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की उपेक्षा की तो अर्थव्यवस्था की स्थिति और बिगड़ सकती है. यूरोप का उदाहरण सामने है जहाँ मितव्ययिता की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्थाओं का संकट और गहरा गया है और आमलोगों को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
असल में, इस मुद्दे पर विचार बहुत जरूरी है क्योंकि जिन नव उदारवादी
आर्थिक नीतियों और खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के भरोसे अर्थव्यवस्था को पटरी पर
लाने प्रस्ताव किया जा रहा है, उसमें न सिर्फ उसकी स्थिति और बिगड़ने का खतरा है
बल्कि उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि अगर अर्थव्यवस्था बड़ी पूंजी को दी गई
छूटों/रियायतों के कारण कुछ समय के लिए फिर से उछाल हासिल भी कर ले तो वह स्थाई
नहीं रह पाएगी.
दूसरे, उसका लाभ आमलोगों तक नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह उछाल बड़ी
पूंजी का, बड़ी पूंजी के लिए और बड़ी पूंजी के द्वारा होगा.
खुद आर्थिक सर्वेक्षण ने स्वीकार किया है कि जब अर्थव्यवस्था तेज
वृद्धि दर से बढ़ रही थी, उस समय भी उस अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हुए.
दरअसल, यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास के माडल की सबसे बड़ी समस्या
है कि वह न सिर्फ बार-बार संकट में फंसती रहती है बल्कि जब वह बेहतर प्रदर्शन कर
रही होती है तब भी उसका लाभ आमलोगों खासकर गरीबों, बेरोजगारों और हाशिए पर पड़े
लोगों को नहीं मिलता है. अलबत्ता, वह जब संकट में फंस जाती है तो उसकी सबसे ज्यादा कीमत गरीबों और आम आदमी को चुकानी पड़ती है. अफ़सोस, आर्थिक सर्वेक्षण के पास इस संकट और दुष्चक्र का कोई उत्तर नहीं है.
साफ़ है कि नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी इस आर्थिक
सर्वेक्षण में भी दिखाई दे रही है.
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २८ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)
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