आर्थिक समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आर्थिक समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, मार्च 15, 2013

आर्थिक सर्वेक्षण की उलटबांसी: रोजगार चाहिए तो छंटनी का अधिकार दीजिये

श्रम सुधारों के नामपर श्रमिकों को हायर-फायर का अधिकार मांग रहे हैं कार्पोरेट्स
 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि रोजगार के ज्यादा और बेहतर अवसर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सख्त श्रम कानून संगठित क्षेत्र में बड़े विनिर्माण उद्योग के विकास में बाधा बने हुए हैं.
सर्वेक्षण का दावा है कि भारत के श्रम कानून कम से कम किताब दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत सख्त हैं. सिर्फ दो विकसित देशों में इससे सख्त कानून हैं. लेकिन सर्वेक्षण का तर्क है कि बहुत कम श्रमिकों को इन कानूनों का संरक्षण हासिल है. लेकिन इसके कारण बड़ी औद्योगिक इकाइयां स्थाई श्रमिकों को नौकरी देने से हिचकिचाती हैं.
हालाँकि आर्थिक सर्वेक्षण मानता है कि इस मुद्दे पर देश में बहुत तीखी बहस है कि क्या सख्त श्रम कानून रोजगार के अवसरों को बढ़ने की राह में रोड़ा बने हुए हैं? लेकिन खुद सर्वेक्षण का दावा है कि रोजगार के नए और बेहतर अवसरों के सृजन में सख्त श्रम कानून ही सबसे प्रमुख बाधा हैं.

सर्वेक्षण के अनुसार, देश में सख्त श्रम कानूनों के कारण ज्यादातर रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में हैं यानी बिना किसी संविदा और सुविधाओं के श्रमिकों को काम करना पड़ता है. सर्वेक्षण के मुताबिक, अभी ९५ फीसदी रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है और कोई ८० फीसदी श्रमिक बिना किसी संविदा के काम करने को मजबूर हैं.

सर्वेक्षण के मुताबिक, अगर भारत को जनसांख्यकीय लाभांश का पूरा फायदा उठाना है तो उसे न सिर्फ व्यापक आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाना पड़ेगा बल्कि कृषि में निवेश और तकनीक को बढ़ाने से लेकर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में श्रम सुधारों को प्राथमिकता देनी होगी.
इसके अलावा प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा ताकि सेवा क्षेत्र को योग्य प्रत्याशियों की कमी का सामना न करना पड़े. इसके साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में अप्रेंटिसशिप को बढ़ावा देने और युवाओं को नए कौशल सिखाने पर जोर देना होगा ताकि रोजगार की गुणवत्ता में सुधार हो.
हालाँकि आर्थिक सर्वेक्षण रोजगार खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार सृजन के लिए श्रम सुधारों को प्राथमिकता देते हुए आर्थिक सुधारों खासकर उद्योगों के अनुकूल माहौल बनाने, रेगुलेशनों को ढीला और सीमित करने और कौशल बढ़ाने जैसे कई सुझाव देता है.

लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि उसका सबसे अधिक जोर श्रम सुधारों खासकर औद्योगिक विवाद क़ानून के अध्याय V-B और धारा ९ A को खत्म करने यानी नियोजकों को बिना सरकार की इजाजत के श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी की छूट देने पर है. सर्वेक्षण को लगता है कि इससे नियोजकों को वह लचीलापन हासिल होगा जिसके अभाव में वे अभी स्थाई या संविदा पर रोजगार देने से हिचकिचाते हैं.

गौरतलब है कि आर्थिक सर्वेक्षण का यह सुझाव ऐसे समय में आया है जब हाल में ही देश की सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने रोजगार की सुरक्षा से लेकर श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर दो दिनों की देशव्यापी हड़ताल की थी. ट्रेड यूनियनें पिछले कई वर्षों से सरकार और नियोजकों पर श्रम कानूनों का खुला मखौल उड़ाने का आरोप लगाते हुए रोजगार के अनौपचारिकीकरण और ठेकाकरण का विरोध कर रही हैं.
खुद सर्वेक्षण भी स्वीकार करता है कि स्थिति अच्छी नहीं है. सवाल यह है कि क्या श्रम कानूनों को ढीला करने और नियोजकों को हायर-फायर का अधिकार देने से वे श्रमिकों को स्थाई नौकरी और सभी सामाजिक लाभ देने लगेंगे? देश में रोजगार के मौके बढ़ने लगेंगे और उनकी गुणवत्ता में सुधार आ जायेगा?
देश में संगठित और असंगठित क्षेत्र में नियोजकों के मौजूदा रवैये को देखकर बहुत उम्मीद नहीं बंधती है. जब देश में विनिर्माण क्षेत्र के सबसे चमकते उदाहरणों में से एक मारुति में श्रमिकों को ट्रेड यूनियन बनाने का बुनियादी मौलिक अधिकार हासिल करने के लिए हड़ताल करनी पड़ती है, अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अन्य प्रतिष्ठानों में क्या स्थिति होगी?

दूसरे, देश भर में श्रमिकों को तेज वृद्धि दर और तुलनात्मक रूप से औद्योगिक शांति के बावजूद जिस तरह से बदतर परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, वह गहरी चिंता की बात है. जैसाकि हालिया हड़ताल से साफ़ है कि श्रमिकों का धैर्य जवाब दे रहा है. उसे अनदेखा करके किसी भी सुधार की कोशिश औद्योगिक माहौल को बिगड़ सकती है.
 
लेकिन हैरानी की बात यह है कि आर्थिक सर्वेक्षण श्रम कानूनों को कड़ाई से लागू करने और उन्हें उनके बुनियादी अधिकार दिलाने की बात करने के बजाय उनके संरक्षण के प्रावधानों को समाप्त करने की मांग कर रहा है.
आर्थिक सर्वेक्षण यह भूल रहा है कि सवाल सिर्फ रोजगार और गुणवत्तापूर्ण रोजगार का ही नहीं बल्कि रोजगार की गरिमा का भी है. रोजगार की गरिमा का अर्थ यह है कि श्रमिकों को न सिर्फ बेहतर तनख्वाह मिले बल्कि उन्हें काम का माहौल मानवीय हो, सेवा शर्तें बेहतर हों, सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो और युनियन बनाने से लेकर अपने लोकतान्त्रिक अधिकार इस्तेमाल करने की आज़ादी हो.

('योजना' के मार्च अंक में प्रकाशित टिप्पणी) 

गुरुवार, मार्च 14, 2013

जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने की चुनौती

असल मुद्दा है गुणवत्तापूर्ण और गरिमा के साथ रोजगार का 

पहली क़िस्त

भारत अपने आर्थिक-सामाजिक इतिहास के एक बहुत दिलचस्प दौर से गुजर रहा है जब उसकी कुल आबादी में २५ साल से कम आयु के युवाओं की संख्या लगभग ५० फीसदी और ३५ साल से कम उम्र के युवाओं की तादाद ६५ फीसदी के आसपास है. आज भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक है.
अनुमानों के मुताबिक, वर्ष २०२० में एक आम भारतीय की औसत उम्र २९ साल होगी जबकि उस समय एक आम चीनी की औसत उम्र ३७ साल होगी. यही नहीं, वर्ष २०३० में भारत में निर्भरता अनुपात (डिपेंडेंसी रेशियो) यानी आयु-जनसंख्या अनुपात सिर्फ ०.४ फीसदी होगी जिसका अर्थ यह है कि देश की कुल आबादी में काम करनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा और निर्भर लोगों की तादाद कम होगी.
अर्थशास्त्री इसे जनसांख्यकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की स्थिति कहते हैं जो किसी भी देश को एक बड़ा आर्थिक उछाल दे सकता है और उसकी अर्थव्यवस्था को तीव्र वृद्धि दर के रास्ते पर ले जा सकता है. माना जाता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में भारत की अपेक्षाकृत तेज विकास दर के पीछे यह एक प्रमुख कारण रहा है.

इस वजह से पिछले कुछ वर्षों से भारत में अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं के बीच यह चर्चा और गंभीर बहस का मुद्दा रहा है कि जनसांख्यकीय लाभांश की इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

यह चर्चा और बहस इसलिए और भी मौजूं हो जाती है क्योंकि अगर देश जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने में नाकामयाब रहता है तो यह जनसांख्यकीय शाप या विपदा में भी बदल सकती है.
इसमें सबसे बड़ा चुनौती यह है कि श्रम शक्ति में शामिल होनेवाली इस युवा आबादी को बेहतर शिक्षा के साथ सिर्फ रोजगार ही नहीं बल्कि गरिमा और गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर कैसे उपलब्ध कराए जाएँ ताकि उसकी क्षमताओं का पूरा लाभ अर्थव्यवस्था को मिल सके और उसकी उत्पादकता बढ़ाई जा सके?
यह न सिर्फ जनसांख्यकीय लाभांश की इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने के लिए बल्कि समावेशी विकास के लिए भी सबसे बड़ी शर्त है.
लेकिन मुश्किल यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की तेज गति के बावजूद रोजगार के पर्याप्त अवसर खासकर उच्च गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं.

हाल में आई इंस्टीच्यूट आफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००५-१० के बीच विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) में लगभग ५० लाख रोजगार घट गए जबकि तेजी से वृद्धि कर रहे सेवा क्षेत्र में जहाँ वर्ष २०००-२००५ के बीच १.८ करोड़ रोजगार के अवसर बने, वहीँ वर्ष २००५-१० के बीच सिर्फ ४० लाख नए रोजगार के अवसर पैदा हुए.

इस रिपोर्ट से साफ़ है कि उद्योगों खासकर विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं जबकि इस बीच कृषि क्षेत्र से बड़ी संख्या में युवा रोजगार की तलाश में सेवा और उद्योगों की ओर आ रहे हैं.

लेकिन रोजगार वृद्धि की इस धीमी दर के कारण ही अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग मौजूदा विकास को ‘रोजगारविहीन विकास’ की संज्ञा देता रहा है. इसके साथ ही दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि कृषि क्षेत्र से जो युवा रोजगार के लिए उद्योगों और सेवा क्षेत्र की ओर आ रहे हैं, उन्हें ज्यादातर अस्थाई श्रमिक के रूप में काम मिल रहा है जहाँ कम आय के साथ-साथ बहुत मामूली सामाजिक सुरक्षा हासिल है.
उदाहरण के लिए, वर्ष २०१० में निर्माण क्षेत्र कोई ४.४ करोड़ श्रमिक काम कर रहे थे लेकिन उनमें कोई ४.२ करोड़ को सामाजिक सुरक्षा का बहुत मामूली या कोई कवच हासिल नहीं था. जाहिर है कि यह एक बड़ी चुनौती है जो नीति निर्माताओं को परेशान कर रही है.
इसका ताजा उदाहरण इस वर्ष का आर्थिक सर्वेक्षण (१२-१३) है जिसमें जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने की चुनौती की खास तौर पर अध्याय-२ में विस्तार से चर्चा की गई है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक सर्वेक्षण ने रोजगार खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार के बहुत ही महत्वपूर्ण, जरूरी और संवेदनशील मुद्दे को उठाया है.

सर्वेक्षण ने माना है कि अर्थव्यवस्था के सामने सबसे महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक चुनौती यह है कि गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर कहाँ से आयेंगे? उत्पादक रोजगार विकास के लिए अत्यंत जरूरी है. सर्वेक्षण के मुताबिक, एक गुणवत्तापूर्ण रोजगार समावेशी विकास सुनिश्चित करने का सबसे उपयुक्त माध्यम है.

यही नहीं, सर्वेक्षण ने यह कहकर इस समस्या की नब्ज पर पर उंगली रख दी है कि हालाँकि उद्योगों में रोजगार पैदा हो रहा है लेकिन इनमें से ज्यादातर नौकरियां असंगठित क्षेत्र में कम उत्पादक और अस्थाई प्रवृत्ति की हैं जहाँ आय कम है, कोई सामाजिक सुरक्षा और लाभ नहीं हैं.
सर्वेक्षण के अनुसार, सेवा क्षेत्र में रोजगार की प्रकृति उच्च उत्पादक है लेकिन हाल के वर्षों में सेवा क्षेत्र में रोजगार वृद्धि धीमी रही है. सर्वेक्षण मानता है कि भारत के सामने कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढाते हुए उससे बाहर खासकर विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में उत्पादक रोजगार पैदा करने की बड़ी चुनौती है. इस चुनौती का सामना करके ही आनेवाले दशकों में तेज और समावेशी विकास का रास्ता खोला जा सकता है.
यह कितनी बड़ी चुनौती है, इसका अंदाज़ा आर्थिक सर्वेक्षण में दिए गए कुछ संभावनाओं से लगाया जा सकता है. उदाहरण के लिए अगर वर्ष २०१० से २०२० तक के दशक में उद्योगों और सेवा क्षेत्र में २०००-१० के दशक की गति से रोजगार के अवसर बढ़े तो कृषि क्षेत्र का कुल रोजगार में हिस्सा मौजूदा ५१ फीसदी से घटकर मात्र ४० फीसदी रह जाएगा.

इसी तरह अगर श्रमशक्ति में भागीदारी की दर (कुल आबादी में उनलोगों की संख्या जो रोजगार पाने की उम्र में हैं और रोजगार की तलाश में भी हैं) और बेरोजगारी दर २०१० के स्तर पर रहे तो वर्ष २०२० में कोई २८ लाख रोजगार के अवसर कम होंगे.

सर्वेक्षण को लगता है कि यह समस्या है लेकिन इसमें चिंतित होने या घबराने की बात नहीं है क्योंकि यह कुल श्रमशक्ति का मात्र ०.५ फीसदी होगा.

लेकिन अगर श्रमशक्ति में भागीदारी की दर में सिर्फ दो फीसदी की बढ़ोत्तरी हो जाए और ५६ की बजाय ५८ प्रतिशत हो जाए यानी कुछ ज्यादा महिलायें रोजगार मांगने निकल आएं तो गुमशुदा रोजगार की संख्या बढ़कर १.६७ करोड़ पहुँच जाती है.
यह निश्चय ही चिंता की बात होगी. सर्वेक्षण स्वीकार करता है कि इस गणना में किसी भी अनुमान के गडबड होने पर स्थिति बहुत नाजुक हो सकती है और रोजगार की मांग का अनुमान करोड़ों में बढ़ सकता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि आनेवाले वर्षों-दशकों में रोजगार खासकर बेहतर रोजगार की मांग पहले ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि न सिर्फ ज्यादा शिक्षित युवा रोजगार बाजार में आयेंगे बल्कि उसमें महिलाओं की संख्या भी पहले से बढ़ेगी. साफ़ है कि आनेवाले वर्षों में नीति निर्माताओं के सामने अधिक से अधिक रोजगार और खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार पैदा करने की चुनौती बनी रहेगी.
 
जारी ...
('योजना' के लिए लिखे लेख की पहली क़िस्त)

शुक्रवार, मार्च 01, 2013

दुष्चक्र में भारतीय अर्थव्यवस्था

नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी हो गई है  

देर से और कुछ झिझकते हुए ही सही लेकिन यू.पी.ए सरकार ने आखिरकार मान लिया है कि पिछले दो वर्षों से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए बाहरी कारणों के अलावा घरेलू कारण भी उतने ही जिम्मेदार हैं. इससे पहले तक सरकार के आर्थिक मैनेजरों से लेकर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री तक अर्थव्यवस्था के बद से बदतर होते प्रदर्शन के लिए वैश्विक आर्थिक संकट को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी और विफलताओं से बचने की कोशिश किया करते थे.
लेकिन ताजा आर्थिक सर्वेक्षण (१२-१३) में सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए कुछ हद तक बाहरी कारण जिम्मेदार हैं लेकिन घरेलू कारण भी महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण घरेलू कारणों में उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की सीधी भूमिका और सरकार में सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के बोलबाले और बेहतर और पारदर्शी प्रशासन के अभाव को अनदेखा करता है जिनके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है.

इसके उलट वह आर्थिक वृद्धि में आई भारी गिरावट को सिर्फ कुछ आर्थिक-वित्तीय-प्रशासनिक कारकों तक सीमित कर देता है बल्कि इसके लिए वर्ष २००८-०९ में वैश्विक मंदी से निपटने के लिए दिए गए स्टिमुलस पैकेज को भी जिम्मेदार ठहरा देता है. इस तरह वह यू.पी.ए सरकार के उन दावों पर भी सवाल खड़े कर देता है जो वह वैश्विक मंदी के शुरूआती दौर से सफलतापूर्वक निपटने और देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए करती रही है.

आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में आई भारी गिरावट के लिए मुख्य तौर पर तीन कारण जिम्मेदार हैं. वह स्वीकार करता है कि वैश्विक आर्थिक मंदी से निपटने के लिए वर्ष २००८-०९ में दिए गए भारी स्टिमुलस पैकेज के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था संभल गई और उसने अगले दो वर्षों तक लगातार तेज वृद्धि दर हासिल की.
उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २००९-१० में ८.६ प्रतिशत और वर्ष २०१०-११ में ९.३ फीसदी थी. लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए दिया गया स्टिमुलस पैकेज बड़ा था जिसके कारण मांग बहुत तेजी से बढ़ी और इन दो वर्षों में उपभोग की वृद्धि दर औसतन ८ फीसदी तक पहुँच गई. लेकिन आपूर्ति सम्बन्धी बाधाओं के कारण इसने मुद्रास्फीति को हवा दी और उसमें तेज वृद्धि दर्ज की गई.
नतीजा यह हुआ कि इस बेकाबू मुद्रास्फीति को रोकने के लिए रिजर्व बैंक ने मौद्रिक उपायों के तहत ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करनी शुरू की और दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने स्टिमुलस पैकेज को वापस लेना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि अर्थव्यवस्था में मांग में कमी आनी शुरू हो गई और निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा. इससे अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी.

परिणाम यह हुआ कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष २०११-१२ में गिरकर ६.२ प्रतिशत रह गई और चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.

इस संकट का असर सरकार के खजाने पर पड़ा है क्योंकि जी.डी.पी की वृद्धि दर में गिरावट के कारण राजस्व वसूली में भी कमी आई है. इसके कारण सरकार के राजकोषीय घाटे में वृद्धि हुई है. मजे की बात यह है कि जिस मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए वृद्धि की कुर्बानी की गई, वह मुद्रास्फीति भी पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
हालत यह है कि थोक मुद्रास्फीति की दर में हाल के महीनों में कमी जरूर आई है लेकिन वह अब भी ७ फीसदी के आसपास बनी हुई है. यही नहीं, उसके अंदर खाद्य मुद्रास्फीति दर और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अब भी दोहरे अंकों में बनी हुई है.
इस तरह अर्थव्यवस्था एक दुष्चक्र में फंस गई है और माया मिली, न राम वाली हालत हो गई. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर इससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं. आर्थिक सर्वेक्षण के नुस्खों और वित्त मंत्री के हालिया बयानों से ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था को दुष्चक्र में फंसानेवाली नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं हैं, उल्टे वे उसकी और बड़ी डोज देने की वकालत करते हुए दिख रहे हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती खासकर सब्सिडी में कटौती की पैरवी करता है. उसके मुताबिक, इससे न सिर्फ मुद्रास्फीति पर काबू पाने में आसानी होगी बल्कि रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने और निवेश को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी.

अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का मानना है कि इससे अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने में मदद मिलेगी क्योंकि यू.पी.ए सरकार ने उसे गति देने के लिए कई महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों का एलान पहले ही कर दिया है. इस तरह यह आर्थिक सर्वेक्षण उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में अर्थव्यवस्था की बीमारी का इलाज ढूंढता है जिनके कारण वह बीमार हुई है.
सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौट आएगी? हालाँकि सर्वेक्षण का दावा है कि अगले वित्तीय वर्ष (१३-१४) में अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करेगी और जी.डी.पी की वृद्धि दर ६.१ फीसदी से लेकर ६.७ फीसदी के बीच रहेगी.
लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह कुछ ज्यादा ही आशावादी नजरिया है. खासकर अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जो उपाय सुझाए जा रहे हैं, उससे यह संकट और गहरा सकता है.

सच यह है कि अगर वित्त मंत्री ने आज बजट पेश करते हुए राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया और अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की उपेक्षा की तो अर्थव्यवस्था की स्थिति और बिगड़ सकती है. यूरोप का उदाहरण सामने है जहाँ मितव्ययिता की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्थाओं का संकट और गहरा गया है और आमलोगों को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
असल में, इस मुद्दे पर विचार बहुत जरूरी है क्योंकि जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के भरोसे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने प्रस्ताव किया जा रहा है, उसमें न सिर्फ उसकी स्थिति और बिगड़ने का खतरा है बल्कि उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि अगर अर्थव्यवस्था बड़ी पूंजी को दी गई छूटों/रियायतों के कारण कुछ समय के लिए फिर से उछाल हासिल भी कर ले तो वह स्थाई नहीं रह पाएगी.
दूसरे, उसका लाभ आमलोगों तक नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह उछाल बड़ी पूंजी का, बड़ी पूंजी के लिए और बड़ी पूंजी के द्वारा होगा.
खुद आर्थिक सर्वेक्षण ने स्वीकार किया है कि जब अर्थव्यवस्था तेज वृद्धि दर से बढ़ रही थी, उस समय भी उस अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हुए. दरअसल, यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास के माडल की सबसे बड़ी समस्या है कि वह न सिर्फ बार-बार संकट में फंसती रहती है बल्कि जब वह बेहतर प्रदर्शन कर रही होती है तब भी उसका लाभ आमलोगों खासकर गरीबों, बेरोजगारों और हाशिए पर पड़े लोगों को नहीं मिलता है.

अलबत्ता, वह जब संकट में फंस जाती है तो उसकी सबसे ज्यादा कीमत गरीबों और आम आदमी को चुकानी पड़ती है. अफ़सोस, आर्थिक सर्वेक्षण के पास इस संकट और दुष्चक्र का कोई उत्तर नहीं है.

साफ़ है कि नार्थ ब्लाक में नए और वैकल्पिक विचारों की कमी इस आर्थिक सर्वेक्षण में भी दिखाई दे रही है.                                
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २८ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

शुक्रवार, मार्च 16, 2012

आर्थिक समीक्षा में फिर वही नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का राग


जरूरत अर्थव्यवस्था में निवेश खासकर सार्वजनिक निवेश बढ़ने की है  : क्या प्रणब मुखर्जी इसके लिए तैयार हैं?


रेल बजट में किरायों में बढ़ोत्तरी के बाद यू.पी.ए सरकार के अंदर पैदा हुए राजनीतिक संकट के बीच अगर गुरुवार को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा की मानें तो इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के बावजूद ज्यादा चिंता की बात नहीं है क्योंकि वित्त मंत्रालय को भरोसा है कि अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है और अगले साल वह फिर से ऊँची वृद्धि दर की पटरी पर दौड़ने लगेगी.

समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष (११-१२) में जी.डी.पी की ६.९ प्रतिशत की धीमी रफ़्तार के बावजूद अगले साल अर्थव्यवस्था ७.६ फीसदी और २०१३-१४ में ८.६ प्रतिशत की ऊँची रफ़्तार हासिल कर लेगी.

यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि बीते साल की आर्थिक समीक्षा में उम्मीद जाहिर की गई थी कि इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर ९ फीसदी के आसपास रहेगी. लेकिन सिर्फ १२ महीनों में यह उम्मीद धराशाई हो गई और जी.डी.पी की वृद्धि दर लुढ़कते हुए ६.९ प्रतिशत रह गई है.

ऐसा क्यों हुआ? ताजा आर्थिक समीक्षा में यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने इसकी सारी जिम्मेदारी वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की बिगड़ती स्थिति, जापानी अर्थव्यवस्था के ठहराव और कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के मत्थे डाल दी है.

यही नहीं, आर्थिक समीक्षा ने इस साल अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन की रही-सही जिम्मेदारी यह कहते हुए रिजर्व बैंक पर डाल दी है कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी से निवेश प्रभावित हुआ जिसका विकास दर पर नकारात्मक असर पड़ा है.

साफ़ है कि पिछले नौ वर्षों में अर्थव्यवस्था के इस दूसरे सबसे बदतर प्रदर्शन के लिए वित्त मंत्रालय अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. अलबत्ता, वह मानता है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है लेकिन दूसरी ही सांस में अर्थव्यवस्था के बारे में उम्मीदों और खुशफहमियों के तूमार बांधने में भी जुट जाता है.

दरअसल, ये परस्पर विरोधी आकलन एक रणनीति के तहत पेश किये गए हैं. आर्थिक समीक्षा जानबूझकर पहले अर्थव्यवस्था के बारे में एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है. लेकिन इसके लिए अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय इसकी जवाबदेही आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में आ रही रुकावटों पर डाल देती है.

इस तरह बहुत चतुराई के साथ अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन को आर्थिक सुधारों की गति को तेज करने की शर्त से जोड़ देती है. यू.पी.ए के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों का तर्क है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से निकालकर तेज वृद्धि दर की राह पर ले जाने के लिए जरूरी है कि सख्त फैसले किये जाएँ.

इस सिलसिले में आर्थिक सर्वेक्षण ने हर बार की तरह इस बार भी सरकार की बिगड़ती वित्तीय स्थिति को सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए वित्तीय घाटे को काबू में करने और उसके लिए सब्सिडी में कटौती खासकर खाद और डीजल सब्सिडी में कटौती का सुझाव दिया है.

हालाँकि इन सुझावों में कोई नई बात नहीं है. बिना किसी अपवाद के आर्थिक समीक्षा में यही बातें पिछले कई वर्षों से थोड़े बहुत बदलाव के साथ दोहराई जा रही हैं. इस मायने में आर्थिक समीक्षा तैयार करने वाले अफसरों और आर्थिक सलाहकारों की दाद देनी पड़ेगी कि दुनिया भर में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर उठ रहे सवालों के बावजूद इन नीतियों के प्रति उनकी अगाध आस्था में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं हुआ है.

ताजा आर्थिक समीक्षा इसकी एक और मिसाल है. आश्चर्य नहीं कि सरकार के आर्थिक मैनेजर को अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में दिखाई पड़ रहा है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है.

उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा के मुताबिक अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय घाटे पर काबू पाना है जो चालू वित्तीय वर्ष में बजट अनुमानों से कहीं ज्यादा रहनेवाली है. गोया वित्तीय घाटे पर काबू पाने भर से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा.

लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि वित्तीय घाटे के कारण अर्थव्यवस्था की समस्याएं और संकट हैं या अर्थव्यवस्था की समस्याओं के कारण वित्तीय घाटा बढ़ा है?

असल में, आर्थिक समीक्षा और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों के तर्क गाड़ी को घोड़े के आगे रखने की तरह हैं. तथ्य यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी और अंदरूनी समस्याओं के कारण उसके खराब प्रदर्शन से वित्तीय घाटा बढ़ा है.

उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा स्वीकार करती है कि कृषि क्षेत्र को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. उसे नजरंदाज करने के कारण अर्थव्यवस्था को कई मोर्चों पर उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है. खासकर पिछले दो-ढाई वर्षों से खाद्यान्नों की ऊँची मुद्रास्फीति दर ने नीति नियंताओं का ध्यान एक बार फिर कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की ओर खींचा है.

लेकिन सवाल यह है कि कृषि क्षेत्र की यह हालत क्यों है? खुद समीक्षा यह मानती है कि कृषि क्षेत्र की इस स्थिति के लिए एक बड़ा कारण उसमें निवेश में आई गिरावट है. लेकिन यह गिरावट क्यों आई है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

तथ्य यह है कि १९९० के दशक में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से ही वित्तीय घाटे में कटौती और उसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करने की सबसे अधिक मार कृषि क्षेत्र पर पड़ी है जहाँ पिछले दो दशकों में सार्वजनिक निवेश में काफी गिरावट दर्ज की गई है. इसके कारण कृषि क्षेत्र आज भी मानसून पर निर्भर है. उसकी उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है.

नतीजा, सबके सामने है. कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर लगातार लक्ष्य से पीछे रह रही है. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि के लिए ४ फीसदी वृद्धि दर का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन वास्तविक वृद्धि दर ३.३ फीसदी रही. इसी तरह मानसून पर अति निर्भरता के कारण कृषि की विकास दर में उतार-चढाव बना रहता है.

उदाहरण के लिए, वर्ष २०१०-११ में कृषि की वृद्धि दर ७ फीसदी रही लेकिन चालू वित्तीय वर्ष में उसके लुढ़ककर सिर्फ २.५ प्रतिशत रहने की उम्मीद है. सवाल यह है कि इसके लिए वैश्विक आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं या खुद सरकार की अपनी नीतियां?

इसी तरह, आर्थिक समीक्षा यह स्वीकार करता है कि इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में आई गिरावट है जो २००७-०८ में जी.डी.पी के ३८.१ प्रतिशत तक पहुँच गई थी लेकिन घटते हुए अब ३० फीसदी के करीब पहुँच गई है.

इसका अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए निवेश में भारी बढ़ोत्तरी की जरूरत है. इस सच्चाई को आर्थिक समीक्षा भी मानती है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के व्यामोह में फंसे आर्थिक मैनेजर चाहते हैं कि निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए बड़ी निजी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी को प्रोत्साहित किया जाये.

मुश्किल यह है कि देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी निवेश के लिए बहुत इच्छुक नहीं है. ऐसे में, यह जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की जाये जो अर्थव्यवस्था में न सिर्फ मांग में वृद्धि करेगा बल्कि निजी क्षेत्र को भी निवेश के लिए प्रेरित करेगा.

यह कोई रेडिकल अर्थनीति नहीं है. यह पूंजीवाद का कीन्सवादी रणनीति है जो संकट में फंसी अर्थव्यवस्थाओं को बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल की जाती रही है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकार इसके उलट वित्तीय घाटे में कटौती पर जोर देकर संकट को और गहरा कर रहे हैं. अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं का मौजूदा संकट इसी रणनीति का कुपरिणाम है.

अफसोस की बात यह है कि ताजा आर्थिक समीक्षा उससे सबक लेने के बजाय उसी राह पर आगे बढ़ने की वकालत कर रही है. अब गेंद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में है. देखना है कि आज बजट में वह कौन सी राह लेते हैं?

('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली  के औपेड पृष्ठ पर १६ मार्च को प्रकाशित त्वरित टिप्पणी)