शनिवार, जून 30, 2012

चैनलों का विज्ञापनीय अत्याचार

दर्शकों को विज्ञापनों से बचाओ

चैनलों और विज्ञापनों के बीच चोली-दामन का साथ है. मतलब यह कि जहाँ चैनल हैं, वहाँ विज्ञापन हैं और जहाँ विज्ञापन हैं, वहाँ चैनल हैं. हालाँकि दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं लेकिन अधिकांश दर्शकों की विज्ञापनों के प्रति अरूचि और चिढ़ किसी से छुपी नहीं है. विज्ञापनों की भरमार से वे सबसे ज्यादा तंग महसूस करते हैं.
खासकर हाल के वर्षों में चैनलों ने दर्शकों पर विज्ञापनों की बमबारी इस हद तक बढ़ गई है कि अब कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापनों के बीच कार्यक्रम दिखता है. हालाँकि दर्शकों के पास रिमोट की ताकत और चैनल बदलने का सीमित विकल्प है लेकिन दर्शक डाल-डाल हैं तो चैनल पात-पात हैं.
चैनलों ने दर्शकों के पास यह सीमित विकल्प भी नहीं रहने दिया है. चैनलों ने एक ही समय विज्ञापन दिखाने और विज्ञापनों के दौरान आवाज़ ऊँची करने से लेकर कार्यक्रमों के दौरान कभी आधी स्क्रीन, कभी पट्टी में और कभी उछलकर आनेवाले विज्ञापनों के रूप में रिमोट की काट खोज ली है. लेकिन इससे दर्शकों की खीज बढ़ती जा रही है.

मजे की बात यह है कि केबल नेटवर्क रेगुलेशन कानून के मुताबिक, चैनल एक घंटे में कुल १२ मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं जिसमें उनके खुद के कार्यक्रमों/चैनल का विज्ञापन शामिल है. लेकिन शायद ही कोई चैनल इसका पालन करता हो. बड़े चैनलों पर तो एक घंटे के कार्यक्रम/समाचार में २० से २५ मिनट तक का विज्ञापन ब्रेक रहता है और दर्शक खुद को असहाय महसूस करते हैं.   

सेंटर फार मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम (शाम ७ से ११ बजे) में औसतन ३५ फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि उनकी निर्धारित सीमा २० फीसदी है. एक साल तो विज्ञापनों का औसत ४७ फीसदी तक पहुँच गया.
हैरानी की बात यह है कि केबल कानून के तहत पाबंदी के बावजूद चैनलों की मनमानी पर रोक लगानेवाला कोई नहीं है. नतीजा, दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी है. दर्शकों की कीमत पर चैनल कमाई करने में लगे हुए हैं. वे उसमें कोई कटौती करने को तैयार नहीं हैं.
लेकिन दूरसंचार नियमन प्राधिकरण (ट्राई) ने एक ताजा आदेश में चैनलों पर विज्ञापनों की समयसीमा निश्चित करने और विज्ञापन प्रदर्शित करने के तरीके को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं.

ट्राई के मुताबिक, चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में कुल १२ मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं और एक विज्ञापन सेशन से दूसरे के बीच कम से कम १५ मिनट (फिल्मों के मामले में ३० मिनट) का अंतराल होना चाहिए.

यही नहीं, चैनल एक घंटे में १२ मिनट के कुल विज्ञापन समय को अगले घंटों में नहीं ले जा सकते और इन १२ मिनटों में चैनलों के खुद के विज्ञापन भी शामिल होंगे. ट्राई ने कार्यक्रमों के बीच कभी आधी स्क्रीन, कभी पाप-अप, कभी पट्टी में आनेवाले विज्ञापनों के अलावा विज्ञापन के दौरान उसकी आवाज़ तेज करने पर भी रोक लगाने की सिफारिश की है.     

जैसीकि आशंका थी, ट्राई की इन सिफारिशों के खिलाफ चैनलों ने सिर आसमान पर उठा लिया है. उन्हें यह अपनी आज़ादी, स्वायत्तता और अधिकारों में हस्तक्षेप लग रहा है. उनका यह भी कहना है कि विज्ञापनों का नियमन ट्राई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि यह कंटेंट रेगुलेशन का मामला है.

हालाँकि ट्राई ने चैनलों के इन सभी तर्कों का स्पष्ट और तार्किक उत्तर दिया है लेकिन चैनलों के तीखे विरोध और सरकार के ढुलमुल रवैये को देखते हुए इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि सरकार इन सिफारिशों को लागू करने की पहल करेगी. मतलब यह कि दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी रहेगा.

लेकिन सवाल यह है कि क्या दर्शकों का कोई अधिकार नहीं है और यह भी कि वे चैनलों की मनमानी कब तक झेलते रहेंगे? 

('तहलका' के 30 जून के अंक में प्रकाशित 'तमाशा मेरे आगे' स्तम्भ) 

बुधवार, जून 20, 2012

अर्थव्यवस्था का गहराता संकट और रिजर्व बैंक की प्राथमिकताएं

रिजर्व बैंक ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है

लगता है कि आमतौर पर लीक पर चलनेवाले रिजर्व बैंक को भी चौंकाने की आदत पड़ गई है. सोमवार को मध्य तिमाही ब्याज दरों की समीक्षा के बाद रिजर्व बैंक ने उम्मीदों के विपरीत न तो रेपो दर यानी ब्याज दर में कोई कटौती की और न ही नगद-जमा अनुपात (सी.आर.आर) में कोई फेरबदल किया.
अधिकांश अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों को उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक गिरती आर्थिक वृद्धि दर को सहारा देने के लिए ब्याज दरों के अलावा सी.आर.आर में कटौती जरूर करेगा ताकि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. सरकार के आर्थिक मैनेजरों की भी ओर से ऐसे संकेत मिल रहे थे और यहाँ तक कि खुद वित्त मंत्री ने भी ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद जाहिर की थी.
इस उम्मीद को इस तथ्य से भी बल मिल रहा था कि बीते १८ अप्रैल को सालाना मौद्रिक और कर्ज नीति की घोषणा करते हुए गवर्नर डी. सुब्बाराव ने रेपो दर में उम्मीद के विपरीत सीधे आधी फीसदी की कटौती का एलान करके सबको चौंका दिया था. उस समय ब्याज दरों में कटौती और वह भी सीधे आधी फीसदी की कटौती की उम्मीद किसी को नहीं थी.

तब यह माना गया था कि रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति से लड़ने के लिए ब्याज दरों में लगातार बढ़ोत्तरी की अपनी आक्रामक एकसूत्री नीति को विराम देते हुए आर्थिक विकास दर में आ रही गिरावट को रोकने की पहल की है.

निश्चय ही, वह रिजर्व बैंक की बड़ी और साहसिक पहल थी जिसमें एक जोखिम भी निहित था. वजह यह कि उस समय भी मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी हुई थी लेकिन सुब्बाराव के फैसले से यह उम्मीद बढ़ गई थी कि रिजर्व बैंक अब मुद्रास्फीति के बजाय आर्थिक वृद्धि में आ रही गिरावट को थामने पर जोर देगा.
लेकिन रिजर्व बैंक ने सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एक बार फिर मुद्रास्फीति नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. गनीमत यह है कि उसने ब्याज दरों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की और रेपो दर को ज्यों का त्यों रखते हुए यह संकेत देने की कोशिश की है कि मुद्रास्फीति नियंत्रण पहली प्राथमिकता होते हुए भी वह अर्थव्यवस्था की जरूरतों खासकर ब्याज दरों में कमी की मांग के प्रति निष्ठुर नहीं है.
इस मायने में डी. सुब्बाराव ने अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि अप्रैल में ब्याज दरों में आधी फीसदी की कटौती एक तरह से भविष्योन्मुखी कटौती थी. लेकिन मौजूदा मुद्रास्फीति-विकास दर के बीच के गतिविज्ञान के देखते हुए साफ़ है कि अभी की स्थिति में ब्याज दरों में कटौती से आर्थिक वृद्धि को सहारा मिलने के बजाय मुद्रास्फीति की स्थिति और बिगड़ सकती है. रिजर्व बैंक ने अपने ताज़ा फैसले के पक्ष में तर्क देते हुए कहा है कि आर्थिक वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए अनेकों कारण जिम्मेदार हैं जिनमें ब्याज दरों में वृद्धि की बहुत छोटी भूमिका है.

असल में, रिजर्व बैंक को उम्मीद थी कि मार्च के बाद से मुद्रास्फीति की दर में नरमी आने लगेगी. लेकिन मुद्रास्फीति के ताज़ा आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की नींद उड़ा दी है. थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल माह के ७.२३ फीसदी से बढ़कर मई माह में ७.५५ फीसदी पहुँच गई है.
इसी तरह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दहाई छू रही है और अप्रैल और मई महीने में १०.३६ फीसदी की ऊँचाई पर बनी हुई थी जबकि खाद्य मुद्रास्फीति दर में वृद्धि दर्ज की गई है. यही नहीं, मार्च महीने की ६.८९ फीसदी की मुद्रास्फीति दर संशोधन के बाद ७.६९ फीसदी तक पहुँच गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की चिंता बढ़ा दी है. इसकी वजह यह है कि ७.५५ प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर न सिर्फ ५ से ६ फीसदी के लक्ष्य से कहीं ज्यादा और पिछले साल के दोहरे अंकों की ऊँची मुद्रास्फीति दर के ऊँचे बेस के बावजूद है बल्कि यह दर सभी ब्रिक और विकसित औद्योगिक देशों की तुलना में ज्यादा है.

निश्चय ही, इस ऊँची मुद्रास्फीति दर ने रिजर्व बैंक के हाथ बाँध दिए हैं. रिजर्व बैंक की चिंता की एक वजह यह भी है कि आर्थिक वृद्धि की गिरती दर के बीच मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीतिजनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने का गंभीर खतरा पैदा हो गया है.

तथ्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडी ने तो भारतीय अर्थव्यवस्था के स्टैगफ्लेशन में फंसने का एलान कर दिया है. स्टैगफ्लेशन वह स्थिति होती है जिसमें किसी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट आ रही होती है लेकिन दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी रहती है. किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्टैगफ्लेशन बहुत घातक माना जाता है क्योंकि एक बार उसमें फंसने के बाद उससे निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आमलोगों के लिए यह स्थिति आर्थिक रूप से बहुत पीड़ादायक होती है.

वजह यह कि कारपोरेट क्षेत्र एक ओर नए निवेश करने से कतराने लगता है और इस कारण नई नौकरियों का सृजन ठप्प हो जाता है और दूसरी ओर, निजी क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए छंटनी से लेकर तनख्वाह कटौती पर उतर आता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों खासकर उद्योग जगत से छंटनी और तालाबंदी की रिपोर्टें लगातार आ रही हैं. ताज़ा रिपोर्टों के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि में आई गिरावट और वैश्विक आर्थिक संकट के कारण श्रम सघन क्षेत्रों जैसे टेक्सटाइल उद्योग में पिछले दो सालों में ४५ लाख से अधिक लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था का संकट कितनी तेजी से गहरा रहा है.
हालिया आंकड़ों से इसकी पुष्टि होती है. रिपोर्टों के मुताबिक, अप्रैल महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर में सिर्फ ०.१ फीसदी की वृद्धि हुई है. इससे पहले मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन दर गिरकर नकारात्मक – ३.५ फीसदी रह गई थी. यही नहीं, आर्थिक वृद्धि की दर पिछले वित्तीय वर्ष की आखिरी तिमाही (जनवरी-मार्च) में गिरकर मात्र ५.३ फीसदी और पूरे साल में ६.५ प्रतिशत रह गई.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था में आ रही इस गिरावट की एक बड़ी वजह नए निवेश में आ रही गिरावट है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि अप्रैल में पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में सबसे अधिक (–) १६.३ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है जिससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश ठहर सा गया है.

निवेश में आई यह गिरावट इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय देशों और अमेरिका के गहराते आर्थिक संकट के कारण एक ओर निर्यात में गिरावट आई है और दूसरी ओर, विदेशी पूंजी खासकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह कमजोर हुआ है जबकि विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) देश से पैसा निकालकर ले जा रहे हैं. इसके कारण रूपये पर भारी दबाव है.

साफ़ है कि इस समय अर्थव्यवस्था की इस लड़खड़ाती स्थिति को संभालना सबसे बड़ी चुनौती है. मजे की बात यह है कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय से लेकर उद्योग जगत और आर्थिक विश्लेषक सभी इसके लिए अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की जरूरत को मानते हैं. सवाल यह है कि निवेश कैसे बढ़ाया जाए?
रिजर्व बैंक को छोडकर लगभग सभी एकमत हैं कि निवेश में वृद्धि के लिए ब्याज दरों में कटौती जरूरी है. लेकिन रिजर्व बैंक इससे एक सीमा तक ही सहमत है और मानता है कि इसमें ब्याज दर की सीमित भूमिका है और निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए सरकार को और उपाय करने चाहिए.
रिजर्व बैंक के मुताबिक, जब तक सरकार मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए वित्तीय घाटे में कटौती और आपूर्ति पक्ष की बाधाएं दूर करने की ठोस कोशिश नहीं करेगी, उसके लिए मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के बीच ब्याज दरों में और कटौती संभव नहीं है. यह और बात है कि सिर्फ दो दिन पहले ही वित्त मंत्री ने राजकोषीय मोर्चे पर पहल लेने का दावा करते हुए उम्मीद जाहिर की थी कि रिजर्व बैंक भी ब्याज दरों में कटौती के जरिये इसे आगे बढ़ाएगा.

लेकिन रिजर्व बैंक के ताज़ा फैसले से साफ़ है कि वह सरकार के दावे से इत्तफाक नहीं रखता है. इसलिए डी. सुब्बाराव ब्याज दरों में कटौती करके और जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके लिए मुद्रास्फीति को काबू में करना पहली प्राथमिकता है. 

इस तरह गेंद एक बार फिर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और सरकार के पाले में है. फैसला अब सरकार को करना है कि निवेश बढ़ाने के लिए क्या किया जाए? इतना तय है कि गहराते आर्थिक संकट से निपटने के लिए सरकार के पास समय बहुत कम है. उसे तुरंत फैसला करना होगा.

('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के आप-एड पृष्ठ पर 19 जून को प्रकाशित मुख्य लेख) 

शनिवार, जून 16, 2012

'गरीबी' को सरकारी शब्दकोष से बाहर करने की तैयारी

'आम आदमी' सिर्फ बहाना है गरीबों को किनारे करने और 'खास आदमी' को आगे बढाने का  

यह तो गरीबों और गरीबी में कुछ ऐसी बात है कि वे मिथकीय फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से बार-बार जी उठते हैं. अन्यथा सरकारों, सत्तारुढ़ पार्टियों और नेताओं-अफसरों का वश चलता तो गरीब और गरीबी कब के खत्म हो चुके होते.
यह किसी से छुपा नहीं है कि उत्तर उदारीकरण दौर खासकर ९० के दशक और उसके बाद के वर्षों में बिना किसी अपवाद के सभी रंगों और झंडों की सरकारों और सत्तारुढ़ पार्टियों ने ‘गरीबी’ शब्द को सरकारी और राजनीतिक शब्दकोष से हटाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में न सिर्फ गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के आकलन के साथ छेड़छाड़ की गई है बल्कि आंकड़ों में गरीबी को कम से कम दिखाने की हरसंभव कोशिश की गई है.
लेकिन माफ कीजिए, यह सिर्फ योजना आयोग और उसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया की ‘गरीबी और गरीबों’ से मुक्ति पाने की हड़बड़ी और व्यग्रता का मामला भर नहीं है बल्कि सच यह है कि सत्ता के खेल में शामिल मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां ‘गरीबी और गरीबों’ से पीछा छुड़ाने के लिए व्यग्र हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज ‘गरीब और गरीबी’ शब्द अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के शब्दकोष से गायब हो चुके हैं या उसे हटाने की कोशिशें जारी हैं. उदाहरण के लिए, भाजपा के राजनीतिक शब्दकोष में पहले भी ‘गरीबी’ शब्द उपयोग से बाहर और किसी कोने-अंतरे में पड़ा शब्द रहा है लेकिन ‘इंडिया शाइनिंग’ के बाद तो ‘गरीबी’ शब्द उसके लिए एक बहिष्कृत और अभिशप्त शब्द हो गया.

लेकिन खुद को गरीबों की सबसे बड़ी हमदर्द और गरीबनवाज़ पार्टी बतानेवाली कांग्रेस ने भी ९० के दशक के बाद बहुत बारीकी और चतुराई के साथ ‘गरीबी’ शब्द से पीछा छुडा लिया. यह सिर्फ संयोग नहीं था कि ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ गरीबी और गरीबों के जरिये सत्ता की राजनीति करनेवाली कांग्रेस ने २००४ के चुनावों से ठीक पहले ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द की विदाई और उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का आना सिर्फ शब्दों के हेरफेर भर का मसला नहीं था. यह कांग्रेस की राजनीति और उसके राजनीतिक सोच में आए बड़े बदलाव का संकेत था.
इस बदलाव का निहितार्थ यह था कि कांग्रेस ने ९० के दशक के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और ‘इंडिया शाइनिंग’ के कोरस के बीच देश की आर्थिकी, समाज और राजनीति में आए बदलावों के मद्देनजर यह मान लिया कि ‘गरीबी’ अब कोई मुद्दा नहीं रहा क्योंकि आर्थिक सुधारों के कारण गरीबों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और उनकी संख्या तेजी से कम हुई है.
लगातार तीन आम/मध्यावधि चुनाव हार चुकी कांग्रेस को लगने लगा कि ‘गरीबी’ के नारे में वह राजनीतिक लाभांश नहीं रह गया है जो ७०-८० के दशक तक सत्ता तक पहुँचने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता था. पार्टी के रणनीतिकारों के यह लगने लगा कि गरीबों के बजाय अब तेजी से उभरते और मुखर मध्य और निम्न मध्यवर्ग को लक्षित करना ज्यादा जरूरी है और उसके लिए बेहतर शब्द ‘गरीबी’ नहीं बल्कि ‘आम आदमी’ है जो गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग को भी अपने अंदर समेट लेता है.

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने अपने राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ को रखने का फैसला किया. २००४ के आम चुनावों में कांग्रेस ने नारा दिया: “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ.”
कांग्रेस को इसका राजनीतिक फायदा भी मिला. कांग्रेस उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग खासकर निम्न मध्यवर्ग को अपनी ओर खींचने में कामयाब रही. नतीजा, कांग्रेस ने न सिर्फ अनुमानों के विपरीत बेहतर प्रदर्शन किया बल्कि उसके नेतृत्व में गठित यू.पी.ए सत्ता में भी पहुँच गई.
हालाँकि कांग्रेस ने वैचारिक-राजनीतिक तौर पर अपने नारों और कार्यक्रमों से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ रखते हुए अपने राजनीतिक आधार को व्यापक बनाने और उसमें गरीबों के साथ-साथ मध्य और निम्न मध्यवर्ग को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन व्यवहार में यह उसके एजेंडे से गरीबों की विदाई और उनकी जगह ज्यादा मुखर और मांग करनेवाला मध्यवर्ग के हावी होते जाने के रूप में सामने आया.

हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर यू.पी.ए-दो के एजेंडे पर गरीबों के मुद्दे और सवाल हाशिए पर जाने लगे और मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों को तेज करने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा.

यह सच है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल में नरेगा जैसी योजनाएं गरीबों के लिए शुरू की गईं और इस आधार पर कुछ विश्लेषक और कांग्रेस नेता दावा करते नहीं थकते हैं कि कांग्रेस अभी भी गरीबों के साथ खड़ी है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है.
तथ्य यह है कि यू.पी.ए सरकार के आठ सालों के कार्यकाल में जितना आर्थिक-भौतिक फायदा मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग को मिला है, उसका १० फीसदी भी गरीबों और निम्न मध्यवर्ग को नहीं मिला है. अपनी गरीबनवाजी का गुण गाने के लिए जिस नरेगा का इतना अधिक हवाला दिया जाता है, उसकी सच्चाई यह है कि उसके लिए केन्द्र सरकार औसतन हर साल ३५ से ४० हजार करोड़ रूपये खर्च करती है. वह भी गरीबों तक पूरा नहीं पहुँचता है.
लेकिन दूसरी ओर इसी दौरान मध्य और उच्च मध्यवर्ग को बजट में टैक्स छूटों/रियायतों के रूप में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से हर साल औसतन दो से ढाई लाख करोड़ रूपये का सालाना उपहार मिलता रहा. केन्द्र सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रमों के कोई १.८ करोड़ कर्मचारियों और अफसरों को छठे वेतन आयोग के वेतन वृद्धि के रूप में ५० हजार करोड़ रूपये से अधिक का लाभ दिया गया.

यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ‘आम आदमी’ के नाम पर हर साल देश के बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों और मध्यवर्ग को सालाना टैक्स छूटों/रियायतों में पांच लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का तोहफा दे रही है.

इससे साफ़ है कि ‘आम आदमी’ की सरकार वास्तव में किसकी सरकार है और कांग्रेस के लिए ‘आम आदमी’ के मायने क्या हैं? सच यह है कि गरीबों को अर्थनीति से बाहर करने के लिए ‘आम आदमी’ को आड़ की तरह इस्तेमाल किया गया है.
लेकिन पिछले आठ सालों के अनुभवों से यह साफ़ हो चुका है है कि ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘खास आदमी’ की अर्थनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ बेदखल हो चुकी है और उसी के स्वाभाविक और तार्किक विस्तार के तहत बाकी का बचा-खुचा काम योजना आयोग में बैठे मोंटेक सिंह आहलुवालिया पूरा कर रहे हैं.
उनके नेतृत्व में योजना आयोग गरीबी को न सिर्फ आंकड़ों में सीमित करने में जुटा है बल्कि योजनाओं/नीतियों से भी गरीबों को बाहर करने में लगा हुआ है. उनके इन प्रयासों को कांग्रेस नेतृत्व और यू.पी.ए सरकार का पूरा समर्थन हासिल है.

इसका सबूत यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक न सिर्फ पिछले तीन सालों से लटका हुआ है बल्कि उसमें से गरीबों को बाहर रखने के लिए हर दांव आजमाया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबी को राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर कर देने और हाशिए पर धकेल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद गरीब और गरीबी का मुद्दा लौट-लौटकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने लग रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि २२ रूपये और ३२ रूपरे की गरीबी रेखा को देश पचा नहीं पा रहा है. यही नहीं, देश भर में ‘जल-जमीन-जंगल’ के हक के लिए गरीबों की लड़ाइयों ने भी नव उदारवादी अर्थनीति के उन समर्थकों को गहरा झटका दिया है जो गरीबी और गरीबों को बीती बात मान चुके थे.
असल में, वे भूल गए कि गरीब उस फीनिक्स पक्षी की तरह से हैं जो अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठते हैं. आश्चर्य नहीं कि गरीब फिर-फिर दस्तक दे रहे हैं और पूरा सत्ता प्रतिष्ठान हिला हुआ है. उसे मजबूरी में ही सही, अपमानजनक और मजाक बन चुकी गरीबी रेखा पर पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ रहा है.

साफ़ है कि गरीब और गरीबी के सवाल इतनी आसानी से शासक वर्गों का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के 16 जून के हस्तक्षेप परिशिष्ट में प्रकाशित आलेख) 

गुरुवार, जून 14, 2012

अर्थव्यवस्था का गहराता संकट

यू.पी.ए सरकार ऊंट की तरह रेत में मुंह छिपकर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार कर रही है

मुश्किलों में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है. अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आनेवाली बुरी खबरों का सिलसिला जारी है. अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बतानेवाले सभी संकेतक उसकी लगातार बिगड़ती स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष की आखिरी तिमाही (जनवरी-मार्च) में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर मात्र ५.३ प्रतिशत रह गई.
यह अर्थव्यवस्था की पिछले नौ वर्षों में किसी भी तिमाही में सबसे धीमी रफ़्तार थी. इसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर पहले के अनुमान ६.९ फीसदी से गिरकर ६.५ फीसदी रह गई है. याद रहे कि उससे ठीक एक वर्ष पहले यानी २०१०-११ में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ८.४ फीसदी तक पहुँच गई थी.
निश्चय ही, पिछले वित्तीय वर्ष की चौथी और आखिरी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेज गिरावट ने साफ़ कर दिया है कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है और पटरी से उतर चुकी है. यह गिरावट न तो अपवाद है और न ही किसी एक तिमाही तक सीमित परिघटना है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था में चारों तिमाही में गिरावट दर्ज की गई है.
लेकिन अर्थव्यवस्था का संकट सिर्फ वृद्धि दर में गिरावट तक सीमित नहीं है. संकट की गंभीरता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एक ओर वृद्धि दर तेजी से गिर रही है और दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक की तमाम कोशिशों के बावजूद काबू में नहीं आ रही है.
यही नहीं, निर्यात में भारी गिरावट दर्ज की गई है और बढते व्यापार घाटे के साथ-साथ चालू खाते का घाटा बढ़कर जी.डी.पी के चार फीसदी तक पहुँच गया है. इसके अलावा वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिका और यूरोप में गहराते आर्थिक-वित्तीय संकट के कारण विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) भारतीय बाजारों से पूंजी निकलकर सुरक्षित ठिकाने का रूख कर रहे हैं.
इससे रूपये पर दबाव इस हद तक बढ़ गया है कि वह पिछले दो महीनों से भी कम समय में १० फीसदी से ज्यादा लुढ़क गया है और इन दिनों रोज गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है. यही हाल शेयर बाजार का भी है जो हांफ रहा है.
इस बीच, जले पर नमक छिडकने की तरह स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भारत की निवेश रेटिंग में कटौती करके उसे नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया है. यही नहीं, गुलाबी अखबार और आर्थिक विश्लेषक मौजूदा आर्थिक स्थिति की तुलना १९९१ के आर्थिक संकट से करने लगे हैं. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है.
लेकिन स्थिति की गंभीरता को समझते हुए भी यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर यह दावा करते हुए अपनी पीठ ठोंकने में लगे हैं कि जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेज गिरावट के बावजूद अर्थव्यवस्था की ६.५ प्रतिशत की वृद्धि दर अन्य देशों की तुलना में न सिर्फ बेहतर है बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. 
लेकिन यह सच्चाई से मुंह चुराने की कोशिश है. इस कोशिश में यू.पी.ए सरकार अर्थव्यवस्था की दीवार पर लिखे चेतावनी सन्देश को अनदेखा करने और अपनी जवाबदेही से बचने की जुगत कर रही है. आश्चर्य नहीं कि वे मौजूदा संकट के लिए वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के संकट को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
असल में, अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में न सिर्फ इस संकट के कारणों बल्कि उससे अधिक उसके समाधान को लेकर भ्रम की स्थिति है. इस कारण उन्होंने इस संकट के आगे घुटने टेक दिए हैं और ऊंट की तरह रेत में सिर छिपाकर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार कर रहे हैं.  
सरकार के इस रवैये का सबूत यह है कि बीते सप्ताह वित्त मंत्रालय ने अर्थव्यवस्था के बारे में जो लेखा-जोखा पेश किया है , उसमें संकट की गंभीरता को स्वीकार करते हुए भी उम्मीद जाहिर की गई है कि चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर ७.६ फीसदी तक रहेगी बशर्ते मानसून सामान्य रहे, पेट्रोलियम की कीमतें स्थिर रहें और वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनी रहे.
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों की सारी उम्मीदें इंद्र देव की कृपा, भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवनीशक्ति और वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार पर टिकी हुई हैं. सरकार अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए अपनी ओर से कोई बड़ी पहल करने के लिए तैयार नहीं दिख रही है.
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था के मैनेजर मुंगेरीलाल के हसीन सपने देख रहे हैं. उन्हें लगता है कि पिछले कुछ महीनों में मुद्रास्फीति दर में कमी आई है और यह प्रवृत्ति जारी रही तो रिजर्व बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने में सहूलियत होगी जिससे निवेश में बढोत्तरी का रास्ता साफ़ होगा और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.
लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े तथ्य उल्टी कहानी कह रहे हैं. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर पिछले साल के मुकाबले कम जरूर हुई है लेकिन पिछले दो महीनों में न सिर्फ उसमें फिर से तेजी का रूख दिखाई पड़ रहा है बल्कि अभी भी वह आम आदमी के साथ अर्थव्यवस्था और रिजर्व बैंक के लिए सिरदर्द बनी हुई है.
लेकिन महंगाई के आगे यू.पी.ए सरकार की लाचारी किसी से छिपी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि सरकार मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए अपनी ओर से कुछ भी करने को तैयार नहीं है. उसने यह जिम्मा पूरी तरह से रिजर्व बैंक के हवाले कर दिया है.
रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में बढोत्तरी के अलावा और कोई उपाय नहीं सूझता है. ब्याज दरों में १३ बार से अधिक और ३.७५ फीसदी की वृद्धि का नतीजा वृद्धि दर में गिरावट के रूप में सामने है. लेकिन मजे की बात यह है कि मुद्रास्फीति के तेवर में कोई कमी नहीं आई है. साफ़ है कि मर्ज पहचाने बगैर दवा देने का नतीजा यही होता है.
चिंता की बात यह है कि ऊँची मुद्रास्फीति और गिरती विकास दर खासकर औद्योगिक विकास दर के बीच अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीतिजनित मंदी यानी स्टैगफ्लेशन के चंगुल में फंसने का खतरा पैदा हो गया है. यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जब कोई अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन के चंगुल में फंस जाती है तो यह स्थिति वहाँ के आमलोगों के लिए भारी आर्थिक तकलीफें, आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता लेकर आती है और इस पीड़ादायक स्थिति से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है. सन्देश बिलकुल साफ़ है.
यू.पी.ए सरकार को इस संकट से निपटने के लिए न सिर्फ तुरंत बड़ी आर्थिक पहलकदमी लेनी होगी बल्कि उन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से बाहर देखना होगा जिनके कारण यह संकट आया है.
अफसोस की बात यह है कि इतने गंभीर संकट से मुकाबले के लिए वित्त मंत्री के पास पिटे-पिटाए मितव्ययिता कार्यक्रम (आस्ट्रीटी) और पेट्रोल की कीमतों में भारी वृद्धि जैसे कथित कड़े फैसलों के अलावा और कुछ नहीं है. लगता है कि उन्होंने यूरोपीय आर्थिक संकट से कोई सबक नहीं सीखा है जहाँ बड़ी आवारा पूंजी के दबाव में शुरू किये गए मितव्ययिता उपायों का नतीजा यह हुआ है कि आर्थिक संकट और गहरा गया है.
वे भूल रहे हैं कि गिरती हुई वृद्धि दर को संभलने के लिए इस समय अर्थव्यवस्था में उत्पादक निवेश बढ़ाने की जरूरत है. चूँकि निजी पूंजी इस निवेश के लिए आगे आने में हिचक रही है तो जरूरत सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि की है. इससे निजी क्षेत्र की हिचक भी टूटेगी.
सवाल यह है कि क्या सरकार इसके लिए तैयार है?

('राजस्थान पत्रिका' के 6 जून के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख: http://epaper.patrika.com/41109/patrika-bhopal/06-06-2012#page/10/2 )

सोमवार, जून 04, 2012

आर्थिक सुधार अंधी गली के आखिरी मुहाने पर पहुँच गए हैं

इस आर्थिक संकट की जड़ें नव उदारवादी अर्थनीति में हैं

भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है. अर्थव्यवस्था के लगभग सभी संकेतक उसकी पतली होती हालत की ओर इशारा कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह संकट अचानक आया है. इस संकट के संकेत लंबे अरसे से दिख रहे हैं.
लेकिन यू.पी.ए-2 सरकार इन संकेतों को न सिर्फ नजरंदाज करती रही बल्कि अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण उससे निपटने के लिए जरूरी स्पष्ट और ठोस फैसला करने में नाकाम रही है.
यू.पी.ए के आर्थिक मैनेजर मानें या न मानें लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि सत्ता में तीन साल पूरे कर चुकी यू.पी.ए-2 सरकार की सबसे बड़ी नाकामी अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के रूप में सामने आई है.

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ बिलकुल छूट चुकी है. नतीजा सबके सामने है- राजनीतिक रूप से ज्वलनशील महंगाई पिछले तीन साल बेकाबू है, जी.डी.पी की वृद्धि दर गिर रही है, औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक हो चुकी है, शेयर बाजार और उससे अधिक रूपया लुढ़कने के नए रिकार्ड बना रहा है, व्यापार घाटे के साथ चालू खाते का घाटा खतरे की सीमा को लांघ चुका है, निवेश गिर रहा है और नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं.
साफ़ है कि आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक का दावा है कि अर्थव्यवस्था के मूल तत्व मजबूत हैं और मौजूदा आर्थिक मुश्किलें वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट के कारण हैं.
लेकिन यह सच्चाई से आँख चुराना और अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने की तरह है. यह एक हद तक ठीक है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहरे संकट में फंसे होने का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पिट रही हैं.
आश्चर्य नहीं कि इन दिनों पूरी दुनिया में कारपोरेट और वित्तीय पूंजीवाद को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी अर्थनीति को लेकर न सिर्फ गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं बल्कि संकट को बढ़ाने और स्थिति को और बदतर बनाने में उसकी भूमिका को भी रेखांकित किया जा रहा है.
लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए-2 सरकार और खासकर उसके आर्थिक मैनेजर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से इस कदर सम्मोहित हैं कि वे उससे इतर देखने और उसके विकल्पों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि वे यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि मौजूदा वैश्विक और घरेलू आर्थिक संकट के लिए नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी जिम्मेदार है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि वे अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट का ठीकरा वैश्विक आर्थिक संकट पर फोड़ने के बावजूद उसका समाधान उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उनपर आधारित आर्थिक सुधारों में ढूंढा जा रहा है जिनके कारण यह संकट आया है.
सच पूछिए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट अर्थनीति के स्तर पर नए और वैकल्पिक विचारों की कमी का नतीजा है. उदाहरण के लिए, महंगाई और खादयान्न प्रबंधन के मुद्दे को हो लीजिए जिसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था और राजनीति डगमगाई हुई है.
पिछले तीन सालों से मुद्रास्फीति की लगातार ऊँची दर के कारण न सिर्फ अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है बल्कि यू.पी.ए सरकार को उसकी भारी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. यह महंगाई मुख्यतः खाद्यान्नों और दूध-सब्जियों की ऊँची कीमतों के कारण है जो धीरे-धीरे फैलकर व्यापक हो गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि खाद्य वस्तुओं की इस महंगाई का सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की भारी उपेक्षा है जिसे ९० के आर्थिक सुधारों के दशक में अपने हाल पर छोड़ दिया गया. इस दौरान यह मान लिया गया कि कृषि क्षेत्र के बिना भी सिर्फ सेवा और उद्योग क्षेत्र की बदौलत अर्थव्यवस्था ८-१० फीसदी की तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है.
यह तथ्य है कि ८-९ फीसदी की तेज आर्थिक वृद्धि के दौर में भी कृषि की विकास दर सिर्फ २ से ३ फीसदी के बीच झूलती रही. इससे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह भ्रम हो गया कि नई भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र को बाईपास करके सेवा और उद्योग क्षेत्र के हाईवे पर तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है.
लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि भारत जैसे देश में कृषि की उपेक्षा करके अर्थव्यवस्था लंबे समय तक हाईवे पर तेज नहीं दौड़ सकती है. उसे ब्रेक लगना ही है. खाद्य वस्तुओं की महंगाई वही ब्रेक है जिसने अर्थव्यवस्था को जबरदस्त झटका दिया है.
असल में, हुआ यह कि सरकार ने इस मुद्रास्फीति को काबू में करने का जिम्मा रिजर्व बैंक को दे दिया जिसने ब्याज दरों में डेढ़ सालों में १३ बार से ज्यादा बार वृद्धि करके उसे काबू में करने की कोशिश की लेकिन ताजा आंकड़ों से साफ़ है कि महंगाई अभी भी काबू में नहीं आई है क्योंकि उसकी वजहें कहीं और हैं. अलबत्ता, ऊँची ब्याज दरों के कारण अर्थव्यवस्था की रफ़्तार जरूर धीमी पड़ती जा रही है क्योंकि इससे निवेश पर बुरा असर पड़ा है.
यही नहीं, नव उदारवादी नीतियों के असर में सरकार ने खाद्य कुप्रबंधन का नया रिकार्ड बना दिया है. यह किसी पहेली से कम नहीं है कि इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन और सरकार के गोदामों में रिकार्ड खाद्यान्न भण्डार के बावजूद खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है.
यू.पी.ए सरकार इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन को अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रही है लेकिन वही रिकार्ड उत्पादन उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द और अभिशाप बनता दिख रहा है. वजह यह कि इस साल जून के आखिर में सरकारी गोदामों में कोई ७.५ करोड़ टन अनाज का रिकार्ड भण्डार होगा लेकिन उसमें से कोई १.५ करोड़ टन अनाज बाहर खुले में पड़ा होगा.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह खाद्यान्न प्रबंधन के स्तर पर नीतियों का दिवालियापन है कि एक ओर सरकार के भंडारों में न्यूनतम बफर नार्म के तीन गुने से ज्यादा अनाज होगा और इस तरह सरकार सबसे बड़ा जमाखोर बन जाएगी और दूसरी ओर, खुले बाजार में अनाजों की किल्लत होगी, ऊँची महंगाई होगी, मुनाफाखोर पैसे बनायेंगे, करोड़ों लोग भूखे पेट सोयेंगे लेकिन सरकारी भंडारों में अनाज सड़ेगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजर इस अनाज को गरीबों में बांटने या उसे एक सार्वभौम खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सभी नागरिकों के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि एक सीमित और आधे-अधूरे खाद्य सुरक्षा विधेयक को भी जान-बूझकर लटकाए रखा गया है.
इसकी वजह यह है कि सरकार को लगता है कि मुफ्त में या सस्ती दरों पर लोगों को अनाज उपलब्ध कराने से खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा. नव उदारवादी अर्थनीति में राजकोषीय घाटा को जी.डी.पी के तीन फीसदी के दायरे में रखना सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता होती है, इसलिए सरकार अनाज इकठ्ठा करने का रिकार्ड बनाती जा रही है लेकिन उसे जरूरतमंदों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है.
लेकिन इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर खुले बाजार में कृत्रिम किल्लत पैदा हो गई है जिसका फायदा अनाजों के बड़े व्यापारी और कम्पनियाँ उठा रही हैं, महंगाई आसमान छू रही है और दूसरी ओर, गोदामों में अनाजों को रखने और उनकी देखभाल में होनेवाला खर्च बढ़ता जा रहा है जिसके कारण साल-दर-साल खाद्य सब्सिडी और राजकोषीय घाटा दोनों बढते जा रहे हैं.
यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अति व्यामोह का नतीजा है. इसके कारण माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो गई है. लेकिन इसके बावजूद इन नीतियों का मोह नहीं छूट रहा है. आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट की दवा उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नए डोज में खोज रही है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है.
लेकिन सच यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधार खुद एक गंभीर संकट में फंस गए हैं. इन नीतियों के कारण बढे भ्रष्टाचार और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि पूरे देश में इन नीतियों के खिलाफ एक विद्रोह जैसा माहौल है खासकर गरीब किसान और आदिवासी उद्योगों और खनन के लिए जमीन देने को तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन नीतियों का सबसे बड़ा समर्थक माना जानेवाला मध्यवर्ग भी बेचैन और गुस्से में है. साफ़ है कि आर्थिक सुधार अंधी गली के आखिरी मुहाने पर पहुँच गए हैं. आगे रास्ता बंद है. यू.पी.ए सरकार इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझ लेगी, अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही अच्छा होगा. अन्यथा यह संकट और बढ़ेगा और नए-नए रूपों में सामने आएगा.
सबसे बड़ा खतरा यह है कि इस आर्थिक संकट के राजनीतिक संकट में तब्दील होने के आसार बढते जा रहे हैं. लेकिन अगर यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर यह सोच रहे हैं कि आर्थिक-राजनीतिक संकट बढ़ने से उन्हें यह कहकर आर्थिक सुधारों का नया डोज देने में आसानी हो जाएगी कि अब इन कठोर फैसलों के अलावा और कोई उपाय नहीं है तो वे भूल कर रहे हैं.
उन्हें यह जोखिम बहुत भारी पड़ सकता है. उन्हें यूरोप में ध्वस्त हो रही सरकारों के हश्र से सबक लेना चाहिए.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में पिछली 23 मई को प्रकाशित टिप्पणी)