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शनिवार, जून 08, 2013

आई.सी.यू की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था

आर्थिक संकट से निपटने की यू.पी.ए सरकार की रणनीति से माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो रही है


संकट में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की फिसलन जारी है. जैसीकि आशंका थी, पिछले वित्तीय वर्ष (१२-१३) की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च’१३) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र ४.८ फीसदी रही और पूरे वर्ष में पांच फीसदी दर्ज की गई जोकि आर्थिक वृद्धि दर के मामले में पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे फीका और बदतर प्रदर्शन है.
यही नहीं, चौथी तिमाही की ४.८ फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर इसलिए और भी निराशाजनक है क्योंकि यह तीसरी तिमाही की वृद्धि दर ४.७ फीसदी की तुलना न के बराबर सुधार की ओर संकेत करती है. इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के एक गंभीर गतिरुद्धता में फंस जाने का पता चलता है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदों को भी गहरा झटका लगा है.
हालाँकि इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सी.एस.ओ) ने फ़रवरी में जारी पूर्वानुमान में वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी वृद्धि दर के पांच फीसदी रहने का संकेत दिया था. लेकिन उस समय अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजरों ने इससे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जाहिर की थी क्योंकि उन्हें चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दिखाई दे रहे थे.

उन्हें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था तीसरी तिमाही में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है जहाँ से उसमें सुधार होना शुरू हो जाएगा. उनकी उम्मीद की दूसरी वजह यह थी कि पिछले साल अगस्त में पी. चिदंबरम के वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद से यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कई बड़े फैसले किये हैं जिसका असर चौथी तिमाही में दिखने की उम्मीद थी.

लेकिन ताजा रिपोर्टों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था अभी भी आई.सी.यू में पड़ी हुई है. सी.एस.ओ के मुताबिक, वर्ष २०१२-१३ में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र एक फीसदी और उसमें सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) की वृद्धि दर मात्र १.२ फीसदी रही.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- क्रिसिल के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का यह प्रदर्शन पिछले दशक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. क्रिसिल के मुताबिक, यह १९९१-९२ के संकट की याद दिलाता है जब औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर गिरकर मात्र ०.६ फीसदी और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर नकारात्मक (-)०.८ फीसदी रह गई थी.
चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ जनवरी से मार्च की तिमाही में बल्कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में आठ मूल ढांचागत उद्योगों की वृद्धि दर मात्र २.३ फीसदी दर्ज की गई है जोकि पिछले साल इसी अवधि में दर्ज की गई ५.७ फीसदी की वृद्धि दर की आधी से भी कम है.

यही नहीं, इस सप्ताह जारी एच.एस.बी.सी की पी.एम.आई रिपोर्ट के मुताबिक, बीते मई महीने में औद्योगिक गतिविधियों में सुधार तो दूर अप्रैल की तुलना में मामूली गिरावट के संकेत हैं. पी.एम.आई औद्योगिक इकाइयों के मैनेजरों से मांग सम्बन्धी सर्वेक्षण के आधार पर तैयार किया जाता है और वह मई महीने में पिछले ५० महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है.

लेकिन संकट सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है. इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर सेवा क्षेत्र पर भी पड़ा है. यहाँ तक कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी बीते वित्तीय वर्ष में वर्ष ११-१२ की तुलना में लगभग आधी रह गई है. कृषि की वृद्धि दर वर्ष १२-१३ में १.९ फीसदी रही जबकि उससे पहले के वर्ष में ३.६ फीसदी दर्ज की गई थी.
यही हाल निर्यात में बढ़ोत्तरी का है जिसमें चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में मात्र १.६८ फीसदी (डालर में) की वृद्धि दर्ज की गई है. उल्लेखनीय है कि पिछले वित्तीय वर्ष १२-१३ में निर्यात की वृद्धि दर में (-) १.८ फीसदी की गिरावट और आयात में ०.४ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जिसके कारण न सिर्फ व्यापार घाटे में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई बल्कि सबसे अधिक चिंताजनक वृद्धि चालू खाते के घाटे में हुई है जो बढ़कर जी.डी.पी के ५.१ फीसदी तक पहुँच गई है.
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया है कि चालू खाते के घाटे में हुई वृद्धि सबसे बड़ी चुनौती है. चालू खाते के घाटे में भारी वृद्धि के कारण डालर के मुकाबले रूपये पर दबाव बना हुआ है.

हालाँकि इस बीच मुद्रास्फीति की दर में नरमी आई है लेकिन वह अब भी सरकार और रिजर्व बैंक के अनुमानों से कहीं ज्यादा ऊँचाई पर बनी हुई है. वर्ष २०१२-१३ में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ७.४ फीसदी और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर ८.१ फीसदी रही.

कहने की जरूरत नहीं है कि महंगाई पर काबू पाने में नाकामी यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सबसे बड़ी विफलता साबित हुई है.

इसकी कीमत आम आदमी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी चुकानी पड़ी है. असल में, पिछले चार सालों से लगातार ऊँची महंगाई की दर से निपटने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया.
नतीजा, रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जिसका सीधा असर निवेश पर पड़ा. निवेश में कमी आने के कारण आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट दर्ज की गई है जोकि लुढ़ककर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है. इसके बावजूद मुद्रास्फीति पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
इस तरह ‘माया मिली, न राम’ की स्थिति पैदा हो गई है. उल्टे ऊँची मुद्रास्फीति की दर के साथ आर्थिक वृद्धि में गिरावट की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने की आशंका बढ़ती जा रही है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे ने यू.पी.ए सरकार की साख पाताल में पहुंचा दी. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार की रही-सही उम्मीदों पर यू.पी.ए सरकार के अंदर आर्थिक सुस्ती से निपटने की रणनीति पर मतभेदों, खींचतान और अनिर्णय ने पानी फेर दिया.

आखिरकार जब सरकार की नींद खुली और उसने घबराहट और जल्दबाजी में फैसले करने शुरू किये तो वह अर्थव्यवस्था को उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की दवा की बड़ी खुराक से ठीक करने की कोशिश करने लगी जिसके कारण अर्थव्यवस्था बीमार हुई है और जिसकी सफलता को लेकर पूरी दुनिया में सवाल उठाये जा रहे हैं.

असल में, यू.पी.ए सरकार ने अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए एक ओर बड़ी पूंजी खासकर विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे खोलने से लेकर नियमों/शर्तों को उदार बनाने तक और दूसरी ओर, बड़ी विदेशी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए राजकोषीय घाटे में कमी यानी सरकारी खर्चों और सब्सिडी में कटौती जैसे किफायतशारी (आस्ट्रिटी) के उपायों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया.
इसके तहत ही वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए न सिर्फ पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में भारी कटौती की बल्कि चालू साल के बजट में भी बहुत मामूली वृद्धि की है.
लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ है. आर्थिक वृद्धि को लेकर सी.एस.ओ के ताजा अनुमान से साफ़ है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की एक वजह सरकारी खर्चों में भारी कटौती भी है. दरअसल, जब अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता हो और आर्थिक वृद्धि गिर रही हो, उस समय सरकारी खर्चों खासकर सार्वजनिक निवेश में कटौती का उल्टा असर होता है.

इसकी वजह यह है कि आर्थिक विकास को तेज करने के लिए निवेश जरूरी है और जब आर्थिक अनिश्चितता और वैश्विक संकट के कारण निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे न आ रहा हो, उस समय सार्वजनिक निवेश में कटौती से स्थिति और बिगड़ जाती है. भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही होता दिखाई दे रहा है.

इससे एक बार फिर ‘माया मिली, न राम’ वाली स्थिति पैदा हो रही है. आर्थिक वृद्धि में गिरावट का सीधा असर सरकार के टैक्स राजस्व पर पड़ेगा और टैक्स वसूली कम होने से राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी तय है. इस तरह न आर्थिक विकास को गति मिल पाएगी और न राजकोषीय घाटे में कोई कमी आ पाएगी. यह एक दुश्चक्र है.
माना जाता है कि इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की चिंता छोड़कर आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर ढांचागत और सामाजिक क्षेत्र में भारी बढ़ोत्तरी करनी चाहिए.
इससे अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उसके साथ मांग बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश भी आगे आएगा. इससे आर्थिक गतिरुद्धता भंग होगी.
यह कोई समाजवादी फार्मूला नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में  कींसवादी अर्थशास्त्र है जिसे १९३० के दशक की महामंदी से निपटने के लिए जान मेनार्ड कींस ने पेश किया था.

लेकिन मुश्किल यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह में फंसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक को यह भरोसा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने जैसे आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ानेवाले फैसलों से देश में विदेशी निवेश तेजी से आएगा और उससे अर्थव्यवस्था एक बार फिर तेजी से दौड़ने लगेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ा जोखिम ले रही है. वह अर्थव्यवस्था के साथ एक बड़ा दाँव खेल रही है जिसमें हालिया वैश्विक उदाहरणों को देखते हुए कामयाबी की सम्भावना कम दिखाई दे रही है.
लेकिन अगर वह सफल भी हुई तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी का और बड़ा मोहताज बना देगी.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 8 जून को प्रकाशित टिप्पणी)                     


शुक्रवार, मार्च 22, 2013

आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्रेम के खतरे

विदेशी पूंजी के आगे बेबस सरकार 'नीतिगत लकवे' का सबसे बड़ा उदाहरण है  

भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति निर्माताओं का विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी से प्रेम किसी से छुपा नहीं है. लेकिन नई बात यह है कि वे इस एकतरफा प्रेम में अंधे से होते जा रहे हैं. विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को लुभाने और खुश करने के लिए वे नई-नई रियायतें और छूट दे रहे हैं.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेशकों को भारत से कोई विशेष प्यार नहीं है और वे सिर्फ अपना फायदा देखकर भारतीय बाजार में आते हैं. उनके लिए यह प्यार तब तक है, जब तक फायदे का सौदा है. लेकिन क्या यही बात भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी कही जा सकती है?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए सबसे ताजे उदाहरण पर गौर कीजिए. वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अगले वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त विधेयक में एक मामूली सा संशोधन का प्रस्ताव किया कि मारीशस जैसे देशों के जरिये भारतीय बाजारों में निवेश करनेवाले विदेशी निवेशकों और विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.एफ.आई) के लिए दोहरे कराधान से बचने के वास्ते टैक्स निवास सर्टिफिकेट देना ‘अनिवार्य होगा लेकिन यह टैक्स लाभ लेने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.’

हालाँकि इस संशोधन में कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन इसका ऐसा असर हुआ कि बजट पेश होने से पहले और भाषण के दौरान चढ़ रहा शेयर बाजार शाम होते-होते ३५० अंक गिर गया.

ऐसी चर्चाएं चल पड़ी कि विदेशी संस्थागत निवेशकों में घबराहट है कि इस नए संशोधन का फायदा उठाकर टैक्स अधिकारी उन्हें परेशान कर सकते हैं. आशंकाएं जाहिर की जाने लगीं कि अगर जल्दी स्थिति स्पष्ट नहीं की गई तो शेयर बाजार में कत्लेआम मच सकता है और विदेशी पूंजी शेयर बाजार और देश छोड़कर निकलने लगेगी. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
इन चर्चाओं का ऐसा दबाव बना कि देर रात वित्त मंत्रालय की ओर से एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि ये आशंकाएं निराधार हैं और टैक्स निवास सर्टिफिकेट देनेवाले निवेशकों और एफ.आई.आई को पहले की तरह टैक्स छूट मिलती रहेगी.
यही नहीं, अगले दिन खुद वित्त मंत्री विदेशी निवेशकों की मिजाजपुर्सी में उतर आए. उन्होंने न सिर्फ यथा-स्थिति बहाल रखने का भरोसा दिया बल्कि वित्त विधेयक से इस संशोधन को हटाने का भी संकेत दिया.

इसका असर भी हुआ. अगले दिन शेयर बाजार फिर चढ़ गया. लेकिन यह कोई पहला मामला नहीं है जब विदेशी निवेशकों खासकर आवारा पूंजी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नीति नियंताओं और मैनेजरों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया हो. बहुत ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है.

आवारा पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स ने पिछले साल के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की ओर से लाये गए जनरल एंटी अवायडेंस नियमों (गार) का भी इसी तरह विरोध किया था.

उल्लेखनीय है कि गार का उद्देश्य टैक्स बचाने के मकसद से टैक्स व्यवस्था के छिद्रों का लाभ लेने पर रोक लगाना था. गार जैसे नियमों/कानूनों की घोषणा हाल के वर्षों में कई देशों खासकर विकसित पश्चिमी देशों ने की है लेकिन भारत में उसका ऐसे विरोध किया गया, जैसे सरकार ने विदेशी निवेशकों, बड़े कार्पोरेट्स और विदेशी कंपनियों के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ने का एलान कर दिया हो.
गार के एलान के बाद सिर्फ कुछ ही महीनों के अंदर एफ.आई.आई यानी आवारा पूंजी ने अरबों डालर भारत से निकल लिए. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने गार के विरोध को देखते हुए उसे एक साल के लिए टालने की घोषणा तुरंत कर दी लेकिन अकेले पार्टिसिपेटरी नोट (पी-नोट) के जरिये शेयर बाजार में लगा कोई २० अरब डालर भारत से बाहर निकल गया.
नतीजा यह हुआ कि जब पिछले साल पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय का कार्यकाल संभाला तो उन्होंने गार से पीछा छुड़ाने के लिए अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में गार की समीक्षा के लिए समिति गठित कर दी.

यही नहीं, वित्त मंत्रालय शोम समिति की सिफारिश पर इस साल बजट से ठीक महीने भर पहले आनन-फानन में गार पर अमल को अप्रैल’२०१६ तक के लिए टालने की घोषणा कर दी. इस तरह विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए गार को दफ़न कर दिया गया. यही हाल वोडाफोन मामले में पिछली तारीख से टैक्स लगाने के फैसले का भी हुआ.

असल में, बड़ी विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेश अपनी शर्तों पर भारतीय बाजारों में निवेश करना चाहते हैं. जाहिर है कि वे न सिर्फ निवेश के लिए अनुकूल रियायतें/छूट मांगते हैं बल्कि वे अपने मुनाफे पर कोई टैक्स भी नहीं देना चाहते हैं. इसके लिए वे भारत और मारीशस, यू.ए.ई और सिंगापुर जैसे देशों के बीच हुए दोहरे कराधान से बचने के समझौते का इस्तेमाल करते हैं.
इस प्रावधान के तहत इन देशों में रजिस्टर्ड किसी कंपनी को भारत में निवेश से होनेवाली आय पर टैक्स नहीं देना पड़ता है क्योंकि वे उन देशों में टैक्स चुकाती हैं. लेकिन यह तथ्य है कि तमाम विदेशी कम्पनियाँ और एफ.आई.आई इन देशों को सिर्फ पोस्ट-आफिस की तरह इस्तेमाल करते हैं जहाँ उन्हें बहुत मामूली टैक्स देना पड़ता है.
एक मोटे अनुमान के मुताबिक, भारत में आनेवाले कुल विदेशी निवेश का लगभग ४० फीसदी अकेले मारीशस के रास्ते आता है. यही नहीं, एफ.आई.आई को शेयर बाजार में पार्टिसिपेटरी नोट्स के जरिये भी निवेश की इजाजत मिली रही है जिसके वास्तविक निवेशक की पहचान नहीं की जा सकती.

माना जाता है कि पी-नोट्स का इस्तेमाल कालेधन से लेकर आपराधिक पैसे को वापस लाने और बाजार में लगाकर मुनाफा कमाने के लिए किया जाता है. इसपर कई बार रिजर्व बैंक और सेबी तक आपत्ति जताई है. इसके बावजूद हालत यह थी कि पिछले साल जून तक शेयर बाजार में लगी कुल विदेशी पूंजी का लगभग ५० फीसदी धन पी-नोट्स के जरिये ही आया था.

जाहिर है कि यह भारत के लिए टैक्स राजस्व का नुकसान है. यही नहीं, इससे शेयर बाजार की विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ गई है. आज हालत यह हो गई है कि शेयर बाजार पर मुट्ठी भर एफ.आई.आई का कब्ज़ा हो गया है और वे अपनी मनमर्जी से बाजार को उठाते-गिराते रहते हैं.
इसके कारण किसी वित्त मंत्री में उनकी मर्जी के खिलाफ कोई फैसला करने की हिम्मत नहीं रह गई है क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है. मारीशस की टैक्स निवास सर्टिफिकेट का मामला और उसपर चिदंबरम की घबराहट और बेचैनी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्यार कितनी खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है.                         
(साप्ताहिक पत्रिका 'शुक्रवार' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

‘टाइम’ की उलटबांसी

आर्थिक सुधारों के पक्ष में 'टाइम' के तर्क जले पर नमक छिड़कने की तरह हैं

जानी-मानी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ ने एशिया अंक की ताजा कवर स्टोरी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पिछले तीन साल के कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए थोड़ा सम्मानजक शब्दों में कहें तो उन्हें ‘उम्मीद से कम सफल’ और बिना लागलपेट के कहें तो ‘फिसड्डी’ (अंडर-अचीवर) घोषित करके चौतरफा हमलों से घिरे प्रधानमंत्री पर हमले के लिए विपक्ष को एक और हथियार दे दिया है.
आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने प्रधानमंत्री की नाकामियों खासकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में उनकी विफलता के बाबत ‘टाइम’ के आरोपों को हाथों-हाथ लिया है. यही नहीं, भाजपा बड़े गर्व और उत्साह से यह बताना भी नहीं भूल रही है कि ‘टाइम’ ने कुछ सप्ताहों पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व क्षमता की तारीफ़ की थी.
भाजपा की खुशी समझी जा सकती है. लेकिन तथ्य यह है कि ‘टाइम’ ने प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल के बारे में ऐसी कोई नई बात या रहस्योद्घाटन नहीं किया है जो देश में लोगों को पहले से मालूम न हो.

सच यह है कि प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार की आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामियों पर ऐसे कटाक्ष और आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं. ऐसे आरोप लगानेवालों में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर गुलाबी अखबारों तक और स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर देशी-विदेशी थिंक टैंक और फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबीइंग संगठन तक सभी शामिल रहे हैं.  

इस मायने में ‘टाइम’ पत्रिका की ओर से प्रधानमंत्री की रेटिंग और अर्थव्यवस्था की ‘स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. दोनों की कसौटियां और पैमाने एक जैसे हैं. प्रधानमंत्री से उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि वे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए उतनी कोशिश नहीं कर रहे हैं जितनी कि उनसे अपेक्षा और उम्मीदें थीं.
‘टाइम’ को भी लगता है कि प्रधानमंत्री फैसले नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि सत्ता का केन्द्र कहीं और है. वे अपने ही मंत्रियों के आगे लाचार हैं. पत्रिका के मुताबिक, यू.पी.ए सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों में घिरी है और वोट के चक्कर में सब्सिडी और सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ाती जा रही है.
हालाँकि ‘टाइम’ के आरोपों और कटाक्ष में नया कुछ नहीं है लेकिन इससे यह जरूर पता चलता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यू.पी.ए सरकार से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगाये बैठी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके पैरोकारों की उम्मीद खत्म होने लगी है और उनकी हताशा तुर्श होने लगी है.

स तुर्शी को अजीम प्रेमजी और एन. नारायणमूर्ति जैसे देशी उद्योगपतियों के बयानों से लेकर बड़े विदेशी कारपोरेट समूहों की उन धमकियों में भी महसूस किया जा सकता है जो आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार की नाकामी और विदेशी निवेशकों को कथित तौर पर परेशान और तंग करनेवाले नियम-कानूनों से नाराज होकर देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन रिपोर्टों और आलोचनाओं का एक बड़ा मकसद सरकार और खासकर प्रधानमंत्री पर दबाव बढ़ाना है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कई महीनों से बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके पैरोकार प्रधानमंत्री पर दबाव बनाये हुए हैं कि वे न सिर्फ आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले जैसे खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने की पहल करें बल्कि विदेशी कंपनियों और निवेशकों पर पीछे से टैक्स (वोडाफोन प्रकरण) और टैक्स देने से बचने पर रोक लगानेवाले गार जैसे नियमों को वापस लें.
इस दबाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर और ब्रिटिश वित्त मंत्री जार्ज ओसबोर्न के अलावा खुद प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने निजी तौर पर पूर्व वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने और वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स लगाने के फैसले को वापस लेने का दबाव बना रखा है.  
निश्चय ही, प्रधानमंत्री को अच्छी तरह से पता है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स की उनकी सरकार से नाराजगी और हताशा बढ़ती जा रही है. उन्हें इस नाराजगी के नतीजों का भी अंदाज़ा है. इस अर्थ में ‘टाइम’ की ताजा कवर स्टोरी को एक तरह से यू.पी.ए सरकार के समाधि लेख की तरह भी देखा जा सकता है.               

आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री जबरदस्त दबाव में हैं. खासकर उन्होंने जब से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला है, उनपर यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया है. इस दबाव में उन्होंने पिछले डेढ़ सप्ताह में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने वाले कई बयान दिए हैं. इन बयानों का मकसद एक ओर कारपोरेट जगत में फील गुड का माहौल पैदा करना और दूसरी ओर, सुधारों को लेकर राजनीतिक मूड का अंदाज़ा लगाना था.

हैरानी नहीं होगी अगर अगले कुछ सप्ताहों में यू.पी.ए सरकार अर्थव्यवस्था को दुरुस्त और इसके लिए देशी-विदेशी निवेशकों का विश्वास बहाल करने के नाम खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति और वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स लगाने और गार को ठंडे बस्ते में डालने जैसे फैसले करने की पहल करे.
यही नहीं, सरकार से आ रहे संकेतों से साफ़ है कि वह डीजल और खाद की कीमतों में वृद्धि जैसे फैसले भी करने पर विचार कर रही है. इसके अलावा सरकार रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में कटौती के लिए दबाव बढ़ाने की तैयारी में है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री के बयानों और सरकार से आ रहे संकेतों ने बाजार में फिर से नई उम्मीदें जगा दी हैं. पिछले कुछ दिनों में शेयर बाजार से लेकर रूपये की गिरती कीमत में सुधार आया है.
लेकिन असल सवाल यह है कि बाजार के चेहरे पर आई यह नई चमक किस कीमत पर आ रही है? क्या बाजार को खुश करने के लिए सरकार उन करोड़ों छोटे-मंझोले दुकानदारों की आजीविका दांव पर नहीं लगाने जा रही है जो खुदरा व्यापार में वाल मार्ट, टेस्को और मेट्रो जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नहीं टिक पायेंगे?

यही नहीं, विदेशी निवेशकों और कार्पोरेट्स को खुश करने के लिए क्या सरकार उन्हें भारतीय टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का नाजायज फायदा उठाने और टैक्स से बचने की तिकड़में करने की छूट देने के लिए तैयार है? यह भी कि एक संप्रभु देश के बतौर क्या भारत स्वतंत्र तौर पर अपने आर्थिक फैसले नहीं कर सकता?

मजे की बात यह है कि जो ब्रिटेन खुद अपने यहाँ गार लागू कर रहा है और इससे पहले पीछे से टैक्स लगाने का फैसला कर चुका है, वह भारत पर ऐसा न करने के लिए दबाव डाल रहा है. यह दोहरापन कोई नई बात नहीं है. आश्चर्य नहीं कि ‘टाइम’ की रिपोर्ट भी इस दोहरेपन की शिकार है. उसे प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी नाकामी यह दिखती है कि वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के हितों के अनुकूल नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रहे हैं.
लेकिन उसे यह नहीं दिखता कि प्रधानमंत्री और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी नाकामी यह है कि दो दशकों के आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबी, बेकारी, बीमारी, भूखमरी और वंचना में कोई खास कमी नहीं आई है.
मजे की बात यह है कि खुद ‘टाइम’ की कवर स्टोरी में स्वीकार किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में १९९४ में भारत १३५ वें स्थान पर था और २०११ में वह सिर्फ एक पायदान ऊपर १३४ वें स्थान पर पहुँच पाया है. क्या इन डेढ़ दशकों में औसतन ७ फीसदी से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के मामले में भारत की चींटी चाल प्रधानमंत्री और उससे अधिक नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की नाकामी नहीं है?

लेकिन इसके बावजूद ‘टाइम’ की उलटबांसी यह है कि मानव विकास के मामले में भारत के पिछड़ने का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का रूक जाना है.

यही नहीं, वह आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की इस तोतारटंत को भी दोहराता है कि गरीबी और बेकारी दूर करने के लिए आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार को तेज करना जरूरी है और इसके लिए आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को बढ़ाना जरूरी है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह तर्क जले पर नमक छिड़कने जैसा है.
लेकिन नव उदारवादी सुधारों की मुखर समर्थक ‘टाइम’ से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? कहने की जरूरत नहीं कि इसी सोच के कारण आर्थिक सुधारों की साख आम आदमी के बीच खत्म होती जा रही है और वे अंधी गली के आखिरी छोर पर पहुँच गए हैं. प्रधानमंत्री चाहकर भी उसे आगे नहीं ले जा सकते हैं.                  
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 10 जुलाई के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)

शुक्रवार, मई 18, 2012

भूमंडलीकरण के रास्ते आया है यह आर्थिक संकट

यह आर्थिक संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल देश के अंदर है  

क्या भारत एक बार फिर १९९१ की तरह के आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है? क्या एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी शुरू होने से पहले ही पटाक्षेप के करीब पहुँच गई है? डालर के मुकाबले गिरते रूपये और लुढ़कते शेयर बाजार के बीच संसद से लेकर गुलाबी अखबारों और चैनलों तक में यही सवाल छाए हुए हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती स्थिति को लेकर आशंकाओं और घबराहट का माहौल है. हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी अपने तईं देशी-विदेशी निवेशकों और बाजार के साथ-साथ देश को अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन नार्थ ब्लाक से लेकर दलाल स्ट्रीट तक फैली घबराहट किसी से छुपी नहीं है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बतानेवाले अधिकांश संकेतक लड़खड़ाते हुए दिख रहे हैं. रूपये और शेयर बाजार के साथ-साथ  औद्योगिक उत्पादन वृद्धि में फिसलन, बढ़ता वित्तीय, व्यापार और चालू खाते का घाटा, जी.डी.पी की गिरती वृद्धि दर और ऊपर चढती महंगाई दर जैसे संकेतकों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है.

यह भी सही है कि आंकड़ों में कई संकेतक १९९१ के संकट के करीब पहुँच गए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि स्थिति चिंताजनक है लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि अर्थव्यवस्था १९९१ के तरह के संकट में फंसने जा रही है या उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी का पटाक्षेप हो गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा आर्थिक संकट कई घरेलू और वैदेशिक कारकों का मिलाजुला नतीजा है. इन कारकों में संकट में फंसी वैश्विक अर्थव्यवस्था में बढ़ती अनिश्चितता खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहराते संकट का असर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.
एक भूमंडलीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था के अभिन्न हिस्से के रूप में भारत भी इसके नकारात्मक प्रभावों से अछूता नहीं है. इस मायने में वित्त मंत्री की यह सफाई एक हद तक सही है कि रूपये औए शेयर बाजार में गिरावट आदि के लिए यूनान सहित यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं का संकट जिम्मेदार है.  
लेकिन प्रणब मुखर्जी यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. पूरा सच यह है कि मौजूदा संकट के लिए सबसे अधिक जवाबदेही आँख मूंदकर आगे बढ़ाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की है जिसके तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी और उत्पादों के लिए न सिर्फ अधिक से अधिक खोला गया बल्कि उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ने के लिए घरेलू नीतियों को बड़ी विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी के अनुकूल बनाया गया.

स्वाभाविक तौर पर अर्थव्यवस्था के एक हिस्से खासकर घरेलू बड़ी पूंजी को इसका फायदा हुआ है तो प्रतिकूल दौर में इसके बुरे नतीजों को भी भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.

यही नहीं, पिछले डेढ़-दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर बढ़ती चली गई है. यह निर्भरता इस खतरनाक हद तक बढ़ गई है कि विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारें उनकी सभी जायज-नाजायज मांगें मानने के लिए मजबूर हो गई हैं.
उदाहरण के लिए, वोडाफोन टैक्स विवाद और आयकर कानून में मौजूद छिद्र को नए बजट में पीछे से संशोधन करके सुधारने या सुप्रीम कोर्ट द्वारा २ जी मामले में १२२ टेलीकाम लाइसेंसों को रद्द करने और अब ट्राई द्वारा उनकी नीलामी के लिए ऊँची रिजर्व कीमत तय करने जैसे हालिया प्रकरणों को लीजिए जिन्हें देश में निवेश का माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और जिसे लेकर विदेशी निवेशक और कार्पोरेट्स इतने नाराज बताये जा रहे हैं कि वे न सिर्फ नया निवेश करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि देश से पूंजी निकाल कर ले जा रहे बताये जा रहे हैं. 
दरअसल, यह एक तरह का भयादोहन है कि अगर आपने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश नहीं किया तो वे देश छोडकर चले जाएंगे जिससे अर्थव्यवस्था संकट में फंस जाएगी. उदाहरण के लिए रूपये की गिरती कीमत और लड़खड़ाते शेयर बाजार को ही लीजिए. तथ्य यह है कि शेयर बाजार पूरी तरह से बड़े विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी और कुछ बड़े घरेलू निवेशकों के चंगुल में है और वे अपनी मनमर्जी से उसे चढाते-गिराते रहते हैं.

यही कारण है कि शेयर बाजार का मतलब सट्टेबाजी हो गई है. दूसरे, इस आवारा पूंजी को किसी देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा अपने मुनाफे की चिंता होती है. नतीजा यह कि जब तक उसे भारतीय बाजारों में मुनाफा दिखता है, आवारा पूंजी का प्रवाह बना रहता है. बाजार अकारण और अतार्किक ढंग से चढ़ता रहता है. उसके साथ आनेवाले डालर के कारण रूपये की कीमत भी चढती रहती है.

लेकिन जैसे ही घरेलू या वैदेशिक माहौल बदलता या बिगड़ता है, आवारा पूंजी को सुरक्षित ठिकाने की खोज में देश छोड़ने में देर नहीं लगती है. यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि यह स्थिति भी अर्थव्यवस्था के लिए अलग तरह के संकट खड़ा कर देती है. साल-डेढ़ साल पहले तक सरकार रूपये की बढ़ती कीमत और विदेशी मुद्रा के भारी भण्डार के कारण पैदा होनेवाली समस्याओं के कारण परेशान थी.
यहाँ तक कि उसने डालर खपाने के लिए विदेशों में डालर ले जाने के नियम ढीले कर दिए. इसका उल्टा असर अब दिखाई पड़ रहा है. इस बीच, कुछ हद तक वैदेशिक और कुछ अपनी मनमाफिक नीतियों और फैसलों के न होने के कारण विदेशी पूंजी देश से निकल रही है. इससे शेयर बाजार के साथ रूपये की कीमत भी गिर रही है और अर्थव्यवस्था संकट में फंसती हुई दिख रही है.

इसके साथ ही यह भी सच है कि देशी-विदेशी निवेशक मौजूदा संकट का फायदा उठाने में लगे हैं. शेयर और मुद्रा बाजार में जमकर सट्टेबाजी हो रही है. एफ.आई.आई से लेकर बड़े निजी देशी-विदेशी बैंक/वित्तीय संस्थाएं और कार्पोरेट्स से लेकर निर्यातकों तक सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और वित्त मंत्रालय से लेकर रिजर्व बैंक तक इसलिए हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि बाजार में हस्तक्षेप से गलत सन्देश जाएगा और बाजार को अपना काम करने देना चाहिए.
लेकिन यह जानते हुए भी कि बाजार में सट्टेबाजी चल रही है और खुलकर मैनिपुलेशन हो रहा है, सरकार का अनिर्णय हैरान करनेवाला है. सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है जहाँ सरकार जानते-समझते हुए भी सट्टेबाजों के खिलाफ कार्रवाई करने में घबराती है.                             
लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थक मौजूदा संकट के लिए यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और कथित ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. वे सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाये बल्कि आमलोगों पर बोझ बढ़ानेवाले कड़े फैसले करे.
सवाल यह है कि क्या भारत एक ‘बनाना रिपब्लिक’ है जहाँ विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स जो चाहे करें और सरकार चुपचाप देखती रहे? दूसरे, क्या देश को निवेश खासकर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए? यहाँ तक कि आमलोगों खासकर गरीबों-आदिवासियों के हितों से लेकर पर्यावरण तक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए?
ये सवाल बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण हैं. इन्हें अनदेखा करके संकट से निपटने के नाम पर विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को और रियायतें देने का एक ही नतीजा होगा- और बड़े संकट को निमंत्रण. सच पूछिए तो मौजूदा संकट उतना बड़ा संकट नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ाकर गुलाबी मीडिया बता रहा है.
यह सिर्फ देश में बड़े आर्थिक संकट का डर दिखाकर और घबराहट का माहौल बनाकर अपने मनमाफिक नीतियां बनवाने और फैसले करवाने की कोशिश है. इस समय जरूरत कड़े फैसलों और किफायतशारी (आस्ट्रीटी) के नाम पर लोगों पर और बोझ डालने के बजाय देश के अंदर अपने संसाधनों के बेहतर और प्रभावी इस्तेमाल के जरिये घरेलू मांग बढाने और इसके लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है. इस मायने में यह संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल बाहर नहीं, देश के अंदर खोजा जाना चाहिए.
         
('दैनिक भाष्कर' में आप-एड पृष्ठ पर 18 मई को प्रकाशित लेख)

गुरुवार, मई 17, 2012

‘नीतिगत लकवे’ का निहितार्थ

कार्पोरेट हितों को आगे बढ़ने का यह सुनियोजित प्रचार अभियान है


मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में ३.५ फीसदी की गिरावट की खबर आते ही इस गिरावट के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहराते हुए सामूहिक रुदन और तेज हो गया है. इसके साथ ही कथित रूप से रूके हुए आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की मांग का कर्कश कोरस भी कान के पर्दे फाड़ने लगा है.
हालाँकि इन आरोपों में नया कुछ नहीं है. पिछले डेढ़-दो सालों खासकर २ जी समेत भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों के सामने आने के बाद से आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकामी और कई नीतिगत मामलों में अनिर्णय या निर्णय को लागू कराने में नाकामयाबी को लेकर यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ के आरोप लगते रहे हैं.
लेकिन नई बात यह है कि पिछले कुछ महीनों में इस कोरस के सुर न सिर्फ कानफोडू ऊँचाई तक पहुँच गए हैं बल्कि खुद सरकार के अंदर से भी ऐसे सुर सामने आने लगे हैं. हालत यह हो गई है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देशी-विदेशी पूंजी के प्रतिनिधि, उनके थिंक टैंक, समूचा कारपोरेट जगत, आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक, गुलाबी अखबार और विपक्ष सभी सरकार पर उसके कथित नीतिगत लकवे के लिए चौतरफा हमला कर रहे हैं.
हद तो यह हो गई कि खुद वित्त मंत्री के सलाहकार कौशिक बसु भी अमेरिका में विदेशी निवेशकों के सामने आर्थिक सुधारों के रुकने और सरकार के ‘नीतिगत लकवे’ का शिकार होने का रोना रोते दिखाई पड़े.
यही नहीं, अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से लेकर उसकी सभी समस्यायों का ठीकरा भी इसी ‘नीतिगत लकवे’ पर फोड़ा जा रहा है. मजे की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक सार्वजनिक तौर पर भले ही नीतिगत लकवे के आरोपों को नकार रहे हों लेकिन वे भी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने और कड़े फैसले लेने में आ रही कठिनाइयों को दबी जुबान में स्वीकार करते हैं.

वे इसके लिए गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक तौर पर चाहे जितना इनकार करे लेकिन खुद सरकार के अंदर नीतिगत लकवे के आरोपों से काफी हद तक सहमति है. इस धारणा को वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के इस बयान ने और दृढ कर दिया कि अब आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कठिन फैसले २०१४ के आम चुनावों के बाद ही संभव हो पायेंगे.
लेकिन क्या सचमुच यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत लकवे’ की शिकार है? यह कुछ हद तक सही है कि यू.पी.ए सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की इच्छा के मुताबिक नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है.
खासकर बड़ी पूंजी के मनमाफिक खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई., श्रम कानूनों को और ढीला करने और उदार छंटनी नीति की इजाजत देने, बैंक-बीमा आदि क्षेत्रों में ७४ फीसदी से अधिक विदेशी पूंजी की अनुमति से लेकर बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को जमीन, स्पेक्ट्रम से लेकर खदानों तक सार्वजनिक संसाधनों को आने-पौने दामों में मुहैया करने और सब्सिडी में कटौती और इस तरह आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने जैसे फैसले करने या उससे ज्यादा उन्हें लागू कराने में सरकार कामयाब नहीं हुई है.
ऐसा नहीं है कि सरकार ये फैसले नहीं करना चाहती है. इसके उलट तथ्य यह है कि उसने अपने तईं हर कोशिश की है, कई फैसले किये भी लेकिन कुछ यू.पी.ए गठबंधन के अंदर के राजनीतिक अंतर्विरोधों और कुछ आमलोगों के खुले विरोध के कारण लागू नहीं कर पाई.
इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देशभर में जिस तरह से बड़ी कंपनियों के प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर खनिजों के दोहन के लिए जंगल और पहाड़ सौंपने का आम गरीबों, आदिवासियों, किसानों ने खुला और संगठित प्रतिरोध किया है, उसके कारण ९० फीसदी प्रोजेक्ट्स में काम रूका हुआ है.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों के नाम पर सब्सिडी में कटौती और लोगों पर बोझ डालने के खिलाफ भी जनमत मुखर हुआ है. राजनीतिक दलों को कड़े फैसलों की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ रही है.
इस कारण न चाहते हुए भी राजनीतिक दलों को पैर पीछे खींचने पड़े हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि गरीबों-किसानों-आदिवासियों की इस खुली बगावत से कैसे निपटें? हालाँकि सरकारों ने अपने तईं कुछ भी उठा नहीं रखा है. सैन्य दमन से लेकर जन आन्दोलनों को तोड़ने, बदनाम करने और खरीदने के हथियार आजमाए जा रहे हैं.
उडीशा से लेकर छत्तीसगढ़ तक कई जगहों पर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट के खिलाफ खड़े गरीबों और उनके जनतांत्रिक आन्दोलनों को नक्सली और माओवादी बताकर कुचलने और उन्हें देश की ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ घोषित करके दमन करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर जारी हैं.  
दूसरी ओर, जैतापुर से लेकर कुडनकुलम तक शांतिपूर्ण आन्दोलनों को ‘विकास विरोधी’ और ‘विदेशी धन समर्थित’ आंदोलन बताकर बदनाम करने, उन्हें तोड़ने और उनका दमन करने का सुनियोजित अभियान भी जारी है.
यही नहीं, हरियाणा से लेकर तमिलनाडु तक बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनकी फैक्टरियों में मजदूरों का खुलेआम शोषण हो रहा है, श्रम कानूनों को सरेआम ठेंगा दिखाते हुए उन्हें यूनियन बनाने और अपने मांगे उठाने तक का अधिकार नहीं दिया जा रहा है और हड़ताल के साथ तो आतंकवादी घटना की तरह व्यवहार किया जा रहा है. सच यह है कि कार्पोरेट्स की मनमर्जी के मुताबिक श्रम सुधार अभी भले नहीं हुए हों लेकिन व्यवहार में श्रम कानूनों को बेमानी बना दिया गया है.

सरकार की मंशा का अंदाज़ा हाल में घोषित राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग नीति से भी लगाया जा सकता है जिसके तहत बननेवाले राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग जोन में श्रम कानून लागू नहीं होंगे. इससे पहले सेज के तहत भी ऐसे ही प्रावधान किये गए थे. साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखा है.
इसका सुबूत यह भी है कि पिछले कुछ महीनों में वित्तीय पूंजी को कई रियायतें देने के अलावा खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की इजाजत देने का भी फैसला किया. यह और बात है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के मुद्दे पर तृणमूल सरीखे सहयोगी दलों और देशव्यापी विरोध के कारण उसे कदम पीछे खींचने पड़े लेकिन उसके साथ यह भी सच है कि एकल ब्रांड में १०० फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत मिल गई है.
यही नहीं, ‘नीतिगत लकवे’ की छवि को तोड़ने के लिए सरकार की बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि टैक्स कानूनों में छिद्रों का फायदा उठाकर टैक्स देने से बचनेवाली कंपनियों से निपटने के लिए वित्त मंत्री ने बजट में जिस जी.ए.ए.आर (गार) का प्रस्ताव किया था, उसे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के दबाव में अगले साल के लिए टालने का एलान कर दिया है.
इसके बावजूद बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स खुश नहीं हैं. यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कंपनियों की ओर से भांति-भांति की रियायतों और कई मामलों में परस्पर विरोधी दबाव हैं. हाल के महीनों में ये दबाव इतने अधिक बढ़ गए हैं कि सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है या फैसलों को लागू नहीं करा पा रही है. लेकिन गुलाबी मीडिया इसे ‘नीतिगत लकवा’ नहीं मानता है.  
उदाहरण के लिए, दूरसंचार क्षेत्र को ही लीजिए. २ जी मामले में १२२ लाइसेंसों के रद्द होने के बाद जिस तरह से देशी और खासकर विदेशी कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया और सरकार को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने पर मजबूर किया, उससे पता चलता है कि ‘नीतिगत लकवे’ का स्रोत क्या है?
इसी तरह दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने २ जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए आधार मूल्य तय करते हुए जो सिफारिशें दी हैं, उसके खिलाफ   देश की सभी बड़ी टेलीकाम कंपनियों ने युद्ध सा छेड दिया है. उनकी लाबीइंग की ताकत के कारण सरकार की घिग्घी बंध गई है. सरकार फैसला नहीं कर पा रही है. वोडाफोन के मामले में टैक्स लगाने को लेकर सरकार टिकी हुई जरूर है लेकिन जिस तरह से उसे वापस लेने को लेकर उसपर देश के अंदर और बाहर दबाव पड़ रहा है, उससे साफ़ है कि सरकार के लिए बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता जा रहा है.
एक और उदाहरण देखिये. कृष्णा-गोदावरी बेसिन से गैस के उत्पादन के मामले रिलायंस न सिर्फ सरकार पर गैस की कीमत बढ़ाने के लिए जबरदस्त दबाव डाल रही है बल्कि भयादोहन के लिए जान-बूझकर गैस का उत्पादन गिरा दिया है. लेकिन शुरूआती के बाद अब सरकार रिलायंस की अनुचित मांगों के आगे झुकती हुई दिख रही है.
ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें कंपनियों के दबाव के आगे सरकार या तो समर्पण कर दे रही है, उनके हितों
के मुताबिक नीतियां बना रही है या फिर कंपनियों के आपसी टकराव में कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सच यह है कि अर्थव्यवस्था का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में नीतियां स्वतंत्र और जनहित में बन रही हों. इसके उलट मंत्रालयों से लेकर योजना आयोग और नियामक संस्थाओं तक हर समिति में या तो कारपोरेट प्रतिनिधि खुद मौजूद हैं या लाबीइंग के जरिये नीतियां बनाई या बदली जा रही हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला-लौह अयस्क जैसे सार्वजनिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी कारपोरेट क्षेत्र को हवाले करने के घोटालों का पर्दाफाश होने और जमीन पर बढते जन प्रतिरोध के कारण यू.पी.ए सरकार के लिए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के नाम पर इस कारपोरेट लूट को खुली छूट देनेवाले फैसले लेने में बहुत मुश्किल हो रही है. कारपोरेट जगत और उसके प्रवक्ता इसे ही ‘नीतिगत लकवा’ बता रहे हैं.                 
असल में, यह एक बहुत सचेत और नियोजित प्रचार अभियान है जिसका मकसद नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाना, उसके विरोधियों को खलनायक घोषित करना और सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों पर इन कारपोरेट समर्थित सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का दबाव बनाना है.
इस अभियान के कारण सरकार इतनी अधिक दबाव में है कि वह ‘नीतिगत लकवे’ के आरोपों को गलत साबित करने के लिए बिना सोचे-समझे और हड़बड़ी में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों को खुश करने के लिए फैसले कर रही है.
दूसरी ओर, इस अभियान का दबाव है कि सरकार वित्तीय घाटे में कटौती करके नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के चक्कर में न सिर्फ पेट्रोल-डीजल से लेकर उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की तैयारी कर रही है बल्कि खाद्य सुरक्षा विधेयक को लटकाए हुए है.
सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है कि यू.पी.ए सरकार रिकार्ड छह करोड़ टन अनाज भण्डार के बावजूद उसे गरीबों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वित्तीय घाटा बढ़ जाएगा और आवारा पूंजी नाराज हो जायेगी.
इसी तरह कारपोरेट की ओर से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को और हल्का करने का दबाव के कारण वह लटका हुआ है. यही नहीं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुद्दा हो या सभी नागरिकों के लिए पेंशन का सवाल हो या फिर सबके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का मुद्दा हो- सरकार इन वायदों को पूरा करने और नीतिगत फैसला करने से बचने के लिए संसाधनों की कमी का रोना रो रही है.
लेकिन कारपोरेट क्षेत्र और अमीरों को ताजा बजट में भी ५.४० लाख करोड़ रूपये की टैक्स छूट और रियायतें देते हुए उसे संसाधनों की कमी का ख्याल नहीं आता है. क्या यह ‘नीतिगत लकवा’ नहीं है?
('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 मई को प्रकाशित लेख)