आर्थिक सुधारों के
पक्ष में 'टाइम' के तर्क जले पर नमक छिड़कने की तरह हैं
सच यह है कि प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार की आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामियों पर ऐसे कटाक्ष और आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं. ऐसे आरोप लगानेवालों में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर गुलाबी अखबारों तक और स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर देशी-विदेशी थिंक टैंक और फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबीइंग संगठन तक सभी शामिल रहे हैं.
इस तुर्शी को अजीम प्रेमजी और एन. नारायणमूर्ति जैसे देशी उद्योगपतियों के बयानों से लेकर बड़े विदेशी कारपोरेट समूहों की उन धमकियों में भी महसूस किया जा सकता है जो आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार की नाकामी और विदेशी निवेशकों को कथित तौर पर परेशान और तंग करनेवाले नियम-कानूनों से नाराज होकर देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री जबरदस्त दबाव में हैं. खासकर उन्होंने जब से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला है, उनपर यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया है. इस दबाव में उन्होंने पिछले डेढ़ सप्ताह में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने वाले कई बयान दिए हैं. इन बयानों का मकसद एक ओर कारपोरेट जगत में फील गुड का माहौल पैदा करना और दूसरी ओर, सुधारों को लेकर राजनीतिक मूड का अंदाज़ा लगाना था.
यही नहीं, विदेशी निवेशकों और कार्पोरेट्स को खुश करने के लिए क्या सरकार उन्हें भारतीय टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का नाजायज फायदा उठाने और टैक्स से बचने की तिकड़में करने की छूट देने के लिए तैयार है? यह भी कि एक संप्रभु देश के बतौर क्या भारत स्वतंत्र तौर पर अपने आर्थिक फैसले नहीं कर सकता?
लेकिन इसके बावजूद ‘टाइम’ की उलटबांसी यह है कि मानव विकास के मामले में भारत के पिछड़ने का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का रूक जाना है.
जानी-मानी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ ने एशिया अंक की ताजा कवर स्टोरी में
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पिछले तीन साल के कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए
थोड़ा सम्मानजक शब्दों में कहें तो उन्हें ‘उम्मीद से कम सफल’ और बिना लागलपेट के
कहें तो ‘फिसड्डी’ (अंडर-अचीवर) घोषित करके चौतरफा हमलों से घिरे प्रधानमंत्री पर
हमले के लिए विपक्ष को एक और हथियार दे दिया है.
आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने
प्रधानमंत्री की नाकामियों खासकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में उनकी विफलता के
बाबत ‘टाइम’ के आरोपों को हाथों-हाथ लिया है. यही नहीं, भाजपा बड़े गर्व और उत्साह
से यह बताना भी नहीं भूल रही है कि ‘टाइम’ ने कुछ सप्ताहों पहले गुजरात के मुख्यमंत्री
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व क्षमता की तारीफ़ की थी.
भाजपा की खुशी समझी जा सकती है. लेकिन तथ्य यह है कि ‘टाइम’ ने
प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल के बारे में ऐसी कोई
नई बात या रहस्योद्घाटन नहीं किया है जो देश में लोगों को पहले से मालूम न हो. सच यह है कि प्रधानमंत्री और यू.पी.ए सरकार की आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामियों पर ऐसे कटाक्ष और आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं. ऐसे आरोप लगानेवालों में देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर गुलाबी अखबारों तक और स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से लेकर देशी-विदेशी थिंक टैंक और फिक्की-एसोचैम-सी.आई.आई जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबीइंग संगठन तक सभी शामिल रहे हैं.
इस मायने में ‘टाइम’ पत्रिका की ओर से प्रधानमंत्री की रेटिंग और अर्थव्यवस्था
की ‘स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. दोनों
की कसौटियां और पैमाने एक जैसे हैं. प्रधानमंत्री से उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है
कि वे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए उतनी कोशिश नहीं कर रहे हैं जितनी कि
उनसे अपेक्षा और उम्मीदें थीं.
‘टाइम’ को भी लगता है कि प्रधानमंत्री फैसले नहीं
कर पा रहे हैं क्योंकि सत्ता का केन्द्र कहीं और है. वे अपने ही मंत्रियों के आगे
लाचार हैं. पत्रिका के मुताबिक, यू.पी.ए सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों
में घिरी है और वोट के चक्कर में सब्सिडी और सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ाती जा रही
है.
हालाँकि ‘टाइम’ के आरोपों और कटाक्ष में नया कुछ नहीं है लेकिन इससे
यह जरूर पता चलता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यू.पी.ए सरकार से आर्थिक
सुधारों को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगाये बैठी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके
पैरोकारों की उम्मीद खत्म होने लगी है और उनकी हताशा तुर्श होने लगी है. इस तुर्शी को अजीम प्रेमजी और एन. नारायणमूर्ति जैसे देशी उद्योगपतियों के बयानों से लेकर बड़े विदेशी कारपोरेट समूहों की उन धमकियों में भी महसूस किया जा सकता है जो आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार की नाकामी और विदेशी निवेशकों को कथित तौर पर परेशान और तंग करनेवाले नियम-कानूनों से नाराज होकर देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन रिपोर्टों और आलोचनाओं का एक बड़ा मकसद
सरकार और खासकर प्रधानमंत्री पर दबाव बढ़ाना है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले
कई महीनों से बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके पैरोकार प्रधानमंत्री पर दबाव बनाये
हुए हैं कि वे न सिर्फ आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ बड़े फैसले जैसे
खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने की पहल करें बल्कि विदेशी कंपनियों
और निवेशकों पर पीछे से टैक्स (वोडाफोन प्रकरण) और टैक्स देने से बचने पर रोक
लगानेवाले गार जैसे नियमों को वापस लें.
इस दबाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा
सकता है कि अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर और ब्रिटिश वित्त मंत्री जार्ज
ओसबोर्न के अलावा खुद प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने निजी तौर पर पूर्व वित्त
मंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर खुदरा व्यापार में विदेशी
पूंजी को अनुमति देने और वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स लगाने के फैसले को वापस
लेने का दबाव बना रखा है.
निश्चय ही, प्रधानमंत्री को अच्छी तरह से पता है कि बड़ी देशी-विदेशी
पूंजी और कार्पोरेट्स की उनकी सरकार से नाराजगी और हताशा बढ़ती जा रही है. उन्हें
इस नाराजगी के नतीजों का भी अंदाज़ा है. इस अर्थ में ‘टाइम’ की ताजा कवर स्टोरी को
एक तरह से यू.पी.ए सरकार के समाधि लेख की तरह भी देखा जा सकता है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री जबरदस्त दबाव में हैं. खासकर उन्होंने जब से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला है, उनपर यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया है. इस दबाव में उन्होंने पिछले डेढ़ सप्ताह में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने वाले कई बयान दिए हैं. इन बयानों का मकसद एक ओर कारपोरेट जगत में फील गुड का माहौल पैदा करना और दूसरी ओर, सुधारों को लेकर राजनीतिक मूड का अंदाज़ा लगाना था.
हैरानी नहीं होगी अगर अगले कुछ सप्ताहों में यू.पी.ए सरकार
अर्थव्यवस्था को दुरुस्त और इसके लिए देशी-विदेशी निवेशकों का विश्वास बहाल करने
के नाम खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति और वोडाफोन मामले में पीछे से
टैक्स लगाने और गार को ठंडे बस्ते में डालने जैसे फैसले करने की पहल करे.
यही
नहीं, सरकार से आ रहे संकेतों से साफ़ है कि वह डीजल और खाद की कीमतों में वृद्धि
जैसे फैसले भी करने पर विचार कर रही है. इसके अलावा सरकार रिजर्व बैंक पर ब्याज
दरों में कटौती के लिए दबाव बढ़ाने की तैयारी में है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि
प्रधानमंत्री के बयानों और सरकार से आ रहे संकेतों ने बाजार में फिर से नई उम्मीदें
जगा दी हैं. पिछले कुछ दिनों में शेयर बाजार से लेकर रूपये की गिरती कीमत में
सुधार आया है.
लेकिन असल सवाल यह है कि बाजार के चेहरे पर आई यह नई चमक किस कीमत पर
आ रही है? क्या बाजार को खुश करने के लिए सरकार उन करोड़ों छोटे-मंझोले दुकानदारों
की आजीविका दांव पर नहीं लगाने जा रही है जो खुदरा व्यापार में वाल मार्ट, टेस्को
और मेट्रो जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नहीं टिक पायेंगे? यही नहीं, विदेशी निवेशकों और कार्पोरेट्स को खुश करने के लिए क्या सरकार उन्हें भारतीय टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का नाजायज फायदा उठाने और टैक्स से बचने की तिकड़में करने की छूट देने के लिए तैयार है? यह भी कि एक संप्रभु देश के बतौर क्या भारत स्वतंत्र तौर पर अपने आर्थिक फैसले नहीं कर सकता?
मजे की बात यह है कि जो ब्रिटेन खुद अपने यहाँ गार लागू कर रहा है और
इससे पहले पीछे से टैक्स लगाने का फैसला कर चुका है, वह भारत पर ऐसा न करने के लिए
दबाव डाल रहा है. यह दोहरापन कोई नई बात नहीं है. आश्चर्य नहीं कि ‘टाइम’ की
रिपोर्ट भी इस दोहरेपन की शिकार है. उसे प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी नाकामी यह दिखती
है कि वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के हितों के अनुकूल नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को
तेजी से आगे बढ़ाने में नाकाम रहे हैं.
लेकिन उसे यह नहीं दिखता कि प्रधानमंत्री और
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी नाकामी यह है कि दो दशकों के आर्थिक
सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबी, बेकारी, बीमारी, भूखमरी
और वंचना में कोई खास कमी नहीं आई है.
मजे की बात यह है कि खुद ‘टाइम’ की कवर स्टोरी में स्वीकार किया गया
है कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में १९९४ में भारत १३५ वें स्थान पर था
और २०११ में वह सिर्फ एक पायदान ऊपर १३४ वें स्थान पर पहुँच पाया है. क्या इन डेढ़
दशकों में औसतन ७ फीसदी से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के मामले में
भारत की चींटी चाल प्रधानमंत्री और उससे अधिक नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की
नाकामी नहीं है? लेकिन इसके बावजूद ‘टाइम’ की उलटबांसी यह है कि मानव विकास के मामले में भारत के पिछड़ने का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का रूक जाना है.
यही नहीं, वह आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की इस तोतारटंत को भी
दोहराता है कि गरीबी और बेकारी दूर करने के लिए आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार को तेज
करना जरूरी है और इसके लिए आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को बढ़ाना जरूरी है. कहने की
जरूरत नहीं है कि यह तर्क जले पर नमक छिड़कने जैसा है.
लेकिन नव उदारवादी सुधारों
की मुखर समर्थक ‘टाइम’ से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? कहने की जरूरत नहीं
कि इसी सोच के कारण आर्थिक सुधारों की साख आम आदमी के बीच खत्म होती जा रही है और
वे अंधी गली के आखिरी छोर पर पहुँच गए हैं. प्रधानमंत्री चाहकर भी उसे आगे नहीं ले
जा सकते हैं.
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 10 जुलाई के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)
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