मानवाधिकार हनन के बढते मामलों में मीडिया और
चैनलों की चुप्पी का राज क्या है?
पहली किस्त
यही नहीं, मानवाधिकार संगठनों के अलावा बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से में इस फैसले पर खासी बेचैनी दिखी. कोई ३०० से ज्यादा बुद्धिजीवियों/लेखकों/पत्रकारों/संस्कृतिकर्मियों ने इस फैसले पर हैरानी, चिंता और नाराजगी जाहिर करते जारी करते हुए बयान जारी किया लेकिन उसे भी किसी अखबार या चैनल ने नोटिस लेने लायक नहीं समझा.
उन्हें क्यों नहीं लगता है कि इस मामले की गहराई से जांच-पड़ताल करने और मानवाधिकार संगठनों के आरोपों की छानबीन करके सच्चाई को सामने लाने के लिहाज से यह एक बड़ी ‘स्टोरी’ है? उन्हें सीमा आज़ाद का मामला भी विनायक सेन के मामले की तरह क्यों नहीं दिखता है जिसमें उन्होंने कुछ हद तक सक्रिय दिलचस्पी ली थी? उन्हें इस मामले में भी जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे मामलों की तरह ‘न्याय’ की हत्या क्यों नहीं दिखती है?
लेकिन एक मायने में यह पिछले मामलों से अलग और चिंतित करनेवाला भी है. इस बार पुलिस की कार्रवाई पर स्थानीय अदालत ने भी न सिर्फ मोहर लगा दी है बल्कि यू.ए.पी.ए कानून के तहत आजीवन कारावास की सजा सुना दी है. इससे पहले के मामलों में आमतौर पर अदालतों में फर्जी पुलिसिया कार्रवाइयां ठहर नहीं पाई हैं. लेकिन यह एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति है जब अदालतें भी सच देखने से इनकार कर रही हैं.
मानवाधिकार संगठनों को लगता है कि यह पूरा मामला सीमा आज़ाद और विश्वविजय कमल जैसे मानवाधिकार और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पुलिसिया जुल्मों और जनविरोधी विकास योजनाओं के खिलाफ बोलने और लड़ने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं-नेताओं को डराने और चुप कराने के लिए गढा गया है.
('कथादेश' पत्रिका के जुलाई'12 अंक में प्रकाशित स्तम्भ...यह पहली किस्त है..कल दूसरी किस्त लेकिन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा)
पहली किस्त
"पहले वे यहूदियों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.
फिर वे मानवाधिकारवादियों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं मानवाधिकारवादी नहीं था.
फिर वे ट्रेड यूनियनवालों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन वाला नहीं था.
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.
फिर वे मेरे लिए आए
और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था.”
-
मार्टिन
नीमोलर (हिटलर के दौर का जर्मन कवि)
इस चर्चित कविता को आप सबने कई बार पढ़ा-सुना होगा. कई कारणों से आज के
भारत में यह छोटी सी कविता इतनी महत्वपूर्ण और जरूरी बन गई है कि उसे बार-बार पढ़ा
और सुनाया जाना चाहिए. लेकिन लगता है कि समाचार माध्यमों खासकर न्यूज चैनलों के
ज्यादातर संपादकों/पत्रकारों ने इसे नहीं पढ़ा/सुना है या भूल गए हैं.
अगर ऐसा नहीं
होता तो वे देश में मानवाधिकार हनन के बढते मामलों पर ऐसे चुप नहीं होते. यह भी कि
मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय कमल
को आजीवन कारावास की सजा पर खामोश नहीं रहते. सबसे बढ़कर इस फैसले के खिलाफ रोष
जाहिर करने के लिए राजधानी दिल्ली में मानवाधिकार संगठनों और जाने-माने
बुद्धिजीवियों की ओर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ तीन संवाददाता नहीं
पहुँचते.
यही नहीं, जहाँ तक मेरी जानकारी है कि उस प्रेस कांफ्रेंस की रिपोर्ट
‘द हिंदू’ को छोडकर किसी अखबार में नहीं छपी और न ही किसी चैनल पर चली. छिछले से
छिछले विषयों और मुद्दों पर घंटों महाबहस और चर्चा करनेवाले चैनलों पर इस मुद्दे
का चलते-चलते भी कहीं जिक्र नहीं हुआ. गोया यह कोई मुद्दा ही नहीं हो. यह और बात
है कि इस मुद्दे पर न्यू और सोशल मीडिया (ब्लॉग और फेसबुक आदि) पर खूब चर्चा हो
रही थी और लोगों की प्रतिक्रियाएं आ रही थीं. यही नहीं, मानवाधिकार संगठनों के अलावा बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से में इस फैसले पर खासी बेचैनी दिखी. कोई ३०० से ज्यादा बुद्धिजीवियों/लेखकों/पत्रकारों/संस्कृतिकर्मियों ने इस फैसले पर हैरानी, चिंता और नाराजगी जाहिर करते जारी करते हुए बयान जारी किया लेकिन उसे भी किसी अखबार या चैनल ने नोटिस लेने लायक नहीं समझा.
कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदी के चैनलों और अधिकांश अखबारों के लिए
हिंदी के लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी और उनकी राय कोई मायने नहीं रखती है. वे
किसी भी मसले पर बोलें या राय रखें लेकिन चैनल और अखबार उसे टिकर पर चलाने या
कोने-अंतरे में छापने लायक भी नहीं समझते हैं. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वे
अपनी ही भाषा के बुद्धिजीवियों/लेखकों की कितनी कद्र करते हैं?
सच पूछिए तो समाचार
माध्यमों खासकर हिंदी के समाचार माध्यम हिंदी के बुद्धिजीवियों/लेखकों से इतनी
दूरी बरतते हैं कि उन्हें देखकर कहना मुश्किल है कि हिंदी क्षेत्र में
बुद्धिजीवी/लेखक भी हैं. किसी बड़े और चर्चित लेखक की मौत के बाद ही पता चलता है कि
हिंदी में ऐसा कोई लेखक भी था.
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि लेखकों/संस्कृतिकर्मियों/बुद्धिजीवियों के
हस्ताक्षरित बयान को चैनलों/अखबारों ने नोटिस लेने लायक नहीं माना. लेकिन असल सवाल
यह नहीं है. मुद्दा यह है कि मुख्यधारा के अखबारों और चैनलों के लिए दो नौजवान मानवाधिकार
कार्यकर्त्ताओं को ‘माओवादी’ बताकर फंसाने और फिर उन्हें आजीवन कारावास की सजा एक
बड़ी खबर क्यों नहीं लगती है? उन्हें क्यों नहीं लगता है कि इस मामले की गहराई से जांच-पड़ताल करने और मानवाधिकार संगठनों के आरोपों की छानबीन करके सच्चाई को सामने लाने के लिहाज से यह एक बड़ी ‘स्टोरी’ है? उन्हें सीमा आज़ाद का मामला भी विनायक सेन के मामले की तरह क्यों नहीं दिखता है जिसमें उन्होंने कुछ हद तक सक्रिय दिलचस्पी ली थी? उन्हें इस मामले में भी जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे मामलों की तरह ‘न्याय’ की हत्या क्यों नहीं दिखती है?
कहने की जरूरत नहीं है कि यह अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसे लेकर
मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में एक ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ दिखाई पड़ रही है. सीमा
आज़ाद से पहले उत्तराखंड में पत्रकार प्रशांत राही को ‘माओवादी’ बताकर कई साल जेल
में बंद रखा गया लेकिन चैनलों/अखबारों ने शायद ही इस मामले की कभी सुध ली हो.
वही
नहीं, ऐसे दर्जनों स्थानीय पत्रकार/लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी हैं जिन्हें
पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘माओवादी साहित्य’ रखने के आरोप में
या माओवादियों से संपर्क रखने या दूसरे फर्जी मामलों में गिरफ्तार करके लंबे समय
तक जेल में रखा गया है.
आमतौर पर ९० फीसदी मामलों में उन
पत्रकारों/लेखकों/बुद्धिजीवियों का गुनाह यह रहा है कि उन्होंने अपने इलाकों में
माओवाद से लड़ने के नामपर पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा निर्दोषों को सताए जाने और
फर्जी मुठभेड़ों का पर्दाफाश करने और सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार हनन के मामलों
का खुलासा और विरोध किया है.
इस कारण वे स्थानीय पुलिस की आँख में चुभते रहे हैं. पुलिस खुन्नस में
उन्हें सबक सिखाने के लिए फर्जी मामलों में फंसाती रही है. उनमें से कई को अपने
इलाकों में विकास के नामपर अंधाधुंध विस्थापन और जल-जंगल-जमीन और खनिजों की लूट के
विरोध की सजा के तौर पर फर्जी मामलों में फंसाया गया है. सीमा आज़ाद का मामला इस
प्रवृत्ति का ही एक और प्रमाण है. लेकिन एक मायने में यह पिछले मामलों से अलग और चिंतित करनेवाला भी है. इस बार पुलिस की कार्रवाई पर स्थानीय अदालत ने भी न सिर्फ मोहर लगा दी है बल्कि यू.ए.पी.ए कानून के तहत आजीवन कारावास की सजा सुना दी है. इससे पहले के मामलों में आमतौर पर अदालतों में फर्जी पुलिसिया कार्रवाइयां ठहर नहीं पाई हैं. लेकिन यह एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति है जब अदालतें भी सच देखने से इनकार कर रही हैं.
उल्लेखनीय है कि पत्रकार और ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक,
सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता (पी.यू.सी.एल की सचिव) सीमा आज़ाद और
उनके पति और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता विश्वविजय कमल को
इलाहाबाद की निचली अदालत ने बीते ८ जून को प्रतिबंधित सी.पी.आई (माओवादी) का सदस्य
होने, अपने पास माओवादी साहित्य रखने, राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे आरोपों में
दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास और २० हजार रूपये के जुर्माने की सजा सुनाई है. उन्हें
आई.पी.सी की धारा १२० बी, १२१, १२१ ए के अलावा आतंकवाद विरोधी क़ानून यू.ए.पी.ए के
तहत सजा सुनाई गई है. दोनों पिछले ढाई सालों से अधिक समय से जेल में बंद हैं.
मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि दोनों को ६ फरवरी’२०१० को दिल्ली
में विश्व पुस्तक मेले में हिस्सा लेकर इलाहाबाद लौटने पर रेलवे स्टेशन से
गिरफ्तार किया गया. पी.यू.सी.एल के मुताबिक, दोनों को केन्द्र-राज्य की सरकारों की
जनविरोधी नीतियों, पुलिसिया जुल्मों और मायावती सरकार की गंगा एक्सप्रेस-वे जैसी
योजनाओं के विरोध के कारण साजिशन फर्जी मामलों में फंसाया गया है. मानवाधिकार संगठनों को लगता है कि यह पूरा मामला सीमा आज़ाद और विश्वविजय कमल जैसे मानवाधिकार और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पुलिसिया जुल्मों और जनविरोधी विकास योजनाओं के खिलाफ बोलने और लड़ने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं-नेताओं को डराने और चुप कराने के लिए गढा गया है.
निश्चय ही, सीमा आज़ाद का मामला अकेला ऐसा मामला नहीं है. मानवाधिकार
हनन के मामलों को उठानेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ता पहले भी सरकार और पुलिस के
निशाने पर रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या तेजी से बढ़ी है. ऐसे
अनगिनत मामले हैं जिनमें मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को केन्द्र-राज्य
सरकारों की शह पर पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने उत्पीडित किया है, उन्हें फर्जी
मामलों में फंसाकर जेल में बंद रखा है, उनपर थर्ड डिग्री पुलिसिया जुल्म-यातना का
इस्तेमाल किया है और कुछेक मामलों में तो उनकी हत्या तक करवा दी है.
इसी कारण
बहुतों को लगता है कि अघोषित इमरजेंसी से जैसे हालात बनते जा हैं जिसमें अपने हक
और बुनियादी बदलाव के लिए लड़नेवालों के साथ-साथ उनके प्रति सहानुभूति रखनेवाले
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को सत्तातंत्र
द्वारा निशाना बनाया जा रहा है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों की यह
शत्रुता उन इलाकों में सबसे ज्यादा दिखी है जहाँ भारतीय राज्य को क्रांतिकारी
वामपंथी आन्दोलनों (नक्सली/माओवादी धारा) या अलगाववादी आन्दोलनों (कश्मीर/उत्तर
पूर्व/पंजाब) या नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास योजनाओं के खिलाफ चल
रहे जनतांत्रिक आन्दोलनों (जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट विरोधी आंदोलन)
से कड़ी चुनौती मिली या मिल रही है और राज्य द्वारा उसे सैन्य ताकत से कुचलने की
कोशिश के कारण युद्ध से हालात बन गए या बने हुए हैं.
3 टिप्पणियां:
प्रशान्त राही,हेम पाण्डे और सीमा आजाद माओवादी कार्यकर्ता हैं।पत्रकारिता और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने से ज्यादा बुनियादी यकीन उन्हें अपने किस्म के माओवाद में होगा।सिर्फ इन्हीं उसूलों में विश्वास करने पर इतनी लम्बी सजा दी जा सकती है तो उन कानूनों का विरोध होना चाहिए।इन तीनों के समर्थक यदि उनके माओवादी होने का खण्डन करते हैं तो उनकी यह 'रणनीति' बुजदिली है। संविधान को संडास का कागज मानना उनका हक है । विनायक सेन NGO कर्मी थे और हैं।मानवाधिकार कार्यकर्ता भी थे।उन्हें अपने काम के लिए विदेशों से भी अनुदान मिलता है।विदेशों में भी उनकी सहानुभूति में प्रदर्शन हुए,उन्हें विदेशी पुरस्कार मिले।गनीमत है कि सीमा अजाद,हेम पान्डे और प्रशान्त NGO कर्मी नहीं हैं।
जनसत्ता का जिक्र भी हो सकता था जिसने लगातार बड़ी बाद खबरे दी .
Armed Forces (Special Powers) Act ke virodh mein Manipur ki Irom Sharmila Chanu 10 saal se jyada bhukh hartal par hain. Ganga bachao abhiyan ke tehat ek sadhu Swami Nigamanand ne 73 dinon tak bhukh hartal kar apni jaan tak de di. lekin unki coverage waisi nahin huyee jaisi Baba Ramdev ke ek din ke anshan ke dauran ho jaati hai.
kuchh journalists bhi isi idea ko manate hain : bazar mein saman becho aur tamasha dekho!
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