शुक्रवार, अगस्त 31, 2012

असम की हिंसा की न्यूज मीडिया में अनदेखी के नतीजे

असम की हिंसा इसलिए भी फैली कि  न्यूज मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज नहीं की और राष्ट्रीय एजेंडा नहीं बनाया    
दूसरी किस्त  
नोम चोमस्की जैसे बहुतेरे मीडिया विश्लेषक इसी कारण अमेरिकी कारपोरेट मीडिया पर यह आरोप भी लगाते रहे हैं कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के साथ मिलकर जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और उसके व्यापक राजनीतिक हितों के मुताबिक ‘सहमति का निर्माण’ करने में मदद करता रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह काफी हद तक सही है कि राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और यहाँ तक कि पूरे भारतीय न्यूज मीडिया ने भी असम और म्यामार की घटनाओं के बारे में बारीकी, विस्तार और गहराई से रिपोर्टिंग नहीं की.
असम की हिंसा की शुरुआत में बहुत कम कवरेज हुई, उसकी फील्ड रिपोर्टिंग में रूचि नहीं ली गई, हिंसा के कारणों की छानबीन और उसकी तह में जाने की कोशिश नहीं हुई और जब मामला बहुत आगे बढ़ गया तो चैनलों/अखबारों ने अपने रिपोर्टर भेजे लेकिन वे भी गुवाहाटी और कोकराझार के कुछ इलाकों तक सीमित रहे.
सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि फील्ड और शोधपूर्ण रिपोर्टिंग और चर्चा-बहस की कमी को सनसनीखेज रिपोर्टिंग और उत्तेजक चर्चाओं/बहसों से भरने की कोशिश हुई. कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों पर असम की सीमित, सतही और सनसनीखेज कवरेज के बहुत घातक नतीजे हुए.

पहला, असम में हिंसा की आग फैलती रही और राज्य और केन्द्र सरकार सोती रहीं. अगर न्यूज मीडिया ने शुरू से ही इसे व्यापक कवरेज दिया होता तो राज्य-केन्द्र सरकार के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठना संभव नहीं होता.

याद कीजिए, मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की वह स्थापना जिसके मुताबिक लोकतान्त्रिक समाजों में एक सतर्क और सजग न्यूज मीडिया किसी आपदा/संकट के समय उस मुद्दे को जोरशोर से उठाकर सरकार और सिविल सोसायटी को उसपर तत्काल उपयुक्त कार्रवाई के लिए बाध्य कर देता है और बड़ी त्रासदी को टालने में मदद करता है. साफ़ है कि अगर न्यूज मीडिया और चैनलों ने असम की हिंसा को शुरू में ही उठाया होता तो उस हिंसा और आग को रोकने में मदद मिल सकती थी.
दूसरा, असम की सीमित और सतही कवरेज के कारण समाजविरोधी और साम्प्रदायिक तत्वों को अफवाहें फैलाने का मौका मिला. आखिर अफवाहें वहीं फैलती हैं जहाँ वास्तविक जानकारी उपलब्ध न हो या बहुत सीमित मात्रा में हो. क्या यह कहना सही नहीं होगा कि न्यूज मीडिया की सीमित और सतही कवरेज और असम की सच्चाई को तथ्यों/पृष्ठभूमि के साथ पेश करने में उसकी नाकामी ने अफवाहों को मौका दिया.

तीसरे, अफवाहों को कुछ हद स्वीकार्यता वहीं मिलती है जहाँ सूचना के दूसरे माध्यमों की साख और विश्वसनीयता कमजोर हो. सवाल यह है कि असम के मामले में अफवाहों को मुस्लिम समाज के बीच जो स्वीकार्यता मिली और जिसके कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, क्या उसके पीछे एक बड़ा कारण मुस्लिम समाज में भारतीय न्यूज मीडिया की घटती साख और विश्वसनीयता तो नहीं है?

चौथे, न्यूज मीडिया और चैनलों की एक बड़ी नाकामी यह भी है कि वह इन अफवाहों और झूठी सूचनाओं को रोकने में समय रहते पहल नहीं कर सका. असल में, ये अफवाहें वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और मोबाइल के जरिये झूठी खबरों और फोटोग्राफ के रूप में लोगों तक पहुँच रही थीं, सर्कुलेट हो रही थी और लोग उत्तेजित हो रहे थे लेकिन न्यूज मीडिया समय रहते इनकी पोल खोलने और पर्दाफाश करने में नाकाम रहा.
हैरानी की बात यह है कि सभी प्रमुख चैनलों/अखबारों/न्यूज एजेंसियों के संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय हैं, उनके अखबार/चैनलों का सोशल मीडिया साइटों पर पेज है और वे जब तब सोशल मीडिया पर चल रही बहसों/गतिविधियों को खबर का विषय भी बनाते हैं. लेकिन क्या कारण है कि वे समय रहते इन झूठी रिपोर्टों और फर्जी फोटोग्राफ की पोल नहीं खोल पाए?                  
क्या कारण है कि खुद न्यूज मीडिया ने इस घृणा अभियान की बारीकी से जांच-पड़ताल और छानबीन नहीं की? इसी तरह बंगलूर सहित दक्षिण भारत के कई शहरों से उत्तर पूर्व के लोगों का पलायन की खबर भी हैरान करती हुई आई. आखिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक उत्तर पूर्व के हजारों लोग बंगलूर जैसे बड़े महानगरों से पलायन करने लगे और सरकार के साथ-साथ मीडिया भी सोता हुआ पाया गया?

जाहिर है कि इसके पीछे भी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़े महानगरों में पढ़ और काम कर रहे उत्तर पूर्व के लाखों लोगों के बीच चैनलों और न्यूज मीडिया की पहुँच नहीं के बराबर है. उनसे उसका संवाद लगभग नहीं है. न्यूज मीडिया के लिए देश के अधिकांश शहरों में काम कर रहे आप्रवासी गुमनाम लोग हैं और अगर वे उत्तर पूर्व के हैं तो उन्हें विदेशी मान लिया जाता है.

यही नहीं, इस संवादहीनता और गैर-जानकारी का एक और कारण न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की बहुत कम मौजूदगी भी है. हिंदी न्यूज चैनलों/अखबारों में तो उत्तर पूर्व का शायद ही कोई मिले. यही हाल मुस्लिम समुदाय का भी है जिसकी न्यूज मीडिया के अंदर मौजूदगी कम है.
नतीजा यह है कि चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम में जहाँ खबरों का चयन और प्रस्तुति का निर्णय होता है, उत्तर पूर्व और मुस्लिम समाज के सरोकारों, चिंताओं और मुद्दों को अनदेखा किया जाता है. यही नहीं, इन समुदायों से जुडी हुई खबरों में भी उनका परिप्रेक्ष्य नहीं आ पाता है. सच पूछिए तो यह भारतीय न्यूज मीडिया का ‘लोकतान्त्रिक घाटा’ है जो उसके न्यूजरूम और गेटकीपरों में भारतीय समाज के कई वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम या न के बराबर है.
भारतीय न्यूज मीडिया के इस ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ का साफ़ असर उसकी कवरेज और प्रस्तुति के टोन में भी दिखाई पड़ता है. इसी का दूसरा पक्ष है कि भारतीय न्यूज मीडिया देश के सभी हिस्सों में अपने रिपोर्टर और न्यूज ब्यूरो नहीं रखता है. उत्तर पूर्व इसका सबसे बदतर उदाहरण है जहाँ अधिकांश राष्ट्रीय कहे जानेवाले चैनलों/अखबारों के संवाददाता नहीं हैं.

कुछ ने रिपोर्टर रखे भी हैं तो आठ राज्यों को कवर करने के लिए एक संवाददाता गुवाहाटी में रख दिया है जबकि उत्तर पूर्व के समाज-संस्कृति-भूगोल की मामूली समझ रखनेवाले जानते हैं कि उत्तर पूर्व के सभी आठ राज्यों को एक रिपोर्टर कवर नहीं कर सकता और न ही वह इस विविधतापूर्ण क्षेत्र की रिपोर्टिंग के साथ न्याय कर सकता है.

हैरानी की बात नहीं है कि उत्तर पूर्व के राज्यों की खबरें हमारे राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में बहुत कम दिखती हैं या जो दिखती भी हैं, उनमें गहराई नहीं होती है और ज्यादातर मामलों में उत्तर पूर्व के बारे में बने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप को ही मजबूत करती हैं.
असम की ताजा हिंसा भी इस प्रवृत्ति की अपवाद नहीं है. इस हिंसा की जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.
इक्का-दुक्का अपवादों और मौकों को छोड़ दिया जाए तो सच यह है कि असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता है. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया का ‘तीसरा नेत्र’ खुल जाता है और राष्ट्रवाद मचलने लगता है.

लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर भारत के लोग किस तरह से रह रहे हैं, वहां क्या हो और चल रहा है, उनकी समस्याएं क्या हैं, वे किस बात पर नाराज हैं और उनके सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोडिये, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओ.बी नहीं है.
लेकिन क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?
 
जारी.......
(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित)

गुरुवार, अगस्त 30, 2012

क्या मीडिया हमें अँधेरे में रख रहा है?

लोग न्यूज चैनलों और मीडिया से नाराज क्यों हैं?   

पहली किस्त

उम्मीद है कि आप सबने यह खबर पढ़ी होगी. असम और म्यामार में मुसलमानों के साथ ज्यादती के विरोध में मुंबई के आज़ाद मैदान में आयोजित विरोध सभा में हिस्सा लेने आए युवाओं का एक हिस्सा हिंसा पर उतर आया. मुस्लिम युवाओं के उस समूह ने उसके बाद पुलिस पर हमला किया, उसकी गाड़ियों में आग लगा दी, बसों में तोड़फोड़ की और आग लगा दी और फिर वहां खड़ी मीडिया पर हमले किये खासकर तीन न्यूज चैनलों की ओ.बी वैन को आग लगा दी.
मीडियाकर्मियों के कैमरे तोड़ दिए, पुलिसकर्मियों की पिटाई की और आमलोगों के साथ भी मारपीट की. पुलिस को भीड़ को काबू में करने के लिए लाठीचार्ज करना पड़ा और हवा में गोलियाँ चलानी पड़ी. उस हिंसा में दो लोग मारे गए और दर्जन भर से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हो गए.
इसके बाद इससे मिलती-जुलती हिंसा और हुडदंग की घटनाएँ लखनऊ और इलाहाबाद में भी हुई जहाँ नमाज पढकर मस्जिद से निकल रहे मुस्लिम युवाओं की उग्र भीड़ ने डंडों और सरियों से लैस होकर आमलोगों को पीटा, पत्रकारों-फोटोग्राफरों पर हमला किया, उनके कैमरे तोड़ दिए, बाजार में तोड़फोड़ की और आसपास के पार्क में बुद्ध-महावीर की मूर्ति को तोड़ने की कोशिश की.

जाहिर है कि इन घटनाओं ने सबको चौंका दिया. पुलिस हैरान है. मीडिया हैरान है. इसलिए भी कि इन सभी घटनाओं में हिंसक और अराजक भीड़ के निशाने पर मुख्यतः पुलिस और मीडिया ही थी.

यही कारण है कि पुलिस और मीडिया के साथ राजनेता, बुद्धिजीवी और आमलोग भी हैरान हैं कि आखिर असम और म्यामार में मुस्लिम समुदाय के साथ ज्यादती की कथित घटनाओं पर ऐसी हिंसक प्रतिक्रिया मुंबई या लखनऊ और इलाहाबाद में क्यों हुई? क्या यह पूर्वनियोजित हिंसा की घटनाएँ थीं?
इन और इन जैसे कई सवालों का अभी तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है. लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि हिंसा और उसके स्केल का अनुमान पुलिस भी नहीं लगा सकी और वह इससे निपटने में नाकाम रही.
लेकिन मुंबई की हिंसा के मामले में जहाँ इसका पूर्वानुमान लगा पाने और हिंसा को रोकने में पुलिस की भूमिका की आलोचना हो रही है, वहीं हिंसक भीड़ से निपटने में संयम और उसे जल्दी ही नियंत्रित कर लेने के लिए मुंबई पुलिस की प्रशंसा भी हो रही है.
लेकिन सवाल न्यूज चैनलों को लेकर भी उठ रहे हैं. उनके दर्शकों को जरूर पूछना चाहिए कि मुंबई या लखनऊ और इलाहाबाद की हिंसा क्यों हुई? इसके पीछे क्या कारण थे? हिंसक भीड़ पुलिस के साथ मीडिया खासकर चैनलों से क्यों नाराज थी? मीडिया को भी मुस्लिम युवाओं के इस गुस्से का इल्म क्यों नहीं हो पाया?

आखिर क्या कारण है कि न्यूज चैनल मुंबई, लखनऊ और इलाहाबाद में मुस्लिम युवाओं के गुस्से और उससे निकली हिंसा को भांप नहीं पाए जबकि न्यूज चैनलों और अखबारों की इन सभी शहरों में पर्याप्त मौजूदगी (रिपोर्टरों/संपादकों और ओ.बी/स्टूडियो सहित) है?

क्या यह चैनलों/मीडिया और मुस्लिम समाज के बीच बढ़ती दूरी और उसके कारण बढते अविश्वास का नतीजा नहीं है? क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि न्यूज चैनल और मीडिया मुस्लिम समुदाय से कट से गए हैं और उनका मुस्लिम समाज खासकर युवाओं से संवाद कमजोर हुआ है? क्या यह संवादहीनता न्यूज चैनलों/मीडिया में मुस्लिम समाज के प्रति बढते पूर्वाग्रह, स्टीरियोटाइप और खुद मीडिया में मुस्लिम समाज की कम मौजूदगी के कारण नहीं पैदा हुई और बढ़ी है?
आखिर मुंबई के हिंसक युवाओं की चैनलों/मीडिया से शिकायत क्या थी? रिपोर्टों के मुताबिक, हिंसक मुस्लिम युवाओं की मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से यह शिकायत थी कि वे असम और म्यामार में मुस्लिम समुदाय पर हो रहे जुल्म और अत्याचार की रिपोर्टिंग नहीं कर रहे हैं, वे सच्चाई को सामने लाने के बजाय उसे दबा रहे हैं और खासकर चैनलों और न्यूज मीडिया ने अमेरिका में गुरूद्वारे में सिख समुदाय पर हुई हिंसा की जितनी व्यापक रिपोर्टिंग की और उसे मुद्दा बनाया, उसकी तुलना में असम और म्यामार में मुस्लिमों विरोधी हिंसा की बहुत कम कवरेज की.
आज़ाद मैदान में हुए भाषणों में भी ये मुद्दे उठे और मुस्लिम नेताओं की शिकायत थी कि न्यूज चैनलों/मीडिया में मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है और उनके सवालों और मुद्दों को जानबूझकर अनदेखा किया जाता है.

इसके अलावा मुस्लिम समुदाय की यह शिकायत लंबे समय से चली आ रही है कि चैनल/मीडिया उनकी नकारात्मक छवि पेश करते हैं और ‘आतंकवाद से युद्ध’ के नामपर निर्दोष मुस्लिम युवाओं की भी ऐसी छवि बना दी है जैसे वे सभी आतंकवादी हों. इसके कारण उन्हें रोजमर्रा के जीवन में भेदभाव और अपमान झेलना पड़ता है. (इस मुद्दे पर विस्तार से पढ़ने के लिए देखें ‘कथादेश’ के दिसंबर’11 अंक में इलेट्रानिक मीडिया स्तम्भ और इसी ब्लॉग पर दिसंबर'11 के पोस्ट)

यह सही है कि चैनलों/मीडिया या पुलिस से कोई भी नाराजगी या शिकायत मुंबई या लखनऊ की आपराधिक हिंसा और गुंडागर्दी को जायज नहीं ठहरा सकती है. लेकिन यह कहते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चैनलों/मीडिया को लेकर मुस्लिम समाज की कई शिकायतों में दम है. इनमें से कई शिकायतें पुरानी हैं.
इन शिकायतों को अनदेखा करने से न्यूज चैनलों और मीडिया की अपनी साख और विश्वसनीयता दांव पर लग गई है. न्यूज चैनलों और मीडिया की साख इसलिए भी दांव पर है क्योंकि उसके दर्शकों और पाठकों की उससे सबसे बड़ा अपेक्षा यह होती है कि वे उन्हें देश-समाज में चल रही हलचल और खदबदाहट से अवगत कराएँगे.
लेकिन मुंबई की हिंसा के मामले में मुस्लिम समाज के एक छोटे हिस्से में ही चल रही खदबदाहट को भांपने और उसके बारे में अपने दर्शकों को सूचित करने के मामले में चैनलों की विफलता साफ़ दिखाई दे रही है. मुस्लिम युवा क्यों नाराज हैं? उसका एक बहुत छोटा हिस्सा ही सही लेकिन वह हिस्सा हिंसा पर क्यों उतारू हो रहा है और इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी समूहों से जुड़ रहा है?

क्या यह जानना हम दर्शकों/पाठकों के लिए जरूरी नहीं है? क्या इस बारे में पर्याप्त जानकारी के मौजूदा विस्फोटक स्थिति में कोई बदलाव संभव है? क्या इस मुद्दे पर कोई गहरी, विवेकपूर्ण और संवेदनशील बहस और चर्चा तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट के बिना संभव है?

इससे कुछ वैसी ही स्थिति बन रही है कि जब अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकवादी हमला हुआ तो सरकार, पुलिस, ख़ुफ़िया एजेंसियों से लेकर मीडिया तक सब हैरान थे कि यह कैसे और क्यों हुआ?
उस दौरान सबसे अधिक पूछा जाने वाला सवाल यह था कि आखिर उन्हें (आतंकवादियों को) अमेरिका से क्या शिकायत या चिढ़ है? वे अमेरिका से क्यों नाराज हैं? यह भी कि यह अफगानिस्तान कहाँ है और उनकी समस्या क्या है?
कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी समाज और उसके नागरिक ऐसे किसी बड़े आतंकवादी हमले के लिए तैयार नहीं थे. इसकी बड़ी वजह यह थी कि अमेरिकी मीडिया ने उन्हें अँधेरे में रखा था. अमेरिकी मीडिया ने अमेरिकी नागरिकों को इस बारे में पर्याप्त रूप से सूचित और शिक्षित नहीं किया था कि मध्य पूर्व के मुस्लिम समाज में अमेरिकी नीतियों को लेकर कितनी नाराजगी है?

वह नाराजगी मुस्लिम युवाओं खासकर पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स के एक हिस्से को किस तरह से आतंकवाद और हिंसा की ओर धकेल रही है, इसे लेकर अमेरिकी मीडिया ने लोगों को सूचित और शिक्षित नहीं किया था?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अगर इन मुद्दों पर अमेरिकी मीडिया ने अपने पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं को सूचित और शिक्षित किया होता तो संभव है कि देश में एक ऐसा जागरूक जनमत तैयार होता जो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान को उन नीतियों पर पुनर्विचार करने और मुस्लिम समाज के साथ संवाद शुरू करने को बाध्य कर सकता था जिनके कारण टकराव यहाँ तक पहुँच गया.
यह सही है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने अमेरिकी जनता को अँधेरे में रखा लेकिन उसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि इसमें अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान का सबसे बड़ा मददगार अमेरिकी न्यूज मीडिया ही था.
जारी...

(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित) 

सोमवार, अगस्त 27, 2012

सोशल मीडिया पर निशाना : बदरंग चेहरों का गुस्सा आईने पर

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे ऊपर है लेकिन साम्प्रदायिक घृणा अभियान को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है

असम में हिंसा और उसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक-कट्टरपंथी संगठनों द्वारा शुरू किये गए साम्प्रदायिक घृणा और विद्वेष भरे अभियान को रोकने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने खिसियाहट में न्यू मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गुस्सा उतारना शुरू कर दिया है. उसने इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को आनन-फानन में ३०० से ज्यादा साइट्स और सोशल मीडिया वेब पेज को ब्लाक करने का निर्देश दिया जिसमें उसके मुताबिक, सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाली सामग्री मौजूद थी.
लेकिन मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सरकार की ओर से ब्लाक की गई सूची में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा ऐसे ब्लागर भी हैं जो साम्प्रदायिक घृणा अभियान चलानेवालों की पोल खोलने में लगे हुए थे. इससे यह सन्देश गया कि सरकार सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रोपेगंडा को रोकने के नाम पर अपने विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश कर रही है.
साफ़ है कि सरकार ने जल्दबाजी में जरूरी होमवर्क नहीं किया और इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर वह मजाक का विषय बन गई है और दूसरी ओर, सोशल मीडिया और इंटरनेट पर उसे यूजर्स के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी समाज में सांप्रदायिक घृणा फैलाने और लोगों को भड़काने का लाइसेंस नहीं है और कोई भी सभी समाज इसकी इजाजत नहीं दे सकता है.
खासकर भारत बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में जहाँ सांप्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय तनावों, दंगों और संघर्षों का इतिहास रहा है, जहाँ सांप्रदायिक, एथनिक और क्षेत्रीय फाल्टलाइन अभी भी मौजूद हैं, वहाँ इस मामले में अतिरिक्त सतर्कता और सजगता बरतने की जरूरत है.

यही नहीं, अधिकांश लोगों का मानना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी स्वछंद या पूरी तरह निर्बंध नहीं है. यह भी सच है कि कई भगवा सांप्रदायिक संगठन और मुस्लिम समूह/व्यक्ति न्यू और सोशल मीडिया का इस्तेमाल झूठे, जहरीले और भडकाऊ सांप्रदायिक अभियान के लिए कर रहे हैं. उससे देश के कई हिस्सों में तनाव फैलने, लोगों के भडकने और डर के कारण शहर छोड़कर भागने जैसी घटनाओं की भी रिपोर्टें हैं.

लेकिन इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार जिस तरह से सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रचार को रोकने के नाम पर न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की कोशिश कर रही है, उसे अधिकांश लोगों के लिए पचा पाना मुश्किल हो रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी सबसे बड़ी वजह खुद सरकार की कमजोर साख और विश्वसनीयता है जिसके कारण लोगों को उसकी मंशा पर शक हो रहा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सरकार न्यू और सोशल मीडिया से नाराज और चिढ़ी हुई है और पिछले कई महीनों से सोशल मीडिया को काबू में करने की कोशिश कर रही है. यह भी कि सोशल मीडिया से उसकी नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संगठित करने में उसकी बड़ी भूमिका रही है.
हालाँकि सरकार शुरू से यह दावा करती रही है कि वह सोशल मीडिया पर नियंत्रण नहीं लगाना चाहती है और चाहती है कि नेटवर्किंग खुद ही सांप्रदायिक, भडकाऊ, अश्लील और मानहानिपूर्ण कंटेंट को जांच-परखकर अपलोड करें. लेकिन सरकार की मंशा शुरू से संदेह के घेरे में थी.

हैरानी की बात नहीं है कि गूगल की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट यह खुलासा करती है कि उसे भारत सरकार और दूसरी सरकारी एजेंसियों से पिछले साल जून से दिसंबर के बीच कुल १०१ निर्देश मिले जो उससे पहले की अवधि में मिले निर्देशों की तुलना में ४९ फीसदी ज्यादा थे. इनमें कुल २५५ कंटेंट को हटाने की मांग की गई थी और गूगल ने कोई २९ फीसदी निर्देशों को मानकर उस कंटेंट को हटा भी दिया.

सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि इनमें सांप्रदायिक, भडकाऊ और घृणा फैलानेवाले संदेशों की तुलना में मानहानि से संबंधित कंटेंट को हटाने की मांग दोगुनी से ज्यादा थी. सरकार के आलोचकों का आरोप है कि मानहानि के नामपर वह उसकी पोल खोलनेवाले कंटेंट को हटाने की कोशिश करती रही है.
यही कारण है कि सोशल मीडिया का सांप्रदायिक घृणा के लिए इस्तेमाल किये जाने के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले एक्टिविस्ट्स और विश्लेषक भी सरकार के ताजा फैसले के सख्त खिलाफ हैं. इसके लिए न सिर्फ सरकार की आधे-अधूरे, जल्दबाजी और मनमाने तरीके से लिया गया ताजा फैसला जिम्मेदार है बल्कि उसकी मंशा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.
असल में, आशंका यह है कि सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक घृणा फैलानेवाले संदेशों को रोकने के नामपर अगर मनमाने तरीके से कंटेंट को ब्लाक करने या सोशल नेटवर्किंग या सर्च कंपनियों पर उसे हटाने का दबाव डालने की छूट दी गई तो वह इसका इस्तेमाल अपने आलोचकों और विरोधी विचारों को दबाने के लिए करेगी.

यही नहीं, आशंका यह भी है कि अगर एक बार सरकार को यह मौका मिल गया तो वह कल नए-नए बहानों जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रद्रोह, देश की एकता और अखंडता, कानून-व्यवस्था आदि से न्यू और सोशल मीडिया को नियंत्रित और निर्देशित करने लगेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि ये ऐसे बहाने हैं जिनका दायरा बहुत व्यापक और मनमाना है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर राष्ट्रद्रोह तक की परिभाषा सरकारें मनमाने तरीके से गढ़ने लगती है.

यही नहीं, इसके बाद एक ऐसा रास्ता खुल जाएगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें इस या उस बहाने न सिर्फ न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की होड़ करने लगेंगी बल्कि उसपर सक्रिय आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी करने से बाज नहीं आएगी.
ऐसे कई उदाहरण है जब सरकार को अपने आलोचकों को दण्डित करने में कोई शर्म महसूस नहीं हुई है. बिहार में फेसबुक पर सरकार की आलोचना के आरोप में मुसाफिर बैठा और जीतेन्द्र नारायण को निलंबित करने के मामले बहुत पुराने नहीं पड़े हैं.
बुनियादी बात यह है कि न्यू और सोशल मीडिया सिर्फ माध्यम भर हैं. उनकी असली ताकत यह है कि वे लाखों-करोड़ों लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने, अपनी भावनाएं-मुद्दे-विचार शेयर करने, गोलबंद करने और सबसे बढ़कर खुलकर अपनी राय जाहिर करने की आज़ादी दे रहे हैं. लोग इसका जमकर इस्तेमाल भी कर रहे हैं.

अरब वसंत से लेकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन और भारत में भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन तक में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के पारंपरिक कारपोरेट मीडिया को मैनेज करने में कामयाब सरकारें इसे मैनेज करने में नाकाम रही हैं और उनका डर बढ़ता जा रहा है. इसीलिए वे सोशल मीडिया को नियंत्रित करने और उसपर पाबंदी लगाने के लिए रोज-रोज नए-नए बहाने ढूंढने में लगी हुई हैं.

जाहिर है कि कोई भी लोकतान्त्रिक और स्वतंत्रचेता समाज और देश इसे स्वीकार नहीं कर सकता है. अक्सर बदरंग चेहरों को सारा दोष आईने में दिखता है लेकिन क्या इस आधार पर आईने को तोड़ने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? अफसोस और चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार भी आईने को तोड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है.





('दैनिक जागरण' के मुद्दा परिशिष्ट में 26 अगस्त को प्रकाशित सम्पादित टिप्पणी का सम्पूर्ण आलेख)

मंगलवार, अगस्त 21, 2012

न्यूज मीडिया में कहाँ है असम से मानेसर तक का भारत?

चैनलों और अखबारों में भारत नहीं, 'इंडिया' दिखता और सुनाई देता है


“एक अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता हो.”
                       - आर्थर मिलर, अमेरिकी नाटककार और लेखक

कोई ५० साल पहले अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर ने एक अच्छे अखबार की परिभाषा देते हुए जो कसौटी बताई थी, उसपर अपने राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों को कसिये तो कितनों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई या सुनाई देता है? जो देश उसमें दिखाई या सुनाई देता है, वह ‘भारत’ है या ‘इंडिया’?
कहने को दर्जनों राष्ट्रीय चैनल और अखबार हैं. चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के दर्जनों कार्यक्रम हैं बल्कि सच पूछिए तो प्राइम टाइम में चर्चाएं ही चर्चाएं हैं. लेकिन क्या उनमें देश और उसके असली नुमाइंदे दिखाई और सुनाई देते हैं?
कुछ हालिया उदाहरण लीजिए. असम के बोडो इलाके में पिछले एक महीने से सांप्रदायिक हिंसा जारी है जिसमें अब तक ८० से अधिक लोगों की जान जा चुकी है जबकि चार लाख से अधिक लोग घरबार छोडकर राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं. लेकिन इसकी जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई.

वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.

इक्का-दुक्का अपवादों और मौकों को छोड़ दिया जाए तो सच यह है कि असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता है. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है.
लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर भारत के लोग किस तरह से रह रहे हैं, वहां क्या हो और चल रहा है, उनकी समस्याएं क्या हैं, वे किस बात पर नाराज हैं और उनके सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है.
हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोडिये, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओ.बी नहीं है.

क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?

लेकिन अगर असम के बोडो इलाके में फैली सांप्रदायिक हिंसा की असंतोषजनक कवरेज का कारण उसका दिल्ली से दूर और दुर्गम होना मान भी लिया जाए तो दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति की कार फैक्ट्री में श्रमिक असंतोष के बाद भडकी हिंसा में एक अधिकारी की मौत और उसके बाद श्रमिकों के दमन-उत्पीडन की लगभग एकतरफा, आधी-अधूरी और कुछ मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग का कारण क्या है?
इक्का-दुक्का रिपोर्टों को छोड़ दिया जाए तो सभी चैनल/अखबार मारुति के श्रमिकों और यूनियन के खलनायकीकरण में लगे रहे? सबका ध्यान १८ जुलाई की हिंसा की घटना पर था लेकिन किसी की दिलचस्पी उसके पीछे के कारणों को जानने में नहीं थी.
ऐसा लगा कि मानेसर और मारुति से दिल्ली और चैनलों/अखबारों की ज्यादा नजदीकी उनके मारुति और जिला प्रशासन का प्रवक्ता बन जाने में दिखाई दी. क्या यह सिर्फ संयोग है या फिर सोची-समझी संपादकीय नीति का नतीजा?

आखिर दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आसपास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करनेवाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है?

गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों. लेकिन अगर हमारे राष्ट्रीय चैनलों/अख़बारों में पूर्वोत्तर भारत और करोड़ों मजदूर नहीं हैं तो उनमें कौन सा देश दिखता और बातें करता है?

('तहलका' के 30 अगस्त के अंक में प्रकाशित टिप्पणी) 

रविवार, अगस्त 19, 2012

शिक्षा के बाजार पर कार्पोरेट की नजर

निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की तैयारी 
शिक्षा का बाजारीकरण: दूसरी किस्त 
यह एक बहुत सोची-समझी राजनीति के तहत हो रहा था. निजी शैक्षिक संस्थानों के फलने-फूलने के लिए यह जरूरी था कि न सिर्फ सरकारी संस्थानों को बर्बाद किया जाये, उन्हें बदनाम किया जाये बल्कि उनकी फीसों को भी बढ़ाया जाए ताकि निजी शैक्षिक संस्थानों को उनसे मुकाबला करने में आसानी हो.
हैरानी की बात नहीं है कि ९० के दशक में सरकारी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में फीस बढ़ाने के लिए कई सरकारी समितियां जैसे जस्टिस पुनैय्या समिति, मह्मुदुर्रहमान समिति, बिडला-अम्बानी समिति आदि गठित की गईं और फीस बढ़ाई गई. यह वही दौर था जब उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से फायदा उठानेवाला एक नव दौलतिया वर्ग पैदा हो रहा था और जो निजीकरण और बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभर रहा था.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कारपोरेट का एक बड़ा वर्ग शिक्षा में एक बड़ा बाजार और भारी मुनाफे की संभावनाएं देखने लगे थे. उनकी ओर से इस क्षेत्र को बड़ी निजी पूंजी के लिए खोलने की मांग उठने लगी थी. इसी दौरान एन.डी.ए सरकार ने शिक्षा के बारे में आगे का रोडमैप तैयार करने के लिए बिडला-अम्बानी समिति का गठन किया.

इस समिति ने शिक्षा में निजी क्षेत्र के अलावा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने की वकालत की और इसके साथ ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया ने रफ़्तार पकड़ ली. इसी दौरान देश भर में केन्द्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर निजी इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल संस्थानों के अलावा निजी विश्वविद्यालयों को बिना किसी जांच-पड़ताल और देखरेख के अनुमति देना शुरू कर दिया.

हालत यह हो गई कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सिर्फ कुछ घंटों में राज्य विधानसभा ने एक साथ २०० निजी विश्वविद्यालय खोलने की अनुमति दे दी. इसमें से अधिकांश के पास अपनी जमीन या बिल्डिंगें भी नहीं थीं और कुछ सिर्फ दो-चार कमरों तक सिमटे हुए थे. लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़ अकेला नहीं था. यहाँ तो हर राज्य में ‘रामनाम की लूट मची थी, लूट सके तो लूट’ वाली तर्ज पर शैक्षणिक संस्थानों की लूट मची हुई थी.
नतीजा, बिना जरूरी सुविधाओं, शिक्षकों, लैब-लाइब्रेरी और क्लासरूम के इंजीनियरिंग कालेज से लेकर विश्वविद्यालय तक खुल गए और छात्रों/अभिभावकों को फंसाकर लूटने में लग गए. उनको फलने-फूलने में इसलिए भी मदद मिली कि सरकारी संस्थान कम थे, उनमें सीटों की संख्या कम थी और छात्र ज्यादा थे. यह स्थिति इसलिए पैदा हुई थी कि ९० के दशक में सरकार ने आर्थिक संकट का बहाना बनाकर नए विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नहीं खोले.
जाहिर है कि इसका सबसे अधिक फायदा शिक्षा के व्यापारियों ने उठाया. लेकिन शिक्षा के निजीकरण के पहले दौर में अपेक्षाकृत छोटे-मंझोले व्यापारी-ठेकेदारों ने पूंजी लगाईं लेकिन अब उसपर बड़े कारपोरेट समूहों और विदेशी शैक्षणिक संस्थानों की निगाहें लगी हुई हैं.

औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का कुल बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है. यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूहों की इस ओर ललचाई निगाहें लगी हुई हैं. वे सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा बाहर ले जाने की मांग कर रहे हैं.

केन्द्र सरकार भी उन्हें पूरी शह दे रही है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का प्रस्ताव है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़नी चाहिए. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच प्रतियोगिता को बढ़ाने के लिए वे वाउचर व्यवस्था शुरू करने की वकालत कर रहे हैं. इसके तहत हर छात्र को उसकी फीस का पैसा सरकार वाउचर के रूप में उसे दे देगी और वह छात्र/छात्रा जिस भी संस्थान में दाखिला लेगा, उसे सरकार उस वाउचर का पैसा देगी.
अहलुवालिया के मुताबिक, अभी सरकार छात्रों/शिक्षा पर कोई ३६ हजार करोड़ रूपये खर्च कर रही है, इसे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को देने के बजाय वह सीधे छात्रों को दे देगी और छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए निजी और सरकारी संस्थानों को प्रतियोगिता करनी पड़ेगी.
यह साफ़ तौर पर चोर दरवाजे से निजीकरण और व्यवसायीकरण का प्रस्ताव है. सच यह है कि सरकारी अंकुश में बंधे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को निजी शिक्षा संस्थानों से प्रतियोगिता करने के लिए न तो संसाधन दिए जाएंगे और न ही निर्णय लेने में वह स्वायतत्ता.

यही नहीं, सारे नियम और अंकुश सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर होंगे और प्राइवेट संस्थानों को हर तीन-तिकडम की छूट होगी. दोनों के बीच प्रतियोगिता संभव ही नहीं है. रही-सही कसर विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद पूरी हो जाएगी. लेकिन सरकार प्रतियोगिता चाहती भी कहाँ है? वह तो निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की ओर बढ़ रही है.

लेकिन इसका नतीजा क्या हो रहा है? शिक्षा दिन पर दिन महंगी और गरीबों की पहुँच से बाहर होती जा रही है. यहाँ तक कि आम मध्यवर्गीय परिवारों में भी बच्चों की पढाई खासकर उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लेने की नौबत आ गई है. उन्हें अपनी सारी जमा-पूंजी बच्चों की शिक्षा पर खर्च करनी पड़ रही है. परिवारों के बजट पर दबाव बढ़ रहा है.

प्रतिभाशाली लेकिन गरीब छात्र/छात्राओं को अच्छे शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेना मुश्किल होने लगा है. यही नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है. प्रोफेशनल कोर्सेज की मांग बढ़ रही है और पारंपरिक विज्ञान और मानविकी का अध्ययन घट रहा है.

शनिवार, अगस्त 18, 2012

आर्थिक मंदी के बावजूद शिक्षा की खरीद-फरोख्त का धंधा जोरों पर है

शिक्षा का निजीकरण कोई दुर्घटना नहीं बल्कि सोची-समझी नीतियों और राजनीति का नतीजा है

शिक्षा का बाजारीकरण: पहली किस्त  

अगर आपको शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के वास्तविक मायने समझने हैं तो आप देश की राजधानी दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा की ओर या हरिद्वार या मेरठ या मुरादाबाद या जयपुर या चंडीगढ़ की ओर चलना शुरू कीजिए. सड़क के दोनों ओर आपको प्राइवेट इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, बी.एड कालेजों से लेकर निजी विश्वविद्यालयों की अंतहीन कतार दिखाई देगी.
शहर के बाहर निकलते ही सड़क के किनारे और खेतों के बीच इनकी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें और लुभाते बिलबोर्ड शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के चमकदार विज्ञापनों की तरह दिखते हैं. लेकिन यह परिघटना सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास के शहरों तक सीमित नहीं है.
सच पूछिए तो पिछले दस सालों में देश के सभी राज्यों में रीयल इस्टेट के बाद सबसे फल-फूल रहा धंधा शिक्षा का ही है. इसका सबूत यह है कि अपने शहरों से छपनेवाले अखबारों के विज्ञापनों पर गौर कीजिए, आप पायेंगे कि उनमें से ३५ से ४० फीसदी से अधिक रंगीन विज्ञापन इन्हीं निजी शैक्षणिक संस्थानों के विभिन्न फैंसी कोर्सेज के हैं.

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, अकेले दिल्ली से छपनेवाले अख़बारों/पत्रिकाओं को इन निजी शैक्षणिक संस्थानों और कोचिंग संस्थाओं से हर साह औसतन ६०० करोड़ रूपये का विज्ञापन मिल रहा है. रीयल इस्टेट के बाद सबसे अधिक विज्ञापन निजी शैक्षणिक संस्थान ही दे रहे हैं. इसे अनुमान लगाया जा सकता है कि शिक्षा निजीकरण और व्यवसायीकरण की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं.    

दरअसल, दशकों के संघर्ष के बाद दो साल पहले लागू हुए शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण ही शिक्षा की असली सच्चाई है. इसपर पर्दा डालना मुश्किल है. वैसे भारतीय राज्य ने शिक्षा को कभी भी राज्य की सार्वजनिक जिम्मेदारी नहीं माना और तमाम वायदों और घोषणाओं के बावजूद देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया.
यही नहीं, समाजवाद के ढकोसले के पीछे साजिशाना तरीके से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त किया गया और उसकी कब्र पर निजी और मुनाफाखोर शिक्षा व्यवस्था करने फलने-फूलने का मौका दिया गया.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण की परिघटना कोई ऐसी दुर्घटना नहीं है जो अनजाने में या किसी लापरवाही के कारण हो गई है. तथ्य यह है कि शिक्षा का निजीकरण एक बहुत सोची-समझी नीति और राजनीति का नतीजा है. यह राजनीति देश के एक बड़े हिस्से खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की थी.

इसके लिए जरूरी था कि दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाये जिसमें एक ओर कथित पब्लिक स्कूलों की अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था थी और दूसरी ओर, बुनियादी सुविधाओं के लिए भी तरसती सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था थी.

जाहिर है कि अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य देश के शासक वर्गों के लिए राज व्यवस्था को संभालनेवाले अफसर, प्रबंधक और दूसरे प्रोफेशनल पैदा करना था जबकि सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का मकसद क्लर्क और प्रशिक्षित श्रमिक पैदा करना था.
यह सच है कि शिक्षा में यह वर्गीय विभाजन आज़ादी के पहले से ही मौजूद था लेकिन इसके साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि आज़ाद भारत की सरकारों ने भी उन्हीं ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक नीतियों को आगे बढ़ाया जिसके खिलाफ आज़ादी की लड़ाई चली थी.
हालाँकि आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शासक वर्गों की ओर से समतापूर्ण समाज बनाने में शिक्षा को बदलाव का यंत्र बनाने की लच्छेदार बातें भी होतीं रहीं लेकिन वास्तविकता में दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही मजबूत किया गया.
इसके बावजूद आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को उतना खुलकर बढ़ावा नहीं दिया गया जितना ८० के दशक के मध्य खासकर नई शिक्षा नीति के एलान के बाद से दिया गया.

असल में, आज़ादी के बाद के शुरूआती दशकों में एक तो आज़ादी की लड़ाई और उसके बड़े सपनों और आकांक्षाओं का असर था और दूसरे, शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के लिए उतना बड़ा बाजार नहीं तैयार हुआ था जितना ८० के दशक बाद सामने आया है. इसके अलावा एक और बड़ा कारण यह है कि आज़ादी के बाद ७० और कुछ हद तक ८० के दशक तक छात्र-युवा आंदोलन बहुत मजबूत और सक्रिय था जिसने शिक्षा के निजीकरण के प्रयासों को लगातार चुनौती दी.

लेकिन ८० के दशक के मध्य में राजीव गाँधी सरकार के नेतृत्व में आई नई शिक्षा नीति ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के रास्ते की सारी रुकावटों को हटा दिया और उसे खुलकर प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. ९० के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. सरकारों ने साफ़-साफ़ कहना शुरू कर दिया कि शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है.
हालाँकि तथ्य के बतौर इसमें कोई नई बात नहीं थी लेकिन शासक वर्गों की ओर से इससे पहले इतनी स्पष्टता से अपनी जिम्मेदारी से कभी हाथ नहीं झाडा गया था. यह वही दौर था जब आर्थिक संकट का बहाना बनाकर भारतीय राज्य अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग रहा था और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक को बाजार के हवाले करने को एकमात्र विकल्प बता रहा था.
आश्चर्य नहीं कि इसी दौर में ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है’ (देयर इज नो आल्टरनेटिव-टीना फैक्टर) के तर्क के साथ नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को जोरशोर से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. इसके लिए सार्वजनिक शिक्षा की बदहाल स्थिति को भी तर्क के बतौर इस्तेमाल किया गया जबकि उनकी बदहाली के लिए सबसे ज्यादा सरकारें ही जिम्मेदार थीं.

लेकिन कहा गया कि बाजार ही बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकता है क्योंकि सरकार शिक्षा संस्थानों को चलाने में अक्षम है, उसके पास संसाधनों की भारी कमी है, शैक्षिक संस्थानों में बहुत ज्यादा राजनीति है, अनुशासनहीनता है, सरकारी स्कूलों/कालेजों/विश्वविद्यालयों के शिक्षक पढाते नहीं हैं और इससे सबसे निपट पाना सरकारों के वश की बात नहीं है.

विश्व बैंक और मुद्रा कोष की अगुवाई में निजीकरण और व्यवसायीकरण के समर्थकों ने यह भी तर्क दिया कि सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की तुलना में निजी शैक्षिक संस्थानों में ज्यादा बेहतर पढ़ाई होती है, वे फीस अधिक लेते हैं लेकिन छात्रों/अभिभावकों के प्रति जिम्मेदार होते हैं और यह भी कि लोग खुद ही निजी स्कूलों को पसंद कर रहे और उसमें अपने बच्चों को भेज रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि एक ओर निजी शैक्षिक संस्थानों के पक्ष में तर्क गढे जा रहे थे और दूसरी ओर, सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों के बजट में कटौती या अपेक्षित वृद्धि नहीं की जा रही थी. इसके अलावा आर्थिक संकट के नामपर सरकारी शैक्षिक संस्थानों की फ़ीस बढाई जा रही थी.
जारी...कल पढ़िए आगे..