युवाओं के सपनों से खिलवाड़ करती शिक्षा व्यवस्था
लेकिन युवाओं के बहुत बड़े हिस्से को मिल रही शिक्षा उन्हें कहीं नहीं ले जा रही है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास ग्रेजुएट ‘अन-इम्प्लायबल’ हैं यानी उनके पास कोई कौशल और दक्षता नहीं है. वे आफिस के मामूली कामों- नोटिंग, ड्राफ्टिंग, चिट्ठी-पत्री आदि करने में भी सक्षम नहीं है.
लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश की यह युवा शक्ति सामाजिक उथल-पुथल और अराजकता का बायस भी बन सकती है. मध्य पूर्व के देशों से लेकर पड़ोस में जारी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल का उदाहरण सबके सामने है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय युवा में बहुत धैर्य है, उसमें आत्मविश्वास भी बहुत है और विपरीत परिस्थितियों में खड़ा रहने का हौसला भी है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वह बहुत बेचैन है, वह और इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है और वह एक बेहतर कल की मांग कर रहा है.
अन्ना हजारे के आंदोलन में बड़ी संख्या में निकले युवाओं में यह बेचैनी और गुस्सा साफ़ देखा जा सकता है. इस आंदोलन ने यह भ्रम भी दूर कर दिया कि आज के भारतीय युवा को ‘आई-मी-माईसेल्फ’ से आगे कुछ नहीं दिखता है, वह ‘आई हेट पोलिटिक्स’ जनरेशन का है, वह अपने ही में सिमटा और सीमित है और उसमें कोई आदर्श आदि नहीं बचा है.
हकीकत यह है कि आज की युवा पीढ़ी ‘सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविज्म’ और संघर्ष का अपना नया मुहावरा गढ़ रही है. वह रुढियों को तोड़ रही है, बन्धनों से बाहर निकल रही है और आज़ाद ख्याल है. उसकी आज़ादी और नए ख्याल बहुतों को डरा रहे हैं.
लेकिन आज जरूरत उससे डरने की नहीं बल्कि उसके साथ संवाद की है. उसे मौके देने की जरूरत है. उसे भरोसा देने की जरूरत है. उसके साथ खड़ा होने और चलने की जरूरत है. वही हमारी-आपकी-सबकी आज़ादी को मुक्कमल बनायेंगे.
('दैनिक भाष्कर' के मधुरिमा परिशिष्ट में 15 अगस्त को प्रकाशित आलेख)
आज के युवा की तस्वीर इकहरी नहीं है. वह एक तरह का कोलाज है जिसमें
धूसर, सीपिया और श्वेत-श्याम तस्वीरों के बीच कुछ रंगीन तस्वीरें भी हैं. इसमें
गांव का युवा भी है और शहर का युवा भी है. इसमें खेती-किसानी से बाहर हर छोटे-बड़े
मौके के लिए हाथ-पैर मारता गवईं युवा भी है तो भारत से बाहर ग्रीन कार्ड और
सिलिकान वैली के सपने देखता यूथ भी है. इन दोनों छोरों के बीच छोटे शहरों और
कस्बों का वह युवा भी है जो आसमान छूते सपनों और कमतर होते मौकों के बीच पैर टिकाने
की जद्दोजहद में जुटा है.
इन सबमें कई बातें एक जैसी हैं. वे सभी सपनों और उम्मीदों से भरपूर
हैं. महत्वाकांक्षी हैं. बेचैन हैं. आत्मविश्वास से भरे हैं. कुछ नया और अलग करना
चाहते हैं. लेकिन कुछ फर्क भी हैं. इनमें से एक बहुत छोटे हिस्से को वह उच्च
शिक्षा मिल पा रही है जो बड़े मौकों के रास्ते खोलती है. लेकिन युवाओं के बहुत बड़े हिस्से को मिल रही शिक्षा उन्हें कहीं नहीं ले जा रही है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास ग्रेजुएट ‘अन-इम्प्लायबल’ हैं यानी उनके पास कोई कौशल और दक्षता नहीं है. वे आफिस के मामूली कामों- नोटिंग, ड्राफ्टिंग, चिट्ठी-पत्री आदि करने में भी सक्षम नहीं है.
यह हाल तब है जब देश में कालेज और यूनिवर्सिटी जानेवाली उम्र के
युवाओं में सिर्फ १५ फीसदी को ही कालेज या यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल पाता है. यह
सचमुच एक त्रासदी है जो आज के युवा भारत को युवा सपनों की भ्रूण हत्या के लिए
जिम्मेदार है.
याद रहे, भारत आज दुनिया के सबसे युवा देशों में है जहाँ की आबादी
में २५ साल से कम की उम्र वाले युवाओं की संख्या ५० फीसदी और ३५ वर्ष से कम की
उम्र वाले युवाओं की आबादी ७० फीसदी के आसपास है.
आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, जिस देश की भी आबादी में युवाओं की
संख्या आधी से ज्यादा पहुँच जाती है, वे देश तेजी से आर्थिक तरक्की करते हैं. शर्त
सिर्फ यह है कि देश उन युवाओं की उर्जा को रचनात्मक कामों में लगाने के लिए उपयुक्त
नीतियों के साथ तैयार हो. लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश की यह युवा शक्ति सामाजिक उथल-पुथल और अराजकता का बायस भी बन सकती है. मध्य पूर्व के देशों से लेकर पड़ोस में जारी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल का उदाहरण सबके सामने है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय युवा में बहुत धैर्य है, उसमें आत्मविश्वास भी बहुत है और विपरीत परिस्थितियों में खड़ा रहने का हौसला भी है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वह बहुत बेचैन है, वह और इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है और वह एक बेहतर कल की मांग कर रहा है.
अन्ना हजारे के आंदोलन में बड़ी संख्या में निकले युवाओं में यह बेचैनी और गुस्सा साफ़ देखा जा सकता है. इस आंदोलन ने यह भ्रम भी दूर कर दिया कि आज के भारतीय युवा को ‘आई-मी-माईसेल्फ’ से आगे कुछ नहीं दिखता है, वह ‘आई हेट पोलिटिक्स’ जनरेशन का है, वह अपने ही में सिमटा और सीमित है और उसमें कोई आदर्श आदि नहीं बचा है.
हकीकत यह है कि आज की युवा पीढ़ी ‘सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविज्म’ और संघर्ष का अपना नया मुहावरा गढ़ रही है. वह रुढियों को तोड़ रही है, बन्धनों से बाहर निकल रही है और आज़ाद ख्याल है. उसकी आज़ादी और नए ख्याल बहुतों को डरा रहे हैं.
लेकिन आज जरूरत उससे डरने की नहीं बल्कि उसके साथ संवाद की है. उसे मौके देने की जरूरत है. उसे भरोसा देने की जरूरत है. उसके साथ खड़ा होने और चलने की जरूरत है. वही हमारी-आपकी-सबकी आज़ादी को मुक्कमल बनायेंगे.
('दैनिक भाष्कर' के मधुरिमा परिशिष्ट में 15 अगस्त को प्रकाशित आलेख)
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